(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नेकी कर, यूट्यूब पर डाल…“।)
अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल… श्री प्रदीप शर्मा
होते हैं इस संसार में चंद ऐसे नेकचंद, जो नेकी तो करते हैं, लेकिन नेकी की कद्र ना करते हुए उसे दरिया में बहा देते हैं। दरिया के भाग तो देखें, नेकी की गंगा तो दरिया में बह रही है और राम, तेरी गंगा मैली हो रही है, पापियों के पाप धोते धोते। फिर भी देखिए, एक संत का चित्त कितना शुद्ध है, चलो मन, गंगा जमना तीर। हम कब नेकी की कद्र करना जानेंगे।
जिस तरह जल ही जीवन है, उसी तरह अच्छाई, जिसे हम नेकी कहते हैं, वह भी एक लुप्तप्राय सद्गुण हो चला है, इसे सुरक्षित और संरक्षित रखना ही समय की मांग है, इसे यूं ही दरिया में बहाना समझदारी नहीं।।
अच्छाई का जितना प्रचार प्रसार हो, उतना बेहतर। किताबों के ज्ञान की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है। कहां हैं आजकल ऐसे लोग ;
भला करने वाले,
भलाई किए जा।
बुराई के बदले,
दुआएं दिए जा।।
हमारा आज का सिद्धांत, जैसे को तैसा हो गया है। कोई अगर आपके एक गाल पर चांटा मारे, तो बदले में उसका मुंह तोड़ दो। नेकी गई भाड़ में। देख तेरे नेकी के दरिये की, क्या हालत हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।
कहते हैं, आज की इस दुनिया में बुराई और पाप बहुत बढ़ गया है। पाप का घड़ा तो कब का भर जाता। कुछ नेकी और कुछ नेकचंद, यानी कुछ अच्छाई और कुछ अच्छे लोग आज भी हमारे बीच हैं, जिनके पुण्य प्रताप से हम अभी तक रसातल में नहीं समाए। लोग भी थोड़े समझदार और जिम्मेदार हो चले हैं। नेकी की कद्र करने लगे हैं। कुछ लोग नेकी को आजकल दरिया में नहीं व्हाट्सएप पर अथवा फेसबुक पर भी डालने लगे हैं।।
व्हाट्सएप पर तो मानो फिर से नेकी का ही दरिया बह निकला है। व्हाट्सएप भी हैरान, परेशान, बार बार संकेत भी देने लगता है, forwarded many times, लेकिन नेकी है, जो बहती चली आ रही है। किसी ने नेकी को व्हाट्सपप से उठाकर फेसबुक पर डाल दिया। खूब लाइक, कमेंट और शेयर करने वाले मिल रहे हैं नेकी को। नेकी की इतनी पूछ परख पहले कभी नहीं हुई, जितनी आज सोशल मीडिया में हो रही है। हाल ही में एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया, एक बनेंगे, नेक बनेंगे और मुझे बिना मेरी जानकारी के उसमें शामिल भी कर लिया। जब मैंने पूछा, तो यही जवाब मिला, नेकी और पूछ पूछ।
टीवी पर दर्जनों धार्मिक चैनल इस नेक काम में लगे हुए हैं, कितने सामाजिक, धार्मिक और पारमार्थिक संगठन और एन.जी. ओ. नेकी की मशाल से जन जागृति फैला रहे हैं। लोग तो आजकल अपनी प्रकाशित पुस्तकें भी अमेजान पर डालने लगे हैं। हमारे मुकेश भाई अंबानी ने भी जिओ नेटवर्क की ऐसी नेकी की मिसाल पेश की है कि हमारा भी मन करता है, हम भी कुछ नेकी यू ट्यूब पर डाल ही दें। आपसे उम्मीद है आप हमारे चैनल को लाइक, शेयर और सब्सक्राइब अवश्य करेंगे।
आप भी आगे से ध्यान रखें, व्यर्थ दरिया में डालने के बजाए, नेकी करें और यूट्यूब पर बहाएं और दो पैसे भी कमाएं।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 272 ☆
☆ चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ… ☆
‘चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें आत्म-साक्षात्कार कराने आती हैं कि हम कहाँ हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर प्रहार करते हैं। फलत: हमें अपनी असल शक्ति का आभास होता है’ उपरोक्त पंक्तियाँ रोय टी बेनेट की प्रेरक पुस्तक ‘दी लाइट इन दी हार्ट’ से उद्धृत है। जीवन में चुनौतियाँ हमें अपनी सुप्त शक्तियों से अवगत कराती हैं कि हम में कितना साहस व उत्साह संचित है? हम उस स्थिति में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में कितने सक्षम हैं? जब हमारी कश्ती तूफ़ान में फंस जाती व हिचकोले खाती है; वह हमें भंवर से मुक्ति पाने की राह भी दर्शाती है। वास्तव में भीषण आपदाओं के समय हम वे सब कर गुज़रते हैं, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती।
सो! चुनौतियाँ, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, तूफ़ान व सुनामी की विपरीत व गगनचुंबी लहरें हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों प्रबल इच्छा-शक्ति, दृढ़-संकल्प व आत्मविश्वास का एहसास दिलाती हैं; जो सहसा प्रकट होकर हमें उस परिस्थिति व मन:स्थिति से मुक्त कराने में रामबाण सिद्ध होती हैं। परिणामतः हमारी डूबती नैया साहिल तक पहुंच जाती है। इस प्रकार चिंता नहीं, सतर्कता इसका समाधान है। नकारात्मक सोच हमारे मन में भय व शंका का भाव उत्पन्न करती है, जो तनाव व अवसाद की जनक है। यह हमें हतोत्साहित कर नाउम्मीद करती है, जिससे हमारी सकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है और हम अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच सकते।
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के अनुसार ‘हिम्मतवाला वह नहीं होता, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है; जिसने डर को जीत लिया है। सो! भय, डर व शंकाओं से मुक्त प्राणी ही वास्तव में वीर है; साहसी है, क्योंकि वह भय पर विजय प्राप्त कर लेता है।’ इस संदर्भ में सोहनलाल द्विवेदी जी की यह पंक्तियां सटीक भासती हैं ‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ यदि मानव अपनी नौका को सागर के गहरे जल में नहीं उतारेगा तो वह साहिल तक कैसे पहुंच पायेगा? मुझे स्मरण हो रही हैं वैज्ञानिक मेरी क्यूरी की वे पंक्तियां ‘जीवन देखने के लिए नहीं; समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं’– अद्भुत् व प्रेरक है कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों व चुनौतियों से डरने की आवश्यकता नहीं है; उन्हें समझने की दरक़ार है। यदि हम उन्हें समझ लेंगे तथा उनका विश्लेषण करेंगे तो हम उन आपदाओं पर विजय अवश्य प्राप्त कर लेंगे। सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से हम पथ-विचलित नहीं हो सकते और मुश्किलों से आसानी से बाहर निकल सकते हैं। यदि हम उन्हें समझ कर, सूझबूझ से उनका सांगोपांग विश्लेशण करेंगे; हम उन भीषण आपदाओं पर विजय प्राप्त कर सकेंगे।
यदि हमारे अंतर्मन में सकारात्मकता व दृढ़-संकल्प निहित है तो हम विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हो सकते। इसके लिए आवश्यकता है सुसंस्कारों की, घर-परिवार की, स्वस्थ रिश्तों की, स्नेह-सौहार्द की, समन्वय व सामंजस्य की और यही जीवन का मूलाधार है। समाजसेवी नवीन गुलिया के मतानुसार ‘सागर की हवाएं एवं संसार का कालचक्र हमारी इच्छानुसार नहीं चलते, किंतु अपने समुद्री जहाज रूपी जीवन के पलों का बहती हवा के अनुसार उचित उपयोग करके हम जीवन में सदैव अपनी इच्छित दिशा की ओर बढ़ सकते हैं।’ नियति का लिखा अटल होता है; उसे कोई नहीं टाल सकता और हवाओं के रुख को बदलना भी असंभव है। परंतु हम बहती हवा के झोंकों के अनुसार कार्य करके अपना मनचाहा प्राप्त कर सकते हैं। सो! हमें पारस्परिक फ़ासलों व मन-मुटाव को बढ़ने नहीं देना चाहिए। परिवार व दोस्त हमारे मार्गदर्शक ही नहीं; सहायक व प्रेरक के दायित्व का वहन करते हैं। परिवार वटवृक्ष है। यदि परिवार साथ है तो हम विषम परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं। इसलिए उसका मज़बूत होना आवश्यक है। समाजशास्त्री कुमार सुरेश के अनुसार ‘परिवार हमारे मनोबल को बढ़ाता है; हर संकट का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है; हमारे विश्वास व सामर्थ्य को कभी डिगने नहीं देता।’ जीवन शैली विशेषज्ञ रचना खन्ना सिंह कहती हैं कि ‘परिवार को मज़बूत बनाने के लिए हमें पारस्परिक मतभेदों को भूलना होगा; सकारात्मक चीज़ों पर फोक़स करना होगा तथा नकारात्मक बातों से दूर रहने का प्रयास करना होगा। यदि हम संबंधों को महत्व देंगे तो हमारा हर पल ख़ुशनुमा होगा। यदि बाहर युद्ध का वातावरण है, तनाव है और उन परिस्थितियों में नाव डूब रही है, तो सभी को परिवार की जीवन-रक्षक जैकेट पहनकर एक साथ बाहर निकालना होगा।’ पद्मश्री निवेदिता सिंह के विचार इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि संकल्प के साथ प्रार्थना करें ताकि वातावरण में सकारात्मक तरंगें आती रहें, क्योंकि इससे माहौल में नकारात्मकता के स्थान पर सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश पाती है और सभी दु:खों का स्वत: निवारण हो जाता है।
जीवन में यदि हम आसन्न तूफ़ानों के लिए पहले से सचेत रहते हैं; तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी पाते हैं। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, ताकतवर हो जाओगे।’ सो हमारी सोच ही हमारे भाग्य को निधारित करती है। परंतु इसके लिए हमें वक्त की कीमत को पहचानना आवश्यक है। योगवशिष्ठ के अनुसार ‘संसार की कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे सत्कर्म एवं शुद्ध पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।’
हमारा मस्तिष्क बचपन से ही चुनौतियों को समस्याएं मानना प्रारंभ करने लग जाता है और बड़े होने तक वे अवचेतन मन में इस प्रकार घर कर जाती हैं कि हम यह विचार ही नहीं कर पाते कि ‘यदि समस्याओं का अस्तित्व न होगा तो हमारी प्रगति कैसे संभव होगी? उस स्थिति में आय के स्रोत भी नहीं बढ़ेंगे।’ परंतु समस्या के साथ उसके समाधान भी जन्म ले चुके होते हैं। यदि सतही तौर पर सूझबूझ से समस्याओं से उलझा जाए; उन्हें सुलझाने से न केवल आनंद प्राप्त होगा, बल्कि गहन अनुभव भी प्राप्त होगा। नैपोलियन बोनापार्ट के शब्दों में ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर का स्थान विश्वास ले ले; तो वही समस्याएं अवसर बन जाती हैं। वे स्वयं समस्याओं का सामना विश्वास के साथ करते थे और उन्हें अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई उनके सम्मुख समस्या का ज़िक्र करता था तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि आपके पास समस्या है; तो बड़ा अवसर आ पहुंचा है। अब इस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लीक खींच दो।’ समस्या का हल हो जाने के पश्चात् व्यक्ति को मानसिक शांति, अर्थ व उपहार की प्राप्ति होती है और समस्या से भय समाप्त हो जाता है। वास्तव में ऐसा उपहार अर्थ व अवसर हैं, जो मानव की उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं।
चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें कमज़ोर बनाने नहीं; हमारा मनोबल बढ़ाने व सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने को आती हैं। सो! उनका सहर्ष स्वागत-सत्कार करो; उनसे डर कर घबराओ नहीं, बल्कि उन्हें अवसर में बदल डालो और डटकर सामना करो। इस संदर्भ में मदन मोहन मालवीय जी का यह कथन द्रष्टव्य है–’जब तक असफलता बिल्कुल छाती पर सवार न हो बैठे; दम न घोंट डाले; असफलता को स्वीकार मत करो।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार कर आगे बढ़ता है।’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का मत भी कुछ इसी प्रकार का है कि ‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि लोग आकर आपकी मदद करेंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रह जाओगे।’ भगवद्गीता में ‘कोई भी दु:ख संसार में इतना बड़ा नहीं है, जिसका कोई उपाय नहीं है।’ यदि मनुष्य जल्दी से पराजय स्वीकार न करके अपनी ओर से प्रयत्न करे, तो वह दु:खों पर आसानी से विजय प्राप्त कर सकता है। जब मन कमज़ोर होता है, परिस्थितियाँ समस्याएं बन जाती हैं; जब मन स्थिर होता है, चुनौती बन जाती हैं और जब मन मज़बूत होता है; वे अवसर बन जाती हैं। ‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना/ वरना हर शख़्स फ़ितरत से/ बादशाह होता है।’ इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखने की दुकान…“।)
अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो ईश्वर ने हर इंसान को जन्म से ही तीन-तीन दुकानों का मालिक बनाकर भेजा है, मनसा, वाचा और कर्मणा ! यानी मन, वचन और कर्म की दुकान से ही उसका और उसके परिवार का कामकाज चल जाता है, रोजी रोटी का सुगमता से बंदोबस्त हो जाता है लेकिन संसार का प्रपंच उसे और कई अन्य दुकानों से भी जोड़ देता है।
दुकान वह स्थान है जहाँ कुछ लेने के बदले कुछ दिया जाता है। लेन-देन ही व्यवहार है, दुकानदारी है। दाल रोटी और नून तेल खरीदने के लिए भी किसी दुकानदार का मुँह देखना पड़ता है। कई दुकानें प्रकृति ने भी खोल रखी हैं, जहाँ कोई ताला नहीं, कोई मालिक नहीं, बस भंडार ही भंडार है। कोई चौकीदार नहीं, कोई रोकटोक नहीं, राम की चिड़िया, राम का खेत ! सुबह प्रकृति की दुकान खुलती है, भरपूर ताज़गी, धूप ही धूप, हरियाली ही हरियाली। प्राकृतिक जल स्रोतों का भंडार, हर पल आपके द्वार।।
अक्षर ब्रह्म है ! श्रुति, स्मृति से चलकर आए पुराण को गीताप्रेस ने आज धरोहर बना दिया है। गीता प्रेस की दुकान ने बहुत कुछ लिखा हुआ प्रकाशित कर जन-मानस की सेवा ही की है। आज कितने ही लेखक, प्रकाशक, समाचार पत्र-पत्रिकाएं लेखनी के महत्व को चरितार्थ कर रहे हैं। आज मैं भी फेसबुक के ज़रिए इसी लेखनी की दुकान का एक हिस्सा हूँ।।
माँग और आपूर्ति के इस युग में भोजन के अलावा भी कई क़िस्म की भूख जिजीविषा को जाग्रत करती रहती है। उपभोक्ता संस्कृति की यह विशेषता है कि आज आपके पसंद की वस्तु आसानी से हर दुकान पर उपलब्ध है। ऐमज़ॉन ने तो इंटरनेट पर ही अपनी दुकान खोल ली है। जो चाहो सो पाओ। एक भूख पढ़ने की भी है जिसने लिखने की कई दुकानों को स्थापित कर दिया है। एक पाठक के लिए लेखक को दुकान सजानी ही पड़ती है। उसकी पसंद का सामान प्रदाय करना ही पड़ता है।
लिखने की दुकान में सिर्फ़ लेखक, एक कलम और कोरा कागज़ होता है और बाहर भीड़ लगी रहती है विचारों की, कल्पना, किस्से, कथा और संस्मरणों की। विचार एक कतार में नहीं आते। उन्हें बड़ी ज़ल्दी होती है लेखनी में समा जाने की। कुछ विचार तो भीड़ देखकर ही लौट जाते हैं। फिर कभी नहीं आते। कुछ को लेखक समझा-बुझाकर वापस ले आता है और एक रचना का सृजन होता है।।
लेखक और लेखनी का तालमेल ही लेखन है। लेखनी लेखक से क्या लिखवा ले, कुछ नहीं कह सकते। वेदव्यास और श्रीगणेश के संयुक्त प्रयास से ही एक महाकाव्य की रचना सम्भव हुई। लेखनी की दुकान में किस्से, कहानियाँ, निबंध, उपन्यास, कविता, शोध-ग्रंथ, आत्म कथा, संस्मरण सभी उपलब्ध होते हैं।
लेखनी कालांतर में गौण हो जाती है और लेखक स्थापित हो जाता है। नाम, पैसा, प्रसिद्धि, पुरस्कार, सब लेखक के हवाले। एक दो पैसे की लेखनी की क्या औकात ! लेखक बता देते अपनी जात/औकात। सरस्वती के सच्चे पुजारी ही जानते हैं एक लेखनी का कमाल, लेखक का कमाल, और शास्वत, सार्थक लेखन का कमाल।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शुभस्थ शीघ्रम…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 239 ☆शुभस्थ शीघ्रम… ☆
☆
मौन मुखरित हो रहें हैं
शब्द के बोले बिना ।
भाव जैसे शून्य लगते
नैन के खोले बिना ।।
*
धड़कने भी बात करतीं
आस अरु उम्मीद की ।
राह पर चलना सरल क्या
खाय हिचकोले बिना ।।
☆
प्रतिष्ठा का वस्त्र जीवन में कभी नहीं फटता, किन्तु वस्त्रों की बदौलत अर्जित प्रतिष्ठा, जल्दी ही तार- तार हो जाती है.
सुप्रभात में आया ये मैसेज बहुत ही सुंदर संदेश दे रहा है। लोग कहते हैं चार दिन की जिंदगी है मौज- मस्ती करो क्या जरूरत है परेशान होने की। कुछ हद तक बात सही लगती है। मन क्या करे सुंदर सजीले वस्त्र खरीदे, पुस्तके खरीदे, सत्संग में जाए, फ़िल्म देखे या मोबाइल पर चैटिंग करे?
प्रश्न तो सारे ही कठिन लग रहे हैं, एक अकेली जान अपनी तारीफ़ सुनने के लिए क्या करे क्या न करे? सभी प्रश्नों के उत्तर गूगल बाबा के पास रहते हैं सो मैंने भी उन्हीं की शरण में जाना उचित समझा, प्रतिष्ठा कैसे बढ़ाएँ सर्च करते ही एक से एक उपाय सामने आने लगे, यू ट्यूब पर तो बौछार है ऐसे वीडियो की। हमारे मन में अहंकार कहीं न कहीं छुपा बैठा होता है जो जैसे ही अवसर पाता है निकल भागता है, सो वो भी हाज़िर हो गया, उसने तुरंत दिमाग़ को संदेश दिया कि क्या सारी उमर गूगल बाबा की चाकरी में निकाल दोगे, चलो अभी यू ट्यूब पर एकाउंट बनाओ और जल्दी से मोटिवेशनल वीडियो पोस्ट करो और हाँ सभी के व्हाट्सएप एप नम्बरों पर ये लिंक ब्राडकास्ट करना न भूलना।
अब जाकर दिल को सुकून आया कि सुबह जो मैसेज पढ़ा उसे कितनी जल्दी अमल में लाया, वाह ऐसे ही लोग सम्मान पाते हैं जो तुरंत कार्य सिद्धि में जुट जाते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजकुमार…“।)
अभी अभी # 657 ⇒ राजकुमार श्री प्रदीप शर्मा
जो अंतर आज एक मुंबई के भाई और हमारे भाई में है, वही अंतर हमारे कॉलेज के एक दादा और घर के दादा अथवा दादाजी में तब होता था। जिस तब का अब जिक्र होने जा रहा है, वह आज से ५५ वर्ष पुराना है।
कॉलेज के दिन थे। रैगिंग की शुरुआत ही समझिए। हम आर्ट्स के लोग, मेडिकल कॉलेज, और इंजीनियरिग कॉलेज की रैगिंग के किस्से सुन सुनकर ही काम चला लेते थे।
कॉलेज में कुछ लोग पढ़ने आते थे, कुछ दादागिरी करने। कथित पढ़ाकू लड़के आगे की बेंच पर बैठते थे और वरिष्ठ छात्र लॉर्ड ऑफ़ द लास्ट बेंच कहलाते थे।
हमारे आज के पात्र राजकुमार भी एक ऐसे ही दादा थे।।
बद अच्छा, बदनाम बुरा !
लेकिन जिसकी जैसी इमेज एक बार बन जाती है, उसमें से बाहर निकलना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है। राजकुमार को हम आगे से सुविधा के किए राज कहेंगे। मेरा उससे कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था। उसके पिताजी एक ठेकेदार थे।
हम साइकिल पर चलने वाले, वह जीप में बैठकर कॉलेज आने वाला। उसका हमारा क्या मेल।
जिस प्रकार रजिया गुंडों में फंसती है, यह राज हमारे बीच फंस गया था। जी हां, उसने गलती से एक विषय अंग्रेजी साहित्य ले लिया था, जिसके कारण वह एक ही क्लास में कई सालों से अटका हुआ था। मुझे इस बात की जानकारी नहीं भी होती, अगर कॉलेज में यह घटना नहीं होती।।
इंग्लिश लिटरेचर नाम से ही लोग प्रभावित हो जाते थे, क्योंकि लोहिया के अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के बाद अंग्रेजी का ऐसा ही बहिष्कार शुरू हो गया था, जैसा आजकल चीनी उत्पादों का हुआ है। आज का स्वदेशी नारा, और कल का अंग्रेजी विरोधी नारा, यानी विदेशी संस्कृति से किनारा। लेकिन फिर भी तब, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला था।
मैंने हमारी लिटरेचर की क्लास में एक पिकनिक का सुझाव क्या दे दिया, पिकनिक की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही आन पड़ी। हर छात्र, प्रोफेसर से पांच पांच रुपए, हां जी सिर्फ पांच पांच रुपए जमा किए गए। हमारे वरिष्ठ प्रोफेसर चंदेल साहब के प्रभाव से सांघी बेवरेजेस का एक ट्रक आ गया, जिसमें गद्दे तकिए लगाकर शान से हमारी ट्रिप इंदौर के पास ही एक स्थान पर सानंद संपन्न हुई। लिटरेचर की सभी लड़कियां, पूरा टीचिंग स्टाफ एवं सभी छात्र शामिल लेकिन कुछ लोगों के सुझाव पर सिर्फ राज उर्फ राजकुमार को इस पिकनिक में शामिल नहीं किया गया।।
गाज तो मुझ पर ही गिरनी थी ! हम एक दिन अकेले में घेर लिए गए। आशा के विपरीत राज साहब बड़े अदब से पेश आए लेकिन उनका लहजा निहायत शिकायत भरा था। वे आहत थे, कि उनकी छवि इतनी खराब है कि उनका पिकनिक से बहिष्कार किया गया। मेरे पास कोई जवाब नहीं था, कोई सफाई नहीं थी। मैं सिर्फ शर्मिंदा था।
धीरे धीरे राज साहब का राज खुलने लगा। वे मेरे करीब आने लगे। एक दिन बोले, चार साल से इस अंग्रेजी के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहा हूं आप एक दिन मुझे पूरा मैकबेथ हिंदी में समझा दो। तब इन विषयों की गाइड अथवा कुंजी उपलब्ध नहीं होती थी। मुझे लगा, मुझे प्रायश्चित के लिए अवसर मिल रहा है। कॉफी हाउस की कुछ बैठकों में उन्हें शेक्सपीयर से अवगत करा दिया गया तथा कुछ समय रात में वे मेरे पास पढ़ने भी आए। उसके बाद उनकी गाड़ी ऐसी सरपट दौड़ी कि उन्होंने एम. ए. ही नहीं, एल एल. बी. भी कर लिया और एक सफल अधिवक्ता भी बन गए।।
अपनी बहन की खातिर उन्होंने आखरी समय तक विवाह नहीं किया। कॉलेज के भी वे असफल प्रेमी रहे जिसके कारण अवसादग्रस्त ही रहे। कभी कभी नजर आ जाते हैं। ज़िन्दगी से थके हारे से, टूटे हुए से। दिन बुरे होते हैं, हालात बुरे होते हैं, आदमी तो बुरा नहीं होता।।
श्री आलोक मिश्रा जी मूलतः रायबरेली, उत्तर प्रदेश के निवासी हैं और अब सिंगापुर के स्थाई निवासी हैं। आलोक जी सिंगापुर की एक शिपिंग कंपनी में टेक्निकल मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं | आलोक जी के दो साझा काव्य संग्रह, एक साझा ग़ज़ल संग्रह और एक साझा हिंदी हाइकु कोश प्रकाशित हो चुके हैं |
☆ आलेख ☆ महिलाओं की सुरक्षा – ज़िम्मेदार कौन? ☆ श्री आलोक मिश्रा जी ☆
मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, मैं समझता हूँ कि इससे सभी लोग सहमत नहीं होंगे, एकमत नहीं होंगे | उसकी आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि पूरे देश में अरब से भी अधिक की आबादी में सभी लोगों का किसी एक बात पर एकमत होना असंभव नहीं तो मुश्किल और असाध्य काम अवश्य लगता है | तो चलो उस पर ध्यान देने के बजाय मैं अपने विचार आप के सामने रखता हूँ |
आज जो कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है उस को ध्यान में रखते हुए चुप रहना भी ठीक नहीं है | अगर कुछ सकारात्मक बात कहने के लिए है तो मैं समझता हूँ कि वह कही जानी चाहिए, उसे लोगों के संज्ञान में लाना चाहिए | यह अलग बात है कि अगर लोगों को लगता है कि इस बात में कोई दम नहीं है, उसको बेझिझक नकार दें, अस्वीकार कर दें | इसमें कोई दुविधा वाली बात नहीं है | तो ये बात चल रही थी कि आजकल समाचार पत्रों, न्यूज़ चैनेल्स और सोशल मीडिया से पता चलता है कि महिलाओं के साथ दुष्कर्म या दुराचार की निंदनीय हरकतें बढ़ गयी हैं | इन घटनाओं पर रोक लगनी चाहिए जिससे देश में महिलाएँ अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सकें | लेकिन महवपूर्ण प्रश्न है कि यह संभव हो तो कैसे?
पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश ने आर्थिक रूप से नई उपलब्धियाँ हासिल की हैं और साल दर साल नए आयाम प्राप्त किए हैं | रोज़गार के कई नए अवसर खुल रहे हैं हमारे युवाओं के लिए | आज युवा वर्ग निजी व्यवसाय में भी आगे आ रहे हैं | देश की आर्थिक उन्नति में महिलाओं का भी बहुमूल्य योगदान रहा है | अब महिलाएँ घर की चारदीवारी के भीतर और बाहर दोनों जगह अपनी ज़िम्मेदारियाँ भली–भाँति निभा रही हैं | सेना में, फैक्ट्री में, दफ्तरों में या अन्य व्यवसाय में आज महिलाएँ उत्तम काम कर रहीं हैं | संभव है कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से उन्हें घर लौटने में देर हो जाती है | इससे महिलाओं के लिए अपनी सुरक्षा की चुनौती खड़ी हो गयी है |
अक्सर महिलाएँ दलील देती हैं कि पुरुषों को अपने मन पर काबू रखना चाहिए, महिलाओं के प्रति उन्हें अपनी नीयत साफ़ और विचार स्वच्छ रखने चाहिए | बात तो ठीक है, लेकिन यह भी सच है कि किसी और को बदलने की बजाय स्वयं को बदलना आसान है | ऐसी भी दलीलें सुनाई पड़ती हैं कि “अगर पुरुष कभी भी कहीं भी आ-जा सकता है, तो महिलाओं पर रोक लगाने का क्या औचित्य है?” मैं समझता हूँ ऐसी दलीलों का कोई अंत नहीं है और ना ही इनके कुछ सकारात्मक निष्कर्ष निकलने वाले हैं | यह तो सोचिए कि आख़िर नुक्सान किसका है?
मैं समझता हूँ कि अपने बचाव में महिलाओं को आगे आना होगा | उन्हें बहुत ज़िम्मेदारी भरे क़दम उठाने होंगे अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए | आप शायद कहना चाह रहे होंगे “क्या उनके परिधान में अंग प्रदर्शन अधिक हो रहा है या उनकी भावभंगिमा ऐसी है जिसके कारण पुरुष अनुमान लगा लेते हैं कि अमुक महिला शारीरिक सम्बन्ध के लिए इच्छुक है |” जी नहीं, मैं ना तो ऐसा कोई प्रस्ताव रख रहा हूँ और मैं इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ |
हाँ, कुछ बातें हैं जिस पर महिलाएँ अगर ध्यान दें तो स्वयं को अधिक सुरक्षित रख सकती हैं | अभी हाल ही में एक समाचार सुनने में आया कि पुणे में बस अड्डे पर खड़ी एक महिला बस का इंतज़ार कर रही थी | तभी एक लड़के ने उस के पास आकर उसको बहन कह कर संबोधित किया और पूछा ‘बहन, कहाँ जा रही हो?’ लड़की ने उसे अपने गंतव्य की जानकारी दी | उस पर लड़के ने कहा कि ‘वहाँ की बस तो दूसरी जगह से जाती है | चलिए मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ |’ वह लड़की बिना सोचे समझे एक अज्ञान व्यक्ति के साथ चल दी | उस लड़के पर सिर्फ़ इसलिए विश्वास कर लिया कि उसने लड़की को बहन कह कर संबोधित किया था | आज हर घर में लड़कियों को सिखाया जाता है कि अपने आप को संभाल कर रखो | बचपन में जब हम रेलगाड़ी से यात्रा करते थे तो माँ हमेशा कहती थीं कि रात को सोते समय अपना बैग पैरों के बीच में फंसा लेना | इस तरह के छोटे-छोटे आवश्यक निर्देश अपनी और अपने सामान की सुरक्षा की दृष्टि से माँ हमें बताती थीं और हम उनका अक्षरशः पालन भी करते थे |
दूसरे बस स्टैंड के पास पहुँच कर लड़के ने एक बस की तरफ़ इशारा कर के कहा कि यह बस तुम्हारे गाँव जायेगी | लड़की ने कहा ‘इस बस में तो अंधेरा है |’ इस पर लड़का बोला “दीदी, यात्री बस में बैठे हुए हैं | अभी थोड़ा समय है बस चलने में इसलिए ड्राईवर अभी नहीं आया | आप बैठो इस बस में | जैसे ही ड्राईवर आएगा, वह बिजली का स्विच आन कर देगा और बस में रोशनी आ जाएगी |’ सोचने वाली बात है कि अगर बस में कुछ लोग बैठे होते तो क्या वह सब साँस रोक कर चुप बैठे रहते | उसमें कुछ लोग तो निश्चित बातें करते | आज के युग में तो सबके पास मोबाईल फ़ोन हैं | अंधेरा होगा तो लोग फ़ोन की लाईट से ही बस में उजाला कर लेंगे | खाली बैठने पर लोग सोशल मीडिया में कुछ पढ़ या लिख रहे होते हैं | बहरहाल, पता नहीं वह लड़की कैसे उस लडके की बातों में आ गयी और उस अँधेरी बस में सवार हो गयी | लड़की के पीछे -पीछे वह लड़का भी बस में चढ़ गया और उस लड़की के साथ अपना मुंह काला किया |
महिलाओं को अपनी समझ बूझ का परिचय देते हुए किसी पर बिना सोचे समझे विश्वास नहीं करना चाहिए | रेलगाड़ी या बस में सफ़र करते समय यात्री अमूमन खान-पान साझा करते हैं जो समाज में आपसी भाईचारे की बेहद ख़ूबसूरत मिसाल है | लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कुछ धोखाधड़ी के मामले संज्ञान में आए हैं कि अमुक यात्री ने खाने की चीज़ में कुछ नशीले पदार्थ मिलाकर सहयात्रियों को खिला दिया और उनका सामान लेकर चंपत हो गए | महिलाओं को किसी अनजान व्यक्ति से कुछ खाद्य पदार्थ नहीं लेना चाहिए | ‘भूख नहीं है’ कहकर साफ़ मना कर देने में कुछ बुराई नहीं है |
अब एक और बात ध्यान देने योग्य है | आज कल हर छोटे-बड़े शहरों में ड्रिंक्स बार हैं जहाँ पर शराब मिलती है और नाच-गाने की व्यवस्था होती है | आज के युवा लड़के-लड़कियाँ पूरे दिन ख़ूब मेहनत से काम करने के बाद सुकून के लिए अक्सर इन ड्रिंक्स बार में दोस्तों के साथ कुछ समय बिताते हैं | अगर कोई पुरुष महिला को ड्रिंक्स ऑफर कर रहा है तो महिला को चाहिए कि ड्रिंक्स लेने से साफ़ मना कर दे | महिला को अगर ड्रिंक्स लेनी है तो ख़ुद बार काउंटर पर जाकर अपनी ड्रिंक्स ले और उसका भुक्तान भी स्वयं करे | महिला अगर शराब नहीं पीती है, तो उसे दोस्तों के बहकावे में आकर या अपनी शान दिखाने के लिए शराब नहीं पीनी चाहिए | पुरुष दोस्त या सहकर्मी के साथ कहीं जा रही हैं तो कोशिश करें कि अकेले ना जाएँ और सुनसान जगह पर कदापि ना जाएँ | होटलों में महिलाओं के अश्लील वीडियो बनाने की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं | आप कहेंगे ‘महिलाओं की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पुलिस प्रशासन पर है |” जी बिलकुल, मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ | जो भी कारन हों, सच्चाई यही है कि महलाओं के प्रति आत्याचार और दुराचार की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं |
आजकल कई महिलाएँ नौकरी करती हैं | अगर महिला का ऑफ़िस उसके घर से दूर है और रास्ता सुनसान जगह से गुज़रता है, तब कोशिश करनी चाहिए कि वह ऑफ़िस से निर्धारित समय पर निकल जाए या फिर घर से किसी को बुला ले रास्ते में साथ रहने के लिए | अगर टैक्सी ले रही हैं, तो टैक्सी का नंबर अपने घर वालों, ऑफ़िस और मित्रों को ज़रूर व्हाट्सएप्प से भेज दें जिससे कि वह टैक्सी का मार्ग ट्रैक कर सकते हैं | कुछ ऐसी भी नौकरियाँ हैं जहाँ शिफ्ट में काम होता है जैसे आई.टी. सेक्टर के कॉल सेंटर इत्यादि | अगर ऐसे काम आवश्यकतावश करने पड़ें, तो पहली कोशिश यही होनी चाहिए की रात की शिफ्ट में काम ना करें | अगर किन्हीं अपरिहार्य कारणों से ऐसा करना संभव ना हो, तो कंपनी के प्रबंधक के सामने अपनी चुनैतियों को रखें जिससे रात में कार्यस्थल के पास ही ठहरने की सुरक्षित व्यवस्थ कंपनी के प्रबंधक करें | यह भी ध्यान रखें कि रात की ड्यूटी पर आप अकेली महिला कर्मचारी ना हों |
मैं समझता हूँ ऊपर बताई गयी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख कर महिलाएँ अपने आप को सुरक्षित रख सकती हैं |
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सैटेलाइट…“।)
अभी अभी # 656 ⇒ सैटेलाइट श्री प्रदीप शर्मा
सैटेलाइट कृत्रिम उपग्रह को भी कहते हैं। हमारा मन भी तो एक तरह का सैटेलाइट ही है, जिसके जरिए हमने अपने चैनल सेट किये हुए हैं। किसी का मन २४ घंटे न्यूज में लगा है तो किसी का राजनीति में। कहीं सनसनी, सीआईडी और क्राइम पैट्रोल चल रहा है तो कहीं खाना खजाना।
स्पोर्ट्स चैनल में किसी को धोनी नजर आ रहा है तो किसी को नेटफ्लिक्स पर कोई बेहतरीन फिल्म। कुछ बड़े बूढ़े स्त्री पुरुष आस्था, संस्कार और सत्संग पर आँखें गड़ाए बैठे हैं तो कुछ युवा “पॉप पॉर्न” चबा रहे हैं।
वर्णाश्रम के अनुसार कभी जीवन के चार आश्रम होते थे। कलयुग में भी चार आश्रम ही होते हैं, जिनमें से तीन आश्रम तो आम व्यक्ति के लिए होते हैं, अनाथाश्रम, गृहस्थाश्रमऔर वृद्धाश्रम। चौथा आश्रम तो सिर्फ साधु महात्मा, महा मंडलेश्वर, जगद्गुरु और संन्यासियों का होता है।।
एक कुंआरा, शादीशुदा गृहस्थ होते होते, कब रिटायर हो जाता है, पता ही नहीं चलता। ५० वर्ष से ७५ वर्ष के बीच की एक अवस्था होती है, जिसे वानप्रस्थ कहा जाता है। अगर शास्त्र की मानें तो संन्यास अवस्था तो वानप्रस्थ के भी बाद की अवस्था है, क्योंकि तब मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानी जाती थी।
पचास वर्ष के बाद की आयु, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को समर्पित होती थी। तब कहां आज की तरह भौतिकवाद, वैज्ञानिक सोच, डिजिटल जीवन और हिन्दू मुसलमान होता था।
बस भगवान का नाम लेते रहो, क्या पता कब प्राण पखेरू उड़ जाएं। अंतिम सांस तक अगर नारायण का स्मरण है तो मुक्ति यानी मोक्ष अर्थात् जन्म मरण के बंधन से गारंटीड छुटकारा।।
मेरे पास भी मन रूपी सैटेलाइट है, जिस पर अक्सर मेरा म्यूजिक चैनल ही चला करता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। नहाते वक्त मैं रफी साहब का यह गीत गुनगुना रहा था ;
तुम एक बार मुहब्बत का इम्तहान तो लो
मेरे जुनूँ मेरी वहशत का इम्तहान तो लो …
(फिल्म बाबर १९६०)
इधर मैं गीत गुनगुना रहा था और उधर रेडियो पर यह गीत बज रहा था ;
मैने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है।
अजनबी सी हो,
मगर गैर नहीं लगती हो वहम से भी जो हो नाज़ुक वो यकीं लगती हो …
(बरसात की रात १९६०)
मुझे आश्चर्य हुआ, जो गीत मैं गुनगुना रहा हूं, उसी मूड का, उसी गायक का गीत उस समय रेडियो पर बज रहा था। यानी मेरे मन के सैटेलाइट और रेडियो की तरंगों में आपस में कुछ तो संबंध होगा ही।
ऐसी आकस्मिक घटनाओं को हम टेलीपैथी कहकर टाल देते हैं। लेकिन मेरी और रेडियो के बीच कैसी टेलीपेथी! ये दोनों गीत विलक्षण हैं, जिनकी धुन भी मिलती जुलती ही है और दोनों फिल्में सन् १९६० की ही हैं। इन दोनों गीतों के गीतकार साहिर लुधियानवी हैं, और संयोगवश इन दोनों फिल्मों के संगीतकार भी रोशन ही हैं। इसी मूड के और भी कई गीत होंगेे रफी साहब की आवाज में। मेरा मन का सैटेलाइट कभी ना कभी खोज ही निकालेगा, संगीत के सागर में गोता मारकर। आखिर हाथ तो मुझे मोती ही लगना है।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जानवर और इंसान…“।)
अभी अभी # 655 ⇒ जानवर और इंसान श्री प्रदीप शर्मा
जानवर और इंसान की तुलना नहीं की जा सकती। जब इंसान से इंसान की तुलना में राजा भोज और गंगू तेली आमने सामने आ खड़े होते हैं तो बेचारे एक जानवर की क्या बिसात ! देवताओं को दुर्लभ यह मानव देह। बड़े भाग मानुस तन पायो। लख चौरासी बाद यह मौका हाथ आता है मनुष्य जन्म का। और बेचारा जानवर, नगरी नगरी द्वारे द्वारे की तरह, योनि योनि भटकता, कीट पतंग, खग, कभी जलचर तो कभी नभचर। या फिर जानवर बन जंगल में घास चर – विचर।
यह सब मानव बुद्धि का ही तो खेल है। कभी विश्व विजय तो कभी सम्राट। तीनों लोकों तक जिसकी कीर्ति का गुणगान होता है, स्वयं ईश्वर जब मानव देह धारण कर अवतरित होता है। दुनिया का इतिहास भरा पड़ा है, मनुष्य के पुरुषार्थ और उपलब्धियों से। उसकी कैसी तुलना किसी जानवर से।।
उसके बुद्धि कौशल और बाजुओं की ताकत का क्या कोई मुकाबला करेगा। सबसे पहले उसने अपने लिए रोटी, कपड़ा और मकान तलाशा। उसने बस्ती और परिवार की नीव डाली। जब कि जानवर अपने तन ढांकने के लिए दो सूत कपड़े की व्यवस्था तक नहीं कर पाया। इंसान ने भोजन पकाकर खाना सीखा जब कि जानवर, जानवर ही रहा। बंदर तो अदरक का स्वाद नहीं जानता बाकी सृष्टि के प्राणी तो बेचारे फल, फूल, वनस्पति, कीट पतंग खा खाकर ही अपना भरण पोषण करते रहे।
जीव: जीवस्य भोजनं।
उधर शेर जंगल का राजा बन शिकार करने लगा। उसके जंगल राज में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती और उसकी व्यवस्था को पर्यावरण के लिए श्रेष्ठ ही नहीं माना गया, उसे मनुष्य ने प्रोजेक्ट टाइगर का नाम दे दिया।
और इधर अपनी सुविधा के लिए उसने जंगल काट डाले, पर्वतों पर टूरिस्ट सेंटर खोल डाले। नदियों पर बांध बना बिजली तक बना डाली। जितना जरूरी पर्यावरण, उतना ही जरूरी मानव विकास।।
जानवर ने हमेशा जानवर को ही खाया। जब भूख लगी तब ही खाया। रोज अपने दाने पानी की व्यवस्था की। अपने भोजन को किसी कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखा। भले ही शेर जंगल का राजा रहा हो। उसने अपने रहने के लिए किसी आलीशान सुविधासंपन्न पंच सितारा गुफा की व्यवस्था नहीं की। आखिर जानवर है, जानवर ही रहेगा।
और इधर मनुष्य को देखिए उसके खेल देखिए !
गुलाम, बेगम, बादशाह।
कभी शेर का शिकार करते थे तो कभी तीतर बटेर का ! और यह इंसान इतना शक्तिशाली हो गया कि जानवर को ही खाने लग गया। जानवर बेचारे के पास तो सिर्फ नुकीले दांत और नुकीले पंजे, लेकिन इंसान के पास तीर कमान और बंदूक। बेचारा जानवर क्या मुकाबला कर पाता इंसान से।।
इंसान जाग उठा और जानवर सोता ही रह गया। जानवर अगर जाग भी जाए तो कभी इंसान नहीं बन सकता और शायद बनना भी नहीं चाहता लेकिन इंसान को जानवर बनने में अधिक समय नहीं लगता। क्या भरोसा कब उसके अंदर का जानवर जाग जाए ! यह अंदर का जानवर बाहर के किसी भी जानवर से अधिक खतरनाक है। काम, क्रोध, लोभ और मोह जानवर में कहां ? लेकिन बदनाम तो जानवर को ही होना है, क्योंकि इंसान तो दूध से धुला हुआ है और जानवर क्या पता नहाता, धोता अथवा ब्रश भी करता है या नहीं। शराब पीकर आदमी अपनी पत्नी को मारे तो वह जानवर हो जाता है। वाह रे चतुर मानव और तेरी बुद्धि। युद्ध तुम लड़ो और बलि हम जानवर की। पूजा तुम करो तो भी गर्दन हमारी। कभी हम वफादार कुत्ते, तो कभी कुत्ते कमीने। वाह क्या स्तर है इंसानियत का।
बकरे की अम्मा आज भी कब तक खैर मनाएगी, घर की मुर्गी तो दाल बराबर ही कहलाएगी। वाह रे इंसान, और तेरी इंसानियत ! आसमान के पंछी तू मारकर खा जाए, समंदर की मछली भी तेरे लिए फिश करी और बातें अहिंसा और विश्व शांति की। जीव दया और गऊ सेवा की। धन्य हो हे मानव श्रेष्ठ तुम धन्य हो।
बड़ी दया होगी अगर हमारे लिए अपनी स्मार्ट सिटी में चरने के लिए थोड़ी घास छोड़ दो, अपने स्विमिंग पूल में हम पक्षियों को भी प्यास बुझाने दो। हमें अभय दो। हमें भी जीने दो। आपके ही अनुसार हममें भी ईश्वर का ही वास है।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 127 ☆ देश-परदेश – पुरानी यादें: हमारा बजाज ☆ श्री राकेश कुमार ☆
साठ के दशक में इटली का लैंब्रेटा, देश की सड़कों का बेताज बादशाह हुआ करता था। देश के औद्योगिक घराने “बजाज ग्रुप” ने लैंब्रेटा को ऐसी टक्कर दी, वो देश से नौ दो ग्यारह हो गया।
बजाज स्कूटर एक समय में मिनी कार का काम किया करता था। सत्तर के दशक में जब परिवार नियोजन का नारा “हम दो हमारे दो” का प्रचार आरंभ हुआ, तो बजाज ने नए परिवार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, “हमारा बजाज” स्कूटर लंबे समय तक देश की सड़कों का सरताज बना रहा। कई खिलाड़ी उसके मुकाबले में आए जैसे कि विजय सुपर, फाल्कन आदि, लेकिन बजाज का सामना करने में असफल रहे। वो तो बाद में मोटर साइकिल ने स्कूटर को तो प्राय-प्राय सड़कों से शून्य तक पहुंचा दिया।
हमने भी बजाज के “चेतक” नामक ब्रांड को सिल्वर जुबली मना कर विदा किया था। उसके साथ के कुछ स्कूटर आज भी जुगाड के रूप में “मालवाहक” के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।
हमारे एक मित्र तो बजाज का “प्रिया” ब्रांड का स्कूटर चार दशक से अधिक पुराने मॉडल को प्रतिदिन घर से बाहर निकाल कर इसलिए रख देते हैं, ताकि उनके घर के बाहर कोई दूसरा अपनी कार पार्क ना कर सके। वैसे उनका स्कूटर स्टार्ट हुए भी दो दशक हो चुके हैं। हद तो तब हो गई, जब उन्होंने अपने बच्चों के वैवाहिक बायो डाटा में एसेट्स के नाम पर अपने स्कूटर तक का जिक्र भी कर दिया था।
उपरोक्त फोटो एक कॉलेज के पुराने मित्र ने मियामी (अमेरिका) से प्रेषित की है, जो वहां के एक स्थानीय अमरीकी भोजनालय की है। वहां पर बजाज स्कूटर एक शो पीस का काम कर रहा है। उसने तो मज़ाक मज़ाक में ये भी कह दिया कि यदि हमारा चार दशक पुराना चेतक स्कूटर उपलब्ध हो तो उसे भी अमेरिका के किसी भोजनालय में उचित सम्मान और दाम मिल जायेगा।
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
अक्सर घरों में किसी के निधन के बाद उसकीं पुण्यतिथि मनाई जाती हैं और सार्मथ्य अनुसार दान-पुण्य किया जाता हैं ताकि आत्मा को शांति मिले।
मगर हर तबके में एक मृत्यु के बाद ना तो पुण्यतिथि मनाई जाती हैं न ही आँसू बहाये जाते हैं और ना ही दान पुण्य होता है क्योंकि मृतका माँ के कोख में ही दम तोड़ देती है।
बात कड़वी हैं लेकिन 100% सही है।
जी हाँ मैं बात कर रहीं हूँ माँ के उस गर्भ की जो पुत्र मोह के लिए पुत्री के हत्या से रंग जाते हैं।
कहते है कंस अपनी बहन के बच्चों की हत्या जन्म के बाद कारागार में करता रहा क्योंकि उसे डर था अपने प्राणों का।
मगर माँ के गर्भ गृह में मारने वाला कंस कौन है?
वह भी अपने अबोध अंश का, उसे किसी का डर नहीं।
बस पुत्र रत्न प्राप्ति की अभिलाषा और यही से शुरू होने लगता है, पाप-पुण्य का वह खेल जो मानव रुपी पिता से वह अपराध करवाने लगता है जो ना चाह कर भी माता पिता कर बैठते हैं।
खैर मेरा काम था लिखना।
क्योंकि गीता -कुरान बाकी धार्मिक किताबों में केवल लिखा गया है बाकी तो सभी समझदार हैं ही।
अपने आंगन के नन्ही दूब को फैलने दें।
कोई फर्क नहीं पड़ता समाज को कि आपके घर बेटा है या बेटी!
उन्हें अपने हाथों से कुचलने की चेष्टा ना करें🙏
सृष्टि हैं तभी शिव हैं वरना पत्थरों पे फूल खिलते नहीं।
अजन्मा- भ्रूण हत्या
व्यक्तिगत सोच है, मजबूरी नहीं
फिर खुद के हाथों
अपनी उस कली को कैसे कुचल सकते हैं?
जिसके अंदर हमारा रक्त यहाँ तक कि धडकन भी साथ-साथ धड़क रही हो और वह नन्ही सी जान हाथों में आने के लिए पल- पल प्रतीक्षा कर रही हो।
माँ तो मिट्टी से बनी हुई दुर्गा की वह प्रतिमा होती है जिसका स्वभाव ही मातृत्व फिर अपने कोख की रक्षा करने में असर्मथ कैसे हो सकती है? क्योंकि पुरुष के साथ साथ वंश की चाहत प्रंचड हावी स्त्री मन में भी होती है।
और अंधकार में छोटी सी पवित्र लौ अपनी अस्तित्व खो देती है।
अगर स्त्री स्वयं के भ्रूण हत्या को होने से नहीं बचा सकती तो उसे फिर माँ कहलाने का हक कैसा?
माँ तो जननी होती है। उसके लिए पुत्र और पुत्री का क्या भेद?