(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिल्ली डंडा”।)
अभी अभी ⇒ गिल्ली डंडा… श्री प्रदीप शर्मा
गिल्ली डंडा एकमात्र ऐसा भारतीय मैदानी खेल है, जो समय के साथ वयस्क नहीं हो पाया। कम से कम संसाधनों के साथ खेला जाने वाला यह खेल, आज अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। हॉकी, फुटबॉल और क्रिकेट जैसे खेलों की आंधी में गिल्ली न जाने खो गई, और डंडा न जाने कहां गुम हो गया।
मुझे अच्छी तरह याद है, तैमूर के परदादा के पहले हमने क्रिकेट का नाम भी नहीं सुना था।
भला हो लिटिल मास्टर गावस्कर, भारत रत्न सचिन और कपिल पाजी का, जिन्होंने बच्चे बच्चे के हाथ में बल्ला और क्रिकेट बॉल पकड़ा दी। हमने तो होश संभालते ही गिल्ली और डंडे को ही हाथ लगाया था।।
जब भी घर में लकड़ी का काम होता, सुतार हमारे लिए तीन चार धारदार गिल्लियां और गोल गोल डंडे अपनी मर्जी से बना देता था। दुकानों पर भी गिल्ली डंडा अपनी शोभा बढ़ाते थे। हमें अधिक बुरा तब लगता था, जब हमारे खेल के बीच कोई घर का बड़ा सदस्य, बिना बुलाए हठात् आकर, हमसे डंडा लेकर गिल्ली पर अपनी ताकत आजमाकर वहां से रवाना हो जाता था। ऐसे वक्त अक्सर गिल्ली गुम हो जाने पर खेल अपने आप ही रुक जाता था।
एक तरह से क्रिकेट जैसा ही खेल है यह गिल्ली डंडा। यहां डंडा ही बैट है और बॉल की जगह गिल्ली।
यहां विकेट गाड़े नहीं जाते, बस एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है, जहां गिल्ली को रखकर उसे डंडे से उछाला जाता है। यहां भी कैच पकड़ने के लिए फील्डर होते हैं। अगर पकड़ लिया तो आऊट और अगर किसी ने नहीं पकड़ा, तो रन मशीन शुरू हो जाती है।यहां शॉट को टोल कहते हैं। गिल्ली को डंडे से उछालकर उस पर जोर से प्रहार किया जाता है। फिर देखा जाता है, गिल्ली कितनी दूर गई है। प्रहार के ऐसे मौके सिर्फ तीन बार ही दिए जाते हैं।
इस खेल में रन दौड़कर नहीं बनाते। अंदाज से, जहां गिल्ली गिरी है, वहां तक की दूरी मानकर पॉइंट्स मांगे जाते हैं, अगर सामने वाले को हजम हो गया तो हां, वर्ना उसी डंडे से जमीन नापी जाती है। और अगर अंदाज गलत हुआ तो खिलाड़ी आउट।।
वैसे तो यह खेल दो लोग भी खेल सकते हैं, लेकिन अधिक खिलाड़ियों की टीम बनाकर भी यह खेला जा सकता है।एक राजा बाली के समय में वामन अवतार हुए थे, जिन्होंने तीन कदम में तीनों लोक नाप लिए थे, और यहां इस गिल्ली डंडे के खेल में तीन प्रहार से आप जितनी चाहो, ज़मीन नाप सकते हो।
पहले तो यह खेल हम घर के आंगन में ही खेल लेते थे, लेकिन जब यह गिल्ली उछलती थी तो उन लोगों की आँखों को ही निशाना बनाती थी जिन्हें यह खेल फूटी आंखों पसंद नहीं था।।
इंसान अब बड़ा हो गया है। अब डंडे की जगह वह गगनचुंबी बांस से आसमान को हिला सकता है, गिल्ली अपना महत्व खो चुकी है, लालच के गड्ढे बहुत गहरे हो चुके हैं।
अफसोस गिल्ली डंडे के खेल में कोई मेजर ध्यानचंद नहीं, कोई मास्टर चंदगीराम नहीं, कोई हेलीकॉप्टर शॉट वाला धोनी नहीं। सही कारण तो यह है कि जब आज की युवा पीढ़ी को डांडिया रास आ रहा है, तो उसे छोड़ गिल्ली डंडा कौन खेलना चाहेगा।
एक अफवाह है, सरकार एक जांच आयोग बिठा रही है जो इस आरोप की जांच करेगा कि गिल्ली डंडे जैसे स्वदेशी खेल की दुर्दशा के लिए पिछली सरकार ही दोषी है। लगता है पतंग की तरह, गिल्ली डंडे के दिन भी अच्छे आ रहे हैं। आप गिल्ली डंडा खेलने कब आ रहे हैं।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अथ रंगानुशासनम्”।)
अभी अभी ⇒ अथ रंगानुशासनम्… श्री प्रदीप शर्मा
प्रकृति में रंग भी है,और अनुशासन भी ! नीले आकाश में तारे भी हैं और सितारे भी। कहीं कोई तारा टूटता है तो किसी का सितारा डूबता है। फिर भी,एक थाल मोती भरा,सबके सिर पर उल्टा धरा।
आकाश गंगा की तरह इस संसार सागर में भी कई हीरे मोती जड़े हुए हैं। मेरे देश की धरती में कितने खनिज पदार्थ हैं,हीरा पन्ना और सोना है, कौन जानता है। मुंशी प्रेमचंद की एक हीरा मोती नामक दो बैलों की जोड़ी जो करिश्मा नहीं कर पाई वह चमत्कार भारत कुमार की फिल्म उपकार कर गई। इतने हीरे मोती उगले इस फिल्म ने कि भारत कुमार मालामाल हो गए। और सातों महासागरों में कितने मोती होंगे, जिन खोजा तिन पाईयां, गहरे पानी पैंठ।।
हमारे रंगों की कथा भी बड़ी अजीब है। दुनिया रंग रंगीली बाबा दुनिया रंग रंगीली। जिंदगी के कई रंग साथी रे! प्रकृति के रंग देखकर तो अनायास ही मन कह उठता है,ये कौन चित्रकार है। ये रंग भरे बादल,ये उड़ता हुआ आंचल। सूर्योदय और सूर्यास्त की रंग बिरंगी छटा, बारिश के दिनों में काले काले बादलों के बीच धरती और आकाश को एक करता इंद्रधनुष।
जरा रंग बिरंगे फूलों का अनुशासन तो देखिए। कलियों ने घूंघट खोले, हर फूल पे भंवरा डोले। इधर भंवरा रस का प्यासा है तो उधर नन्हीं नन्हीं नन्हीं,रंग बिरंगी तितलियां फूलों पर मंडराती,इतराती फिरती हैं। मानो फूलों के कानों में कुछ ऐसा कहकर उड़ जाती है, कि फूल के चेहरे की रंगत ही बदल जाती है।।
यह बाग हमने नहीं लगाया। कौन है इन फूलों की घाटी का माली जो दिन रात इनकी रखवाली और देखरेख करता है। हमारे फूल से कोमल बच्चे भी तो उसी फुलवारी का हिस्सा हैं। कितने सारे फूल और सिर्फ एक माली। फिर भी हाय हमारा कर्तापन और हम्माली।
रंगों का भी अपना एक अनुशासन होता है। पहले कोई आपके मन पर शासन करता है। जब तक आप किसी का मन नहीं रंग सकते,तन के कान में जूं तक नहीं रेंगती। जब किसी के लिए सात रंग के सपने बुने जाते हैं,तब ही मन की रंगत सामने आती है। यूं ही किसी के रंग में चुनरिया नहीं रंगी जाती।।
हम रंगों में केवल अपनों को ही नहीं रंगते, गैरों को भी अपना बनाकर रंग देते हैं। वैसे देखा जाए तो रंग से ही रंग मिलता है,तब ही असली रंगपंचमी मनती है। काश प्रेम के रंग की एक ऐसी बौछार हमारे तन,मन पर पड़े, कि सब राग द्वेष,शिकवे शिकायत,अमीरी गरीबी का भेद सदा के लिए मिट जाए। रंगों का कीर्तिमान किसी के मन को रंगे बिना नहीं रचा जा सकता।
यह कोई भंग की तरंग नहीं,एक नया रंगानुशासन है,जो कभी रंग में भंग नहीं मिलाता,दो बिछड़े हुए दिलों को हमेशा के लिए एक ही रंग,प्रेम के रंग में रंग देता है। सिर्फ एक दिन का नहीं, हर पल का है यह त्योहार,जिसे प्रकृति तो हर पल, हर घड़ी एक उत्सव की तरह,जश्न की तरह मनाती है,लेकिन हम इसी प्रकृति की गोद में रहते हुए भी इससे कितनी दूर हैं।
जीव जब सारे मतभेद,मनभेद और रंगभेद मिटाकर अंतरंग में प्रवेश करता है, तब ही तो वह केवल एक प्रेमरंग ही में डूब जाता है।
प्रेम भले ही उन्मुक्त हो,रंगों का अपना एक अनुशासन है। एक श्याम रंग कितना रंगीला है,रसीला है,बस हर राधा एक राधा, हर श्याम, एक घनश्याम, हर दिन, हर पल, सुबहो शाम। सीताराम, राधेश्याम।।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 21 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बन्दि महा सुख होई॥
अर्थ:– हे हनुमान गोसाईं आपकी जय हो। आप मुझ पर गुरुदेव के समान कृपा करें। जो इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं और महान सुख की प्राप्ति होती है।
भावार्थ:- हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! श्री हनुमान जी आप अपने भक्तों के रक्षक हैं, आपकी बारंबार जय हो। एक गुरु की तरह आपने मुझ पर ज्ञान की वर्षा की है। आप मुझ पर श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।
जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा। उसे परमानंद मिलेगा। उसे महा सुख और मोक्ष की प्राप्ति होगी। आपकी कृपा से मेरे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।
संदेश:- अपने गुरु के दिए हुए ज्ञान का अनुसरण करें, इससे आप जीवन में सुख अर्जित कर पाएंगे।
हनुमान चालीसा की इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बन्दि महा सुख होई॥
ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:- हनुमान चालीसा की पहली चौपाई का प्रारंभ जय हनुमान शब्द से होता है। इस चौपाई में जय शब्द तीन बार आया है। इसके अलावा हनुमान जी के साथ अतिरिक्त रूप गोसाई शब्द का इस्तेमाल किया गया है। गोसाई शब्द गोस्वामी का अपभ्रंश है। इस चौपाई के रचयिता का नाम भी गोस्वामी तुलसीदास है। इस प्रकार यह चौपाई एक बहुत महत्वपूर्ण चौपाई हो गई है। इस चौपाई में पहली बार तुलसीदास जी हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं। इसके पहले की चौपाइयों में हनुमान जी की प्रशंसा की गई है। हर चौपाई में उनकी तारीफ की गई है। परंतु कुछ मांगा नहीं गया है। इस इस प्रकार इस चौपाई में दूसरे चौपाइयों से तीन बातें अधिक है।
1-एक ही शब्द का तीन बार प्रयोग
2-हनुमान जी के नाम के साथ तुलसीदास जी ने गोसाई शब्द का प्रयोग किया।
3-इस चौपाई में हनुमान जी से मांग की गई है।
एक-एक कर तीनों बिंदुओं पर चर्चा करते हैं।
जय शब्द का तीन बार प्रयोग किया गया है। जय शब्द का उपयोग कई अर्थों में किया जाता है। सबसे सामान्य अर्थ है आप की विजय हो। यह एक प्रकार की प्रशंसा करने जैसा शब्द है। बगैर किसी लड़ाई या प्रतियोगिता के किसी को विजयी बना दिया जाता है। हमारे देश में भजन कीर्तन में राजनीतिक नारों में किसी नेता के आने पर इस शब्द का खूब इस्तेमाल होता है। इस शब्द में एक भावना भी छुपी हुई है कि आपकी किसी भी लड़ाई में, किसी भी प्रतियोगिता में विजय हो। एक प्रकार की शुभकामना भी है। इस शब्द का प्रयोग करते समय याचना का भाव भी रहता है। इस तरह से जय शब्द का प्रयोग कर गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान जी को बताना चाहते हैं कि मैं अब आपसे याचना करने वाला हूं। आपसे अब मैं कुछ मांगूंगा। अब तक मैंने आपकी प्रशंसा की है। अब मैं उस प्रशंसा का फल लेने का प्रयास करने जा रहा हूं।
अब इसके बाद प्रश्न उठता है कि इस शब्द का तीन बार प्रयोग क्यों किया गया है। आज समाज में मान्यता है कि अगर किसी शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाए तो वह सत्य हो जाता है। जैसे कि अगर हम किसी से वादा करते हैं और उस वादे को तीन बार दोहराते हैं तो यह माना जाता है कि हम इस वादे पर कायम रहेंगे। इसी प्रकार अगर हम किसी से कोई मांग कर रहे हैं और उस मांग को तीन बार दोहरा रहे हैं तो यह माना जाएगा कि हमें इस चीज की अत्यंत आवश्यकता है।
हमारी सभी बाधाएं, समस्याएं और व्यथाएं तीन स्त्रोतों से उत्पन्न होती है :-
1) आधिदैविक – उन अदृश्य, दैवी शक्तिओ के कारण जिन पर हमारा बहुत कम और बिल्कुल नियंत्रण नहीं होता। जैसे भूकंप, बाढ़, ज्वालामुखी इत्यादि।
2) आधिभौतिक – हमारे आस – पास के कुछ ज्ञात कारणों से जैसे दुर्घटना, मानवीय संपर्क, प्रदूषण, अपराध इत्यादि।
3) आध्यात्मिक – हमारी शारीरिक और मानसिक समस्याएं जैसे रोग, क्रोध, निराशा इत्यादि। मंत्रोचार के दौरान जब हम किसी शब्द का तीन बार प्रयोग करते हैं जैसे संकल्प देते समय विष्णु शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाता है तो इसका अर्थ होता है कि हम सच्चे मन से प्रार्थना कर रहे हैं। शांति पाठ के दौरान भी शांति शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाता है। पहली बार उच्च स्वर में जिसमें हम दैवीय शक्तियों को संबोधित करते हैं। दूसरी बार कुछ धीमे स्वर में इस बार हम अपने पास के वातावरण को संबोधित करते हैं और तीसरी बार अत्यंत धीमे स्वर में जब हम अपने आप को संबोधित करते हैं।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो रहा है कि अपनी बात पर आध्यात्मिक रूप से बल देने के लिए गोस्वामी जी ने जय शब्द का तीन बार प्रयोग किया है।
अगला बिंदु है हनुमान जी के साथ गोसाईं शब्द का इस्तेमाल क्यों किया गया है। गोसाई शब्द एक उपाधि के रूप में हनुमान जी के नाम के साथ में उपयोग की गई है। गोसाई शब्द के कई अर्थ हैं। जिसमें से एक अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया हो अर्थात जितेंद्रिय।
अध्यात्मिक गुरु श्री प्रभुपाद जी ने अपनी पुस्तक “भगवत गीता यथारूप” में बताया है कि:-
जो इन छह वस्तुओं – वाणी, मन, क्रोध, जीभ, पेट और जननांगों को नियंत्रित कर सकता है, उसे स्वामी या गोस्वामी कहा जाता है। गोस्वामी का अर्थ है गो, या इंद्रियों का स्वामी। जब कोई संन्यास को स्वीकार करता है, तो वह स्वत: ही स्वामी की उपाधि धारण कर लेता है।
इसके अलावा गो शब्द का एक अर्थ वेद भी होता है। वेद के स्वामी को भी गोस्वामी कहा जाता है। सनातन धर्म में वेद को वेद भगवान कहा जाता है। इस प्रकार जो वेद भगवान की भी ऊपर है उनको गोस्वामी कहा जाएगा। सनातन धर्म में गोस्वामी के लिए मान्यता है कि यह सब के गुरु होते हैं। गोस्वामीयों के गुरु भगवान शिव को माना जाता है। हनुमान जी क्योंकि रूद्र के अवतार हैं अतः उनसे बड़े भगवान शिव हुए जो कि गोस्वामीयों के गुरु हैं। तभी तो यह कहावत प्रचलित है कि :-
“जगत गुरू ब्राह्मण, ब्राह्मण गुरू संन्यासी और संन्यासी गुरू अविनाशी। ”
अर्थात इस संसार का गुरू ब्राह्मण है, ब्राह्मण का गुरू संन्यासी है और संन्यासी का गुरू अविनाशी (शिव) है। कहने का मतलब यह है कि संन्यासी (गोस्वामी) का कोई गुरू नहीं होता और यदि होता भी है तो वह गुरू कोई इंसान नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं।
यह भी संभव है गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी से अपना जुड़ाव बताने के लिए भी हनुमान जी के के साथ गोस्वामी शब्द का प्रयोग किया हो।
मेरा व्यक्तिगत मत है कि तुलसीदास जी ने हनुमान जी के लिए गोस्वामी शब्द का प्रयोग उनके जितेंद्रिय होने और भगवान शिव का अंश होने के कारण किया है।
अब अगला पद है “कृपा करहु गुरुदेव की नाईं“
अर्थात आप हमारे ऊपर गुरुदेव जैसी कृपा करें।
यहां पर गोस्वामी तुलसीदास जी पहली बार पवन पुत्र हनुमान जी से कृपा करने की याचना कर रहे हैं। साथ में हनुमान जी को यह भी बता रहे हैं कि आप हमारे ऊपर गुरुदेव की तरह से कृपा करें। यहां पर तो पहला प्रश्न है यही है कि कृपा गुरुदेव जैसी क्यों होनी चाहिए ? क्या माता-पिता की कृपा, बड़े भाई -भाभी की कृपा या अपने बड़े बुजुर्गों की कृपा क्या गुरुदेव की कृपा से कम है ? तुलसीदास जी ने गुरु की कृपा को इन सभी की कृपा से ऊपर माना है।
इसका एक कारण यह हो सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी को माता और पिता का प्यार और दुलार नहीं मिला। उनके जन्म के दूसरे दिन ही मां का निधन हो गया। पिताजी ने चुनियाँ नाम की एक दासी को इस नवजात बालक को सौंप दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जन्म के समय ही राम-राम शब्द का उच्चारण किया था। अतः उनका नाम रामबोला रख दिया गया था। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी को माता पिता और यहां तक की उनको पालने वाली महिला का प्यार भी पूरी तरह से नहीं मिल पाया। उनके गुरु श्री नरहरि बाबा ने भगवान शंकर की प्रेरणा से रामबोला को ढूंढ निकाला। श्री नरहरि बाबा ने ही उनका नाम विधिवत रूप से राम बोला से तुलसीदास रखा। उसके उपरांत वे तुलसीदास जी को लेकर अयोध्या गए। वहाँ संवत् 1561 माघ शुक्ला पंचमी (शुक्रवार) को उनका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक तुलसीदास जी ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया। इसको देखकर सब लोग चकित हो गये। बाद में नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।
तुलसीदास जी ने 14 से 15 साल की उम्र तक सनातन धर्म, संस्कृत, व्याकरण, हिन्दू साहित्य, वेद दर्शन, छः वेदांग, ज्योतिष शास्त्र आदि की शिक्षा प्राप्त की।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक तुलसीदास को माता पिता या अपने अन्य स्वजन का प्यार और कृपा नहीं मिल पाई। तुलसीदास जी को यह प्यार और कृपा उनको अपने गुरुदेव श्री नरहरि बाबा से ही मिली। अतः यह संभव है कि बालक तुलसीदास के मन में गुरुदेव का स्थान सबसे ऊपर आ गया हो। तुलसीदास जी के इस विचार को हमने पुस्तक आरंभ करते समय पहले दोहे में ही बताया भी है। इसलिए उन्होंने यहां भी हनुमान जी से गुरुदेव जैसी कृपा की मांग की होगी।
कुछ लोग दूसरी बात कहते हैं उनका कहना है कि माता-पिता और अन्य स्वजनों की कृपा में एक स्वार्थ भी होता है। माता-पिता को इस बात की उम्मीद होती है कि हमारा पुत्र बड़ा होने के बाद हमारी सेवा करेगा। अर्थात की गई कृपा के प्रतिफल की चाहत होती है। परंतु गुरुदेव के अंदर इस प्रकार की किसी प्रतिफल की कोई उम्मीद नहीं होती है। गुरु से शिक्षा लेने के बाद शिष्य वहां से चला जाता है। कई बार तो दोबारा लौटकर भी नहीं आता है। परंतु इस बात से गुरुदेव के अंदर किसी तरह की कोई भी विकार नहीं आता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं की कृपा निस्वार्थ होती है। अतः यह कृपा माता-पिता की कृपा से श्रेष्ठ है।
गुरुदेव की कृपा के बारे में संस्कृत का श्लोक अत्यंत उपयुक्त है :-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरुदेव के प्रकाश के बारे में विभिन्न संतो ने बहुत कुछ लिखा है। सभी ने बताया है कि गुरुदेव की महिमा अपरंपार है। गुरु शब्द में “गु ” का अर्थ है अंधकार और “रू” का अर्थ है उसको हटाने वाला। इस प्रकार गुरु शब्द का अर्थ हुआ, जो हमारे अंदर से अंधकार को हटा दें अर्थात प्रकाश ले आए। हमको अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाने वाले को गुरुदेव कहते हैं।
सभी संतो ने एवं सभी ग्रंथों में गुरुदेव की महिमा का बखान किया गया है। कबीरदास जी लिखते हैं कि :-
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।।
अर्थात, गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
संत कबीर ने यह भी लिखा है :-
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड।।
अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।
संत शिरोमणि तुलसीदास ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है। वे अपनी कालजयी रचना रामचरितमानस में लिखते हैं:-
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
अर्थात, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता।
संत तुलसीदास जी तो गुरू को मनुष्य रूप में नारायण यानी भगवान ही मानते हैं। वे रामचरितमानस में लिखते हैं:
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
गुरु हमारे सदैव हितैषी व सच्चे मार्गदर्शक होते हैं। वे हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचते हैं और एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे हमें सच्चा मानव बनाना चाहते हैं और इसके लिए कभी-कभी वे दंड का भी उपयोग करते हैं। इस सन्दर्भ में संत कबीर ने लाजवाब अन्दाज में कहा है:
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।
अर्थात, गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील करता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं गुरुदेव का पद ब्रह्मांड में सबसे ऊंचा है इसलिए संत तुलसीदास जी ने हनुमान जी से प्रार्थना की है कि वे उनके ऊपर गुरुदेव जैसी कृपा करें।
अगला प्रश्न क्या है कि गुरुदेव किसके ? हनुमान जी के गुरुदेव जैसी या हमारे अपने गुरुदेव जैसी कृपा चाहिए है। हनुमान जी के गुरुदेव भगवान सूर्य हैं। हनुमान जी को शास्त्रों का पूरा ज्ञान भगवान भुवन भास्कर ने ही दिया है। परंतु संभवत गोस्वामी तुलसीदास जी सूर्य देव को हनुमान जी का गुरु नहीं मानना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने हनुमान जी के साथ गोसाई शब्द का इस्तेमाल किया है। मैं अभी बता चुका हूं कि गोसाई लोगों के गुरु भगवान शिव या परमपिता परमात्मा ही होते हैं। संभवत वे कहना चाहते हैं कि परम वीर हनुमान जी के गुरु भगवान शिव हैं। तुलसीदास जी हनुमान जी से यह मांग रहे हैं कि जिस तरह से हनुमान जी के गुरुदेव भगवान शिव उनके ऊपर कृपा दृष्टि रखते हैं उसी प्रकार हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर कृपा दृष्टि करें।
तुलसीदास जी के ऊपर उनके गुरुदेव की कृपा का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं। गुरुदेव नरहरी बाबा ने भी तुलसीदास जी के ऊपर यह कृपा भगवान शिव की आज्ञा अनुसार ही करी थी। इस प्रकार चाहे हनुमान जी के गुरुदेव भगवान शिव हो या तुलसीदास जी के गुरुदेव नरहरि बाबा हों दोनों की कृपा अद्भुत है। इस प्रकार थोड़ी ही शब्दों में गुरुदेव की कृपा मांग कर पूरी दुनिया का सुख तुलसीदास जी ने हनुमान जी से मांग लिया।
कोई भी याचक देखने में छोटी सी प्रार्थना करता है परंतु अक्सर वह प्रार्थना अत्यंत बड़ी होती है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी ने हनुमान जी से पूरे ब्रह्मांड का सुख मांग लिया है। उन्होंने तीन बार हनुमान जी से प्रार्थना भी कर ली है। जिससे कि हनुमान जी इस प्रार्थना को प्रदान करने के लिए विवश हो जाएं।
अगली चौपाई और भी अद्भुत है। तुलसीदास जी कहते हैं :-
“जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बन्दि महा सुख होई॥”
इसका साधारण अर्थ भी हम आपको पहले बता चुके हैं। महा सुख प्राप्त करने का कितना आसान तरीका महाकवि तुलसीदास जी ने बताया है। आप हनुमान चालीसा को शत बार या सत बार पढ़े आपको महा सुख की प्राप्ति होगी। वास्तव में सत शब्द से सत्य, 7 या सौ तीनो का आभास होता है। इस पर हम चर्चा थोड़ी देर बाद करेंगे कि “सत्य” सही है या “7” सही है या “100” सही है। महा सुख प्राप्त करने का कितना आसान तरीका है। आपको कोई मेहनत नहीं करना है, कोई परिश्रम नहीं करना है और सब कुछ प्राप्त हो जाना है। परंतु अगर आप पूरी हनुमान चालीसा को पढ़ते और गुनते हुए इस चौपाई पर पहुंचेंगे तब आपको समझ में आएगा यह कितना कठिन कार्य है।
पहली बात यह है की हनुमान चालीसा को पढ़ना नहीं है पाठ करना है। हिंदू धर्म में पाठ करना और पढ़ना दोनों अलग-अलग प्रकार से होते हैं। किस ग्रंथ को पढ़ने में उसको एक तरफ से पढ़ा जाता है और पन्ने पलट कर के हम पढ़ते हुए अंतिम पन्ने पर पहुंच जाते हैं। परंतु पाठ करते समय हमको अपने चित्त को एकाग्र करना होता है। हमारे मन में उस पुस्तक के प्रति आदर का भाव होना चाहिए। और यह आदर हमारे वचन में दिखना चाहिए। अर्थात जब हम हनुमान चालीसा का पाठ करें तब हमारा मन पाठ करने वाली जगह और हनुमान चालीसा की लाइनों पर होना चाहिए। जिस समय हम हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं उस समय हमारा ध्यान अपने खेत पर या अन्यत्र नहीं होना चाहिए। हमारा ध्यान केवल उस लाइन पर ही होना चाहिए जिसको हम पढ़ रहे हैं। पवित्र पुस्तकों के पाठ प्रारंभ करने के कुछ नियम है जैसे पुस्तक को माथे पर लगाना। उसकी आरती करना। दीपक जलाना। भरा हुआ कलश रखना। दीपक, कलश, भूमि, गणेश जी और पुस्तक सब की पूजा करना। गणेश जी तथा ग्रंथ के देवता को आवाहन करना। इन सबके बाद ही हमको ग्रंथ का पाठ प्रारंभ करना चाहिए। इसी तरह से जब हम ग्रंथ का पाठ समाप्त करते हैं तब भी कुछ क्रियाएं करनी पड़ती है। ग्रंथ का पाठ करने में ग्रंथ और उस ग्रंथ के देवता के प्रति हमारी श्रद्धा आवश्यक है। आइए अब सत बार पाठ करने के अर्थ की विवेचना करते हैं।
जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है सत शब्द का प्रयोग यहां पर तीन प्रकार से हो सकता है। सत शब्द सत्य शब्द का अपभ्रंश हो सकता है। यह शत अर्थात 100 का भी अपभ्रंश हो सकता है। इसके अलावा सत शब्द से 7 का भी आभास मिलता है।
कुछ लोग जिन को आसान कार्य पसंद है वे कहेंगे कि सत शब्द का अर्थ यहां पर 7 से है। 100 बार पाठ करने से 7 बार पाठ करना अत्यंत आसान है। हनुमान चालीसा का 100 बार पाठ करना एक कठिन कार्य है और इस कार्य में काफी समय भी लगना स्वाभाविक है। जो थोड़ा कट्टर लोग हैं शब्द का अर्थ 100 बार ही निकालेंगे। उनका कहना होगा की आसान तरीका पकड़ लेने से कार्य सफल नहीं होते हैं। सफलता का रास्ता हमेशा कठिन ही होता है। शॉर्टकट से कभी सफलता प्राप्त नहीं होती है। हनुमान चालीसा के बार बार पाठ करने से मिलने वाली सफलता के बारे में दैनिक जागरण के डिजिटल एडिशन में तलवार दंपत्ति के बारे में खबर पढ़ने योग्य है।
दैनिक जागरण के 14 अक्टूबर 2017 के 3:56 पीएम, डिजीटल एडिशन जिसे 15 अक्टूबर को प्रातः काल को अपडेट किया गया था उसमें एक समाचार है। समाचार यह है कि मशहूर तलवार दंपति को बचाने में जितना हाथ गवाहों और वकीलों का है उससे ज्यादा हनुमान चालीसा का है।
जेल के सूत्रों के मुताबिक तलवार दंपत्ति को जेल में जब भी समय मिलता वह हनुमान चालीसा का जाप करने लगते। 12 अक्टूबर 2017 को जब न्यायालय का फैसला आया तो डॉक्टर तलवार ने कहा कि हनुमान जी ने हमें बचा लिया। डॉ तलवार ने जेल में और लोगों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने की सलाह दिया था।
आइए अब तीसरे अर्थ की बात करते हैं सत का अर्थ यहां पर सत्य को माना गया है और बार का अर्थ आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) से है। जो व्यक्ति सत्य की आवृत्ति होने तक इसका पाठ करता है अर्थात सत्य की प्राप्ति होने तक इसका पाठ करता है, वह भवबन्धन से पार होकर महासुख को प्राप्त करता है। यहाँ सुख नही बल्कि महासुख मिल रहा है।
मेरी विचार से सत बार पाठ करने का अर्थ है कि हनुमान चालीसा का पूरी श्रद्धा और नियम के साथ बार बार प्रतिदिन पाठ करें। प्रतिदिन पाठ करने से आपको एक ना एक दिन सत्य की प्राप्ति अवश्य हो जावेगी। जब आपको सत्य की प्राप्ति हो जाएगी तब महासुख आपके पास अपने आप आ जाएगा।
आइये अब हम पाठ के नियमों की बात करते हैं। पाठ के नियम सामान्य कर्मकांड के नियम होते हैं।
परंतु अगर किसी विशेष कारणों से आप किसी नियम को पूर्ण नहीं कर पाते हैं तो उसको पूरा करने कोई आवश्यकता नहीं है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है आपकी श्रद्धा और एकाग्रता।
इस चौपाई में एक महत्वपूर्ण शब्द है “छूटहि बन्दि”। तुलसीदास जी के कथनानुसार जब आपके बंधन टूट जाएंगे तब आपको महा सुख की प्राप्ति होगी। अब हमको यह भी विचार करना पड़ेगा कौन से बंध टूटने हैं महासुख क्या है ?
पहले हम बंधनों के टूटने की बात करते हैं। कौन से बंधन है जिन का टूटना आवश्यक है। हर व्यक्ति की अलग-अलग वैचारिक मान्यताएं होती हैं। ये वैचारिक मान्यताएं उसके देश-काल, परिस्थितियां, पारिवारिक संस्कार, शिक्षा दीक्षा आदि से बनती हैं। कोई भी व्यक्ति इन्हीं अपनी मान्यताओं के आधार पर कार्य करता है। दो व्यक्ति भले ही एक जैसे शारीरिक रूप के हों परंतु उनकी मान्यताएं अलग अलग हो सकती हैं। यही मान्यताएं व्यक्ति को पाप -पुण्य, अच्छा -बुरा, ऊंच -नीच, गरीब -अमीर आदि के बंधनों में बांध कर कुछ ऐसे कार्य करवाती हैं जिससे हमें दुख पहुंचता है। उदाहरण के रूप में एक गरीब व्यक्ति धनवान के धन को देख कर के ईर्ष्या करता और उस ईर्ष्या के कारण दुखी होता है। अगर हम अपनी वैचारिक बंधनो से मुक्त हो जायें तो हम इस संसार को और इस संसार चलाने वाली परम सत्ता को समझ और देख पाएंगे। परम सत्ता को समझने के बाद हम सदा आनंदित रह सकते है। अब हमारे दुखों का मूल ही समाप्त हो गया तो दुख कैसा।
ईश्वर तो आनंद स्वरूप है। उसको हम तभी अनुभव कर पाते है जब हम आनंद मे रहते हैं। बच्चे वैचारिक रूप से के किसी बंधन से नहीं बधें होते हैं इसलिए वे सदा आनंदित रहते हैं। इसलिए बच्चों को ईश्वर का रूप कहा गया है।
व्यावहारिक जीवन में मुक्ति यानी दु:ख, दैन्य व दारिद्रय से मुक्ति। प्रत्येक व्यक्ति परेशान है। दु:ख से मुक्ति का अर्थ दु:ख आयेंगे ही नहीं ऐसा नहीं है। दु:ख से आपको पीड़ा नहीं होगी। दु:ख आना अलग बात है और पीड़ा होना अलग बात है। जीवन का दृष्टिकोण (Out look) बदलेगा तो दु:ख आयेगा पर पीड़ा नहीं होगी।
अब आइए हम महासुख की चर्चा करते हैं। सुख आपके सोच की अवस्था है। एक व्यक्ति महल में रहकर के भी दुखी हो सकता है और दूसरा अपनी कुटी में रह कर के भी सुखी रहता है। ऐसा क्यों होता है ? इस बात के कई उदाहरण आपके आस-पास ही मिल जाएंगे। मैं एक कहानी आपको सुना रहा हूं। मुंबई के एक शानदार टावर में एक परिवार रहता है। बहुत अच्छी आमदनी और परिवार के सभी लोग स्वस्थ। इसी टावर के सामने एक छोटा सा मकान था। टावर में रहने वाली गृहणी प्रति दिन देखती थी कि सामने के छोटे मकान में रहने वाले पति पत्नी शाम को 7 बजे से रात के 10 बजे तक निरंतर आपस में किलोल करते रहते थे। टावर में रहने वाली गृहणी का पति प्रातः काल 6 बजे घर से निकल जाता था और रात के 10 बजे के आसपास घर लौटता था। लौटने के बाद भी पति काफी तनाव में रहता था। पत्नी से ठीक से बात नहीं कर पाता था। सुबह फिर अपने काम पर निकल जाता था। टावर में रहने वाली धनाढ्य यही सोचती थी कि हमसे अच्छी तो यह सामने वाली गरीब औरत है जो अपने पति के साथ शाम के 7 बजे से रात के 10 बजे तक लगातार सहज रहते है। आपको ऐसी कई कहानियां मिल जायेंगी। सुख की हर व्यक्ति की परिभाषा अलग-अलग होती है। यह परिभाषा उस व्यक्ति के परिस्थितियों और विचारों पर निर्भर करती है। आइए अब हम समझते हैं कि महासुख क्या है ?
हनुमान चालीसा’ पढकर मनुष्य मे निर्भयता, भावमयता, . ज्ञान, अस्मिता आदि गुण आना चाहिए। अगर ये आप में नहीं आए तो यह माना जाएगा कि आपने हनुमान चालीसा का पाठ नहीं किया है। आपकी बुद्धि अगर कामना ग्रस्त है तो आपकी बुद्धि में प्रकाश नहीं घुस सकता। कामना रहित बुद्धि में प्रकाश आता है। वास्तव में महासुख ‘नही चाहिए’ का सुख यानी पाश (बंधन) से मुक्त होने का सुख है।
व्यक्ति अपने विचारों से परिवर्तित होता है अगर उसके विचार उत्तम हो जाएंगे तो व्यक्ति उत्तम कोटि का हो जाएगा। विचार शब्दों में व्यक्त होते हैं और शब्दों में असीमित शक्ति है। इसलिए शब्दों को ब्रह्म भी कहा गया है। मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं :-
एक राजा था। उसके दरबार में एक कवि आया करता था और राजा को कविता सुनाता था। उस कवि का छोटा भाई भी कवि था। एक दिन कवि को बाहर गाँव जाना पडा। उसने अपने छोटे भाई को राजदरबार में जाने को कहा। जब छोटा भाई दरबार में गया। उसने राजा को अपना परिचय दिया और कविता पढ़ने की आज्ञा चाही। राजा ने कविता पढ़ने की आज्ञा दे दी। कविता पढ़ने के पहले कवि ने शर्त लगाई कि आप पहले अपना हाथ धो कर बैठिए। राजा आश्चर्यचकित हो गया। राजा ने पूछा क्यों ? नए कवि ने कहा कि मैं वीर रस का कवि हूं। मेरे बड़े भाई श्रृंगार रस के कवि हैं। बड़े भाई की कविताएं सुन सुन कर के आपका हाथ इधर-उधर लगा होगा। मेरी कविता सुनने के बाद आपका हाथ अपनी मूंछ पर जाएगा। मैं चाहता हूं कि आपका हाथ मूंछ पर जब जाए तब वह पूर्णतया स्वच्छ हो।
राजाने कहा, ‘तेरी कविता सुनने के बाद यदि मेरा हाथ मूँछों पर नही गया तो?’ ‘मेरी गर्दन उडा देना’ कवि ने कहा।
ऐसा स्वीकृत होने पर राजा ने हाथ धोये। उसको लगा कि इस घमण्डी पण्डित का घमण्ड उतारना चाहिए। ऐसा निश्चय करके राजा ने अपने हाथ पीछे रखे, जिससे भूल से भी हाथ मूँछों पर न जाएँ। उसके बाद कवि ने काव्य पाठ प्रारंभ किया। कवि ने वीर रस प्रकट करने वाले कविताओं का गायन किया। राजा राजपूत था। पाँच मिनट में ही वह कवि के काव्य में तल्लीन हो गया। यकायक राजा का हाथ मूँछ पर गया। राजा को इसका भान ही न रहा। वह कवि पर खुश हुआ और उसको इनाम दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि शब्द में शक्ति है, वाणी में सामथ्र्य है।
कहने का अर्थ है अगर आप का हनुमान चालीसा का पाठ नियमित, एकाग्र चित्त और उत्तम कोटि का होगा तो आपके शब्दों में अद्भुत ताकत आ जाएगी। आपके शब्दों से आपको और आपके आसपास के लोगों को महा सुख प्राप्त होगा।
हम कई बार लोगों से बातचीत में कहते हैं कि मैंने तुमको सौ बार कहा था कि तुम यह काम कर लो, मगर तुमने नहीं किया। पिता-पुत्र से बोलता है कि मैंने तुम को सौ बार पढ़ने के लिए बोला, मगर तुम नहीं पढ़े। अंत में तुम फेल हो गए। इन दोनों उदाहरणों में सौ बार का अर्थ है कि मैंने तुमको बार-बार कहा है। इसी प्रकार तुलसीदास जी हम लोगों से कह रहे हैं, सत बार पाठ करो, सौ बार पाठ करो अर्थात बार बार पाठ करो। अगर आप बार-बार पाठ करोगे तो आप हनुमान जी जो शिव के अवतार हैं गोस्वामी हैं उनकी आप पर कृपा होगी। आपके सभी बंधन टूट जाएंगे। आपको महा सुख प्राप्त होगा।
‘हनुमान चालीसा’ मे छुपे हुए गूढ अर्थ को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। हनुमत चरित्र पर बार बार चिन्तन करना चाहिए। तथा उसके अनुरुप जीवन को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए। तो ही हमे सब बंधनों से मुक्ति मिलकर परम आनन्द की प्राप्ति होगी। इसीलिए तुलसदासजीने लिखा है, ‘जो सत बार पाठ कर कोई, छुटहि बंदि महा सुख होई। ’
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोशिश, सत्य व विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 17८ ☆
☆ कोशिश, सत्य व विश्वास☆
जब आप अपना दिन प्रारंभ करते हैं, तो यह तीन शब्द जेब में रखिए। कोशिश बेहतर भविष्य के लिए, सच अपने काम के साथ और विश्वास भगवान में रखिए; सफलता आपके कदमों तले होगी। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ बच्चन जी की यह पंक्तियां अत्यंत सार्थक हैं। जब तक आप नौका को जल में नहीं उतारेंगे, सागर से पार कैसे उतरेंगे? साहस, उत्साह व एकाग्रता से निरंतर अभ्यास करने से एक मूर्ख भी बुद्धिमान हो सकता है। इसलिए परिश्रम कीजिए, बीच राह थक कर मत बैठिए; आपका भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल होगा। इसके साथ ही आवश्यकता है कि आप अपने काम को ईमानदारी से कीजिए; सत्य की राह पर चलते रहिए और राह में आने वाली बाधाओं का डटकर सामना कीजिए… क्योंकि बाधाएं वीरों का रास्ता कभी नहीं रोक सकतीं। जिनमें साहस व उत्साह है, उन्हें प्रलोभन भी पथ-विचलित नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, बहुत से लोग आपको आकर्षित कर भटकाने का प्रयास करेंगे, परंतु आप को रुकना नहीं है, चलते रहना है, क्योंकि चलना ही ज़िंदगी है। ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम/ यह रास्ता कट जाएगा मितरा/ यह बादल छंट जाएगा मितरा।’ समय सदैव एक सा नहीं रहता; निरंतर गतिशील रहता है, चलता रहता है। जैसे रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के बाद पूनम व पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन निश्चित है; उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख का आना भी अवश्यंभावी है। विपत्ति का समय सदा नहीं रहता। समय परिवर्तनशील है, निरंतर अबाध गति से बहता रहता है। सो! अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।
‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ नश्वर है। इसलिए मानव को सांसारिक माया-मोह के बंधनों में उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि माया के कारण यह संसार हमें सत्य भासता है। वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझना कारग़र नहीं है, क्योंकि यह अवरोधक मानव को अपनी मंज़िल तक पहुंचने नहीं देते।
विश्वास मानव की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है। यदि आप खुद पर भरोसा व प्रभु में आस्था रखेंगे, तो सफलता आपके कदम चूमेगी। सो! प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए, क्योंकि जब तक उसकी करुणा-कृपा बनी रहती है, मानव निरंतर उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है। कबीरदास जी के शब्दों में ‘बाल न बांका हो सके, चाहे जग बैरी होय’ अर्थात् कोई उसे लेशमात्र हानि भी नहीं पहुंचा सकता। इसलिए प्रभु में आस्था रखते हुए निष्काम कर्म करते रहिए, आपको मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। भरोसा व आशीर्वाद भले ही दिखाई नहीं देते, परंतु असंभव को संभव बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि यदि आपमें श्रद्धा व अगाध विश्वास है, तो आप धन्ना भक्त की भांति पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर सकते हैं। सो! आस्था व विश्वास रखिए क्योंकि संदेह, संशय व शक़ आपको विचलित करते हैं, भटकाते हैं। इसलिए मानव को अहं व वहम दोनों से बचने की सीख दी गयी है, क्योंकि यह अहं की पोषक हैं और मानव-मात्र के लिए घातक हैं।
संपन्नता मन की अच्छी होती है, धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहं को जन्म देती है और मन की संपन्नता संस्कार को। धन, संपत्ति, सत्ता और शरीर सदा साथ नहीं देते, परंतु समझदारी व सच्चे संबंध सदा साथ देते हैं। सो! इनसे प्रभावित हो सच्चे संबंधों पर कभी शंका मत कीजिए। समय के साथ यह सब बदलते रहते हैं, क्योंकि वे सब किसी की मिल्कियत नहीं और न ही सदा साथ रहने वाले हैं। मानव शरीर क्षणभंगुर है और दिन-प्रतिदिन इसका क्षय होता रहता है। परंतु यदि मानव समझदारी से काम लेता है, तो संबंधों पर आंच नहीं आती। सच्चे मित्र सदैव आपके साथ रहते हैं। इसलिए संबंधों को सदैव धरोहर-सम सहेज-संजो कर रखिए।
संसार में आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है, शेष सब मिथ्या है। है इसलिए हर पल प्रभु का नाम- स्मरण कीजिए; एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाने दीजिए। इंसान खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे इस जहान से लौट जाना है। हां! केवल नाम-स्मरण की दौलत ही उसके साथ जाती है। इसलिए मालिक से यही अरदास की जाती है कि ‘शुभ कर्मण से कबहुं ना टरौं’ अर्थात् मैं सदैव सत्कर्म करता रहूं। सो! धन-संग्रह मत कीजिए, क्योंकि यह मानव में अहंनिष्ठता का भाव पोषित करता है और मन की संपन्नता उसे सु-संस्कारों से पोषित करती है। यह मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचा देते हैं। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है, ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए। दूसरों से परिवर्तन की आशा करने से बेहतर है, खुद में बदलाव लाना। ‘दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत करो; आत्म-सम्मान बनाए रखो और चले आओ’–स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति हमें मूल्यों से समझौता न करने की सीख देती है, क्योंकि उस स्थिति में आपको आत्म-सम्मान दांव पर नहीं लगाना पड़ता। अच्छा स्वभाव, अच्छी समझ, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सदा साथ देते हैं। इसलिए मानव के लिए सत्मार्ग पर चलना व स्नेह, प्रेम, करुणा, त्याग, सहनशीलता, सहानुभूति आदि गुणों को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है। यह मानव के सच्चे साथी हैं, जो कभी धोखा नहीं देते।
संसार में कुछ लोग बिना रिश्ते के रिश्ते निभाते हैं, शायद वे ही सच्चे दोस्त कहलाते हैं और वे कभी धोखा नहीं देते। सो! दूसरों की खुशी में खुश रहने का हुनर सीखें। जो यह हुनर सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। सो! अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है, उसे समझने की कला यदि इंसान सीख लेता है, तो रिश्ते कभी टूटते नहीं। कलाम जी के शब्दों में ‘एक सच्चा दोस्त वह होता है, जो तब तक आपके पास चलकर आए, जब सारी दुनिया आप को अकेला छोड़ कर चली जाए।’ सब आप के भीतर है। प्रतीक्षा मत करें, कोई तुम्हारे जीवन को रोशन करने नहीं आयेगा। आग जलाने के लिए माचिस की तीलियां तुम्हारे पास हैं। आत्मविश्वास रखो, कोशिश करो और अपनी कश्ती को लहरों के सहारे छोड़ दीजिए, क्योंकि सागर से पार उतरने के लिए नौका को जल में उतारना ज़रूरी है, अन्यथा कबीरदास जी की तरह ‘मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ उस स्थिति में आप किनारे पर बैठे रहेंगे। जीवन के हर क्षेत्र में मानव को आपदाओं का सामना करने के लिए जूझना पड़ता है। बिना प्रयास के सफलता आपसे कोसों दूर रहेगी। संसार में सबसे बहुमूल्य धन बुद्धिमत्ता और सबसे मज़बूत औज़ार धैर्य है और सबसे अच्छी सुरक्षा, विश्वास व सबसे अच्छी दवा हंसी है और यह सब ही मुफ्त में मिलती हैं। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है तथा व्यवहार से सिद्ध होती है। सुखी रहने के तीन उपाय हैं, शुक्राना, मुस्कुराना और किसी का दिल न दु:खाना। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि सम्मान व सब्र ऐसे दो तोहफ़े हैं, यदि देने लग जाएं, तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। ‘अहसासों की नमी ज़रूरी है हर रिश्ते में/ रेत यदि सूखी हो, तो हाथ से फिसल जाती है।’ इसलिए संवेदनशील बने रहिए और सुखी बने रहने के लिए अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को सीमित कर लीजिए…जीवन स्वतः सुचारु रुप से चलता रहेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
अभी अभी ⇒ कदर जाने ना… श्री प्रदीप शर्मा
हम सभी की भावनाओं का ख्याल रखते हैं, और महिलाओं का सम्मान ही नहीं, कद्र भी करते हैं। साहित्य ने भले ही हमारी कद्र ना की हो, हम संगीत के कद्रदान हैं, और फिल्मी संगीत सुन सुनकर ही आज कानसेन बन बैठे हैं।
हमें ना तो कोई शिकायत जमाने से है और न ही कोई शिकायत अपनी पत्नी से। जिस तरह संगीत ने पिछले सत्तर सालों से हमारा साथ निभाया है, हमारी धर्मपत्नी भी पचास वर्षों से हमारा साथ निभाती चली आ रही है।
चले थे साथ मिलकर, चलेंगे साथ मिलकर। तुम्हें रुकना पड़ेगा, मेरी आवाज सुनकर।।
संगीत की हमारी शिक्षा दीक्षा केवल रेडियो सीलोन सुनने तक ही सीमित रही। आप चाहें तो हमें एक अच्छा श्रोता कह सकते हैं। हुस्न, इश्क, जुल्फ और दामन जैसे शब्द हमने यहीं से सीखे हैं। सहगल का दौर निकल चुका था और अनारकली, बैजू बावरा, मुगले आजम और मेरे महबूब का जमाना था। सुरैया, शमशाद, नूरजहां और खुर्शीद के साथ लता, आशा, रफी, तलत, किशोर और राजकपूर की आवाज मुकेश, के तराने लोग गुनगुनाते रहते थे।
जब जीवन में कोई कद्रदान मिलता है, तो आपकी लाइफ बन जाती है। आप किसी के हसबैंड बन जाते हैं, कोई आपकी वाइफ बन जाती है। आपने, अपना बनाया, मेहरबानी आपकी ! हम तो इस काबिल ना थे, है कद्रदानी आपकी।।
मदनमोहन ही तो लाए थे वह खूबसूरत नगमा हमारे लिए !
आपकी नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल हमें, और, जी हमें मंजूर है, आपका हर फैसला।
हर नजर कह रही, बंदा परवर शुक्रिया।
गृहस्थी की गाड़ी बस ऐसे ही तो चल निकली थी हमारी भी। सारे तीज, त्योहार और उत्सव कितने उत्साह से संपन्न होते थे। हरताली तीज हो अथवा करवा चौथ ! तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा। तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता। हमें अपने आप पर भरोसा नहीं होता था जब ऐसे गीत कानों में पड़ते थे; मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे।।
हमारे गीतकार वर्मा मलिक भी कम नहीं आग में घी डालने में ! तेरी दो टकियां दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए। हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी। लेकिन हमारी धर्मपत्नी बहुत समझदार निकली। छोड़ दें सारी दुनिया, किसी के लिए। ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए। प्यार से जरूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए।
लेकिन किसे पता था, उम्र के इस पड़ाव पर आकर हमें भी मदन मोहन का ही यह गीत भी सुनना पड़ेगा ;
कदर जाने ना
मोरा बालम, बेदर्दी
कदर जाने ना …
हम संगीत प्रेमी तरानों और पत्नी के तानों को बराबर का महत्व और सम्मान देते हैं। आखिर इन ५० बरसों में ऐसा क्या बदल गया कि बालम, बेदर्दी हो गए। हमने तो कभी नहीं कहा, सजनवा बैरी हो गए हमार। कुछ तो गड़बड़ है।।
उम्र के साथ अगर महिलाएं धार्मिक होती चली जाती हैं तो पुरुष पॉलिटिकल ! जिस टीवी पर कभी पूरा परिवार बैठकर दूरदर्शन देखता था, आजकल धर्मपत्नी में आस्था और सत्संग के संस्कार जाग गए हैं। न्यूज, शेयर मार्केट और कॉमेडी शो के लिए पति को मोबाइल और लैपटॉप का सहारा लेना पड़ता है। घर, घर नहीं, राज्यसभा लोकसभा टी वी हो चला है।
टेबल पर पत्नी चाय रखकर चली गई है, सीहोर वाले लाइव आ रहे हैं। नाश्ता कब का ठंडा हुआ पड़ा है। कानों में कुछ गर्मागर्म शब्द प्रवेश कर रहे हैं। पूरी जिंदगी इनके लिए खपा दी, लेकिन इन्होंने हमारी कभी कद्र ही नहीं की।।
लेकिन शब्द मोम बनकर नहीं पिघल रहे। लता का मधुर स्वर याद आ रहा है ;
लाख जतन करूं
बात न माने जी
बात न माने
मेरा दरद न जाने जी।
कदर जाने ना
हो कदर जाने ना
मोरा बालम बेदर्दी
कदर जाने ना …
सोचता हूं, अगर अभी भी कद्र नहीं जानी, तो बहुत देर हो जाएगी। घर घर की यही कहानी है। जागो बेदर्दी बालमों, अब तो जागो।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 206 ☆
आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी…
पिन कोड ४६२०१६ मतलब, शिवाजी नगर भोपाल ! इसलिये विशेष रूप से भोपाल वासियों को तो छत्रपति शिवाजी के बारे में संज्ञान होना ही चाहिये. देश के अनेक नगरों में शिवाजी नगर हैं, कई चौराहों, पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर छत्रपति शिवाजी की मूर्तियां स्थापित हैं. वर्तमान में गुजरात में बनी दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा सरदार वल्लभ भाई पटेल की ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ है, जो 182 मीटर ऊंची है. मुम्बई में अरब सागर में शिवाजी स्मारक प्रस्तावित है, जहां इससे भी उंची १९० मीटर की सिवाजी महाराज की प्रतिमा प्रस्तावित है. अनेक योजनायें उनके नाम पर हैं, जबकि शिवाजी महाराज को गुजरे हुये लगभग ३४० वर्ष से अधिक हो चुके हैं. उनका देहान्त ३ अप्रैल १६८० को रायगढ़ में हुआ था. उनका जन्म १९ फरवरी १६३० में हुआ था. उनका शासनकाल ६ जून १६७४ से उनके देहान्त तक की स्वल्प अवधि ही रही, पर इतने छोटे समय में भी उन्होंने जो नीतियां अपनाईं उनने उन्हें छत्रपति बना कर भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय कर दिया. वे एक कुशल शासक, सैन्य रणनीतिकार, वीर योद्धा, मुगलों का सामना करने वाले, सभी धर्मों का सम्मान करने वाले और देश में हिन्दू राज्य के पुनर्संस्थापक थे. यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी का नाम प्रभावी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा शिव सेना शिवाजी को प्रमुखता से आईकान के रूप में प्रस्तुत करती हैं.
जब मुगल शासको का हिन्दू दमन पराकाष्ठा पर था तब हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए ही उन्होंने 1674 ई. हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी. उनकी माता जीजाबाई के दिये संस्कार ने बचपन से ही उनके मन में हिन्दुत्व की प्रबल भावना भर दी थी. ऐसे में उनका उद्देश्य हिन्दुओं में आत्म सुरक्षा का भाव जागृत करना, सभी को भारत के सदाशयी मिलनसार हिन्दू चरित्र से परिचित कराना था. मुगल आक्रमणकारियों के शोषण, अन्याय, माताओं, बहनों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार, प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और हिंदू धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों को नष्ट करने के परिणामस्वरूप पूरा देश पीड़ित था. जनमानस मानसिक रूप से बेहद टूटा हुआ था. ऐसे समय में भक्तिकालीन साहित्य ने जहां भारत की सांस्कृतिक तथा धार्मिक चेतना में प्राण फूंका वहीं राजनैतिक प्रभुत्व की इच्छा शक्ति जगाने, बिखरते हुये हिन्दू राजाओ को एक जुट कर उनमें नई ताकत का संचार करने का कार्य श्रीमंत छत्रपति शिवाजी ने किया. उन्होंने ‘हिंदवी स्वराज्य अभियान’ नामक आंदोलन शुरू किया. शिवाजी की चतुराई पूर्ण रणनीतियों के अनेक किस्से लोक प्रिय और प्रेरक हैं, ऐसे हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी को कोटिशः नमन.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 29 – रेल की सवारी ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे जीवन की सबसे अधिक यात्राएं रेल द्वारा ही संभव हो पाई हैं। ऐसा नहीं है, कि परिवार से रेल सेवा में कोई कार्यरत था, जिसकी वज़ह से पास सुविधा या मुफ्त यात्रा का लालच रहा हो। क्योंकि यात्राएं लंबी दूरी की होती थी और सस्ती भी होती थी, इसलिए रेल यात्रा का आनंद हमेशा प्राथमिकता रही हैं। पिकनिक / पर्यटन आदि के लिए भी हमें रेल से ही जाना पसंद हैं।
यहां विदेश में जब रेल यात्रा की जानकारी प्राप्त हुई, हमारे तो तोते उड़ गए। सार्वजनिक सड़क साधन से भी महंगी रेल यात्रा है। हवाई और जल यात्रा का स्वाद चखने के पश्चात रेल यात्रा की कसक दिल में वैसी ही थी, जैसा भरपूर भोजन तृप्ति के बाद में कुछ मीठे की इच्छा “शक्कर रोगी” को होती हैं।
न्यु हैम्पशायर के पास “माउंट वाशिंगटन” नामक पर्वत है, जिसकी ऊंचाई करीब छै हज़ार तीन सौ फीट हैं। यहां कार द्वारा, हाइकिंग (पर्वतारोहण) और रेल मार्ग से जाने की सुविधा भी है। धरातल से तीन मील की यात्रा “कॉग” रेल द्वारा एक घंटे से कम समय में हो जाती हैं। पर्वत जो कि अमेरिका के उत्तर पूर्वी भाग में मिसिसिपी नदी के पास में है। यहां का परिवर्तनशील मौसम ही इसकी पहचान बन चुका है। रेल यात्रा 1869 से भाप इंजन द्वारा आज भी जारी है। कुछ इंजन बायो डीजल से भी चलते हैं। शिखर पर मौसम अत्यंत ठंडा हो जाता है। इसलिए साथ में ठंडी हवा से सुरक्षित रहने के लिए उचित कपड़े होना आवश्यक है। भाप के इंजन से यात्रा करने से कपड़े गंदे होने की संभावना की चेतावनी यहां के स्टेशन पर अंकित है। जिसको पढ़ कर बचपन में कोयले के कण आंख में जाने पर मां की साड़ी के आंचल में फूँक मार कर आंख की सिकाई करने की याद जहन में आ गई।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 20 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
अर्थ :– किसी और देवता की पूजा न करते हुए भी सिर्फ हनुमान जी की कृपा से ही सभी प्रकार के फलों की प्राप्ति हो जाती है। जो भी व्यक्ति हनुमान जी का ध्यान करता है उसके सब प्रकार के संकट और पीड़ा मिट जाते हैं।
भावार्थ :- उपरोक्त दोनों चौपाइयों में एक ही बात कही गई है। आप को एकाग्र होकर के हनुमान जी को अपने चित्त में धारण करना है। आप अगर ऐसा कर लेते हैं तो कोई भी व्यक्ति, विपत्ति, संकट पीड़ा, व्याधि आदि आपको सता नहीं सकता है। हम सभी श्री हनुमान जी से अष्ट सिद्धि और नव निधि के अलावा मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। श्री हनुमान जी की सेवा करके हम सभी प्रकार के सुख अर्थात आंतरिक और बाएं दोनों प्रकार के सुख प्राप्त कर सकते हैं।
आपको चाहिए कि आप अपने आपको मनसा वाचा कर्मणा हनुमान जी के हवाले कर दें। जिससे आप जन्मों के बंधन से मुक्त हो सकें।
संदेश :- अपने स्वभाव को श्री हनुमान जी की भांति नरम रखें और दयावान बनें।
इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
2-संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
जब भी आप कभी किसी संकट में पड़े इन दोनों चौपाइयों का 11 माला प्रीतिदिन का पाठ करें।साथ ही संकट को दूर करने का स्वयं भी प्रयास करें। हनुमान जी की कृपा से आपका संकट दूर हो जायेगा।
विवेचना :- उपरोक्त दोनों चौपाइयों में मुख्य रूप से एक ही बात कही गई है अगर आपको सभी संकटों से सभी व्याधियों से सभी बीमारियों से सभी खतरों से बचना है तो आप को हनुमान जी को समझना होगा। पहली पंक्ति में कहा गया है :-
“और देवता चित्त न धरई | हनुमत सेइ सर्व सुख करई || “
इस चौपाई को सुनने से ऐसा प्रतीत होता है की कवि तुलसीदास जी कह रहे हैं कि आपको और किसी देवता को अपने चित्त में धारण करने की आवश्यकता नहीं है। आपको केवल हनुमान जी की वंदना करनी है। जबकि तुलसीदास जी ने ही रामचरितमानस में भगवान शिवजी, भगवान ब्रह्मा जी, भगवान विष्णुजी, भगवान श्री रामचंद्र जी और हनुमान जी सब के गुण गाए हैं। फिर उन्होंने हनुमान चालीसा में केवल हनुमान जी की वंदना के लिए क्यों कहा है। आइए इसको समझने का प्रयास करते हैं।
हनुमान चालीसा के पहले और दूसरे दोहे की विवेचना लिखते समय मैंने हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी की उम्र का पता लगाने का प्रयास किया है। अंत में हमारे द्वारा यह नतीजा निकाला गया की हनुमान चालीसा लिखते समय गोस्वामी तुलसीदास जी 10 से 15 वर्ष के रहे होंगे। गांव में कई प्रकार के देवता होते हैं। मेरे अपने गांव में हमारे ग्राम देवता बेउर बाबा और सती माई हैं। हमारी कुलदेवी बाराही जी हैं। ग्राम में जहां सब बच्चे खेलते थे वहां पर एक छोटा सा मंदिर है जिसमें हनुमान जी की प्रतिमा और शिवलिंग विराजमान है। दुष्ट शक्तियों से रक्षा के लिए गांव की एक कोने में काली माई हैं। अब इन सभी मंदिरों में कोई व्यक्ति प्रतिदिन नहीं जा सकता है। क्योंकि सभी मंदिरों में प्रतिदिन जाने में काफी समय लगेगा। होता यह है विशेष अवसरों पर छोड़कर हर व्यक्ति अपना एक आराध्य ढूढ़ लेता है। कोई व्यक्ति बेउर बाबा के मंदिर पर प्रतिदिन जाता है। कुछ परिवार के लोग काली माई के मंदिर पर प्रतिदिन जाते हैं। और कुछ लोग गांव के बीच में बने हुए भगवान शिव और हनुमान जी के मंदिर में प्रतिदिन जाते हैं। आइए यह भी देखें कि इस का चुनाव किस तरह से होता है। मैं जब छोटा था तो मैं प्रतिदिन अपने बाबू जी के साथ गंगा स्नान को जाता था। बाबूजी गंगा स्नान कर लौटते समय अपने लोटे में गंगा जल भर लेते थे। रास्ते में बेउर बाबा का मंदिर पडता था। वहां पर रुक कर के हम थोड़ा सा जल बेउर बाबा और सती माई पर चाढ़ाते थे। हमारे घर के पास में शिव जी और हनुमान जी का मंदिर था। ध्यान रखें शिव लिंग और हनुमान जी की प्रतिमा दोनों एक साथ एक ही कमरे में थी। यहां पर हम लोग शिवलिंग के ऊपर गंगाजल डालकर शिवजी का अभिषेक करते थे और हनुमान जी के पैर छूते थे। इसके बाद घर आ जाते थे। काली जी के मंदिर में हम किसी विशेष दिन ही जाते थे। काली जी का मंदिर जिनके घर के पास था वह लोग प्रतिदिन काली जी के मंदिर जाते थे। इस प्रकार हर व्यक्ति ने अपना अपना देवी या देवता चुन लिया था। देवी और देवता चुनने में घर के नजदीक होना ही एकमात्र मापदंड था। किसी के दिमाग में यह नहीं था कि फला देवता बड़े हैं या फला देवता छोटे हैं। परंतु फिर भी ज्यादातर बच्चों के आराध्य हनुमान जी हुआ करते थे। मैं अब जब इसके बारे में सोचता हूं तो मुझे ऐसा समझ में आता है इसमें बहुत बड़ा रोल जन स्रुतियों का और हनुमान चालीसा का है। बच्चों के बीच में एक विचार काफी तेजी से फैला था कि जब भी रात में बड़े बाग में जाना हो तो हनुमान चालीसा का जाप करना चाहिए। अगर हनुमान चालीसा याद नहीं है तो हनुमान जी हनुमान जी कहते हुए जाना चाहिए। बड़े बाग में रात में जाने की आवश्यकता के कारण हम सभी बच्चों को हनुमान चालीसा कंठस्थ हो गई थी। बचपन में हनुमान जी से लगी लौ आज भी ज्यों की त्यों विद्यमान है।
तुलसीदास जी ने भी हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी है। उनको भी रात्रि में छत पर जाना पड़ता था। हम बालकों की तरह से वह भी रात में छत पर जाने से डरते थे। इसलिए उन्होंने भी हनुमान जी का सहारा लिया।
मूल बात यह है कि आपको एक ऊर्जा स्रोत का सहारा लेना चाहिए। ऊर्जा स्रोत के अलावा इधर-उधर देखना आपके चित्त को भ्रमित करेगा। इसीलिए तुलसीदास जी ने लिखा कि हमें केवल हनुमान जी को ही अपने चित्त में धारण करना है।और अगर हनुमान जी की सेवा करेंगे तो हमें सभी प्रकार के सुख में प्राप्त होंगे।
महिम्न स्तोत्र में पुष्पदंत कवि कहते हैं-
‘‘रुचीनां वैचित्र्याऋजु कुटिल नानापथजुषां’’
लोगों के रुचि-वैचित्र्य के कारण ही वे भिन्न-भिन्न देवताओंका पूजन करते हैं। लोगों की प्रकृति में अंतर होने के कारण उनकी ईश-कल्पना में भी अन्तर रहेगा ही। इसलिए किस आकार में, किस स्वरुपमें ईश्वरका पूजन करना चाहिए इस सम्बन्ध में शास्त्रकारोंने कोई आग्रह नहीं रखा। दो भिन्न-भिन्न देवताओं के मानने वालों के बीच में अज्ञान के कारण झगडा होता है। इस झगडे को मिटाने के लिए भगवान कहते हैं कि-
यो यो यां यां तनु भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विद्धाम्यहम्।।
सतया श्रद्धय युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हितान्।।
‘‘जो व्यक्ति जिस देव का भक्त होकर श्रद्धा से उसका पूजन करने की इच्छा करता है उस व्यक्ति की उस देव के प्रति श्रद्धा को मैं दृढ करता हूँ’’ ‘‘श्रद्धा दृढ होने पर वह व्यक्ति उस देव का पूजन करता है और मेरे द्वारा निर्धारित उस व्यक्ति की वांछित कामनाएँ उसे प्राप्त होती है।’’ इस दृष्टि से देखने पर मूर्ति को परम्परा का समर्थन प्राप्त है ऐसी हमारे आराध्य देव की मूर्ति में ही चित्त सरलता से एकार्ग हो सकता है।
तुलसीदास जी इसके पहले लिख चुके हैं की मन क्रम वचन से एकाग्र होकर के हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए। अब अगर हनुमान जी की हम ध्यान लगाते हैं तो सबसे पहले हमें हनुमान जी के हाथ में गदा दिखती है। जिससे वे शत्रुओं का संहार करते हैं। उसके बाद उनका वज्र समान मुख मंडल दिखता है। फिर उनका मजबूत शरीर और उनका आभामंडल दिखाई पड़ता है।
हम सभी जानते हैं कि उपासना में अनन्यता की आवश्यकता है। इस चौपाई द्वारा तुलसीदास जी शास्त्रीय मूर्तिपूजा का महत्व समझाते हैं। मूर्ति पूजा भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा मानव सभ्यता को दी गई एक बहुत बड़ी भेंट है। मूर्ति पूजा के कारण हम आसानी से अपने इष्ट का ध्यान लगा सकते हैं। मूर्तिपूजा एक पूर्ण शास्त्र है। मानव अपने विकाराें को परख ले, उन्हे क्रमश: कम करे, शुद्ध करें, उदात्त करें और अन्त में विचार और विकार रहित स्थिति में आ जाए जिसके लिए मूर्ति पूजा अत्यंत आवश्यक है। मूर्ति पूजा मनुष्य को शुन्य से अनंत की ओर ले जाती है। मूर्ति पूजा की शक्ति अद्भुत है। यह मानव को अनंत से मिलाने का रास्ता बनाती है।
पूजा कर्मकांड नहीं है वरन कर्मकांड पूजा में व्यक्ति को व्यस्त करने का एक तरीका है। सर्व व्यापी परमात्मा को एक मूर्ति में बांध देना कहां तक उचित है। मूर्ति पूजा के विरोधी अक्सर यह बात कहते हैं। परंतु यह भी सत्य है चित्त को एकाग्र करने के लिए मूर्ति पूजा अत्यंत आवश्यक है।
जीवन में मन काफी महत्वपुर्ण है। मन है तो सुनना है, मन है तो बोलना है, मन है तो सब कुछ है। मन को शांत करने पर ही नींद आती है। इसलिए जीवन की प्रत्येक क्रिया में मन आवश्यक है। भोगार्थ भी मन है और मुक्ति के लिए भी मन है। मन ही मूर्ति का आकार लेता है तब उसे ही एकाग्रता कहते हैं। ऐसी एकाग्रता अधिक समय तक टिकनी चाहिए।
इस प्रकार मन को यदि भगवान जैसा बनाना हो तो भगवान का ध्यान करना जरुरी है। भगवान ने मूर्तिपूजा का महत्व (सगुण साकार भक्ति का महत्व ) गीता के बारहवे अध्याय में बहुत ही अच्छी तरह समझाया है।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:।।
(गीता 12-2)
जो मुझमें मन लगाकर और सदा समान चित्तवाले रहकर परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मेरी दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ योगी है।
मन को एकाग्र करना कितना कठिन है यह बात गीता में अर्जुन ने भगवान श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के 34 में श्लोक में कही है।
चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम््।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
(गीता 6-34)
अर्थ:-हे कृष्ण! मन बलवान, चंचल, बलपुर्वक खींचनेवाला और आसानी से वंश में नहीं हो सकता। इसलिए मन को नियंत्रण में रखना वायु को रोकने के बराबर है।’’
अर्जुन के इस प्रश्न का जवाब देते हुए भगवान कहते हैं।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहते।।
(गीता 6-33)
हे महाबाहु अर्जून! सचमुच मन चंचल है एव निग्रह करने में कठीन है। फिर भी सतत अभ्यास एवं वैराग्य से हे कुन्तीपुत्र! उसे वश में किया जा सकता है।
मन को एकाग्र करने के अभ्यास योग में पाँच बातें अपेक्षित है- 1) आदरबुद्धि 2) दृढता 3) सातत्य 4) एकाकीभाव और 5) आशारहितता
इस प्रकार मेरे विचार से स्पष्ट हो गया की गोस्वामी तुलसीदास जी ने यह कहना चाहा है कि आप हनुमान जी या कोई भी ऊर्जा पुंज को अपने दिल में धारण करें और वही ऊर्जा पुंज (हनुमान जी) आपको सभी कुछ प्रदान करेंगे। आपको इधर उधर नहीं भागना चाहिए।
आपके ऊपर अगर कोई संकट आएगा विपत्ति आएगी व्याधि आएगी तो सब कुछ हनुमानजी मिटा कर समाप्त कर देंगे। बस आपको हनुमान जी की एकाग्र भक्ति करनी है। जय श्री राम। जय हनुमान।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 185☆ विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्
न चोरहार्यं न च राजहार्यं
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥
जिसे चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता, भाई बांट नहीं सकता, जिसका किसी तरह का कोई अतिरिक्त भार अनुभव नहीं होता, व्यय करने पर जो नित्य बढ़ता है, ऐसा विद्या रूपी धन सभी प्रकार के धनों में श्रेष्ठ है।
विद्या-धन से समृद्ध होना अर्थात केवल काग़ज़ पर छपा पढ़कर रट्टू तोता बनना नहीं होता। विद्या-धन वह, जो जानकारी से होते हुए ज्ञान तक ले जाए। यदि विद्या यह यात्रा नहीं कराती तो साक्षर व्यक्ति भी अज्ञानी ही कहलाता है।
एक लोकप्रिय प्रसंग है। एक साक्षर विद्वान, यात्रा पर थे। उन दिनों पदयात्रा हुआ करती थी। मार्ग में उन्हें तीव्र प्यास लगी। वे समीप के गाँव में पहुँचे। एक महिला कुएँ पर पानी भर रही थी।
विद्वान ने महिला से पीने के लिए जल मांगा। महिला ने कहा, “जल तो मिल जाएगा परंतु मैंने आपको आज से पूर्व कभी गाँव में नहीं देखा। कृपा करके अपना परिचय दीजिए।” ग्रामीण महिला को अपना परिचय देना विद्वान को अपमानास्पद लगा। तथापि सूखते कंठ की विवशता थी। किसी तरह स्वयं को नियंत्रित रखते हुए कहा, “मैं अतिथि हूँ।” महिला हँस पड़ी। बोली, “अतिथि तो दो ही होते हैं, धन और यौवन।” विद्वान महोदय कुछ विस्मित हुए। तब भी साक्षरता का अहंकार झुकने को तैयार नहीं था। तनिक झुंझला कर बोले,”मैं सहनशील हूँ।”। महिला फिर हँसी। बोली, “संसार में सहनशील तो दो ही हैं। एक पृथ्वी माता जो सारे अत्याचार सहकर, सबका बोझ उठाकर भी अन्न देती है। दूसरा वृक्ष जो पत्थर की चोट खाकर भी फल देता है।”
विद्वान की झुंझलाहट और हठ दोनों ही बढ़ चले। इस बार कहा, “सुनो, मैं हठी हूँ।” महिला ने ठहाका लगाया। बोली, “जगत में हठी तो दो ही हैं, हमारे नाखून और बाल। कितना ही काटो, फिर-फिर बढ़ जाते हैं। इनके हठ के आगे अन्य सारे हठ तुच्छ हैं।” अंतत: विद्वान को अपनी लघुता की अनुभूति हुई। इस बार विनम्रता से कहा, “देवी सत्य कहूँ, मुझे लगता है कि साक्षरता के अहंकार में ज्ञान से मैं वंचित रहा। वास्तविक ज्ञानी तो आप हैं। अब मुझे अपना परिचय मिला है। वस्तुत: मैं अज्ञानी हूँ।” विद्वान को आश्चर्य हुआ कि महिला इस बार भी हँसी। कहा, “जगत में अज्ञानी दो ही हैं। ऐसा राजा या राजवंशी जो बिना किसी योग्यता के राज करना चाहता है। दूसरे वे दरबारी जो राजा के अनुचित निर्णय में भी उसे प्रसन्न रखने के लिए उसकी प्रशंसा करते हैं।”
साक्षर अब ज्ञानमार्ग पर प्रशस्त हुआ। इस प्रसंग के पात्रों का उल्लेख अनेकदा महान कवि कालिदास और माँ सरस्वती के बीच संवाद के रूप में भी होता है।
प्रसंग नहीं, प्रसंग से प्राप्त प्रेरणा, प्रेरित होकर ज्ञानार्जन के पथ पर चलना महत्वपूर्ण है। ज्ञान का पथ अविराम है। ज्ञान का पथ ज्ञान की अकूत संपदा तक ले जाता है।
विद्या के सार्थक ग्रहण ओर समुचित क्रियान्वयन से उपजी ज्ञान की संपदा शाश्वत होती है। एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी, एक युग से अगले युग, उसके अगले युग तक, समय के आरंभ से समय के विराम तक बची रहती है ज्ञान की जननी विद्या। इसीलिए कहा गया है, ‘विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
अभी अभी ⇒ जलकुकड़ी/जल मुर्गी… श्री प्रदीप शर्मा
हमारा बचपन गोकुल की कुंज गलियों में नहीं,शहर के गली मोहल्लों में गुजरा !
पनघट ना होते हुए भी गुलैल से निशाना साधकर मटकी की जगह,फलदार वृक्षों से आम, इमली तोड़ना हमारे बाएं हाथ का खेल था। लड़ने झगड़ने और छेड़छाड़ के लिए हमें कभी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
लड़ने की यही विशेषता बड़े होकर चुनाव लड़ने में हमारे बहुत काम आई।
आज पक्की दोस्ती,तो कल बोलचाल बन्द। तू चुगलखोर तो तू जलकुक्कड़। कट्टी तो कट्टी,साबुन की बट्टी। ला मेरे पैसे,जा अपने घर। लेकिन आज अगर वही कोई बचपन का दोस्त मिल जाए,तो ये लगता है, कि जहां,मिल गया।।
हम आज भी आपस में एक दूसरे को देखकर कभी खुश होते हैं,तो कभी जल भुन जाते हैं। महिलाओं की किटी पार्टियों की खबरें उड़ती उड़ती आखिर हम तक भी पहुंच ही जाती है। मत पूछो, मिसेज डॉली के बारे में,वह तो बड़ी जल कुकड़ी है। बहुत दिनों बाद जब यह शब्द सुना,तो शब्दकोश याद आया। अरे,यह तो एक पक्षी है, White breasted Hen, यानी जल मुर्गी।
अगर मछली जल की रानी है,तो हमारी मुर्गी भी तो महारानी है। अगर मुर्गे को (Cock) कॉक कहते हैं तो मुर्गी को Hen कहते हैं। अंग्रेजी के अक्षर ज्ञान में हमने पढ़ा है। The Cock is crowing.
मुर्गा ही बांग देता है,मुर्गी तो बस, पक पक,किया करती है। बड़ी विचित्र है यह अंग्रेजी भाषा। अगर cock के आगे pea लग जाए तो वह peacock,यानी मोर हो जाता है। Crow से याद आया,कौए को भी crow ही कहते हैं,लेकिन वह बांग नहीं देता,सिर्फ कांव कांव किया करता है।।
कुछ लोग गाय पालते हैं तो कुछ कुत्ता ही पाल लेते हैं। गोशाला और अश्व शाला तो ठीक,कुत्ते के लिए तो उसके मालिक का घर ही उसकी पाठशाला है। पालन पोषण पुण्य का काम है। लेकिन पापी पेट के लिए इंसान को मत्स्य पालन और कुक्कुट पालन भी करना पड़ता है। गाय को चारा और मछलियों को चारे में जमीन आसमान का ना सही,जल और थल का अंतर तो है ही। इस पर हम ज्यादा नहीं लिखेंगे क्योंकि जीव: जीवस्य भोजनं और वैदिक हिंसा,हिंसा न भवति।
बड़ा अजीब है,यह जल शब्द भी। इसी जल से ही तो जीवन है। गर्मी में जहां यह शीतल जल अमृत है,वहीं जब सीने में जलन होती है तो आंखों में तूफान सा आ जाता है। जलते हैं जिसके लिए, तेरी आंखों के दिये।।
यही जल कहीं आग है,तो कहीं पानी है। जो आग दिल में जली हुई है,वही तो मंजिल की रोशनी है। लेकिन जब यही आग,यही जलन ईर्ष्या,द्वेष और नफरत की होती है तो जिंदगी में तूफान आ जाता है। किसी की खुशी से,उन्नति से,सफलता से जलना,अच्छी बात नहीं है। जल कुकड़ी बनें तो जल मुर्गी की तरह। और अगर आप जलकुक्कड़ हैं,तो भले ही आप पर घड़ों ठंडा पानी डाल दिया जाए,आप एक जल मुर्गी नहीं बन सकते।
अगर जलाएं तो अपना दिल नहीं,दिल का दीया जलाएं,जिससे आपका घर भी रोशन हो,और रोशन हो ये जहान,जिसमें हम रहते हैं यहां।।