आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।31।।

 

सब में स्थित मानते मुझे जो भी तदरूप

कही भी हों योगी वे नित मुझमें आत्म स्वरूप।।31।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।।31।।

 

He who, being established in unity, worships Me who dwells in all beings,-that Yogi  abides in Me, whatever may be his mode of living.।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।30।।

 

लखते जो सब में मुझे,मुझमें सब संसार

मेरे लिये अमर हैं वे,मैं उनका आधार।।30।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहिए।) देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।।30।।

He who sees Me everywhere and sees everything in me, he does not become separated  from me nor do I become separated from him.  ।।30।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।29।।

 

योगी लखता,भेद बिन सबको एक समान

खुद को लख सब प्राणि में, जग को खुद सा जान।।29।।

 

भावार्थ :  सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।।29।।

 

With the mind harmonised by Yoga he sees the Self abiding in all beings and all beings  in the Self; he sees the same everywhere.।।29।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।।28।।

 

ऐसी विधि से साध मन,कर योगी अभ्यास

जाता पा सुख शांति सब परब्रम्ह के पास।।28।।

 

भावार्थ :  वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है।।28।।

 

The Yogi, always engaging the mind thus (in the practice of Yoga), freed from sins, easily enjoys the infinite bliss of contact with Brahman (the Eternal). ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌।

उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌।।27।।

 

ऐसे मन संयमित हो,रजोगुणों से हीन

योगी को दे सरस सुख करता ब्रम्ह अधीन।।27।।

 

भावार्थ :  क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।।27।।

 

Supreme bliss verily comes to this Yogi whose mind is quite peaceful, whose passion is  quieted, who has become Brahman, and who is free from sin. ।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ।।26।।

 

अस्थिर चंचल मन अगर कर सहसा प्रतिरोध

तो फिर फिर वश में करें कर कारण का शोघ।।26।।

 

भावार्थ :  यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे ।।26।।

 

From whatever cause the restless, unsteady mind wanders away, from that let him restrain it and bring it under the control of the Self alone. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।।24।।

 

संकल्पो से जन्मती कामनाओं का त्याग

मन के वशकर इंद्रियाँ,तज भौतिक अनुराग।।24।।

 

भावार्थ :  संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर।।24।।

 

Abandoning without reserve all the desires born of Sankalpa, and completely restraining  the whole group of senses by the mind from all sides. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।23।।

 

दुख की दुनियाँ से बहुत दूर योग सुख धाम

अनुष्ठान इस योग का मन का पावन काम।।23।।

भावार्थ :  जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।।23।।

 

Let that be known by the name of Yoga, the severance from union with pain. This Yoga should be practised with determination and with an unresponding mind. ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।22।।

जिस सुख से बढ़ सुख कोई  नहीं समझता और

कठिन प्रसंगों में भी वह विचलित किसी न ठौर।।22।।

 

भावार्थ :  परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता।।22।।

 

Which, having obtained, he thinks there is no other gain superior to it; wherein established, he is not moved even by heavy sorrow. ।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।।21।।

 

बौद्धिक सुख अति अतीन्द्रिय,अनुभव कर दिन रात

हो ध्यानस्थ स्वरूप में पाता प्रभु का साथ।।21।।

 

भावार्थ :  इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।।21।।

 

When he (the Yogi) feels that infinite bliss which can be grasped by the (pure) intellect and which transcends the senses, and, established wherein he never moves from the Reality . ।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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