हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 69 ⇒ आओ चीन को कोसें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ चीन को कोसें “।)  

? अभी अभी # 69 ⇒ आओ चीन को कोसें ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अगर आप दुश्मन को कमजोर करना चाहते हैं,तो उसे सामूहिक रूप से कोसना शुरू कर दें ! अगर सामूहिक अरदास और प्रार्थना असर करती है तो सामूहिक बददुआ भी बड़ी कारगर होती है ।

कोविड – 19 उर्फ कोरोना वायरस जब से आया है, इंसान का जीना हराम हो गया है । पहले भी जीना हराम होने के हमारे पास कई वाजिब कारण थे, सास बहू के झगडे थे, विपक्ष का रोना था, पाकिस्तान की खुराफात थी, आतंकवाद से लड़ाई में तो खैर पूरी दुनिया हमारे साथ थी । जिस शत्रु से हमारा युद्ध होता है, उसे कोसने की हमें फुर्सत नहीं होती । कोरोना की लड़ाई आमने सामने की लड़ाई नहीं है, पीछे हटने की लड़ाई है । यह पहली ऐसी लड़ाई है,जो हम घर में बैठकर लड़ रहे हैं । दुश्मन के लिए हमने मैदान साफ कर दिया है । वह  आए, सुनसान सड़कों, बंद संस्थानों, वाहनों के जाम चक्कों से अपना सर टकराए,और निराश हो वापस चला जाए ।।

पहले हमने कोरोना को कोसा ! लेकिन जब स्पष्ट हो गया कि इसे कोसने से हमें कुछ हासिल नहीं होने का, तो इसके मां बाप को कोसना शुरू कर दिया । कैसी औलाद पैदा कर दी चीन ने, जिसने दुनिया में तबाही मचा दी । हम इसको नहीं छोड़ेंगे ।

घर के बुजुर्ग ट्रंपवा बहुत खफा हैं चीन पर । चीन की  टट्टी पेशाब बंद कराने की बात कर रहे हैं । याद कीजिए नाइन इलेवन की वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना ! जिसमें ३००० बेकसूर लोग मारे गए थे । लेकिन अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को घर में घुसकर मारा था । इस कोरोना हमले में तो अमरीका के दो लाख से अधिक लोगों की जानें गई है । छोड़ेगा नहीं अमरीका चीन को ।।

दुश्मन का दुश्मन,हमारा दोस्त । फिर हमारा दोस्त अभी अभी  २४ फरवरी को  नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम में इंडिया पधारा था। हमने उससे नमस्ते नहीं की, उसको गले लगाया था । हम यह भी जानते हैं कि हमारा दुश्मन नंबर एक पाकिस्तान चीन से मिला हुआ है । दुश्मन का दोस्त, हमारा दुश्मन ।

जब हम कोरोना वीरों के लिए ताली, थाली बजा सकते हैं, रात्रि को ९ बजे, नौ दीप जला सकते हैं, उन पर पुष्प वर्षा करवा सकते हैं तो कोरोना के पिताजी की नींद हराम क्यों नहीं कर सकते ।।

हमारे  महर्षि दुर्वासा, और  परशुराम के शापों का असर दुनिया ने देखा है ।  क्यों न एक दिन हम चाइना धिक्कार दिवस के रूप में  मनाएं । चाइना तेरा मुंह काला हो, तेरा सत्यानाश हो, तुझे कीड़े पड़ें जैसे आशीर्वचन से जब १३० करोड़ भारतवासी मिलकर चाइना को कोसेंगे, धिक्कारेंगे तो उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाएगी ।

हो सकता है इस शुभ कार्य में ट्रंप सहित दुनिया के अन्य देश भी हमारी मदद करें । आखिर पूरी दुनिया को तबाह करने वाला, कोरोना वायरस का जनक चाइना ही तो है ।।

 – सन्दर्भ कोरोना 

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 68 ⇒ विदुर का साग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विदुर का साग।)  

? अभी अभी # 68 ⇒ विदुर का साग? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

ईश्वर के जितने भी अवतार होते हैं, वे दुष्टों को मारने और भक्तों को तारने के लिए होते हैं। जब से अवतार अवतरित नहीं हो रहे, दुष्टों को मारने और भक्तों को तारने की प्रक्रिया बंदप्राय ही हो चुकी है। भक्त और भगवान हैं तो सही, लेकिन लगता है मानो एक को दूसरे की तलाश है। मो को कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास रे ! जिस तरह हिरण अपने ही अंदर की कस्तूरी से अनभिज्ञ रहता है, लेकिन कस्तूरी की गंध के कारण इधर उधर भागा करता है, बस यही हाल एक भक्त का है। वह कभी भगवान को मंदिर में खोज रहा है, तो कभी कथा, कीर्तन, और तीर्थाटन में, तो कभी किसी कथित अवतारी पुरुष में।

जिस भगवान को हम छप्पन भोग लगाते हैं, जब वह अवतार लेता है, तो कभी शबरी के झूठे बेर खा लेता है, तो कभी सुदामा के मुट्ठी भर चावल। शास्त्रों में, कर्म-कांड में यह साफ साफ लिखा है, कि पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर कुछ पाओ। शबरी कहाँ वेद-शास्त्र पुराण पढ़ी थी। जब मंदिर से उठकर भगवान साक्षात प्रकट हो जाता है, तो कर्मकांड वहीं छूट जाता है। भक्त और भगवान की सारी दूरियाँ खत्म हो जाती हैं, मर्यादाएँ टूट जाती हैं। भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। विदुर का साग खाने के बाद विदुर, विदुर नहीं रह जाते, शबरी के झूठे बेर खाने के बाद शबरी नहीं रह जाती, सुदामा के चावल खाने के बाद सुदामा, सुदामा नहीं रह जाते। भक्त-भगवान की दूरियाँ मिट जाती हैं, सदा के लिए समाप्त हो जाती हैं। ।

जिस क्षण विदुर नीति के रचयिता धृतराष्ट्र के मंत्री, विदुर ने दंभी दुर्योधन का नमक त्याग, महल से कुटिया की ओर प्रस्थान किया, उसी पल से श्रीकृष्ण की दृष्टि दुर्योधन के मेवे-पकवान से हटकर, महात्मा विदुर के साग पर पड़ गई थी। गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म पितामह दुर्योधन का नमक नहीं छोड़ पाए। जिसका जैसा अन्न खाया, वैसा ही मन पाया और द्रौपदी का चीर-हरण उनकी आँखों के समक्ष होता रहा, वे कुछ न कर सके।

माँगी नाव, न केवट आना ! यह केवट प्रसंग भी अनूठा है। केवट जानता है, जो राम, लखन, सीता, मेरी नाव में पाँव रखने वाले हैं, उन्हीं श्रीराम के चरण रखते ही पत्थर की मूर्ति अहिल्या बन गई थी। कहीं मेरी नाव भी इनके चरण रखते ही स्त्री न बन जाए। ये सब भक्त बिना भेजे वाले होते हैं। एक धन्ना जाट लठ लेकर ठाकुर जी के मंदिर में खड़ा हो जाता है और भगवान को भोग लगाना ही पड़ता है तो एक राम भक्त हनुमान सीता माता के द्वारा उपहार-स्वरूप दिये मोतियों के हार को तोड़, उसमें अपने श्रीराम को ढूँढते नज़र आते हैं। जब सब दरबारी उनकी हँसी उड़ाते हैं, कि यह बंदर मोतियों में अपने आराध्य श्रीराम को ढूंढ रहा है, कैसा मूढ़ भक्त है, तब वानर श्रेष्ठ अपना हृदय चीरकर दिखाते हैं, और उनके आराध्य को वहाँ विराजमान होना ही पड़ता है। ।

इन कथाओं में निहित संदेश बस इतना ही है कि रूढ़ि, परंपरा, अंधविश्वास और कर्म-कांड किसी भक्त को बाँध नहीं सकते। मीरा ने उसे पति-परमेश्वर माना, तो सूरदास ने उनके बाल-स्वरूप को आराधा। हम इधर छप्पन भोग लगाते रह जाएँ, और वह शबरी के झूठे बेर में ही प्रसन्न हो जाएँ।

ऐश्वर्य लुटाने वाले उस परम पिता परमेश्वर के नाम पर कितने भी मंदिर बनाएं, उन्हें रत्न-जड़ित मुकुट पहनाएं, राजभोग कराएं, केवल भाव के भूखे भगवान, मात्र बिल्वपत्र से प्रसन्न हो जाते हैं। वह सुदामा के चावल और विदुर के साग पर अपना सारा ऐश्वर्य लुटाने को तैयार है। वहाँ कोई तीसरा नहीं होता, बस भक्त और भगवान होता है।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी आवाज सुनो।)  

? अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

कुछ आवाज़ें हम कई वर्षों से सुनते चले आ रहे हैं, वे आवाज़ें रेकॉर्ड की हुई हैं, वे लोग आज मौजूद नहीं हैं, सिर्फ उनकी आवाज आज मौजूद हैं। कभी उन्हें His Master’s Voice नाम दिया गया था और आज भी उन आवाजों को हम, नियमित रेडियो पर और अन्य अवसरों पर, विभिन्न माध्यमों द्वारा सुना करते हैं।

मेरी आवाज ही पहचान है ! जी हां, आज आप किसी भी आवाज को रेकाॅर्ड कर सकते हो, बार बार, हजार बार सुन सकते हो। जब कोई हमें आग्रह करता है, कुछ गा ना ! और जब हम कुछ गाते हैं, तो वह गाना कहलाता है। जो गाना हमें भाता है, उसे हम बार बार सुनते हैं, बार बार गाते हैं।।

बोलती फिल्मों के साथ ही, फिल्मों में गीत और संगीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा। पहले अभिनय के साथ अभिनेता को गाना भी पड़ता था, इसलिए कुंदनलाल सहगल और मुकेश अभिनेता बनते बनते गायक भी बन बैठे। बाद में अभिनेता आवाज उधार लेने लगे। और नूरजहां, सुरैया, खुर्शीद, शमशाद बेगम, लता, आशा, तलत, रफी, मुकेश और किशोर कुमार जैसी कई आवाजों ने अपनी पहचान बनाई।

क्या कोई गायक किसी की पहचान बन सकता है। मुकेश, आवारा हूं, गाकर राजकपूर की पहचान बन गए तो किशोर कुमार रूप तेरा मस्ताना गाकर, राजेश खन्ना की पहचान बन गए।

बड़ा विचित्र है, यह आवाज का सफर। पहले गीत जन्म लेता है, फिर संगीतकार पहले उसकी धुन बनाता है और बाद में एक गायक उसको अपना स्वर देता है। जब वह गीत किसी फिल्म का हिस्सा बन जाता है, तो नायक सिर्फ होंठ हिलाने का अभिनय करता है, और वह गीत एक फिल्म का हिस्सा भी बन जाता है। फिल्म में अभिनय किसी और का, और आवाज किसी और की। एक श्रोता के पास सिर्फ गायक की आवाज पहुंचती है। जब कि, एक दर्शक गायक को नहीं देख पाता, उस तक , पर्दे पर होंठ हिलाते , हाथों में हाथ डाले, राजेश खन्ना और फरीदा जलाल, बागों में बहार है , कलियों पे निखार है, गीत गाते , नजर आते हैं।।

सहगल के बाद ही गायकों का सिलसिला शुरू हुआ।

पहले तलत और लता अधिकांश नायक नायिकाओं की आवाज बने, लेकिन बाद में मोहम्मद रफी और मुकेश के साथ साथ किशोर कुमार, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, ही मुख्य गायक रहे। मुकेश सन् १९७६ में हम तो जाते अपने गाम कहकर चले गए तो १९८० में रफी साहब भी , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों , कहकर गंधर्व लोक पहुंच गए। एकमात्र लता और आशा का साम्राज्य आदि से अंत तक आवाज की दुनिया में कायम रहा। जब तक सुर है साज है, गीत है आवाज है। सुमन कल्याणपुर, हेमलता, से होती हुई आज श्रेया घोषाल तक कई नारी कंठ की आवाजें और शैलेंद्र सिंह, येसुदास, सुरेश वाडकर तथा उदित नारायण तक कई पुरुष स्वर श्रोताओं पर अपना प्रभाव छोड़ चुके हैं, लेकिन किसी की आवाज बनना इतना आसान नहीं होता।

राजकपूर के अलावा देवानंद के लिए पहले तलत और बाद में किशोर और रफी दोनों ने अपनी आवाजें दीं। गाता रहे मेरा दिल किशोर गा रहे हैं लेकिन प्रशंसकों के बीच देव साहब छा रहे हैं। दिन ढल जाए में श्रोता एक ओर रफी साहब की आवाज में डूब रहा है और दूसरी ओर तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं, में दर्शक देव साहब की अदा पर फिदा हो रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जब रफी साहब शम्मी कपूर के लिए गाते थे, तो उनकी काया में प्रवेश कर जाते थे और जब दिलीप साहब के लिए गाते थे, तो दोनों की रुह एक हो जाती थी।

एक दिलचस्प उदाहरण देखिए जहां अभिनेता और पार्श्व गायक एक साथ पर्दे पर मौजूद हैं। जी हां, मेरे सामने वाली खिड़की में, सुनील दत्त बैठे हैं, और उनके पीछे किशोर कुमार छुपकर एक चतुर नार से मुकाबला कर रहे हैं। कौन अच्छा अभिनेता, सुनील दत्त अथवा गायक किशोर कुमार, हम चुप रहेंगे।

आप सिर्फ इनकी आवाज सुनो और फैसला दो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #186 ☆ मौन : सबसे कारग़र दवा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : सबसे कारग़र दवा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 186 ☆

☆ मौन : सबसे कारग़र दवा 

‘चुप थे तो चल रही थी ज़िंदगी लाजवाब/ ख़ामोशियाँ बोलने लगीं तो मच गया बवाल’– यह है आज के जीवन का कटु यथार्थ। मौन सबसे बड़ी संजीवनी है, सौग़ात है। इसमें नव-निधियां संचित हैं, जिससे मानव को यह संदेश प्राप्त होता है कि उसे तभी बोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से श्रेष्ठ, बेहतर व उत्तम हों। जब तक मानव मौन की स्थिति में रहता है; प्रत्युत्तर नहीं देता; न ही प्रतिक्रिया व्यक्त करता है– किसी प्रकार का भी विवाद नहीं होता। संवाद की स्थिति बनी रहती है और जीवन सामान्य ढंग से ही नहीं, सर्वश्रेष्ठ ढंग से चलता रहता है…जिसका प्रत्यक्ष परिणाम हैं वे परिवार, जहां औरत कठपुतली की भांति आदेशों की अनुपालना करने को विवश होती है। वह ‘जी हां!’ के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कहती। इसके विपरीत जब उसकी चुप्पी अथवा ख़ामोशी टूटती है, तो जीवन में बवाल-सा मच जाता है अर्थात् उथल-पुथल हो जाती है।

आधुनिक युग में नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग है और वह अपनी आधी ज़मीन वापिस लेना चाहती है, जिस पर पुरुष-वर्ग वर्षों से काबिज़ था। सो! संघर्ष होना स्वाभाविक है। वह उसे अपनी धरोहर समझता था, जिसे लौटाने में उसे बहुत तकलीफ हो रही है। दूसरे शब्दों में वह उसे अपने अधिकारों का हनन समझता है। परंतु अब वह बौखला गया है, जिसका प्रमाण बढ़ती तलाक़ व दुष्कर्म व हत्याओं के रूप में देखने को मिलता है। आजकल पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक नहीं होते; प्रतिद्वंदी के रूप में व्यवहार करते भासते हैं और एक छत के नीचे रहते हुए अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। उनके मध्य व्याप्त रहता है–अजनबीपन का एहसास, जिसका खामियाज़ा बच्चों को ही नहीं; पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है। सभी एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। एकल परिवार की संख्या में इज़ाफा हो रहा है और बुज़ुर्ग वृद्धाश्रमों की ओर रुख करने को विवश हैं। यह है मौन को त्यागने का प्रतिफलन।

‘एक चुप, सौ सुख’ यह है जीवन का सार। यदि आप मौन रहते हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, तो समस्त वातावरण शांत रहता है और सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाता है। सो! आप घर-परिवार को बचा सकते हैं। इसलिए लड़कियों को जन्म से यह शिक्षा दी जाती है कि उन्हें हर स्थिति में चुप रहना है। कहना नहीं, सहना है। उनके लिए श्रेयस्कर है चुप रहना–इस घर में भी और ससुराल में भी, क्योंकि पुरुष वर्ग को न सुनने की आदत कदापि नहीं होती। उनके अहम् पर प्रहार होता है और वे बौखला उठते हैं, जिसका परिणाम भयंकर होता है। तीन तलाक़ इसी का विकृत रूप है, जिसे अब ग़ैर-कानूनी घोषित किया गया है। ग़लत लोगों से विवाद करने से बेहतर है, अच्छे लोगों से समझौता करना, क्योंकि अर्थहीन शब्द बोलने से मौन रहना बेहतर होता है। मानव को ग़लत लोगों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे मानसिक प्रदूषण बढ़ता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी बेहतर है। वैसे भी सार्थक व कम शब्दों में बात करना व उत्तर देना व्यवहार-कुशलता का प्रमाण होता है, अन्यथा दो क़रीबी दोस्त भी एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते।

‘एक्शनस स्पीक लॉउडर दैन वर्ड्स’ अर्थात् मानव के कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में बोलते हैं। इसलिए अपनी शेखी बखान करने से अच्छा है, शुभ कर्म करना, क्योंकि उनका महत्व होता है और वे बोलते हैं। सो! मानव के लिए जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाना अत्यंत कारग़र है और मौन रहना सर्वश्रेष्ठ। मानव को यथासमय व  अवसरानुकूल सार्थक ध्वनि  व उचित अंदाज़ में ही बात करनी चाहिए, ताकि जीवन व घर- परिवार में समन्वय व सामंजस्यता की स्थिति बनी रहे। मौन वह संजीवनी है, जिससे सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है और जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 65 ⇒ धुन और ध्यान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धुन और ध्यान।)  

? अभी अभी # 65 ⇒ धुन और ध्यान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो अपनी धुन में रहते हैं, उन्हें किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहता ! तो क्या धुन में रहना ध्यान नहीं ? जब किसी फिल्मी गीत की धुन तो ज़ेहन में आ जाती है, लेकिन अगर शब्द याद नहीं आते, तो बड़ी बैचेनी होने लगती है ! सीधा आसमान से संपर्क साधा जाता है, ऐसा लगता है, शब्द उतरे, अभी उतरे। कभी कभी तो शब्द आसपास मंडरा कर वापस चले जाते हैं। याददाश्त पर ज़बरदस्त ज़ोर दिया जाता है और गाने के बोल याद आ जाने पर ही राहत महसूस होती है। इस अवस्था को आप ध्यान की अवस्था भी कह सकते हैं, क्योंकि उस वक्त आपका ध्यान और कहीं नहीं रहता।

धुन और ध्यान की इसी अवस्था में ही कविता रची जाती है, ग़ज़ल तैयार होती है। संगीत की धुन कंपोज की जाती है। सारे आविष्कार और डिस्कवरी धुन और ध्यान का ही परिणाम है। जिन्हें काम प्यारा होता है, वे भी धुन के पक्के होते हैं। जब तक हाथ में लिया काम समाप्त नहीं हो जाता, मन को राहत नहीं मिलती।।

ध्यान साधना का भी अंग है।

किसी प्यारे से भजन की धुन, बांसुरी अथवा अन्य वाद्य संगीत की धुन, मन को एकाग्र करती है और ध्यान के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है। आजकल आधुनिक दफ्तर हो, या सार्वजनिक स्थल, होटल हो या रेस्त्रां, और तो और अस्पतालों में भी वातावरण में धीमी आवाज़ में संगीत बजता रहता है। मद्धम संगीत वातावरण को शांत और सौम्य बनाता है।

धुन बनती नहीं, आसमान से उतरती है ! आपने फिल्म नागिन की वह प्रसिद्ध धुन तो सुनी ही होगी ;

मन डोले , मेरा तन डोले

मेरे दिल का गया करार

रे, ये कौन बजाए बांसुरिया।

गीत के शब्द देखिए, और धुन देखिए। आप जब यह गीत सुनते हैं, तो आपका मन डोलने लगता है। लगता है, बीन की धुन सुन, अभी कोई नागिन अपने तन की सुध बुध खो बैठेगी। कैसे कैसे राग थे, जिनसे दीपक जल जाते थे, मेघ वर्षा कर देते थे।

संगीत की धुन में मन जब मगन होता है, तो गा उठता है ;

नाचे मन मोरा

मगन तिथ धा धी गी धी गी

बदरा घिर आए

रुत है भीगी भीगी

ऐसी प्यारी धुन हो, तो ध्यान तो क्या समाधि की अवस्था का अनुभव हो जाए, क्योंकि यह संगीत सीधा ऊपर से श्रोता के मन में उतरता है।

रवीन्द्र जैन धुन के पक्के थे।

वे जन्मांध थे, लेकिन प्रज्ञा चक्षु थे।

घुंघरू की तरह, बजता ही रहा हूं मैं। कभी इस पग में, कभी उस पग में, सजता ही रहा हूं मैं।।

इतना आसान नहीं होता, प्यार की धुन निकालना ! देखिए ;

सून साईबा सुन

प्यार की धुन !

मैंने तुझे चुन लिया

तू भी मुझे चुन।।

हम भी जीवन में अगर एक बार प्यार की धुन सुन लेंगे, हमारा ध्यान और कहीं नहीं भटकेगा। वही राम धुन है, वही कृष्ण धुन है। धुन से ही ध्यान है, धुन से ही समाधि है। कबीर भी कह गए हैं, कुछ लेना न देना, मगन रहना।

नारद भक्ति सूत्र में कीर्तन का महत्व बतलाया गया है। कुछ बोलों को धुन में संजोया जाता है और प्रभु की आराधना में गाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु हों या एस्कॉन के स्वामी प्रभुपाद।

नृत्य और कीर्तन ही इस युग का हरे रामा, हरे कृष्णा है। जगजीत सिंह की धुन सुनिए, मस्त हो जाइए ;

हरे रामा, हरे रामा

रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा, हरे कृष्णा

कृष्णा कृष्णा हरे हरे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 64 ⇒ बिना शीर्षक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिना शीर्षक।)  

? अभी अभी # 64 ⇒ बिना शीर्षक? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किशोर कुमार का फिल्म रंगोली(१९६२) में गाया एक खूबसूरत गीत है, जिसके बोल शैलेंद्र ने लिखे हैं ;

छोटी सी ये दुनिया

पहचाने रास्ते हैं ;

तुम कहीं तो मिलोगे,

कभी तो मिलोगे,

तो पूछेंगे हाल।।

हम कुएं के मेंढक, हमारे लिए तो दुनिया वैसे भी छोटी ही रहती है, लेकिन जब से हमारे हाथ में मोबाइल आया और हम फेसबुक से जुड़े, हमने जाना, यह दुनिया कितनी विशाल है और फेसबुक ने हमें दूर दराज के जाने अनजाने लोगों से जोड़कर, वाकई इसे छोटा कर दिया है।

शैलेंद्र कितने भविष्य-दृष्टा थे, उन्हें कितना भरोसा था, कि हम कहीं तो मिलेंगे, कभी तो मिलेंगे, तो एक दूसरे का हाल जरूर पूछेंगे। और देखिए, शैलेंद्र की ईमानदार कोशिश रंग लाई, आज हम सब एक दूसरे का हाल पूछ रहे हैं, कौन कहां कितनी दूर है, किस स्थिति में है, लेकिन प्रेम की डोर, शायद रिश्ते की डोर से भी मजबूत होती है।।

कहने दें, जो कहें इसे एक आभासी दुनिया, गुरुदत्त तो बहुत पहले ही इस कथित असली दुनिया को लात मारकर ठुकरा चुके थे, साहिर ने उन्हें शब्द दिए, और रफी ने उन्हें जबान ;

जला दो, जला दो

इसे फूंक डाले ये दुनिया,

मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया

तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो …क्या है ….!!

वे प्यासे ही रहे, कागज के फूलों में कहां महक रहती है। असली और नकली का फर्क शायद देवानंद जानते थे, इसीलिए शायद वे कह पाए ;

कल की दौलत आज की खुशियां ,

उनकी महफिल अपनी गलियां।

असली क्या है, नकली क्या है,

पूछो दिल से मेरे।।

आभासी ही सही, हमारे रिश्ते इतने बुरे भी नहीं। यहां हमें फेसबुक ने केवल मित्रता के सूत्र में बांधा है, हमारी अपनी पसंद की एक मित्र सूची है। एक खिड़की है, आप जब चाहे खोलें, बंद कर लें। कभी खुली हवा तो कभी घुटन, कभी प्रेम की ठंडी बयार, तो कभी अजीब उलझन।

कभी हमें भी मित्रता बढ़ाने का शौक था, दूर के मित्र, 🖋️ pen friends कहलाते थे, उन्हें चिट्ठियां लिखी जाती थी। चिट्ठी के जवाब की प्रतीक्षा रहती थी। जब आपस में मिलते, पुराने दिन याद आ जाते। आज पास के लोग दूर होते चले जा रहे हैं, और दूर के लोग, आभासी ही सही, अधिक करीब आते चले जा रहे हैं।।

समय और दूरियों ने असली और आभासी की दूरी को बहुत कुछ कम कर दिया है। जब फोन से ही काम हो जाता है, तो क्यों ट्रैफिक जाम में फंसा जाए, महीनों हो गए, बरसों हो गए, करीबी लोग, कितने दूर होते चले गए। जब तक दफ्तर की जिंदगी रही, रिश्तों की आमद रफ्त होती रही। आज भी कुछ यार दोस्त मिल लेते हैं, मॉर्निंग वॉक में, बगीचे में, कॉफी हाउस में, और कुछ शादी ब्याह और इतर प्रसंग में।

जुड़ना ही योग है। हम फेसबुक के जरिए मिले, यह भी एक योग ही है। एक परिवार की ही तरह एक दूसरे के हालचाल भी पूछ ही लेते हैं, मिलने की आस जरूर कायम रहती है, जहां अधिक करीबी महसूस होती है, फोन से संपर्क होता रहता है। सबको तो नहीं जाना, लेकिन पहचानने की कोशिश जरूर की। हम आप, कितने करीब हैं, अभी अभी का यह शीर्षक तय करेगा, क्योंकि यह इस बार बिना शीर्षक है। आपका दिया हुआ शीर्षक ही हमारे आभासी रिश्ते की असली पहचान सिद्ध होगी। हमारा जोड़ और मजबूत हो, कोई कमजोर कड़ी हमारे बीच मौजूद ना हो, ईश्वर से यही आस, अरदास।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 217 ☆ आलेख – समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखसमकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 217 ☆  

? आलेख – समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता?

प्रतिबद्धता को साहित्यिक आलोचना के संदर्भ में  इस तरह समझा जाता है कि रचना के केंद्र में सर्वहारा वर्ग की उपस्थिति है या नहीं ?  अर्थात  व्यंग्यकार से यह अपेक्षा कि वह दलित, पीड़ित,  दबे, कुचले व्यक्ति या समाज के भले के लिये ही लिखे. जब ऐसा लेखन होगा तो वह सामान्यतः शासन के, सरकारों के, अफसरों और नेताओ के, पूंजीपतियों और सेठों के विरोध में ही होगा. पर मेरी नजरों में ऐसा नहीं है कि व्यंग्य का काम केवल यही है. प्रति प्रश्न है कि क्या जालसाजी करके झूठे कागजों से यदि कोई गरीब बार बार सरकारी योजनाओ का गलत लाभ उठाता है तो क्या उस पर व्यंग्यकार को कटाक्ष कर उसे चेतावनी नहीं देनी चाहिये ?

पीड़ित दिखने वाला सदैव पीड़ित ही नहीं होता यह प्रमाणित होता है जब राशन कार्ड के भौतिक सत्यापन से ढ़ेरों नाम गायब हो जाते हैं. दरअसल यह प्रवृति कम कमजोर द्वारा ज्यादा कमजोर के शोषण को इंगित करती है और मेरी नजर में यहां प्रतिबद्धता सत्य के पक्ष में होनी चाहिये. यदि शासन ऐसे गलत कार्य करने वालो की धर पकड़ करे तो व्यंग्यकार को सरकार के साथ होना चाहिये न कि प्रतिबद्धता का चोला ओढ़कर गलत कार्य कर रहे व्यक्ति के साथ.

प्रतिबद्धता की बाते करते हुए सदैव सर्वहारा साहित्य का आग्रह किया गया और कहा गया कि सामाजिक रूपांतरण में रचना की भूमिका ‘पक्षधर विपक्ष’ की होनी चाहिए. प्रगतिवादी, जनवादी आंदोलन से साहित्य आजादी के बाद से सतत प्रभावित रहा. किन्तु आज व्यंग्य आंखे खोलकर लिखा जा रहा है, महज किसी वाद के चलते नहीं. अतः हो सकता है कि प्रतिबद्धता की परिभाषा के चश्मे से व्यंग्य में प्रतिबद्धता का अभाव नजर आये, पर सत्य के और मानवीय नैसर्गिक मूल्यों की कसौटी पर व्यंग्यकार खरी खरी ही लिख रहा है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 63 ⇒ पंच और पंक्चर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंच और पंक्चर”।)  

? अभी अभी # 63 ⇒ पंच और पंक्चर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इससे बड़ा पंच और क्या होगा कि, वर्ल्ड बाइसिकल डे, यानी साइकिल दिवस पर बीच सड़क में आपकी साइकिल पंक्चर हो जाए ! चलते चलते साइकिल की हवा निकल जाना, अथवा सड़क पर किसी ट्यूब के भ्रष्ट यानी बर्स्ट होने की आवाज होना, एक ही बात है।

ऐसे साइकिल दिवस हमने बहुत मनाए हैं। साइकिल को हाथ में लेकर चलते हुए, किसी पंक्चर पकाने वाले की दूकान तलाशी जाती है, राहगीरों से मदद ली जाती है, अचानक आशा की किरण जाग उठती है, जब कुछ पुराने टायरों के बीच एक साइनबोर्ड नजर आता है, यहां पंचर सुधारे जाते हैं। भला आदमी पहले तो पंक्चर शब्द को बिगाड़ कर, तू उसी तरह पंचर कर रहा है जैसे कुछ सज्जन व्यंग्य को बिगाड़ कर व्यंग लिख मारते हैं। क्या इसे ही पंक्चर सुधारना कहते हैं। ।

हम बाइसिकल को साइकिल इसलिए कहते हैं, कि इसे आजीवन दुपहिया ही रहना है, इसके नसीब में चार पहिए नहीं !

लोग पहले साइकिल से टू व्हीलर पर आते हैं, और तत्पश्चात् टू व्हीलर से फोर व्हीलर पर। जब कि साइकिल की यात्रा उल्टी चलती है। वह छोटी होकर कभी बच्चे की ट्राइसिकल

बन जाती है, तो कभी और बच्चा होकर चार पहिए की बच्चा गाड़ी बन जाती है। अच्छी विकासशील है साइकिल।

बच्चा गाड़ी में पूत के पांव आसानी से नजर आ जाते हैं। साहब और मैम साहब सुबह बगीचे में मॉर्निंग वॉक के लिए जाते हैं। साथ में एक आया होती है, जो बच्चा गाड़ी में साहबजादे का खयाल रखती हुई पीछे पीछे चलती है। मैम साहब के साथ, रोजाना की तरह, एक चार पांव का प्राणी होता है, जिसे आप कुत्ते के अलावा किसी भी नाम से संबोधित कर सकते हैं। ।

अब पूत के पांव तो आपने बच्चा गाड़ी में देख ही लिए, साहब का पुत्र है, साहब ही बनेगा, कोई संतरी नहीं और अगर यह पूत किसी मंत्री का हुआ तो इसे तो जीवन भर राज ही करना है, क्योंकि दुनिया में आज इसके बाप का ही तो राज है।

हमें इन सबसे क्या लेना देना। भैया तू तो पंचर सुधार दे और अपने पैसे ले ले, अच्छा भला साइकिल दिवस था, वह भी पंचर हो गया। लेकिन उसे भी तो ज्ञान बांटना है। कहां से कबाड़े से उठा लाए इस साइकिल को, आगे का टायर देखो, हवा भरो तो ट्यूब बच्चे जैसे टायर से बाहर निकल आता है, कितने गैटर लगे हैं देखो। मेरी मान लो, इस अटाले को यहीं छोड़ जाओ, बढ़िया ट्यूबलेस टायर वाली, ऑटोमैटिक गियर वाली नई साइकिल ले लो, साइकिल दिवस पर। आज तो साइकिल के पचास रुपए दे भी रहा हूं, वर्ना कल तीन सौ रुपए ले आना, ट्यूब टायर, दोनों बदलेंगे साइकिल के। समझे बाबू जी। ।

शायद इसे ही कहते हैं, एक और पंच ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 69 – किस्साये तालघाट… भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 69 – किस्साये तालघाट – भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अभय कुमार का व्यवहारिक प्रशिक्षण चल रहा था और वो जनरल बैंकिंग में निपुण होने की दिशा में शाखाप्रबंधक जी के मार्गदर्शन में कदम दर कदम आगे बढ़ते जा रहे थे. बॉस गुरु की भूमिका में रुचि लेकर बेहतर परफार्म कर रहे थे और अभय शिष्य की भूमिका में उनकी गुरुता का लाभ प्राप्त कर रहे थे. यद्यपि इस कारण शाखा की बहुत सारी अनियमिततायें भी दूर हो रही थीं पर स्नेह और सम्मान का बंधन दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ हो रहा था. इस प्रक्रिया में घड़ी और कैलेण्डर की भूमिका गौड़ होते जा रही थी. स्नेह की पहली शर्त सानिध्य होती है जो कुछ अच्छा सीखने और करने की चाहत और जीवन  के प्रति पॉसिटिव नजरिये से घनिष्ठता की ओर बढ़ता जाता है. अपनों की जरूरत उम्र के हर पड़ाव में महसूस होती है और शाखाप्रबंधक जी भी अपने इस शिष्य को स्नेह के साथ साथ कैरियर में आगे बढ़ने के गुरुमंत्र दे रहे थे. ट्रेनी ऑफीसर बनने का लक्ष्य उन्होंने अभय के लिये गुरु दक्षिणा के रूप में मांग लिया था और इस पदोन्नति के लिये अनिवार्य परीक्षाओं का स्टडी मैटेरियल वो बराबर अपने संपर्क माध्यमों से अभय को उपलब्ध करा रहे थे. एक रविवार को शाखा के महत्वपूर्ण पेंडिंग निपटाने के बाद उन्होंने अभय से वचन लिया कि मेरा तो इस साल या बहुत हुआ तो अगले साल स्थानांतरण हो ही जाना है पर तुम्हें इस शाखा से टी. ओ. बनकर ही निकलना है. उनके बिना इस शाखा में रहने की कल्पना से ही सिहर उठे अभय ने, उन्हें आश्वस्त किया कि वह उनकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास पूरी निष्ठा और मेहनत से करेगा पर प्लीज़ आप इस शाखा से जाने की बात मत करिए. आप मेरे लिए, शाखाप्रबंधक से भी ज्यादा मायने रखते हैं.

शाखाप्रबंधक जी ने कहा “ये शाखा और मैं खुद तुम्हारी इस यात्रा के पहले पड़ाव हैं, आगे बहुत से पड़ाव आयेंगे और तुम्हें कदम दर कदम पूरी निष्ठा, मेहनत और अपनी प्रतिभा से अपनी मंजिल पानी है, हर मंजिल को एक पड़ाव ही समझना और मैं कहीं भी रहूं, तुम्हारी हर सफलता की खबर पाकर मुझे बहुत खुशी होगी.

किसे पता था कि अगले दिन वो जहाँ जाने वालें हैं वहाँ इस लोक की खबरें नहीं पहुंचती. वो सोमवार की मनहूस सुबह थी जब शाखाप्रबंधक जी मार्निंग वॉक से वापस आकर शाखा परिसर में ही बैठ गये. थकान और दर्द के कारण ऊपर जाने की उनकी हिम्मत नहीं थी. ड्यूटी पर मौजूद सिक्युरिटी गार्ड ने तुरंत उन्हें पानी का गिलास पकड़ाया पर हाथ से उनके इधर गिलास छूटा और उधर आत्मा ने शरीर का साथ छोड़ा. ये कार्डियक अरेस्ट था, जब तक परिवार नीचे आकर कुछ समझ पाता, निदान कर पाता, वो सबको छोड़कर जा चुके थे. सारे उपस्थित परिजन और प्रियजन स्तब्ध थे और बैंक आने की तैयारी कर रहे अभय कुमार तक जब यह खबर पहुंची तो जैसे हालत थी उसी हालत में बाथरूम स्लीपर्स में ही दौड़कर वो शाखा परिसर में पहुंच गये. पंछी पिंजरा तोड़कर उड़ चुका था और शेष था उनके साथ गुजरा हुआ वक्त जो अब दर्द से कराहती यादों में बदलने की प्रक्रिया आरंभ कर चुका था.   नश्वरता ने फिर शाखा के सारे टॉरगेट्स, परफारमेंस और पेंडिग्स पर विजय पाई और जिम्मेदार सारे सवालों को अनुत्तरित कर अपनी अंतिम यात्रा की ओर अग्रसर हो रहा था. अभय कुमार के लिये ये आघात व्यक्तिगत था, असहनीय था और उसे मालुम था कि अपने परम श्रद्धेय गुरु का विछोह सह पाना उसके लिये असंभव था, कठिनतम था. परिवार भी अपने सूर्य के जाने से जीवन में आने वाले अंधकार की कल्पना से ही व्यथित था. जीवन की नश्वरता न जाने कितने रूप बदल बदलकर सामने आती है पर ये आकस्मिक आघात सहना साधारण बात नहीं होती. सारी आध्यात्मिकता और प्रवचन उस वक्त प्रभावहीन हो जाते हैं जब सुरक्षा, संबल और स्नेह देने वाला अपना कोई प्रियजन अचानक ही बिना बोले शून्य में चला जाता है.

नोट :इतना लिखने के बाद मेरे पास भी आंसुओं के अलावा कुछ शेष नहीं है पर अभय कुमार के समान ही मैं भी वचनबद्ध हूं इस कहानी को जारी रखने के लिये, तो फिर मिलेंगे, नमस्कार !!!

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 62 ⇒ माड़ साब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माड़ साब।)  

? अभी अभी # 62 ⇒ माड़ साब? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जिस तरह सरकारी दफ्तरों में एक किस्म बड़े बाबू की होती है, ठीक उसी तरह सरकारी स्कूलों में शिक्षक की एक किस्म होती है, जिसे माड़ साब कहते हैं। बड़े बाबू, नौकरशाही का एक सौ टका शुद्ध, टंच रूप है, जिसमें रत्ती भर भी मिलावट नहीं, जब कि शिक्षा विभाग में माड़ साब जैसा कोई शब्द ही नहीं, कोई पद ही नहीं।

माड़ साब, एक शासकीय प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक यानी शिक्षक महोदय, जिन्हें कभी मास्टर साहब भी कहा जाता था, का अपभ्रंश यानी, बिगड़ा स्वरूप है।।

हमें आज भी याद है, हमारी प्राथमिक स्कूल की नर्सरी राइम, ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, क्लास में बैठे पंडित जी ….( रिक्त स्थानों की पूर्ति आप ही कर लीजिए ) होती थी। यह तब की बात है, जब छम छम छड़ी की मार से, विद्या धम धम आती थी। बेचारे पंडित जी, कब मास्टर जी हो गए, और जब अधेड़ होते होते, माड़ साब हो गए, उन्हें ही पता नहीं चला।

इस प्राणी में यह खूबी है, कि यह केवल सरकारी स्कूलों में ही नजर आता है। हायर सेकंडरी के कुछ वरिष्ठ शिक्षक लेक्चरर अथवा व्याख्याता कहलाना अधिक पसंद करते हैं। आजकल प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल कहलाए जाने लगे हैं, वहां सर अथवा टीचर किस्म के शिक्षक उपलब्ध होते हैं, जिनकी तनख्वाह माड़ साहब जितनी तो नहीं होती, लेकिन जिम्मेदारी धड़ी भर होती है।।

वैसे यहां सरकारी स्कूलों में शिक्षिका भी होती हैं, जिन्हें कभी सम्मान से बहन जी कहा जाता था। लेकिन जब बहन जी भी घिस घिस कर भैन जी कहलाने लगी, तो उन्हें सम्मान से मैडम अथवा टीचर जी कहकर संबोधित किया जाने लगा।

मैडम शब्द के बारे में भी हमारे कार्यालयों में बड़ी भ्रांति है। शिक्षा के क्षेत्र से प्रचलित यह शब्द किसी विवाहित महिला के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए, लेकिन माड़ साब की तरह और मिस्टर की तरह मैडम शब्द हर कामकाजी महिला, और एक आम शिक्षिका के लिए प्रयुक्त होने लग गया।।

एक बार स्थिति बड़ी विचित्र पैदा हो गई, जब किसी बैंक में एक रिटायर्ड फौजी पेंशनर ने किसी महिला कर्मचारी से पूछ लिया, Are you married? उस बेचारी कुछ दिन पहले ही लगी लड़की ने कह दिया, No Sir, I am still a bachelor! इस पर उस पेंशनर ने आश्चर्य व्यक्त किया, why then, these people call you Madam, I don’t understand. आपके साथी आपको मैडम क्यों कहते हैं, मुझे समझ में नहीं आता।

वैसे मास्टर शब्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ! जो किसी भी विधा में, अपने इल्म में दक्ष हो, उसे मास्टर कहा जाता है। मास्टर्स की डिग्री वैसे भी बैचलर्स की डिग्री से बड़ी होती है।।

संगीत और नृत्य में मास्टर जी, किसी उस्ताद अथवा गुरु से उन्नीस नहीं होते।

अध्यात्म के क्षेत्र में जो अदृश्य शक्तियां अमृत काल में, साधकों की सहायता करती हैं, उन्हें भी मास्टर ही कहते हैं। महावतार बाबा, युक्तेश्वर गिरी और लाहिड़ी महाशय की गिनती ऐसे ही मास्टर्स में होती है।

माड़ साब के साथ ऐसा कोई धर्मसंकट नहीं। उन्हें माड़ साब सुनने की वैसे ही आदत है, जैसे एक बड़े बाबू आजीवन घर और बाहर बड़े बाबू ही कहलाते चले आ रहे हैं। मेरे कई पारिवारिक और घनिष्ठ मित्रों को मुझे भी मजबूरन माड़ साब ही कहना पड़ता है। अगर कभी गलती से उनका नाम लेने में भी आ गया, तो सामने वाला सुधार कर देता है, अच्छा वही माड़ साब ना।।

रिश्तों पर आजकल घनघोर संकट चल रहा है। प्रेम के संबंध और रिश्ते गायब होते जा रहे हैं, रिटायर्ड अकाउंटेंट और शिक्षाकर्मी और शिक्षाविद् जैसे भारी भरकम शब्द अधिक प्रचलन में है। कल ही मैने अपने एक प्रिय माड़ साब को खोया है, ईश्वर इन रिश्तों की रक्षा करे ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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