हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ प्यारा मौसम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्यारा मौसम।)  

? अभी अभी ⇒ प्यारा मौसम? श्री प्रदीप शर्मा  ?  

प्यार करने वाले मौसम नहीं देखते। काहे की सर्दी, गर्मी बरसात, उनके लिए तो, हर मौसम प्यार का होता है, लेकिन मौसम खुद भी बड़ा प्यारा होता है। हैं ऐसे कई प्रकृति – प्रेमी, जिन्हें मौसम से प्यार होता है। जो मौसम से करते प्यार, वो इंसान से प्यार करने से कैसे करें इंकार।

बच्चे किसे प्यारे नहीं होते ! ठीक बच्चों ही की तरह मौसम भी बड़ा प्यारा होता है। बच्चे अगर शैतान होते हैं, तो मौसम भी बेईमान होता है। अगर कभी कभी बच्चों के मारे नाक में दम होता है, तो मौसम भी किसी बच्चे से कम नहीं। सर्दी, जुकाम, खांसी और बुखार भी नाक में दम नहीं लेने देते। बार बार डॉक्टर के पास जाओ, तो वह भी यही कहता है, मौसम ही ऐसा है। ।

नवजात शिशु जब पहली बार पल्टी खाता है, तो कितनी खुशी होती है। बच्चे बड़े सब, बड़े खुश नज़र आते हैं, आज बबलू ने अपने आप पल्टी खाई। लेकिन जब मौसम एकदम पलट जाता है, तो बड़ा सावधान होना पड़ता है। मौसम हो या इंसान, दोनों का कोई भरोसा नहीं, कब पलटी खा जाए।

जिस तरह बच्चा हर मौसम में प्यारा लगता है, हर मौसम भी हमें बड़ा प्यारा लगता है। लेकिन बदमाशी में भी मौसम, बदमाश बच्चों से बहुत आगे है। अभी कुछ दिनों पहले तक हम सर्दी के कहर से परेशान थे। सूरज का मुंह देखने को तरस गए थे। थोड़ा कोहरा पड़ा, ठंड बढ़ी और बिना किसी बुरी आदत के मुंह से धुआं निकलना शुरू। बच्चे बूढ़े सभी, अलाव के पास नज़र आते थे।।

रोता बच्चा, एक खराब मौसम की तरह होता है। आप एक बार बच्चे को मना सकते हो, मौसम किसी की नहीं मानता। उसे बच्चों की ही तरह मनमानी करने की आदत है। बिगड़े बच्चे को सुधारना इतना आसान नहीं होता, लेकिन मौसम में एक अच्छी आदत है, वह अपने आप सुधर जाता है।

नया वर्ष और नवागत खुशियां लेकर आता है। आजकल मौसम मेहरबान होने लग गया है। आसमान में पतंगें उड़ाने का मौसम आ गया है। अब आपको सूर्य देवता के भी दर्शन होंगे और आसमान भी खुला मिलेगा। अब आप आसानी से खुली हवा में सूर्य नमस्कार कर सकते हो, पतंग उड़ा सकते हो, किसी की पतंग काट सकते हो।।

बहुत प्यारा मौसम है। सबको गले लगाने की इच्छा होती है। तिल गुड़ और मकर सक्रांति का पर्व भी यही संदेश लेकर आता है। मीठा खाएं और मीठा बोलें। बच्चों और मौसम से हम कम से कम इतना तो सीख ही सकते हैं।

बच्चों का स्वभाव बिल्कुल मौसम जैसा होता है। मौसम भी बच्चा ही है। हम कभी उससे परेशान रहते हैं तो कभी वह हमें प्यारा लगने लगता है। बच्चा बनने का मौसम आ गया है। मौसम भी तो बच्चा बन गया है। हम भी बचपना छोड़ें, मौसम की तरह  अपना स्वभाव सुधारें। प्यार लें, प्यार दें। एक प्यारे बच्चे की तरह ही, मौसम भी, बड़ा प्यारा है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा में जब अपडाउनर्स की प्रभुता बढ़ी तो स्वाभाविक था कि नियंत्रण कमजोर पड़ा. ये जमाना मेनुअल बैंकिंग का था जब शाखाएँ बिना कम्प्यूटर के चला करती थीं और ऐसा माना जाता था कि कुशल मनुष्य ही मशीन से बेहतर परफॉर्मेंस देता है. पर अपडाउनर्स की प्रभुता ने शाखा का संतुलन, अस्थिर करने की शुरुआत कर दी. संतुलन निष्ठा और व्यक्तिगत सुविधा के बीच ही रहता है और यह संतुलन बना रहे तो शाखाएँ भी परफार्म करती हैं और काम करने वालों के परिवार भी संतुष्ट रहते हैं. पर जब व्यक्तिगत सुविधा, कार्यालयीन निष्ठा को दरकिनार कर दे तो बहुत कुछ बाकी रह जाता है और असंतुलन की स्थिति बन जाती है. इसे बैंकिंग की भाषा में बेलेंसिंग का एरियर्स बढ़ना और साप्ताहिक/मासिक निष्पादन की जानकारी पहुंचने में बर्दाश्त के बाहर विलंब होना कहा जाता है.

तालघाट के शाखा प्रबंधक सज्जनता और धार्मिकता के गुणों से लबालब भरे थे पर उनके व्यक्तित्व से दुनियादारी, कठोरता, चतुराई, निगोशिएशन नामक दुर्गुणों या एसाइनमेंट के अनुसार जरूरी गुणों का जरूरत से ज्यादा अभाव था. सारे ऐसे व्यसन, जैसे चाय, पान, तंबाकू, मदिरा जिनसे सरकारें भी टेक्स कमाती हैं, उनसे कोसों दूर थे. हनुमानजी के परम भक्त, हर मंगलवार और शनिवार को हनुमान चालीसा और सुंदरकांड के नियमित वाचक या पाठक अपने परिवार के संग शाखा के ऊपर बने शाखाप्रबंधक निवास में रहते थे. उनकी पूजा की घंटियों और धूप की सुगंध से शाखा भी महक जाती थी और इस प्रातःकाल पूजा का प्रसाद, शाखा में ड्यूटी पर रहे सिक्युरिटी गार्ड भी पाते थे. कभी कभी या अक्सर उनके लिये चाय का भी आगमन हो जाता था क्योंकि शाखाप्रबंधक से ज्यादा गृहसंचालन और परिवार के संचालन में उनकी भार्या कुशल थीं. अतः शाखाप्रबंधक महोदय ने परिवार संचालन का भार पत्नी पर और शाखा संचालन का भार हनुमानजी की कृपा पर छोडकर अपना मन भक्ति भाव में लगा लिया था। पर हनुमानजी तो स्वयं कर्मठ और समर्पित भक्त थे तो धर्म से ज्यादा कर्म और राम के प्रति निष्ठा पर विश्वास करते थे. तो शाखा प्रबंधक महोदय को परिवार से तो नहीं पर नियंत्रक कार्यालय में पदस्थ वरिष्ठ उप प्रबंधक जो उनके मित्र भी थे, का फोन आया. शाखा की समस्याओं पर चर्चा के दौरान जब शाखाप्रबंधक महोदय ने नियंत्रक कार्यालय से रेडीमेड समाधान मांगा तो वरिष्ठ उपप्रबंधक महोदय ने अपनी मित्रता और नियंत्रक कार्यालय के रुआब के मुताबिक उनको समझा दिया कि हम यहां नियंत्रण के लिये बैठे हैं, आपको रेडीमेड समाधान (जो कि होता नहीं) देने के लिये नहीं. परम सत्य आप समझ लो कि शाखाप्रबंधक आप हो और शाखा आपको ही चलानी है. स्टाफ जैसा है, जितना है उससे ही काम करवाना है. बैंक इन सबको और आपको भी इस काम के लिए ही वेतन देती है. आपकी शाखा की इमेज हर मामले में इतनी बिगड़ चुकी है कि हमारे साहब को भी आपके कारण बहुत कुछ सुनना पड़ता है. कोशिश करिये कि वो आपको नज़र अंदाज ही करते रहें या फिर खुद भी सुधरिये और शाखा को भी सुधारने की कोशिश कीजिये. यारी दोस्ती के कारण पहले से आपको बता रहे हैं. शाखाप्रबंधक महोदय इन सब बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल रहे थे क्योंकि उनके ध्यान में तो सिर्फ बजरंगबाण का पाठ चल रहा था. यही पूरा करके वो नीचे शाखाप्रबंधक के कक्ष में विराजमान हो गये और अंशकालिक संदेशवाहक को नारियल और प्रसाद हेतु लड्डू लाने का अ-कार्यालयीन आदेश दिया. आदेश का तत्काल द्रुत गति से पालन हुआ और शाखा में हनुमानजी को प्रसाद अर्पित करने और उसे जो भी शाखा पधार गये थे, उन्हें प्रसाद वितरण कर शाखा के केलेंडर के अनुसार मंगलवार नामक कार्यदिवस का आरंभ हुआ.

नोट : किस्साये तालघाट जारी रहेगा. हममें से अधिकांश इसमें अपनी यादों का आनंद लेंगे, हो सकता है कुछ ऐसे भी हों जिनका इन सब से वास्ता ही न पड़ा हो और वे अपने यथार्थ रूपी अतीत को जो उनकी भी बुनियाद रही है, भूलकर मायाजाल की सोशलमीडियाई कल्पनाओं में ही गर्वित रहें. तो उनके लिए तो इस किस्से का कोई मतलब नहीं भी हो सकता है पर ये किस्सा तो जारी रहेगा मित्रों क्योंकि संतुष्टि का सबसे बड़ा हिस्सा तो लेखक के हिस्से में ही आता है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ शराफ़त छोड़ दी मैंने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शराफ़त छोड़ दी मैंने।)  

? अभी अभी ⇒ शराफ़त छोड़ दी मैंने? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या आपको नहीं लगता, यह सीधी सीधी धमकी है! यह शरीफ़ों की भाषा है ही नहीं।

आपकी ऐसी क्या मज़बूरी थी, जो आप शराफ़त छोड़ने पर आमादा हो गए ? माफ़ करना, आज आपने मुँह खुलवा दिया, हम तो आपको कभी शरीफ़ मानते ही नहीं थे।

हेमाजी की एक फ़िल्म आई थी, शराफ़त, उसका ही यह शीर्षक गीत है। लोग अच्छे बनकर मानो हम पर अहसान कर रहे हों। ज़रा सी बात बिगड़ी, और असली चेहरा सामने! अभी तक तुमने मेरी शराफ़त देखी है, अब मेरा कमीनापन भी देख लेना। वैसे भी, तुम मुझे जानते ही कितना हो। इसे कहते हैं, शराफ़त का भंडाफोड़। ।

स्कूल में एक दोस्त था, सक्सेना!” बड़े आदमी का बेटा था, आज वह भी बहुत बड़ा आदमी बन गया है। दोस्ती में जान हाज़िर! और तुनक-मिज़ाज़ इतना, कि बात बात में, “आज से बात बंद”। स्कूल के दिनों में दोस्ताना भी होता था, और तीखी झड़प और नोक-झोंक भी। महीनों मुँह फुलाये रहेंगे और अचानक फुग्गे की तरह फूट पड़ेंगे।

जब वह नाराज होता, एक डायलॉग अवश्य बोलता! प्रदीप बाबू, सक्सेना दोनों तरफ़ चलना जानता है। लेकिन ज़्यादा चल नहीं पाता था। मोटा था! थक जाता था। दोनों दोस्त फिर साथ साथ चलने लग जाते थे।।

दिलीपकुमार की एक फ़िल्म आई थी, गोपी! ये फिल्में तब की हैं, जब ट्रेजेडी किंग दिलीप साहब अपने देवदास टाइप किरदारों में इतने डूब गए थे कि उन्हें अवसाद (डिप्रेशन) ने घेर लिया था। अभिनय उनकी रग रग में बसा था, अतः मनो-चिकित्सकों ने उन्हें हल्के फुल्के रोल करने की सलाह दी। साला मैं तो साहब बन गया, साहब बनकर कैसा तन गया, उसी फ़िल्म गोपी का गीत है।

गीत की शुरुआत ही, “जेंटलमैन, जेंटलमैन, जेंटलमैन “से होती है। जेंटलमैन ही साहब है, साहब ही शरीफ हैं। सूट-बूट हैट और टाई, सर से पाँव तक हाई-फाई। शरीफ लोग अंग्रेज़ी में गाली बकते हैं। चाय की एक बूँद सूट पर गिर जाए, तो shit बोलते हैं। लेकिन साहब कभी शराफत नहीं छोड़ते।।

साहिर साहब न जाने क्यों इन कथित शरीफ़ज़ादों से चिढ़े हुए रहते थे! क्या मिलिए ऐसे लोगों से, जिनकी फ़ितरत छुपी रहे। नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

मैंने बहुत कोशिश की, शराफ़त छोड़ दूँ, लेकिन यह शराफत ही है, जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही! कई बार मैंने शराफत से गुजारिश की, आप तशरीफ़ ले जाइए, लेकिन वह मानती ही नहीं! कहती है कि अगर मैं तशरीफ़ ले गई, तो आप कहीं तशरीफ़ रखने लायक नहीं रह जाओगे। मुझे आपसे ज़्यादा आपकी तशरीफ़ की चिंता है। अब शराफत इसी में है, जहाँ भी तशरीफ़ ले जाओ, शराफ़त साथ में ले जाओ। लोग कहते भी हैं, देखो! शरीफ़ज़ादे तशरीफ़ ला रहे हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 32 – देश-परदेश – शहीद स्मारक ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 32 ☆ देश-परदेश – शहीद स्मारक ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देने वालों की याद में अनेक स्मारक बने हुए हैं। कई कस्बों और शहरों में शहीदों के नाम की पट्टियां और मूर्तियां लगाकर उनका सम्मान भी किया जाता है। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशा होगा”

विश्व युद्ध प्रथम, द्वितीय, शत्रु देश चीन, पाकिस्तान इत्यादि के साथ हुए युद्धों में अपने प्राण निछावर करने वाले देश के सपूतों की स्मृति को चिरस्थाई बनाए रखने और जन साधारण को प्रेरणा देने के लिए ये मील के पत्थर का कार्य करते हैं।

यहां विदेश में भी अनेक तिराहों, चौराहों आदि पर इसी प्रकार की नाम पट्टी लगी हुई मिली। वर्तमान निवास के पास एक तिराहे पर पैदल चलने वालों के लिए विश्राम स्थल बना हुआ है। वहां पर विश्व युद्ध प्रथम, द्वितीय और वियतनाम में अपनी जान देने वाले अमरीकी जो इस क्षेत्र के निवासी थे, उनके नाम और विभिन्न वीरता सम्मान प्राप्त सुरक्षा प्रहरियों के नाम में एक भारतीय मूल का नाम अंकित है। स्वर्गीय माईकल वी भाटिया (हो सकता है, अमेरिका में रहते हुए उन्होंने सुविधा के लिए अपने मूल नाम को माईकल कर लिया होगा) जिनको” मेडल ऑफ लिबर्टी” के सम्मान से नवजा गया है, इस बात का  गवाह है। हमारे देश के लोगों ने जब भी मौका मिला उन्होंने बिना अपनी जान की परवाह किए, कर्तव्य को प्राथमिकता दी है। इस प्रकार का जज़्बा हम भारतीयों के खून में ही है। 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ प्रेम गली अति सांकरी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रेम गली अति सांकरी”।)  

? अभी अभी ⇒ प्रेम गली अति सांकरी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या प्रेम का राजमार्ग भी होता है ! क्या हम ऐसा नहीं कर सकते,राजमार्ग पर प्रेम करें,और पतली गली से निकल जाएं।

दिल के बारे में खूब बढ़ा चढ़ाकर कहा जाता है,;

बंदा परवर, थाम लो जिगर

बन के प्यार फिर आया हूं।

खिदमत में, आपकी हुज़ूर

फिर वही दिल लाया हूं।।

प्रेम दिल से किया जाता है,या मन से,इसमें थोड़ी उलझन हो सकती है,मतांतर भी हो सकता है लेकिन दिल का क्या है,आज इसे दिया,कल उसे दिया। कभी टूट गया,कभी तोड़ा गया। हर बार इसे फिर जोड़ा गया। लेकिन मन में तो बस एक ही छवि बसी रहती है ;

तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा

तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो।।

हम आज दिल की नहीं,सिर्फ मन की बातें करेंगे। उस मन की बात,जिसमें सिर्फ प्रेम का वास है। मन से प्रेम,सड़कों पर नहीं होता, कुंज गलियों में ही होता है। अब यह भी क्या बात हुई ;

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा

उस गली से हमें तो गुजरना नहीं

मीराबाई को तो गलियन में गिरधारी ही नजर आते थे,इसलिए वह लाज के मारे छिप जाती थी। और जब दुनिया उनके और कृष्ण प्रेम के बीच आती थी तो वे निराश होकर कह उठती थी ;

गली तो चारों बंद हुई

मैं हरि से मिलने कैसे जाऊं।।

गोपियों का प्रेम भी अजीब था। उन्होंने अपने कन्हैया को मन में बसा लिया था और दिन रात बस कृष्ण की माला जपा करती थी। कृष्ण निष्ठुर थे,फिर भी गोपियों का हाल जानते थे। जो ज्ञान उन्होंने कालांतर में अर्जुन को दिया,वहीं ज्ञान गोपियों को देने के लिए अपने ज्ञानी मित्र उद्धव को गोपियों के पास बृज में भेज ही दिया।

ज्ञानी उद्धव गोपियों को ज्ञान की महिमा बता रहे हैं,कर्म की महत्ता गिना रहे हैं, और गोपियां एक ही बात पर अड़ी हुई हैं, उधो, मन न भए दस बीस। केवल   एक ही था,जो तुम्हारा श्याम सुंदर चुराकर ले गया। चोरी और सीना जोरी। और तुम हमें निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान बांटने चले आए।

तुम्हें लाज नहीं आती।।

बेचारे उद्धव की हालत तो उद्धव ठाकरे से भी अधिक गई गुजरी हो गई। वे बेचारे निर्गुण ब्रह्म को टॉप गियर में ले जाएं,उसके पहले ही गोपियां उन पर चढ़ाई कर देती हैं। तुम्हारा ज्ञान का रास्ता हमारे पल्ले नहीं पड़ता। उद्धव ! क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि प्रेम की गली इतनी संकरी होती है कि इसमें कोई दूसरा समा ही नहीं सकता। जहां कृष्ण के प्रति प्रेम है,वहां तुम कितने भी ज्ञान और वैराग्य के डंके बजाओ,तुम्हें no entry का बोर्ड ही लगा मिलेगा। निर्गुण ब्रह्म के लिए प्रवेश निषेध। यह गली अत्यधिक संकरी है। इसलिए अपना ज्ञान का टोकरा वापस ले जाओ,और श्री कृष्ण से जाकर कह दो ;

तुम हमें भूल भी जाओ

तो ये हक है तुमको

हमारी बात और है कृष्ण !

हमने तो बस तुमसे,

निष्काम प्रेम किया है।।

इस संसार में हम अपने प्रिय परिजनों को दिल से प्यार करते हैं। कोई भी छोटा बच्चा नजर आता है,उसे उठाकर सीने से लगा लेने का मन करता है। प्यार बांटने की चीज है। लेकिन यह भी सच है कि प्रेम की एक पतली गली भी है हमारे मन में,जिसमें केवल एक ही समा सकता है।  आपके मन में कौन है,आप जानें,हमने तो बस उस गली का नाम प्रेम गली रखा है।

वह एकांगी है और वह रास्ता केवल उस निर्गुण निराकार ब्रह्म के पास जाता है,जिसे गोपियां कृष्ण प्रेम कहती हैं। प्रेम में भेद बुद्धि नहीं रहती। जग में सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 188 ☆ सह-अस्तित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 188 सह-अस्तित्व ?

सब्जी मंडी जा रहा हूँ। खुले में सजती इस मंडी के मुहाने से भीतर की ओर जाने वाला लगभग बीस फुट का एक रास्ता है। देखता हूँ कि रास्ते के दोनों और लोगों ने टू व्हीलर पार्क कर रखे हैं। ठेलों पर सामान बेचने वाले भी हैं। परिणामस्वरूप बीस फुट में से मुश्किल से आठ फुट की जगह आने-जाने के लिए बची है। आने-जाने का मतलब है कि मंडी जानेवालों के लिए चार फुट और लौटने वालों के लिए चार फुट।

इस चार फुट को भी दोपहिया पर सवार एक पुरुष और उसकी पत्नी ने बंद कर रखा है। अपनी जगह से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। सामने देखने पर पाता हूँ कि एक गाय रास्ते पर ठहरी हुई है। युगल उस गाय से डर रहा है। दोपहिया निकालने का प्रयास करने पर गाय से स्पर्श होगा, गाय किस तरह की प्रतिक्रिया देगी, इसका भय उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता है। युगल तो नहीं बढ़ा पर परिस्थिति को भाँपकर गाय आगे बढ़ गई।

गाय के आगे बढ़ते ही यही दृश्य मंडी से लौटने वालों के लिए उपलब्ध चार फुट के रास्ते पर उपस्थित हो गया। अबकी बार सामने से आ रहा दोपहिया सवार गाय को देखकर हड़बड़ा कर ठहर गया। पीछे बैठी उसकी पत्नी तो गाय आती देख भय से चिल्लाने लगी।

विचार करने पर पाता हूँ कि गाय का मार्ग पर ठहर जाना, उसे वहाँ से हटाना सामान्य-सी बातें हैं। तथापि बड़े शहरों में आभिजात्य भाव ने मनुष्य को माटी से ही काट दिया है। माटी के ऊपर काँक्रीट में पलते, काँक्रीट में बढ़ते हम हर बार भूल जाते हैं कि जड़ें माटी में जितनी गहरी होंगी, खनिज और जल उतना ही अधिक अवशोषित करेंगी। सूरज की तपिश पाकर उतना ही अधिक विकास भी होगा।

सत्य तो यह है कि वर्तमान में हम प्रकृति से, सह-अस्तित्व से, सहजता से दूर होते जा रहे हैं। प्राणियों के साथ रहना, प्रकृति के संग रहना एक समय सामान्य बात थी। आज तो चूहा, बिल्ली से डरना भी आम बात हो गई है। यह भी विसंगति की पराकाष्ठा है कि एकाधिकार की वृत्ति का मारा मनुष्य भूल रहा है कि पग-पग पर प्रकृति का हर घटक अन्योन्याश्रित है।

इस परस्परावलंबिता को भूल रहे आदमी को अपनी एक रचना स्मरण दिलाना चाहता हूँ,

बड़ा प्रश्न है-

प्रकृति के केंद्र में

आदमी है या नहीं?

इससे भी बड़ा प्रश्न है-

आदमी के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं?

आदमी जितनी जल्दी अपने केंद्र में प्रकृति को ले आएगा, उतनी ही उसकी सहजता और जीवनानंद की परिधि विस्तृत होती जाएगी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ समाधि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समाधि”।)  

? अभी अभी ⇒ समाधि? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

संत कबीर तो कह गए हैं, साधो, सहज समाधि भली !

काहे का ताना, काहे का बाना। ‌और महर्षि पतंजलि तो पूरा अष्टांग योग ही ले आए, के.जी. वन से कॉलेज की डिग्री तक। यम नियम, फिर आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में जाकर समाधि। और इधर हमारे आज सबकी नाक पकड़कर प्राणायाम कराते हुए आयुर्वेदिक काढ़े पर काढ़े पिलाए जा रहे हैं। देशवासियों, सहज स्वदेशी बनो। स्वदेशी उत्पाद अपनाओ, स्वदेशी हो जाओ। समाधि से उपाधि भली।

कलयुग के एक विचारक ओशो के  समाधि के बारे में इतने क्रांतिकारी विचार थे कि एक समय पूरा बॉलीवुड उनके चरणों में गिर चुका था। विनोद खन्ना, गोल्डी आनंद, सुनील दत्त, नर्गिस, और परवीन बॉबी से लेकर खुशवंत सिंह तक समाधिस्थ होते होते बचे। ।

समाधि कोई हज अथवा तीर्थ तो है नहीं कि चारों धाम रिटर्न इंसान को फट से समाधि लग जाए। बहुत पापड़ बेलते थे कभी हमारे योगी सन्यासी, गुरुकुल से हिमालय तक का सफर तय करना पड़ता था समाधि लगाने के लिए लेकिन आज के अधिकांश संत महात्मा, योगी ब्रह्मचारी, महा मंडलेश्वर और शंकराचार्य कर्मयोगी बनना पसंद करते हैं। परम सत्ता का सुख ही समाधि है ईश्वर की इस सत्ता को नमन है।

एक भक्त और उसके आराध्य के बीच में जब भावनात्मक संबंध हो जाता है तो फिर उसे किसी कमीशन एजेंट की आवश्यकता नहीं होती। वह भक्ति भाव में ऐसा डूब जाता है कि उसकी सहज समाधि लग जाती है। ।

आखिर यह सहज समाधि है क्या ! जिसे पाना है उसकी याद में खोना ही भाव समाधि है। हमारे पास इतना समय नहीं कि हम जप, तप, पूजा अर्चना, हवन यज्ञ अनुष्ठान और स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधान का मार्ग अपनाकर बाबा बन जाएं। केवल एकमात्र  भाव की गंगा ही ऐसी है जिसमें आप कभी भी, कहीं भी डुबकी लगाकर भाव समाधि में आकंठ समा सकते हो।

संगीत एक ऐसी विधा है जो आपके मन को तरंगित करती है। भले ही आप एक बाथरूम सिंगर हो, जब आप अकेले में  कुछ गाते, गनगुनाते हो, तो कुछ समय के लिए कहीं खो जाते हो। बस यही खोना ही भाव समाधि है। उपलब्धि में अहंकार होता है। कई असुरों ने वर्षों तप कर अपने इष्ट से ऐसे ऐसे वर मांग लिए जिससे यह दुनिया ही संकट में पड़ गई। समाधि में कुछ मांगा नहीं जाता। भाव समाधि में तो आप कुछ मांगने लायक स्थिति में रहते ही नहीं हो। ।

जो अज्ञात है, सर्वव्यापी है, अविनाशी ओंकार है, वह ज़र्रे ज़र्रे में समाया हुआ है। एक पक्षी, एक पेड़, बहती नदी, झरना और पहाड़, कोयल की कूक, मीरा के भजन, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर हों, ता पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज और कुमार गंधर्व के निर्गुण के भजन, जो आपको उस भाव अवस्था में पहुंचा दे, बस वही भाव समाधि। तीन मिनिट की इस भाव समाधि में न तो  आपमें कर्ता पन का अहंकार शामिल है और न ही कोई सकाम चेष्टा। कोई मांग नहीं, मन्नत नहीं, कोई चढ़ावा नहीं, कोई मंदिर नहीं, कोई पुजारी नहीं। ऐकटा जीव, सदाशिव।

अपने आपको पाने का सबसे सरल रास्ता है, अपने आपमें खो जाना। जितनी भी ललित कलाएं हैं, वे हमें बाहर से अंदर को ओर ले जाती है। सुख, आनंद, समाधि कुछ भी नाम दें, अंतर्मुख होते ही घूंघट के पट खुल जाते हैं। ज़रा मन की किवड़िया खोल, सैंया तेरे द्वारे खड़े। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #180 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 180 ☆

☆ वक्त और उलझनें 

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ मुझे तुम याद आए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए “।)  

? अभी अभी ⇒ मुझे तुम याद आए ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

याद स्मृति को भी कहते हैं और कुछ भूला हुआ याद आना भी स्मरण ही कहलाता है। मेरी याददाश्त कमज़ोर है, मेरे बचपन के स्मृति – पटल पर आठ वर्ष के पहले की सभी स्मृतियां विस्मृत हो चुकी हैं, या मैं यह कहूं कि वे कभी मुझे याद थी ही नहीं।

सत्तर वर्ष की उम्र भूलने की नहीं होती। अगर होती तो मैं यह भी भूल जाता कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। लोग मुझे तसल्ली देते रहते हैं, भूलना एक आम समस्या है।

जो अतीत की अप्रिय घटनाएं हम भूलना चाहते हैं, वे बार बार कुरेदकर बाहर आ जाती हैं, और कुछ काम की बातें हम भूलने लग जाते हैं।।

भूल का भूलने से कोई संबंध नहीं! इस रविवार एक विचित्र घटना हुई। 503 के एक सज्जन मुझसे मिलने आए। ( हमारी मल्टी में लोग फ्लैट नंबर से जाने जाते हैं, नाम से नहीं। अस्पताल में मैं कभी कमरा नंबर 303 का पेशंट था। कैदी को भी जेल में नंबर से ही जाना जाता है।) वे अभी अभी आए हैं। जब भी मिलते हैं, मैं उनका फोन नंबर लेना भूल जाता हूं। इस बार आते ही मैंने उनसे उनका फोन नंबर मांग लिया , कहीं फिर भूल ना जाऊं।

उन्होने मुझे अपना फोन नंबर बताने के लिए कहा ताकि वह मुझे रिंग दे सकें। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मुझे अपना मोबाइल नंबर ही याद नहीं आया। मेरे पास घर में जितने फोन है, सबके नंबर मुझे कंठस्थ याद है और जो लोग अपना फोन नंबर याद नहीं रखते, मैं उन पर हंसता हूं।आज मैं खुद पर ही हंस रहा था। वे मेरा मुंह देख रहे थे और मैं अपनी दयनीय स्थिति।।

परिस्थिति से समझौता करने के लिए मैंने उनका नंबर पूछा और डायल कर दिया। मेरा नंबर उनके पास पहुंच गया और उनका मेरे पास। वे चले गए लेकिन मुझे अपने फोन नंबर में उलझाकर चले गए।

कोई समझदार इंसान होता तो फोन में ही अपना नंबर देख सकता था लेकिन मैं था, जो बार बार अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दे रहा था और अपने अंदर ही अपना टेलीफोन नंबर ढूंढ़ रहा था। और वह दस नंबरी टेलीफोन नंबर भी मानो मुझे चिढ़ा रहा था, मो को कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास रे। मैंने भी ठान लिया, भगवान को बाद में, पहले अपना फोन नंबर तो अपने में तलाश लूं।

हमारी कितनी मेमोरी है, और कौन सी बात कहां दबी छुपी है, कहना मुश्किल होता है। जो चीज हमेशा tip of the tongue यानी मुंहजबानी रहती थी, आज मन उसे उगल नहीं रहा था। अक्सर कुछ पुराने फिल्मी गानों के साथ भी यही होता है। जब हम चाहें, तब याद नहीं आते। और वो जब याद आए बहुत याद आए।।

पूरे रविवार और सोमवार, मैं यादों का पहाड़ खोदता रहा, एक दस डिजिट के नंबर के लिए, लेकिन एक भी डिजिट का पता नहीं चला। बहन से, बेटी से मेरी व्यथा कही। मेरा दर्द न कोई जाना। बस एक ही जवाब।हमारे साथ भी होता है। आपका नंबर मेसेज कर देते हैं। मैंने सख्ती से मना कर दिया। यह मेरी समस्या है। मेरी मुझसे ही लड़ाई है। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

मैं पूरी तरह हार थक चुका था। सोचा, हथियार डाल ही दूं। सोचते सोचते कल रात नींद लग गई। रात को बारह बजे अचानक नींद खुली। अनायास पांच डिजिट मन की आंखों के सामने प्रकट हुए। मेरा आधा फोन नंबर साफ नजर आया। यूरेका! मन ने कहा। मैं शवासन की अवस्था में लेटा रहा। मैंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। न ही उस नंबर को नोट किया। जो मेरे अंदर ही था, कहां जा सकता था, मुझे भरोसा था। कहीं दब गया होगा, सरकारी फाइलों की तरह। गूगल सर्च नहीं, मन के अंदर सर्च जारी थी। मैं निश्चिंत था। तीन चार अपुष्ट नंबर ए। मेरे मन ने ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया और अंततः दो घंटे की मशक्कत के बाद जो नंबर आया वह मेरा दस डिजिट वाला मोबाइल नंबर था।।

मैं उठा। अपने मोबाइल पर उसे अंकित किया और बाद में कन्फर्म किया। वह वही नंबर निकला। यह एक अनावश्यक कसरत थी, कुछ लोगों की निगाह में, लेकिन मुझे यह कसरत, बहुत कुछ सिखा गई। हमने अंदर झांकना ही बंद कर दिया है। ईश्वर को हम बाहर खोज रहे हैं। आत्म गुरु को छोड़ जगत गुरु के पीछे पड़े हैं।

हमारे अंदर विचारों के जखीरे में अगर काई और जलकुंभी है तो माणिक मोती भी है। जिन्हें हम सीपी और शंख समझते हैं वे ही तो रत्नों की खान हैं। जिन खोजां तिन पाइयां , गहरे पानी पैठ। कभी मन के पार चलें, कुछ खोने का, कुछ पाने का आनंद लें। अब आइंदा अगर कोई चीज भूलूंगा तो उसकी तलाश भी अंदर ही करूंगा। बाहर तो सिर्फ भटकाव है। नो गूगल सर्च!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ जाको राखे सांइया… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जाको राखे सांइया”।)  

? अभी अभी ⇒ जाको राखे सांइया? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अक्सर टॉयलेट में हम अकेले ही होते हैं, विचार कहीं भी हो, आँखें हर जगह निगरानी रखती है।मच्छर , खटमल और कॉकरोच से हमारी पुश्तैनी दुश्मनी चली आ रही है। जो हमारा खून पीये , अथवा हमारे सुख चैन में खलल डाले, उसके लिए , शत प्रतिशत शाकाहारी होते हुए भी, हमारी आंखों में खून उतर आता है।

होगा किसी के लिए जीवः जीवस्य भोजनम्, कोई निरीह प्राणी कभी हमारा भोजन नहीं बना, फिर भी एक आरोप हम पर सदा लगता चला आया है, कि हमने किसी का भेजा चाट लिया, अथवा किसी का दिमाग ही खा गए।लेकिन क्या करें, हम भी मजबूर हैं।।

वैसे आत्म रक्षा और सुरक्षा हेतु, अस्त्र, शस्त्र का उपयोग तो शास्त्रों द्वारा भी मान्य है, लेकिन यह आदमी कितना महान है, राजा महाराजा और वीर बहादुर, सदियों से जंगल में जा जाकर, जंगली जानवरों का शिकार करते चले आए हैं। इतना ही नहीं, उन्हें पिंजरे में कैद कर, सर्कस में करतब दिखलाने से भी बाज नहीं आए। आज के सभ्य समाज में, खैर है, जंगली जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध जरूर है, लेकिन यह इंसान जंगल में भी मंगल मनाने लग गया है। आज जंगल का राजा, शेर नहीं इंसान है। अगर प्रोजेक्ट टाइगर नहीं होता, तो कहां रह पाते जिंदा आज, बेचारे ये वन्य जीव।

नियति का चक्र भी बड़ा विचित्र है। अत्याधुनिक हथियारों और सुरक्षा प्रयत्नों के बावजूद आज भी हमारी समस्या बेचारे मच्छर, मक्खी और कॉकरोच का आतंक है। कभी अहिंसक मच्छरदानी हमें मच्छरों से बचा भी लेती थी, लेकिन आज ऑल आउट, कैस्पर, कछुआ छाप अगरबत्ती और करेंट वाली रैकेट के बावजूद मच्छर हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। छिपकली और कॉकरोच जैसे कीड़ों के लिए घरों में आए दिन, पेस्ट कंट्रोल करवाना पड़ता है।।

गर्मी में हमारी तरह कीड़े भी अक्सर मॉर्निंग वॉक, इवनिंग वॉक और रात्रि को सैर सपाटे के लिए निकला करते हैं। बस ऐसे ही एक शुभ मुहूर्त में हमारी नज़र टॉयलेट में सैर करते, एक मिनी कॉकरोच पर पड़ गई। बस क्या था, अचानक हमारे अंदर का जानवर जाग उठा, और हमने उसे मन ही मन चेतावनी भी दे डाली, खबरदार अगर टाईल्स की यह लक्ष्मण रेखा पार की। तुम्हारी मौत आज हमारे हाथों निश्चित है।

छठी इंद्रिय विरले प्राणियों में ही होती है। शायद कॉकरोच में कण कण में भगवान वाला अंश अवश्य होगा, जिसने मेरी मौन चेतावनी को पढ़ लिया और उस कॉकरोच को प्रेरणा दी, बेटा अबाउट टर्न ! और वह कॉकरोच चमत्कारिक ढंग से टाईल्स की लक्ष्मण रेखा पार करने के पहले ही, विजयी मुद्रा में वापस मुड़कर अपनी जान बचाने में कामयाब हुआ, और मैं एक पराजित योद्धा की तरह, अपने किये पर पछताने के अलावा कुछ ना कर सका।।

मुझे खुशी है, ईश्वर ने मुझे एक सोची समझी, नासमझी भरी, जीव हत्या से बाल बाल बचा लिया। हम कौन होते हैं किसी को मारने और अभय दान देने वाले, जब हम सबका मालिक एक है, और हम उसके हाथों की महज कठपुतली। किसी ने ठीक ही कहा है, जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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