हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 302 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी वैधानिक स्थितियां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 302 ☆

? राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी वैधानिक स्थितियां ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को क्यों ?

1947 में जब भारत को आजादी मिली तो देश के सामने राजभाषा के चुनाव को लेकर गहन चर्चायें हुई. भारत में अनेकों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, ऐसे में राष्ट्रभाषा के रूप में किसे चुना जाए ये संवेदनशील सवाल था. व्यापक मंथन के बाद संविधान सभा ने देवनागरी लिपी में लिखी हिन्दी को राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया. भारत के संविधान में भाग 17 के अनुच्छेद 343 (1) में कहा गया है कि राष्ट्र की राज भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था. इसीलिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की अनुशंसा के बाद से 1953 से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाने लगा. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस दिन के महत्व देखते हुए प्रति वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी.

विश्व हिन्दी दिवस १० जनवरी को क्यों ?

हिन्दी आज विश्व में तीसरे नम्बर पर बोले जाने वाली भाषा बन चुकी है. भारतीय विश्व के कोने कोने में बिखरे हुये हैं. वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था. इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.

हिन्दी की वैधानिक स्थितियां

चुंकि जब अंग्रेज गये तब सरकारी काम काज प्रायः अंग्रेजी में ही होते थे, रातों रात सारा हिन्दीकरण संभव नहीं था अतः अंग्रेजी में कामकाज यथावत जारी रहे. इसके चलते हिन्दी और अंग्रेजी के बारे में यह भ्रम व्याप्त है कि ये दोनों भारत संघ की सह-राजभाषाएँ हैं. वास्तविक सांविधानिक स्थिति बिल्कुल भिन्न है. संविधान में कहीं भी अंग्रेजी को राजभाषा नहीं कहा गया है. संविधान में अंग्रेजी के लिए प्रयुक्त शब्द हैं ” the language for the time being authorised for use in the Union for official purposes. ” संविधान ने कहा कि अंग्रेजी अगले पन्द्रह वर्ष तक राजकीय प्रयोजन के लिए साथ साथ प्रयुक्त होगी, तब तक संपूर्ण रूप से हिन्दी अपना ली जायेगी किन्तु दलगत तथा क्षेत्रीय राजनीति के चलते ये पंद्रह बरस अब तक खिंचते ही जा रहे हैं.

अनुच्छेद 344 में मुख्यत: छ: संदर्भों को रेखांकित किया गया है-

राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्ष की समाप्ति पर भारत की विभिन्न भाषाओं के सदस्यों के आधार पर एक आयोग गठित किया जाएगा और आयोग राजभाषा के संबंध में कार्य-दिशा निर्धरित करेगा.

हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग पर बल दिया जाएगा. देवनागरी के अंकों के प्रयोग होंगे. संघ से राज्यों के बीच पत्राचार की भाषा और एक राज्य से दूसरे राज्य से पत्राचार की भाषा पर सिफारिश होगी. आयोग के द्वारा औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति के साथ लोक-सेवाओं में हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के न्यायपूर्ण औचित्य पर ध्यान रखा जायेगा.

राजभाषा पर विचारार्थ तीस सदस्यों की एक समिति का गठन किया जाएगा जिसमें 20 लोक सभा और 10 राज्य सभा के आनुपातिक सदस्य एकल मत द्वारा निर्वाचित होंगे.

समिति राजभाषा हिंदी और नागरी अंक के प्रयोग का परीक्षण कर राष्ट्रपति को प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगी. राष्ट्रपति के द्वारा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निर्देश जारी किया जाएगा.

अनुच्छेद 345, 346 और 347 में विभिन्न राज्यों की प्रादेशिक भाषाओं के विषय में भी साथ-साथ विचार किया गया है.

अनुच्छेद 345 में प्रावधान है कि राज्य के विधान मण्डल द्वारा विधि के अनुसार राजकीय प्रयोजन के लिए उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली भाषा या हिंदी भाषा के प्रयोग पर विचार किया जा सकता है. इस संदर्भ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जब तक किसी राज्य का विधन मंडल ऐसा प्रावधान नहीं करेगा, तब तक कार्य पूर्ववत अंग्रेजी में चलता रहेगा.

अनुच्छेद 346 के अनुसार संघ में राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त भाषा यदि दो राज्यों की सहमति पर आपस में पत्राचार के लिए उपयोगी समझते हैं, तो उचित होगा. यदि दो या दो से अधिक राज्य आपस में निर्णय लेकर राजभाषा हिंदी को संचार भाषा के रूप में अपनाते हैं, तो उचित होगा.

अनुच्छेद 347 कहता है कि यदि किसी राज्य में जनसमुदाय द्वारा किसी भाषा को विस्तृत स्वीकृति प्राप्त हो और राज्य उसे राजकीय कार्यों में प्रयोग के लिए मान्यता दे, और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाए, तो उक्त भाषा का प्रयोग मान्य होगा.  

अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों की भाषा पर विचार किया गया है. यहाँ यह प्रावधान है कि जब तक संसद विधि द्वारा उपबंध न करे, तब तक कार्य अंग्रेजी में ही होता रहेगा. इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय, प्रत्येक उच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र रखे गए.

हिन्दी प्रयोग के लिए संसद के दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित होना चाहिए. अधिनियम संसद या राज्य विधान मंडल से पारित किए जाएं और राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा स्वीकृति मिले. यह प्रस्ताव विधि के अधीन और अंग्रेजी में होंगे. नियमानुसार स्वीकृति के बाद हिंदी का प्रयोग संभव होगा, किंतु उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय या आदेश पर लागू नहीं होगा.

अनुच्छेद 349 में प्रावधान है कि संविधान के प्रारंभिक 15 वर्षों की कालावधि तक संसद के किसी सदन से पारित राजभाषा संबंधित विधेयक या संशोधन बिना राष्ट्रपति की मंजूरी के स्वीकृत नहीं होगा. ऐसे विधेयक पर राजभाषा संबंधित तीस सदस्यीय आयोग की स्वीकृति के पश्चात्, राष्ट्रपति विचार कर स्वीकृति प्रदान करेंगे.

अनुच्छेद 350 के प्रावधानो के अनुसार विशेष निर्देशों को व्यवस्थित किया गया है. इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या को संघ और राज्य के पदाधिकारियों को संबंधित मान्य भाषा में आवेदन कर सकेगा. इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को अधिकृत भाषा में संघ या राज्य के अधिकारियों से पत्र-व्यवहार का अवसर दिया गया है.

अनुच्छेद 351 में भारतीय संविधान की अष्टम सूची में स्थान प्राप्त भाषाओं को महत्व दिया गया है. हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार से भारत की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्ति मिलने का संकेत है. हिंदी भाषा को मुख्यत: संस्कृत शब्दावली के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों से समृद्ध करने का संकेत भी इस अनुच्छेद में किया गया है.

हिन्दी के साथ साथ उपयोग हेतु राष्ट्रपति के आदेश

भारत संघ में राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रपति के द्वारा समय-समय पर आदेश जारी किए गए हैं. 1952 का आदेश उल्लेखनीय है जिसमें राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 343(2) के अधीन 27 मई, 1952 को एक आदेश जारी किया जिसमें संकेत था कि राज्य के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और अंक नागरी लिपि में हों.

राजभाषा आयोग की स्थापना सन् 1955 में हुई. आयोग के तीस सदस्यों द्वारा राजभाषा संदर्भ में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए-

  • त्वरित गति से हिन्दी के पारिभाषिक शब्द-निर्माण हों.
  • 14 वर्ष की आयु तक प्रत्येक विद्यार्थी को हिंदी भाषा की शिक्षा दी जाए.
  • माध्यमिक स्तर तक भारतीय विद्यार्थियों को हिंदी शिक्षण अनिवार्य हो.

इसमें से प्रथम सिफारिश मान ली गई. अखिल भारतीय और उच्चस्तरीय सेवाओं में अंग्रेजी जारी रखी गई. सन् 1965 तक अंग्रेजी को प्रमुख और हिंदी को गौण रूप में स्वीकृति मिली. 45 वर्ष से अधिक उम्र के कर्मचारियों को हिंदी- प्रशिक्षण की छूट दी गई.

1955 के राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार संघ के सरकारी कार्यों में अंग्रेजी के साथ हिंदी प्रयोग करने का निर्देश किया गया. जनता से पत्र-व्यवहार, सरकारी रिपोर्ट का पत्रिकाओं और संसद में प्रस्तुत, जिन राज्यों ने हिंदी को अपनाया है, उनसे पत्र-व्यवहार, संधि और करार, अन्य देशों उनके दूतों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से पत्र-व्यवहार, राजनयिक अधिकारियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत के प्रतिनिधियों द्वारा जारी औपचारिक विवरण सभी कार्य अंग्रेजी और हिन्दी दोनो भाषाओ में किये जाने के निर्देश दिये गये.

1960 में राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निम्न निर्देश जारी किए गए थे-

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के निर्माणार्थ शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक आयोग स्थापित किया जाए. शिक्षा मंत्रालय, सांविधिक नियमों आदि के मैनुअलों की एकरूपता निर्धरित कर अनुवाद कराया जाए. मानक विधि शब्दकोश, हिंदी में विधि के अधिनियम और विधि-शब्दावली निर्माण, हेतु कानून विशेषज्ञों का एक आयोग बनाएँ. तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों को छोड़, 45 वर्ष तक की उम्र वाले कर्मचारियों को हिंदी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जावे. गृह मंत्रालय हिंदी आशुलिपिक, हिंदी टंकण प्रशिक्षण योजना बनाए.

 1963 का राजभाषा अधिनियम : 26 जनवरी, 1965 को पुन: आगामी 15 वर्षों तक अंग्रेजी को पूर्ववत् रखने का प्रावधान कर दिया गया. हिंदी-अनुवाद की व्यवस्था पर जोर दिया गया. उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि में अंग्रेजी के साथ हिंदी या अन्य राजभाषा के वैकल्पिक प्रयोग की छूट दी गई. इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा. देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका जो राजभाषा से अपेक्षा थी.

वर्ष 1968 में संविधान के राजभाषा अधिनियम को ध्यान में रखकर संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष संकल्प पारित किया. इसमें विचार रखे गए-

  • हिंदी प्रचार-प्रसार का प्रयत्न किया जाएगा और प्रतिवर्ष लेखा-जोखा संसद के पटल पर रखा जाएगा.
  • आठवीं सूची की भाषाओं के सामूहिक विकास पर राज्य सरकारों से परामर्श और योजना-निर्धारण.
  • त्रिभाषा-सूत्र पालन करना.
  • संघ लोक-सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी के साथ हिंदी और आठवीं सूची की भाषाओं को अपनाना.
  • कार्यालयों से जारी होने वाले सभी दस्तावेज हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों. संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किए जाने वाले सरकारी पत्र आदि अनिवार्य रूप से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों.

राजभाषा हिंदी कार्यान्वयन के लिए देश को भाषिक धरातल पर तीन भागों में बाँटा गया-

‘क’ क्षेत्र- बिहार, हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली.

‘ख’ क्षेत्र- गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, अंडमान निकोबार द्वीप-समूह और केद्रशासित क्षेत्र.

‘ग’ क्षेत्र- भारत के अन्य क्षेत्र-बंगाल, उड़ीसा, आसाम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, केरल आदि.

इस अधिनियम के अनुसार केद्र सरकार द्वारा ‘क’ क्षेत्र अर्थात हिन्दी बैल्ट से पत्र-व्यवहार हिंदी से ही होगा. यदि अंग्रेजी में पत्र भेजा गया, तो उसके साथ हिंदी अनुवाद अवश्य होगा. ‘ख’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी होगा. ‘ग’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में हो सकता है.

इन स्थितियों में आजादी के अमृत महोत्सव के बाद भी हम हिन्दी के अधूरे राजभाषा स्वरूप में हिन्दी दिवस मना रहे हैं. प्रधानमंत्री ने दासता के सारे चिन्हों से मुक्त होने का आव्हान किया है, राजपथ का नाम करण कर्त्व्य पथ हो चुका है, अब हम भारत वासियों और हिन्दी प्रेमियों का कर्तव्य है कि हम अंग्रेजी की दासता से मुक्त होकर हिन्दी को उसकी संपूर्णता में कब तक और कैसे अपनाते हैं.

भोपाल से हिंदी को लेकर प्रयास

दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में आयोजित हुआ था.

हिंदी साहित्य के अनेकानेक पुरस्कार और सम्मान भोपाल से हिंदी भवन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, म प्र साहित्य अकादमी, लेखक संघ, दुष्यंत संग्रहालय, माधव राव सप्रे संग्रहालय सहित कई निजी संस्थाएं भी प्रति वर्ष दे रही हैं. रवींद्र नाथ टैगोर विश्व विद्यालय भोपाल वैश्विक स्तर पर विश्व रंग का आयोजन कर रहा है. श्री संतोष चौबे जी ने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार स्थापित करने, तथा जिस तरह अंग्रेजी की जी आर ई, टाफेल परीक्षा होती है, उसी तरह हिंदी की योग्यता परीक्षा की योजना बनाई है.

हिंदी को लेकर सतत काम हो रहे हैं. हिंदी को राष्ट्र व्यापी रूप से जनता और सरकारी समर्थन की दरकार है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 472 ⇒ मित्र को पत्र ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मित्र को पत्र।)

?अभी अभी # 473 ⇒ मित्र को पत्र? श्री प्रदीप शर्मा  ?

याद नहीं आता पिछले 30 वर्षों में मैने किसी मित्र को पत्र लिखा हो। स्कूल के दिनों में हिंदी के आचार्य व्याकरण के अलावा दीपावली और गाय पर निबंध और मित्र को पत्र अवश्य लिखवाते थे। कॉलेज आते-आते कुछ साथी प्रेम पत्र लिखना भी सीख गए और हमारे जैसे लोग संपादक के नाम पत्र ही लिखते रह गए।

इस दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा। यार दोस्त भी दिल के टुकड़े ही तो होते हैं। कबीर साहब ने शायद दोस्तों के बारे में ही यह कहा होगा ;

पत्ता टूटा डार से

ले गई पवन उड़ाय।

अब के बिछड़े कब मिलेंगे

दूर पड़ेंगे जाय।।

जिन दोस्तों का पता था उनसे कुछ अर्से तक तो पत्र व्यवहार होता रहा, टेलीफोन का जमाना तो वह था नहीं, बस खतों के जरिए ही दिल की प्यास बुझा ली जाती थी।

खतों का सिलसिला हमेशा दो तरफा होता है एकांगी नहीं, अगर एक भी मित्र ख़त का जवाब नहीं देता तो वह कड़ी आगे जाकर टूट जाती है। मेरे बैंक के एक अंतरंग मित्र और सहयोगी जब ट्रांसफर होकर अपने होम टाउन चले गए तो उनसे पत्र व्यवहार का सिलसिला शुरू हुआ। पहल उन्होंने ही की पोस्टकार्ड के जरिए। बड़े भावुक मित्र थे और निहायत शरीफ इंसान। पंकज मलिक और के सी डे के गीत इतनी तन्मयता से गाते थे कि उनके लिए जगमोहन के ये शब्द सार्थक सिद्ध होते प्रतीत होते हैं ;

दिल को है तुमसे प्यार क्यों

ये न बता सकूँगा मैं

ये न बता सकूंगा मैं ….

कहने का आशय यही कि उन्हें मुझसे आत्मीय प्रेम था। मैं कभी उनके खतों का जवाब देता कभी नहीं देता, कारण एकमात्र आलस्य। उन्होंने जवाबी पोस्ट कार्ड भेजना शुरू कर दिया लेकिन फिर भी मैं आदत से मजबूर उस पत्र व्यवहार के सिलसिले को जारी नहीं रख पाया।।

आज फोन है मोबाइल है इंटरनेट है। पुराने दोस्तों से संपर्क बहुत आसान है फिर भी वह बात नहीं जो पहले थी। उम्र का तकाजा कहें अथवा मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। ऐसी स्थिति में एक आशा की किरण केवल फेसबुक के आभासी मित्रों में ही नजर आती है। मित्रों की सूची लंबी है शुभचिंतकों की भी कमी नहीं। दिल बहलाने के लिए ग़ालिब ख्याल अच्छा है।

आत्मीय प्रेम और स्वस्थ संवाद ही आज की जरूरत है। जितने दूर उतने पास, और जो जितना करीब है वह उतना ही दूर नजर आता है। लोग कहते हैं ताली दो हाथ से बजती है, काश ताली बजाते ही, अलादीन के चिराग की तरह, दोस्त हाजिर हो जाते। जो जहां जितना है, पर्याप्त है। फिल्मी ही सही, लेकिन अभिव्यक्ति कितनी सही है ;

एहसान मेरे दिल पे

तुम्हारा है दोस्तों

ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों …!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #249 ☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 249 ☆

☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆

‘प्रतिभा प्रभु-प्रदत्त व जन्मजात मनोवृत्ति होती है। ख्याति समाज से मिलती है, आभारी रहें, लेकिन मनोवृत्ति व घमंड स्वयं से मिलता हैं, सावधान रहें’ में सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय  संदेश निहित है। प्रभु सृष्टि-नियंता है, सृष्टि का जनक, पालक व संहारक है। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह ईश्वर द्वारा मिलता है और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पतियाँ आदि सब सर्व-सुलभ हैं। इनके लिए हमें कोई मूल्य चुकाना नहीं पड़ता। इसी प्रकार प्रतिभा भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव में संचरित होती है। सो! हमें उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहना चाहिए।

ख्याति मानव को समाज द्वारा प्राप्त होती है। चंद लोगों को यह उनके श्रेष्ठ व शुभ कार्यों के एवज़ में प्राप्त होती है, जिन्हें युग-युगांतर तक तक स्मरण रखा जाता है। परंतु आजकल विपरीत चलन प्रचलित है। आप पैसा खर्च करके दुनिया की हर वस्तु प्राप्त कर सकते हैं, ऊंचे से ऊंचे मुक़ाम पर पहुंच सकते हैं। इसके लिए न आप में देवीय गुणों की आवश्यकता है, ना परिश्रम की दरक़ार है। आप पैसे के बल पर शौहरत पा सकते हैं, ऊँचे से ऊँचे पद पर आसीन हो सकते हैं तथा सारी दुनिया पर राज्य कर सकते हैं।

पैसा अहं पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है। यदि आपको अपने गुणों के कारण समाज में ख्याति प्राप्त हुई है, तो आपको उनका आभारी रहना चाहिए। परंतु आजकल लोग रातों-रात स्टार बनना चाहते हैं; प्रसिद्धि प्राप्त कर दूसरों को नीचा दिखा संतोष पाना चाहते हैं। वास्तव में इसमें स्थायित्व नहीं होता। यह पलक झपकते समाप्त हो जाती है और मानव अर्श से फर्श पर आन गिरता है। एक अंतराल के पश्चात् जब लोग उसके निहित स्वार्थ व माध्यमों से अवगत होते हैं तो वे स्वत: अपनी नज़रों से गिर जाते हैं और लोगों की घृणा का पात्र बनते हैं। वैसे भी जो वस्तु हमें बिना परिश्रम के सुलभ हो जाती है, उसका मूल्य नहीं होता और हम उसके महत्व को नहीं स्वीकारते। सो! जीवन में जो कुछ हमें अथक परिश्रम से प्राप्त होता है, वह अक्षुण्ण होता है और हमें उसके एवज़ में समाज में अहम् स्थान प्राप्त होता है। वैसे भी समय से पहले व भाग्य से अधिक हमें कुछ भी उपलब्ध नहीं होता व समय से पूर्व अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। माली सींचत सौ घड़ा, ऋतु आय फल होय अर्थात् अधिक सिंचन करने से भी हमें यथासमय फल की प्राप्ति होती है।

सो! निष्काम कर्म करते रहिए, क्योंकि फल की इच्छा करना कारग़र नहीं  होता।आत्म-संतोष सर्वश्रेष्ठ है और जिस व्यक्ति के पास यह अमूल्य संपदा है, वह कभी दुष्कर्म अर्थात् कुकृत्य की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकता। वह सत्य की राह पर चलता रहता है। सत्य का प्रभाव लंबे समय तक जलता रहता है, भले ही परिणाम देरी से प्राप्त हो। यह शुभ व कल्याणकारी होता है। जो सत्य व शिव है, दिव्य सौंदर्य से आप्लावित होता है और सुंदर होता है। उसमें केवल भौतिक व क्षणिक सौंदर्य नहीं होता, अलौकिक सौंदर्य से भरपूर होता है। वह केवल हमारे नेत्रों को ही नहीं, मन व आत्मा को भी परितृप्त करता है। इसलिए हमें सदैव ईश्वर के सम्मुख नतमस्तक रहना चाहिए, सर्वगुण-संपन्न है और किसी भी पल कोई भी करिश्मा दिखा सकता है। वैसे इंसान को ख्याति प्रभु कृपा से प्राप्त होती है, परंतु इसमें समाज का योगदान भी होता है। सो! हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

जहाँ तक मनोवृति व घमंड का संबंध है, उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी होते हैं। हमारी सोच हमारे भविष्य को निर्धारित करती है, क्योंकि हम अपनी सोच के अनुकूल कार्य करते हैं, लोगों के बारे में निर्णय लेते हैं, जो राग-द्वेष के अनुकूल कार्य करते हैं; लोगों के बारे मेएं निर्णय लेते हैं, जो सदैव स्व-पर की निकृष्ट भावनाओं में लिप्त रहते हैं। संसार में हर चीज़ की अति बुरी होती है। आवश्यकता से अधिक प्रेम व ईर्ष्या-द्वेष भी  हमें पतन की ओर ले जाते हैं और अधिक धन व  प्रतिष्ठा हमें पथ-विचलित कर देते हैं। अहं हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसका त्याग करने पर ही हम सामान्य जीवन जी सकते हैं। इसके लिए सकारात्मक अपेक्षित है। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’  अर्थात् सौंदर्य देखने वाले की नज़रों में होता है। वह व्यक्ति या वस्तु में नहीं होता। अहं हमारे मन के उपज है। इससे हमारे अंतर्मन में दूसरों के प्रति उपेक्षा व घृणा भाव उपजता है तथा यह हमें निपट अकेला कर देता है। इस स्थिति में कोई भी हमारे साथ रहना पसंद नहीं करता। पहले हम अहंनिष्ठ दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव दर्शाते हैं; एक अंतराल के पश्चात् उनके पास हमारे लिए समय नहीं होता, जो हमें आजीवन एकांत की त्रासदी झेलने को विवश कर देता है।

आधुनिक युग में एकल परिवार व्यवस्था में पति-पत्नी में अति-व्यस्तता के कारण उपजता अजनबीपन का एहसास बच्चों को माता-पिता के प्यार प्यार-दुलार से महरूम कर देता है। वे नैनी के आश्रय में पलते-बढ़ते हैं और युवावस्था में उनके कदम ग़लत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। वे अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाते हैं तथा संबंध-सरोकारों की परिभाषा से अनजान रहते हैं। इन विषम स्थितियों में माता-पिता के पास प्रायश्चित् के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं होता। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि जो प्रभुकृपा से प्राप्त है, सत्यम् शिवम् सुंदरम् से आप्लावित है, मंगलकारी होता है, अनुकरणीय होता है और जो हमारे बपौती नहीं होता है। वह हमें उस दोराहे व अंधी गली पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां से लौटने का कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। सो! परमात्मा की स्जित प्रकृति में आक्षेप व व्यवधान उत्पन्न करना सदैव विनाशकारी होता है, जो हमारे समक्ष है। जंगलों को काटकर कंक्रीट के भवन बनाना, कुएँ, बावरियों, तालाबों व नदियों को प्लास्टिक आदि से प्रदूषण करना, मानव को स्वयं को सुप्रीम सत्ता समझ दूसरों के अधिकारों का हनन करना तथा आधिपत्य जमाना– उनका परिणाम हर दिन आने वाले तूफ़ान, सुनामी की दुर्घटनाएं ग्लोबल वार्मिंग आदि के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसका समाधान प्रकृति की ओर लौट जाने में निहित है। आत्मावलोकन करना, सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना, सबको समान दृष्टि से देखना, हम को विलीन करने आदि से हम समाज व विश्व में समन्वय व संमजस्यता ला सकते हैं। अंत में सिसरो के इस कथन द्वारा ‘मानव की भलाई के सिवाय और किसी अन्य कर्म द्वारा मनुष्य ईश्वर के इतने निकट नहीं पहुँच सकते ।’परहित सरिस धर्म नहीं कोई’ को हमें जीवन के मूलमंत्र के रूप में अपनाना चाहिए।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 472 ⇒ हुस्न और इश्क ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हुस्न और इश्क।)

?अभी अभी # 472 ⇒ हुस्न और इश्क? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ऐ हुस्न ज़रा जाग, तुझे इश्क जगाए ! और अगर हुस्न नहीं जागे, तो इश्क क्या करे। बस, ठंडी आहें भरे। हुस्न जब सोता है, बड़ा मासूम होता है। जागता है, सीधा आईने के पास जाता है। आइना नहीं, हुस्न नहीं। आईने की कोई सूरत नहीं होती, हुस्न को अपनी ही सूरत पर गुमान होता है, गुरूर होता है। हुस्न को यकीन है, आइना झूठ नहीं बोलता।

अगर हुस्न जाग जाए, और इश्क सो जाए, तो इश्क को कौन जगाए। हुस्न एक आग है, जिसमें वह खुद नहीं जलता। सुबह का सूरज उसी हुस्न की एक आग है। वह एक ऐसा आफताब है, जिसे देख कुदरत अंगड़ाई लेती है। इश्क जाग उठता है। इश्क सुबह के सूरज की इबादत करता है। फूल खिलते हैं, कलियां मुस्कुराती हैं, भंवरे गुनगुनाते हैं। हुस्न का जलवा ही सूर्योदय है।।

जैसे जैसे सूरज आसमान पर चढ़ता है, उसका हुस्न परवान चढ़ता है। वह तपकर आग का गोला हो जाता है। हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे। आप उस जलवे से आंख नहीं मिला सकते। हुस्न की आग से नज़रें मिलाई नहीं जाती, नजर झुकाकर भी इश्क किया जाता है।

हुस्ने जाना इधर आ, आइना हूं मैं तेरा। इश्क हुस्न को परदे में रखना चाहता है, उसे पूजना चाहता है। उसके हुस्न को किसी की नजर ना लगे, उसे ताले में बंद करना चाहता है। घूंघट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे। जो हुस्न आग है, आफताब है, पाक साफ है, क्या उससे नज़रें मिलाना इतना आसान है।।

बाल कृष्ण ने मिट्टी क्या खाई, माता यशोदा ने गुस्से में जो नंदलाला का मुंह खोला, तो होश खो बैठी। वहां कृष्ण की लीला थी या जलवा था। माया अपना काम कर गई। यशोदा जान तो गई, लेकिन किसी को बताने की स्थिति में भी नहीं रही।

अर्जुन ने भी देखा था सारथी नटवर श्रीकृष्ण के हुस्न का जलवा कुरुक्षेत्र में, जब वह शस्त्र छोड़, शरणागत हो गया था।

कृष्ण का विराट स्वरूप जब सामने आया तो होश उड़ गए।।

हुस्न से चांद भी शरमाया है।

सूरज अगर आग है तो चंद्रमा शीतलता का प्रतीक ! चंद्रमा की अपनी कोई रोशनी नहीं। सूरज की ही परछाई है वह। ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें। चांद से बेहतर ही है यह जमीं, क्योंकि यहां सूरज की रोशनी है, जीवन है, प्राण है, प्रेम है, शांति है। जहां भी तेज है, ओज है, रोशनी है, प्रकाश है, सब सूरज का ही जलवा है। हुस्न के कई रूप हैं, कई रंग हैं। कोई सच्चा आशिक ही उसको पहचान पाता है।

सुंदरता में प्रेम है, भक्ति है, समर्पण है। सब में रब तो बाद में होगा, क्यों न सब रब में ही समा जाए। पहले किसी से दिल तो लगे, फिर शुरू हो दिल्लगी। हुस्न का जलवा हो, तो हम भी कर लें बंदगी ;

आशिक हूं तेरे दर का

ठुकरा मुझे ना देना।

आया हूं बन भिखारी

झोली तो भर ही देना।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना निज आघात सहे मन कैसे ?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?…

समय- समय पर सभी के सामने चुनौतियाँ आतीं हैं, कुछ लोग इनका सामना एक अवसर के रूप में करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है कह कर रोना रोने लगते हैं।

अब सीधी सी बात है जिसे अवसर का लाभ लेना नहीं आता, समय को अपने अनुकूल करने की कला नहीं होती।

सच्चाई तो ये है कि जितना तनाव सहने की क्षमता होती उतना ही व्यक्ति सफल होगा। बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता, उचित- अनुचित तथ्यों के परखने का गुण आपकी जीत को सुनिश्चित करता है। स्वयं पर पूर्ण विश्वास रखने वाले की जीत होती है।

इस संदर्भ में छोटी सी कहानी है, एक शिष्य बहुत दुःखी होकर अपने गुरु के सम्मुख रुदन करते हुए कहने लगा कि मैं आपके शिष्य बनने के काबिल नहीं हूँ, हर परीक्षा में जितने अंक मिलने चाहिए वो मुझे कभी नहीं मिले इसलिए मैं अपने घर जा रहा हूँ वहाँ पिता के कार्य में हाथ बटाऊँगा, गुरु जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वो अधूरी शिक्षा छोड़ कर अपने गाँव चला गया।

किसी के जाने का दुःख एक दो दिन तो सभी करते हैं पर जल्दी ही उस रिक्त स्थान की पूर्ति हो जाती है। गुरुजी सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे तभी उन्हें वहाँ कुछ पक्षी उड़ते हुए दिखे उनका मन भी सब कुछ छोड़ हिमालय की ओर चला गया कि कैसे वो अपने गुरु के सानिध्य में वहाँ रहते थे, तो गुरुदेव ने भी तुरन्त अपने प्रिय शिष्य को जिम्मेदारी दी और चल दिये।

ये किस्सा एक बार का नहीं जब मन करता गुरुदेव कहीं न कहीं अचानक चल देते सो उनके शिष्य भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए अधूरे ज्ञान के साथ जब जी आता अपनी पढ़ाई छोड़ कर चल देते कुछ वापस भी आते। इस पूरी कहानी का उद्देश्य यही है, पानी पीजे छान के गुरू कीजे जान के। जैसे गुरु वैसे चेले होंगे ही।

कोई भी व्यक्ति या वस्तु पूर्ण नहीं होती है ये तो सर्वसत्य है, हमें उसके गुण दोषों को स्वीकार करने की समझ होनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 471 ⇒ रविवार अवकाश ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रविवार अवकाश।)

?अभी अभी # 471 ⇒ रविवार अवकाश? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Sunday Closed

हमारी पृथ्वी सूर्य का ही अंश है, इसलिए हम सूर्य से अधिक सनातन तो नहीं हो सकते, पृथ्वी तो फिर भी एक ही है, लेकिन इस ब्रह्मांड में कितने सूर्य हैं, इसका हमें पता नहीं। केवल एक दिव्य भास्कर, आदित्यनाथ हैं, जिसे सुना है, हमारे बाल हनुमान ने कभी गेंद समझकर निगल लिया था।

यह भी सत्य सनातन है कि हममें से अगर कुछ सूर्यवंशी हैं, तो कुछ चंद्रवंशी, लेकिन लोकतंत्र में आज सभी रविवार की छुट्टी यानी सन्डे के नाम पर वीकेंड मना रहे हैं, और चैन की बंसी बजा रहे हैं। ।

यह संडे अर्थात् रविवार की छुट्टी कितनी पुरानी अथवा सनातन है, इसके बारे में श्रुति, स्मृति और पुराण सभी मौन हैं। हां सूर्यनारायण हमारे आराध्य अवश्य हैं, शक्ति और प्रकाश के पुंज हैं, वे हमें कर्म की शिक्षा देते हैं, आराम और विश्राम की नहीं। उसके लिए सोलह कलाओं से युक्त हमारे चंद्र देव नभ में विराजमान हैं।

संध्या होते ही पक्षी तक अपने घोंसलों में विश्राम हेतु पहुंच जाते हैं। निशा निमंत्रण मिलते ही इंसान भी रजनी के साथ सुख से रात्रि व्यतीत करता है और सुबह अपने आपको ताजा महसूस करता है।

आज की बाल नरेंद्र की रिसर्च यह बताती है कि रविवार यानी संडे कभी हमारा सप्ताहिक अवकाश का दिन रहा ही नहीं। यह स्पष्ट रूप से अंग्रेजों की देन है। हमारे पास इससे असहमत होने का कोई कारण नहीं, क्योंकि रवि का इतिहास तो हमारे पास है, लेकिन रविवार की छुट्टी का नहीं। अंग्रेजों का क्या है, ठंडे प्रदेश के लोग हैं, जिस दिन सूरज उगा, उसी दिन सन्डे। ।

कभी हमारा भी सूरज उगता था, नहा धोकर उत्साहपूर्वक सोमवार को दफ़्तर जाते थे, लेकिन हमारी निगाह शनिवार पर ही लगी रहती थी, शनिवार हॉफ डे और सन्डे की छुट्टी। लेकिन रिटायरमेंट के बाद अब सन्डे की छुट्टी का वह मज़ा नहीं रहा। सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूं ही आराम से गुजर जाती है।

खेती किसानी में कोई अवकाश नहीं होता, पशु पक्षियों को हमने कभी साप्ताहिक अवकाश पर जाते नहीं देखा। दिवाकर यानी आदित्य ने कभी संडे ऑफ नहीं लिया। हमने भोजन से कभी साप्ताहिक अवकाश नहीं लिया। दिल की धड़कन और रात दिन चलती सांसें अगर अवकाश मांग ले, तो हमारी तो छुट्टी ही हो जाए। ।

हमने तो जीवन में बस सावधान और विश्राम का सबक ही सीखा है, सुबह होते ही सावधान ;

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत..

कठोपनिषद्

और

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 301 ☆ आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 301 ☆

? आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

राष्ट्र की प्रगति में तकनीकज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सच्ची प्रगति के लिये अभियंताओ और वैज्ञानिकों का राष्ट्र की मूल धारा से जुड़ा होना अत्यंत आवश्यक है। हमारे देश में आज भी तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। इस तरह अपने अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर हम उन्हें न केवल जन सामान्य से दूर कर रहे हैं वरन अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिको को पश्चिमी राष्ट्रों का रास्ता भी दिखा रहे हैं।

अंग्रेजी क्यो ? इसके जवाब मे कहा जाता है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड़ दी तो हम दुनिया से कट जायेगें। किंतु क्या रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन इत्यादि देश वैज्ञानिक प्रगति मे किसी से पीछे हैं ? क्या ये राष्ट्र  विश्व के कटे हुये हैं। इन राष्ट्रों मे तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा उनकी अपनी राष्ट्रभाषा मे ही होती है। अंग्रेजी मे नहीं। आज इतने सुविकसित अंतर्भाषा टूल्स बन चुके हैं कि विश्व संपर्क वाला यह तर्क बेमानी है ।

वास्तव मे विश्व संपर्क के लिये केवल कुछ बडे राष्ट्रीय संस्थान एवं केवल कुछ वैज्ञानिक व अभियंता ही जिम्मेदार होते हैं जो उस स्तर तक पहुचंते पहुंचते आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। देश के केवल उच्च तकनीकी संस्थानों में वैकल्पिक रूप से अंग्रेजी को तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकारा जा सकता है । किंतु वर्तमान स्थितियों में हम व्यर्थ ही सारे विद्यार्थियों को उनके अमूल्य 6 वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने में व्यस्त रखते हैं। जबकि आाज राष्ट्र भाषा हिन्दी में तकनीकी शिक्षण हेतु किताबें उपलब्ध कराई जा चुकी हैं । यदि कोई कमी है भी तो उसे दूर करने के लिये पर्याप्त संसाधन और बुद्धिजीवी सक्रिय हैं ।  दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत से कही अधिक संख्या में अभियंता तथा वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का एक बहुत बडा कारण उनका अंग्रेजी मे प्रशिक्षण भी है।

हमारे देश में शिक्षा की जो वर्तमान स्थिति है उसमें गांव गांव में भी अंग्रेजी माध्यम की शालायें खुल रही हैं , क्योकि अंग्रेजी भाषा के माध्यम को रोजगार तथा व्यक्तित्व निर्माण के साधन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है . इसके पीछे अंग्रेजो का देश पर लम्बा शासन काल तो जिम्मेदार है ही साथ ही देश में भाषाई विविधता के चलते भाषाई आधार पर राज्यो के विभाजन की राजनीति भी जबाबदार लगती है . जिसके कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया पर उसे राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नही किया गया और इसका लाभ अंग्रेजी को मिलता गया ,विशेष रूप से तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में यही हुआ .

हिंदी को कठिन बताने के लिये प्रायः रेल के लिये लौहपथगामनी जैसे शब्दों के गिने चुने दुरूह उदाहरण लिये जाते है , पर यथार्थ है कि हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः ऐसे कुछ शब्द नागरी लिपि में लिखते हुये हिंदी मे यथावत अपनाये  जा सकते है। हिंदी शब्द तकनीक के लिये यदि अंग्रेजी वर्णमाला का प्रयोग करे तो हम अंग्रेजी अनुवाद टेक्नीक के बहुत निकट है।  संत के लिये सेंट, अंदर के लिये अंडर, नियर के लिये निकट जैसे ढेरों उदाहरण है। शब्दों की उत्पत्ति के विवाद मे न पड़कर यह कहना उचित है कि हिंदी क्लिष्ट नही है।

हमने एक गलत धारणा बना रखी है कि नई तकनीक के जनक पश्चिमी देश ही  होते है। यह सही नहीं है। पुरातन ग्रंथों में भारत विश्व गुरू के दर्जे पर था। हमारे वैज्ञानिको एवं तकनीकज्ञों में नवीन अनुसंधान करने की क्षमता है। तब प्रश्न उठता है कि क्यों हम अंग्रेजी ही अपनाये। क्यों न हम दूसरों की अन्वेषित तकनीक के अनुकरण की जगह अपनी क्षेत्रीय स्थितियों के अनुरूप स्वंय की जरूरतों के अनुसार स्वंय अनुसंधान करे जिससे उसे सीखने के लिये दूसरों को हिंदी अपनाने की आवश्यकता महसूस हो।

जब अत्याधुनिक जटिल कार्य करने वाले कप्यूटरों की चर्चा होती है तो आम आदमी की भी उनमें सहज रूचि होती है एवं वह भी उनकी कार्यप्रणाली समझना चाहता है। किंतु भाषा का माध्यम बीच में आ जाता है और जन सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगों को केवल चमत्कार समझ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता है। इसकी जगह यदि इन प्रयोगों की विस्तृत जानकारी देकर हम लोगो की जिज्ञासा को और बढा सके तो निश्चित ही नये नये अनुसंधान को बढावा मिलेगा। इतिहास गवाह है कि अनेक ऐसे खोजे हो चुकी है जो विज्ञान के अध्येताओं ने नही किंतु आवश्यकता के अनुरूप अपनी जिज्ञासा के अनुसार जनसामान्य ने की है।

यह विडंबना है कि ग्रामीण विकास के लिये विज्ञान जैसे विषयो पर अंग्रेजी मे बडी बडी संगोष्ठियां तो होती हैं किंतु इनमें जिनके विकास की बातें होती हैं वे ही उसे समझ नही पाते। मातृभाषा में मानव जीवन के हर पहलू पर बेहिचक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। क्योंकि बचपन से ही व्यक्ति मातृभाषा मे बोलता पढ़ता लिखता और समझता है। फिर विज्ञान या तकनीक ही मातृभाषा मे नही समझ सकता ऐसा सोचना नितांत गलत है।

आज हिंदी अपनाने की प्रक्रिया का प्रांरभ त्रैमासिक या छैमाही पत्रिका के प्रारंभ से होता है जो दो चार अंकों के बाद साधनों के अभाव में बंद हो जाती है। यदि हम हिंदी अपनाने के इस कार्य के प्रति ऐसे ही उदासीन रहे तो भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी। हिंदी अपनाने के महत्व पर भाषण देकर या हिंदी संस्थानों के कार्यक्रमों में हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो सकती। हमें सच्चे अर्थों में प्रयोग के स्तर पर हिंदी को अपनाना होगा। तभी हम मातृभाषा हिंदी को उसके सही स्थान पर पहुंचा पायेंगे।

हिंदी ग्रंथ अकादमी हिंदी मे तकनीकी साहित्य छापती है। बडी बडी प्रदर्शनियां इस गौरव के साथ लगाई जाती है कि हिंदी में तकनीकी साहित्य उपलब्ध है। किंतु इन ग्रंथो का कोई उपयोग नहीं करता। यहां तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण तक छप नहीं पाते। क्योंकि विश्वविद्यालयों में तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी ही है। यह स्थिति चिंता जनक है। हिंदी को प्रायः साम्प्रदायिकता क्षेत्रीयता एवं जातीयता के रंग में रंगकर निहित स्वार्थों वाले राजनैतिक लोग भाषाई ध्रुवीकरण करके अपनी रोटियां सेंकते नजर आते हैं। हमें एक ही बात ध्यान में रखनी है कि हम भारतीय हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है यदि राष्ट्रीयता की मूल भावना से हिंदी को अपनाया जावेगा तो यही हिंदी राष्ट्र की अखंडता और विभिन्नता में एकता वाली हमारी संस्कृति के काश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विभिन्न रूपों को परस्पर और निकट लाने में समर्थ होगी।

यही हिंदी भारतीय ग्रामों के सच्चे उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक को जन्म देगी। हमें चाहिये कि एक निष्ठा की भावना से कृत संकल्प होकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से हिंदी को अपनाने में जुट जावे। अंग्रेजी के इतने गुलाम मत बनिये कि कल जब आप हिंदी की मांग करने निकले तो चिल्लाये कि वी वांट हिंदी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

बी ई सिविल, पोस्ट ग्रेजुएशन फाउंडेशन, सर्टीफाइड इनर्जी मैनेजर

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 470 ⇒ नि गु रा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नि गु रा।)

?अभी अभी # 470  नि गु रा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गुरु बिन कौन करे भव पारा !

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर ..

हमारे देश में आदमी अनपढ़, निरक्षर, अशिक्षित रह सकता है, लेकिन बिना गुरु के नहीं रह सकता। इतने जगतगुरु, साधु संत, महात्मा, शिक्षक, प्रोफेसर,  विद्वान, आचार्य, ज्योतिष, योग, आर्युवेद, महंत, और महामंडलेश्वर के रहते, भला कोई निगुरा कैसे रह सकता है। जिस देश में लोगों का तकिया कलाम ही गुरु हो, कोई महागुरु और कोई गुरु घंटाल हो, वहां गुरुओं की क्या कमी। गुरु, इसी बात पर ठोको ताली।

गुरु से बचना इतना आसान भी नहीं ! पहले गुरु तो माता पिता ही होते हैं। अब आप अजन्मे तो नहीं रह सकते। आप पालने में पड़े हो और किसी ज्योतिष गुरु ने आपका नामकरण भी कर दिया। घर में भवानीप्रसाद, और ज्वालाप्रसाद तो पहले से ही मौजूद थे, आप हो गए गुरुप्रसाद। लाड़ प्यार में नाम बनता बिगड़ता रहता है, किसी के लिए गुड्डू, तो किसी के लिए गुल्लू। गुरु कृपा से अच्छे पढ़ लिख लिए, तो बड़े होकर कॉलेज में आप प्रोफेसर जी.पी.दुबे कहलाने लगे। यथा नाम तथा गुण। ।

गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊँ ! द्रोणाचार्य और शुक्राचार्य। मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ, या फिर निगुरा ही रह जाऊँ। जो आपको जीवन के गुर सिखलाए, वह गुरु। वैसे भी गुरु को तो गुड़ ही रहना है, शक्कर तो चेले ही बनते हैं। जीवन में मिठास जरूरी है। या तो गुड़ बन जाएं, या फिर शक्कर। वैसे आप गुरु करें ना करें, आपकी मर्जी। लेकिन किसी ज्योतिष गुरु के कहने पर गुरुवार करने में क्या हर्ज है। जिन लोगों का गुरु कमज़ोर होता है, वे किसी उस्ताद की शरण में जाते हैं। गुरुवार तो वैसे भी हर हफ्ते आता ही रहेगा।

एक समय था, जब शहर में हर गुरुवार को सिनेमा घरों में नई फिल्म लगती थी। व्यापारी अपनी दुकानें बंद रखते थे। गुरुवार अब भी आता है, लेकिन क्या करें, सिनेमागृहों की गृह दशा ही खराब चल रही है। व्यापारी भी गुरुवार की जगह संडे मनाने लग गए। ।

संत कबीर बड़े ज्ञानी थे, गुरु ग्रंथ साहब तक में उनका जिक्र है, फिर भी वे निगुरे नहीं रह सके। उन्हें भी गुरु रामानंद की शरण में जाना ही पड़ा। दत्तात्रय तो भगवान थे, लेकिन उनके भी एक दो नहीं चौबीस गुरु थे। उन्हें सृष्टि के जिस जीव में गुण नजर आते, वे उसे गुरु रूप में स्वीकार कर लेते। जो हमें सीख दे, वही गुरु, वही शिक्षक और वही सदगुरु। अगर हम अपना सबक ठीक से याद नहीं करें, तो इसमें गुरु का क्या दोष।

आखिर गुरु को बाहर क्यूं ढूंढा जाए जब हमारे अंदर ही ब्रह्मांड समाया हुआ है। और लोग अंतर्गुरु तलाशने पहले ओशो, कृष्णमूर्ति और महर्षि रमण की शरण में गए लेकिन जब बात नहीं बनी तो जग्गी वासुदेव का दामन थाम लिया। श्री श्रीरविशंकर और योगगुरु बाबा रामदेव अपने अपने सुदर्शन चक्र चला ही रहे हैं, बचकर कहां जाओगे। ।

एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई ! इन निगुरों के बीच यह कहां से आ टपका भाई ? यहां 24 x 7 चैनलों पर संत महात्माओं, साधुओं और परम हंसों का जमघट लगा रहता है। चित्रकूट के घाट से कम नहीं यह सत्संग और स्वाध्याय की चौपाटी। रामकथा, भागवत और शिव पुराण। कभी कोई तो कभी कोई और । दान पुण्य और गऊ सेवा का पुण्य अलग।

जो भी भक्त है, उसका अपना भगवान है। शिष्य का अपना गुरु है। बाकी सब स्वयं ही गुरु हैं। अहं ब्रह्मास्मि ! बस इस देश में वामपंथी ही निगुरे हैं। निगुरे नहीं, विश्व गुरु हैं हम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पुरस्कृत आलेख – मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पुरस्कृत आलेख ☆ मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

 ‘प्रेमचन्द जी की भाव अनुरागी साहित्य तरंगिणी’ 

साहित्य का किसलिए निर्माण किया जाता है ? इसके जवाब के लिए मुंशी प्रेमचंद जी के शब्दों का आधार लें तो, “साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं और नायक एवं नायिका के विरह और मिलन का राग नहीं अलापता। उसका उद्देश्य है बहुत दूरगामी है। जीवन की समस्याओं का चित्रण, उन पर अपने विचारों के आधार पर समीक्षा करना और समस्या के निवारण का प्रयत्न करना। साहित्य का सम्बन्ध उतना बुद्धि से नहीं, जितना भावों से है। बुद्धि का प्रदर्शन करना है तो दर्शन शास्त्र है, विज्ञान है, नीतिपाठ है।भावाभिव्यक्ति के लिए उपन्यास, कहानियाँ और नाटक हैं।”

उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, सम्पादकीय जैसे बहुविध प्रांतों में साहित्य सृजन करने वाले मुंशी प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्तव-जन्म:३१ जुलाई १८८०, मृत्यु:८ अक्टूबर १९३६) के साहित्य में ३०० से अधिक कहानी, ३ नाटक, १५ उपन्यास, ७ बाल-पुस्तकें आदि शामिल हैं। वे न केवल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे, अपितु उनके यथार्थवादी लेखन में हर प्रकार की मानवी संवेदनाओं का मार्मिक चित्रण है। उस समय का हिंदी साहित्य काल्पनिक, धार्मिक और पौराणिक चरित्रों पर आधारित था। इसके विपरीत मुंशी जी के साहित्य में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया। इसी कारण प्रेमचंद जी का साहित्य तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज प्रतीत होता है, जिसमें समाज-सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का वास्तववादी चित्रण है। मुंशी जी के साहित्य में दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, लिंग भेद, विधवा विवाह, शहरों की आधुनिकता से जूझता गाँवों का पिछड़ापन, स्त्री-पुरुष विषमता और समानता का द्वंद्व आदि उस दौर की समस्याएं प्रमुखता से दिखाई देती हैं। उनके साहित्य की प्रमुख देन है यथार्थवाद के चौखटे में समाने को उत्सुक भारतीय संस्कृति का आदर्शवाद! उनके द्वारा निर्मित व्यक्तिचित्र भावानुभूति एवं भावाभिव्यक्ति की चरम सीमा लांघकर हमारे दिलो-दिमाग में स्थाई रूप से बसे हैं। उन गरीबों का एक एक चीथड़ा हमारे ह्रदय को तार-तार कर देता है। जब जमींदार उन पर लाठी बरसाता है, तो उनकी चीखें हमारे कानों के पर्दों को मानों चीर देती हैं। उनकी भूख-प्यास हमें त्रासदी पहुँचाती है। १ गाय खरीदने को तरसने वाले ‘गोदान’ के होरी के जीवनान्त को कैसे भूलें हम ? मुझे आभास होता है कि, ‘पूस की रात’ कहानी के हल्कू और मुन्नी नायक नायिका न होकर महज़ ३ रुपए का कम्बल ही असली नायक है, जिसके अभाव में हल्कू पूस की रात की भीषण सर्दी का सामना करते-करते अधमरा हो जाता है। ‘कफ़न’ कहानी के बाप-बेटे घीसू और माधव की जिन्दा लाशें एवं माधव की घरवाली की वास्तविक लाश, दोनों में कुछ अधिक फर्क नहीं महसूस होता। ‘निर्मला’ मात्र उपन्यास की नायिका नहीं है, वह भारत के स्त्री वर्ग की त्रासदी को उजागर करती है। दहेज़ के अभाव में विवाह टूटना, अधेड़ उम्र के व्यक्ति से विवाह होना, एक बेटी के मातृत्व का बोझ और समाज से घोर उपेक्षा, इन सबसे ‘यमराज’ ही उसे मुक्ति दिलाता है। मृत्युदाता की प्रतीक्षा करने वाली ऐसी ‘निर्मला’ आज के समाज में भी जीवित है। मुंशी जी की भावाभिव्यक्ति से पशुधन भी अछूता नहीं था। ‘दो बैलों की कथा’ कहानी के ‘हीरा एवं मोती’ एक संवेदनशील पात्र बन पड़े हैं। इस मुई गरीबी के दाग की ऐसी क्या मज़बूरी है कि, कोई भी साबुन उसे मिटा नहीं पाया, चाहे वह किसी भी छाप का हो। यह ‘गरीबी की रेखा’ जिस किसी ने खींची है, वह तो लक्ष्मण रेखा की भांति अमर, अमिट और अजेय बन गई है। लोग कहते हैं कि, मुंशी प्रेमचंद हो या सत्यजीत रे हो, उन्होंने भारत की गरीबी के ग्लैमर के पत्ते को भुनाया है, लेकिन साहित्य हो या फिल्म हो, वे तो समाज का दर्पण होते हैं न! अगर यह न होता तो, हमें ‘गोदान’ की धनिया और झुनिया यूँ हमारे समक्ष मानों जीते-जागते इंसान के रूप में नजर नहीं आते। क्या समाज में ‘गबन’ उपन्यास के नायक-नायिका रमानाथ और जलपा मौजूद नहीं है ? लालच और नैतिकता का पतन तो आज कई गुना वृद्धिगत हुआ है।

‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद द्वारा रचित लघु कथा है, जो आज के दिन भी सामायिक लगती है। एक सम्मानित ईमानदार सरकारी नौकर अर्थात नामक नमक का दरोगा वंशीधर और भ्रष्टाचारी प्रतिष्ठित जमींदार पंडित अलोपीदीन के बीच का यह ‘धर्मयुद्ध’ है। मुन्शी जी की कहानी ऐसे बुनी गई है कि, किसी भी हिंदी फिल्म के ईमानदार नायक और बेईमान खलनायक की कहानी लगे। सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कर्मपरायणता जैसे मानव मूल्यों का आदर्श रूप यहाँ बहुत असरदार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इस सिलसिले में मुझे मुंशी जी की ‘परीक्षा’ नामक कहानी का स्मरण हुआ। अपने राजा के लिए अपना उत्तराधिकारी योग्य दीवान चुनने वाले सुजानसिंह परीक्षार्थियों की सत्यनिष्ठा और परोपकार की परीक्षा लेते हैं एवं माटी से सने साधारण युवक में ‘दीवान’ खोज लेते हैं।

कुल मिलाकर देखें तो प्रेमचंद जी के पात्र भारतीय संस्कृति का सच्चा रूप दर्शाते हैं। उनके ‘सौंधी देसी मटमैली भावनाओं से परिपूर्ण’ साहित्य में पिता का वात्सल्य, पुत्र का समर्पण, पत्नी का पवित्र प्रेम और ऐसे ही कई नातों के मनमोहक ‘माया जाल’ फैले हैं।

अगर मुंशी प्रेमचंद द्वारा निर्मित पात्र अमर हैं, तो उनकी असीम लेखन प्रतिभा व गहन अवलोकन शक्ति के कारण। क्या हम इस आपा-धापी के युग में अभी भी अपनी संवेदनशीलता को संजोए हुए हैं ? अगर इसकी जाँच पड़ताल करनी है तो, एक ‘परीक्षा’ देनी होगी। प्रेमचंद के किसी उपन्यास या कहानी की पुस्तक को पढ़ना होगा। पढ़ते-पढ़ते क्या आपकी ऑंखें नम हुईं ? क्या ‘गोदान’ के होरी के ‘अंतिम समय’ आपके मन में उथल-पुथल मची ? क्या ‘निर्मला’ का एक अधेड़ के साथ विवाह का प्रसंग पढ़ने पर आपको उसकी विवशता जान अपनी किसी विवशता का आभास हुआ ? अगर ऐसा है तो, आपकी रगों में लाल-नीला खून ही नहीं, अपितु जीवंत संवेदना की लहरें भी दौड़ रही हैं। आप एक भावनाशील इंसान हैं। समाज परिवर्तन हेतु हमें ऐसे ही ‘जिन्दादिल’ इंसानों की जरुरत है।

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 469 ⇒ माड़ साब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माड़ साब।)

?अभी अभी # 469 ⇒ माड़ साब? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह सरकारी दफ्तरों में एक किस्म बड़े बाबू की होती है, ठीक उसी तरह सरकारी स्कूलों में शिक्षक की एक किस्म होती है, जिसे माड़ साब कहते हैं। बड़े बाबू, नौकरशाही का एक सौ टका शुद्ध, टंच रूप है, जिसमें रत्ती भर भी मिलावट नहीं, जब कि शिक्षा विभाग में माड़ साब जैसा कोई शब्द ही नहीं, कोई पद ही नहीं।

माड़ साब, एक शासकीय प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक यानी शिक्षक महोदय, जिन्हें कभी मास्टर साहब भी कहा जाता था, का अपभ्रंश यानी, बिगड़ा स्वरूप है। ।

हमें आज भी याद है, हमारी प्राथमिक स्कूल की नर्सरी राइम, ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, क्लास में बैठे पंडित जी … (रिक्त स्थानों की पूर्ति आप ही कर लीजिए) होती थी। यह तब की बात है, जब छम छम छड़ी की मार से, विद्या धम धम आती थी। बेचारे पंडित जी, कब मास्टर जी हो गए, और जब अधेड़ होते होते, माड़ साब हो गए, उन्हें ही पता नहीं चला।

इस प्राणी में यह खूबी है, कि यह केवल सरकारी स्कूलों में ही नजर आता है। हायर सेकंडरी के कुछ वरिष्ठ शिक्षक लेक्चरर अथवा व्याख्याता कहलाना अधिक पसंद करते हैं। आजकल प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल कहलाए जाने लगे हैं, वहां सर अथवा टीचर किस्म के शिक्षक उपलब्ध होते हैं, जिनकी तनख्वाह माड़ साहब जितनी तो नहीं होती, लेकिन जिम्मेदारी धड़ी भर होती है। ।

वैसे यहां सरकारी स्कूलों में शिक्षिका भी होती हैं, जिन्हें कभी सम्मान से बहन जी कहा जाता था। लेकिन जब बहन जी भी घिस घिस कर भैन जी कहलाने लगी, तो उन्हें सम्मान से मैडम अथवा टीचर जी कहकर संबोधित किया जाने लगा।

मैडम शब्द के बारे में भी हमारे कार्यालयों में बड़ी भ्रांति है। शिक्षा के क्षेत्र से प्रचलित यह शब्द किसी विवाहित महिला के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए, लेकिन माड़ साब की तरह और मिस्टर की तरह मैडम शब्द हर कामकाजी महिला, और एक आम शिक्षिका के लिए प्रयुक्त होने लग गया। ।

एक बार स्थिति बड़ी विचित्र पैदा हो गई, जब किसी बैंक में एक रिटायर्ड फौजी पेंशनर ने किसी महिला कर्मचारी से पूछ लिया, are you married ? उस बेचारी कुछ दिन पहले ही लगी लड़की ने कह दिया, no Sir, I am still a bachelor ! इस पर उस पेंशनर ने आश्चर्य व्यक्त किया, why then, these people call you Madam, I dont understand. आपके साथी आपको मैडम क्यों कहते हैं, मुझे समझ में नहीं आता।

वैसे मास्टर शब्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ! जो किसी भी विधा में, अपने इल्म में दक्ष हो, उसे मास्टर कहा जाता है। मास्टर्स की डिग्री वैसे भी बैचलर्स की डिग्री से बड़ी होती है। ।

संगीत और नृत्य में मास्टर जी, किसी उस्ताद अथवा गुरु से उन्नीस नहीं होते।

अध्यात्म के क्षेत्र में जो अदृश्य शक्तियां अमृत काल में, साधकों की सहायता करती हैं, उन्हें भी मास्टर ही कहते हैं। महावतार बाबा, युक्तेश्वर गिरी और लाहिड़ी महाशय की गिनती ऐसे ही मास्टर्स में होती है।

माड़ साब के साथ ऐसा कोई धर्मसंकट नहीं। उन्हें माड़ साब सुनने की वैसे ही आदत है, जैसे एक बड़े बाबू आजीवन घर और बाहर बड़े बाबू ही कहलाते चले आ रहे हैं। मेरे कई पारिवारिक और घनिष्ठ मित्रों को मुझे भी मजबूरन माड़ साब ही कहना पड़ता है। अगर कभी गलती से उनका नाम लेने में भी आ गया, तो सामने वाला सुधार कर देता है, अच्छा वही माड़ साब ना। ।

रिश्तों पर आजकल घनघोर संकट चल रहा है। प्रेम के संबंध और रिश्ते गायब होते जा रहे हैं, रिटायर्ड अकाउंटेंट और शिक्षाकर्मी और शिक्षाविद् जैसे भारी भरकम शब्द अधिक प्रचलन में है। कल ही मैने अपने एक प्रिय माड़ साब को खोया है, ईश्वर इन रिश्तों की रक्षा करे ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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