हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 488 ⇒ विचार व्यक्त और अव्यक्त ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार व्यक्त और अव्यक्त…”।)

?अभी अभी # 488 ⇒ विचार व्यक्त और अव्यक्त? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आपके विचारों पर आपका एकछत्र अधिकार है, आधिपत्य है। जब तक आप किसी से अपने विचार व्यक्त नहीं करते तब तक वह आपकी ही धरोहर है। जो विचार व्यक्त ही नहीं हुए उनका अस्तित्व नहीं के बराबर ही है। जब तक मैं अपने मन की बात आपसे नहीं कहूं, आप नहीं जान सकते मेरे मन में क्या है। इसी तरह आपके मन में क्या है मैं नहीं जान सकता अगर आप मुझे नहीं कहें।

श्रुति, स्मृति और पुराण क्या हैं, विचारों का प्रकटीकरण ही तो है। ‌

मस्तिष्क हमारा थिंक टैंक ही नहीं, स्मृति का भंडार भी है। जब तक किसी भी माध्यम के जरिए कोई विचार प्रकट नहीं होता वह इस चेतन जगत का हिस्सा नहीं बन सकता। कहते हैं विचार कभी मरता नहीं, और तो और हमारे द्वारा बोले गए शब्द केवल बोलने के बाद ही गायब नहीं हो जाते, वे वातावरण में विलीन हो जाते हैं। क्या गायब होने और विलीन होने में कुछ अंतर है। ये वादियां ये फिज़ाएं बुला रही है तुम्हें।।

सांस के आने जाने और दिल की धड़कन की तरह, हमारे मन में, विचार भी आते जाते रहते हैं। हम जब स्कूल में सुबह प्रार्थना करते थे तब प्रार्थना करते-करते मन में बहुत कुछ सोच लिया करते थे।

मास्टर जी कहते थे पढ़ाई मन लगाकर करो लेकिन मन था जो कहीं और ही पतंग उड़ाया रहता था।

चित्त की एक अवस्था होती है जिसे कहते हैं दिवा स्वप्न देखना, यानी डे- ड्रीमिंग।

किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति के बारे में आवश्यकता से अधिक सोचना दिवा स्वप्न के अलावा कुछ नहीं। वैसे भी अधिक सोचना चिंता को आमंत्रण देना है। चिंता, चिता से कम नहीं। इसीलिए चिंता के बजाय चिंतन की सलाह दी जाती है।।

जो लोग कम सोचते हैं उनका ध्यान अच्छा लगता है। ध्यान अनुभूति की अवस्था है अभिव्यक्ति की नहीं। सभी कलाएं मात्र अभिव्यक्ति ही नहीं, सृजन का भी उत्कृष्ट माध्यम है।

व्यक्त विचार ही किसी को चिंतक विचारक अथवा दार्शनिक बना सकता है।

जो विचार व्यक्त नहीं होता क्या उसका अस्तित्व नहीं होता। इस सांसारिक जगत के लिए भले ही उसका अस्तित्व ना हो लेकिन वही विचार जब ध्यान और समाधि की राह पकड़ लेता है, तो एक अंदर का जगत प्रकट हो जाता है, जो व्यक्ति को मन के पार ले जाता है। लेकिन उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह ही वास्तव में अव्यक्त है, अबूझा है, अनूठा है, अनमोल है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 259 – श्राद्ध पक्ष के निमित्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 259 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त… ?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को  खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से  प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।

दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?

बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,

यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 487 ⇒ एकांगी प्रेम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकांगी प्रेम।)

?अभी अभी # 487 ⇒ एकांगी प्रेम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ये रास्ते हैं प्यार के, कहीं खुली सड़क है, तो कहीं साजन की गलियां हैं। प्रेम की गली को तो बहुत ही संकरी बताया गया है। प्रेम कहीं आलंबन है तो कहीं बंधन। यहां धोखा भी है रुसवाई भी। यहीं सूर भी है और मीराबाई भी।

ताली भले ही एक हाथ से नहीं बजती हो, प्यार का आवागमन तो नो व्हीकल जोन में भी देखा जा सकता है। जहां हवा में और सांसों में भी प्यार की खुशबू हो, वहां वादियों में भी शहनाई की गूंज सुनाई देती है। ये किसने गीत छेड़ा।।

प्यार एक आकर्षण है, भक्ति इसी का परिष्कृत स्वरूप है। कहते हैं प्यार में लेन देन होता है, दिल दिया और दिल लिया जाता है। कुछ इसे सौदा भी कहते हैं, और कुछ व्यापार भी। लेकिन कुछ लुटेरे अगर दिल ही लूटकर ले जाए, तो किससे शिकायत की जा सके, कौन से थाने में रपट लिखाई जा सके।

कहते हैं, प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। आज तक ऐसा कोई रिमोट कंट्रोल देखने में नहीं आया, जिसे दबाने से किसी का प्यार जाग जाए। यहां सिर्फ दिल की धड़कन सुनी जाती है, घड़ी की तरह जब दो दिल एक साथ धड़कते हैं, तो प्रेम का श्रीगणेश हो जाता है।।

प्रेम एक सहज अभिव्यक्ति है, जिसमें निष्ठा, त्याग, समर्पण और आसक्ति भी है। प्रेम खुद से नहीं किया जा सकता। ईश्वर भी अगर केवल अपने आप से ही प्रेम करता तो इस सृष्टि का सृजन ही नहीं होता। सृजन का नाम ही प्रेम है। मां का अपनी संतान के प्रति प्रेम नैसर्गिक प्रेम है, जिसमें ममता का भाव है। माता पिता का बच्चों के प्रति जो प्रेम होता है उसमें प्रेम के साथ कर्तव्य भी शामिल होता है तो पति पत्नी के बीच प्रेम के साथ समर्पण भी देखा जा सकता है।

कहते हैं, एक उम्र में सबको प्रेम होता है, कहीं प्रेम का पौधा पल्लवित होता है, तो कहीं सूख जाता है। यह जरूरी नहीं कि आप जिसे चाहें, वह भी आपको ही चाहे। उसको आपके प्रेम की परवाह नहीं, तो क्या आपका यह प्रेम एकांगी नहीं हुआ। तब आप क्या करेंगे, उफ ना करेंगे, लब सी लेंगे, आंसू पी लेंगे। दुनिया में आग लगाने से तो रहे।।

प्यार में इंसान या तो पागल होता है, या फिर दीवाना। कवि और शायर प्यार का मीठा अथवा कड़वा घूंट पिए बिना नहीं रह सकते। शायर तो कह उठता है,

तुम अगर मुझको न चाहो, तो कोई बात नहीं। तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी।

समझ में नहीं आता, यह शिकायत है या धमकी।

कुछ त्यागी किस्म के एकतरफा आदर्श प्रेमी भी होते हैं। उनकी प्रेम की ऊंचाई तो देखिए जरा !

तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक है तुमको। मेरी बात और है, मैने तो मोहब्बत की है।।

प्रेम के कई स्वरूप हैं। दया, ममता, करुणा, भक्ति भाव, और समर्पण सभी में प्रेम तत्व समाया हुआ है।

Work is worship यानी कहीं कर्म में ही ईश्वर को खोजा जा रहा है। अल्कोल्हिक की तरह लोग वर्कोल्हिक भी होने लग गए हैं। काम प्यारा होता है, चाम नहीं। इन्हें कोई समझाए, सुबह और शाम, क्यूं नहीं लेते भैया, प्यार का नाम।

सफलता और असफलता प्रेम में भी होती है। अपेक्षा और उपेक्षा का खेल यहां भी चलता है। कहीं प्रेम प्रकट होता है तो कहीं उस पर संकोच, हिचक, हया और उदासीनता का पर्दा पड़ा रहता है। खुलकर प्रेम करने के लिए खुलकर हंसना पड़ता है। कुछ लोग जो केवल मुस्कुराकर रह जाते हैं उनका प्रेम भी दो कदम आगे नहीं पड़ पाता।

प्रेम के खुले प्रदर्शन के प्रति उदासीनता का भाव एक गंभीर और परिपक्व किस्म के प्रेम का परिचायक होता है, जिसे बहुत कम महिलाएं समझ पाती हैं। प्रदर्शन में कितना सच है और कितना बनावटीपन और दिखावा, कौन जान सकता है।।

नारेद भक्ति सूत्र में नवधा भक्ति का रहस्य है। प्रेम पुजारी तो कई हैं, लेकिन संत वेलेंटाइन की तरह वृंदावन के कृष्ण कन्हैया के पश्चात् आज प्रेम का पाठ पढ़ाने वाला कोई नहीं। अंदर नफरत और ऊपर से दिखावटी प्यार की यह औपचारिकता फिर भी हम निभाते ही चले आ रहे हैं।

आओ प्यार करें..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख ☆ स्व. लता मंगेशकर ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है  स्व लता मंगेशकर जी  पर आपका आलेख )

(२८ सप्टेंबर १९२९- ६ फेब्रुवारी २०२२)

? आलेख ☆ स्व. लता मंगेशकर ☆ श्री सुरेश पटवा ?

पथिक ने स्टेट बैंक सेंट्रल आफिस में पोस्टिंग के दौरान दो-तीन साल मुंबई में गुज़ारे हैं। वह कभी-कभी लता जी के दर्शन हेतु गिरगांव चौपटी से होता हुआ पेद्दर रोड़ पर जाकर खड़ा हो जाता था। एक दिन शनिवार को लता जी ने भीड़ को उनके अपार्टमेंट से हाथ हिलाकर अभिवादन किया। पथिक भीड़ में मौजूद था। उसने उनकी ज़िंदगी के सफ़े खोलना शुरू किए।

भारत में ऐसा कोई आदमी नहीं होगा जिसने लता मंगेशकर के गीतों में डूबकर अपने प्रेम, आनंद, दुःख, हताशा, विदाई को न जिया हो। आज़ाद भारत का एक अजूबा थीं लता। आदमी तो आदमी पशु भी उनके गायन के दीवाने हैं।

मुंबई और पूना के बीच गायों का एक उच्च तकनीक से सज्जित वातानुकूलित फार्म हाउस है जिसमें गायों को काजू किसमिस बादाम पिस्ता खिलाया जाता है। उन्हें लता जी के गाने सुनाए जाते हैं। वहाँ एक प्रयोग किया गया। जिस दिन उन्हें लता गाने नहीं सुनाए उन्होंने दूध रोक लिया।

लता की जादुई आवाज़ के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरी दुनिया में दीवाने हैं। टाईम पत्रिका ने उन्हें भारतीय पार्श्वगायन की अपरिहार्य और एकछत्र साम्राज्ञी स्वीकार किया है।

लता मंगेशकर भारत की सबसे लोकप्रिय और सम्मानित गायिका हैं, जिनका छ: दशकों का पार्श्व गायन उपलब्धियों से भरा पड़ा है। लता जी ने लगभग तीस से ज्यादा भाषाओं में फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी गाने गाये हैं लेकिन उनकी पहचान भारतीय सिनेमा में एक पार्श्वगायक के रूप में रही है। अपनी बहन आशा भोंसले के साथ लता जी का फ़िल्मी गायन में सबसे बड़ा योगदान रहा है।

लता का जन्म मराठा परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के नज़दीक महू में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार की सबसे बड़ी बेटी के रूप में 28 सितंबर, 1929 को हुआ। उनके पिता रंगमंच के कलाकार और गायक थे। इनके परिवार से भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनों उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोंसले सभी ने संगीत को ही अपनी आजीविका के लिये चुना।

हालाँकि लता का जन्म महू में हुआ था लेकिन उनकी परवरिश महाराष्ट्र में हुई। लता ने पाँच साल की उम्र से पिता के साथ एक रंगमंच कलाकार के रूप में अभिनय करना शुरु कर दिया था।

जब उनके पिता की 1942 में हृदय रोग से मृत्यु हो गई। उस समय इनकी आयु मात्र तेरह वर्ष थी. भाई बहिनों में बड़ी होने के कारण परिवार की जिम्मेदारी का बोझ उनके कंधों पर आ गया था. दूसरी ओर उन्हें अपने करियर की तलाश भी थी। उन्हें बहुत आर्थिक किल्लत झेलनी पड़ी और काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की वज़ह से पैसों के लिये उन्हें कुछ हिन्दी और मराठी फ़िल्मों में काम करना पड़ा।

नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और मंगेशकर परिवार के करीबी दोस्त मास्टर विनायक (विनायक दामोदर कर्नाटकी) ने उनके परिवार के देखभाल की ज़िम्मेदारी को निभाया। उन्होंने लता को एक गायक और अभिनेत्री के रूप में अपना काम शुरू करने में मददगार की भूमिका निभाई।

लता ने “नाचू या गाड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी” गीत गाया था, जिसे सदाशिवराव नेवरेकर ने वसंत जोगलेकर की मराठी फिल्म किटी हसाल (1942) के लिए संगीतबद्ध किया था, लेकिन उस गीत को अंतिम कट से हटा दिया गया था। विनायक ने उन्हें नवयुग चित्रपट की मराठी फिल्म पहिली ‘मंगला-गौर’ (1942) में एक छोटी भूमिका दी, जिसमें उन्होंने “नताली चैत्रची नवलई” गाया, जिसे दादा चंदेकर ने संगीतबद्ध किया था। उन्होंने मराठी फिल्म गजभाऊ (1943) के लिए उनका पहला हिंदी गीत “माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू” गाया था।

जब मास्टर विनायक की कंपनी ने अपना मुख्यालय 1945 में मुंबई स्थानांतरित कर दिया तब लता भी मुंबई पहुँच गईं। उन्होंने भिंडीबाजार घराने के उस्ताद अमन अली खान से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। उन्होंने वसंत जोगलेकर की हिंदी भाषा की फिल्म ‘आप की सेवा में’ (1946) के लिए “पा लगून कर जोरी” गाया, जिसे दत्ता दावजेकर ने संगीतबद्ध किया था। फिल्म में नृत्य रोहिणी भाटे ने किया था जो बाद में एक प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना बनीं। लता और उनकी बहन आशा ने विनायक की पहली हिंदी भाषा की फिल्म ‘बड़ी माँ’ (1945) में छोटी भूमिकाएँ निभाईं। उस फिल्म में, लता ने एक भजन “माता तेरे चरणों में” भी गाया था। विनायक की दूसरी हिंदी भाषा की फिल्म ‘सुभद्रा’ (1946) की रिकॉर्डिंग के दौरान उनका संगीत निर्देशक वसंत देसाई से परिचय हुआ।

अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फ़िल्म ‘पाहिली मंगलागौर’ (1942) रही, जिसमें उन्होंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने कई फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी माँ (1945), जीवन यात्रा (1946), माँद (1948), छत्रपति शिवाजी (1952) शामिल थी। बड़ी माँ, में लता ने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया और उसके छोटी बहन की भूमिका आशा भोंसले ने निभाई। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये और आशा के लिये पार्श्वगायन किया।

1945 में उस्ताद ग़ुलाम हैदर (जिन्होंने पहले नूरजहाँ की खोज की थी) अपनी आनेवाली फ़िल्म के लिये लता को एक निर्माता के स्टूडियो ले गये। फ़िल्म में कामिनी कौशल मुख्य भूमिका निभा रही थी। वे चाहते थे कि लता उस फ़िल्म के लिये पार्श्वगायन करे। लेकिन गुलाम हैदर को निराशा हाथ लगी। 1947 में वसंत जोगलेकर ने अपनी फ़िल्म आपकी सेवा में लता को गाने का मौका दिया। इस फ़िल्म के गानों से लता की खूब चर्चा हुई। इसके बाद लता ने मज़बूर फ़िल्म के गानों “अंग्रेजी छोरा चला गया” और “दिल मेरा तोड़ा हाय मुझे कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने” जैसे गानों से अपनी स्थिती सुदृढ की। हालाँकि इसके बावज़ूद लता को उस खास हिट की अभी भी तलाश थी।

1949 में लता को ऐसा मौका फ़िल्म “महल” के “आयेगा आनेवाला” गीत से मिला। इस गीत को उस समय की सबसे खूबसूरत और चर्चित अभिनेत्री मधुबाला पर फ़िल्माया गया था। यह फ़िल्म अत्यंत सफल रही थी और लता तथा मधुबाला दोनों के लिये मील का पत्थर सिद्ध हुई। इसके बाद लता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वो चली गईं।

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले, कासों करूं पुकार ॥

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 486 ⇒ आस्था के आयाम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आस्था के आयाम।)

?अभी अभी # 486 ⇒ आस्था के आयाम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आस्था, आत्मा का आलंबन है ! अपने अलावा किसी और के अस्तित्व का इस्तेकबाल है आस्था। आस्था एक ऐसा कपालभाति व्यायाम है, जिसमें अपने आराध्य को सुबह-शाम श्रद्धा की अगरबत्ती लगाई जाती है, अनुलोम-विलोम की तरह उसका मन ही मन गुणगान किया जाता है, और जब यह आस्था भक्ति में परिवर्तित हो जाती है, तो भस्रिका की तरह साँसों में गतिशील हो जाती है।

आस्था आत्मा का सुबह का नाश्ता है। प्रातः उठते ही जब हम किसी अज्ञात शक्ति को नमन करते हैं, तो यह एक तरह से यह हमारी अस्मिता और अहंकार का समर्पण है। कोई तो है, जो हमारे हम से कम नहीं।।

यह आस्था की सुबह है ! एक बार मुँह धोने के बहाने देखा, और आस्था को आसक्ति ने ढँक लिया ! यह अनजाने ही होता है। अपना चेहरा किसी को बुरा नहीं लगता। बढ़ती उम्र के साथ चेहरे पर छाई झुर्रियों को, सौंदर्य प्रसाधनों से छुपाया जाता है, सफ़ेद होते बालों पर हिज़ाब लगाया जाता है। यह खुद पर खुद का विश्वास है। एक तरह का आत्म-विश्वास है, जिजीविषा है, जिसका एक ठोस आधार है, हम किसी से कम नहीं।

आस्था के कई सोपान हैं ! बचपन में जो माता-पिता, गुरुजन और अपने इष्ट के प्रति है वही आस्था उत्तरोत्तर विकसित व पल्लवित हो, आदर्श एवं संस्कार का रूप धारण कर लेती है। यही आस्था उसे आत्म-कल्याण हेतु किसी मार्गदर्शक, रहबर अथवा सद्गुरु के चरणों तक ले जाती है।।

जब जीवन में कभी आस्था पर चोट पहुँचती है, मनुष्य का नैतिक धरातल डगमगा जाता है। जब किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ होता है, उसकी आत्मा पर ज़बर्दस्त आघात पहुंचता है। मनुष्य के नैतिक पतन का मुख्य कारण उसकी आस्था का कमज़ोर होना है।

ऐसी परिस्थिति में आस्था का स्थान अनास्था ले लेती है। जो आस्था दुःख के पहाड़ को गिरधर गोपाल की भाँति एक अंगुली पर धारण करने में सक्षम होती है, अनास्था के बादल के छाते ही रणछोड़ की तरह मैदान से भाग खड़ी होती है। आप सब कुछ करें, लेकिन जीवन में कभी किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ ना करें। आस्था ही आकाश है, आस्था ही जीवन ! आस्था अमूल्य है, अमिट है। आस्था ही ईश्वर है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #251 ☆ सार्थक सोच बनाम सफलता ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सार्थक सोच बनाम सफलता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 251 ☆

☆ सार्थक सोच बनाम सफलता ☆

‘दु:ख के दस्तावेज़ हों या सुख के कागजा़त/ ध्यान से देखोगे तो नीचे ख़ुद के ही दस्तख़त  पाओगे’ से स्पष्ट है कि मानव अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। दूसरे शब्दों में वह भाग्य-विधाता है। परंतु यदि वह सत्कर्म करता है तो उसे अच्छा फल मिलेगा और यदि वह किसी का अहित अर्थात् बुरे कर्म करता है तो उसका फल भी बुरा व हानिकारक होगा। उसकी निंदा होगी, क्योंकि जैसे वह कर्म करेगा, वैसा ही फल पाएगा। जीवन में यदि आप किसी का भला करेंगे, तो भला होगा, क्योंकि भला का उल्टा लाभ होता है। यदि जीवन में किसी पर दया करोगे तो वह याद करेगा, क्योंकि दया का उल्टा याद होता है। सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आप परहित व करुणा की राह अपनाते हैं या दूसरों के अधिकारों का हनन कर गलत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं।

सो! अपने कर्मों के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं।

हमें सोच-समझकर यह देख लेना चाहिए कि जो कार्य हमारे लिए हितकारक हैं, उनसे किसी का अहित व हानि तो नहीं हो रही, क्योंकि अधिकार व कर्त्तव्य अन्योश्रित हैं। जो हमारे अधिकार हैं, दूसरों के कर्त्तव्य हैं और दूसरों के कर्त्तव्य हमारे अधिकार। सो! हमारे लिए मौलिक अधिकारों के सैद्धांतिक के पक्ष को समझना अत्यंत आवश्यक है।

सुख-दु:ख मेहमान हैं। थोड़ा समय ठहरने के पश्चात् लौट जाते हैं। इसलिए उनसे घबराना कैसा? ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् परिवर्तन सृष्टि का नियम है। प्रकृति के

सभी उपादान यथासमय अपने-अपने कार्य में रत रहते हैं। आवश्यकता है, इनसे प्रेरित होने की– सूर्य अकेला रोज़ चमकता है और उसकी आभा कभी कम नहीं होती। चांद-सितारे भी समय पर उदित व अस्त होते हैं तथा कभी थकते नहीं। मौसम भी क्रमानुसार बदलते रहते हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए, क्योंकि जो आया है; उसका लौट जाना निश्चित् है।

महत्वपूर्ण सफलताएं ना तो भाग्य से मिलती हैं; ना ही सस्ती पगडंडियों के सहारे काल्पनिक उड़ान भरने से मिलती हैं। उसके लिए योजनाबद्ध ढंग से अनवरत पुरुषार्थ व परिश्रम करना पड़ता है। योग्यता बढ़ाना, साधन जुटाना और बिना थके साहस-पूर्वक अनवरत श्रम करते रहना– सफलता के तीन उद्गम स्त्रोत हैं। इसलिए कहा जाता है–हिम्मत से हारना, लेकिन हिम्मत कभी मत हारना अर्थात् अभिमन्यु की सोच आज भी सार्थक है। मूलत: दृढ़-निश्चय, अनवरत परिश्रम, योग्यता बढ़ाना व साधन जुटाना सफलता के सोपान हैं।

सीखना बंद मत करो, क्योंकि ज़िंदगी सबक देना कभी बंद नहीं करती– के माध्यम से मानव को निरंतर परिश्रम व अभ्यास करने का संदेश प्रेषित करती है। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ उक्ति सदैव आशान्वित रहने का संदेश देती है और हमारी सोच ही हमारी सफलता की कारक है। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ हमारी सोच पर प्रकाश डालती है। इसलिए कहा जाता है कि ‘नज़र बदलिए, नज़ारे स्वयं बदल जाएंगे।’ सौंदर्य भी दृष्टा के नेत्रों में निहित होता है। इसलिए जो अच्छा लगे, उसे अपना लो; शेष को छोड़ दो। उस पर ध्यान व अहमियत मत दो तथा उसके बारे में सोचो व चिंतन-मनन मत करो। इस तथ्य से भी आप वाक़िफ़ होंगे कि ‘समय से पहले व भाग्य से अधिक इंसान को कभी कुछ नहीं मिलता।’ इसलिए सृष्टि नियंता के न्याय पर विश्वास रखो। उसके यहाँ न्याय व देर तो है; अंधेर नहीं और आपके भाग्य में जो लिखा है, आपको मिलकर ही रहेगा। ‘माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय’ उक्ति में अकाट्य सत्य  समाहित है।

गीता में भी भगवान कृष्ण यही कहते हैं कि हमें अपने कर्मों का फल जन्म- जन्मांतर तक अवश्य झेलना पड़ता है और उसके प्रकोप से कोई भी बच नहीं सकता। स्वरचित पंक्तियाँ ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे/ सिर्फ़ यही तेरे साथ जाएगा। शेष सब इस धरा का, धरा पर धरा रह जाएगा’… और एक दिन यह हंसा देह को छोड़ उड़ जाएगा।  कौन जानता है, मानव को इस संसार में कब तक ठहरना है? ‘यह किराए का मकाँ है, कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘जिंदगी का अजब फ़साना है/ इसका मतलब तो आना और जाना है’ मानव जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालती हैं। यह सृष्टि का निरंतर क्रम है। सो! उसका शोक नहीं करना चाहिए। यदि कोई हमारी ग़लतियों निकलता है, तो हमें खुश होना चाहिए, क्योंकि कोई तो है जो हमें पूर्ण दोष-रहित बनाने के लिए अपना समय दे रहा है। वास्तव में वह हमारा सबसे बड़ा हितैषी है, क्योंकि वह स्वयं से अधिक हमारे हित की कामना करता है, चिंता करता है।

‘ऐ ज़िंदगी! मुश्किलों के सदा हल दे/ थक ना सकें हम/ फ़ुरसत के कुछ पल दे/ दुआ यही है दिल से/ कि जो सुख है आज/ उससे भी बेहतर कल दे।’ यही है जीवन जीने की कला, जिसमें मानव ज़िंदगी से मुश्किलों व आपदाओं का सामना करने का हल माँगता है और निरंतर परिश्रम करना चाहता है। वह सबके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है और अपने कल को बेहतर बनाने का हर संभव प्रयास करता व तमन्ना रखता है।

‘ख्वाब भले टूटते रहें/ मगर हौसले फिर भी ज़िंदा हों/ हौसला अपना ऐसा रखो/ कि मुश्किलें भी शर्मिंदा हों।’ मानव को साहसपूर्वक कठिनाइयों व आपदाओं का सामना करना चाहिए, क्योंकि ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती’ और कबीर के ‘मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारा बैठ’ में कितना भाव-साम्य है। ख्वाब भले पूरे न हों, मगर हौसला कभी भी टूटना नहीं चाहिए अर्थात् मानव को निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। ‘सोचने से कहाँ मिलते हैं तमन्ना के शहर/ चलने की ज़िद भी ज़रूरी है मंज़िलों के लिए।’ इसलिए मानव को सदैव दृढ़-प्रतिज्ञ होना चाहिए, क्योंकि कल्पना के महल बनाने से इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। मंज़िल तक पहुंचने के लिए चलने की ज़िद व प्रबल इच्छा-शक्ति होनी आवश्यक है। सो! मानव को उचित दिशा में अपने कदम बढ़ाने चाहिए तथा सकारात्मक सोच रखते हुए सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि दु:ख के दस्तावेज़ों में सुख के कागज़ों पर उसी के हस्ताक्षर होते हैं अर्थात् हमारे कर्मों के लिए दूसरा उत्तरदायी कैसे हो सकता है? आवश्यकता है, आस्था व अगाध विश्वास की– जब हम अपना सर्वस्व उस प्रभु को समर्पित कर देते हैं तो अंतर्मन में आशा की किरण जाग्रत होती है, जो हमें सत्कर्म करने को, प्रेरित करती है, जिससे हमें मोक्ष की प्राप्ति भी  हो सकती है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 485 ⇒ जन्मजात बर्थ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जन्मजात बर्थ।)

?अभी अभी # 485 ⇒ जन्मजात बर्थ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Birth & Berth

रेल्वे तो हमें यात्रा के दौरान हमारी सुविधा हेतु, मांगने पर, बर्थ एलॉट करती है, लोअर मिडल अथवा अपर, लेकिन वह ऊपर वाला तो जन्म लेते ही हमें बर्थ एलॉट कर देता है, और वह भी, बिना मांगे ही, किसी को लोअर बर्थ, किसी को मिडिल बर्थ, तो किसी को अपर बर्थ।

ईश्वर द्वारा प्रदत्त बर्थ हमारे पूर्व जन्म के संस्कारों के आधार पर एलॉट की जाती है, वही लोअर, मिडिल और अपर का चक्कर। लोअर बर्थ में बीपीएल कार्ड और मुफ्त राशन की सुविधा होती है, अपर बर्थ वाला तो लोअर और मिडिल के सर पर पांव रखकर ऊपर जाकर आराम से लेट जाता है, लेकिन लोवर और मिडिल क्लास को कुछ समय तक तो मिलजुल कर ही यात्रा तय करनी पड़ती है। लोअर बर्थ और मिडिल बर्थ अपनी मेहनत मजदूरी और पसीने की कमाई का भोजन आपस में शेयर करते हैं सुख-दुख की बात करते हैं और बाद में, लोअर मिडल लोअर और मिडिल बर्थ वाले अपने अपनी सीट पर सो जाते हैं।।

लोवर और मिडिल बर्थ वालों को जिंदगी के सफर में, सिर्फ रात को ही नींद सुख चैन और आराम नसीब होता है। जिंदगी में अपर बर्थ, नसीब वालों को ही मिलती है। लेकिन रेल्वे के सफर में तो अपर बर्थ वाले भी लोअर बर्थ पर ही आना पसंद करते हैं। वरिष्ठ नागरिकों को लोअर बर्थ में प्राथमिकता भी मिलती है। मिडिल बर्थ वाले को तो जीवन में भी लोअर और अपर वाले के बीच सैंडविच बनना ही पड़ता है, वही सिंगल और डबल BHK अपार्टमैंट वाली जिंदगी। ना तू जमीं के लिए है ना तू आसमान के लिए।

वैसे भी देखा जाए तो जीवन की गाड़ी में भी आज लोअर बर्थ वाले ही ज्यादा सुखी हैं। होती होगी अपर बर्थ वाले को भी जिंदगी में परेशानी, लेकिन मिडिल बर्थ वाला, लोअर बर्थ वाले और अपर बर्थ वाले, दोनों को अपने से अधिक खुशनसीब समझता है। मिडिल क्लास की घुटन से तो लोअर बर्थ अथवा अपर बर्थ ही उसे अधिक सुविधाजनक प्रतीत होती है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 216 ☆ चरण से आचरण तक… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना चरण से आचरण तक। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 216 ☆ चरण से आचरण तक

शब्दों से पहले आचरण हमारी जीवन गाथा कह देता है, जिस माहौल में परवरिश होती है वही सब एक – एक कर सामने आते हैं। ऐसी कोशिश होनी चाहिए कि बोली और भावाव्यक्ति किसी को आहत न करे।

जब निर्णयों पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे तो अवश्य चिन्तन करें कि कहाँ भूल हो रही है कि लोग आपकी नीतियों का विरोध एक स्वर में कर रहें हैं। बिना प्रयोगशाला के विज्ञान का अध्ययन संभव ही नहीं। जैसे – जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे- वैसे सोचने समझने की क्षमता भी सकारात्मक होने लगती है, लोग क्या सोच रहे हैं या क्या सोचेंगे ये भाव भी क्रमशः घटने लगता है।

जैसे हम तन – मन के सौंदर्य का ध्यान रखते हैं वैसे ही वैचारिक दृष्टिकोण का ध्यान रखें। नकारात्मक विचारों को हटा कर श्री चिंतन की ओर उन्मुख हों। स्पष्टवादिता से अक्सर विवाद खड़े होते हैं। उचित समय का ध्यान रखने वाला इससे साफ बचकर निकल सकता है।

श्री शब्द का अलग ही रुतबा है, जब नाम के आगे सुशोभित होता है तो एक सुखद अहसास जगाता है। एक श्रीमान बहुत ही न्याय प्रिय थे उनके इस गुण से सभी प्रसन्न रहते।

एक विवाद के सिलसिले में उनको समझ ही नहीं आ रहा था क्या फैसला किया जाए, सभी की दृष्टि उन पर थी। पर कहते हैं न समय के फेर से कोई नहीं बच सकता तो वे कैसे अछूते रहते उन्होंने वैसा ही निर्णय दे दिया जैसा कोई भी करता, कारण न्याय केवल तथ्य नहीं देखता वो व्यक्ति व उसकी उपयोगिता भी देखता है।

यदि वो हमारे काम का है तो पड़ला उसकी तरफ़ झुकना स्वाभाविक है।

खैर होता वही है जो श्री हरि की इच्छा, पर कहीं न कहीं सारे लोग जो आज तक आप की ओर आशा भरी निगाहों से देखा करते थे वे अब मुख मोड़कर जा चुके हैं, उम्मीद तो एक की टूटी जो जुड़ जायेगी वक्त के साथ-साथ किन्तु आपके प्रति जो विश्वास लोगों था वो धराशायी हुआ।

जो भी होता है वो अच्छे के लिए होता है बस आवश्यकता इस बात की है कि आप उसमें छुपे संदेशों को देखें।

कई बार संकोचवश भी आपको ऐसी नीतियों का समर्थन करना पड़ता है जो उसूलों के खिलाफ हों पर जब पानी सर के ऊपर जाने की स्थिति हो तो सत्य की राह पर चलना ही श्रेस्कर होता है। भले ही लोगों का साथ छूटे छूटने दो क्योंकि शीर्ष पर व्यक्ति अकेला ही होता है, वहाँ इतनी जगह नहीं होती की पूरी टीम को आप ले जा सकें और जो जिस लायक है वो वही करे तभी उन्नति संभव है।

वर्तमान को सुधारें जिसके लिए आज पर ध्यान देना जरूरी है। कार्य करते रहें बाधाएँ तो आपकी कार्य क्षमता को परखने हेतु आतीं हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ? ?

बात पाँच वर्ष पुरानी है। सोमवार 16 सितम्बर 2019 को हिंदी पखवाड़ा के संदर्भ में केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए, यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है। देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।

 

मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।

 

किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।

 

लगभग पाँच वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।

 

धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

© संजय भारद्वाज  

(प्रातः 6:47 बजे, 19. 9. 19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 483 ⇒ सुदामा चरित्र ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुदामा चरित्र।)

?अभी अभी # 483 ⇒ सुदामा चरित्र? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सुदामा भगवान कृष्ण के बचपन के सखा थे। वे श्री कृष्ण के अनन्य भक्त तो थे ही लेकिन कुछ कथा वाचकों और भजन गायकों ने उनके साथ गरीब ब्राह्मण का विशेषण भी लगा दिया। कृष्ण और सुदामा की कहानी सिर्फ एक अमीर और गरीब मित्र की दास्तान बनकर रह गई। आज भी हर सुदामा यही चाहता है उसे भी जीवन में कोई श्री कृष्ण जैसा सखा, मित्र अथवा दोस्त मिले।

सांसारिक मित्रता में दोस्ती तक तो ठीक है लेकिन किसी अमीर मित्र के प्रति सुदामा की तरह भक्ति भाव अथवा अनन्य भाव का होना बड़ा मुश्किल है। हमने तो मित्रता की एक ही परिभाषा बना रखी है सच्चा दोस्त वही जो मुसीबत में काम आए। ।

सुदामा चरित, कवि नरोत्तमदास द्वारा ब्रज भाषा में लिखा गया एक काव्य ग्रंथ है. इसमें निर्धन ब्राह्मण सुदामा की कहानी है, जो भगवान कृष्ण के बचपन के मित्र थे. सुदामा की कहानी श्रीमद् भागवत महापुराण में भी मिलती है।

आज की सांसारिक परिभाषा में सुदामा दीनता, निर्धनता, साधुता और सरलता का प्रतीक है। सुदामा के सखा श्रीकृष्ण की ऊंचाइयों तक तो खैर यह इंसान कभी पहुंच ही नहीं सकता, केवल उनके गुणगान कर, भक्ति भाव में आकंठ डूब, शरणागत हो सकता है।।

मेरे शहर में शिक्षक कल्याण संघ ने पहले एक गृह निर्माण संस्था बनाई और फिर शिक्षकों के लिए सुदामा नगर का निर्माण शुरू हो गया। सरकार भी इन शिक्षकों पर मेहरबान हुई और सस्ते दर पर इन्हें जमीन उपलब्ध करा दी गई और जल्द ही इस सुदामा नगर का नाम एशिया की सबसे बड़ी अवैध कॉलोनी के रूप में विख्यात हो गया।

वैसे तो हर भक्त पर द्वारकाधीश मेहरबान होते हैं, लेकिन जब उनके मित्र सुदामा की बारी आती है तब तो वे कुछ खास ही मेहरबान हो ही जाते हैं। आज की तारीख में सुदामा नगर एक सुव्यवस्थित, सुविधा संपन्न कॉलोनी है, जहां किसी तरह का अभाव नहीं। आपको लगेगा आप मानो कृष्ण की द्वारका में ही आ गए हैं। सुदामा नगर के बढ़ते प्रभाव के कारण पास की फूटी कोठी के भी भाग जाग गए, वह पुखराज कोठी हो गई।

और हमारे ठाकुर जी अपने परम मित्र सुदामा को तो महल में रखते हैं और खुद बालस्वरूप में मथुरा, वृंदावन गोकुल, नंदगांव और मथुरा में बाल लीलाएं करते हैं, गोपियों संग रास रचाते हैं, और बांसुरी बजाते हैं।

आज के कलयुग में भी अगर आपको कृष्ण और सुदामा की लीला देखना हो तो कभी सुदामा नगर चले जाएं, वहां आपको दिव्यता और भव्यता के ही दर्शन होंगे। उसी सुदामा नगर के आसपास एक द्वारकापुरी कॉलोनी भी है, जो सुदामानगर की तुलना में बहुत छोटी है। उस कृपानिधान की लीला ही कुछ ऐसी है। उसका बस चले तो अपने भक्त पर तीनों लोक वार दे। सुदामा नगर बनाना आसान है, सुदामा बनना नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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