हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #115 – बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है बच्चों के लिए एक ज्ञानवर्धक आलेख – “हैलो की आत्मकथा ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 115 ☆

बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆ 

आप ने मेरा नाम सुना है. अकसर बोलते भी हो. जब आप के पास टैलीफोन आता है. तब आप यही शब्द सब से पहले बोलते हो. मगर, आप ने सोचा है कि आप यह शब्द क्यों बोलते हो? नहीं ना?

चलो ! मैं आप को बताती हूं. इस के शुरुवात की एक रोचक यात्रा. मैं यह कहानी आप को बताती हूँ. आप इसे ध्यान से सुनना. यह मेरी आत्मकथा भी है. 

हैलो ! इस नाम को हरेक की जबान पर चढ़ाने का श्रेय अलेक्जेंडर ग्राहम बैल को जाता है. हां, आप ने ठीक सुना और समझा. ये वही महान आविष्कारक ग्राहम बैल हैं, जिन्हों ने टैलीफोन का आविष्कार किया था.

हैलो ! चौंकिए मत. मेरा नाम हैलो ही है. मैं एक जीती जागती लड़की थी. मेरा पूरा नाम था मारग्रेट हैलो. ग्राहम बैल मुझ से बहुत प्यार करते थे. मैं उन की सब से प्यारी दोस्त थी. वे प्यार से मुझे हैलो कह कर पुकारते थे.

वे भी मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. इस वजह से हम अपनी बातें आपस में साझा किया करते थे. वे अपनी सब बातें मुझे बातते थे. मैं भी अपनी सब बातें उन्हें बताती थी. जैसा अकसर दोस्तों के बीच होता है, वैसा हमारे बीच बातों का आदानप्रदान होता रहता था.

यह उन दिनों बात की है जब वे टैलीफोन का आविष्कार कर रहे थे. तब वे उस फोन का परिक्षण मुझे फोन कर के करते थे. इस के लिए उन्हों ने एक फोन का एक चोंगा मुझे दे रखा था. दूसरा चोंगा उन के पास रखा हुआ था.

उस में उन्हों ने कई सुधार किए. इस के बाद वे मुझे फोन करते.  सुनते-देखते सुधार के बाद कुछ अच्छा हुआ है. इस के लिए वे अक्सर फोन लगाते थे. तब वे सब से पहला शब्द में मेरे नाम बोलते थे- हैलो !

ऐसा उन्हों ने अनेकों बार किया. इस बात को उन के मित्र भी जानते थे. परिक्षण के दौरान भी उन्हों ने सब से पहला शब्द हैलो ही बोला था. तब से यह शब्द टैलीफोन करने- वालों के लिए एक संबोधन बन गया. जब भी कोई किसी को टैलीफोन करता या किसी का टैलीफोन उठाता सब से पहला यही शब्द बोलता था.

इस से यह शब्द टैलीफोन के लिए चल निकला.

यह शब्द ग्राहम बैल की देन है. इन्हों ने टैलीफोन सहित अनेक आविष्कार किए है. इन के अविष्कार ने ग्राहम बैल को अमर बना दिया हैं. मगर आप यह जान कर हैरान हो जाएगे कि आज तक उन का नाम इतनी बार नहीं बोला गया होगा जितनी बार मेरा नाम- हैलो बोला गया है. हमेशा बोला जाता रहेगा.

वे टैलीफोन के आविष्कारक और मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. उन्हों ने मेरा नाम अमर कर दिया. मुझे उन की दोस्ती पर नाज है. ऐसा दोस्त सभी को मिले. यह आशा करती हूँ. चुंकि ग्राहम बैल ने सब से पहले मुझे ही टैलीफोन किया था. इस हिसाब से टैलीफोन की सब से पहली स्रोता मैं ही बनी थी. इस तरह दो प्रसिद्धि मेरे साथ जुड़ गई है. जिस ने मुझे सदा के लिए अमर बना दिया.

आशा है आप को मेरी यह आत्मकथा अच्छी लगी होगी.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 108 ☆ अमरकंटक का भिक्षुक – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “अमरकंटक का भिक्षुक”। )

☆ संस्मरण # 108 – अमरकंटक का भिक्षुक – 1  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

साँवला रंग, पांच फीट के लगभग ऊंचाई, दुबली पतली काया, आखों में बहुत थोड़ी रोशनी और उमर इकहत्तर वर्ष, ऐसे एक जूनूनी व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ मार्च 2020 के प्रथम सप्ताह में। वे भोपाल एक कार्य से आए थे और हमें फोन कर बोले कि ‘डाक्टर एच एम शारदा ने आपसे मिलने को बोला था, कब और कहाँ मुलाक़ात हो सकती है।’ मैं तब शासकीय मिडिल स्कूल खाईखेडा में स्मार्ट क्लास को बच्चों को समर्पित करने के कार्यक्रम  में व्यस्त था सो शाम को पांच बजे का समय मुलाक़ात हेतु नियत हुआ। वे समय से पहले ही आ गए और प्रतीक्षारत बाहर खड़े थे। प्रेम से मिले और अपने भोपाल आने की व्यथा-कहानी सुनाते रहे। बीच-बीच में बैगा आदिवासियों की भी चर्चा करते, अपने अमरकंटक में आ बसने की कहानी सुनाते, गरीबों के बारे में अपनी प्रेम और करुणा व्यक्त करते रहे। मैं तो दिन भर का थका हारा था सो चुपचाप सुनता रहा। जब जाने लगे तो मुझे आमंत्रित किया कि पोंडकी आश्रम जरूर आएँ ऐसी ‘दादा’ शारदा की भी इच्छा है। उनकी सरलता, विनम्रता  और महानता का एहसास तब  हुआ, जब जाते जाते उन्होंने हाथ जोड़े और अचानक मेरे चरणों की ओर झुक गए। मैं अचकचा गया, और गले लगाकर कहा कि ‘दादा आप उम्र में बड़े हैं ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’ उन्होंने उतनी ही विनम्रता से उत्तर दिया ‘आप बच्चों के लिए काम करते हैं, ‘दादा’ शारदा ने आपकी बहुत तारीफ़ की थी, मेरी बैगा बच्चियों के लिए भी आप अमरकंटक आइये।’

उनके आमंत्रण को अस्वीकार करना मुश्किल था, पर कोरोना संक्रमण ने बाधित कर दिया और फिर मुहूर्त आया जब  डाक्टर एच एम शारदा ने बताया कि ‘पोंडकी आश्रम’ में एक हाल के निर्माण हेतु भूमि पूजन समारोह 31 अक्टूबर को होना है, शामिल होने जा सकते हैं क्या ?’ मैं तो अवसर की तलाश में ही था, फ़ौरन हाँ कर दी और 29 अक्टूबर 2020 को अमरकंटक एक्सप्रेस में बैठकर 30 अक्टूबर के सुबह सबेरे पेंड्रा रोड स्टेशन उतर गया। आश्रम से जीप आई थी लेने और जब मैं पांच बजे सुबह पहुंचा तो वे कृशकाय बुजुर्ग बाट जोहते बैठे थे, प्रेम से मिले और दिन भर के प्रोग्राम के बारे में बताया, दस बजे नाश्ता करने के बाद फर्रीसेमर गाँव चलेंगे, तब तक आप आराम कीजिए, कहकर चले गए। 

नींद तो आखों से गायब थी और जैसे ही सूर्योदय हुआ, मैं अतिथि गृह से बाहर निकल कर आश्रम में चहल कदमी करने लगा। दूर एक निर्माणाधीन बरामदे में वे दिख गए, मिस्त्रियों द्वारा किये गए  काम का मुआयना कर रहे थे। मैं उनके पास पहुँच गया, फिर क्या था, उन्होंने पूरा आश्रम घुमाया। स्कूल के पांच कमरे और एक प्राचार्य कक्ष उन्होंने, भारत सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय, दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना व जनसहयोग से, थोड़ी थोड़ी राशि एकत्रित कर बनवाये हैं। दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना  के एक महाप्रबंधक ने आर्थिक सहयोग का आश्वासन दिया था, लेकिन अचानक उनका स्थानान्तरण हो गया तो नीचे फर्श का काम अटक गया। इसी काम को ठेकेदार ने पूरा करने का आश्वासन इस शर्त के साथ दे दिया कि ‘जब रुपया आ जाये तो दे देना’ और उन्होंने ने भी ईश्वर के भरोसे हाँ कह दी। आश्रम में भारतीय जीवन बीमा निगम और दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना के सहयोग से दो भवन बनाए गए हैं जिनमे एक सौ छात्राएं निवास करती हैं। मदनलाल शारदा फैमली फ़ाउंडेशन ने, छात्रावास की निवासिनी छात्राओं के लिए दस पलंग व दो अति आधुनिक शौचालय बनवाकर आश्रम को दिए हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि फ़ाउंडेशन के कर्ता-धर्ता डाक्टर शारदा उनसे आजतक प्रत्यक्ष नहीं मिले हैं, केवल फोन पर चर्चा हुई है, और सहयोग कर रहे हैं। जयपुर के एक जैन परिवार ने अपनी माता स्वर्णा देवी की स्मृति में चिकित्सालय हेतु भवन बनवाकर दिया है और होम्योपैथिक व एलोपैथिक दवाइयों के मासिक खर्च की प्रतिपूर्ति किशनगढ़, राजस्थान के श्री डी कुमार द्वारा की जाती हैं। भारतीय स्टेट बैंक अमरकंटक व पूर्व सांसद मेघराज जैन ने एक-एक एम्बुलेंस दान दी है, जिसका प्रयोग पैसठ ग्रामों में निवासरत विलुप्तप्राय बैगा जनजाति के आदिवासियों को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने में होता है। स्कूल के सामने स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा एक मंदिर में स्थापित है और समीप ही छात्राओं के भोजन हेतु हाल व रसोईघर है। कुछ निर्माण कार्य चल रहे हैं, श्री फुन्देलाल सिंह द्वारा प्रदत्त विधायक निधि (75%) व जनसहयोग (25%) से एक हाल निर्माणाधीन है, जिसका उपयोग व्यवसायिक गतिविधियों के प्रशिक्षण हेतु होगा और यहाँ हथकरघा, सिलाई-कढाई आदि की मशीनें  स्थापित की जाएँगी ताकि आदिवासियों को  स्वरोजगार उपलब्ध हो सके। पांच गायों की गौशाला है, फलोद्यान है, साग-सब्जी का बगीचा है, जिसके उत्पाद छात्राओं के हेतु हैं। यह सब कुछ जनसहयोग  से हुआ है। और इसको मूर्तरूप दिया है पांच फुट के दुबले-पतले डाक्टर प्रबीर सरकार ने जो 1995 में जेब में 1040/- रुपया लेकर यहाँ आये थे और ‘माई की बगिया’ में एक झोपडी में रहकर आदिवासियों की सेवा करने लगे। इसीलिये स्वामी विवेकानंद के इस भक्त को मैंने ‘अमरकंटक का भिक्षुक’ कहा है। वे जब चर्चा करते हैं तो स्वामीजी के अमृत वचन भी सुनाते रहते हैं, आप भी आत्मविभोर होकर पढ़िए :

“नाम, जश, ख्याति, प्रतिपत्ति, पद, धन, सम्पत्ति, सबकुछ केवल कुछ दिन के लिए है। वह व्यक्ति सच्चा जीवन बिताता है जो दूसरे के लिए अपना जीवन समर्पण करता है।”

पुनश्च :- मैं तीन दिन पौंडकी में रुका, तीन गाँव और उनके तीन मोहल्ले देखे, सेवा कार्य किया, आश्रम के आयोजनों में भाग लिया, डाक्टर साहब, उनके वालिटियर्स, प्रणाम नर्मदा युवा संघ के युवाओं से व ग्रामीणों से चर्चा की। यह अनुभव विलक्षण ही है ऐसा मेरा मानना है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मातृ दिवस विशेष – ओ माँ, प्यारी माँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ मातृ दिवस विशेष – ओ माँ, प्यारी माँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(नभछोर में आज सायं /एक साल पहले)

जन्म होते ही जिसे सबसे पहले बच्चा देखता है वह उसकी माँ होती है , प्यारी प्यारी माँ । पिता तो सूचना मिलने पर बाद में प्रवेश करता है उसके जीवन में । सबसे बड़ी सुरक्षा माँ की गोदी में महसूस करता है । पिता को भी कई बार इंकार कर देता है । माँ ही पहली शिक्षिका ।

मुझे अपना बचपन याद है । स्कूल के लिए तख्ती चमका कर देती थी । स्कूल से लौटने पर हिंदी की खूबसूरत लिखावट बनाती थी । इसलिए स्कूल काॅलेज तक मेरी लिखावट की प्रशंसा होती रही । दैनिक ट्रिब्यून में एक बार यूनियन की कोई सूचना टाइप न हो पाई तो मेरे पास आए कि लिख दो ।आपकी लिखावट टाइप से ज्यादा अच्छी है तो माँ बहुत याद आई । पिता नहीं रहे छोटी उम्र में । मैं ही भाई बहनों में सबसे बड़ा । माँ हर मुसीबत में कहती हऊ फेर यानी कोई चिंता की बात नहीं । यह हऊ फेर मेरे जीवन का मंत्र है । सब समस्या इस हऊ फेर से हल हो जाती है ।

शिवाजी मराठा की माँ जीजाबाई ने क्या कम रोल निभाया उनके जीवन में ? जीजाबाई जैसी माँ सबको नसीब नहीं होती और सब बच्चे शिवाजी मराठा नहीं बनते ।

आज माँ दिवस है । हम इसे अंग्रेजी स्टाइल में मदर्स डे कह कर मनाते हैं । सब विदेशी स्टाइल । वेलेनटाइन डे । वसंत पंचमी नहीं मनाते उतनी धूमधाम से । क्रिसमस पर खुश । नववर्ष पर खुश । विक्रम संवत भूल जाते हैं । माँ हमारी हिंदी भाषा और हम अंग्रेजी माँ के गुणगान करते नहीं थकते । भाषाएं जितनी सीख लें कोई बात नहीं पर मौसी के लिए माँ को भूल जाओ । यह तो बड़ी चिंता कि बात हुई न । हिंदी भाषी का मजाक उड़ाओ और अंग्रेजी भाषा वाले को गले लगाओ । यह तो बहुत चिंता की बात ।

आज माँ दिवस पर माँ को याद कीजिए । माँ ने क्या क्या सिखाया, उसका शुक्रिया कीजिए । माँ सिर्फ खुशी में खुश होती है । बदले में कोई गिफ्ट नहीं माँगती। बस । गद्गद् हो जाती है मानो उसकी तपस्या पूरी हो गयी हो ।

मुझे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से कथा संग्रह एक संवाददाता की डायरी पर सम्मान पुरस्कार मिला तो पहुंचा नवांशहर अपने घर । माँ की खुशी का कोई पारावार नहीं था । पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटने गयी ।

कुछ नहीं माँगा अपना लिए । माँ देती ही देती है । कभी बदले में कुछ माँगती नहीं । सबकी माँएं ऐसी ही ममतामयी होती हैं । पर हम लौटाना भूल जाते हैं । प्लीज । माँ दिवस को सिर्फ मनाने की बात न कीजिए । माँ को सम्मान दीजिए । माँ हमारे लिए सबसे पहले भाग कर दरवाजा खोलती है जबकि हम वृद्धावस्था में उसके लिए दरवाजे बंद कर देते हैं और मोक्षाश्रम छोड़ आते हैं । माँ का ऋण कब उतारोगे भाई ?

माँ हुदी ए माँ
ओ दुनिया वालेयो…

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “रिएलिटी शोज : कितने रियल ?।)

☆ आलेख ☆ रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मनोरंजन के साधन में जब से इडियट बॉक्स( टीवी) ने बड़े पर्दे ( सिनेमा) को पछाड़ कर प्रथम स्थान प्राप्त किया, तो उसमें रियलिटी शोज का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्षों चलने वाले सीरियल्स जब ज्यादा ही सीरियस / स्टीरियो टाइप होने लगे तो दर्शकों ने रिएलिटी शोज को सरताज़ बना डाला हैं। वैसे अंग्रेजी की एक कहावत है कि “majority is always of fools”.

विगत एक दशक से अधिक समय से तो संगीत, नृत्य और विविध प्रकार के रियलिटी शोज का तो मानो सैलाब सा आ गया हैं।

अधिकतर भाग लेने वाले बच्चे गरीब घरों से होते हैं, या उनकी गरीबी और पिछड़ेपन से दर्शकों की भावनाओ के साथ खिलवाड़ किया जाता है। कोई अपने घर की एक मात्र आजीविका गाय पशु को बेच कर मायानगरी में आकर सितारा  बनना चाहता है, तो कोई ऑटो चालक का बच्चा ऑटो की बलि देकर मुंबई आता है। क्या माध्यम या उच्च वर्ग के बच्चे इन कार्यक्रमों में कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकते हैं?

कार्यक्रम के प्रायोजक/ चैनल विजेता बनने के लिए अपनी शर्तें और नियम का हवाला देकर आपको जीवन भर या लंबे समय के लिए “बंधुआ मज़दूर” बनने के लिए मजबूर कर देते हैं।                             

अब लेखनी को विराम देता हूं, क्योंकि मेरे सब से चहेते कार्यक्रम का फाइनल जी नही फिनाले का समय हो गया है। टीवी पर रिमाइंडर आ गया है, इसलिए मिलते है, अगले भाग में।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 137 ☆ मायोपिआ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 137 ☆ मायोपिआ ?

दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ।  अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।

 विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।

 दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले,  मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।

 मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं,  निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-

 वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं। काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #131 ☆ मनन व आनंद ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मनन व आनंद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 131 ☆

☆ मनन व आनंद

‘मन का धर्म है मनन करना; मनन से ही उसे आनंद प्राप्त होता है और मनन में बाधा होने से उसे पीड़ा होती है’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह उक्ति विचारणीय है, चिंतनीय है, मननीय है। मन का स्वभाव है– सोच-समझ कर, शांत भाव से कार्य करना व ऊहापोह की स्थिति से ऊपर उठना। दूसरे शब्दों में हम इसे एकाग्रता की संज्ञा दे सकते हैं। चित की एकाग्रता आनंद-प्रदायिका है। उस स्थिति में मन अलौकिक आनंद की दशा में पहुंच जाता है तथा स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। यदि इस स्थिति में कोई विक्षेप होता है, तो उसे अत्यंत पीड़ा होती है और वह उस लौकिक जगत् में लौट आता है।

ग्लैडस्टन के मतानुसार ‘बहुत ही तथा बड़ी ग़लतियाँ किए बिना मनुष्य बड़ा व महान् नहीं बन सकता’– उक्त तथ्य को उद्घाटित करता है कि इंसान जीवन भर सीखता है तथा जो जितनी अधिक ग़लतियाँ करता है; उतना ही महान् बन जाता है। वास्तव में वही व्यक्ति सीख सकता है, जिसमें अहं भाव न हो; जो ज़मीन से जुड़ा हो; जिसके अंतर्मन में विद्या, विनय, विवेक व विनम्रता भाव संचित हों। वह सकारात्मक सोच का धनी हो और उसके हृदय में दया, माया, ममता, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता आदि दैवीय भावों का आग़ार हो। ऐसा व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकारने में तनिक भी संकोच व लज्जा का अनुभव नहीं करता, बल्कि भविष्य में उसे न दोहराने का संकल्प भी लेता है। सो! ऐसा व्यक्ति महान् बन सकता है।

‘दातापन, मीठी बोली, धैर्य व उचित का ज्ञान– यह चारों स्वाभाविक गुण हैं, जो अभ्यास से नहीं मिलते।’ चाणक्य की यह उक्ति मानव को आभास दिलाती है कि कुछ गुण प्रभु-प्रदत्त होते हैं तथा वे प्रतिभा के अंतर्गत आते हैं। लाख प्रयास करने पर भी व्यक्ति उन्हें अर्जित नहीं कर सकता। वे उसे पूर्वजन्म के कृत-कर्मों के एवज़ में प्राप्त होते हैं। कुछ गुण उसे पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं, जिसके लिए उसे परिश्रम नहीं करना पड़ता तथा वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ के संदर्भ में कबीरदास जी का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि निरंतर अभ्यास द्वारा मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसके द्वारा हम ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हैं, परंतु उससे स्वभाव में परिवर्तन आना संभव नहीं है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण मानव को मन-तुरंग को वश में करने की सीख देते हैं, क्योंकि मन बहुत चंचल है। वह पल भर में तीनों लोकों की यात्रा कर लौट आता है। सो! एकाग्रता व ध्यान के लिए मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। जैसे-जैसे हमारा चित एकाग्र होता जाता है, हमारी भौतिक इच्छाओं, आकांक्षाओं, तमन्नाओं व वासनाओं पर अंकुश लग जाता है और हम अनहद नाद की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। हमें शून्य में केवल घंटों की अलौकिक ध्वनि सुनाई पड़ती है। हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है; हम उससे बेखबर रहते हैं। वास्तव में यही मानव का अंतिम लक्ष्य है। मानव लख चौरासी के बंधनोंसे मुक्ति पाना चाहता है और कैवल्य- प्राप्ति ही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यह प्रवृत्ति मानव में चिन्तन-मनन से जाग्रत होती है। इस स्थिति में हमारा अंतर्मन अपरिग्रह की प्रवृत्ति में विश्वास करने लगता है और गुरू नानक की भांति तेरा-तेरा में विश्वास करने लगता है। परिणामत: हृदय में करुणा व विनम्रता जैसे दैवीय भाव संचित हो जाते हैं और वाणी-माधुर्य स्वयंमेव प्रकट होने लगता है; औचित्य- अनौचित्य का ज्ञान हो जाता है, जो हमें दूसरों से वैशिष्टय प्रदान करता है। उस स्थिति में हम मित्रता व शत्रुता के भाव से ऊपर उठ जाते हैं और केवल सत्कर्म करने लगते हैं।

भरोसा उस पर करो, जो तुम्हारी तीन बातें समझ सके–मुस्कुराहट के पीछे का दर्द, गुस्से के पीछे का प्यार व चुप रहने के पीछे की वजह। इनके माध्यम से मानव को हर इंसान पर भरोसा न करने की सीख दी जाती है, क्योंकि सच्चा साथी आपके हृदय की पीड़ा, करुणा व वेदना को अनुभव करता है तथा आपकी मुस्कुराहट के पीछे के दर्द को समझ जाता है। यदि आप उस पर क्रोधित भी होते हैं, तो वह उसमें निहित प्रेम की भावना को समझ जाता है, क्योंकि वह उस तथ्य से बखूबी अवगत होता है कि आप जो भी करेंगे; उसके हित में ही करेंगे तथा कभी भी उसका बुरा नहीं चाहेंगे। इतना ही नहीं, यदि आप किसी कारणवश मौन हो जाते हैं, तो वह उसकी वजह जानना चाहता है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी वह आपसे कभी दूरी नहीं बनाता, बल्कि चिंतन-मनन करता है तथा सच्चाई को जानने का प्रयास करता है। वास्तव में यही जीवन का सार व जीने का अंदाज़ है। मानव को कभी भी तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए तथा अकारण क्रोधित होना भी कारग़र नहीं है। उसे सदैव शांत भाव से कारण जानने का प्रयास  करना चाहिए, ताकि समस्या का निदान संभव हो सके। सो! मानव को निर्णय लेने से पूर्व समस्या के दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि चिंतन-मनन करने से जीवन में ठहराव आता है और वह उपहास का पात्र नहीं बनता। उसके कदम कभी भी ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं होते। दूसरे शब्दों में यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें मैं और तुम व अपने-पराये का भाव समाप्त हो जाता है तथा ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की भावना प्रबल हो जाती है और सारा संसार उसे अपना कुटुंब नज़र आने लगता है। इसलिए हृदय में चिंतन-मनन की प्रवृत्ति को संपोषित व संग्रहीत करें, ताकि चहुंओर आनंद की वर्षा हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 155 ☆ आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 155 ☆

? आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ?

“एकता में अटूट शक्ति है” ग्रीक कथाकार एशॉप द्वारा प्राचीन युग के दौरान इस वाक्यांश को सर्वप्रथम उपयोग किया गया था। कथाकार ने इसका अपनी कथा “द ऑक्सन एंड द लायन” में प्रत्यक्ष रूप से और “द बंडल ऑफ स्टिक्स” में अप्रत्यक्ष रूप से इसका उल्लेख किया था।

ईसाई धार्मिक पुस्तक में भी ऐसे ही शब्द शामिल हैं जिनमें प्रमुख हैं “अगर एक घर को विभाजित कर दिया जाता है तो वह घर दोबारा खड़ा नहीं हो सकता” इसी पुस्तक के दूसरे वाक्यांश हैं ” यीशु अपने विचारों को जानते थे और कहते थे ” हर राज्य जिसमें फूट पड़ी है वह उजड़ गया है और हर एक नगर या घर जो विभाजित है वह खुद पर निर्भर नहीं रहता।

अमेरिकन  इतिहास में यह वाक्यांश पहले क्रांतिकारी युद्ध के अपने पूर्व गीत “द लिबर्टी सॉन्ग” में जॉन डिकिन्सन द्वारा इस्तेमाल किया गया था। यह जुलाई 1768 में बोस्टन गैजेट में प्रकाशित हुआ था।

दिसंबर 1792 में  केंटकी की जनरल असेंबली ने राष्ट्रमंडल की आधिकारिक मुहर को राज्य के आदर्श वाक्य के साथ अपनाया “एकता में अटूट शक्ति है”।

1942 से वाक्यांश केंटकी की आधिकारिक गैर-लैटिन राज्य का आदर्श वाक्य बन गया ।

यह वाक्यांश मिसौरी ध्वज पर सर्कल में केंद्र के चारों ओर लिखा गया है।

यह वाक्यांश ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान भारत में लोकप्रिय हुआ। इसका उपयोग लोगों को एक साथ लाने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए किया गया था।

अल्टर वफादारों ने भी इस वाक्यांश का इस्तेमाल किया है। इसे कुछ वफादार उत्तरी आयरिश भित्ति चित्रों में देखा जा सकता है।

वाक्यांश “एकता में अटूट शक्ति है” का उपयोग विभिन्न कलाकारों द्वारा कई गानों में भी किया गया है।

एकता का मतलब संघ या एकजुटता से है।  एकजुट रहने वाले लोगों का समूह हमेशा एक व्यक्ति की तुलना में अधिक सफलता प्राप्त करता है। यही कारण है कि लगभग हर क्षेत्र जैसे कार्यालय, सैन्य बलों, खेल आदि में समूह बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी हम परिवार में एक साथ रहते हैं जिससे हमें अपने दुखों को सहन करने और हमारी खुशी मनाने के अवसर मिलते हैं। कार्यालय में  वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए टीम बनाई जाती हैं। इसी तरह खेल और सैन्य बलों में भी समूह बनाए जाते हैं और कुछ हासिल करने के लिए सामूहिक रणनीतियों का निर्माण होता है।

पुराने दिनों में मनुष्य अकेला रहता था। वह खुद लम्बा सफ़र तय करके शिकार करता था  फिर मनुष्य ने यह महसूस किया कि अगर वह अन्य शिकारियों के साथ हाथ मिला लेता है तो वह कई आम खतरों और चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा। इस तरीके से गांवों का निर्माण हुआ जो बाद में कस्बों, शहरों और देशों में विकसित हुए। एकता हर जगह आवश्यक है क्योंकि यह एक अस्वीकार्य प्रणाली को बदलने के लिए इच्छा और शक्ति को मजबूत करती है।

एकता मानवता का सबसे बडा गुण है। जो एक टीम या लोगों के समूह द्वारा हासिल किया जा सकता है वह कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं प्राप्त कर सकता है। असली ताकत एकजुट होने में निहित है। जिस देश का नागरिक एकजुट है तो वह देश मजबूत है। जिस परिवार के सदस्य एक साथ रहते हैं तो वह परिवार भी मजबूत है। कई उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि एकता में अटूट शक्ति है।

संगीत या नृत्य मंडली में भी यदि समूह एकजुट है, सद्भाव में काम करते हैं और सुर-ताल बनाए रखते हैं तो परिणाम आशावादी होंगे वहीं अगर हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा दिखाने शुरू करता है तो परिणाम अराजक और विनाशकारी हो सकते हैं। एकता हमें अनुशासित होना सिखाती है। यह हमारे लिए विनम्र, विचारशील, सद्भाव और शांति में एक साथ रहने के लिए सबक है। एकता हमें चीजों की मांग और परिणाम प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास और शक्ति देती है। यहां तक ​​कि कारखानों आदि में भी मजदूरों को यदि उनके मालिकों द्वारा प्रताड़ित या दबाया जाता हैं तो वे समूह के रूप में यूनियन बनाकर काम करते हैं। जो लोग अकेले काम करते हैं उन्हें आसानी से हराया जा सकता है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए आत्मविश्वास से काम नहीं कर सकते लेकिन अगर वे समूहों में काम करते हैं तो नतीज़े चमत्कारी हो सकते हैं।

 इस प्रकार हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकता बहुत महत्वपूर्ण है।सबसे बड़ा उदाहरण हमारे राष्ट्र की स्वतंत्रता है। महात्मा गांधी ने विभिन्न जाति और धर्म से संबंधित सभी नागरिकों को एकजुट किया और अहिंसा आंदोलन शुरू किया। दुनिया जानती है यह उनकी इच्छा और महान शहीद स्वतंत्रता सेनानियों तथा नागरिकों की एकता के कारण ही हो सका जो अंततः भारत की स्वतंत्रता के रूप में सबके सामने आया। आज इसी एकता की पुनः प्रतिस्थापना आवश्यक है , धर्म , जाति , क्षेत्र , निजी स्वार्थ की राजनीति को परे रखकर देश के व्यापक हित में एकता ही अखंडता को बनाए रख सकती है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पड़ोस और विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है आलेख – “पड़ोस और विवाह।)

☆ आलेख ☆ पड़ोस और विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे विचार से ये दोनों पर्यावाची हैं।विवाह जैसे पवित्र बंधन के लिए भी कहा जाता है,  जिसका हुआ वो भी पछताए और जिसका नहीं हुआ वो भी पछताए। वैसा ही हमारा पड़ोस जिनके पड़ोसी है, वो भी परेशान रहते हैं और जिनके पड़ोस में अभी प्लॉट खाली है, वो भी परेशान ही रहते हैं। सीमेंट और पेंट बनाने वाली कंपनियां भी अपने विज्ञापनों के माध्यम से पड़ोसी स्पर्धा का चित्रण करने में माहिर होते हैं। आखिर उनको भी तो अपनी रोज़ी रोटी चलानी हैं।                       

ये पड़ोसी, सभी देशों के साथ भी होते ही हैं। हमारे देश के भी बहुत सारे पड़ोसी देश हैं, जहां तक संबंध की बात है, अधिकतर देशों से कभी नरम और कभी गर्म ही रहते है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे घर के पड़ोसियों से रहते हैं। हमारे देश के दो पड़ोसी तो शत्रु देश भी कहलाते हैं। स्वतंत्र होने के समय अलग हुए पाकिस्तान में विगत कुछ दिनों से राजनैतिक विवाद भी चल रहा हैं। हमारा मीडिया भी दुनिया और देश की सब बातें भूल कर पाकिस्तान पर ही लगातार रात दिन चर्चा करते हुए थक भी नहीं रहा।

पाकिस्तान में रामलाल या श्यामलाल कोई भी प्रधानमंत्री बने, हम साधारण जीवन जीने वाले व्यक्ति का क्या वास्ता हैं? लेकिन नहीं मीडिया तो आप को इतिहास के गड़े मुर्दे और भविष्य के हसीन सपने परोसने में एड़ी चोटी एक कर देता हैं। इसी बहाने कुछ रिटायर्ड फौजी अधिकारी और विदेश सेवा में कार्य कर चुकी हस्तियों के विचारों से भी अवगत हो जाते हैं।

इसी को भेड़ चाल भी कहते हैं, सभी चैनल सब कुछ भूल कर सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान के भूतकाल और भविष्य की कहानियां बुन रहे हैं। ऐसा लग रहा है की पड़ोसी के यहां आग लगी हुई है और हम उस पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 136 ☆ आँखवाला ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 136 ☆ आँखवाला ?

लगभग डेढ़ दशक पहले की घटना है। उन दिनों केबल पर नये आरम्भ हुए एक समाचार चैनल के लिए सलाहकार संपादक की भूमिका का निर्वहन कर रहा था। दिन भर में तीन या शायद चार बार समाचार दिखाये जाते थे। चैनल प्रायोगिक चरण में था। तकनीकी सुविधाएँ भी न के बराबर थीं। चैनल का कैमरामैन इस प्रभाग विशेष की कुछ घटनाओं के विजुअल्स ले आता। शेष समाचारों के लिए स्टिल्स का आधार लेते। समाचार-वाचिका से हिन्दी का सही उच्चारण करवा पाना भी चुनौती थी। अलबत्ता असुविधाओं पर विश्वास और परिश्रम भारी पड़ रहे थे और गाड़ी चल रही थी।

एक दोपहर चैनल की गाड़ी से कार्यालय जाने के लिए निकला। कार्यालय का अधिकांश रास्ता राष्ट्रीय महामार्ग से होकर गुज़रता था। उन दिनों महामार्ग का चौड़ीकरण चल रहा था। सैकड़ों वर्ष पुराने बरगदों का संहार हो चुका था। मल्टीलेन होने चली सड़क डामर की गर्मी से 120 फीट के चौड़े पाट में मानो पिघल रही थी। अलग-अलग एजेंसियाँ अलग-अलग काम कर रही थीं। सड़क के दोनों ओर निर्माण सामग्री के ढेर पड़े थे।

इन सबके बीच ट्रैफिक का आलम नौ दिन चले अढ़ाई कोस था‌। हमारी गाड़ी तो ऐसी फँसी थी कि नौ दिन में नौ मीटर आगे खिसकने की संभावनाओं पर भी पहरा लगा हुआ था।

गाड़ी के थमे पहियों के बीच आँखें द्रुत गति से दृश्य का अवलोकन करने में जुट गईं। जहाँ तक देख पाता था, थमी गाड़ियों की कतारें थीं। गाड़ियों का ठहराव याने कदमों का बहाव याने पैदल चलने वालों के लिए सड़क पार करने का यह स्वर्णिम अवसर होता है। अब सड़क पर बेतहाशा भीड़ थी और हर कोई ट्रैफिक के ठहराव में जल्दी से जल्दी सड़क पार कर लेना चाहता था। विचार उठा कि ऐसी व्याकुलता यदि मनुष्य भवसागर पार करने में रखे, तदनुसार कर्म करे तो संसार क्या से क्या हो जाय !

देखता हूँ कि जहाँ हमारे गाड़ी रुकी पड़ी थी, उससे लगभग सौ मीटर दूर सड़क के दाहिने ओर एक दृष्टि दिव्यांग युगल खड़ा है। संभवत: सड़क पार कर दूसरी ओर जाना चाहता है। सोचा कि इस अफरातफरी में जब आँख वालों के लिए सड़क पार करना कठिन हो, इस जोड़े के लिए टेढ़ी खीर नहीं बल्कि लगभग सभी असंभव ही है।

तथापि मनुष्य का सोचा कब होता है, विधाता जब चाहे, सब होता है। दाहिनी ओर गली से निकल कर एक स्कूल वैन सड़क किनारे आकर रुकी। छठी या सातवीं में पढ़ने वाला एक बच्चा अपना बस्ता हाथ में थामे वैन से उतरा। उसने उस युगल को निहारा, अपने बस्ते को दोनों कंधों पर टांका। सीधे युगल के बीच पहुँचा, दोनों का एक-एक हाथ थामा और निकल पड़ा भीड़ में सड़क पार कराने। वासुदेव ने टोकरी में लिटाकर ज्यों कन्हैया को सुरक्षित रूप से यमुना पार कराई थी, कुछ वैसे ही यह बालक इस युगल को सड़क पार करा दूसरी ओर ले आया। आश्चर्य का चरम अभी शेष था। युगल को सड़क पार करा बालक पीछे घूमा और सड़क पार कर फिर दूसरी और आ गया। चित्र एकदम स्पष्ट था, बच्चा दाहिनी ओर ही रहता था। केवल युगल को पार करने के लिए बाईं ओर गया था। विडंबना थी कि आँख के कैमरे ने जो कुछ कैप्चर कर किया था, उसे चैनल पर दिखाने के लिए कोई डिजी कैमरा उस समय हमारे पास नहीं था। थोड़ा सा ट्रैफिक खुला, हमारी गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। मेरे मस्तिष्क में सांझ बुलेटिन का मुख्य समाचार इलेस्ट्रेशन और शीर्षक के साथ तैयार था। शीर्षक था, ‘आँख वाला।’

इस संस्मरण को साझा करने का संदर्भ भी स्पष्ट कर दूँ। वस्तुत: समाज में जो दिखता है, जो घटता है उसे दिखाने का माध्यम भर है ‘संजय उवाच।’ दृश्य देखने के बाद व्यक्ति या समाज, उस बालक की तरह क्रिया कर सके तो अत्युत्तम। चिंतन से वाया चेतना, क्रियाशीलता ही उवाच का लक्ष्य है।

विशेष उल्लेखनीय यह कि साप्ताहिक ‘संजय उवाच’ का यह शतकीय आलेख है। इस स्तम्भ के सौ आलेख पूरे होना नतमस्तक उपलब्धि है। इस उपलब्धि को ‘ई-अभिव्यक्ति’, ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’, ‘दैनिक चेतना” के आदरणीय संपादकगण, प्रकाशन से जुड़ी पूरी टीम और अपने पाठकों के साथ साझा करते हुए हृदय से प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ। आप सबका साथ, आप सबकी प्रतिक्रियाएँ, उवाच के लेखन में उत्प्रेरक का काम करती हैं। विनम्रता से विश्वास दिलाता हूँ, जब तक प्रेरणा बनी रहेगी, लेखनी चलती रहेगी।…अस्तु!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #130 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 130 ☆

☆ वक्त और उलझनें

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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