☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम– भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
महाराजा दशरथ के चार पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में बचपन से ही अत्याधिक पारस्परिक प्रेम था। राम सबसे बड़े थे अत: सभी छोटे भाई उन्हें प्रेम से आदर देते थे। उनकी आज्ञा मानते थे और उनसे कुछ सीखने को तैयार रहते थे। राम भी सब छोटे भाईयों के प्रति प्रीति रखते थे और उनके हितकारी थे।
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती।
जनकपुर में धनुष यज्ञ के अवसर में गुरु की आज्ञा से राम ने शिव धनुष को चढ़ाया। धनुष टूट गया। राजा जनक के प्रण के अनुसार राम-सीता का विवाह हुआ। उसी मण्डप में चारों भाइयों का विवाह भी सपन्न हुआ। जनक जी के परिवार से सीता जी की अन्य बहिनों के साथ विवाह संपन्न हुये- लक्ष्मण-उर्मिला, भरत-माण्डवी, शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति।
शिवधनुष के टूटने पर परशुराम जी क्रोध में उपस्थित हो धनुष तोडऩे वाले को लांछित करने लगे। यह लक्ष्मण को अच्छा न लगा। लक्ष्मण जी ने परशुराम जी को शान्त रहने के लिए कड़े शब्दों में कहा-
मिले न कबहु सुभट इन गाढ़े, द्विज देवता धरहिं के बाढ़े।
लक्ष्मण को ऐसा कहने से रोकते हुये राम स्नेहवश बोले-
नाथ करिय बालक पर छोहू, सूध दूध मुख करिय न कोहू।
दोनों भाई पारस्परिक प्रेमवश एकदूसरे को परशुरामजी के क्रोध से बचाने का प्रयास करते हैं।
राजा दशरथ अपनी वृद्धाावस्था को नजदीक देख अपने गुरु, मंत्री और समस्त प्रजा की सहमति से राम का राज्याभिषेक करने का निश्चिय करते हैं। राम को जब यह ज्ञात हुआ तो वे विचार करते हैं-
जनमे एक संग सब भाई, भोजन, सयन, केलि लरिकाई।
विमल वंश यह अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि अभिषेकू।
इस विचार से राम का भ्रातृप्रेम उनके मन की उदारता के भाव प्रकट होते हैं। राज्याभिषेक के स्थान पर परिस्थितियों के उलटफेर से राम को बनवास दिया गया और भरत जो तब ननिहाल में थे को गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र बुलवाया क्योंकि भरत की माता कैकेयी के द्वारा दो वरदान पाने से राम को वन जाना पड़ा और भरत को राजगद्दी प्राप्त हुई थी। अत: उनका राज्यतिलक किया जाना था। राम के वियोग में राजा दशरथ का प्राणान्त हो गया था। उनका अंतिम संस्कार भी किया जाना था। भरत ने अयोध्या में आकर जो कुछ होते देखा उससे अत्यंत क्षुब्ध हो माता को बुरा भला कहा। पिता का अंतिम संस्कार किया। खुद को सारे अनर्थ का कारण जानकर प्रायश्चित की दृष्टि से वन में राम से मिल कर अपना मन हल्का करने का सोचा। सबने उन्हें राजपद स्वीकारने का आग्रह किया पर उन्हें राम के प्रेमवश यह सबकुछ स्वीकार नहीं था। वे सब की इच्छानुसार सबजन समुदाय और राजपरिवार तथा गुरु वशिष्ठ की अगुवाई में राम के पास जाने को चित्रकूट में जहां राम थे चलने को तैयार हुये। उधर राम को वन में छोडक़र जब मंत्रि सुमंत दुखी मन से वापस हुये तो मातृप्रेम से भरे हुये राम ने उनसे संदेश भेजा-
कहब संदेश भरत के आये, नीति न तजिब राज पद पाये।
पालेहु प्रजहिं करम मन बानी, सेएहि मातु सकल समजानी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 16
लोकसंस्कृति, सृष्टि को युग्मराग मानती है। सृष्टि, प्रकृति और पुरुष के युग्म का परिणाम है। स्त्री प्रकृति है। स्त्री एकात्मता की दूत है। मायके से ससुराल आती है, माँ से, मायके से स्वाभाविक रूप से एकात्म होती है। इसी एकात्म भाव से ससुराल से एकरूप हो जाती है। स्त्रियाँ केवल समझती नहीं अपितु माँ बनकर विस्तार करती हैं एकात्मता का। लोक में वस्तुओं के विनिमय की पद्धति का विकास महिलाओं ने बहुतायत से किया। आवश्यकता पड़ने पर पुरुषों से छिपकर ही सही, कथित निचले वर्ग या विजातीय स्त्रियों के साथ लेन-देन किया। त्योहारों में मिठाई के आदान-प्रदान में विधर्मियों के साथ व्यवहार की वर्जना को स्त्रियों ने सूखे अनाज के बल पर कुंद किया। तर्क यह कि अनाज, धरती की उपज है और धरती तो सबके लिए समान है। यह अद्वैत दृष्टि, यह एकात्मता अनन्य है।
मनुष्य विकारों से मुक्त नहीं हो सकता। स्वाभाविक है कि लोक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता लेकिन वह गाँठ नहीं बांधता। किसी कारण से किसी से द्वेष हो भी गया तो उसकी नींव पक्की होने से पहले विरोधी से होली पर गले मिल लेता है, दिवाली पर धोक देने चला जाता है। जैन दर्शन का क्षमापना पर्व भी इसी लोकसंस्कृति का एक गरिमापूर्ण अध्याय है।
लोक और प्रकृति में समरसता है, एकात्म है। लोक ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, सरीरा, पंचतत्व से बना सरीरा’ के अनुसार इन्हीं तत्वों को सृष्टि के विराट में देखता है। सूक्ष्म को विराट में देखना, आत्मा को परमात्मा का अंश मानना, एकात्मता की इससे बेहतर कोई परिभाषा हो सकती है क्या?
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 4 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
सीता जी से वाटिका में मिलने पर हनुमान जी ने माता को अपना परिचय दिया। पहले कभी देखा नहीं था, इसलिये विश्वास दिलाने को वे राम के दूत हैं उन्हें राम द्वारा परिचय के लिये दी गई रामनाम अंकित मुद्रिका प्रस्तुत की। सीता जी ने उन पर विश्वास कर उन्हें रामदूत माना और आशीष दिया।
वहीं अशोक वाटिका में रावन ने सेना सहित आकर सीता जी को डराया-धमकाया और एक माह के भीतर उसकी इच्छा की पूर्ति के लिये समय दे चला गया। सीता जी अत्यंत व्याकुल हो मन से अपने को नष्ट कर डालने के लिये अपनी चौकसी में तैनात त्रिजटा राक्षसी से अग्नि ला देने की इच्छा व्यक्त करती हैं। वह उत्तर देती हैं कि रात अधिक हो गई है, उस समय कहीं अग्नि नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर चली जाती है, परन्तु सीता को ढांढस बंधाने के लिये उसने अन्य राक्षसियां जो वहां पहरे पर तैनात थीं, को अपना सपना सुनाती हैं कि उसने स्वप्न देखा है कि रावण गधे पर बैठा हुआ दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा गया है। इस सपने से संकेत दिया है कि रावण का शीघ्र ही विनाश होगा और श्रीराम सीता जी के ले जाने के लिये शीध्र ही लंका में आयेंगे। अत: ये सीता को डरायें-धमकायें नहीं तभी उनका सबका हित होगा।
सपने वानर लंका जारी, जातुधान सेना सब मारी।
खर आरुढ़ नगन दससीसा, मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥
एहि विधि सो दक्षिण दिसि जाई, लंका मनहुं विभीषण पाई।
नगर फिरी रघुबीर दोहई, तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥
यह सपना मैं कहऊं पुकारी, होइहिं सत्य गये दिन चारी।
तासु वचन सुनि ते सब डरीं, जनकसुता के चरनन्हि परी॥
इस प्रकार के अनेक प्रसंगों का वर्णन मानस में तुलसी ने किया है। सबका विस्तार से उल्लेख करना इस लेख में कठिन इसलिये है क्योंकि उससे लेख की सीमा का विस्तार बहुत होगा। फिर भी कुछ और का नामोल्लेख नीचे किया जा रहा है। जिसे पाठक मूल मानस में पढक़र समझ सकते हैं तथा तुलसी के अभिव्यक्ति कौशल का आनंद ले सकते हैं। ऐसे अन्य प्रसंग हैं- (1) भरत और शत्रुघ्न का ननिहाल से बुलवाये जाने पर मार्ग में उन्हें अपशकुनों का अनुभव होना। (2) सीता जी की खोज में लंका जाते समय हनुमान जी को अनेकों शुभ शकुनों का होना। (3) लंका में मंदोदरी और रावन को युद्ध के समय अनेकों अशुभों का आभास या अनुभव होना। (4) लंका में विजय प्राप्त कर बनवास की समाप्ति पर राम के लौटने पर भरतजी को माताओं तथा आयोध्यावासियों को मन में शुभ भावों का उदित होना, मन का प्रफुल्लित होना, मौसम का अच्छा हो जाना। (5) शंकर जी के मन को काम के द्वारा क्षुब्ध किये जाने पर सारी प्रकृति और जन जीवन में कामभाव का प्रादुर्भाव इसी प्रकार कई अन्य प्रसंगों में तुलसी का साहित्यिक अभिव्यक्ति कौशल स्पष्ट परिलक्षित होता है।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूर। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 138 ☆
☆ सब्र और ग़ुरूर ☆
‘ज़िंदगी दो दिन की है। एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ध्यान में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण में रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है
इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हां! बीत जाती है सदियां/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है?
जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर से दूर रहने का संदेश दिया गया है।
जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो, तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि यह सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोल; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती। सो! अपने मन को शांत रखें; समय जैसा भी है– अच्छा या बुरा, गुज़र जाएगा।
विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारगर उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय, यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए, ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कहें, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है।
कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पांव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए।
भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित है।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं है।
मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है ; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है और उसे वही मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों की गर्म हवा का झोंका उसका स्पर्श नहीं कर पाता।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15
लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो, बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।
लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
वनयात्रा में ही एक अन्य सुन्दर प्रसंग आता है जहां ग्रामीण स्त्रियां नारि सुलभ उत्सुकता से सीता जी ने प्रश्न करती हैं और सीता जी ने बिना शब्दों का उपयोग किये भारतीय मर्यादा की रक्षा करते हुये उनसे पति का नाम लिये बिना नारि की स्वाभाविकता शील को रखते हुये केवल अपने सहज हावभाव से उन्हें राम और लक्ष्मण से उनका क्या संबंध है बताती हैं-
ग्राम्य नारियां पूंछती हैं-
कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आंहि तुम्हारे।
सुनि सनेहमय मंजुल वाणी, सकुची सिय मन महुँ मुसकानी॥
भई मुदित सब ग्राम वधूटी, रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।
ग्राम वघूटियों ने सीता जी को प्रसन्न हो ग्रामीण भाषा और वैसी ही उपमा में आशीष दिया-
अति सप्रेम सिय पाँय परि, बहुविधि देहिं असीस।
सदा सोहागनि होहु तुम्ह, जब लगि महि अहि सीस॥
कितना भोला और पावन व्यवहार है जो तुलसी ने संकेतों का उपयोग कर प्रस्तुत किया है।
इसी प्रकार हनुमान जी के माँ जानकी की खोज में लंका पहुंचने पर जो उनके लिये सर्वथा नयी अपरिचित जगह थी, उन्हें न तो राह बताने वाला कोई था और न सीता जी का पता ही बताने वाला था। तुलसीदास जी ने शब्द संकेतों व चित्रित चिन्हों से राम भक्त विभीषण को पाया जिसने माता सीता जी तक पहुंचने की युक्ति बताई और पता समझाया। वर्णन है-
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा
(इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धित समस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा। –
श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि- वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏
भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।
स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।
पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।
पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।
वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।
अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।
अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।
हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार।
वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’
चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी. की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।
वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-
विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है। ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
जाने एवं लौटने की 33 दिनों की यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक व्यवहार होता है।
हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।
हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।
एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’ का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।
वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।
वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।
राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।
वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं तो संत जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।
वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-
कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर
पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर
भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।
भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं। ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।
वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।
आनंद का असीम सागर है वारी..
समर्पण की अथाह चाह है वारी…
वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
जन्म से मरण तक की वारी…
मरण से जन्म तक की वारी..
जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……
वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।
विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में – महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
इसी प्रकार दूसरा प्रसंग जनकपुरी में पुष्पवाटिका का है, जहां राम-लक्ष्मण गुरु की आज्ञा से पुष्प लेने के लिए जाते हैं। वहां उसी समय सीता जी माता की आज्ञा से गौरि देवि के पूजन को जाती हैं। मंदिर उसी बाग के तालाब के किनारे है। वहां आकस्मिक रूप से राम ने सीता जी को देखा और मोहित हो गये तथा सीता जी ने सखी के कहने पर श्रीराम की एक झलक देखी। उनकी सौम्य सुन्दर मूर्ति को देखकर उन्हें उनके प्रति आकस्मिक रुचि व अनुराग पैदा हुआ। इस सांसारिक सत्य के मनोभावों को कवि ने इन पंक्तियों से भारतीय मर्यादा को रखते हुये कैसा सुन्दर चित्रित किया है? संकेतों का आनंद लीजिये। (आज का उच्छं्रखल व्यवहार जो देखा जाता है उससे तुलना करते हुये देखिये)- राम लक्ष्मण से सीता को देखकर कहते हैं-
तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहिकारण होई।
पूजन गौरि सखी लै आई, करत प्रकाश फिरई फुलवाई।
करत बतकही अनुज सन मन सियरूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छवि करइ मधुप इव पान॥
सीताजी ने भी रामजी के दर्शन सखी के द्वारा कराये जाने पर किये-
लता ओट जब सखिन लखाये स्यामल गौर किसोर सुहाये।
देखि रूप लोचन ललचाने हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥
लोचन मन रामहि उर आनी, दीन्हे पलक कपाट सयानी।
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी, कहि न सकहि कछु मन सकुचानी॥
केहरि कटि पटपीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥
देखन मिस मृग विहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छवि बाढ़इ प्रीति न थोरि।
सीता मंदिर में पूजा करके गौरी माता से मन में ही प्रार्थना करती हैं-
मोर मनोरथ जानहु जीके। बसहु सदा उरपुर सबही के।
कीन्हेऊ प्रकट न कारण तेहीं। अस कह चरण गहे बैदेही॥
देवि ने प्रार्थना स्वीकार की-
विनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरत मुसुकानी।
सादर सिय प्रसाद सिर धरऊ। बोली गौरि हरषु हिय भरऊ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजहि मनकामना तुम्हारी।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाय कहि।
मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे॥
बिना किसी वार्तालाप के मौन ही मन के भाव बड़ी शालीनता से कवि ने दोनों श्रीराम और सीताजी के व्यक्त करते हुये शुभ-शकुनों के संकेतों से मधुर प्रेमभावों को प्रकट किया है।
☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
हीरे की कीमत उसकी तराश की उत्कृष्टता और उससे निकलने वाली प्रकाश किरणों की प्रखरता पर होती है। उसी प्रकार साहित्य की महत्ता उसके माधुर्य, हृदय ग्राहिता, अभिव्यक्ति के सौंदर्य और उसकी उपयोगिता पर निर्भर करती है। गद्य हो या पद्य रचनाकार का एक दृष्टिकोण होता है और उसकी कथन या प्रस्तुतिकरण की शैली। एक ही कथानक को प्रस्तुत करने का हर कवि या लेखक का अपना आसान तरीका होता है जो दूसरों से भिन्न होता है। पाठक उस कथनशैली से समझ सकता है कि वह किसकी रचना है। इसीलिये अंग्रेजी में कहावत है ‘स्टाइल इज मैन’ (Style is man) महाकवि महात्मा तुलसीदास ने मानस की रचना अनेकों छंदों का उपयोग करते हुये किया है परन्तु प्रमुख्यत: कथन चौपाई, दोहे और सोरठों में है। यह तो हुई रचना के कलेवर की बात, परन्तु उनकी रचना के प्रस्तुतिकरण में या कथनशैली में एक अनुपम कौशल दिखाई देता है। किसी पात्र के मनोभाव को पाठक पर प्रकट करने के लिये या प्रसंग को नया मोड़ देकर आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी कथन प्रणाली को सुन्दर तथा आकर्षक रूप दिया है जो अन्य कवियों की रचनाओं में नहीं दिखता। इनसे उनकी अभिव्यक्ति सरस, सफल और आकर्षक ही नहीं हुई है वरन पाठक के मन को भी एक अलौकिक आनन्दानुभूति देती है। उन्होंने पात्रों के मुँह से सीधे अप्रिय या असमंजस्यपूर्ण कथन नहीं कराया है। बात को कहने या आगे बढ़ाने को या दुविधा की स्थिति टालने का अथवा सामाजिक मर्यादा के निर्वाह के लिये जो झीने झिलमिले परदे का उपयोग किया है वह बड़ा सार्थक, सटीक और मोहक प्रतीत होता है। इससे रचना को समझने में पाठक को जो स्वकल्पना करने का अवकाश मिलता है वह बड़ा रस घोलने वाला मिसरी सा मीठा प्रतीत होता है। वास्तव में समाज में अवगुण्ठन का बड़ा मनोवैज्ञानिक आकर्षण और मधुरता है। इसलिये घरों के दरवाजों, खिड़कियों पर हम चमकीले परदे लगाते हैं। किसी सौंदर्य के उभारने में और उत्सुकता बढ़ाने में अवगुण्ठन का क्या महत्व है यह कहे जाने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इसलिये विभिन्न स्थानों पर आकाशवाणी, सपने, शगुन-अपशगुन, प्राकृतिक घटनाओं, पशु-पक्षिओं की बोली-वाणी, किसी अन्य पात्र के मन की उत्सुकताओं के द्वारा कथाप्रसंग के मार्मिक भावों को स्पष्ट करते या उन्हें सघनता प्रदान करते हुये अपना अभिप्राय प्रकट किया है। इस कौशल में उन्हें महारत हासिल है जो कम ही सुयोग्य साहित्यकारों को देवी सरस्वती के प्रसाद स्वरूप प्राप्त होती है। ऐसे अनेक प्रसंग प्राय: मानस के हर काण्ड में मिलते हैं। ऐसे कुछ महत्वपूर्ण स्पष्ट प्रसंगों की झलक निम्न अवसरों पर देखिये-
पति-पत्नी हिमवंत और मैना के घर में पार्वती के जन्म लेने पर जब नारद जी पधारे तो उन्होंने पुत्री के भाग्य के विषय में कुछ बताने के लिये मुनिवर से प्रार्थना की। नारद जी ने कन्या के भाग्य के संबंध में कहा-
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी, सुनहु जे अब अवगुन दुइचारी।
अगुन अनाम मातु-पितु हीना, उदासीन सब संसय छीना।
जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल वेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख।
ऐसे तो एक शंकर जी ही हैं अत: यदि कन्या तपस्या करे और यदि वे प्रसन्न हो तो लडक़ी को वे पति रूप में मिल सकते हैं। यह सुन माता-पिता को भारी असमंजस हुई। प्रिय बेटी को जंगल में जाकर तपस्या करने को कौन कहे? तव माँ ने दुखी मन से अपनी बेटी को हृदय से लगा लिया। बेटी ने माता को अपने मन का भाव स्पष्ट समझाने के लिये बताया-
सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावहुं तोहि
सुन्दर गौर सुविप्रवर अस उपदेसेउ मोहि।
करहि जाइ तपु सैल कुमारी, नारद कहा सो सत्य विचारी।
मातु-पितहि पुनि यह मत भावा, तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।
इस प्रकार पार्वती से न माता, न पिता या किसी अन्य ने उन्हें वन में जाकर तपस्या सरीखे कठिन कार्य को संपन्न करने के लिये कहा, वरन स्वप्न के संकेत के द्वारा जटिल समस्या को पार्वती ने स्वत: ही माता से बयान कर सब समस्या सुलझा दी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14
शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।
लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।
त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆