हिंदी साहित्य – आलेख ☆☆ लता मंगेशकर : श्रद्धांजलि ☆☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।

आज से प्रस्तुत है सुरकोकिला स्व लता जी को श्रद्धांजलि अर्पित करता आलेख  “लता मंगेशकर : श्रद्धांजलि”)

? आलेख ☆ लता मंगेशकर : श्रद्धांजलि ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

पथिक ने स्टेट बैंक सेंट्रल आफिस में पोस्टिंग के दौरान दो-तीन साल मुंबई में गुज़ारे हैं। वह कभी-कभी लता जी के दर्शन हेतु गिरगांव चौपटी से होता हुआ पेद्दर रोड़ पर जाकर खड़ा हो जाता था। एक दिन शनिवार को लता जी ने भीड़ को उनके अपार्टमेंट से हाथ हिलाकर अभिवादन किया। पथिक भीड़ में मौजूद था। उसने उनकी ज़िंदगी के सफ़े खोलना शुरू किए।

भारत में ऐसा कोई आदमी नहीं होगा जिसने लता मंगेशकर के गीतों में डूबकर अपने प्रेम, आनंद, दुःख, हताशा, विदाई को न जिया हो। आज़ाद भारत का एक अजूबा थीं लता। आदमी तो आदमी पशु भी उनके गायन के दीवाने हैं।

मुंबई और पूना के बीच गायों का एक उच्च तकनीक से सज्जित वातानुकूलित फार्म हाउस है जिसमें गायों को काजू किसमिस बादाम पिस्ता खिलाया जाता है। उन्हें लता जी के गाने सुनाए जाते हैं। वहाँ एक प्रयोग किया गया। जिस दिन उन्हें लता गाने नहीं सुनाए उन्होंने दूध रोक लिया।

लता की जादुई आवाज़ के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरी दुनिया में दीवाने हैं। टाईम पत्रिका ने उन्हें भारतीय पार्श्वगायन की अपरिहार्य और एकछत्र साम्राज्ञी स्वीकार किया है।

लता मंगेशकर भारत की सबसे लोकप्रिय और सम्मानित गायिका हैं, जिनका छ: दशकों का पार्श्व गायन उपलब्धियों से भरा पड़ा है। लता जी ने लगभग तीस से ज्यादा भाषाओं में फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी गाने गाये हैं लेकिन उनकी पहचान भारतीय सिनेमा में एक पार्श्वगायक के रूप में रही है। अपनी बहन आशा भोंसले के साथ लता जी का फ़िल्मी गायन में सबसे बड़ा योगदान रहा है।

लता का जन्म मराठा परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के नज़दीक महू में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार की सबसे बड़ी बेटी के रूप में 28 सितंबर, 1929 को हुआ। उनके पिता रंगमंच के कलाकार और गायक थे। इनके परिवार से भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनों उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोंसले सभी ने संगीत को ही अपनी आजीविका के लिये चुना।

हालाँकि लता का जन्म महू में हुआ था लेकिन उनकी परवरिश महाराष्ट्र में हुई। लता ने पाँच साल की उम्र से पिता के साथ एक रंगमंच कलाकार के रूप में अभिनय करना शुरु कर दिया था।

जब उनके पिता की 1942 में हृदय रोग से मृत्यु हो गई। उस समय इनकी आयु मात्र तेरह वर्ष थी. भाई बहिनों में बड़ी होने के कारण परिवार की जिम्मेदारी का बोझ उनके कंधों पर आ गया था. दूसरी ओर उन्हें अपने करियर की तलाश भी थी। उन्हें बहुत आर्थिक किल्लत झेलनी पड़ी और काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की वज़ह से पैसों के लिये उन्हें कुछ हिन्दी और मराठी फ़िल्मों में काम करना पड़ा।

नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और मंगेशकर परिवार के करीबी दोस्त मास्टर विनायक (विनायक दामोदर कर्नाटकी) ने उनके परिवार के देखभाल की ज़िम्मेदारी को निभाया। उन्होंने लता को एक गायक और अभिनेत्री के रूप में अपना काम शुरू करने में मददगार की भूमिका निभाई।

लता ने “नाचू या गाड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी” गीत गाया था, जिसे सदाशिवराव नेवरेकर ने वसंत जोगलेकर की मराठी फिल्म किटी हसाल (1942) के लिए संगीतबद्ध किया था, लेकिन उस गीत को अंतिम कट से हटा दिया गया था। विनायक ने उन्हें नवयुग चित्रपट की मराठी फिल्म पहिली ‘मंगला-गौर’ (1942) में एक छोटी भूमिका दी, जिसमें उन्होंने “नताली चैत्रची नवलई” गाया, जिसे दादा चंदेकर ने संगीतबद्ध किया था। उन्होंने मराठी फिल्म गजभाऊ (1943) के लिए उनका पहला हिंदी गीत “माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू” गाया था।

जब मास्टर विनायक की कंपनी ने अपना मुख्यालय 1945 में मुंबई स्थानांतरित कर दिया तब लता भी मुंबई पहुँच गईं। उन्होंने भिंडीबाजार घराने के उस्ताद अमन अली खान से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। उन्होंने वसंत जोगलेकर की हिंदी भाषा की फिल्म ‘आप की सेवा में’ (1946) के लिए “पा लगून कर जोरी” गाया, जिसे दत्ता दावजेकर ने संगीतबद्ध किया था। फिल्म में नृत्य रोहिणी भाटे ने किया था जो बाद में एक प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना बनीं। लता और उनकी बहन आशा ने विनायक की पहली हिंदी भाषा की फिल्म ‘बड़ी माँ’ (1945) में छोटी भूमिकाएँ निभाईं। उस फिल्म में, लता ने एक भजन “माता तेरे चरणों में” भी गाया था। विनायक की दूसरी हिंदी भाषा की फिल्म ‘सुभद्रा’ (1946) की रिकॉर्डिंग के दौरान उनका संगीत निर्देशक वसंत देसाई से परिचय हुआ।

अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फ़िल्म ‘पाहिली मंगलागौर’ (1942) रही, जिसमें उन्होंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने कई फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी माँ (1945), जीवन यात्रा (1946), माँद (1948), छत्रपति शिवाजी (1952) शामिल थी। बड़ी माँ, में लता ने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया और उसके छोटी बहन की भूमिका आशा भोंसले ने निभाई। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये और आशा के लिये पार्श्वगायन किया।

1945 में उस्ताद ग़ुलाम हैदर (जिन्होंने पहले नूरजहाँ की खोज की थी) अपनी आनेवाली फ़िल्म के लिये लता को एक निर्माता के स्टूडियो ले गये। फ़िल्म में कामिनी कौशल मुख्य भूमिका निभा रही थी। वे चाहते थे कि लता उस फ़िल्म के लिये पार्श्वगायन करे। लेकिन गुलाम हैदर को निराशा हाथ लगी। 1947 में वसंत जोगलेकर ने अपनी फ़िल्म आपकी सेवा में लता को गाने का मौका दिया। इस फ़िल्म के गानों से लता की खूब चर्चा हुई। इसके बाद लता ने मज़बूर फ़िल्म के गानों “अंग्रेजी छोरा चला गया” और “दिल मेरा तोड़ा हाय मुझे कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने” जैसे गानों से अपनी स्थिती सुदृढ की। हालाँकि इसके बावज़ूद लता को उस खास हिट की अभी भी तलाश थी।

1949 में लता को ऐसा मौका फ़िल्म “महल” के “आयेगा आनेवाला” गीत से मिला। इस गीत को उस समय की सबसे खूबसूरत और चर्चित अभिनेत्री मधुबाला पर फ़िल्माया गया था। यह फ़िल्म अत्यंत सफल रही थी और लता तथा मधुबाला दोनों के लिये मील का पत्थर सिद्ध हुई। इसके बाद लता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वो चली गईं।

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले, कासों करूं पुकार ॥

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 6 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 6 ??

उत्सवधर्मी समाज :

जितने उत्सव भारतीय समाज में है उतने विश्व के दूसरे किसी भी समुदाय में नहीं है। इस  दर्शन में जीवन प्रतिपल एक उत्सव है। विश्व के अनेक छोटे-बड़े धार्मिक समुदाय अन्यान्य कारणों से भारत में आए। इनमें शरण लेने से लेकर धर्म प्रचार और आक्रमणकारी सभी सम्मिलित हैं। कालांतर में इनमें से अधिकांश भारत में बस गए।  गोस्वामी जी ने बालकांड में भरत के नामकरण के प्रसंग में लिखा है,

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

जो संसार का भरण-पोषण करता है, वही भरत कहलाता है। इसे भारत के संदर्भ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उदारमना भारतीय संस्कृति ने घुसपैठियों और आक्रमणकारियों को अपनी ममता की उष्मा उसी प्रकार दी जैसे मादा कौवा अपने अंडों के साथ कोयल के अंडे भी सेती है।  पोषण रस से होता है। जैसे माता पयपान कराती है एवं शिशु पुष्ट होता है। माता और संतान एकात्म होते हैं। पयपान करता शिशु अनेक बार माता को काट लेता है, तब भी माता उसे हटाती नहीं। भारतभूमि व यहाँ आये आक्रमणकारियों के बीच भी यही सम्बंध रहा। समय साक्षी है कि भारत माँ को वासना और लूट-खसोट की दृष्टि से देखनेवालों को भी इस धरती ने पयपान ही कराया।

शत्रु को भी अपनी संतान की तरह देखनेवाली इस धरती पर मनुष्य जन्म पाना तो अहोभाग्य ही  है।

दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।

अर्थात भारत में जन्म लेना दुर्लभ है। उसमें भी मनुष्य योनि पाना तो दुर्लभतम ही है। अनेक बार भारतीय संस्कृति की सामासिकता के लिए ‘गंगा -जमुनी तहज़ीब’ शब्द का प्रयोग होता है। इन पंक्तियों के लेखक की इससे मतभिन्नता है। गंगा भी भारत की है यमुना भी भारत की है। ऐसे में गंगा-जमुना में भेद कैसे हुआ? यह संस्कृति संगम की है जो अपने साथ अंतर्सलिला सरस्वती को भी समाहित करती है। यूँ भी सरस्वती का अभाव ही सारे छद्मवाद की जड़ होता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #108 ☆ ‌जन्म, जीवन और मृत्यु ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 108 ☆

☆ ‌आलेख – जन्म, जीवन और  मृत्यु ☆

‌जन्म, जीवन और मृत्यु,श्रीमदभगवद्गगीता के भाष्य के अनुसार आत्मा अजर-अमर है।

तथा श्री रामचरितमानस के अनुसार

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।

चेतन अमल सहज सुख राशि ।।

अर्थात्

आत्मा का स्वरूप ईश्वरीय अंश से निर्मित चेतना युक्त मल रहित सहज सुख राशि है। यह‌  जन्म के पहले  भी अस्तित्व में  थी और मृत्यु के पश्चात भी रहेगी, इसका अस्तित्व कभी विलीन नहीं होता।  जन्म और मृत्यु की दुखद परिस्थितियों से गुजरने के बाद इस योनि गत शरीर  का ही प्रकटीकरण और विनाश होता है । जन्म और मृत्यु के बीच का बिताया गया समय ही  जीवन कहा जाता है। हमारे हिन्दू धर्मदर्शन के संस्कारों के अनुसार जन्म से पहले गर्भाधान संस्कार से जीव की उत्पत्ति प्रक्रिया आरंभ होती है। पंच तत्व के मिलने पर  मां के गर्भ में पिंड बनता है और उस पिंड में ईश्वर अंश आत्मा के संयोग से जीव स्थूल रूप में प्रकट होता है तथा वह गर्भाधान संस्कार से अनभिज्ञ होता है। स्थूल शरीर से आत्मा का बिछोह, प्राण चेतना का समापन ही मृत्यु है।

मृत्यु के पश्चात अंत्येष्टि संस्कार पर सोडष संस्कारों का अंत होता है। समापन होता है जन्म लेने की क्रिया के पूर्ण होने में नौ माह से अधिक समय लगता है इस समय  मां के पेट में  जीव की सुरक्षा का दायित्व ईश्वर निभाता है

प्राकृतिक रूप से  पालन पोषण करता है जब यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है तब यह जीव स्थूल स्वरूप धारण कर सशरीर जन्म लेता है  इस क्रिया को जन्म लेना कहते हैं  ।

जन्मना जायते शूद्र:

इस परिभाषा के अनुसार जन्म से  सभी शूद्र हैं लेकिन समाज के विकसित होने पर जो प्रक्रिया  समाज को सुव्यवस्थित ढंग चलाने के लिए अपनाई गई उसे ही वर्ण व्यवस्था का नाम दिया जिसकी परिकल्पना हमारे मनीषियों ने सृष्टि कर्ता ब्रह्मा के शरीर से माना है,  जिसके चार वर्ण हैं ‌ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। किन्तु, वर्ण क्रम के प्रतिनिधित्व के लिए गुण और कर्म के सिद्धान्त को अपनाया गया। मानव योनि में जन्म लेने वाले मनुष्य ने जैसा कर्म किया वैसे ही क्रम के अनुसार जीवन शैली अपनाकर कर उसी वर्ण का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन बदलते समय के अनुसार  यही व्यस्था कालांतर में जातिवाद में परिवर्तित हो गई।  जिसके चलते ऊंच, नीच, छोटा-बड़ा, छुआ छूत की खाई पैदा हुई जिसने हिंदू धर्म को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया और सामाजिक समरसता में बाधक बनी, जब कि वर्ण व्यवस्था में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में कर्म के अनुसार सदस्यता ग्रहण करने की इजाजत थी ।

जीवन – जन्म और मृत्यु के बीच के बिताए गये पलों (समय) को जीवन चक्र कहा जाता है। जीवन काल में इस स्थूल शरीर की संरचना उम्र के अनुसार, बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था तथा बुढ़ापे में बदलती  रहती है जब कि शरीर में व्याप्त आत्मा का स्वरूप  सदैव एक सा रहता है। गर्भाधान संस्कार से अंतेष्टि संस्कारों के बीच सोडष संस्कार  सामाजिक जीवन  के आदर्श आचार संहिता के अनुसार कर्मकांड आधारित है, जिन्हें मानव  अपने आचरण में धारण कर जीवन जीता है।

संस्कारों से ओत-प्रोत जीवन शैली मानव समाज को गरिमा प्रदान करती है संस्कारविहीन समाज का विकास नहीं होता तथा तमाम विद्रूपता दिखाई देती है, तथा मानव जीवन त्रासद हो जाता है।

व्यक्ति सोडष संस्कारों को जीवन में आत्मसात कर के ही आदर्श समाज की संरचना करता है, संस्कार विहीन समाज पथभ्रष्ट होकर छिन्न भिन्न हो जाता है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 5 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 5 ??

उत्सव का महत्व :

मनुष्य मूल रूप से उत्सवधर्मी है। संदर्भ भारतीय परंपरा और दर्शन का हो तो यह उत्सव जन्म से मृत्यु तक चलता है। हमारे षोडश संस्कार तो जन्म से पूर्व ही आरंभ हो जाते हैं और मृत्यु के लगभग दो पक्ष बाद तक चलते हैं। यह तब है जब छमाही और वार्षिक श्राद्ध/गया श्राद्ध इत्यादि को इस इस संदर्भ में शामिल नहीं किया गया है।  जन्म की आहट सुनाई देने पर बजने वाला बैंड भरपूर आयु लेकर गुजरे व्यक्ति की अंत्येष्टि में भी बजता है। कर्मठ भारतीय जनमानस निष्काम भाव से पाने और खोने को विधि हाथ छोड़कर अपनी सीमाओं में आनंद मनाना जानता है। गोस्वामी जी ने प्रभु श्रीराम के मुख से कहलवाया  है,

हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस  विधि हाथ।

उत्सव जीवन को नीरसता से बाहर लाते हैं। मानसिक विरेचन का साधन बनते हैं उत्सव। किसी भी समुदाय को अपने अतीत से जोड़कर परंपरा के निर्वहन का वाहक, कारक, साधन और साधक होते हैं उत्सव।

समरसता और सामाजिक जुड़ाव मनुष्य जीवन के महत्वपूर्ण बिंदु हैं। नीरसता या एकरसता से समरसता की यात्रा शब्दों में एक ही वाक्य में पूरी हो जाती है पर जीवन में पर्व, त्योहार और उत्सव के माध्यम से प्रकट होती है। इनके साथ ॠतुचक्र और खगोलीय परिवर्तन भी जुड़े हैं। उदाहरण के लिए मांडने, रंगोली, गेरू-चूना, गोबर इन सब में एक दूसरे के साथ समूह में काम किया जाता था।  मांडने में जो प्रतीक हैं वे सारे सामासिकता के हैं। प्रतीक प्रकृति से लिए गए हैं। लोक का हर त्यौहार सामासिक है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 119 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 119 ☆

☆ अधूरी ख़्वाहिशें

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं  की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4 ??

भारतीय संविधान और सामासिकता :

एकात्मता भारत का प्राण है। यही कारण है कि भारतीय संविधान ने भी सामासिक संस्कृति या ‘कंपोजिट कल्चर’ का उल्लेख किया है। कंपोजिट शब्द का उपयोग भारत के संविधान में यूँ ही नहीं किया गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में बनी इस सभा में भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किये हुए अनेक लोग थे। इनमें सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पुरुषोत्तमदास टंडन, गोविंदवल्लभ पंत, सच्चिदानंद सिन्हा, वी.टी.कृष्णमाचारी,  हरेन्द्रकुमार मुखर्जी, आचार्य कृपलानी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरदार बलदेवसिंह, आबिद हुसैन, सेठ गोविंद दास, पंजाबराव देशमुख, गोपीनाथ बारदोलोई, कन्हैयालाल मुंशी, नरहर विष्णु गाडगील, मोटूरि सत्यनारायण, नीलम संजीव रेड्डी, रामनाथ गोयनका, ठक्कर बापा, गणेश वासुदेव मालवणकर जैसे कुछ सदस्यों के नाम उल्लेेखनीय हैं। 389 सदस्यों की इस सभा के सदस्य ही स्वतंत्र भारत की पहली संसद के सदस्य भी बने।

इस सभा द्वारा उपयोग किये सामासिक शब्द को समझने का प्रयास किया जाय।

समास का अर्थ है योग, दो या दो से अधिक का योग। अंग्रेजी का शब्दकोश उठाकर देखें तो स्पष्ट होता है कि दो या अधिक भिन्न संस्कृति वाले लोग जब साथ आते हैं तो कंपोजिट बनता है।  लेखक की दृष्टि में सामासिक शब्द अपने अर्थ में कंपोजिट की तुलना में विराट है। मिलना, जुलना, जुड़ना, एक साथ आना, एकात्म होना अर्थात सामासिक होना। सामासिक होना अर्थात भारतीय होना अर्थात एक अर्थ में भारत होना।

सामासिकता और उत्सव :

सामासिकता के दर्शन दो स्तर पर होते हैं।  अंतर्भूत सामासिकता सूक्ष्म शरीर की भाँति होती है जिसके दर्शन के लिए देखने को दृष्टि में बदलना होता है। दूरबीन या बाइनोक्यूलर के स्थान पर सूक्ष्मदर्शी या माइक्रोस्कोप को काम में लाना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य की देह पंचतत्वों से बनी है। कहा भी गया है-

क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व से बना सरीरा।

इन पंचतत्वों में पानी है जिससे देह का तीन चौथाई भाग बना है।  देह की घट-घट में बसा है पानी पर निरी आँख से नहीं दिखता अंतर्भूत जल। उसे देखने, अनुभूत करने के लिये पहले कहे अनुसार देखने को दृष्टि में बदलना पड़ता है।

दूसरा स्तर खुली आँखों से देखा, निहारा जा सकता है। मनुष्य का भीतर जैसा होता है, बाहर का व्यवहार भी वैसा ही होता है। पानी पीता हुआ मनुष्य सहज ही दिखता है। इसी भाँति उत्सव, मेले और तीर्थटन जनमानस की नस- नस में बसी सामासिकता का दर्शन कराते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 70 ☆ नारी शक्ति ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “नारी शक्ति।)

☆ किसलय की कलम से # 70 ☆

☆ नारी शक्ति ☆ 

प्राचीन भारत का लिखित-अलिखित इतिहास साक्षी है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्त्व का आकलन कम नहीं किया, न ही मैत्रेयी, गार्गी, विद्योत्त्मा, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती के भारत में इनका महत्त्व कम था। हमारे वेद और ग्रंथ शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। इतिहास वीरांगनाओं के बलिदानों का साक्षी है। जब आदिकाल से ही मातृशक्ति को सोचने, समझने, कहने और कुछ कर गुजरने के अवसर मिलते रहे हैं तब वर्तमान में क्यों नहीं? आज जब परिवार, समाज और राष्ट्र नारी की सहभागिता के बिना अपूर्ण है तब हमारा दायित्व बनता है कि हम बेटियों में दूना-चौगुना उत्साह भरें। उन्हें घर, गाँव, शहर, देश और अंतरिक्ष से भी आगे सोचने का अवसर दें। उनकी योग्यता और क्षमता का उपयोग समाज और राष्ट्र विकास में होनें दें।

आज भले हम विकास के अभिलेखों में नारी सहभागिता को उल्लेखनीय कहें परंतु पर्याप्त नहीं कह सकते। अब समय आ गया है कि हम बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए गहन चिंतन करें. सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा, अमृता प्रीतम, डॉ. सुब्बु लक्ष्मी, पी. टी. उषा जैसी नारियाँ वे हस्ताक्षर हैं जो विकास पथ में “मील के पत्थर” सिद्ध हुई हैं, फिर भी नयी नयी दिशाओं में, नये आयामों में, सुनहरे कल की ओर विकास यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रहेगी। पहले नारी चहार दीवारी तक ही सीमित थी, परंतु आज हम गर्वित हैं कि नारी की सीमा समाज सेवा, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा खेलकूद, साहित्य और संगीत को लाँघकर दूर अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। भारतीय मूल की नारी ने ही अंतरिक्ष में जाकर अपनी उपस्थिति से नारी जगत को गौरवान्वित किया है। महिला वर्ग में शिक्षा के प्रति जागरूकता, पुरुषों की नारी के प्रति बदलती हुई सकारात्मक सोच, नारी प्रतिभा और महत्त्व का एहसास आज सभी को हो चला है। उद्योग-धंधे या फिर तकनीकि, चिकित्सा आदि का क्षेत्र ही क्यों न हो, नारी प्रतिनिधित्व स्वाभाविक सा लगने लगा है। अनेक क्षेत्रों में नारी पुरुषों से कहीं आगे निकल गई है।

समाज महिला और पुरुष दोनों वर्गों का मिला-जुला स्वरूप है। चहुँमुखी विकास में दोनों की सक्रियता अनिवार्य है। महिलाओं में प्रगति का अर्थ है आधी सामाजिक चेतना और जन-कल्याण। महिलाएँ घर और बाहर दोनों जगह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं, बशर्ते वे शिक्षित हों। जागरूक हों। उन्हें उत्साहित किया जाए। उन्हें आभास कराया जाए कि नारी तुम्हारे बिना विकास सदैव अपूर्ण रहेगा। अब स्वयं ही तुम्हें अपने बल, बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने का वक्त आ गया है। कब तक पुरुषों का सहारा लोगी? बैसाखी पकड़कर चलने की आदत कभी स्वावलंबन नहीं बनने दे सकती। कर्मठता का दीप प्रज्ज्वलित करो। श्रम की सरिता बहाओ। बुद्धि का प्रकाश फैलाओ और अपनी ” नारी शक्ति ” का वैभव दिखला दो। नारी विकास के पथ में आने वाले सारे अवरोधों को हटा दो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकालकर कूद पड़ो विकास के महासमर में। छलाँग लगा दो विज्ञान और तकनीकि के अंतरिक्ष में। परिस्थितियाँ और परिवेश बदले हैं। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। दृढ़ आत्मविश्वास की और आवश्यकता है। मात्र नारी मुक्ति आंदोलनों से कुछ नहीं होगा! पहले तुम्हें स्वयं अपना ठोस आधार निर्मित करना होगा। इसके लिए शिक्षा, कर्मठता का संकल्प, भविष्य के सुनहरे सपने और आत्मविश्वास की आधार शिलाओं की आवश्यकता है। इन्हें प्राप्त कर इन्हें ही विकास की सीढ़ी बनाओ और पहुँचने की कोशिश करो, प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर। कोशिशें ही तो कर्म हैं। कर्म करती चलो। परिणाम की चिंता मत करो। नारी तुम्हारा श्रम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी सहभागिता, तुम्हारे श्रम सीकर व्यर्थ नहीं जाएँगे। कल तुम्हारा होगा। तुम्हारी तपस्या का परिणाम निःसंदेह सुखद ही होगा, जिसमें तुम्हारी, हमारी और सारे समाज की भलाई निहित है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष#107 ☆ कैसे कहूँ विरह की पीर…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “कैसे कहूँ विरह की पीर….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 107 ☆

☆ कैसे कहूँ विरह की पीर….

 

पल पल राह निहारे आँखें, मनवा होत अधीर

जब से बिछुड़े श्याम साँवरे, अँखियन बरसत नीर

नैनन नींद न आबे मोखों, छूट रहा है धीर

बने द्वारिकाधीश जबहिं से, भूले माखन खीर

व्याकुल राधा बोल न पावें, चुभें विरह के तीर

दर्शन बिनु “संतोष” न आबे, काहे खेंचि लकीर

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 3 ??

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। दुनिया की अन्यान्य सभ्यताएँ जब समुदाय या पड़ोसी से प्रेम करने की सीख दे रहे थे, उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

(महोपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति।  ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

(कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥ (गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥ (11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ (6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत का यह अनहद नाद सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

श्रीमद्भागवत (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ। 

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।

शांतिपाठ का पूर्णता की सम्पूर्णता बखानता यह श्लोक भी इसी अद्भुत सत्य की तार्किक पुष्टि करता है-

ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते!

सचमुच सामासिकता का परम है यह। मनुष्य मात्र नहीं सारे सजीव और निर्जीव में भी परम शक्ति देखने से बढ़कर सुदर्शन और क्या होगा! सब में एक ही आत्मा देखना अर्थात एक आत्मा होना भारतीयता के कण-कण में है। इसी संदर्भ में लेख के आरंभ में संत नामदेव महाराज के जीवन से जुड़ा प्रसंग प्रयोजनीय हो जाता है। गोस्वामी जी का ‘सकल राममय जानि’ इसी दर्शन का पुनरुच्चार है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

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? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ??

राष्ट्र का संगठन :

राष्ट्र का गठन राज्य या प्रदेश से होता है। प्रदेश, जनपद से मिलकर बनते हैं। जनपद की इकाई तहसील होती है। तहसील नगर और गाँवों से बनती है। नगर या गाँव वॉर्ड अथवा प्रभाग से, प्रभाग मोहल्लोेंं से, मोहल्लेे परिवारों से और परिवार, व्यक्ति से बनता है। इस प्रकार व्यक्ति या नागरिक, राष्ट्र की कोशिका है। व्यक्तियों के संग से संघ के रूप में उभरता है राष्ट्र।

व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि  एवं एकात्मता :

संगी-साथी हो चाहे जीवनसंगी, किसीका साथ न हो तो मनुष्य पगला जाता है। मनुष्य को साथ चाहिए, मनुष्य को समाज चाहिए। दूसरे शब्दों में ’मैन इज़ अ सोशल एनिमल।’

सामाजिक होने का अर्थ है कि मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। अकेला नहीं रह सकता, अत: स्त्री-पुरुष साथ आए। यूँ भी सृष्टि युग्मराग है। प्रकृति और पुरुष साथ न हों तो सृष्टि चलेगी कैसे?

पाषाणयुग में स्त्री, पुरुष दोनों शिकार करने में सक्षम थे, आत्मनिर्भर थे। आरंभ में लैंगिक आकर्षण के कारण वे साथ आए। यौन सम्बंध हुए, स्त्री ने गर्भ धारण किया। गर्भ में जीव क्या आया मानो मनुष्य की मनुष्यता अवतरित हुई।

वस्तुत: मनुष्य में विराटता अंतर्भूत है। विराट एकाकी नहीं होता और सज्जन में, शठ में सब में होती है। इसी विराटता ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर पैर पसारना आरंभ किया। मनुष्य में समूह जागा।

गर्भवती के लिये शिकार करना कठिन था। सुरक्षित प्रसव का भी प्रश्न रहा होगा। भूख, सुरक्षा, शिशु का जन्म आदि अनेक भाव एवं विचार होंगे जिन्होंने सहअस्तित्व तथा दायित्वबोध को जन्म दिया।

मनुष्य का परिवार पनपा। परिवार के लिये बेहतर संसाधन जुटाने की इच्छा ने मनुष्य को विकास के लिये प्रेरित किया। अब पास-पड़ोस भी आया। मनुष्य सुख दुख बाँटना चाहता था। वह समूह में रहने लगा। इसे विकास की मानसिक प्रक्रिया या प्रोसेस ऑफ साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन कह सकते हैं।

वैसे इन तमाम सिद्धांतों से पहले अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद,  ईश्वर का ज्ञानोपदेश सीधे लेकर आ चुका था। स्पष्ट उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

 ( ऋग्वेद 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें। ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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