(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 191 ☆
आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स
भारतीय तथा एशियन डायसपोरा सारी दुनिया में फैला हुआ है । पिछले लंबे समय से मैं अमेरिका में हूं , मैने पाया है की यहां अनेक लोग भारत में मिलने वाली वस्तुएं लेना चाहते हैं पर वे चीजें अमेजन यू एस में उपलब्ध नहीं हैं । अमेजन द्वारा या अन्य किसी के द्वारा वैश्विक वितरण का ई कामर्स शुरू हो सकता है , लोग फ्राइट चार्ज सहज ही दे सकते हैं । इस तरह की सेवा शुरू हो तो लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी । अभी भी ये वस्तुएं अमेरिका में मिल तो जाती हैं पर उसके लिए किसी इंडियन या पाकिस्तानी , बांग्लादेशी स्टोर्स में जाना होता है । अमेजन का अमेरिका सहित प्रायः विभिन्न देशों में बड़ा वितरण , तथा वेयर हाउस नेटवर्क है ही , केवल उन्हे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डिलीवरी प्रारंभ करनी है ।
मुझे स्मरण है की पिछले कोरोना काल में मैने अपने बच्चों को बड़े बड़े पार्सल सामान्य घरेलू खाने पीने के सामानों की भेजी थी , जिसमे मकर संक्रांति पर तिल के लड्डू भी थे । सात दिन में पार्सल हांगकांग , अमेरिका , लंदन , दुबई पहुंच गए थे ।
नए स्टार्ट अप हेतु भी मेरा यह सुझाव एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बन सकता है , जो अच्छा खासा निर्यात कर सकता है ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
परदेश: बेतार के तार
विगत दिन यहां विदेश में एक समुद्र तट पर जाना हुआ जिसका नाम “मारकोनी” हैं। मानस पटल पर पच्चास वर्ष पुरानी यादें ताज़ा हो गई।
बात सन अस्सी से पूर्व की है, भोपाल सर्कल में एक प्रोबेशनरी अधिकारी श्री विजय मोहन तिवारी जी ने बैंक की नौकरी से त्यागपत्र देकर कोचिंग कक्षा केंद्र आरंभ किया था।
प्रथम दिन उन्होंने बताया की किसी पुरानी बात को याद रखने के लिए उसको किसी अन्य वस्तु / स्थान आदि से जोड़ कर याद रखा जा सकता हैं। उद्धरण देते हुए उनका प्रश्न था कि “रेडियो” का अविष्कार किसने किया था? हमने उत्तर में “मारकोनी” बताने पर उनका अगला प्रश्न था, कि इसको कैसे लिंक करेंगें? जवाब में हमने बताया की घर में रेडियो अधिकतर “कोने” में रखे जाते है, जोकि मारकोनी से मिलता हुआ सा हैं।
बोस्टन शहर से करीब एक सौ मील की दूरी पर मारकोनी बीच (चौपाटी) के नामकरण के लिए भी एक महत्वपूर्ण कारण था। इसी स्थान से अटलांटिक महासागर पार यूरोप में पहला “बेतार का तार” भेजा गया था। जिसका अविष्कार मारकोनी द्वारा ही किया गया था। विश्व प्रसिद्ध टाइटैनिक समुद्री जहाज़ ने भी इसी प्रणाली का प्रयोग कर बहुत सारे यात्रियों की जान बचाई थी।
संचार क्रांति के पश्चात “तार” (टेलीग्राम) का युग अब अवश्य समाप्त हो गया हैं, परंतु मारकोनी के रेडियो का उपयोग अभी भी जारी हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।
💥 माँ सरस्वती साधना 💥
सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,
।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।
यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 172☆ शारदीयता
रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की स्थूल अथवा प्रत्यक्ष मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। अभिव्यक्ति सूक्ष्म या परोक्ष आवश्यकता है। जिस प्रकार सूक्ष्म देह के बिना स्थूल का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अभिव्यक्ति या मानसिक विरेचन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता। अक्षर की इकाई को शब्द, वाक्य एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का, सूक्ष्म का सर्वाधिक सशक्त साधन बनाने वाली वागीश्वरी हैं माँ सरस्वती।
वसंतपंचमी सन्निकट है। यह माँ सरस्वती का अवतरण दिवस है। पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद, वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ। जल के प्रवाह और पवन के बहाव में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ‘नादब्रह्म’ है।
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।
विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥
अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।
शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-
वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।
वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि वसंतपंचमी, रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।
इस संदर्भ में अपनी एक कविता का स्मरण हो आया,
मौसम तो वही था,
यह बात अलग है;
तुमने एकटक निहारा
स्याह पतझड़,
मेरी आँखों ने चितेरे
रंग-बिरंगे वसंत,
बुजुर्ग कहते हैं-
देखने में और
दृष्टि में
अंतर होता है..!
माँ सरस्वती का अनुग्रह, हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जाग्रत रखे।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अपेक्षा व उपेक्षा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 166 ☆
☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆
‘अत्यधिक अपेक्षा मानव के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित कर मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’ महात्मा बुद्ध मन में पलने वाली अत्यधिक अपेक्षा की कामना को इच्छा की परिभाषा देते हैं। विलियम शेक्सपीयर के मतानुसार ‘अधिकतर लोगों के दु:ख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा करना है। यह पारस्परिक रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ वास्तव में हमारे दु:ख व मानसिक तनाव हमारी ग़लत अपेक्षाओं के परिणाम होते हैं। सो! दूसरों से अपेक्षा करना हमारे दु:खों का मूल कारण होता है, जब हम दूसरों की सोच को अपने अनुसार बदलना चाहते हैं। यदि वे उससे सहमत नहीं होते, तो हम तनाव में आ जाते हैं और हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है; जो हमारे विघटन का मूल कारण बनता है। इससे पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है और हमारे जीवन से शांति व आनंद सदा के लिए नदारद हो जाते हैं। सो! मानव को अपेक्षा दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए।
अपेक्षा व उपेक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं। यह दोनों हमें अवसाद के गहरे सागर में भटकने को छोड़ देते हैं और मानव उसमें डूबता-उतराता व हिचकोले खाता रहता है। उपेक्षा अर्थात् प्रतिपक्ष की भावनाओं की अवहेलना करना; उसकी ओर तवज्जो व अपेक्षित ध्यान न देना दिलों में दरार पैदा करने के लिए काफी है। यह सभी दु:खों का कारण है। अहंनिष्ठ मानव को अपने सम्मुख सब हेय नज़र आते हैं और इसीलिए पूरा समाज विखंडित हो जाता है।
मनुष्य इच्छाओं, अपेक्षाओं व कामनाओं का दास है तथा इनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। अक्सर हम दूसरों से अधिक अपेक्षा व उम्मीद रखकर अपने मन की शांति व सुक़ून उनके आधीन कर देते हैं। अपेक्षा भिक्षाटन का दूसरा रूप है। हम उसके लिए कुछ करने के बदले में प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं और बदले में अपेक्षित उपहार न मिलने पर उसके चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं। वास्तव में यह एक सौदा है, जो हम भगवान से करने में भी संकोच नहीं करते। यदि मेरा अमुक कार्य सम्पन्न हो गया, तो मैं प्रसाद चढ़ाऊंगा या तीर्थ-यात्रा कर उनके दर्शन करने जाऊंगा। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि वह सृष्टि-नियंता सबका पालनहार है; उसे हमसे किसी वस्तु की दरक़ार नहीं। हम पारिवारिक संबंधों से अपेक्षा कर उनकी बलि चढ़ा देते हैं, जिसका प्रमाण हम अलगाव अथवा तलाक़ों की बढ़ती संख्या को देखकर लगा सकते हैं। पति-पत्नी की एक-दूसरे से अपेक्षाओं की पूर्ति ना होने के कारण उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते और तलाक़ ले लेते हैं। परिणामत: बच्चों को एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हुए अपने-अपने हिस्से का दर्द महसूसते हैं, जो धीरे-धीरे लाइलाज हो जाता है। इसका मूल कारण अपेक्षा के साथ-साथ हमारा अहं है, जो हमें झुकने नहीं देता। एक अंतराल के पश्चात् हमारी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं।
मानव को अपेक्षा अथवा उम्मीद ख़ुद से करनी चाहिए, दूसरों से नहीं। यदि हम उम्मीद ख़ुद से रखते हैं, तो हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं और स्वयं को लक्ष्य की पूर्ति हेतू झोंक देते हैं। हम असफलता प्राप्त होने पर भी निराश नहीं होते, बल्कि उसे सफलता की सीढ़ी स्वीकारते हैं। विवेकशील पुरुष अपेक्षा की उपेक्षा करके अपना जीवन जीता है। अपेक्षाओं का गुलाम होकर दूसरों से उम्मीद ना रखकर आत्मविश्वास से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहता है। वास्तव में आत्मविश्वास आत्मनिर्भरता का सोपान है।
क्षमा से बढ़ कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा सबसे बड़ा धन है, जो पाप को पुण्य में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। क्षमा अपेक्षा और उपेक्षा दोनों से बहुत ऊपर होती है। यह जीने का सर्वोत्तम अंदाज़ है। हमारे संतजन व सद्ग्रंथ इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कहते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लेंगे, तो हमें किसी से अपेक्षा भी नहीं रहेगी और ना ही नकारात्मकता का हमारे जीवन में कोई स्थान होगा। नकारात्मकता का भाव हमारे मन में निराशा व दु:ख का सबब जगाता है और सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे जीवन को सुख-शांति व आनंद से आप्लावित करता है। सो! हमें इन दोनों मन:स्थितियों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि हम अपना सारा जीवन लगा कर भी आशाओं का पेट नहीं भर सकते। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण व नज़रिए को बदलना होगा; चिंतन-मनन ही नहीं, मंथन करना होगा। वर्तमान स्थिति पर विभिन्न आयामों से दृष्टिपात करना होगा, ताकि हम अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सकें तथा अपेक्षा उपेक्षा के जंजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकें। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें तथा निराशा को अपने हृदय मंदिर में प्रवेश ने पाने दें तथा प्रभु कृपा की प्रतीक्षा नहीं, समीक्षा करें, क्योंकि परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। सो! हमें उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देनी चाहिए और सदा उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमें हर घटना को एक नई सीख के रूप में लेना चाहिए, तभी हम मुक्तावस्था में रहते हुए जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। इस स्थिति में हम केवल अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन को भी सुख-शांति व अलौकिक आनंद से भर सकेंगे। ‘संत पुरुष दूसरों को दु:खों से बचाने के लिए दु:ख सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने का हर उपक्रम करते हैं।’ बाल्मीकि जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। सो! अपेक्षा व उपेक्षा का त्याग कर जीवन जीएं। आपके जीवन में दु:ख भूले से भी दस्तक नहीं देगा। आपका मन सदा प्रभु नाम की मस्ती में खोया रहेगा–मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाएगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – जोशी मठ की पुकार।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 190 ☆
आलेख – जोशी मठ की पुकार
जोशी मठ की जियोग्राफी बता रही है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन , जल जंगल जमीन को अपनी बपौती समझने की इंसानी फितरत पर नियंत्रण की जरूरत है । हिमालय के पहाड़ों की उम्र, प्रकृति के माप दंड पर कम है । इन क्षेत्रों में अभी जमीन के कोंसालिडेशन, पहाड़ों के कटाव, जमीन के भीतर जल प्रवाह के चलते भू क्षरण की घटनाएं होती रहेंगी ।
जोशीमठ जैसे हिमालय की तराई के क्षेत्रों में पक्के कंक्रीट के जंगल उगाना मानवीय भूल है, इस गलती का खामियाजा बड़ा हो सकता है । यदि ऐसे क्षेत्रों में किंचित नगरीय विकास किया जाना है तो उसे कृत्रिमता की जगह नैसर्गिक स्वरूप से किया जाना चाहिए । अमेरिका में बहुमंजिला भवन भी पाइन तथा इस तरह के हल्के वुड वर्क से बनाए जाते हैं । ऐसी वैश्विक तकनीक अपनाई जा सकती हैं जिससे परस्तिथी जन्य नैसर्गिक सामंजस्य के साथ विकास हो , न कि प्रकृति का दोहन किया जाए। हमे अगली पीढ़ियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हुए विरासत बढ़ानी चाहिये । आधुनिकता के नाम पर वर्तमान में जोशीमठ जैसे इलाकों में धरती से की जा रही छेड़छाड़ हेतु हमारी कल की पीढ़ी हमें कभी क्षमा नहीं करेगी ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – ब्रेन ड्रेन बुरा भी नही रहा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 189 ☆
आलेख – ब्रेन ड्रेन बुरा भी नही रहा
हमारे देश की सबसे बड़ी शक्ति हमारे युवा हैं। अक्सर ब्रेन ड्रेन की शिकायत हमारे सुशिक्षित युवाओं से की जाती है, किंतु सच तो यह है कि आज यदि विदेशों में भारतीय डायसपोरा अपनी सकारात्मक पहचान दर्ज कर रहा है तो इसकी क्रेडिट देश की इन्ही विदेशो में बसी युवा शक्ति को है। आज अमेरिका की सिलिकन वैली की पहचान भारतीय साफ्ट वेयर इंजीनियर्स से ही है। अनेक देशों के राजनेता, बिजनेस टायकून भारत मूल के हैं, ये सब इसलिए क्योंकि समय पर इन युवाओं ने विदेश की राह पकड़ी और वहां अपना सकारात्मक योगदान दिया है।
दूसरी ओर देश के भीतर देश के नव निर्माण में, संस्कारों को पुनर्स्थापित करते युवा महत्वपूर्ण हैं। फिल्में, वेब सीरीज प्लेटफार्म हमारे युवाओं को प्रभावित करते हैं, किंतु गलती से इन के निर्माण का उद्योग उन पूंजीपति प्रोड्यूसरस के हाथों में चला गया है जो वैचारिक रूप से दिग्भ्रमित हैं। वे भारतीय सांस्कतिक मूल्यों की उपेक्षा कर निहित उद्देश्य के लिए इस माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। ज्यादातर वेब सीरीज सेक्स, हिंसा, युवाओं के नैतिक पतन, अश्लीलता के गिर्द बनती दिख रही है। तुर्रा यह कि इसे यथार्थ कहा जाता है। हमारी युवा शक्ति को इस क्षेत्र में
सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित डिजिटल फिल्मों के प्रोडक्शन पर ध्यान देना होगा, क्योंकि ये फिल्में, विश्व में भारत का समय सापेक्ष अभिलेख भी बनती हैं, जो युवा इन फिल्मों में अपना नायक ढूंढते हैं उन्हे अनुकरणीय कथा दिखाना आवश्यक है।
कभी आजादी का प्रतीक रही खादी आज फैशन का सिंबॉल बन चुकी है फैशन उद्योग ने खादी को उत्साह से अपनाया है इसी के चलते अब हमारे बुनकरों के द्वारा खादी का वस्त्र चटकीले रंगों में भी उपलब्ध किया जा रहा है वस्त्र उद्योग के कुछ बड़े ब्रांड खादी को विदेशों में मार्केट करने में जुटे हुए हैं तो दूसरी ओर अनेक भारतीय डिजाइनर खादी फैब्रिक से विवाह परिधानों की पूरी रेंज ही उपलब्ध करवा रहे हैं . युवा इस क्षेत्र में भी अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका बना सकते हैं।
आजीविका के लिए शासन का मुंह देखने की अपेक्षा आत्म विश्वास के साथ, स्वाबलंबन को अपना हथियार बनाए तो युवा शक्ति जिस क्षेत्र में चाहे अपनी पहचान स्थापित कर सकती है। सरकारें हर संभव मदद हेतु अनेकानेक योजनाओं के साथ सहयोग के लिए तत्पर हैं।
हमेशा युवा पीढ़ी को कोसने से बेहतर है की जनरेशन गैप को समझ कर युवाओं का साथ दिया जावे, उनकी हर संभव मदद, दिशा दर्शन किया जाए। नई पीढ़ी बहुत कुछ क्षमता रखती है, उसका सही दोहन हो।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 17 – गैरेज/ गैराज ☆ श्री राकेश कुमार ☆
साठ के दशक में जब हमारे देश में फिएट और एंबेसडर जैसी कारों ने अपने कदम रखे तो अधिकतर अमीर लोग बड़े मकान जिसको कोठी, बंगला, हवेली आदि की संज्ञा से जाना जाता है, में निवास करते थे।
कुछ बड़े सेठ/ लाला/ शाह प्रकार के लोग तो देश को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात भी निजी घोड़ा-गाड़ी के उपयोग से ही आवागमन करते थे। हमारे स्वर्गीय दादाश्री ने भी देश विभाजन के समय पाकिस्तान से दिल्ली आकर सबसे पहले लुटेरों से छुपा कर लाई गई अपनी पूरी पूंजी से घोड़ा-गाड़ी क्रय कर ली थी, वो बात अलग है, एक वर्ष में ही जब घोड़े को घास खिलाने के लिए “पैसे के लाले पड़” गए तो शेष जीवन पैदल चल कर ही व्यतीत किया था।
कार को सुरक्षित और संभाल कर रखने के लिए घर में उपलब्ध रिक्त स्थान पर एक कमरा बनाये जाने की प्रथा आरंभ हुई थी, उसी को आंग्ल भाषा में गैरेज कहा जाता है। जिनके घर में कार का गैरेज होता था, तो उस क्षेत्र के निवासी उसको “लैंड मार्क” के रूप में भी प्रयोग करते थे, फलां का घर गैरेज से तीसरा है, आदि। समय बदला अब तो कार सड़कों या घर के बाहर खुली देखने को ही मिलती हैं।
यहां विदेश में ज़मीन की बहुतायत होने के कारण अधिकतर घरों की चारों दिशाओं में खुली ज़मीन रहती है। सभी घरों में दो जुड़े हुए गैरेज होते हैं, जिसमें कारों के अलावा बागवानी का समान आदि रखा जाता हैं। आधुनिक तकनीक से कार में बैठे हुए भी इसके दरवाज़े “खुल जा सिम सिम” तिलस्म की भांति खुल जाते हैं।
अपने घर की अनुपयोगी हो चुकी वस्तुएं भी “गैरेज सेल” के नाम से विक्रय किए जाने की परम्परा अभी भी विद्यमान है। क्योंकि यहां पुराने समान को खरीदने वाले “कबाड़ी” जो नहीं होते हैं।
☆ विचार–पुष्प – भाग –५२ – डेट्रॉईट आणि वृत्तपत्रातील वादळ ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
मेंफिसहून स्वामीजी शिकागोला परतले. २५ जानेवारीला, तिथेही एक कार्यक्रम झाला. तीन आठवडे राहून ते आता डेट्रॉईट ला आले होते. सांस्कृतिक शहर होतं डेट्रॉईट. तिथे सतत काही न काही घडत तरी असे, किंवा काही तरी उपक्रम चालत असे. असे नवचैतन्य असलेले शहर, इथे नवीन उपक्रमाचे नेहमी स्वागत होत असे,स्वामींचा तिथे तीन वेळा मुक्काम झाला. त्या काळात त्यांची ८ सार्वजनिक व्याख्याने झाली.
डेट्रॉईट मध्ये स्वामीजी मिसेस जे.बॅगले यांच्या राजेशाही प्रासादात मुक्कामाला होते.
बॅगले साठीच्या होत्या. स्वतंत्र विचारांच्या, तडफदार आणि मनाने उदार होत्या. त्यांचे पती मिशिगन चे निवृत्त गव्हर्नर होते ,पण दुर्दैवाने त्यांचे खूप लवकर निधन झाले. व्यापक दृष्टी असलेल्या बॅगले अनेक सार्वजनिक कामात विविध ठिकाणी पदांवर होत्या. जबाबदारी सांभाळत होत्या. शिकागो चे जे प्रदर्शन भरले होते त्याच्या महिला विभागाच्या व्यवस्थापक मंडळावर त्या होत्या. सर्व धर्म परिषदेत त्यांनी विवेकानंदांची भाषणे ऐकली होती. तेंव्हाच त्यांच्यावर स्वामीजींचा प्रभाव पडला होता. त्यामुळे तर काय त्यांनी स्वामीजींना अगदी आनंदाने डेट्रॉईटला आपल्याकडे ठेऊन घेतले होते.
स्वामीजींच्या स्वागताप्रीत्यर्थ अल्पोपाहाराचा खास कार्यक्रम आयोजित केला होता.त्याला सर्व चर्च चे बिश्यप, धर्मोपदेशक, महापौर,पत्रकार, प्राध्यापक, विचारवंत अशा सर्वांना निमंत्रित केलं होतं. याआधी सुद्धा बॅगले यांनी नामवंतांसाठी असे कार्यक्रम आयोजित केले होते पण त्याहीपेक्षा हा कार्यक्रम चांगला झाला असे वृत्तपत्रातल्या प्रसिद्धीत म्हटले होते.
पण या सुंदर नियोजित कार्यक्रमाला गालबोट लागले ते तिथे आलेल्या एका स्त्रीने स्वामीजींना उद्देशून अपमानकारक काही शब्द वापरले होते म्हणून. ते बॅगले यांना अजिबात आवडले नाही. ही तर स्वामीजींना विरोधाची नांदी च ठरली होती जणू. वाचकांच्या पत्रात वृत्तपत्रात हे छापून आले होते. दुसर्या दिवशी फ्री प्रेस च्या पत्रकारांनी घेतलेली त्यांची मुलाखत छापताना सुरुवातीलाच काही उपहासात्मक चार ओळी सुद्धा लिहिल्या होत्या मुलाखतित मेंफिस ला प्रश्न विचारले होते तसेच विचारले होते. ही मुलाखत डेट्रॉईट इव्हिंनिंग न्यूज मध्ये सविस्तर छापली होती.
डेट्रॉईटच्या युनिटेरियन चर्च मध्ये स्वामीजींचे पहिले व्याख्यान झाले. मिसेस मेरी फंकी या वेळी उपस्थित होत्या.
स्वामी विवेकानंद, भारतातील अध्यात्मिकता गुलामगिरीत सुद्धा टिकून राहिली होती,ती प्राचीन संस्कृती, खोलवर पोहोचलेली नीतीमूल्य यावर स्वामीजी बोलले. अशा आमच्या देशात ख्रिस्ती उपदेशकांची काहीही आवश्यकता नाही ,त्यांनी हवं तर भारतात यावं आणि तिथल्या संस्कृतीकडून धडे घ्यावेत”.झालं! ही टीका सहन न होऊन स्वामीजींच्या याच मुद्दयाचा आधार घेऊन आता विवेकानंदांविरूद्ध टीका सुरू झाली.विवेकानंद यांच्या आयोजित कार्यक्रमाचे प्रास्ताविक करायला सुद्धा आता लोक नाही म्हणू लागले. आणि आता विवेकानंद आपले पाहुणे नाहीत सर्वधर्म परिषद आता संपली आहे. आपण त्यांच्या बोलण्यावर जोरदार प्रहार केला पाहिजे. मिशनर्यांनी उठवलेले हे वादळ ट्रिब्युन जर्नल, इव्हिंनिंग न्यूज, फ्री प्रेस या तिथल्या प्रमुख वृत्तपत्रातून आल्याने आता स्वामीजी एका बाजूला तर मिशनरी एका बाजूला अशी स्थिति निर्माण झाली.
डेट्रॉईट मध्ये तर वृत्तपत्रात वाचकांची पत्रे आणि संपादकीय याचा वर्षाव झाला जणू. स्वामीजींचे दुसरे व्याख्यान हिंदूंचा तत्वज्ञानविचार या विषयावर झाले.काहीजण योग्य विचार करून स्वामीजींबद्दल लिहिणारे होते तेही छापून येत होते.
विवेकानंद यांना सभेनंतर प्रश्न विचारत किंवा प्रश्नोत्तरचा कार्यक्रम होई त्यात विचारत. त्यातील मते अशी असत. “भारत एक अतिशय मागासलेला देश आहे. आदिम समाज असावा तसा किंवा त्या अवस्थेतून नुकताच बाहेर पडत असलेला देश. दगड धोंड्यांची तसेच, वड किंवा तुळस अशा झाडांची, नाग, वानर अशा प्राण्यांची, पुजा तेथे चालते.पतीच्या मृत्यूनंतर स्त्रीला सरळ त्याच्या बरोबर चितेवर चढवतात . तेथील लोक आपली मुले विशेषत मुली गंगेत सुसरीपुढे टाकतात किंवा जगन्नाथाच्या रथयात्रेवेळी चाकाखाली आपले शरीर झोकून देऊन अनेक जण प्राणत्याग करतात”. अशा तिथे भारताबद्दल समजुती होत्या. हेच प्रश्न लोक तिथे विचारात असत. विवेकानंद यांनी या सर्व प्रश्नांना वेगवेगळ्या कार्यक्रमात ,मुलाखतीत,सभेच्या शेवटी योग्य ती सत्य उत्तरे दिली. नेमके त्या मागचे विचार आणि वस्तुस्थिती स्पष्टपणे समजावून सांगितली.काहीही लपविले नाही.
त्या लोकांची दुसरी समजूत अशी होती, ‘भारतात चमत्कार करणारे काही फकीर आणि बैरागी आहेत, ते आकाशात दोर ताठ फेकून त्यावर चढून नाहीसे होतात. पुन्हा खाली येतात. आपले शरीर जमिनीपासून वर अधांतरी उचलतात,पाण्यावरून चालत जातात, हिमालयात तर अनेक योगी व महात्मे असे आहेत की, अनेक दिवस अन्न पाण्याशिवाय राहू शकतात. भूत भविष्य सांगतात. निसर्गाचा कोणताही नियम त्यांना अडवू शकत नाही. शंभर शंभर वर्षे जगतात’ अशा या समजुतीचे विवेकानंद यांनी स्पष्ट नकारार्थी उत्तर दिले. काही वेळा क्वचित चमत्कार घडतात पण त्यामागे काही नियम असला पाहिजे तो आपल्याला माहिती नसतो एव्हढच. आपण हिमालयात फिरलेलो आहोत. असा कुठलाही महात्मा आपल्याला भेटलेला नाही असे ठणकाऊन सांगितले. पुढे जाऊन असेही स्पष्ट केले की, हिंदू धर्मातील तत्वज्ञानामध्ये चमत्कारांना कोणतेही महत्व दिलेले नाही. सामान्य माणूस त्यांना भुलतो. पण ते त्याचे अज्ञान असते. आध्यात्मिक धारणा महत्वाची आहे. आणि तिचा संबंध माणसाच्या आत्मिक विकासाशी आणि विशुद्ध आचरणाशी आहे. ही भारतीय तत्वज्ञानाची शिकवणूक आहे. हे स्वामी विवेकानंद यांचे बुद्धिनिष्ठ विचार थिओसॉफीच्या विचारसरणीचा पाया च डळमळीत करणारे ठरले आणि पुन्हा एकदा त्यांना शत्रुत्व पत्करावे लागले.एव्हढी समाधानकारक उत्तरे त्यांनी दिली होती, तरी सुद्धा यानंतरच्या अंकात विवेकानंद यांचे स्वागत करताना ‘आम्हाला काही चमत्कार दाखवा’ असा अग्रलेख प्रसिद्ध झाला. त्याच्या दुसर्या दिवशी पुन्हा एक अग्रलेख .त्यात लिहिलं होतं, चमत्कार करता येत नाहीत तेंव्हा विवेकानंद यांच्या विषयीचा भ्रमाचा भोपळा फुटला.
पण आता मात्र ओ.पी. डेलडॉक जे स्वामीजींच्या विचारांचे पुरस्कर्ते होते त्यांनी वृत्तपत्राची मागणी आणि विसंगती दाखवणारं सविस्तर पत्रच पाठवलं, जे प्रसिद्ध झालं. धार्मिक विषयात विवेकानंद यांची उघडपणे बाजू घेणारे लोकही तिथे होते.
युनिटेरियन चर्च मध्ये १८ फेब्रुवारी ला धर्म प्रवचनासाठी रेव्हरंड रीड स्टुअर्ट यांनी ‘पूर्व दिशेचा उघडत असलेला दरवाजा’ असा विषय मांडला.विवेकानंद यांच्या विचारधारेशी समन्वय साधणारे भाषण त्यांनी केले, पश्चिमेकडे विज्ञान आहे ,तर पूर्वेकडे अध्यात्म आहे. पश्चिमेकडे पंथ आहे तर पूर्वेकडे अनेक पंथांना सामावून घेणारा धर्म आहे.असे सांगितले.
तर बेथ एल या मंदिरात रॅब्बी ग्रोसमन यांनी, ‘विवेकानंदांनी आपल्याला काय दिले?’ हाच विषय प्रवचनाला निवडला.अगदी ऐकण्यासारख आहे हे . रॅब्बी म्हणतात, “ विवेकानंदांचे विचार ऐकताना मन अगदी उल्हसित होऊन जाते. धर्म आणि ईश्वर संकल्पना या बाबतीत आपण पाश्चात्य फार मागे आहोत. धर्म म्हणजे नुसता विचार नव्हे, तर साक्षात दैनंदिन जीवन. आपल्याजवळ फार मोठ्या सुरेख आणि आकर्षक कल्पना आहेत. पण त्या हवेत तरंगत असतात. आपणा पाश्च्यात्यांचा देव आकाशात आहे. आणि रविवार सकाळपुरतेच काही कार्य आपण त्याच्यावर सोपविलेले आहे.विवेकानंदांचा ईश्वर पृथ्वीवर आहे. तो परमेश्वर नित्य क्षणाक्षणाला आपल्याजवळ आहे.बागेतील प्रत्येक फुलात, वार्याच्या झुळुकीत,आपल्या शरीरातील रक्ताच्या क्षणाक्षणातील स्पंदनात परमेश्वर भरून राहिला आहे. हा विचार आपण हिंदूंकडून उचलला पाहिजे. आपल्या पंथांना भिंती आहेत. पूर्वेकडील धर्म चहू दिशांनी खुला आणि स्वीकारशील आहे.
एखाद्या अगदी गरीब माणसाच्या दरात अकस्मात कोणीतरी येतो तेंव्हा घरातील लहान मूल ओरडून सांगते अतिथि अतिथि. त्या अतिथि साठी घरातले सर्वजण त्याच्यासमोर उभे राहतात. कारण त्याच्या रूपाने दरात परमेश्वर आला आहे अशी शिकवणूक त्या माणसांना मिळालेली असते. ही केव्हढी सुंदर कल्पना आहे. पाश्च्यात्यांच्या घरी बाहेरच्या खोलीत येणार्याला किती उपचार(formality) सांभाळावे लागतात.हे आपल्याला माहिती आहे. आपले चर्च पवित्र आहे तेही फक्त रविवारी”.अशा पद्धतीने ग्रोसमन यांनी त्यांना समजलेले विवेकानंद यांचे विचार मांडले. म्हणजेच विवेकानंद यांनी आपल्या धर्माचे काय महत्व आहे ,आपला धर्म काय शिकवण देतो, ते तिथे अशा प्रकारे मोठ्या अभिमानानेच सांगितले असणार.ग्रोसमन चे हे प्रवचन इव्हनिंग न्यूजला मानवले नाही. त्याने ग्रोसमन यांच्यावर टीका केली.
पुढे पुढे तर विवेकानंदा यांच्या विधांनांचा विपर्यास करून तशा बातम्या,लेख प्रसिद्ध होऊ लागले. कोणी स्वामीजींची बाजू मांडू लागले आणि आश्वस्त करू लागले की, आम्ही तुमच्या बरोबर आहोत. सगळेच लोक हलक्या मनाचे व संकुचित वृत्तीचे नाहीत, आम्ही ख्रिस्ता ची शिकवणूक मानणारे तुमचं स्वागत करतो. आणि ज्या शिवराळ भाषेत विवेकानंद यांच्या बद्दल लिहिले जात आहे ते ख्रिस्ताच्या शिकवणुकीला न शोभणारे आहे असे खडसावले होते. एव्हढी टिका चालू होती पण विवेकानंद यांच्या व्यख्यांनाना प्रचंड गर्दी होत होतीच.अनेक जण त्यांना भेटायला येत. स्वामीजींना भोजन आणि अल्पोपहार याची सतत निमंत्रणे येत.
एक तरुण उद्योजक, मिशिगन-पेनिनशूलर कार कंपनीचे भागीदार चार्ल्स एल. फ्रिअर एक धनवंत होते. त्यानेही स्वामीजींसाठी भोजन समारंभ आयोजित केला होता. तो खूप थाटामाटाचा होता.शिवाय विवेकानंद यांना त्यांच्या कामासाठी तेंव्हा २०० डॉलर्सची देणगी ही दिली होती.
मिसेस बॅगले म्हणतात, आमच्या घरातील विवेकानंद यांच्या वास्तव्याचा प्रत्येक दिवस आनंद पूर्ण झाला.बॅगले ज्या भागात राहत होत्या तिथे सर्व धनवान मंडळी राहत होती.त्यांनी आपल्या निवासस्थानी स्वामीजींचे एक व्याख्यान ठेवले. सर्वांना जाहीर निमंत्रण असल्याने खूप गर्दी झाली.स्वामीजी दोन तास बोलले. चर्चा, वाद उत्तर प्रतिउत्तर सुरूच राहिले. सडेतोड व्याख्यान झाले.केवळ आठ दहा दिवसात मिशनरी हादरून गेले होते.
पण डेट्रॉईट च्या बाहेरून विरोध ऐकू यायला लागला होता.रेव्हरंड आर. ए. हयूम यांनी विवेकानंद यांना त्यांच्या भाषणावर आक्षेप घेणारे पत्र लिहिले,विवेकानंद यांनी त्याला लगेच उत्तर दिले. हयूम भारतात जन्मलेले,वाढलेले आणि मिशनरी म्हणून भारतात काम केलेले गृहस्थ. आता त्यांनी पुन्हा पत्र पाठवले. मात्र स्वामीजींनी त्याला उत्तर दिले नाही, कारण सार्वजनिक वादात आपल्याला ओढण्याचा प्रयत्न त्यांच्या लक्षात आला. हयूम यांनी मद्रास मध्ये ‘हिंदू’ या वृत्तपत्रात आलेला अग्रलेख याचा आधार घेऊन हे पत्र लिहिले होते. हा अग्रलेख संपादक जी. सुब्रम्हण्यम अय्यर यांनी लिहिला होता. जे भारतात सर्व धर्म परिषदेसाठी समिति नेमली होती त्यात ते एक सदस्य होते.
हयूम यांनी मार्च मध्ये पाठवलेली पत्रे एप्रिल मध्ये डेट्रॉईट फ्री प्रेस मध्ये प्रसिद्ध झाली. विवेकानंद या वादात नसतानाही त्यांना त्यात ओढण्याचा घाट घातला होता. त्याला वृत्तपत्रातून त्या पत्राच्या बाजूने आणि विरुद्ध बाजूने ही उत्तरे देण्यात आली. धर्मोपदेशकांनी तर स्वामीजींच्या वागण्या बोलण्यावर आणि चारित्र्यावर शिंतोडे उडवण्यास सुरुवात केली. ही सर्व वार्ता विवेकानंद आलसिंगा पेरूमल यांना पत्राने कळवत होते.
आता ही सर्व बातमी मिसेस बॅगले यांच्या कानावर आली. त्यांच्या ओळखीच्या मिसेस स्मिथ यांनी कळवले की विवेकानंद यांच्यावर नाना तर्हेच्या गोष्टी बोलल्या जात आहेत. ते संतापी आहेत, त्यांचे वर्तन शुद्ध नाही, असे आरोप ही केले जात आहेत. हे ऐकून आपण अस्वस्थ झालो आहोत. बॅगले यांनी आपले मत सांगावे असे विचारले होते. स्वामीजी तर तेंव्हा बॅगले यांच्याकडेच राहत होते.पण बॅगले आता नेमक्या अॅनिस्क्व्यामला गेल्या होत्या.तिथून त्यांनी पत्र लिहिले आणि म्हटले ….
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।
💥 माँ सरस्वती साधना 💥
सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,
।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।
यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 171 ☆ चक्षो सूर्यो जायत☆
वैदिक दर्शन सूर्य को ईश्वर का चक्षु निरूपित करता है। हमारे ग्रंथों में सूर्यदेव को जगत की आत्मा भी कहा गया है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं द्वारा सूर्योपासना के प्रमाण हैं। ज्ञानदा भारतीय संस्कृति में तो सूर्यदेव को अनन्य महत्व है। एतदर्थ भारत में अनेक प्राचीन और अर्वाचीन सूर्य मंदिर हैं।
भारतीय मीमांसा में प्रकाश, जाग्रत देवता है। प्रकाश आंतरिक हो या वाह्य, उसके बिना जीवन असंभव है। एक-दूसरे के सामने खड़ी गगनचुंबी अट्टालिकाओं के महानगरों में प्रकाश के अभाव में विटामिन डी की कमी विकराल समस्या हो चुकी है। केवल मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण सजीव सृष्टि और वनस्पतियों के लिए प्राण का पर्यायवाची है सूर्य। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण या फोटो सिंथेसिस के लिए प्रकाश आवश्यक घटक है।
सूर्यचक्र के अनुसार ही हमारे पूर्वजों का जीवनचक्र भी चलता था। भोर को उठना, सूर्यास्त होते-होते भोजन कर सोने चले जाना। सूर्यकिरणें भोजन की पौष्टिकता बनाए रखने में उपयोगी होती हैं।
वस्तुतः जीवन की धुरी है सूर्य। सूर्य से ही दिन है, सूर्य से ही रात है। सूर्य है तो मिनट है, सेकंड है। सूर्य है तो उदय है, सूर्य है तो अस्त है। सूर्य ही है कि अस्त की आशंका में पुनः उदय का विश्वास है। सूर्य कालगणना का आधार है, सूर्य ऊर्जा का अपरिमित विस्तार है। सूर्यदेव तपते हैं ताकि जगत को प्रकाश मिल सके। तपना भी ऐसा प्रचंड कि लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर होकर भी पृथ्वीवासियों को पसीना ला दे।
सूर्य सतत कर्मशीलता का अनन्य आयाम है, सूर्य नमस्कार अद्भुत व्यायाम है। शरीर को ऊर्जस्वित, जाग्रत और चैतन्य रखने का अनुष्ठान है सूर्य नमस्कार। ऊर्जा, जागृति और चैतन्य का अखंड समन्वय है सूर्य।
‘सविता वा देवानां प्रसविता’…सविता अर्थात सूर्य से ही सभी देवों का जन्म हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का यह उद्घोष अन्यान्य शास्त्रों की विवेचनाओं के भी निकट है। गायत्री महामंत्र के अधिष्ठाता भी सूर्यदेव ही हैं।
सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।
इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तरी गोलार्ध से निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।
दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।
अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।
निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।
मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परिस्थिति बनाम मन:स्थिति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 165 ☆
☆ परिस्थिति बनाम मन:स्थिति ☆
‘जब परिस्थिति को बदलना मुमक़िन न हो, तो मन की स्थिति बदल लीजिए; सब कुछ अपने आप बदल जाएगा।’ परिस्थितियां सदैव हमारे अनुकूल व इच्छानुसार काम नहीं करती और आपदाएं व विपरीत हवाएं अक्सर हमारे पथ में अवरोधक बन कर आती हैं। ऐसी स्थिति में मानव हैरान-परेशान हो जाता है, क्योंकि जीवन में ‘नहीं’ शब्द सुनना किसी को नहीं भाता। जब मानव परिस्थितियों को बदलने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तो उसके लिए अपनी मन:स्थिति अर्थात् सोच को बदल लेना बेहतर विकल्प है। नकारात्मक सोच के कारण उसे हर वस्तु में केवल दोष ही दोष नज़र आते हैं और हर व्यक्ति उसे निपट स्वार्थी व आत्मकेंद्रित भासता है। उसके हृदय में शक़, संदेह व संशय का भाव इस क़दर घर कर जाता है कि वह विश्वास से स्वयं को कोसों दूर पाता है। परंतु जब मानव अपनी मन:स्थिति व सोचने का ढंग बदल लेता है, तो उसे वीराना भी गुलशन भासता है और वह जीवन में अभाव व शून्यता को नकार संपूर्णता के दर्शन पाता है। उसे गिलास आधा खाली नहीं; भरा दिखाई देता है। बस अपनी सोच और नज़रिया बदलने से यह संसार हमें ख़ुशनुमा प्रतीत होता है। पल-पल रंग बदलती प्रकृति हमारे हृदय को आंदोलित व आनंदोल्लास से आप्लावित करती है। उस स्थिति में प्रकृति हमें ‘माया महा-ठगिनी’ नहीं प्रतीत होती, बल्कि संगिनी-सम भासती है।
‘सौंदर्य व्यक्ति के नेत्रों में नहीं, उसके नज़रिया में होता है’ वर्ड्सवर्थ का यह कथन अत्यंत सार्थक है कि सौंदर्य व्यक्ति में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है नज़रें बदलिए, नज़ारे स्वयं बदल जाएंगे अर्थात् नज़रिया बदलने से मानव का जीने का ढंग स्वत: परिवर्तित हो जाएगा। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को ही मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय रहते मानव को समझ नहीं आती और समझ आने पर समय हाथ से निकल जाता है। सो! समय और समझ का छत्तीस का आँकड़ा है। दोनों निर्धारित समय पर दस्तक नहीं देते, क्योंकि हम आजीवन मायाजाल में फंसे रहते हैं और अहं के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाते। इसका मुख्य कारण है कि हम स्वयं को सबसे श्रेष्ठ समझते हैं और अन्य लोगों से अलग-अलग पड़ जाते हैं।
परंतु एक अंतराल के पश्चात् जब हमें समझ आती है, तो एकांत हमें सालने लगता है और हम उन सबके सानिध्य में रहना चाहते हैं, जिनसे हम वर्षों पूर्व किनारा कर आए थे। परंतु अब उन्हें हमारी दरक़ार नहीं होती और वे हमसे मुंह फेर लेते हैं। उन असामान्य परिस्थितियों में हमारी स्थिति ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ जैसी हो जाती है। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि परिस्थितियों पर हमारा वश नहीं रहता। ऐसे समय में यदि मानव अपनी मन:स्थिति परिवर्तित कर लेता है, तो वह तनाव या अवसाद की स्थिति से मुक्त रह पाता है, अन्यथा वह उस चक्रव्यूह में फंस स्वयं को असहाय दशा में पाता है। इसके विपरीत यदि मानव समय के प्रभाव व महत्ता को अनुभव करते हुए सही निर्णय लेकर अपना जीवन बसर करता है, तो उसकी जीवन रूपी गाड़ी सीधी-सपाट दिशा में चलती रहती है, अन्यथा वह स्वयं को सुनामी की गगनचुंबी लहरों में कैद अनुभव करता है। लाख प्रयास करने पर भी वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाता और उसकी दशा पंखहीन पक्षी जैसी हो जाती है।
‘भाग्य कोई लिखा हुआ दस्तावेज़ नहीं है। उसे तो रोज़-रोज़ स्वयं लिखना पड़ता है’ अर्थात् मानव ख़ुद अपना भाग्य-निर्माता है। मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियाँ ‘जैसे कर्म करेगा, वैसा फल पायेगा इंसान’ अर्थात् मानव को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। सो! मानव अपने नित्य कर्मों परिश्रम, साहस, लगन व धैर्य द्वारा अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उसे कभी भी ज़िद्दी नहीं होना चाहिए, बल्कि समय व परिस्थितियों के अनुसार अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहिए। जो व्यक्ति समयानुसार समझ से अपने कार्य को अंजाम देता है; सफलता सदैव उसके कदम चूमती है। सो! मानव का स्वभाव लचीला व दृष्टिकोण समझौतावादी होना चाहिए, क्योंकि अकड़ व अभिमान एक मानसिक रोग है, जिसका इलाज क़ुदरत समय पर अवश्य करती है। ऐसा व्यक्ति अक्सर आत्मकेंद्रित होता है और दूसरों के अस्तित्व को अहमियत नहीं देता। परिणामतः वह नकारात्मकता का भाव उसे पतन की राह की ओर अग्रसर करता है।
‘वह शख्स जो झुक के तुमसे मिला होगा/ यक़ीनन उसका क़द तुमसे बड़ा होगा’ मानव में निहित विनम्रता के सर्वश्रेष्ठ भाव को दर्शाता है। जो व्यक्ति अहंनिष्ठ नहीं है और ज़मीन से जुड़ा हुआ है; वह दूसरों से सदैव झुक कर मिलता है; दुआ सलाम करता है। वास्तव में उसका क़द दूसरों से बड़ा होता है, क्योंकि मीठे फल उन डालियों पर लगते हैं, जो झुकी रहती हैं। इसलिए मानव को सदैव विनम्र व मौन रहने की सीख दी जाती है, क्योंकि मौन उसका सबसे बड़ा आभूषण है। मौन और मुस्कान दोनों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि मौन रक्षा-कवच है और मुस्कान स्वागत-द्वार। मौन से आगामी आपदाओं को रोका जा सकता है, तो मुस्कान से कई समस्याओं का हल निकाला जा सकता है–उक्त कथन अत्यंत कारग़र है। इसलिए मानव को सदैव प्रसन्न रहने का संदेश दिया जाता है। वास्तव में मौन एक संजीवनी है, तो मुस्कान बंद द्वारों को खोलने की चाबी है, जिसके द्वारा आप सबके प्रिय बन सकते हैं। वे मानव को काम क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि से दूर रखते हैं और उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष उसके निकट आने से क़तराते हैं।
‘अंधेरों की साज़िशें रोज़-रोज़ होती हैं/ फिर भी उजाले की/ हर सुबह जीत होती है।’ यह कथन मानव के आत्मविश्वास की ओर इंगित करता है कि रात्रि के समय अंधकार का पदार्पण होता है और उसके पश्चात् सुबह का आगमन अवश्यंभावी है। अंधकार पर प्रकाश की विजय होना निश्चित् है। ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ यह समां बदलता है/ जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को/ मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात् बदलते हैं’ स्वरचित मुक्तक यह संदेश देता है कि समय परिवर्तनशील है और उसके साथ हमारी मन:स्थिति भी बदलती रहती है। जिस प्रकार सुरों के साथ संगीत के होने से सोने पर सुहागा हो जाता है और वह गीत अमर हो जाता है। इसलिए ऐ मानव! धैर्य और भरोसा रख; समय व परिस्थिति के अनुकूल अपनी मन:स्थिति को बदलने का उपक्रम कर, तो कोई भी आपदा तेरे जीवन में दस्तक नहीं दे पाएगी और सफलता तेरे कदमों में आँचल बिछाए प्रतीक्षारत रहेगी।