हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 43 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 43 ??

कैलाश-मानसरोवर-

पावन कैलाश पर्वत एवं मानसरोवर तिब्बत में स्थित हैं। जून से सितम्बर तक चलने वाली इस परिक्रमा में लगभग दो माह का समय लगता है। यह यात्रा दो मार्गों, उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रा और सिक्किम के नाथु-ला दर्रा के मार्ग से की जा सकती है। इस क्षेत्र में मीठे पानी की विश्व में सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित मानसरोवर झील है। प्रकृति का अद्भुत संतुलन यह कि खारे पानी वाला राक्षस ताल भी इसी क्षेत्र में है।

कैलाश पर्वत, महादेव का निवासस्थान है। यहाँ आँखों दिखते अनेक चमत्कार हैं। इसके दोनों ओर के पर्वत एकदम कोरे और मध्य में स्थित पूर्णत: हिमाच्छादित दिव्य कैलाश! उपलब्ध रेकॉर्ड के अनुसार इस पर्वत पर आजतक कोई चढ़ नहीं पाया। विज्ञान इस क्षेत्र को अति  रेडियोएक्टिव मानता है। इस रेडिएशन के कारण मनुष्य का यहाँ ठहर पाना संभव नहीं होता। 

कैलाश पर्वत की चार दिशाओं से चार नदियाँ ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलुज, करनाली का उद्गम है। इस आलेख के लेखक को कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म का लेखन और निर्देशन करने का सौभाग्य मिला है।

पशुपतिनाथ-

पशुपतिनाथ मंदिर, नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित है। इसे ईसा पूर्व तीसरी सदी का माना जाता है। तेरहवीं सदी में इसका पुनर्निर्माण हुआ था। केदारनाथ जी में  जैसे महिष के पृष्ठभाग के रूप में महादेव पूजे जाते हैं, वैसे ही महिष के मुखरूप में यहाँ भगवान का विग्रह है।  एकात्म परंपरा ऐसी कि यहाँ मुख्य पुजारी दक्षिण भारत से होते हैं। यद्यपि चीन समर्थक वामपंथी शासकों के आने के बाद कुछ समय पहले यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – जीवन का टी-20 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – आलेख – जीवन का टी-20 ??

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। काल की गेंदबाजी पर कर्म के बल्ले से साँसों द्वारा खेला जा रहा क्रिकेट। अंपायर की भूमिका में समय सन्नद्ध है। दुर्घटना, अवसाद, निराशा, आत्महत्या फील्डिंग कर रहे हैं। मारकेश अपनी वक्र दृष्टि लिए विकेटकीपर की भूमिका में खड़ा है। बोल्ड, कैच, रन-आऊट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू…., ज़रा-सी गलती हुई कि मर्त्यलोक का एक और विकेट गया। अकेला जीव सब तरफ से घिरा हुआ है जीवन के संग्राम में।

महाभारत में उतरना हरेक के बस में नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के फेर में अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह समय तय करेगा। तुम रन बटोरो, खतरे उठाओ, रिस्क लो, रन-रेट नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि मैच जीतो ही पर अंतिम गेंद तक जीत के जज़्बे से खेलते रहने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, ‘स्ट्रैटिजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, विकेटकीपर और क्षेत्ररक्षक तो तैयार हैं ही।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 103 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (14)  गतांक से आगे

रामायण पाण्डे कथा भी बाँच लेते और थोड़ी बहुत जानकारी ज्योतिष की भी रखते थे। गाँव के लोग अक्सर गुमे हुये गाय बैल व चोरी गई चीजों का पता लगाने पांडेजी के पास आते और कार्य सिद्ध हो जाने पर अपने खेत से उपजी भाटा-भाजी, कुम्हड़ा, लौकी, तरोई  आदि  उन्हे दक्षिणा में दे जाते। बरसात आती तो किसान मंदिर में रामायण को घेर बैठ जाते और बरखा कब होगी या नक्षत्रों की स्थिति पूंछते । रामायण अपना पंचांग निकालते और गणना कर बताते कि

“बरस लगेंगी ऊतरा, माँड पियेंगे कूतरा।“  (ऊतरा नक्षत्र लगते ही वर्षा शुरू हो गई है इसलिए  बाकी नक्षत्रों में भी पानी खूब बरसेगा)

जब चित्रा नक्षत्र लग जाता और बारिश होने लगती तो रामायण किसानों को सलाह देते

“चित्रा बरसें तीन भये, गोऊँ सक्कर माँस। चित्रा बरसें तीन गये, कोदों तिली कपास॥“

(चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने वाला है इसलिए गेहूँ और गन्ना की फसल अच्छी होगी पर कोदों तिली व कपास मत बोना इसकी फसल खराब होगी।)

कभी कभी तो रामायण दो तीन महीने पहले ही अकाल की भविष्यवाणी कर देते। जब किसान घबरा कर कारण पूंछते तो कहते कि

“पंचमी कातिक सुकल की , जो होबैं सनिवार। तौ दुकाल भारी परें ,मचिहै हाहाकार॥ “

(इस बार कार्तिक शुक्ल पंचमी को शनिवार का दिन पड़ने वाला है इसलिए भारी अकाल पड़ेगा पहले से व्यवस्था रखो )

कभी कभी औरतें भी मंदिर आती और पंडिताइन के पास बैठ जाती गप्पें करती और अपना भविष्य जानने के लिए धीरे से उकसाती। औरतों को बस दो ही चिंता होती एक अगली संतान मौड़ा होगा  की मौड़ी और दूसरी पिछले साल जन्मा मौड़ा जिंदा रहेगा कि नहीं।

ऐसी ही सास बहू की जोड़ी को रामायण ने एक दिन मंदिर की ओर आते देखा। ‘दोनों पेट से थी’ , रामायण समझ गए कि कैसा प्रश्न सामने आने वाला है। उन्होने पंडिताइन से कहा

‘भागवान तुमाए जजमान आ रय हें, लाओ हमाइ पोथी पत्रा दे देओ’।

सास बहू ने आते ही पहले पंडिताइन को पायें लागी कहा और फिर ओट से पंडित जी को। ‘सूखी रहा का’ आशीर्वाद से दोनों को संतोष न हुआ और दोनों एक साथ अपने बढ़े हुये पेट पर हाथ का इशारा कर पूंछ बैठी ‘ का हुईहे महराज।‘ 

रामायण चुप रहे तो सास बोल पड़ी जा बहू तो चार चार मौडियन की मतारी हो गई है हमाओ कुल कैसे चलहे महराज ।‘

रामायण उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे बोल उठे

‘सास बहू की एकई सोर, लच्छों कड़ गई पांखा फोर।‘ (जहाँ सास बहू का प्रसव एक साथ होता है, वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती और पांखा(दीवार) फोड़कर भी  निकल जाती है, परिवार गरीब हो जाता है।)

सास को रामायण का यह व्यंग्य समझ में न आया, बहू से बोली पंडितजी को दंडवत करो और मौड़ा पैदा हो ऐसा आशीर्वाद माँगो।

अब रामायण से रहा न गया मन ही मन सोचा कि कैसी सास है बहू पेट से है और उसे दंडवत प्रणाम करने को कह रही है। खैर बिना विलंब किए उन्होने पुत्र होने की आशीष दी पर सास को इंगित कर यह कहावत भी जड़ दी

‘सावन घोरी भादों गाय, माघ मास जो भैंस ब्याय। जेठे बहू आषाढ़ें सास, तौ घर हू है बाराबाट॥‘

(जिस घर में सावन में घोड़ी, भादों में गाय व माघ मास में भैंस बियाती है और जेठ में बहू तथाआषाढ़ में सास का प्रसव होता है तो ऐसा घर बुरी तरह विनष्ट हो जाता है।) 

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 42 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 42 ??

तिरुपति बालाजी-

यह सुप्रसिद्ध देवस्थान आंध्र प्रदेश के चित्तूर जनपद में है। तिरुपति बालाजी का मंदिर सप्तगिरि पर्वतमाला पर है। प्रतिदिन लगभग एक लाख श्रद्धालु यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। तिरुपति बालाजी भगवान विष्णु का विग्रह है। बालाजी के वक्ष पर लक्ष्मी जी का निवास माना जाता है। इस मान्यता के चलते विग्रह को प्रतिदिन अधोभाग में धोती एवं उर्ध्वभाग में साड़ी से सज्जित करने की परंपरा है।

शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की अवधारणा को यह मंदिर विस्तार देता है। सृष्टि के दोनों पूरक तत्वों का एक विग्रह में एकाकार होना वैदिक एकात्म दर्शन का आँखों दिखता प्रत्यक्ष उद्घोष है।

सबरीमला-

केरल की पतनमथिट्टा पहाड़ियों में सबरीमला मंदिर स्थित है। यहाँ अयप्पन स्वामी के विग्रह की पूजा होती है। अयप्पन, शिव और मोहिनी की संतान माने जाते हैं। मोहिनी, विष्णु का स्त्री रूप है। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख लोग यहाँ दर्शन करने आते हैं। मकरसंक्रांति को यहाँ पर्वतमाला में एक दिव्य ज्योति दिखाई देती है।

मंदिर के मार्ग में मुस्लिम सेनापति वावर की समाधि है। वावर , अयप्पन का परम अनुयायी था। भक्त समाधि के दर्शन कर आगे बढ़ते हैं। जिज्ञासुओं के लिए एकात्म की शाब्दिकता का यह साकार रूप है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 152 ☆ आलेख – पाठक मंच – देश में अपने तरह की अभिन्न योजना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  पाठक मंच देश में अपने तरह की अभिन्न योजना

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 152 ☆

? आलेख  – पाठक मंच देश में अपने तरह की अभिन्न योजना  ?

साहित्य अकादमी की पाठक मंच योजना देश में अपने तरह से अभिन्न है. हमें इसके साथ जुड़े होने और पुस्तक संस्कृति के विस्तार में किंचित योगदान का जो अवसर पाठक मंच के माध्यम से मिल रहा है, उस पर मुझे गर्व है. पाठक मंच प्रदेश के प्रत्येक अंचल में साहित्य अकादमी की प्रतिनिधि इकाई के रूप में,एक सृजनात्मक संस्था के रूप में  सक्रिय हैं.  समकालीन चर्चित व महत्वपूर्ण किताबो पर प्रदेश के  पाठको तथा  लेखको को वैचारिक अभिव्यक्ति का सुअवसर पाठक मंच के माध्यम से सुलभ है. मण्डला में और अब जबलपुर में पाठक मंच से जुड़े अपने अनुभवो के आधार पर मै पाठक मंचो को लेकर कुछ बिन्दु आपके माध्यम से साक्षात्कार के पाठको से बांटना चाहता हूं

१ प्रकाशको से पुस्तक प्राप्ति में विलंब

अनेक किताबें प्रकाशक अप्रत्याशित विलंब से भेजते हैं, जिससे निर्धारित माह में  गोष्ठी संपन्न नही हो पाती.

२ पठनीयता का अभाव

अनेक पाठक पुस्तक तो पढ़ने हेतु ले लेते हैं, पर जब उनसे निर्धारित अवधि में किताब वापस मांगी जाती है, तो वे उसे पूरा न पढ़ पाने की बात कहते हैं, समीक्षा लिखित रूप में प्राप्त कर पाना अत्यधिक दुष्कर कार्य होता है. यद्यपि नये पाठक, छात्र व कुछ समर्पित साहित्यिक अभिरुचि के लोग इसमें पूरा सहयोग भी करते हैं.

३ स्थानीय गुटबंदी

साहित्य समाज में स्थानीय गुटबंदी एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का विषय है, प्रायः इसके चलते पाठक मंच गोष्ठी भी इससे प्रभावित होती है, इससे बचने के लिये पाठक मंच संयोजक को उदारमना व गुटनिरपेक्ष रहकर अपनी भूमिका स्वयं निर्धारित करनी होती है. मैने इससे बचने के लिये हर गोष्ठी एक अलग स्थान पर,जैसे पुस्तकालयो में, शालाओ व महाविद्यालयो में, क्लबो में,  अलग अलग लोगो के बीच करने की नीति अपनाई इस तरह के संयुक्त आयोजनो  के सुपरिणाम भी परिलक्षित हुये, किंतु “मैं सबका पर मेरा कौन ?” वाला अनुभव अवांछनीय भी रहा.

४ गोष्ठी रपट का प्रकाशन एवं गोष्ठी में महत्व

साक्षात्कार में गोष्ठी रपट का प्रकाशन बहुत लंबे समय के बाद हो पाता है, स्थानीय अखबारो में गोष्ठी रपट का प्रकाशन केंद्र संयोजक के स्वयं के कौशल पर ही निर्भर है. अनेक पाठक गोष्ठी में इसलिये भी हिस्सेदारी करते हैं कि प्रतिसाद में वे मीडिया में स्वयं को देखना चाहते हैं. साथ ही वे चाहते हैं कि साक्षात्कार व साहित्य अकादमी के प्रकाशनो, व अन्य आयोजनो से महत्वपूर्ण तरीके से जुड़ सकें. मैं पाठको की इस भावना की पूर्ति हेतु गोष्ठी को दो चरणो में रखने का यत्न करता हूं, पहले चरण में पाठक मंच की पुस्तक पर समीक्षा तथा द्वितीय चरण में काव्य पाठ या स्थानीय किताब पर चर्चा के आयोजन से व्यापक जुड़ाव लोगो में देखने को मिलता है.

५ पाठक मंच को एक सृजनात्मक स्थानीय संस्था के रूप में स्थापित करना

केंद्र संयोजक अपनी व्यक्तिगत सक्रियता से पाठक मंच को एक सृजनात्मक स्थानीय संस्था के रूप में स्थापित कर सकता है, जो निर्धारित किताबो पर चर्चा के सिवाय भी विभिन्न रचनात्मक साहित्यिक गतिविधियो में अपनी भूमिका निभा सकती है.

सुझाव

० संयोजको द्वारा प्रेषित स्थानीय रचनाकारो की रचनाओ को साक्षात्कार में एक स्तंभ बनाकर प्रकाशन,

० संयोजको को अकादमी की मेलिंग लिस्ट में स्थाई रूप से जोड़कर अकादमी के विभिन्न आयोजनो की सूचना और आमंत्रण पत्र भेजना

० किताबो की प्रतियां बढ़ाना, यूं इस वर्ष से ३ प्रतियां आ रही हैं जो पर्याप्त लगती हैं

० पाठक मंच की समीक्षाओ व संयोजको की रचनाओ के संग्रह पर आधारित पुस्तक का प्रकाशन

आदि अनेक प्रयास संभव हैं, जिनसे अकादमी की  अवैतनिक प्रतिनिधि संस्था के रूप में पाठक मंच और भी क्रियाशील होंगे तथा यह योजना और सफल हो सकेगी.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 41 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 41 ??

काँवड़ यात्रा-

काँवड़ यात्रा, संख्या की दृष्टि से विश्व की सबसे बड़ी यात्रा मानी जाती है। सावन की झमाझम में विशेषकर उत्तर भारत में लाखों काँवड़िये अपने-अपने नगर से काँवड़ में गंगाजल भरने पदयात्रा पर निकलते हैं। यात्रा की विशेषता है कि इसमें काँवड़ ज़मीन पर नहीं रखी जाती। यात्रा की पद्धति के आधार पर इसे सामान्य, डाक, खड़ी या दंडी काँवड़ में विभाजित किया जाता है। दंडी काँवड़ में तो यात्री धरती पर पेट के बल दंडवत करते हुए गंगा जी से शिवधाम तक यात्रा पूरी करता है।

शिव अखंड ऊर्जा का चैतन्य स्वरूप हैं। बैद्यनाथ धाम हो, हरिद्वार हो, नीलकंठेश्वर हो, पूरेश्वर या हर शहर के हर मोहल्ले में स्थित महादेव मंदिर, काँवड़ में भरकर लाये जल से  श्रावण मास की चतुर्दशी को शिव का अभिषेक होता है।

जाति, वर्ण से परे काँवड़ियों को शिवजी के गण की दृष्टि से देखा जाता है। जहाँ देखो, वहाँ शिव के गण, जिसे देखो, वह शिव का गण.., एकात्मता को यूँ प्रत्यक्ष परिभाषित करती है वैदिक संस्कृति।

वारी यात्रा-

पंढरपुर महाराष्ट्र का आदितीर्थ है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी तीर्थयात्रा या वारी है। 260 किमी. की यह यात्रा ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी से आरंभ होती है। लाखों की संख्या में श्रद्धालु इसमें सहभागी होते हैं।

वारी में राम-कृष्ण-हरि का सामूहिक संकीर्तन होता है। राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला।

राम-कृष्ण-हरि का सुमिरन  सम्यकता एवं एकात्मता का अद्भुत भाव जगाता है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है।

वारी करनेवाला वारकरी, कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता एवं एकात्मता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 132 ☆ परिवर्तन का संवत्सर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 132 ☆ परिवर्तन का संवत्सर… ?

नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास,  हर तरफ होता है हर्ष।

भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।

प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।

कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है।  बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’  यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।

तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।

सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-

न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,

बदला तो बदला केवल संवत्सर।

परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो। शुभ गुढी पाडवा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #116 ☆ कल आज और कल – सब्जी मंडी का बाजार वाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 116 ☆

☆ ‌कल आज और कल – सब्जी मंडी का बाजार वाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

अभी अभी लगभग पांच से छः दशक बीते कल की ही तो बात है, जब हमें पूरे साल शुद्ध रूप से घर पर प्राकृतिक रूप से उगाई गई सब्जियां नानी, दादी, माँ की गृह वाटिका से खाने के लिए उपलब्ध हो जाया करती थी। जिसमें किसी भी प्रकार का कोई रासायनिक खाद या  तत्व नहीं मिलाया जाता था, हर घर के पिछवाड़े में गृहवाटिका होती थी।

जब मौसम की पहली बरसात में पानी बरसता था तो दादी, नानी तथा मां घर पर रखे।  की, कुम्हड़ा, नेनुआ, तोरइ आदि के बीज निकाल कर खुद तो बोती ही थी औरों को भी बीज बांट कर लोगों को सब्जी तथा फल फूल उगाने के लिए प्रेरित करती थी, खुद भी घर की तरकारी खाती थी और अधिक पैदावार होने पर अगल बगल बांटती थी। तब न तो मंडियां होती थी न तो बाजार वाद और उपभोक्ता वाद ही अस्तित्व में आया था। हमारे आहार-विहार, आचार-विचार का सीधा संबंध मौसम से जुड़ा हुआ करता था। हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मौसमी सब्जियां तथा फल प्रकृति ने उपलब्ध कराये, जैसे गर्मी में हरी सब्जियां जल युक्त फल  तथा जाड़े में गरम मसाले दार सब्जियां, तथा बरसात में लता वर्गीय सब्जी, फल उपलब्ध थे। हम फलों का सेवन प्राकृतिक रूप से डाल से पके अथवा बिना रसायनों के पकाएं फलों का सेवन करते थे।

हमारे पुरोधा संत महात्मा प्रकृति की गोद में पलते थे तथा उनकी जीवन पद्धति दैनिक दिनचर्या पूर्ण रूप से प्रकृति आधारित थी उनका जीवन कंदमूल फल तथा प्राकृतिक रूप से उगे जड़ी बूटियों तथा फलों द्वारा संरक्षित तथा सुरक्षित था। बीमारी की स्थिति में जड़ी बूटियों के इलाज तथा दादी अम्मा के नुस्खे आजमा कर हम ठीक हो जाते थे। पौराणिक अध्ययन चिंतन तथा मान्यताओं के अनुसार यह सर्व विदित तथ्य है। महर्षि चरक से सुश्रुत  और च्यवन तक जो भी आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र लिखे गये उनके मूल में प्राकृतिक चिकित्सा ही समाहित थी। आज भी हमारे जीवन में आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति का महत्त्व पूर्व वत बना हुआ है आज जब दुनिया हमारी संस्कृति तथा सांस्कृतिक पद्धतियों की दीवानी है तब हम अपने सांस्कृतिक विरासत को संभालने की बजाय उसे गंवाते जा रहे हैं।

अब हम विज्ञापन तथा प्रचार के मोहपाश में ऐसे फंसे हैं कि अपनी मिट्टी जिसमें हम लोट पोट कर पले बढ़े। अब उसे भी हानिकारक बता कर अपने नव जातकों को उनके शरीर की कोमल त्वचा पर रासायनिक लेप कर रहे हैं। आज आर्थिक उदारीकरण वैश्वीकरण बाजार वाद  हमारे गृह उद्योगों तथा कला संस्कृति को चौपट कर हमें हर पल आधुनिक होने के लिए उकसा रहा है। पहले हम अपना हाथ राख और मिट्टी से साफ करते थे और अब लाइफब्वाय डेटाल के चक्कर में अपनी ही मिट्टी की उपेक्षा कर रहे हैं। तथा हम अपने ही बाल बच्चों के आत्महंता बन आधुनिक होने का जश्न मना रहे हैं। यह आने वाले समय के लिए सुखद संकेत नहीं है।

आज बेतहाशा आबादी में वृद्धि ने खपत के सापेक्ष उत्पादन के लिए लोभ लाभ के चक्कर में अन्नदाता को बाजार की तरफ रूख करने के लिए बाध्य किया है। आज हमने भोजन से लेकर दवाइयों के लिए भी पाश्चात्य पूंजी वादी शक्तियों के अधीन खुद को कर दिया है। जिसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा। हमारी सांस्कृतिक विरासत  हमारा  सनातन हिंदू धर्म दर्शन सोडष संस्कारों तथा आदर्श कर्मकांड आधारित था लेकिन हम आधुनिक बनने तथा दिखने के चक्कर में उसे तिलांजलि दे बैठे हैं।

यद्यपि हम अपना बहुमूल्य संस्कार आधारित जीवन छोड़ कर आधुनिकता के मोहपाश में बंध चुके हैं और एक अंधी सुरंग में चलते चले जा रहे हैं, जहां न तो संकल्प है न कोई विकल्प, उस मोह पंजाल से बाहर आने का। हम जितना ही इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का प्रयास कर रहे हैं उतना ही उलझते जा रहे हैं।

और अब तो आपने  भोजन के नाम पर समुंद्री शैवाल से लेकर फफूंद जनित मशरूम तक को भी पौष्टिक तत्व से युक्त बता लोगों को खिलाने पर आमादा है। भविष्य में हो सकता है हमें अपना पेट भरने के लिए अप्राकृतिक संसाधनों तथा कृत्रिम आहार विहार रसायन युक्त पदार्थों पर निर्भर होना पड़े।

( इस आलेख में उल्लेखित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श ??

(सर्वाधिकार, लेखक के अधीन हैं।)

भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी है। यही कारण है कि जन्म, परण और मरण तीनों के साथ उत्सव जुड़ा है। इस उत्सवप्रियता का एक चित्र इस लेखक की एक कविता की पंक्तियों में देखिए-

पुराने पत्तों पर नयी ओस उतरती है,
अतीत की छाया में वर्तमान पलता है,
सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,
अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।

नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।

भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। हमारी आँचलिक रीतियों में कालगणना के लिए लगभग तीस प्रकार के अलग-अलग कैलेंडर या पंचांग प्रयोग किए जाते रहे हैं। इन सभी की मान्यताओं का पालन किया जाता तो प्रतिमाह कम से कम दो नववर्ष अवश्य आते। इस कठिनाई से बचने के लिए स्वाधीनता के बाद भारत सरकार ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को मानक पंचांग के रूप में मानता दी। इस कैलेंडर के अनुसार 1 जनवरी को नववर्ष होता है। भारत सरकार ने सरकारी कामकाज के लिए देशभर में शक संवत चैत्र प्रतिपदा से इस कैलेंडर को लागू किया पर तिथि एवं पक्ष के अनुसार मनाये जाने वाले भारतीय तीज-त्योहारों की गणना में यह कैलेंडर असमर्थ था। फलत: लोक संस्कृति में पारंपरिक पंचांगों का महत्व बना रहा। भारतीय पंचांग ने पूरे वर्ष को 12 महीनों में बाँटा है। ये महीने हैं, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ एवं फाल्गुन। चंद्रमा की कला के आरोह- अवरोह के अनुसार प्रत्येक माह को दो पक्षों में बाँटा गया है। चंद्रकला के आरोह के 15 दिन शुक्लपक्ष एवं अवरोह के 15 दिन कृष्णपक्ष कहलाते हैं। प्रथमा या प्रतिपदा से आरंभ होकर कुल 15 तिथियाँ चलती हैं। शुक्लपक्ष का उत्कर्ष पूर्णिमा पर होता है। कृष्ण पक्ष का अवसान अमावस्या से होता है। देश के बड़े भूभाग पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।

महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढीपाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।

प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढीपाडवा।

कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। मान्यता वही कि ब्रह्मदेव ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया था। आम की पत्तियों एवं रंगोली से घर सजाए जाते हैं। ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु का पूजन होता है। वर्ष भर का पंचांग जानने के लिए मंदिरों में जाने की प्रथा है। इसे ‘पंचांग श्रवणं’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। ‘कोडिवस्त्रम्’ अर्थात नये वस्त्र धारण कर नागरिक किसी मंदिर या धर्मस्थल में दर्शन के लिए जाते हैं। इसे ‘विशुकणी’ कहा जाता है। इसी दिन अन्यान्य प्रकार के धार्मिक कर्मकांड भी संपन्न किये जाते हैं। यह प्रक्रिया ‘विशुकैनीतम’ कहलाती है। ‘विशुवेला’ याने प्रभु की आराधना में मध्यान्ह एवं सायंकाल बिताकर विशु विराम लेता है।

असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर किये जाने वाले ‘मुकोली बिहू’ नृत्य के कारण यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।

संकीर्ण धार्मिकता से ऊपर उठकर अनन्य प्रकृति के साथ चलने वाली भारतीय संस्कृति का मानव समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है। इस व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भिन्न धार्मिक संस्कृति के बावजूद बांग्लादेश में ‘पोहिला बैसाख’ को राष्ट्रीय अवकाश दिया जाता है। नेपाल में भी भारतीय नववर्ष वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को पूरी धूमधाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर मैं भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।

उष्ण राष्ट्र होने के कारण भारत में शीतल चंद्रमा को प्रधानता दी गई। यही कारण है कि भारतीय पंचांग, चंद्रमा की परिक्रमा पर आधारित है जबकि ग्रीस और बेबिलोन में कालगणना सूर्य की परिक्रमा पर आधारित है।

भारत में लोकप्रिय विक्रम संवत महाराज विक्रमादित्य के राज्याभिषेक से आरंभ हुआ था। कालगणना के अनुसार यह समय ईसा पूर्व वर्ष 57 का था। इस तिथि को सौर पंचांग के समांतर करने के लिए भारतीय वर्ष से 57 साल घटा दिये जाते हैं।

इस मान्यता और गणित के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा याने दीपावली के अगले दिन भी नववर्ष मानने की प्रथा है। गुजरात में नववर्ष इस दिन पूरे उल्लास से मनाया जाता है। सनातन परंपरा में साढ़े मुहूर्त अबूझ माने गये हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया एवं विजयादशमी। आधा मुहूर्त याने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा। इसी वजह से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को पूरे भारत में व्यापारी नववर्ष के रूप में भी मान्यता मिली। कामकाज की सुविधा की दृष्टि से आर्थिक वर्ष भले ही 1 अप्रैल से 31 मार्च तक हो, पारंपरिक व्यापारी वर्ष दीपावली से दीपावली ही माना जाता है।

भारतीय संस्कृति जहाँ भी गई, अपने पदचिह्न छोड़ आई। यही कारण है कि श्रीलंका, वेस्टइंडीज और इंडोनेशिया में भी अपने-अपने तरीके से भारतीय नववर्ष मनाया जाता है। विशेषकर इंडोनेशिया के बाली द्वीप में इसे ‘न्येपि’ नाम से मनाया जाता है। न्येपि मौन आराधना का दिन है।

मनुष्य की चेतना उत्सवों के माध्यम से प्रकट होती है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि इसकी उत्सव की परंपरा के साथ जुड़ा है गहन विमर्श। भारतीय नववर्ष भी विमर्श की इसी परंपरा का वाहक है। हमारी संस्कृति ने प्रकृति को ब्रह्म के सगुण रूप में स्वीकार किया है। इसके चलते भारतीय उत्सवों और त्यौहारों का ऋतुचक्र के साथ गहरा नाता है। चैत्र प्रतिपदा में लाल पुष्पों की सज्जा हो, पतझड़ के बाद आई नीम की नयी कोंपलें हो, बैसाखी में फसल का उत्सव हो या बिहू में चावल से बना ‘पिठ’ नामक मिष्ठान; हरेक में ऋतुचक्र का सान्निध्य है, प्रकृति का साथ है।

सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-

न राग बदला न लोभ,न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर!

परिवर्तन का संवत्सर केवल कागज़ों पर ना उतरे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो। इति।

©  संजय भारद्वाज

(सर्वाधिकार, लेखक के अधीन हैं।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 126 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 126 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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