श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार व्यक्त और अव्यक्त…”।)
अभी अभी # 488 ⇒ विचार व्यक्त और अव्यक्त… श्री प्रदीप शर्मा
आपके विचारों पर आपका एकछत्र अधिकार है, आधिपत्य है। जब तक आप किसी से अपने विचार व्यक्त नहीं करते तब तक वह आपकी ही धरोहर है। जो विचार व्यक्त ही नहीं हुए उनका अस्तित्व नहीं के बराबर ही है। जब तक मैं अपने मन की बात आपसे नहीं कहूं, आप नहीं जान सकते मेरे मन में क्या है। इसी तरह आपके मन में क्या है मैं नहीं जान सकता अगर आप मुझे नहीं कहें।
श्रुति, स्मृति और पुराण क्या हैं, विचारों का प्रकटीकरण ही तो है।
मस्तिष्क हमारा थिंक टैंक ही नहीं, स्मृति का भंडार भी है। जब तक किसी भी माध्यम के जरिए कोई विचार प्रकट नहीं होता वह इस चेतन जगत का हिस्सा नहीं बन सकता। कहते हैं विचार कभी मरता नहीं, और तो और हमारे द्वारा बोले गए शब्द केवल बोलने के बाद ही गायब नहीं हो जाते, वे वातावरण में विलीन हो जाते हैं। क्या गायब होने और विलीन होने में कुछ अंतर है। ये वादियां ये फिज़ाएं बुला रही है तुम्हें।।
सांस के आने जाने और दिल की धड़कन की तरह, हमारे मन में, विचार भी आते जाते रहते हैं। हम जब स्कूल में सुबह प्रार्थना करते थे तब प्रार्थना करते-करते मन में बहुत कुछ सोच लिया करते थे।
मास्टर जी कहते थे पढ़ाई मन लगाकर करो लेकिन मन था जो कहीं और ही पतंग उड़ाया रहता था।
चित्त की एक अवस्था होती है जिसे कहते हैं दिवा स्वप्न देखना, यानी डे- ड्रीमिंग।
किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति के बारे में आवश्यकता से अधिक सोचना दिवा स्वप्न के अलावा कुछ नहीं। वैसे भी अधिक सोचना चिंता को आमंत्रण देना है। चिंता, चिता से कम नहीं। इसीलिए चिंता के बजाय चिंतन की सलाह दी जाती है।।
जो लोग कम सोचते हैं उनका ध्यान अच्छा लगता है। ध्यान अनुभूति की अवस्था है अभिव्यक्ति की नहीं। सभी कलाएं मात्र अभिव्यक्ति ही नहीं, सृजन का भी उत्कृष्ट माध्यम है।
व्यक्त विचार ही किसी को चिंतक विचारक अथवा दार्शनिक बना सकता है।
जो विचार व्यक्त नहीं होता क्या उसका अस्तित्व नहीं होता। इस सांसारिक जगत के लिए भले ही उसका अस्तित्व ना हो लेकिन वही विचार जब ध्यान और समाधि की राह पकड़ लेता है, तो एक अंदर का जगत प्रकट हो जाता है, जो व्यक्ति को मन के पार ले जाता है। लेकिन उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह ही वास्तव में अव्यक्त है, अबूझा है, अनूठा है, अनमोल है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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