(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ी, तिथि और तारीख “।)
अभी अभी ⇒ घड़ी, तिथि और तारीख … श्री प्रदीप शर्मा
एक घड़ी परमात्मा के पास है, जो वास्तविक समय बताती है, उस घड़ी में तारीख और तिथि सभी समा जाते हैं। उस घड़ी की टिक टिक हमारे दिल की धड़कन है, जो हमें हमेशा सुनाई देती है। एक साधारण घड़ी की तरह हमारा शरीर भी महज कलपुर्जों का एक घंटाघर है, जिसकी चाबी उस ऊपर वाले के पास है। यह शरीर रूपी घड़ी खराब भी होती है, इसकी मरम्मत भी होती है और इसे कई बार बदला भी जा चुका है।
एक संसारी घड़ी भी है जो इस जगत का समय बताती है। इस घड़ी में कैलेंडर भी है, जो समय के साथ दिन, तारीख और वर्ष भी बताता है। इसी घड़ी में एक स्टॉप वॉच भी है, जो समय को रोकने की भी ताकत रखती है, लेकिन सिर्फ घड़ी का समय! परमात्मा की घड़ी को कोई कभी रोक नहीं पाया। वहां कोई स्टॉप वॉच नहीं। समय कभी आगे पीछे नहीं। वह घड़ी अटल है, अविनाशी है, अनंत है।।
दुनिया गोल है! भौगोलिक दृष्टि से यहां कहीं दिन कहीं रात होते हैं। यहां ग्लोबल मीट तो होते हैं, लेकिन यहां कोई ग्लोबल टाइम नहीं। सबकी अपनी अपनी घड़ी, अपना अपना वक्त।कोई दो घंटे पीछे तो कोई आठ घंटे आगे। लेकिन वक्त की इतनी पुख्ता जानकारी, कि हजार साल का कैलेंडर छाप लो। खुद एक फर्लांग उड़ नहीं सकते, लेकिन आसमां के हर सितारे की खबर रखते हैं।
रोज तारीख बदलती है, तो कहीं तिथि बदलती है। ज्योतिषीय गणना के आधार पर पंचांग बनाए जाते हैं, कोरोना की खबर नहीं, और कब कौन सा चंद्र ग्रहण है वो और कौन सा सूर्य ग्रहण, खगोल शास्त्री आपको बता देंगे। आसमान का कौन सा तारा कब टूटेगा, इसकी भी जानकारी उनके पास है।।
आप अपनी जन्म तारीख और तिथि दोनों की जानकारी रखते होंगे। अधिक मासों की गड़बड़ी के कारण दोनों में कम ही मेल होता है। तिथि के अनुसार जन्मदिन मनाने के लिए आप स्वतंत्र हैं, लेकिन आप आधार कार्ड और पेन कार्ड में जन्म तारीख अंग्रेजी कैलेंडर वाली ही दे सकते हैं, तिथि वाली नहीं।
आप हर काम घड़ी से कर सकते हैं, बस ईश्वर की घड़ी की आपको कोई जानकारी नहीं। आपका समय बहुत कीमती है लेकिन कभी ऐसी घड़ी भी आती है, जब वक्त ठहर जाता है, दुनिया ठहर जाती है, लॉक डाउन का अनुभव है हमें।।
जॉनी वाकर का एक गीत है ;
बड़ा ही सी आई डी है,
वो नीली छतरी वाला
हर ताले की चाबी रखता
हर चाबी का ताला।
आपकी सांसों की घड़ी भी उसके ही पास है। अगर वह चाबी देना भूल जाए, तो आप सांस लेना भूल जाओ। हम अपने हाथ में कार और टीवी का रिमोट रख खुश हैं और अपना रिमोट उसे सौंप बैठे हैं। उसके ऑफ/ऑन से ही सारी चहल पहल है। फिर भी हमारा कर्तापन नहीं जाता।
और उधर हमारे कवि संतोष आनंद एक अलग ही राग अलाप रहे हैं ; ज़िन्दगी की न टूटे लड़ी, प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी। सही भी है! पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल के याराने हैं। साहिर तो यहां तक कह गए हैं कि आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू। जो भी है, बस यही एक पल। अब आगे क्या बोलूं जी। घड़ी घड़ी एक ही बात बोलना अच्छा नहीं लगता। अपना खयाल रखना। इक बरहमन ने कहा है, ये साल अच्छा है।।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीयआलेख “किस्साये तालघाट…“।)
☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
तालघाट जगह का भी नाम था तो बैंक की शाखा भी
इसी नाम से रजिस्टर्ड थी.स्थान की विशेषता यही थी कि जब घाट समाप्त होता तो ताल से भरपूर नगर की सीमा शुरू हो जाती थी.ताल एक ही था पर नगर की तुलना में बहुत विशाल था.तालघाट में होने के बावजूद इस ताल में सिर्फ एक ही पक्का घाट था.इसे भी घाट कहते हैं और रास्ते की चढ़ाई भी घाट कहलाती है.प्रदेश के राजमार्ग के किनारे बसा था यह स्थान और इसकी एक विशेषता और भी थी कि यह नगर दो प्रदेशों की सीमा पर भी स्थित था.याने इस पार अटारी तो उस पार वाघा बार्डर जैसी भौगोलिकता से संपन्न था.एक प्रदेश को पारकर दूसरे राज्य में आ गये हैं,ये सड़क के गड्ढे बयान कर देते थे.जिनकी सरकार और सड़क अच्छी थी वहां के सीमावर्ती नागरिक भी खुद के प्रति श्रेष्ठि भाव और दूसरे राज्य के वासियों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे.जबकि उन बेचारों का सिर्फ यही दुर्भाग्य था कि वो खस्ताहाल सड़क वाले राज्य के ईमानदार निवासी थे और उनके द्वारा दी जाने वाली टेक्स की रकम भी उनसे ज्यादा मोटी थी जो अच्छी सड़क वाले राज्य के टेक्स चोर नागरिक थे.तालघाट नगर का कल्चर दोनों राज्यों की गंगाजमुनी संस्कृति का अनूठा उदाहरण था.वहाँ रहने वाले यहाँ नौकरी के नाम पर रोज आते जाते थे और वेतन मिलने पर उसे खर्च करना तो अपने वाले राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय था.जो रोज नौकरी करने के नाम पर बस या ट्रेन से आना जाना करे,उसे सरकारी भाषा में अपडाऊनर कहा जाता है और कम से कम असुविधा झेले समय पर अपनी घर वापसी का सुखद एहसास पाना ही उसका दैनिक लक्ष्य या मंजिल मानी जाती है.इस जीवन की आपाधापी में उसकी राह में अनुशासन, अटेंडेंस, कार्यक्षमता, समर्पित आस्था नाम के असुर जरूर अड़चन बनकर सामने आते हैं पर वो तो तांगे का अश्व होता है जिसकी गति न्यूटन के नियमों से नहीं बल्कि जल्द से जल्द घरवापसी के हथकंडों से निर्धारित होती है.हर अपडाऊनर का यह मानना होता है कि उसके पांच घंटो का आउटपुट, उन स्थानीय लोगों के दस घंटे के बराबर होता है जो बॉस को देखकर अपनी दुकान सजाते हैं और बॉस के जाते ही अतिक्रमण धारियों के सदृश्य अपनी दुकान समेट कर गपशप,चायपानी में लग जाते हैं चूंकि यहाँ रहते हैं तो बैंक के अलावा कोई ऐसी जगह होती नहीं जहाँ शामें या रातें कटें तो उनका ठौरठिकाना बैंक की शाखा और चायपान के ठिये तक ही सीमित हो जाता है पर खुद को असली कर्मवीर समझने वाले अपडाऊनर्स के पास नौकरी में अपना काम निपटाने के अलावा और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं जैसे सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में बिस्तर छोड़ने की मजबूरी, ब्रम्हास्त्र की गति से बिना कुछ भूले तैयार होकर स्टेशन या बस के लिये मिलखा सिंह बनना,फिर रेल के डिब्बों में कभी बैठने की तो कभी खड़े होने की जगह ढूंढना और फिर कभी कभी चार कलात्मक श्रेष्ठता से संपन्न मित्रों के साथ बावन पत्तों की बाजी में रम जाना.ना यहाँ कोई पांडव होता है न कोई कौरव और न ही इस बाजी से कोई द्रौपदी अपमानित होती है पर इस रेलबाजी का अंत आने वाला स्टेशन ही करता है जब ये कौरव और पांडव रेल से उतरकर अपने अपने दफ्तर को प्रस्थान करते हैं.बस के अपडाउनर्स इस सुविधा से वंचित रहते हैं तो उन बेचारों के पास राजनीति पर बहस के अलावा मन बहलाने का कोई दूसरा साधन नहीं होता.इनमें कुछ धूमकेतु भी होते हैं जो इंतजार की घड़ियों को सिगरेट के कश में उड़ाते हैं.पर ये सभी अपडाउनर्स रूपी सज्जन अपने हॉकी के इस दैनिक मैच का फर्स्ट हॉफ ऑफिस पहुचकर हाजिरी देने,साथियों और बॉस से गुडमॉरनिंग करने पर ही पसमाप्त होना मानते हैं.बॉस अक्सर या बहुधा इनसे खुश नहीं रहते हैं पर इनकी याने अपडाउनर्स की नजरों से समझें तो यह पायेंगे कि इनके बॉस इनकी अपडाउन की अवस्था के कारण इनको ब्लेकमेल करते हैं.ये बात अलग है कि अपडाऊन की यह व्यवस्था इन्हें चतुर,चाकचौबंद, बहानेबाज,द्रुतगति धावक,एंटी-हरिश्चंद्र बना देती है.हर गुजरता दिन और अपडाउन करने वालों की बढ़ती संख्या इन्हें आत्मविश्वास और साहस की प्रबलता प्रदान करते जाती है.जब ये अल्पमत में होते हैं तो मितभाषी और बहुमत में होने पर दबंग भी बन जाते हैं.इन्हें कर्मवीर बनाना सिर्फ और सिर्फ शाखा प्रबंधक का ही उत्तरदायित्व होता है और यह उत्तरदायित्व ही सबसे विषम और चुनौतीपूर्ण होता है.कड़कता याने एंटीबायोटिकता से ज्यादा मनोवैज्ञानिकता याने होमियोपैथिक मीठी गोली ज्यादा प्रभावी होती है.
माझी दिवसाची सुरुवात चहाने आणि दिवस संपतो सुद्धा चहानेच
एक कप चहा दिवसाची सुरवात किक फ्रेश करतो आणि रेंगाळलेल्या दुपारची मरगळ झटकतो…आणि ह्याच चहामुळे माझे अनेकांशी मैत्रीपूर्ण नाती तयार झाली…
ज्या चहात साखर नाही तो चहा पिण्यात मजा नाही आणि ज्यांच्या जीवनात मैत्री नाही अशा जीवनात मजा नाही असे इथे मनापासून नमूद करावेसे वाटते..
चहामुळे मित्र मैत्रीणी जमले आणि आपण चहाबाज झालो अशाच सर्वांच्या भावना असतात नाही का..!
“चला रे जरा चहा घेऊ या किंवा चला रे मस्त कटिंग चहा घेऊन या” असे म्हणत जमलेले मित्र-मैत्रिणी आणि चहाची टपरी हा जसा माझा हळवा कोपरा आहे ना तसा अनेकांचा ही हळवा कोपरा असतो आणि जर बाहेर मस्त पाऊस पडत असेल तर…
पाऊस पडत असताना
अजून हव तरी काय
एक कटिंग चाय
चवदार चहाचा सुगंध दरवळतो तसं आपणही दरवळाव. जीवनाचा आनंद कसा चहाच्या भरल्या कपा प्रमाणे भरभरून घ्यायला हवा, ताजा ताजा.. चहाच्या प्रत्येक घोटा बरोबर आपणही ताजं व्हाव…
आयुष्य कसं चहाच्या रंगा सारखं असावं… प्रत्येक रंग हवा…! नवनवीन नाती जोडावीत. भरपूर मित्र असावेत म्हणजे तुमचा चहाचा ग्लास जरी रिकामा झाला तरी आठवणींचा ग्लास कायम भरलेला राहील…
माझ्यापुरतं सांगायचं झालं तर चहा घराचा असो की बाहेरचा.. माझ्या अनेक चांगल्या आठवणी या चहाच्या कपाशी जोडल्या गेलेल्या आहेत आणि अनेक जीवाभावाची मित्रमंडळीही बरं…!
कॉलेजच्या दिवसातली सर्वात जास्त मिस होणारी गोष्ट म्हणजे टपरीवरचा चहा… एक कटिंग चारजणांत पिण्याची मजा परत काही आली नाही…!
आयुष्यात किती कप चहा प्यायली असेल मी कुणास ठाऊक…! अगदी उडप्याच्या हॉटेलातल्या दुधाळ चहापासून ते तारांकीत हॉटेलमधल्या स्टाईलमारू चहापर्यंत. गावोगावच्या टपऱ्यांवरच्या चहापासून रेल्वेतल्या चहा पर्यंत…
मैत्रीचे वय वाढत गेले….चहाच्या टपरीचे रुपडेही बदलले.. बदलत गेले
चहाची चव आणि प्रकारही बदलले बदलत गेले.. आता तर चहाच्या कपाची साईजही बदलली आहे पण वाफाळता चहा आणि
मित्र-मैत्रिणींचा गप्पाचा रंगलेला फड याची लज्जत मात्र कधीही बदलणार नाही हे नक्कीच…!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दलित के घर भोजन“।)
अभी अभी ⇒ दलित के घर भोजन… श्री प्रदीप शर्मा
क्या आपने किसी दलित के घर जाकर भोजन किया है,क्या कृष्ण की तरह कभी आपने भी किसी दुर्योधन का मेवा त्याग विदुर के घर का साग खाया है । सुदामा तो खैर,कृष्ण के सखा थे,ब्राह्मण देवता होते हैं दलित नहीं,कृष्ण यह जानते थे,इसलिए उनके चरण भी अपने अंसुओं से धोए । सबसे ऊंची,प्रेम सगाई ।
हमने अपने जीवन में ऐसा कोई सत्कार्य नहीं किया जिसका छाती ठोंककर आज गुणगान किया जा सके । बस बचपन में जाने अनजाने हमने भी एक दलित के घर भोजन करने का महत कार्य संपन्न कर ही लिया । हम जानते हैं,हम कोई सेलिब्रिटी अथवा नामी गिरामी जनता के तुच्छ सेवक भी नहीं,हमारे पास इस सत्कार्य का कोई वीडियो अथवा प्रमाण भी नहीं,फिर भी हमारे लिखे को ही दस्तावेज़ समझा जावे, व वक्त जरूरत काम आवे ।।
यह तब की बात है,जब हम किसी सांदीपनी आश्रम में नहीं,हिंदी मिडिल स्कूल में पढ़ते थे । सरकारी स्कूल था,जिसे आज की भाषा में शासकीय कहा जाता है । पास में ही मराठी मिडिल स्कूल भी था,जहां कभी अभ्यास मंडल की ग्रीष्मकालीन व्याख्यानमाला गर्मी की छुट्टियों में आयोजित हुआ करती थी । आज वहां भले ही मराठी मिडिल स्कूल का अस्तित्व नहीं हो, अभ्यास मंडल जरूर जाल ऑडिटोरियम में सिमटकर रह गया है ।
तब सिर्फ हिंदी और मराठी मिडिल स्कूल ही नहीं,उर्दू और सिंधी मिडिल स्कूल भी होते थे। जैसा पढ़ाई का माध्यम,वैसा स्कूल ! कक्षा में हर छात्र का एक नाम होता था,और बस वही उसकी पहचान होती थी । अमीर गरीब की थोड़ी पहचान तो थी,लेकिन जाति पांति की नहीं । दलित जैसा शब्द हमारे शब्दकोश में तब नहीं था ।
बस यहीं से हमारी दोस्ती की दास्तान भी शुरू होती है ।।
जो कक्षा में,आपकी डेस्क पर आपके साथ बैठता है, वह आपका दोस्त बन जाता है । आज इच्छा होती है यह जानने की, हमारे वे दोस्त आज कहां हैं, कैसे हैं । दो दिन साथ रहकर जाने किधर गए । किसी का नाम याद है तो किसी का चेहरा ।धुंधली,लेकिन सुनहरी यादें ।
उस दोस्त का चेहरा आज तक याद है नाम शायद कहीं गुम गया । वहीं रिव्हर साइड रोड पर वह रहता था । स्कूल,घर और दोस्तों को आपस में जोड़ने वाली हमारे शहर की नदी पहले खान नदी कहलाती थी । आजकल इसके सौंदर्यीकरण के साथ ही इसका नामकरण भी कान्ह नदी कर दिया गया है । गरीब दलित हो गया और खान कान्ह ।।
खातीपुरा और रानीपुरा जहां मिलते हैं,वही रिव्हर साइड रोड है,जहां आज की इस कान्ह नदी पर एक कच्चा पुल था,जिसके आसपास की बस्ती तोड़ा कहलाती थी । नार्थ तोड़ा और साउथ तोड़ा । ठीक उसी तरह,जैसे अमीरों की बस्ती में नॉर्थ और साउथ ब्लॉक होते हैं। इसी तोड़े में मेरा यह दोस्त रहता था और जिसके आग्रह पर मैं आज से साठ वर्ष पूर्व उसकी झोपड़ी में प्रवेश कर चुका था।
कच्चा घर था,घर में सिर्फ उसकी मां और एक जलता हुआ चूल्हा था,जिस पर मोटी मोटी गर्म रोटी सेंकी जा रही थी । एक डेगची में गुड़ और आटे की बनी लाप्सी रखी थी । मैं संकोचवश उसके आग्रह को ठुकरा ना सका और एक पीतल की थाली में मैंने भी भोग लगा ही दिया ।।
हम इंसान हैं, कोई भगवान नहीं । हर व्यक्ति बुद्ध नहीं बन सकता । गरीबी अमीरी और जात पांत,ऊंच नीच की दीवार नहीं तोड़ सकता और ना ही संसार से पलायन कर सकता । जो हमें आज ईश्वर ने दिया है, वह सबको नहीं दिया ।आज भी वह दोस्त मेरी आंखों के सामने नजर आता है । उसकी मां और उसके हाथ की लाप्सी रोटी का सात्विक स्वाद ।
कुंती ने कृष्ण से यही तो मांगा था। अगर कष्ट में आपकी याद आती है,आप हमारे करीब होते हो,तो थोड़ा कष्ट ही सही,थोड़ा अभाव ही सही । जीवन में कुछ दोस्त ऐसे बने रहें,जिनके बीच हम सिर्फ इंसान बने रहें । कितनी दीवारें,कितने क्लब और सर्कल हमें मानवीय मूल्यों से जोड़ रहे हैं,अथवा तोड़ रहे हैं,हमसे बेहतर कौन जान सकता है ।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 31 ☆ देश-परदेश – पड़ोस का बनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे यहां तो प्राय प्रत्येक गली,नुक्कड़ या मोहल्ले में दैनिक जीवन में उपयोग की जाने वाली सामग्री उपलब्ध हो जाती हैं। कोविड काल में भी इन्होंने जनता के भोजन में कोई कमी नही आने दी थी। पुराने समय में तो इस प्रकार की दुकानें घर में ही होती थी और भोर से देर रात्रि तक सुविधा मिलती रहती थी।वो बात अलग है, की इनका विक्रय मूल्य बाज़ार से अधिक रहता हैं। उधारी की अतिरिक्त सुविधा भी बहुतायत में मिल जाती हैं।हमारी हिंदी फिल्मों के ग्रामीण पटकथा में अभिनेता “जीवन” ने अनेक रोल में बनिया बन कर अपनी कला का लोहा मनवाया था।
यहां विदेश में तो विशाल शोरूम के माध्यम से ही दैनिक सामग्री उपलब्ध करवाई जाती है, जिनमें वॉल मार्ट, कोस्को, अमेजान जैसे खिलाड़ी अपनी सेवाएं प्रदान करने में अग्रणी हैं।
वर्तमान निवास से दो मील की दूरी पर एक छोटे से स्टोर में जाना हुआ, तो वहां गुजरात के विश्व पूज्यनीय संत “स्वामी नारायण” जी के चित्र को देखकर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा।जानकारी मिली की स्टोर एक गुजराती श्री पिंटू जी विगत अठारह वर्ष से चला रहे हैं। नाम कुछ पश्चिम देश का लगा तो पूछ लिया तो वो हंसते हुए बोले मेरा गुजराती नाम पियुषभाई हैं,अमरीकी लोगों के लिए पिंटू सुविधाजनक और यहां का ही लगता है। इसलिए सभी अब इस नाम से ही जानते हैं।बात भी सही है,नाम में क्या रखा है,काम होना चाइए।
सुबह छः बजे से रात्रि दस बजे तक वो अपनी पत्नी के साथ अपना स्टोर चलते हैं।
यहां पर दूध, सिगरेट,शराब, लॉटरी टिकट इत्यादि विक्रय किए जाते हैं।
अमेरिका जैसे विकसित और पढ़ें लिखे देश में हमारे देश के गुजराती भाई अनेक दशकों से कई प्रकार के व्यवसाय सफलता पूर्वक चला रहे हैं।कुछ परिवारों की तो तीसरी/ चौथी पीढ़ी यहां के व्यापार जगत में अपनी पैंठ बना चुकी हैं।
हमारे देश के सिंधी भाई भी पूरे गल्फ में छाए हुए हैं। सिख बंधु भी इंगलैंड और कनाडा जैसे देशों की आबादी को हिस्सा बन चुके हैं। दक्षिण पूर्व सिंगापुर, मलेशिया आदि में तमिल भाई अग्रणी हैं।
आई टी सेवा में तो पूरे देश के लोग विश्व में भारत की शान हैं,परंतु बहुतायत आंध्र प्रदेश से आते हैं।
पिंटू जी ने भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए हमें चाय/कॉफी का प्रस्ताव दिया। हमने भी उनकी मेज़बानी स्वीकार किया और अमेरिका देश के बारे में ढेर सारी जानकारी प्राप्त कर ली।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सीखने की उम्र”।)
अभी अभी ⇒ सीखने की उम्र… श्री प्रदीप शर्मा
सीखने की कोई उम्र नहीं होती,यह उक्ति उन्हीं पर लागू होती है,जो इस उम्र में भी कुछ. सीखना चाहते हैं । जो लोग यह मानते हैं,कि सीखने की भी एक उम्र होती है, और हम सब सीख चुके, तय मानिये,उनके सीखने की उम्र वाकई गई ।
बच्चों की उम्र सीखने की होती है ! ज़्यादातर सीख बच्चे ही झेलते हैं । उन्हें सीखने के लिए स्कूल भेजा जाता है । सीख को ही अभ्यास अथवा पाठ कहते हैं । पाठशाला में पाठ पढ़ाए जाते हैं,अंग्रेज़ी की किताब में उसे ही lesson कहा जाता है । पढ़ाई को अभ्यास कहते हैं । जो बड़े होने पर study कहलाती है और पढ़ने वाला student .
पढ़ने से विद्या आती है,इसलिए पढ़ाई करने वाला विद्यार्थी भी कहलाता है । जो कभी हमारे देश की गुरुकुल परंपरा थी,वह बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय से होती हुई आज शासकीय विद्यालय तक पहुँच गई है । लेकिन यह भी कड़वा सच है कि पब्लिक स्कूल ही आज के गुरुकुल हैं,नालंदा विश्वविद्यालय हैं । आप चाहें तो उन्हें आज के भारत का ऑक्सफ़ोर्ड अथवा कैंब्रिज भी कह सकते हैं ।
सीखने की कला को अभ्यास कहते हैं । अक्षर ज्ञान और अंकों का ज्ञान ,किसी अबोध बालक को इतनी आसानी से नहीं आता । कितनी बार १ के अंक पर ,और ” अ ” अनार के अक्षर पर पेंसिल चलाई होगी,आज याद नहीं । मास्टरजी का दिया हुआ सबक रोज याद करना पड़ता था । गिनती,पहाड़े का सामूहिक पाठ हुआ करता था । कितनी कविता,पहाड़े, और रोज की प्रार्थना कंठस्थ हो जाती थी ! सबक याद न होने पर छड़ी, छमछम पड़ती थी,और विद्या झमझम आती थी । एक प्रार्थना को और अभ्यास को इतनी बार रटना पड़ता था,कि वह कविता,गणित का वह सूत्र आज भी याद है । कितनी भी याददाश्त कमजोर हो,पुराने लोगों को आज भी पहाड़े, गणित के सूत्र और संस्कृत के श्लोक सिर्फ इसलिए याद हैं,क्योंकि बचपन में उन्हें कंठस्थ किया गया था । यही अभ्यास है, सीख है, विद्या है, जो कभी विस्मृत नहीं होती ।।
जिसने जीवन में सीखना छोड़ दिया, उसके ज्ञान का, बुद्धि का,स्मरण शक्ति का ,मानकर चलिए, पूर्ण विराम हो गया । ज्ञान का भंडार अथाह है । केवल किताबों से ही नहीं,बड़ों-छोटों और परिस्थितियों से भी सीख ली जा सकती है । दुश्मन से सिर्फ घृणा ही नहीं की जाती । केवल एक मर्यादा पुरुषोत्तम ही अपने अनुज लक्ष्मण को आखरी साँस ले रहे राक्षसराज रावण से भी कुछ सीख लेने का निर्देश दे सकते हैं ।
दत्तात्रय भगवान के 24 गुरु थे अपने आपको ज्ञान में हमेशा लघु समझना लघुता की नहीं, विद्वत्ता की निशानी है । ज्ञान का स्रोत कभी सूखे नहीं । यह वह झरना है, जो जब बहता है, सृष्टि को तर-बतर कर देता है । इस झरने के पास कभी अज्ञान का मरुस्थल दिखाई नहीं दे सकता । सीखने की कोई भी उम्र हो सकती है ।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 187 ☆ देह न बारम्बार
हमारे परिसर में मेट्रो ट्रेन का काम चल रहा है। इसके चलते घर लौटने के लिए एक किलोमीटर आगे जाकर एक पुलिया के अंडरपास से यू-टर्न लेना पड़ता है। यहाँ पास में कुछ मांसाहारी ढाबे हैं जो प्राणियों के अवशेष पुलिया के पास ही फेंक देते हैं। कौवों का हुजूम इन अवशेषों को लेकर यहाँ-वहाँ बैठा होता है और मारे दुर्गंध के उस मार्ग से निकलना कठिन होता है।
प्राणियों के अवशेष जीवन की क्षणभंगुरता का चित्र सामने खड़ा करते हैं। साथ ही चिंतन में विचार उठता है कि प्राण है तो ही देह सुगंधित है। चेतन तत्व का वास है तभी जीवन में सुवास है। अनित्य में नित्य है तो शरीर शेष है अन्यथा सब अवशेष है। इसे जीवन के विस्तृत क्षितिज पर देखें तो पाएँगे कि मनुष्य देह, आत्मा की यात्रा को सार्थक करने का साधन है।
विचार किया जाना चाहिए कि हम इस देहावधि को कैसे बिता रहे हैं? निरंतर दूसरों की आलोचना में व्यस्त रह कर…? दूसरों की प्रगति से कुढ़कर…? सदा कटु भाषा का प्रयोग करके…? वर्गभेद द्वारा…? वर्णभेद द्वारा…? स्त्री-पुरुष में अंतर करके…? आभासी या बनावटी जीवन जीकर…? आत्ममुग्धता का शिकार होकर.. ? ‘मैं और मेरा’ तक सीमित रह कर.. ? ये सारे तो कुछ लोकप्रिय (!) तरीके भर हैं जीने के। बाकी कटु सत्य तो यह है कि ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ के बाद भी अधिकांश जन अपने तक सीमित होकर जीने के मामले में अभिन्न हैं।
कबीर ने लिखा है,
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
दुर्लभ मनुष्य जीवन स्वर्ग (आनंद) और नर्क (विषाद) के बीच मील का पत्थर है। ऊर्ध्वाधर यात्रा आनंद की ओर ले जाएगी। विरुद्ध दिशा में चले तो विषाद तक पहुँचेंगे।
वस्तुत: देह से मनुष्य होना एक बात है, आचरण से मनुष्य बनना दूसरी। पहली से दूसरी की यात्रा में जीवन का उत्कर्ष छिपा है। इस यात्रा पर अपनी एक रचना स्मरण हो आती है,
यात्रा में संचित होते जाते हैं शून्य,
कभी छोटे, कभी विशाल,
कभी स्मित, कभी विकराल,
विकल्प लागू होते हैं,
सिक्के के दो पहलू होते हैं,
सारे शून्य मिलकर ब्लैकहोल हो जाएँ
और गड़प जाएँ अस्तित्व,
या मथे जा सकें सभी निर्वात एकसाथ
पाएँ गर्भाधान नव कल्पित,
स्मरण रहे,
शून्य मथने से ही उमगा था ब्रह्मांड
और सिरजा था ब्रह्मा का निमित्त,
आदि या इति, स्रष्टा या सृष्टि
अपना निर्णय, अपने हाथ
अपना अस्तित्व, अपने साथ..!
उर्ध्वाधर या रसातल, चुनाव क्या होगा? वैसे बिरला ही होगा जो अमृत और हलाहल में अंतर न कर सके।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लेटलतीफ़ आफ़ताब”।)
अभी अभी ⇒ लेटलतीफ़ आफ़ताब… श्री प्रदीप शर्मा
हमारी पाँचवीं क्लास के सहपाठी का आफ़ताब नाम उसके माता-पिता ने यही सोचकर रखा होगा, कि बड़ा होकर वह उनका नाम रोशन करेगा ! कड़कती ठंड में स्कूल जाना, किसी दंड से कम नहीं ! वह समय , समय की पाबंदी और अनुशासन का था।।आफ़ताब कक्षा में सबसे आख़िर में आने वाला छात्र था।
भरी क्लास के बीच दरवाज़े पर आहट होती थी ! मास्टरजी बिना देखे ही कह उठते थे, लो आफ़ताब आ गया। आफ़ताब सिर्फ बिस्तर से उठकर आता था, जागकर नहीं आता था। मास्टरजी की छड़ी बचपन में ही उसकी हथेलियां गर्म करती थी और फिर आफ़ताब मुर्गा बना दिया जाता था। बीच बीच में मास्टरजी पढ़ाते-पढ़ाते बेंत से मुर्गे की ऊँचाई नाप लिया करते थे। जब वह पूरी तरह जाग जाता, उसे फिर इंसान बनाकर क्लास में बैठने दिया जाता।।
तब तक हमारे लिए आफ़ताब भी केवल एक नाम ही था। भला हो फ़िल्म चौदहवीं के चाँद का, जिसके एक गाने में चौदहवीं के चाँद के साथ आफ़ताब का भी ज़िक्र हुआ है। हम भी जान गए, हमारा आफ़ताब ठंड में देरी से स्कूल क्यूँ आता था।
जो सूरज गर्मी में ज़ल्दी उगता है, देर शाम तक आसमान में बना रहता है, और जहाँ भरी दोपहर में लोग सर पर छांव तलाश करते नज़र आते हैं, वही सूरज ठंड में ठिठुरता हुआ उदय होता है। बादलों की रजाई से अलसाया सा मुँह निकालता है। बच्चे ललचाई आँखों से उनींदे सूरज को देखते हुए बस में चढ़ जाते हैं। हर मज़दूर, किसान, पशु-पक्षी की निगाह धूप पर रहती है। सुबह की धूप का स्नान किसी कुंभ-स्नान से कम पुण्य देने वाला नहीं होता।।
किसी स्कूल मास्टर की हिम्मत नहीं, कड़कती ठंड में लेट लतीफ आसमान के आफ़ताब को मुर्गा बनाए। आस्तिक हो या नास्तिक, सुबह सूरज की ओर मुंह कर ही लेता है। किसी के अहसान का शुक्रिया अदा करना, किसी इबादत से कम नहीं। सुबह की धूप और प्याले की चाय की गर्मी क्या किसी जन्नत के मज़े से कम है।
शाम होते होते सूरज अपने दफ़्तर को समेट लेता है। गर्मी में शाम के सात बजे तक ड्यूटी बजाने वाले मिस्टर दिवाकर, पाँच बजे ही घड़ी दिखाकर लाइट्स ऑफ करने लग जाते हैं। लोग भी मज़बूरी में गर्म कपड़ों में खुद को समेटकर आदित्य को गुड नाईट कह देते हैं।।
जितनी ठंड बढ़ती जाएगी, सूर्य देवता के भाव बढ़ते जाएँगे ! उगते सूरज को ठंड में सलाम और गर्मी में सूर्य-नमस्कार किया जाता है। अमीर-गरीब, जानवर-इंसान को आसमान की छत के नीचे, कड़कती ठंड में, अगर कोई एक साथ लाता है, वह यही आफ़ताब है। इसकी कुनकुनी धूप में धरती माता की गोद कितनी प्यारी लगती है। इसे आप इंसानियत का धूप-स्नान भी कह सकते हैं।
ठंड की यह धूप ही वास्तविक कुंभ-स्नान है, जहाँ सुबह चौराहों पर स्कूल के बच्चे, चौकीदारों के द्वारा जलाए गए अलावों में हाथ तापते, अपनी स्कूल-बसों का इंतज़ार करते हैं। कोई कुत्ता भी वहाँ आकर धूप सेंकने के लिए सट जाता है। यह इंसानियत की आँच किसी अनजान राहगीर को अपने से अलग नहीं करती। सड़क पर किसी अनजान व्यक्ति के साथ धूप सेंकना हमारे अहंकार और अस्मिता को गला देता है। धूप स्नान ही कुम्भ का स्नान है। एक जलता अलाव किसी मज़हब को, किसी चुनावी नारे को नहीं पहचानता।।
केवल जिस्मों तक ही नहीं, रूह तक पहुँच है आफ़ताब की उस किरन की
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “द्वैत – अद्वैत”।)
अभी अभी ⇒ द्वैत – अद्वैत… श्री प्रदीप शर्मा
गिनती एक से शुरू होती है और एक शून्य उसे अनंत बना देता है। हर शून्य के बाद एक का महत्व बढ़ता जाता है और अगर सिर्फ एक हटा दिया जाए, तो सब शून्य। महत्व एक का अधिक है या शून्य का। एक शुरुआत है, और शून्य अंत भी, और अनंत भी।
एक से एक मिलकर दो होते हैं। जब दोनों मिलकर एक होते हैं, तो फिर एक पैदा होता है, मिठाई बंटती है ! यही द्वैत-अद्वैत का सिद्धांत है। ईश्वर एक है और वह घट घट में समाया है। जो घट जैसा है, वही स्वरूप उसने पाया है।।
मैं ही ब्रह्म हूं, यह भ्रम बहुत लोग पाल लेते हैं, और सबमें ब्रह्म है, मानने वाले, ब्रह्म को जल्दी जान लेते हैं। ज्ञान और भक्ति द्वैत अद्वैत के दो छोर हैं। उद्धव श्रीकृष्ण के कहने पर ज्ञान का टोकरा लेकर बृज में गोपियों के पास आते हैं। गोपियां सीधा सा जवाब दे देती हैं ;
उधो, मन न भये दस बीस
एक हुतो, सो गयो श्याम संग,
को अवराधे शीश।
उधो उन्हें नमन कर वापस मथुरा चले आते हैं। अद्वैत मुक्ति प्रदान करता है, जिसे लोग मोक्ष कहते हैं। द्वैत में जीव शरणागति हो जाता है। वह अपने इष्ट के चरणों की सेवा करता है। इष्ट उसकी सेवा से प्रसन्न हो, उसे अपने हृदय से लगा लेते हैं।
विरह में जलना ही भक्ति है।
ज्ञान की अग्नि में जलना ही मुक्ति है। बिना जले कोई खाक नहीं होता।
ईश्वर एक था। उस एक ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की। एक से अनेक पैदा किए। खुद ही अवतार लेता है, अद्वैत से द्वैत का भ्रम फैलाता है। कभी जीव को माया में, कभी ब्रह्म में उलझाता है। बार बार धर्म बीच में और ले आता है।।
अध्यात्म मानने से जानने की प्रक्रिया है। धर्म माने हुए को स्वीकार कर लेता है। यहां तर्क, कुतर्क नहीं होते। भक्ति विराट तक पहुंचने के लिए झुकने को कहती है, अध्यात्म ऊपर उठने का कहता है। भक्ति का चरम हनुमान है। ज्ञान का योगेश्वर श्रीकृष्ण , जिनकी प्राप्ति शरणागति से होती है।।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज प्रस्तुत है इस शृंखला का अंतिम भाग।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 23 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
अर्थ:- हे हनुमान जी आप पवन पुत्र हैं। सभी संकटों को दूर करने वाले हैं। आप अपने भक्तों का उपकार करने वाले हैं। हे सभी देवताओं के स्वामी, आप श्री राम, माता सीता और श्री लक्ष्मण सहित हमारे हृदय में बस जाएं।
भावार्थ:- यह हनुमान चालीसा का अंतिम दोहा है। इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी एक बार फिर हनुमान जी से अपनी मांग दोहरा रहे। इसके पहले उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की थी कि श्रीराम चंद्र जी उनके हृदय में आ कर रहे। परंतु इस बार वह कह रहे हैं देवताओं के राजा आप श्री रामचंद्र जी माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ मेरे हृदय में आकर निवास करें। इस दोहे में तुलसीदास जी ने हनुमान जी को सभी का मंगल करने वाला, पवन पुत्र तथा सभी प्रकार के संकट दूर करने वाला भी बताया है।
संदेश:- अपने हृदय में हमेशा अपने आराध्य और गुरु को बसा कर रखें। इससे आपको जीवन में हमेशा सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी।
इस दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
हनुमान चालीसा का यह दोहा जीवन मे मंगलदायक है और सभी संकटों से मुक्ति दिलाता है।
विवेचना:- सबसे पहले हम इस दोहे के पहली पंक्ति पहले पद का अन्विक्षण और चिंतन करते हैं। पद है “पवन तनय संकट हरण”। इस पद के आधे हिस्से में पवन तनय कहा गया है और आधे हिस्से में संकट हरण कहा गया है। यहां पर हनुमान जी को वायुपुत्र के रूप में संबोधित किया गया है। इन शब्दों के माध्यम से तुलसीदास जी ने यह बताने की कोशिश की है जिस प्रकार वायु बादलों को तेजी के साथ हटा करके वातावरण को साफ कर देती है उसी प्रकार हनुमान जी भी संकट के बादलों को हटाकर आपको संकटों से मुक्त कर सकते हैं।
हनुमान जी को पवन तनय कहने के संबंध में पूरी विवेचना हम इसी पुस्तक में पहले कर चुके हैं। फिर से इस बात की दोबारा विवेचना करना उचित नहीं होगा। इसलिए इस शब्द की विवेचना यहां पर छोड़ देते हैं।
दूसरा पद है संकट हरण। हनुमान जी को हम सभी संकट मोचक भी कहते हैं। हनुमान जी ने कई बार श्री रामचंद्र जी और वानर सेना को संकटों से मुक्त किया है। इन्होंने तुलसीदास जी को भी संकटों से मुक्त किया है। इसके अलावा हनुमान जी ने संकट मोचन के बहुत सारे कार्य किए। कुछ को हम बता रहे हैं :-
1- सुग्रीव को राजपद दिलाने के लिए रामचंद जी से मुलाकात करवाई।
2- सीता जी की खोज की।
3-रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया।
4-लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी बूटी लाए।
5- भरत जी को श्री रामचंद्र जी के लौटने की खबर दी। आदि, आदि
अगला पद है “मंगल मूरति रूप “
हनुमान जी सबका मंगल करने वाले हैं। तुलसीदास जी ऐसा कह कर के बताना चाहते हैं कि हनुमान जी का उनके ऊपर असीम कृपा है और वे उनका हर तरफ से अच्छा करेंगे। हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर आए हुए सभी संकटों को दूर करेंगे। जब भक्त का भगवान के ऊपर संपूर्ण विश्वास होता है, उसके समस्त ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं, तब भक्त के सामने ऐसी स्थिति आती है कि उसे सब मंगल लगता है। भगवान भी भक्तों को मंगल रूप लगते हैं।
मंगला मंगल यद् यद् करोतीति ईश्वरो ही मे।
तत्सर्वं मंगलायेति विश्वास: सख्यलक्षणम्। ।
मंगल या अमंगल, प्रभु जो कुछ करेंगे वह मेरे मंगल के लिए ही होगा। ऐसा विश्वास होना चाहिए। मुझे क्षणिक जो मंगल लगता है वह कदाचित् मेरा मंगल नहीं भी होगा। उसी प्रकार जो मुझे क्षणिक अमंगल लगता है वह मेरे मंगल के लिए भी हो सकता है। ऐसा विश्वास होना चाहिए। इसलिए तुलसीदासजी भगवान को मंगल मूरति रुप कहते है।
हृदय में हनुमान जी को रखने के लिए हमें अपना हृदय खुला रखना पड़ेगा। हृदय के अंदर हमें देखना पड़ेगा कि भगवान जी बैठे हैं या नहीं। कबीर दास जी ने लिखा है कि:-
नयनोंकी की करि कोठरी पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारि के पिय को लिया रिझाय।।
हमें भी ऐसे ही अनुभव लेना चाहिए।
श्री भगवत गीता के 15वें अध्याय के 15वें श्लोक में श्री भगवान ने कहा है कि:-
‘स्र्वस्व चाहं हृदि संन्निविष्ट:’
अर्थात वे कहते हैं मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हूँ इसलिए तेरा जीवन चलता है।
हमें अपने अंदर से “मैं अर्थात अपने अहंकार ” को निकालना पड़ेगा। हमें अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा। हमें सोचना होगा की ‘मै आपका हूँ आपका कार्य करता हूँ, आपके लिए करता हूँ। मेरा कुछ नही, मै भी अपना नही हूँ यह भक्त की भूमिका है।
हे भगवान! वित्त आपका! आपकी लक्ष्मी मेरे पास है, परन्तु वह आपकी धरोहर है। यह भागवत का दर्शन है। अत: भक्ति में तीन बातें पक्की करनी है, ‘मुझे मालूम नहीं है’, ‘मै नही करता’ ‘मेरा कुछ नहीं है’। जिसके जीवनमें ये तीन बातें पक्की हो गयी वह भक्त है। भक्त बनने के लिए वृत्ति बदलने का प्रयत्न चाहिए। मानव को लगना चाहिए, ‘कुछ नहीं बनना है’ की अपेक्षा वैष्णव बनना है, मुझे कुछ बनना है। मुझे हनुमानजी जैसा भक्त बनना है ऐसी हमारे जीवन में, अभिलाषा का निर्माण हो। इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते है।
तुलसीदास जी ने दोहा की अगली पंक्ति में लिखा है :-
राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप। ।
रामजी शांत रस के परिचायक हैं उनको कभी-कभी क्रोध आता है। लक्ष्मण जी वीर रस के परिचायक हैं इनको वीरोचित क्रोध हमेशा आता है। माता जानकी करुण रस की परिचायक है। इन तीनों रस जब आपस में मिल जाते हैं तब हनुमान जी का निर्माण होता है। हनुमान जी के अंदर शांति भी है, क्रोध भी है, करुणा भी है और वे रुद्र भी हैं।
हनुमान जी की मूर्ति कई प्रकार की प्रतिष्ठित है। एक मूर्ति में हनुमान जी बैठ कर के भजन गा रहे दिखाई देते हैं। यह उनके शांति रूप की प्रतीक है। इस मूर्ति को घर में लगाने से घर में प्रतिष्ठा रहती घर संपन्ना रहता है किसी तरह की कोई विपत्ति नहीं आती है।
श्री हनुमान जी की एक दूसरी मूर्ति दिखाई पड़ती है। इसमें हनुमान जी उड़ते दिखाई पड़ते हैं। उनके दाहिने हाथ पर संजीवनी बूटी का पहाड़ रहता है। यह मूर्ति उस समय की है जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी। वे मूर्छित हो गए थे। हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत तक संजीवनी बूटी लाने के लिए गए थे। वहां पर उनको संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई। उन्होंने पूरा पहाड़ उठा लिया और चल दिए। रास्ते में भरत जी ने उनको कोई राक्षस समझकर वाण मारकर घायल कर दिया था। वाण लगने के बाद वे फिर घायल अवस्था में ही चल दिए थे। यह मूर्ति करुण रस का प्रतीक है।
हनुमान जी की तीसरी मूर्ति वीर रस की प्रतीक है। इसमें हनुमान जी उड़ते हुए पुंछ में लगी आग से लंका को जला रहे होते हैं। उस समय के सबसे बड़े महाबली रावण के राजधानी में घुसकर अकेले के दम पर पूरे शहर में ही आग लगा देना बहुत वीरता का कार्य है। इस प्रकार यह मूर्ति वीर रस की मूर्ति है।
हनुमान जी की चौथी मूर्ति पंचमुखी हनुमान की मिलती है। इसे हम रुद्रावतार भगवान हनुमान जी का रौद्र रूप कह सकते हैं।
हनुमान जी के पंचमुखी रूप एक की कहानी है। राम और रावण के युद्ध के समय रावण के सबसे बड़े पुत्र अहिरावण ने अपनी मायवी शक्ति से स्वयं भगवान श्री राम और लक्ष्मण को मूर्क्षित कर पाताल लोक लेकर चला गया था। अहिरावण देवी का भक्त था और उसने राम और लक्ष्मण को देवी जी की मूर्ति के सामने बलि देने के लिए रख दिया। बलि देने के दौरान उसने पांच दीपक जलाए और देवी को आमंत्रित किया। उसने यह दीपक मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित किए थे। देवी की शक्ति के कारण जब तक इन पांचों दीपकों को एक साथ में नहीं बुझाया जाता है तब तक अहिरावण का कोई अंत नहीं कर सकता था। अहिरावण की इसी माया को सामाप्त करने के लिए हनुमान जी ने पांच दिशाओं में मुख किए पंचमुखी हनुमान का अवतार लिया। पांचों दीपक को एक साथ बुझाकर अहिरावण का वध किया। इसके फलस्वरूप भगवान राम और लक्ष्मण उसके बंधन से मुक्त हुए। फिर श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधों पर बैठा कर हनुमान जी वापस अपने सैन्य शिविर में ले आए।
मैं आपको एक बार पुनः लंका दहन के समय ले चलता हूं। हनुमान जी लंका दहन के उपरांत अपने पूंछ कि तीव्र गर्मी से व्याकुल तथा पूँछ की आग को शांत करने हेतु समुद्र में कूद पड़े थे। उस समय उनके पसीने की एक बूँद जल में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया। पसीने की एक बूंद के कारण वह गर्भवती हो गई। इसी मछली से मकरध्वज उत्पन्न हुआ, जो हनुमान के समान ही महान् पराक्रमी और तेजस्वी था। वह मछली तैरती हुई अहिरावण के पाताल लोक के पास पहुंची। वहां पर वह अहिरावण की सेवकों द्वारा फेंके गए मछली पकड़ने के जाल में फंस गई। उस मछली के पेट को काटने पर महा प्रतापी मकरध्वज निकले। मकरध्वज को पाताल के राजा अहिरावण ने पातालपुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया था। पातालपुरी जाते समय हनुमान जी को मकरध्वज ने रोका। पिता और पुत्र में युद्ध हुआ और हनुमान जी ने मकरध्वज को मूर्छित कर अपनी पूंछ में बांध लिया। जब श्री राम और श्री लक्ष्मण को लेकर लौट रहे थे तब श्री रामचंद्र जी ने पूछा कि तुम्हारे पूंछ में बंधा हुआ यह कौन वानर है। परम प्रतापी हनुमान जी ने पूरी कहानी बताई। रामचंद्र जी ने मकरध्वज को आजाद कर पातालपुरी का राजा नियुक्त कर दिया। अगर भारत के दक्षिण क्षेत्र से कोई सुरंग इस प्रकार खोदी जाए कि वह पृथ्वी के दूसरे तरफ निकले तो वह उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के बीच में बसे होंडुरस नामक देश में पहुंचेगी।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने मध्य अमेरिका महाद्वीप के होंडुरास में सियूदाद ब्लांका नाम के एक गुम प्राचीन शहर की खोज की है। वैज्ञानिकों ने इस शहर को आधुनिक लाइडर तकनीक से खोज निकाला है।
इस शहर के वानर देवता की मूर्ति भारतवर्ष के घुटनों के बल बैठे महावीर हनुमान की मूर्ति से मिलती है। यहां के भी वानर देवता की मूर्ति के हाथ में एक गदा है।
यही वह शहर है जिसे हम अहिरावण का पाताल लोक कहते हैं। इस बात को मानने के पीछे कई कारण हैं जिसमें प्रमुख हैं :-
1-यह सभी जगह अखंड भारत के ठीक नीचे हैं अखंड भारत से अगर कोई लाइन कोई सुरंग खोदी जाए तो वह उत्तरी अमेरिका के इन्हीं देशों के आसपास कहीं निकलेगी।
2-इन्हीं जगहों पर वक्त की हजारों साल पुरानी परतों में दफन सियुदाद ब्लांका में ठीक राम भक्त हनुमान के जैसे वानर देवता की मूर्तियां मिली हैं। अहिरावण को मारने के उपरांत वहां की राजगद्दी परम वीर हनुमान जी के पुत्र महाबली मकरध्वज जी को दी गई थी। इस प्रकार पाताल लोक जो की इस समय होंडुरास कहलाता है में वानर राज प्रारंभ हुआ। और वहां पर हनुमान जी की मूर्तियां भारी मात्रा में मिलती हैं।
3- वहां के इतिहासकारों का कहना है की प्राचीन शहर सियुदाद ब्लांका के लोग एक विशालकाय वानर देवता की मूर्ति की पूजा करते थे। यह मूर्ति तत्कालीन शासक मकरध्वज के पिता महाप्रतापी हनुमान जी की है।
इस प्रकार यह पुष्ट हुआ है कि अहिरावण के पाताल लोक को आज हम हौण्डुरस के नाम से जानते हैं। हौन्डुरस मध्य अमेरिका में स्थित देश है। पूर्व में ब्रिटिश हौन्डुरस (अब बेलीज़) से अलग पहचान के लिए इसे स्पेनी हौन्डुरस के नाम से जाना जाता था। देश की सीमा पश्चिम में ग्वाटेमाला, दक्षिण पश्चिम में अल साल्वाडोर, दक्षिणपूर्व में निकारागुआ, दक्षिण में प्रशांत महासागर से फोंसेका की खाड़ी और उत्तर में हॉण्डुरास की खाडी से कैरेबियन सागर से मिलती है। इसकी राजधानी टेगुसिगलपा है।
हनुमान जी के पंचमुखी स्वरूप की भी चर्चा कर लेते हैं। बजरंगबली के पंचमुखी स्वरूप में उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, पूर्व में हनुमान मुख और आकाश की तरफ हयग्रीव मुख है।
जीवन के प्रवाह में शांत रस, वीर रस, करुण रस और रौद्र रस सभी की आवश्यकता पड़ती है। जब सामान्य समय है आप शांत रूप में रह सकते हैं। जब कोई विपत्ति पड़ती है तब अपने आप आपके अंदर से करुण रस बाहर आता है। इस विपत्ति के समय पर विजय पाने के लिए आपको वीर बनना पड़ता है। फिर आपको वीर रस की आवश्यकता होती है। जब किसी कारण बस आप अत्यंत क्रोध में होते हैं तब आपका रौद्र रूप सामने आता है।
इस प्रकार जीवन के उठापटक में सभी को चारों तरह के गुणों की आवश्यकता पड़ती है। हनुमान चालीसा के अंत में तुलसीदास जी हनुमान जी से यही मांग कर रहे हैं कि आप चारों उनके हृदय में निवास करें।