☆ आलेख – आशंका ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
आशंका शब्द मन की नकारात्मकता की कोख से जन्म लेता है। यह बहुधा संशय, दुविधा, हताशा, निराशाजन्य परिस्थिति की देन है। यह वर्तमान में जन्म लेकर भविष्य में पृष्ठ पोषित होती है। आशंकाएं ज्यादातर निर्मूल होती है, लेकिन कभी कभी लाक्षणिक आधार पर सच भी साबित होती है। आशंकित मानव अनेक प्रकार के मानसिक तनाव झेलता है और यही तनाव एक समय के बाद अवसाद का रूप ले लेता है तथा मानव अवसाद की बीमारी के चलते आत्महत्या भी कर लेता है। आशंका मानव का स्वभाव बन जाता है वह व्यक्ति के आत्म विश्वास की जड़ें हिला देता है। आशंकित व्यक्ति का खुद पर भी भरोसा उठ जाता है। वह सकारात्मक सोच नहीं सकता नकारात्मकता मानव के मन पर बहुत बुरी तरह हावी हो जाती है। आशंकित इंसान प्राय: अकेला रहना चाहता है व अपने आप में घुटता रहता है,वह किसी पर भरोसा नहीं करता। उसकी आंखों की नींद उड़ जाती है और वह प्राय: नकारात्मक विचारों के चलते भयाक्रांत रहता है। सही निर्णय नहीं ले पाता अपना निर्णय बार बार बदलता रहता जिससे हानि उठानी पड़ती है
ऐसे व्यक्ति कुंठा का शिकार होते हैं, लोगों के लिए ऐसे व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाते हैं। जबकि उन्हें दया नहीं सहानुभूति चाहिए उनका मानसिक इलाज होना चाहिए, और उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जाना चाहिए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आशंकित स्वभाव मनोरोग है समय से हम रोगी के आचार विचार व्यवहार को समझ कर उसे नया जीवन शुरू करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शेष या अवशेष। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 154 ☆
☆ शब्द-शब्द साधना ☆
‘शब्द शब्द में ब्रह्म है/ शब्द शब्द में सार। शब्द सदा ऐसे कहो/ जिन से उपजे प्यार।’ वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है जीवन का संदेश…इसलिए सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेम भाव प्रकट हो। कबीरदास जी का यह दोहा ‘ऐसी बानी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ ख़ुद भी शीतल होय’ …उपरोक्त भाव की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं; जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि ‘शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म। शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम’ शब्द में निहित हैं ख़ुशी व ग़म के भाव– परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है।
वास्तव में शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहाँ वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं; वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है और शब्द ही मरहम है। शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर कारग़र दवा का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस मन:स्थिति में किन शब्दों का प्रयोग किस अंदाज़ से करते हैं।
‘हीरा परखै जौहरी/ शब्द ही परखै साध। कबीर परखै साध को/ ताको मतो अगाध’ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत्य वचनों अर्थात् सत्संग को ही महत्व प्रदान करता है और आनंद प्राप्त करता है। वह उनके संदेशों को जीवन में धारण कर सुख व संतोष प्राप्त करता है; स्वयं को भाग्यशाली समझता है। परंतु कबीरदास जी उस साधु को परखते हैं कि उसके भावों व विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है; उसकी सोच कैसी है और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है; वह उचित है या नहीं? वास्तव में संत वह है; जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और उसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते; उसे सत्मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते–वही श्रद्धेय है, पूजनीय है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व सपाट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, तो अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाएं अर्थात् कुत्सित भावनाओं व विचारों को अपने मनोमस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें, क्योंकि ये दोनों मानव के अजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है।
अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को तो हानि पहुंचाता ही है; वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में न जाने क्या-क्या कह जाता है; जिसके लिए उसे बाद में प्रायश्चित करना पड़ता है। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के ज़ख्म कभी नहीं भरते; वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहाँ मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं; वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपका दु:खी व आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और वह स्वयं को अकेला व असहाय अनुभव नहीं करता। उसे ऐसा लगता है कि आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।
एकांत में व्यक्ति के लिए अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना करना भी अनिवार्य है… सोच- समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी ग़लती का एहसास दिलाना है, तो उससे एकांत में बात करो, क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है। अक्सर उस स्थिति में दोनों के अहं का टकराव होता है। अहं से संघर्ष का जन्म होता है और उस स्थिति में वह दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हो जाता है। गुस्सा चाण्डाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं। परशुराम का क्रोध में अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का अहिल्या का श्राप देना आदि हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना अर्थात् तोलना चाहिए। उस विषम परिस्थिति में कटु व अनर्गल शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए; जिसे सहन करने की क्षमता आप में है। सो! आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना व दुष्भावनाएं मत रखिए, बल्कि बोलने से पहले उसके औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर उसके प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों-सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं और उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता। बिना सोच-विचार के किए गए कर्म केवल आपको ही हानि नहीं पहुंचाते; परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।
सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि ग़लत हों, तो गुमराह कर देते हैं; यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त उक्ति हमें आग़ाह करती है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरु होता है; जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको ग़लत मार्ग व ग़लत दिशा की ओर जाने पर सचेत करता है तथा आपकी उन्नति को देख कर प्रसन्न होता है; आप को उत्साहित करता है। पुस्तकें मानव की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छे मित्र के साथ न होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है।
हाँ! सबसे बड़ी है मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे के भावों से परिलक्षित होता है और व्यवहार उसके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, सहानुभूति आदि को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना को दूर से सलाम कीजिए, क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु यदि वह उन असामान्य परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोता; दु:खी नहीं होता, बल्कि उससे सीख लेता है तो वह अपनी मंज़िल को प्राप्त कर अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि ‘सुख- दु:ख तो अतिथि हैं’…’जो आया है, अवश्य जाएगा’ को अपना मूल-मंत्र स्वीकार संतोष से अपना जीवन बसर करता है। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए, ताकि दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपके सत्मार्ग पर चलने में बाधा उपस्थित न करें अर्थात् आपको ग़लत राह का अनुसरण न करने दें। वास्तव में पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देते हैं और उससे उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव अमानुष। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है। इसलिए ऐसा स्थान यश व लक्ष्मी को रास नहीं आता और वे वहां से रुख़्सत हो जाते हैं।
सो! जहां सत्य है; वहां धर्म है, यश है और वहीं लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है; सौहार्द व सद्भाव है; मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है और वहां कलह, अशांति, ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवेश पाने का साहस नहीं जुटा सकते। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है; उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय बनें, क्योंकि हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी ज़िंदगी के प्रणेता हैं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “टीम बड़ी या नेतृत्व”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 121 ☆
☆ टीम बड़ी या नेतृत्व ☆
बहुत से लोग अपनी सशक्त टीम के बल पर शीर्ष पर पहुँचते हैं। बस यहीं से टीम टूटने लगती है उसके सदस्यों को लगता है कि यहाँ तक उन्होंने पहुँचाया है जबकि स्थिति इससे उलट होती है। सबसे महत्वपूर्ण कार्य विजन का होता है जो कि टीम लीडर ने किया है। उसके बाद लक्ष्य तय करना, योजना बनाना, उसे पूरा करने की सीमा तय करना, सदस्यों का चयन उनकी उपयोगिता के आधार पर, उनसे कार्य करवाना, दिशा निर्देशन देना। यहाँ तक कि हर छोटे- बड़े फैसले भी खुद लेना।
अब तक के कार्यों को देखें तो इसमें टीम ने क्या किया है ? दरसल ये सदस्य किसी एक कार्य के लिए चुने जाते हैं उसके पूरा होते ही इनका टूट कर बिखरना पहले से ही तय रहता है। जब टीम के सदस्य कार्य करते हैं तो उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु कहा जाता है कि आप ने यह कार्य बहुत अच्छे से किया, ऐसा कोई कर नहीं सकता। बस यहीं से वो भ्रमित होकर अपने को सर्वे सर्वा समझने लगते हैं और खुद अलग होकर स्वतंत्र कम्पनी स्थापना कर बैठते हैं। अगर ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि टीम के सदस्यों ने केवल वही कार्य किया जो लीडर ने निर्धारित किया था। इनसे जो पहले से बनता था उतना आज भी बन रहा है। बस इनको ये भ्रम हो गया था कि इनके दम पर ये लीडर बना है।
ऐसा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है, हम बिना स्वमूल्यांकन के अनजाने क्षेत्रों में कूद पड़ते हैं और बाद में हताश होकर अधूरे कार्यों के साथ दोषारोपण करते हैं। जरा सोचिए कि अलग- अलग होकर बिना मतलब का कार्य करने से कहीं अधिक अच्छा होता कि एक जुटता के साथ किसी बड़े लक्ष्य पर कार्य करते।
इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आ रहा है कि एक संस्था प्रमुख ने अपने जन्मोत्सव को मनाने के लिए सभी साहित्यकारों को इकट्ठा किया और अपने अनुसार पूरे सात दिनों तक गुणगान करवाया। समय पास करने हेतु लोग मिल जाते हैं सो उन्हें भी मिल गए। खूब माला पहनी व पहनायी। अंत में भोजन की व्यवस्था भी थी सो हास- परिहास के साथ सब कुछ सम्पन्न हो गया।
जरा सोचिए कि जब बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होकर अपने को जाया करेगा तो हम विश्व स्तर पर कैसे पहुँचेंगे, जब हमारा लक्ष्य ही आत्म केंद्रित हो जाएगा तो हिंदी का परचम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कैसे फहरा पायेंगे।
बात वहीं पर आकर ठहरती है कि जिस नेतृत्व में आप कार्य कर रहें उसे योग्य, दूरदर्शी व सबको साथ लेकर चलने वाला है या नही।
खैर कुछ भी करें पर करते रहिए। सार्थक कार्य आपको कभी न कभी शीर्ष पर विराजित करेगा किन्तु आलस्य सामान्य सदस्य भी बना रहने देगा या नहीं ये कहा नहीं जा सकता है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – जश्ने आज़ादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज पंद्रह अगस्त तो है, नहीं आप कहेेंगे तो स्वतंत्रता दिवस के मानने की बात क्यों हो रही हैं?
चार जुलाई को अमेरिका भी स्वतंत्र हुआ था, इसलिए विगत कुछ दिनों से यहां उल्लास और आनंद का माहौल बना हुआ है।
हमारे देश के झंडे को हम तिरंगा कह कर भी संबोधित करते हैं, उसी प्रकार से अमेरिका के झंडे में भी तीन रंग लाल, नीला और सफेद रंग होते हैं।हमारे देश के साथ इनकी एक और समानता है,इनके देश पर भी ब्रिटिश कॉलोनी का साम्राज्य था।हमारा देश इस वर्ष स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है,लेकिन इनकी आज़ादी तो करीब अढ़ाई सौ वर्ष पुरानी हैं।
चार जुलाई को तो पूरे देश में अवकाश रहता है,इसके अलावा कुछ संस्थानों ने एक जुलाई को भी अवकाश घोषित किया हुआ था, दो और तीन जुलाई क्रमशः शनि और रविवार के अवकाश थे।कुल मिलाकर यहां की भाषा में ” long weekend” है। प्रतिवर्ष इस मौके पर तीन से चार दिन का अवकाश हो ही जाता हैं। क्रिसमस/ नव वर्ष अवकाश के बाद स्वतंत्रता दिवस के समय ही ऐसे मौके आते हैं। हमारे देश में तो विभिन्न संप्रदायों/ संस्कृतियों के नाम से अनेक त्यौहार मनाए जाते है, जो विरले देश में ही होते होंगें।
बाजारवाद यहां भी मौके को भुनाने से नहीं चूकता,मन लुभावन छूट, दो खरीदने के साथ एक मुफ्त इत्यादि से बिक्री को बढ़ावा दिया जाता हैं।लंबे अवकाश का भरपूर मज़ा लेने के लिए यहां के लोग दूर दराज क्षेत्रों में भ्रमण या परिवार / मित्रों को मिलने के लिए उपयोग करते हैं।हवाई यात्रा,होटल इत्यादि में भी अग्रिम बुकिंग हो जाती है।मौसम भी खुशनुमा होता है,जिसका पूर्ण रूप से आनंद लेकर यहां के निवासी अपने आप को रिचार्ज कर लेते हैं। यहां पर भी कुछ स्थानों पर पटाखे/ आतिशबाजी के सार्वजनिक आयोजन किए जाते हैं।निजी तौर से पठाखे चलाने पर प्रतिबंधित हैं, लेकिन अपनी पिस्टल/ बंदूक से आप जब चाहे लोगों को भून सकते हैं।किसी विशेष दिन/ आयोजन की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ नवरात्र साधना सम्पन्न हुई 🌻
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 159 ☆ नर में नारायण ☆
नर में नारायण’ की मान्यता से सामान्य रूप से हरेक परिचित है। तथापि जिस तरह राधा का वर्णक्रम बदलने पर धारा हो जाता है, और राधा के भाव से जीवन सार्थकता की दिशा में प्रवाहित होने लगता है, ठीक उसी तरह नर में नारायण के साथ नारायण में नर का विचार एक नयी दृष्टि देता है।
एक प्रसंग स्मरण हो आता है। जमा-जोड़ की सोच वाले एक नर में भगवान का विग्रह लेने की इच्छा जगी। ये इच्छा भी अकारण नहीं थी। उसने किसी से सुन लिया था कि एक विशेष मुद्रा का विग्रह घर में रखकर नियमित पूजन से ज़बरदस्त लाभ होता है। मोल-भाव कर लाभकारी मुद्रा के ठाकुर जी घर ले आया। अब प्रतिदिन सुबह पूजन कर घर से निकलता। शाम को लौटता तो हिसाब करता कि दिन भर में लाभ क्या मिला। फिर सोचता मूर्ति बेकार में ही ले आया। एक-एक कर अनेक दिन बीते। सारे गुणा-भाग करके उसने ठाकुर जी पर होनेवाला खर्च कम करना शुरू कर दिया। किसी रोज़ सोचता, मूर्ति पर आज चढ़ाई माला का ख़र्च बेकार गया। कभी सोचता आज का बताशा मूर्ति को व्यर्थ ही चढ़ाया। शनै:-शनै: मूर्ति को उसने उपेक्षित ही कर दिया। कुछ दिन और बीते। इस बार किसीने शत-प्रतिशत गारंटीड लाभ वाली मूर्ति बताई। मन कठोर कर उसने नया ख़र्च करने करने का निर्णय लिया। पुरानी मूर्ति ऊपर आले पर रख दी और नयी मूर्ति ले आया।
…नयी मूर्ति की आज पहली पूजा थी। उसने विशेष तौर पर ख़रीदी अगरबत्ती लगाई। लगाते ही विचार आया कि पुराने ठाकुर जी ने कभी किसी तरह का लाभ नहीं दिया तो इस अगरबत्ती की सुगंध उन तक क्यों पहुँचे। विचार क्रिया तक पहुँचा। झट एक स्टूल पर चढ़ा और ठाकुर जी का नाक कपड़े से बांधने का मानस बनाया। अभी हाथ बढ़ाया ही था कि ठाकुर जी ने हाथ पकड़ लिया। देखता ही रह गया वह। फिर व्यंग्य से बोला, ‘इतने दिनों इतना खर्चा तुम पर किया तब तो कभी सामने नहीं आए। आज ज़रा-सी सुगंध तुम्हारी नाक तक आने से क्या रोकी, फौरन धरती पर आ गए।’ ठाकुर जी हँस कर बोले, ‘आज से पहले तूने भी तो मुझे केवल मूर्ति ही समझा था। आज तूने मूर्ति में प्राण अनुभव किया। नारायण में नर देखा। जिस रूप में तूने देखा, उस रूप में मुझे उतर कर आना पड़ा।’
सारांश यह है कि केवल नर में नारायण मत देखो, नारायण में भी नर देखो। नर में नारायण और नारायण में नर देखना, अद्वैत का वह सोपान है जो मनुष्य को मुक्ति के द्वार तक ले जा सकता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शेष या अवशेष। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 153 ☆
☆ शेष या अवशेष ☆
जो शेष बची है, उसे विशेष बनाइए, अन्यथा अवशेष तो होना ही है’,’ ओशो की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है, जिसमें जीवन-दर्शन निहित है और वह चिंतन करने को विवश करती है कि मानव को अपने शेष जीवन को विशेष बनाना चाहिए; व सार्थक एवं परार्थ काम करने चाहिएं। सार्थक कर्म से तात्पर्य यह है कि आप जो भी कार्य करें, उससे न तो अन्य की हानि न हो; न ही उसकी भावनाएं आहत हों और उसका आत्म-सम्मान भी सुरक्षित रहे। वास्तव में दोनों स्थितियाँ उस व्यक्ति के लिए घातक हैं–जिसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। सो! मानव को सदैव लफ़्ज़ों को चखकर बोलना चाहिए, क्योंकि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और मानव को उन शब्दों का प्रयोग तभी करना चाहिए; जब वे आपके लिए उचित व उपयोगी हों; वरना मौन रहना ही बेहतर है–गुलज़ार की यह सोच अत्यंत कारग़र है।
शब्द ब्रह्म है, अनश्वर है तथा उसका प्रभाव स्थायीयी है। आप द्वारा कहे गए शब्द किसी के जीवन में ज़हर घोल सकते हैं, बड़े-बड़े महायुद्धों का कारण बन सकते हैं और सहानुभूति के दो शब्द उसके जीवन की दिशा परिवर्तित कर सकते हैं। इतना ही नहीं, वे सागर के अथाह जल में डूबती-उतराती नैया को पार लगा सकते हैं; निराश मन में आशा की किरण जगा सकते हैं और उसे ऊर्जस्वित करने की दिव्य शक्ति भी रखते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों के शब्दों के जादुई प्रभाव से कौन अवगत नहीं है। वे असंभव को संभव बनाने का सामर्थ्य रखते थे। दूसरी ओर दुर्वासा, विश्वामित्र, परशुराम, गौतम ऋषि आदि के क्रोध भरे शब्द सृष्टि में तहलक़ा मचा देते थे, जिसका उदाहरण शापग्रस्त अहिल्या का वर्षों तक शिला रूप में अवस्थित रहना; परशुराम का अपनी माता का सिर तक काट डालना और दुर्वासा व विश्वामित्र ऋषि के क्रोध से सृष्टि का कंपित हो जाना सर्वविदित है।
सो! मानव को सदैव मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए, जिसे सुनकर हृदय उल्लसित, आंदोलित व ऊर्जस्वित हो जाए और वह असंभव को संभव बनाने का साहस जुटा सके। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है मेरे ‘परिदृश्य चिंतन के’ आलेख–संग्रह का प्रथम आलेख ‘तुम कर सकते हो’ के असंख्य उदाहरणऐ हमारे समक्ष हैं। मानव में असीमित शक्तियों का भंडार है, जिनसे वह अवगत नहीं है। परंतु जब उसे अंतर्मन में संचित शक्तियों का एहसास दिलाया जाता है, तो वह पर्वतों का सीना भेद कर सड़क का निर्माण कर सकता है; उनसे टकरा सकता है तथा नेपोलियन की भांति आपदाओं को अवसर बना सकता है। इतना ही नहीं, वह आइंस्टीन की भांति सोचने लगता है कि ‘यदि लोग आपकी सहायता करने से इंकार करते हैं, तो निराश मत हो, बल्कि उन लोगों के शुक्रगुज़ार रहो, जिन्होंने आपकी सहायता से इंकार किया है और उनके कारण ही आप उनआप असंभव कार्यों को अंजाम दे सकेसके हैं, जो अकल्पनीय थेहैं।’
सो! जीवन में आत्मविश्वास के सहारे जीओ, यही तुम्हारी प्रेरणा है और यही है जीवन में शेष को विशेष बनाना। सृष्टि के हर उपादान से प्रेरित होकर निरंतर कर्मशील रहना, क्योंकि समय कभी थमता नहीं; निरंतर चलता रहता है और सृष्टि में समय व नियमानुसार परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिए मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि ‘सब दिन ना होत समान अर्थात् ‘जो आया है अवश्य जाएगा।” प्रत्येक स्थिति व परिस्थिति सदा रहने वाली नहीं है। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए और जो बदला जा सके, बदलिए; जो बदला ना जा सके, स्वीकारिए और जो स्वीकारा न जा सके, उससे दूर हो जाइए; लेकिन ख़ुख़ुद को खुश रखिए, क्योंकि वह आपकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। बुद्धिमान सबसे सीख लेता है; शक्तिशाली इच्छाओं पर नियंत्रण करता है; सम्मानित दूसरों का सम्मान करता है और धनवान जो उसके पास है, उसमें प्रसन्न रहता है। मानव को आत्म-संतोषी होना चाहिए। जो उसे नहीं मिला; उसका शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि उन लोगों की ओर देखना चाहिए जो उससे भी वंचित हैं।
भाग्य कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं है, उसे तो रोज़-रोज़ लिखना पड़ता है। मानव अपना भाग्य-विधाता स्वयं है। दृढ़-निश्चय व निरंतर परिश्रम करने से वह सब प्राप्त कर सकता है, जो उसे प्राप्तव्य नहीं है। मानव को भाग्यवादी व आलसी नहीं होना चाहिए, बल्कि जीवन में हर पल प्रभु का नाम स्मरण करना चाहिए। ”सुमिरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’ पंक्तियां मानव को सचेत करती हैं कि प्रभु का नाम-स्मरण ही जन्म-जन्मांतर तक साथ चलता है; शेष सब तो इस धरा का धरा पर ही धरा रह जाता है। राम नाम में असीम शक्ति होती है। इसलिए ही तो जिन पत्थरों पर राम नाम लिख कर सागर में डाला गया था, वे तैरते रहे थे और रामेश्वरम् का पुल बनकर तैयार हो गया था।
ऐसी स्थिति में मानव का परमात्मा से तादात्म्य हो जाना स्वाभाविक है और वह उसके चरणों में सर्वस्व समर्पित कर देता है। उसका अहं अर्थात् मैं का भाव, जो सर्वश्रेष्ठता का प्रतीक है, सदा के लिए विलीन हो जाता है। वह मौन को नवनिधि स्वीकार उसमें आनंद पाने लगता है। पंच-तत्वों से निर्मित मानव जीवन नश्वर है और अंत में इस शरीर को पंचतत्वों में ही विलीन हो जाना है। ‘यह किराए का मकाँ है/ जाने कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ इंसान इस तथ्य से अवगत है किउसे संसार से उसे खाली हाथ लौटना है और एक तिनका भी उसके साथ नहीं जाएगा। यह दस्तूर-ए-दुनिया है और इस संसार में दिव्य खुशी पाने का सर्वोत्तम मार्ग है– प्रभु का सिमरन करना और यही है शेष को विशेष अथवा जीते-जी मुक्ति पाने का सर्वोत्तम मार्ग, जो मानव का अभीष्ठ है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका”।)
☆ किसलय की कलम से # 71 ☆
☆ बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका ☆
बच्चों के बौद्धिक स्तर, उनकी आयु व अभिरुचि का ध्यान रखते हुए उनके सर्वांगीण विकास में देश, समाज एवं परिवार के प्रत्येक सदस्य का उत्तरदायित्व होता है। हमारे समवेत प्रयास ही बच्चों के यथोचित विकास में चार चाँद लगा सकते हैं। बाल विकास में साहित्य का जितना योगदान है उतना किसी अन्य विकल्प का नहीं है। खासतौर पर आठ सौ वर्ष से अब तक लिखी गईं बाल कविताओं एवं प्रचलित विविध पद्यात्मक अंशों के योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि आज भी इनका बच्चों के जीवन में विशेष स्थान है। जब बाल कविताओं का इतना महत्त्व है तब इनके उपयोग, स्तर, विषय के अतिरिक्त इनके प्रयोग एवं सृजन में सावधानी तथा संवेदनशीलता पर ध्यान देना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वहीं इस अहम विषय की जानकारी भी आमजन को होना बहुत जरूरी है।
इसलिए यहाँ सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि बाल कविताओं का सीधा अभिप्राय बालकों से संबंधित रचनाओं से होता है। वैश्विक स्तर पर कविताओं को मानव जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। वार्ता, मनोरंजन, हर्ष-विषाद, स्नेह-स्मृति सहित बच्चे-बूढ़ों का कविताओं से सनातन नाता रहा है। बच्चों के जन्म लेते ही माँ अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरियाँ सुनाती है। बहलाने हेतु लोकगीत अथवा पारंपरिक गीतों का सहारा लेती है। उम्र और समझ के अनुसार छोटी-छोटी पंक्तियों और सरल शब्दों वाले गीत सुना कर उन्हें बहलाती है और स्वयं भी आनंदित होती है। प्रायः देखा गया है कि 3 से 4 वर्ष तक की आयु के बच्चे छोटे-छोटे गीत और कविताओं पर ध्यान देने लगते हैं। 5 से 6 वर्ष के बच्चे तो कविताओं से संबंधित प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। लेकिन आज दुर्भाग्य यह है कि कविताएँ, गीत, पद्यात्मक लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ आदि सुनाने के लिए न तो दादा-दादी और न ही नाना-नानी मिलते, वहीं माँ-बाप को इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि वे बच्चों को बाल कविताएँ सुना सकें और उनकी जिज्ञासाओं को शांत कर सकें। उन्हें समझाने की बात तो दूर, उन्हें पारंपरिक, आधुनिक और बौद्धिक खुराक भी नहीं दे पाते।
हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि बच्चों को एकांत और नीरसता कतई पसंद नहीं होती। बच्चों को खेल-खेल में जीवनोपयोगी बातों, पद्यात्मक लोकोक्तियों, मुहावरों, मुक्तकों और पहेलियों के माध्यम से कुछ न कुछ सिखाते रहना चाहिए। शिक्षा और संस्कृति विषयक कवितायें छोटी होने के साथ-साथ बच्चों को याद होने लायक हों।शब्द व भाव उनके द्वारा भोगे गए बचपने के हों तो उन्हें रुचिकर भी लगेगा और वे उन्हें याद भी कर सकेंगे। बच्चे अक्सर उन्हें गुनगुनाते भी रहते हैं। कवितायें आनंदप्रद तो होती ही हैं वे बच्चों के विकसित हो रहे मस्तिष्क को और भी सक्रिय करती हैं, क्योंकि बच्चे बाल कविताओं को पढ़ते समय कवि की भावनाओं से जुड़कर अपने व्यक्तिगत जीवन की बातों को भूल-से जाते हैं। आशय यह है कि इस महत्त्वपूर्ण बात को ध्यान में रखकर कवि द्वारा बच्चों की उम्र व समझ के अनुरूप ही काव्य रचना करना चाहिए। बाल कविताओं की सृजन प्रक्रिया में बच्चों के परिवेश, उनकी रुचि, भाषा की सरलता, छोटी पंक्तियाँ आदि पर विशेष ध्यान देना श्रेयस्कर होता है अन्यथा बहुविषयक बोझिलता बच्चों के लिए अप्रियता का कारण बन सकती है।
कविताओं में लल्ला लल्ला लोरी, ईचक दाना बीचक दाना या फिर अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो जैसे निरर्थक शब्दों का प्रयोग भी अधिकतर बालकों की रुचि को और बढ़ा देते हैं। उम्र के पड़ाव पर पड़ाव पार होने के बावज़ूद ऐसी अनेक काव्य पंक्तियाँ या काव्यांश होंगे जो आज भी हम सबको मुखाग्र हैं। भले ही ये शब्द लय की पूर्णता हेतु प्रयोग किए जाते हैं लेकिन गीत या कविता की लोकप्रियता में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कवि द्वारा यह ध्यान देना भी जरूरी है कि सृजन में राजनीति, वैमनस्य, फरेब, हिंसा जैसे विषय समाहित न हों, क्योंकि हमारे इर्द-गिर्द के पशु-पक्षी, फल-फूल, सब्जियाँ, आकाश, सूरज-चाँद-सितारे और अपने खिलौनों के साथ हमउम्र बच्चे ही इनकी छोटी-सी दुनिया होते हैं। धर्म, राजनीति, लिंगभेद, जाति का इनकी दिनचर्या में कोई स्थान नहीं होता।
बच्चों की दिनचर्या और इनकी बारीक से बारीक गतिविधियों पर असंख्य कविताएँ लिखी गई हैं। बाल काव्य लेखन में निश्चित रूप से महाकवि ‘सूर’ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ‘तुलसी’ बाबा को बाल काव्य सृजन में दूसरा स्थान प्राप्त है। इन श्रेष्ठतम महाकवियों के बाल विषयक काव्य का विश्व में कोई सानी नहीं। बावज़ूद इसके बालोपयोगी और बच्चों की समझ में आने वाली कविताओं का आज भी टोटा है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि बाल कविताएँ लिखी ही नहीं जा रही हैं। बड़े से बड़ा कवि बाल कविताओं को अपने सृजन में अवकाश देता है।
बालोपयोगी एवं बाल मनोरंजन हेतु लिखी गई कविताओं का बहुत प्राचीन इतिहास है। 14वीं शताब्दी के प्रारंभ को ही देखें तो अमीर खुसरो लिख चुके थे-
‘एक थाल मोती से भरा
सबके ऊपर औंधा धरा’
भारतेंदु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, कामता प्रसाद गुरु, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, देवी दयाल चतुर्वेदी, आचार्य भगवत दुबे, अश्विनी पाठक, सुरेश कुशवाहा तन्मय आदि ऐसे कवि-कवयित्री हैं जिन्होंने बाल कविताओं के माध्यम से बच्चों के ज्ञानवर्धन के साथ मनोरंजन भी किया है।
आज बदलती शिक्षा प्रणाली, बदलते परिवेश व व्यस्त दिनचर्या के चलते जीवनमूल्य, मनुष्यता एवं चारित्रिक बातें समयानुकूल नहीं मानी जातीं। आज अधिकांश लोगों का मात्र एक ही उद्देश्य रहता है कि हमारी संतान विद्यालय में पैर रखते ही कक्षा में अव्वल आए और मेरिट में आते हुए पूर्ण शिक्षित हो, तदुपरांत श्रेष्ठ से श्रेष्ठ नौकरी या व्यवसाय प्राप्त कर ले।
आज की परिस्थितियों में धर्म, राजनीति, रिश्ते और परहित के पाठ जीवन जीने के लिए उतने जरूरी नहीं माने जाते जितना कि निजी वर्चस्व और समृद्धि की सुनिश्चितता होती है। यही वर्तमान जीवनशैली आज का मूल मंत्र है जो हमें अपने ही परिवार और इस समाज से मिला है। हम गहनता से चिंतन-मनन करें तो कारण स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि आज के बच्चे भारतीय संस्कृति, धर्म, परंपराओं, रिश्तों एवं व्यवहारिकता से दूर क्यों होते जा रहे हैं।
बच्चों में सद्कर्मों के अंकुरण में बाल कविताओं का स्थान कमतर नहीं है। आज बालकों को पाठ्यक्रम से इतर पढ़ने, समझने, सामाजिक जीवन जीने तथा साहित्य सृजन हेतु समय और अवसर दोनों ही नहीं मिलते। एक जमाना था जब बच्चों को साहित्य लेखन हेतु प्रोत्साहित किया जाता था उनके लेखन की गलतियों को नजरअंदाज करते हुए उनकी बौद्धिक एवं सामाजिक क्षमता को बढ़ाया जाता था। यह सृजन क्षमता उनकी बहुआयामी मौलिकता की पहचान एवं उनके यथोचित विकास में सहायक होती थी। बच्चों द्वारा किया गया सृजन एवं बचपन में कंठस्थ कविताएँ उन्हें जीवन भर याद रहती हैं, जो उन्हें समय-समय पर सद्कर्मों हेतु प्रेरित करती हैं।
साहित्य सृजन में रुचि रखने वाले बालकों को स्थानीय और देश-विदेश की नई-पुरानी, अच्छी-बुरी और धर्म-कर्म की विस्तृत जानकारी सहजरूप से ज्ञात हो जाती है जो उन्हें आम आदमी से अलग करती है। इस तरह हम देखते हैं कि बाल कविताएँ बचपन में ही नहीं उनके वयस्क और बुजुर्ग होने तक कहीं न कहीं उनकी सहायक बनती ही हैं।
हमें यह ख़ुशी है कि उन परिस्थितियों में जब मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा हो और जब लोगों का ध्यान केवल बच्चों को आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने में लगा हो, ऐसे समय में बच्चों के नैतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास हेतु कुछ लोग व संस्थायें निरंतर सक्रिय हैं।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 51 – Representing People – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सत्तर के दशक में ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्म आई थी, “नमकहराम” राजेश खन्ना,अमिताभ बच्चन,ए.के.हंगल और रेखा की.राजेश खन्ना उस वक्त के सुपर स्टार थे और अमिताभ नये उभरते सितारे.फिल्म में दो किरदार थे,दोनों बहुत गहरे मित्र,कॉलेज के सहपाठी, एक के पिता अमीर उद्योगपति और दूसरा हमारी सत्तर के दशक की फिल्मों का नायक जो आमतौर पर गरीब परिवार का ही होता था और इस फिल्म में पिता से भी वंचित.फिल्म के अंत में इस पात्र की मृत्यु हो जाती है. फिल्म आनंद के आनंद भी राजेश खन्ना ही थे जो फिल्म के क्लाइमेक्स में मरकर भी किरदार को अमर कर गये थे.अमिताभ बच्चन के अंदर छुपे भावी महानायक के पांव ,पालने में यानी इस फिल्म से ही नज़र आने लगे थे.कुछ फिल्में थियेटर से बाहर निकलने के बाद भी दिलोदिमाग से निकल नहीं पातीं.आनंद और डॉक्टर भास्कर के पात्रों ने फिल्म आनंद को अपने युग की अविस्मरणीय फिल्म बना दिया.नायक ने मृत्यु का वरण किया पर पात्र और फिल्म दोनों ही अमर हो गये.जब ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म नमकहराम बना रहे थे तो उन्होंने सुपर स्टार राजेश खन्ना को दोनों भूमिकाएं ऑफर की ,राजेश खन्ना ने “आनंद ” की सफलता से प्रभावित होकर ,गरीब युवक की भूमिका चुनी जो अंत में नियोजित दुर्घटना में काल कलवित हो जाता है.ये फिल्म भी बहुत सराही गई, अमिताभ बच्चन ने अपने उद्योगपति पुत्र के किरदार को अपने कुशल अभिनय से जीवंत कर दिया और दर्शकों की पसंद बन गये.फिल्म नमकहराम एक फिल्म नहीं आहट थी एक सुपर स्टार के उदय होने और दूसरे सुपर स्टार के जाने की.ये कहानी थी उम्मीदों के परवान चढ़ने की और अहंकार के कारण एक सुपर स्टार के शिखर से पतन की ओर बढ़ने की.नमकहराम फिल्म की कहानी का उत्तरार्द्ध एक छद्म मज़दूर नेता के हृदय परिवर्तन पर केंद्रित था.शिक्षा पूर्ण करने के बाद जब अमिताभ अपने पिता की फैक्ट्री संभालने आते हैं तो उनके उग्र स्वभाव का सामना होता है मज़दूर नेता ए.के.हंगल से जो अपने साथियों की मांगों के संदर्भ में अमिताभ को संगठन की ताकतका एहसास करा देते हैं उद्योगपति पुत्र का अहम् ये बरदाश्त नहीं कर पाता और एक कुटिल नीति के तहत राजेश खन्ना को एक उभरते हुये मज़दूर नेता के रूप में प्रत्यारोपित किया जाता है जो रहता तो मज़दूरों की बस्ती में है पर यारी निभाने के कारण बैठता है पूंजीपतियों की गोद में.जो मांगे हंगल लेकर आते हैं वो नामंजूर और फिर वही इस प्लांटेड नेता की छद्म उग्रता के कारण मान ली जाती हैं.कुछ पाना,भले ही षडयंत्र हो पर इस राजेश खन्ना के पात्र को लोकप्रिय बनाता है जो अंततः हंगल को यूनियन के चुनावों में पराजित कर देता है.ये प्रायोजित विजय,लगती तो है पर वास्तविक जीत नहीं होती क्योंकि इसका आधार ही व्यक्तिगत स्वार्थ और षडयंत्र होते हैं.पर समय के साथ जब राजेश खन्ना, मज़दूर बस्ती में रहकर उनकी जिंदगी, उनकी समस्याओं से रूबरू होते हैं तो न केवल उन्हें मजदूर नेता हंगल की निष्ठा, समर्पण और मेहनत का अहसास होता है बल्कि उनके पात्र का हृदय परिवर्तन होता है.हंगल उन्हें सच्चाई का रास्ता दिखाते हैं और ये नकली नेता,एक संवेदनशील प्रतिनिधित्व की ओर कदम दर कदम सफर तय करता है.जब अमिताभ अभिनीत पात्र का इस संवेदनशील प्रतिनिधि से सामना होता है तो आक्रोश और आहत अमिताभ, राजेश खन्ना के लिये जो शब्द प्रयुक्त करते हैं वो होता है “नमक हराम”पर हम और आप जिन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया है,अच्छी तरह समझते हैं कि निष्ठा और समर्पण क्या है और छद्म प्रतिनिधित्व क्या है.सवाल तो हमेशा यही रहता है कि चाहे वो फिल्म हो या वास्तविकता, कि ये नमक रूपी ऊर्जा और शक्ति कहां से मिलती है.इस ऊर्जा और शक्ति के स्त्रोत की उपेक्षा ही है नमक रूपी विश्वासघात.अंतहीनता ही इसकी विशेषता है क्योंकि युद्घ काल की संभावना कभी समाप्त नहीं होती.ये शायद अंत नहीं है.
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
श्वान चर्चा
विश्व में उन सभी स्थानों पर जहां मानव जाति पाई जाती है, श्वान भी साथ में ही बसते हैं। महाभारत ग्रंथ में भी युधिष्ठिर और उनके श्वान भक्ति का संदर्भ आज भी लिया जाता हैं।
महाभारत का आरंभ और अंत भी श्वान कथा से ही होता हैं।
प्रातः और सायं भ्रमण के समय यहां अमेरिका की धरती पर भी अपने मालिकों के साथ भ्रमण करते हुए पाए जाते हैं। हमारे देश में अमीरों के श्वान तो उनके सेवकों के भरोसे ही रहते हैं। कुछ सेवक तो उनके दूध में पानी मिला कर हेराफेरी करने में भी अग्रणी होते हैं, और उनको उद्यान में घुमाने के समय चैन को बेंच से बांध कर स्वयं व्हाट्स ऐप में हमारे जैसे फुरसतियों के किस्से पढ़ते रहते हैं।
यहां पर श्वान को भ्रमण के समय चैन/ रस्सी बांध कर ही ले जाना अनिवार्य हैं। यहां अधिकतर श्वानोंं की चैन पतंग की चरखी नुमा यंत्र से नियंत्रित रहती हैं। ढील देने से चैन की लंबाई बढ़ जाती हैं।
श्वानों की नई नई नस्लें देख कर आश्चर्य भी होता हैं। बस दिल में एक कसक है, यहां हमारे देश जैसे सड़कों पर घूमते हुए कारों के पीछे दौड़ते हुए श्वान नहीं दिखे, शायद देसी श्वान की नस्ल को यहां की जलवायु में जीवन असंभव होगा। हमारे देश के अमीर लोग तो ठंडे प्रदेशों के श्वान के लिए पूर्णतः वातानुकूलित व्यवस्था करवा लेते हैं। हो सकता है, यहां के अमीर भी हमारे यहां के देसी श्वान पालते हो और उनके लिए गर्म जलवायु की व्यवस्था करवा लेते हों।
श्वान को घर से बाहर घुमाने लाए हुए सभी व्यक्तियों के हाथ में प्लास्टिक की थैली देखकर प्रथम तो अजीब सा प्रतीत हुआ, बाद में देखा इसका उपयोग उसके द्वारा त्यागे हुए मल को उठाने के लिए किया जाता हैं। सफाई को बनाए रखने में ये एक महत्वपूर्ण व्यवस्था हैं। कुछ स्थानों पर मुफ्त प्लास्टिक थैली उपलब्ध भी होती हैं। हमारे देश के श्वान पालक इन सब से कब संज्ञान लेंगें?
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
आज की साधना (नवरात्र साधना)
इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।
अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।
मंगल भव। 💥
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
पुनर्पाठ 🙏🏻
☆ संजय उवाच # 158 ☆ नर में नारायण ☆
कई वर्ष पुरानी घटना है। शहर में खाद्यपदार्थों की प्रसिद्ध दुकान से कुछ पदार्थ बड़ी मात्रा में खरीदने थे। संभवत: कोई आयोजन रहा होगा। सुबह जल्दी वहाँ पहुँचा। दुकान खुलने में अभी कुछ समय बाकी था। समय बिताने की दृष्टि से टहलते हुए मैं दुकान के पिछवाड़े की ओर निकल गया। देखता हूँ कि वहाँ फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की लंबी कतार लगी हुई है। लगभग 30-40 बच्चे होंगे। कुछ समय बाद दुकान का पिछला दरवाज़ा खुला। खुद सेठ जी दरवाज़े पर खड़े थे। हर बच्चे को उन्होंने खाद्य पदार्थ का एक पैकेट देना आरंभ किया। मुश्किल से 10 मिनट में सारी प्रक्रिया हो गई। पीछे का दरवाज़ा बंद हुआ और आगे का शटर ग्राहकों के लिए खुल गया।
मालूम हुआ कि वर्षों से इस दुकान की यही परंपरा है। दुकान खोलने से पहले सुबह बने ताज़ा पदार्थों के छोटे-छोटे पैक बनाकर निर्धन बच्चों के बीच वितरित किए जाते हैं।
सेठ जी की यह साक्षात पूजा भीतर तक प्रभावित कर गई।
अथर्ववेद कहता है,
।।ॐ।। यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।
-(अथर्ववेद 10-8-1)
अर्थात जो भूत, भविष्य और सब में व्याप्त है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।
योगेश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
(श्रीमद्भगवद्गीता-6.30)
अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
वस्तुत: हरेक की श्वास में ठाकुर जी का वास है। इस वास को जिसने जान और समझ लिया, वह दुकान का सेठजी हो गया।
… नर में नारायण देखने, जानने-समझ सकने का सामर्थ्य ईश्वर हरेक को दें।…तथास्तु!
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆