हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 125 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 124 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आये, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #109 ☆ ‌दानेन पाणिर्नतुकंकणेन ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 109 ☆

☆ ‌आलेख – दानेन पाणिर्नतुकंकणेन ☆

 

कश्चधर्म:परालोके,‌ कश्चधर्म: सदाफल:।

किं नियम्य न शोचन्ति, कैश्चसंधिर्न जिर्यते।

अर्थात्- लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? सदा फलदाई धर्म क्या है? किसे बस में कर लेने से चिंता मुक्त रहा जा सकता है? किसकी मित्रता कभी पुरानी नहीं पडती?

आनृसंस्यंपरो धर्म:,  स्त्रयीधर्म:सदाफल:।

मनोयम्य न शोचंति, संधि:सद्भीर्नजिर्यते।।

अर्थात्- लोक में सर्वोत्तम धर्म दया है, वेदोक्त धर्म सदा फलदाई है, मन को वशीभूत रखने वाले सदा सुखी एवम् चिंता मुक्त रहते हैं। सज्जन पुरुष की मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती।

संस्कृत वांग्मय में भी यह सूक्ति है,

विभुक्षितं किं न किं न करोति  पापं।।

(महाभारत वन पर्व ३१३)

अर्थात्- भूखा प्राणी कौन सा अधम पाप नहीं करता, वह अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए चोरी के अलावा भी तमाम जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश होता है। वहीं पर विभिन्न लोक कहावतों में भी  भूख की पीड़ा ही प्रतिध्वनित होती है।

यथा – क्षुधापीर सहित सकै न जोगी। अथवा  भूखे भजन न होई गोपाला।

उपरोक्त संस्कृत सूक्ति, लोक कहावतों के निहितार्थो का स्पष्ट संकेत क्षुधाजनित पीड़ा की तरफ करते हैं, वहीं पर पौराणिक अध्ययन के दौरान जीवन में अन्न के महत्व पर प्रकाश डालती अनेक घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं। जो मानव जीवन में खाद्यान्न के महत्व को दर्शाती हैं। इस क्रम में द्रौपदी के जीवन की अक्षयपात्र कथा, सुदामा, रत्नाकर, महर्षि कणाद्  का जीवन दर्शन का पौराणिक घटना क्रम अवश्य ही पठनीय है, जो क्षुधा पूर्ति में अन्न की महत्ता दर्शाती है। इस क्रम में याद करिए भूख से बिलबिलाते, विप्र सुदामा के परिवार की कथा, तथा रत्नाकर, महर्षि कणाद् का जीवन वृत्त सारे प्रसंग भूख भोजन तथा अन्न के इर्द-गिर्द गोल गोल घूमते नजर आयेंगे।

मानव हों, पशु हों, पंछी हों, कीट पतंगे हो, हर जीव क्षुधा पूर्ति हेतु प्रयासरत दीखता है। इस क्रम में प्रकृति ने हमें दूध, दही, फल, फूल, शाकवर्गीय वनस्पतियां, प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले खाद्यान्न फसलों का उपहार दिया, लेकिन उसके बावजूद एक तरफ जहां विश्व की बहुसंख्यक आबादी  भूख तथा कुपोषण की पीड़ा जनक परिस्थितियों से दो-चार होती दीख रही है, वहीं पर अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णयों के चलते होटलों, वैवाहिक समारोहों, खुले आसमान के नीचे भंडारित सड़ते अन्न तथा पके निष्प्रयोज्य खाद्य-पदार्थ जिससे लाखों भूखों की भूख मिटाई जा सकती थी, लेकिन ऐसा होता कहां दीखता है, एक तरफ जहां आज भी गरीब वर्ग दीन हीन अवस्था में साधन सुविधा से वंचित अन्न के दाने दाने को मोहताज दीखता भूख एवम् कुपोषण से मरता दीख रहा है। वहीं पर नवधनाढ्य वर्ग अन्नो की बरबादी का जश्न महंगे होटलों तथा आयोजन के साथ मनाता है। जो कहीं न कहीं से उसके झूठी शान तथा अहं की तुष्टि का हिस्सा है।

हमारे प्रत्येक मांगलिक कार्यों तथा धार्मिक आयोजन का संबंध देवी देवताओं के आवाहन पूजन एवम् विसर्जन से जुड़ा है, हम जीवन के उन सुखद पलों ‌को यादगार बनाने के क्रम में हर आयोजन के प्रारंभ अथवा अंत में प्रीति भोजों का आयोजन करते हैं।उन आयोजन के निर्विघ्न समापन हेतु देवियों देवताओं का आवाहन पूजन करके भांति-भांति के प्रसाद फल फूल समर्पित करते हैं। लेकिन आयोजन की पूर्णता के बाद शेष बचे हुए व्यंजन अवशेषों को खुले आसमान तले  सड़कों के किनारे  कूड़े के ढेर पर  फेंक देते हैं, जो सड़ कर वातावरण को प्रदूषित तो करता ही है, वह फिजूलखर्ची तथा अकुशल प्रबंधन का भी प्रतीक है, क्या ही अच्छा होता जब प्रायोजक द्वारा आयोजक की सेवा शर्तों में यह बात भी जोड़ दी जाती कि  सफल आयोजन के बाद बचे अन्न अवशेषों को किसी लोक सेवी संस्था को दान कर दिया जाता जिससे सेंकड़ों नहीं हजारों की संख्या में भूख तो मिटती है, वातावरण भी प्रदूषित होने से बच जाता तथा उन दरिद्रनारायणों के हृदय से मिलने वाले आशिर्वाद से जीवन में मंगल ही मंगल होता। वर्ना लक्ष्मीऔर अन्नपूर्णा के रूठने पर दरिद्रता भूख पीड़ा बीमारी से उपजा आसन्न संकट आप के दरवाजे पर खड़ा खड़ा अपने गृहप्रवेश के अशुभ घड़ी का इंतजार कर रहा होगा।

हम सभी से आज भी अपने आसपास तमाम ऐसे गरीबवर्गीय महिलाओं बच्चों से आमना-सामना होता होगा, जिनके तन पर फटे झूलते चीथडों में बंटे वस्त्र तथा खाली पेट उनकी गरीबी लाचारी तथा बेबसी को बयां करते मिल जायेंगे, तो वहीं दूसरी तरफ नवधनाढ्यों की अलमारियों में अटे पड़े पुरानें कपड़े जो उपयोग में नहीं है, वे चाहे तो उन तमाम कपड़ों को धुलवाकर तमाम गरीबों का तन ढक कर नर से नारायण की श्रेणी में जा सकते हैं। इधर बीच कुछ लोकोपकारी  संस्थाओं के ऐसे लोग सामने आये हैं, जिनका नारा ही है “नर सेवा, नारायण सेवा”।  

जो नेकी की दीवार बनाते हैं, जो घर घर से बचें पके अन्न संग्रह कर तथा आयोजनों के बाद बचे हुए अवशेष तथा दान में प्राप्त पुराने वस्त्रो से गरीब का पेट भरने तथा उनके तन ढकने कार्य करते हैं, तथा उन धनवानों को भी पुण्य ‌लाभ का अतिरिक्त अवसर उपलब्ध कराते हैं। जिसे देख सुन कर बड़ी ही सुखद अनुभूति होती है, वरना हम मिथकीय मान्यताओं को ढोते हुए मंदिरों, मस्जिदों, गुरद्वारों आदि तीर्थ स्थानों में भटकते ही रहेंगे।

किसी विद्वान का मत है कि – “प्रार्थना करने वाले ओठों से किसी की सहायता में उठने वाले हाथ ‌ज्यादा पवित्र होते हैं आइए हम किसी की सहायता का संकल्प ले।” (अज्ञात)

तभी तो धर्म कर्म की व्याख्या करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा कि-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीडा सम नहिं अधमाई।।

(रा०च०मानस०)

इसी सिद्धांत का समर्थन संस्कृत भाषा का यह श्लोक भी करता है।

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

(अज्ञात)

अर्थात्- कानों की शोभा शास्त्रों के श्रवण से है, कुण्डल पहनने से नहीं। हाथों की शोभा दान देने से है, कंगन पहनने से नहीं। दयालु पुरूषों की शोभा परोपकार से है चंदनादि लेपन से नहीं ।इस लिए शरीर को आभूषण से नहीं सुंदर गुणों से सजाना चाहिए।

इस क्रम में उन दयावानों का अभिनंदन, वंदन, सहयोग तथा समर्थन अवश्य किया जाना चाहिए। जो तन मन धन तीनों से ही नेकी के कार्यों से जुड़े हैं। आप और हम सभी नेक व्यवस्था का अंग बनें औरअंत में  “शुभंभवतु“।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ फॅमिली डॉक्टर…☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ  ज्योती विलास जोशी

?  विविधा ?

☆ फॅमिली डॉक्टर… ☆ सौ ज्योती विलास जोशी 

‘काल रातीला सपान पडलं, सपनात आला त्यो…. न् बाई म्या गडबडले.’ व्हय आक्षी असंच झालं. दिसभर फिरून फिरून त्येलाच बघायचं मंग सपनात बी त्योच येनार की…. मनात असतंय त्येच सपनात दिसतंय असं म्हणत्यात..तर काय म्हनंत होतो म्या?

आमचा ‘फॅमिली डाक्टर’ आलता सपनात… दिसभर थोड्या थोड्या यळानं येतोय तो टीव्हीवर… त्यो आला की बाया बापड्या पोरं सोरं समदी सरसावून बसत्यात टीव्ही म्होरं.. जनु ‘राजेश खन्ना’च आला…. काय तरी नवीन सांगनार म्हनून आमीबी कान टवकारून बसतोय. तोबी लय भारी… काय बाय सांगत बसतोय. कल वायदा केलेली गोष्ट आज होनार नाही उद्याची गोष्ट उद्याच्याला बघू….असं सांगतोय. आम्हीबी एका कानानं ऐकतोय दुसऱ्या कानानं देतोय सोडून…. सोत्ता काय करणार आहे, त्येचा पाढा वाचतोय.आमानी ‘हे करा ते करा’ असं सांगून निघून जातोय.

त्येचा एक मोट्टा भाऊ आहे तिकडं दिल्लीत…. त्यो एकटाच खुर्चीत बसून समजून सांगतोय समद्यास्नी.पर आमचा डाक्टर माणसाळलेला…. माणसांच्या गराड्यात असतूया. फॅमिली डाक्टर हाय ना आमचा?… लोकं बी त्याला लई पिडत्यात. त्याला लई प्रश्न ईचारत्यात. पर लई शांत गडी… न चिडता त्याच त्याच प्रश्नांची परतून परतून तीच तीच उत्तरं देतुया. सारखं ‘नियम पाळा’असं म्हनतोय. औषधोपचार काय बी करत न्हाई. निस्ता कीर्तनावर जोर हाय त्येचा… लई बेस सांगतोय कीर्तन….अजिबात भ्यायाचं नाही. धीर सोडायचा नाही.भगवंताला शरण जायाचं.आम्ही तुमची येवस्था चोख लावनार हाय असं म्हणून आश्वासन देतोय.लई चांगला हाय सभावानं…

त्येचा दिल्लीचा भाऊ गळ्यात टेटसकूप घालतोय. ह्यो घालत नाही. पेशंटला हात दिखून लावत नाही. पर पेशंटची नाडी बराबर ओळखली हाय त्यांनं. लई प्रशिद्ध आहे तो! एकलाच हाय पेशल. त्याला बघितलं की दुखनं पार पळून जातंय.भारी इंग्लिश बोलतोय. एकदम त्येला आमी म्हनलं “कसली कसली विग्लिश नांव घेतायसा,आमच्या काय ध्यानात राहत नाही.तर त्यांनं आम्हाला अगदी सादं करुन सांगितलं… ‘रेमदेसिविर’ इंजेक्शनला रामदेव म्हणायचं *क्वारंटाईन’ला कोरांटी म्हणायचं. आपल्याला अर्थ समजला म्हणजे झालं. परीक्षा थोडीच द्यायची आहे.” असं म्हनला.

टीव्हीमंदी फोटू येऊ दे, म्हनून लई जनं तेच्या म्होर म्होरं करत्यात.तोंडाला ‘टोपी’ घालून काय  सांगतोय ते आमच्या समदं काय ध्यानात येत नाही. त्यो कायम कुनाइशयी तरी तक्रार करत असतोय. पन कुनाचा संशोय घेतोय ते आमालाबी कळत नाही.

‘दिसला ग बाई दिसला’ असं म्हनत त्याची वाट बघनारे त्येला बघून हरखतात. टीव्हीसमोर तोंडं आ वासून बसत्यात . आमच्याकडं बघूनशान आमच्या बापयास्नी डोक्यावरली टोपी तोंडावर घ्या म्हनून आणि आमाला नाकाला पदर लावाया सांगतोय….

आम्ही परवा त्याला म्हटलं,”आम्हाला लई भ्या वाटतंय…” तर हसला अन् म्हनला “काय भ्यायचं त्यात? गेला की रोग पळून…”त्यो तसं म्हनल्यावर आमच्या मनातलाबी रोग पळून गेला की वं …त्याला बघूनच निम्मं दुखनं कमी हुतय म्हना की!आमच्यातली एक धटिंगण परवा त्येला म्हनाली, “काय वं डाक्टर, तुम्ही आजारी पडत नाहीसा कवा? त्यो हसला जोरात.. एवढ्या जोरात हसला की वादळ आलं.आमी घाबरलो.

“अहो मी पण माणूसच आहे तुमच्या सारखा.आजारी पडणारच की! पण मी नियम पाळतो. केव्हातरी नियम तोडला आणि आला रोग भेटीला… तेव्हाच त्यानं माझ्या कानात सांगितलेलं गुपित मी तुम्हाला सांगतोय.”

‘मुस्कट बांधा’ हेच ते गुपित हुतं… खरंच ‘देव मानूस’ हाय आमचा डाक्टर… आरारारा…. देवमानसाची उपमा दिऊन चुकलो की रं देवा….. शिरीयल मधला’देवमानूस’ मर्डर केलाय म्हनं आज …जाऊ दे…. आपण आपल्या डाक्टरला निस्त ‘देव’ म्हनूया.पर ह्योच देव ‘ज्योतीष सांगनार, भविष्य सांगणार’ असं म्हनत येतोय रातच्याला आणि पुढली समदी संकटं आमच्या म्होरं सांडून पायात साप सोडतोय. म्हनून तर आमास्नी गडबडाया हुतंय, ह्यो सपनात आला म्हंजी… दुसऱ्या दिवशी त्येला ईचारलं की सपनात येऊन ते काय सांगून गेलासा? समदं खरं हाय काय? तर हसला गालांत जीब घालून… “स्वप्न तुम्ही पाहिलं ना? मग तुम्ही सांगा मी तुम्हाला काय म्हणालो ते?”आमानी काय समजलं याची परीक्षा बघत हुता जनू…. सपान आटवून आटवून आमच्याबी डोस्कीचा भुगा झाला.

“हां, दुसरी लाट का काय म्हनलासा, त्यात आमी वाऊन जाणार… बुरशीवानी काय तरी व्हऊन जीव जानार… तिसर्‍या लाटंत आमच्या पोरास्नी जपाय पाहिजे…. समदं खोटं ना? मी बी काय ईचाराया लागले तुमानी. सपान सपानच असतय नव्ह? पर तुमी जाता जाता एवढंबी म्हटलासा ‘मुस्कट बांधा’ मग यातलं तुम्हाला कायबी हुनार न्हई….. म्हनालासा नव्ह?” पुना एकवार गडगडाटी हसला त्यो……’चक्रीवादळ’आल्यागत वाटलं.

चार रोज कुठं त्यो आलाच न्हाई.बेपत्ताच हुता.आमी मुस्कट बांधत न्हाई म्हनून चिडला वाटतं… म्हनून आमी पटापट मुस्कट बांधलं आणि बसलो घरात.तर आला बघा दार ठोठावत.. तो काय बोलायच्या आतच आमी त्येला ईचारलं, “काय डाक्टर कुठं होतासा चार दीस? तिकडं चक्रीवादळ आलंत तिकडे गेलंतासा वाटतं…..

कवाबी न चिडणारा त्यो अचानक चिडला.”त्या वादळाचा आणि माझा काही संबंध नाही. त्या विषयाचा मी डॉक्टर नाही.त्याची माहिती तुम्हाला दुसरे डॉक्टर सांगतील. वाटल्यास मी त्यांचा पत्ता तुम्हाला देईन. एका वादळानंच अगोदर माझं डोकं गरगरायला लागलं ते दुसरं वादळ कशाला बघायला जाऊ मी?….”

वादळाचा फटका अमानी बी बसलाय… डोस्कं गरगराया लागलय आमचं बी… असं म्हणून आमीबी टीव्ही बंद करून टाकला. ईषय कट म्हणजे ईषय कट….हुश्श… रामा!  शिवा!! गोविंदा!!!

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

[email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 11- गुडी पडवा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 11 – गुडी पडवा ??

गुडी पडवा :

नववर्ष सदा नये संकल्पों को ऊर्जा प्रदान करने का दिन होता है। ग्रेगोरियन कैलेंडर की वैश्विक मान्यता के बाद भी हर सांस्कृतिक समुदाय में अपने नववर्ष का विशेष महत्व है। भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को  मनाया जाता है। महाराष्ट्र और अनेक राज्यों में इसे गुड़ी पडवा के रूप में सम्बोधित सम्बोधित किया जाता है।

पडवा, प्रतिपदा का अपभ्रंश है जबकि गुडी ब्रह्मध्वज के लिए उपयोग किया जाता है। लंबे बाँस के एक छोर पर हरा या पीला जालीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इन पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है।  सूर्योदय की बेला में विधिवत पूजन कर इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुडी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगेें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं।

आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल्स प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है।

बाँस में ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में गांठे होती हैं। अतः इसे मेरुदंड के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है।

जरी के हरे पीले वस्त्र यानी साड़ी और चोली, नीम और आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार रूप में पूजन है गुडी पडवा।

कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में इसे उगादि कहा जाता है मान्यता वही कि ब्रह्मदेव ने इस दिन सृष्टि का निर्माण किया था। केरल का विशु उत्सव, असम का मुकोली बिहू , बंगाल का पोहिला बैसाख, तमिलनाडु का पुथांडू , नानकशाही पंचांग का होला मोहल्ला, पंजाब की बैसाखी, सिंधी समाज का चेटीचंड, कश्मीर का नवरेह इत्यादि न्यूनाधिक अंतर के साथ भारतीय नववर्ष के ही भिन्न-भिन्न नाम हैं। 

इसी दिन से चैत्र नवरात्र भी आरंभ होते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य अपनी  बारह राशियों में अपनी परिक्रमा आरंभ करने के लिए मेष राशि में प्रवेश करते हैं। प्रथम नवरात्रि को आदिशक्ति प्रकट हुई थी। उनके कहने से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना आरंभ की थी। तीसरे दिन भगवान विष्णु ने मनुष्य अवतार लेकर पृथ्वी पर सजीवों को जन्म दिया। विज्ञान भी कहता है कि जलचर पहला सजीव था। नवमी तिथि को भगवान विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने जन्म लिया।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 120 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 120 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 10 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 10 ??

महाशिवरात्रि :

पौराणिक मान्यता है कि अग्नि लिंग से जगत जन्मा है। भगवान शंकर द्वारा हलाहल प्राशन के उपरांत उन्हें जगाये रखने के लिए रात भर देवताओं द्वारा गीत-संगीत का आयोजन किया गया था। आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी विष को फैलने से रोकने के लिए ‘जागते रहो’ का सूत्र देता है। ‘शिव’ भाव हो तो अमृत नहीं विष पचाकर भी कालजयी हुआ जा सकता है। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की यह कविता देखिए,

कालजयी होने की लिप्सा में

बूँद भर अमृत के लिए वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर महादेव, त्रिकाल भए।

महाकाल का परिवार, एकात्मता का कालजयी उदाहरण है। यदि शिव परिवार के पशु सदस्यों के वाहन और शब्दों वजी के गले में लिपटा सर्प देखें तो एकात्म भाव होकर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व से जीने का अद्भुत उदाहरण दिखेगा। गणेश जी का वाहन है, मूषक। सर्प का आहार है मूषक। सर्प को आहार बनाता है मयूर जो कार्तिकेय जी का वाहन है। महादेव की सवारी है नंदी। नंदी का शत्रु है गौरा जी का वाहन शेर। संदेश स्पष्ट है कि दृष्टि में एकात्म भाव हो तो एक-दूसरे का भक्ष्ण करने वाले पशु भी एकसाथ रह सकते हैं। एकात्मता, वैदिक दर्शन के प्रत्येक रजकण में दृष्टिगोचर होती है।

धूलिवंदन/ होली :

होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना अर्थात एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रंगोत्सव की यह प्रथा मानो मेहंदी लगाने जैसी है। कबीर लिखते हैं,

लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल ।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है।  क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया आरंभ करना। होली या फाग हमारी  सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 9 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

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वसंत पंचमी :

वसंतपंचमी माँ सरस्वती का अवतरण दिवस है। पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद,  वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ।  जल के प्रवाह और पवन के बहाव को में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ’नादब्रह्म’ है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥

अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है। शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-

वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।

तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति॥

वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि  वसंत पंचमी रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।

समग्रता की अपरिमेय परिधि में स्वदेश, संस्कृति व धर्मनिष्ठा की पतंग गगन की ऊँचाइयों पर होती है। इस ऊँचाई का अनन्य प्रतीक है वीर हकीकत राय। धर्म परिवर्तन न करने के कारण केवल 15 वर्ष की आयु में इस बालक को 1734 में वसंतपंचमी के दिन फाँसी पर लटका दिया गया था। हकीकत राय का स्वाभिमानी शीश सदा ऊँचा रखने के लिए अनेक भागों में इस दिन पतंग ऊँची उड़ाने का चलन भी है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शब्दांजलि – सरस्वती की सुर साधिका सरस्वती में विलीन ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

 (जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)। 

☆ शब्दांजलि – सरस्वती की सुर साधिका सरस्वती में विलीन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

भारत कोकिला, सुर साम्राज्ञी, सरस्वती पुत्री लता मंगेशकर आखिर उसी में विलीन हो गयीं। गीत- संगीत में एक पूरे युग का अंत हो गया। पिछले कुछ दिनों से लता मंगेशकर बीमार थीं और अस्पताल में जीवन व मृत्यु के साथ संघर्ष कर रही थीं लेकिन हार गयीं जिंदगी की जंग और जा मिलीं सरस्वती से। एक दिन पहले ही सरस्वती पूजन था, बसंत पंचमी थी और दूसरे दिन सरस्वती अपनी सबसे प्रिय पुत्री को अपने साथ ले गयीं।

लता मंगेशकर का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। बचपन से ही पिता दीनानाथ मंगेशकर के निधन के बाद पांच भाई बहनों की जिम्मेदारी इनके कोमल कंधों पर आ गयी और कितने संघर्षों के बीच अपने परिवार का सहारा बनीं तो इसी सुर संगीत से। कुछ अभिनय भी किया शुरू में । इनकी बहन आशा को भी इसी क्षेत्र में सम्मान मिला । परिवार व भाई बहनों का पालन पोषण करते करते आजीवन अविवाहित ही रह गयीं। सचिन तेंदुलकर को अपने बेटे समान मानती थीं। इनके शौक थे क्रिकेट देखना, संगीत सुनना और कुछ कुछ राजनीति में भी रूचि रखती थीं। क्रिकेट के लिए तो इतनी दीवानगी थी कि आधी आधी रात तक जागतीं थीं, मैच का लुत्फ उठाने के लिए। संगीत की इतनी दीवानगी कि आखिरी पलों और दिनों में भी अपने पिता के संगीत को सुन रही थीं और खुद गुनगुनाने की कोशिश कर रही थीं। राजनीति में वे कभी जवाहर लाल नेहरू की तो आजकल नरेंद्र मोदी की प्रशंसक थीं।

जवाहर लाल नेहरू से पहली मुलाकात उसी मशहूर गीत से हुई जो उनकी मौजूदगी में गाया –

ऐ मेरे वतन के लोगो,

जरा आंख में भर लो पानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

जरा याद करो कुर्बानी ,,,

इस गीत को सुन कर जवाहर लाल नेहरू की आंखों से झर झर आंसू बहने लगने थे और उन्होंने कहा भी कि बिटिया, तुमने तो हमें रुला ही दिया और इतना सम्मान दिया कि प्रधानमंत्री आवास पर चाय के लिए आमंत्रित किया। यह बात इस गीत के रचयिता प्रदीप ने बताई थी। प्रदीप के इस गीत को लता ने अपनी आवाज से अमर कर दिया। कितने गाने गाये लेकिन यह गाना सबसे हिट रहा और सदैव गाया जायेगा और याद दिलाता रहेगा कि लता की आवाज ही उनकी पहचान थी और रहेगी। प्रधानमंत्री मोदी पहले भी आशीर्वाद लेने गये थे और अंतिम यात्रा में भी शामिल हुए। इससे बड़ा सम्मान क्या होगा ?

यह भी एक कमाल की पंक्ति है कि मेरी आवाज ही पहचान है , ,, आज यह नये गायकों के लिए एक मंत्र है कि अपनी आवाज इतनी बढ़िया बनाओ कि यही आपकी पहचान बन जाये यानी इतना डूब जाओ अपने काम में कि आपकी पहचान खुद ब खुद बन जाये। पंजाबी, गुजराती, मराठी न जाने कितनी भाषाओं में गीत गाये और कीर्तिमान बनाये। सारे पुरस्कार/सम्मान इनके आगे छोटे पड़ते गये और लता दीदी इन सम्मानों से कहीं ऊपर पहुंच गयीं। यह भी एक मंत्र है कि सम्मान के पीछे न भागो, इतना काम करो अपने फील्ड में कि सम्मान आपके पीछे पीछे आएं। दिलीप कुमार को अपना राखी बंद भाई मानती थीं और उनके ही एक तंज से उर्दू सीख ली। बड़ी उम्र की होने के बावजूद नयी नायिकाओं के लिए गाना कोई खेल नहीं था पर वे इतना मधुर गाती कि लगता ही नहीं था कि कोई उम्रदराज गायिका गा रही है। फिर इतना करुणामय गाया कि सारा देश रो दिया और रो देता है आज भी जब आवाज आती है -ऐ मेरे वतन के लोगो,,,,

सच , ऐ मेरे वतन के लोगो अब लता दीदी हमारे बीच नहीं रहीं, यह विश्वास करना बहुत मुश्किल है पर विश्वास करना पड़ेगा और उनकी आवाज सदैव उनकी पहचान बनी रहेगी।

विनम्र श्रद्धांजलि ??

© श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 8 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 8 ??

मकर संक्रांति :

पौष मास में सूर्यदेव धनु से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। यह मकर संक्रांति कहलाता है। खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन  सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण घटना है। यह वार्षिक संक्रमण पूरे देश में उत्सव/त्योहार के रूप में आयोजित किया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल, गुजरात, उत्तराखंड में उत्तरायण, असम में भोगाली बिहू,  हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश में माघी, उत्तर प्रदेश, बिहार में खिचड़ी, पंजाब में लोहड़ी, मकर संक्रांति के ही भिन्न-भिन्न नाम और रूप हैं।

भारत उत्तरी गोलार्द्ध में है। संक्रांति के पूर्व सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होते हैं। दिव्य प्रकाश पुंज सूर्य का उत्तरी गोलार्द्ध के निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण को सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। यही कारण है की भीष्म पितामह ने देह त्यागने के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की थी। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी। दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता। हमारा सांस्कृतिक उद्घोष भी है,

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

अंधकार से प्रकाश की यात्रा का अर्थ है एकात्मता। मकर संक्रांति में समुदाय साथ आता है। जो वंचित हैं, उन्हें अपने संचित में से यथाशक्ति कुछ प्रदान करना, दान करना। कालांतर में अपनी जड़ों से कटते और परंपराओं के सही अर्थ से कटते मनुष्य के छोटे होते उनके साथ इसे धार्मिक आचरण के  साथ जोड़ दिया गया। शीतलहर के समय आती आता मकर संक्रमण निर्धन को कंबल और घी देने का अद्भुत मार्ग दिखाकर उनका संरक्षण और जाड़े के दिनों में निर्वहन का मार्ग भी दिखाता है। दान द्वारा मोक्ष प्राप्ति का यह सूत्र दृष्टव्य है-

माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम्।

स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति।

मकर संक्रांति पर बहन-बेटियों को वस्त्र, मिठाई, तिल-गुड़ के व्यंजन भेजने की लोक-परंपरा भी है। ऋतुचक्र से जुड़ी इस परंपरा का निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।  अपने साथ बहन, बेटी का घर भी भरा रहे।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 7 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 7 ??

भारत के प्रमुख उत्सव भारत के प्रमुख पर्व त्योहार और उत्सव :

जैसा कि इस लेख में कहा जा चुका है कि भारतीय समाज उत्सवधर्मिता का पर्यायवाची है। यहाँ कण-कण में उत्सव है, कैलेंडर के 365 दिन उत्सव है। सारे उत्सवों की सूची देना तो संभव नहीं है। यूँ भी छोटे-छोटे आदिवासी समुदायों के उत्सव, देश के सुदूर अंचलों विशेषकर गाँव में स्थानीय स्तर पर मनाए जाते उत्सवों की पूरी जानकारी हमें कहाँ है? सामान्यतः सर्वसामान्य द्वारा बड़े पैमाने पर मनाया जाते कुछ उत्सवों की सूची यहाँ साझा कर रहे हैं। ये प्रतिनिधि उत्सव हैं।

भारत के प्रमुख पर्व-त्योहार-उत्सवों में मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, गुड़ी पड़वा, रामनवमी, भगवान महावीर जयंती, हनुमान जयंती, गुड फ्राइडे, ईस्टर संडे, भगवान परशुराम जयंती, अक्षय तृतीया, नृसिंह जयंती, बुद्ध पूर्णिमा, रमजान ईद वट पूर्णिमा, देवशयनी एकादशी, गुरुपूर्णिमा, नागपंचमी, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, पतेती, बैल-पोला, हरतालिका, तीज, गणगौर, गणेश चतुर्थी, ॠषिपंचमी, नवरात्र, दुर्गापूजा, दशहरा, शरद पूर्णिमा, दीपावली, अन्नकूट, तुलसीविवाह, गुरुनानक जयंती, क्रिसमस, दत्त जयंती, शीतलाष्टमी आदि का समावेश है। इसी प्रकार सामाजिक, राष्ट्रीय उत्सवों में गुरु गोविंद सिंह जयंती, स्वामी विवेकानंद जयंती, स्वामी दयानंद जयंती, लोकमान्य तिलक जयंती,  नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती, विश्वकर्मा जयंती, विभिन्न संतों की जयंती, विभिन्न महापुरुषों की जयंती, छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती, सावित्रीबाई फुले जयंती, संत बसवेश्वर जयंती,  रामकृष्ण परमहंस जयंती, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ भीमराव आंबेडकर जयंती, आदि शंकराचार्य जयंती,  एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, झूलेलाल जयंती, विभिन्न साहित्यकारों की जयंती, राणा प्रताप जयंती,  महात्मा फुले जयंती, कबीर जयंती, कालिदास जयंती, वाल्मीकि जयंती, गोस्वामी तुलसीदास जयंती, सिख गुरुओं का शहीदी दिवस, महिला दिवस, चैतन्य महाप्रभु जयंती, वल्लभाचार्य जयंती, रामानुजाचार्य जयंती, संत ज्ञानेश्वर महाराज जयंती, संत तुकाराम महाराज जयंती, आदि अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए श्राद्ध पक्ष को भी एक दृष्टि से इसमें सम्मिलित किया जा सकता है। शिक्षक दिवस, एकता दिवस, तीनों सेना के स्थापना दिवस, ध्वज दिवस, राज्यों के स्थापना दिवस भी हमारे महत्वपूर्ण उत्सव हैं।  राष्ट्रीय पर्व के रूप में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस तो सर्वोच्च हैं ही।

चूँकि उत्सव सामासिक, सामुदायिक, सामाजिक और सामूहिक होते हैं, फलत: एकात्मता उन का अनिवार्य अंग है। हम कुछ प्रतिनिधि उत्सवों की चर्चा यहाँ करेंगे।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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