आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌॥

किये गये हर कर्म का होता कभी न नाश

थोड़ा सा भी धर्म नित करता पाप विनाश ।।40।।

भावार्थ :   इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है।।40।।

 

In this there is no loss of effort, nor is there any harm (the production of contrary results or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one from great fear. ।।40।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।

बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

 

सांख्य योग यह,सुन जरा बुद्धियोग की बात

सुन अर्जुन! जिससे न हो तुझे कोई व्याघात।।39।।

 

भावार्थ :  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

 

This which  has  been  taught  to  thee,  is  wisdom  concerning  Sankhya.  Now  listen  to wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।38।।

 

सुख दुख को सम मान कर लाभ हानि सम जान

धर्म कार्य है युद्ध, उठ , हार औ” जीत समान।।38।।

 

भावार्थ :   जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।।38।।

 

Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin. ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ।।37।।

उठ निश्चय कर जीतने का खोया साम्राज्य

मृत्यु हुई भी तो खुला तुझे स्वर्ग का राज्य।।37।।

भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।।37।।

 

Slain, thou wilt obtain heaven; victorious, thou wilt enjoy the earth; therefore, stand up,O son of Kunti, resolved to fight!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

अवाच्यवादांश्च बहून्‌वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥

शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग

करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।

भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।।36।।

 

Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more painful than this! ।।36।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ । 35।।

 

महारथी जो समझते , तुझको वीर महान

तुझे हटे रणभूमि से देंगे क्या सम्मान ?।।35।।

 

भावार्थ :  और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।।35।।

 

The great car-warriors will think that thou hast withdrawn from the battle through fear; and thou wilt be lightly held by them who have thought much of thee. ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (34) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌।

सम्भावितस्य चाकीर्ति-र्मरणादतिरिच्यते ।।34।।

 

दीर्घ काल तक करेगें लोग तुझे बदनाम

भले व्यक्ति को,मृत्यु से अधिक दुखद यह काम।।34।।

      

भावार्थ :  तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।।34।।

 

People, too, will recount thy everlasting dishonour; and to one who has been honoured, dishonour is worse than death. ।।34।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥

यदि तू नहीं करेगा यह धर्म समय संग्राम

तो अपयश देगा तुझे यही “पाप का काम” ।।33।।

भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।।33।।

 

But, if thou wilt not fight in this righteous war, then, having abandoned thine duty and fame, thou shalt incur sin. ।।33।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌।

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ।।32।।

 

अनायास ही हैं खुले तुझे स्वर्ग के द्वार

भाग्यवान क्षत्रिय ही यह पा पाते उपहार।।32।।

      

भावार्थ :   हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।।32।।

 

Happy are the Kshatriyas, O Arjuna, who are called upon to fight in such a battle that comes of itself as an open door to heaven! ।।32।।

 

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ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )

 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।31।।

 

मन में विचलित हो न तू,अपना धर्म विचार

क्षत्रिय का तो धर्म है युद्ध ओर प्रतिकार।।31।।

 

भावार्थ :  तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।।31।।

 

Further, having regard to thy own duty, thou shouldst not waver, for there is nothing higher for a Kshatriya than a righteous war. ।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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