श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
टीप – नाटक भिखारिन की मौत श्रृंखला का प्रकाशन कल से पुनः यथावत रहेगा।
संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श
भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी है। यही कारण है कि जन्म, परण और मरण तीनों के साथ उत्सव जुड़ा है। इस उत्सवप्रियता का एक चित्र इस लेखक की एक कविता की पंक्तियों में देखिए-
पुराने पत्तों पर नई ओस उतरती है,
अतीत की छाया में वर्तमान पलता है,
सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,
अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।
नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।
भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। हमारी आँचलिक रीतियों में कालगणना के लिए लगभग तीस प्रकार के अलग-अलग कैलेंडर या पंचांग प्रयोग किए जाते रहे हैं। इन सभी की मान्यताओं का पालन किया जाता तो प्रतिमाह कम से कम दो नववर्ष अवश्य आते। इस कठिनाई से बचने के लिए स्वाधीनता के बाद भारत सरकार ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को मानक पंचांग के रूप में मानता दी। इस कैलेंडर के अनुसार 1 जनवरी को नववर्ष होता है। भारत सरकार ने सरकारी कामकाज के लिए देशभर में शक संवत चैत्र प्रतिपदा से इस कैलेंडर को लागू किया पर तिथि एवं पक्ष के अनुसार मनाये जाने वाले भारतीय तीज-त्योहारों की गणना में यह कैलेंडर असमर्थ था। फलत: लोक संस्कृति में पारंपरिक पंचांगों का महत्व बना रहा। भारतीय पंचांग ने पूरे वर्ष को 12 महीनों में बाँटा है। ये महीने हैं, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ एवं फाल्गुन। चंद्रमा की कला के आरोह- अवरोह के अनुसार प्रत्येक माह को दो पक्षों में बाँटा गया है। चंद्रकला के आरोह के 15 दिन शुक्लपक्ष एवं अवरोह के 15 दिन कृष्णपक्ष कहलाते हैं। प्रथमा या प्रतिपदा से आरंभ होकर कुल 15 तिथियाँ चलती हैं। शुक्लपक्ष का उत्कर्ष पूर्णिमा पर होता है। कृष्ण पक्ष का अवसान अमावस्या से होता है। देश के बड़े भूभाग पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।
महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढीपाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला जरीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।
माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगे घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।
प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। जरी के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढीपाडवा।
कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। मान्यता वही कि ब्रह्मदेव ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया था। आम की पत्तियों एवं रंगावली से घर सजाए जाते हैं। ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु का पूजन होता है। वर्ष भर का पंचांग जानने के लिए मंदिरों में जाने की प्रथा है। इसे ‘पंचांग श्रवणं’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। ‘कोडिवस्त्रम्’ अर्थात नये वस्त्र धारण कर नागरिक किसी मंदिर या धर्मस्थल में दर्शन के लिए जाते हैं। इसे ‘विशुकणी’ कहा जाता है। इसी दिन अन्यान्य प्रकार के धार्मिक कर्मकांड भी संपन्न किये जाते हैं। यह प्रक्रिया ‘विशुकैनीतम’ कहलाती है। ‘विशुवेला’ याने प्रभु की आराधना में मध्यान्ह एवं सायंकाल बिताकर विशु विराम लेता है।
असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर किये जाने वाले ‘मुकोली बिहू’ नृत्य के कारण यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।
संकीर्ण धार्मिकता से ऊपर उठकर अनन्य प्रकृति के साथ चलने वाली भारतीय संस्कृति का मानव समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है। इस व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भिन्न धार्मिक संस्कृति के बावजूद बांग्लादेश में ‘पोहिला बैसाख’ को राष्ट्रीय अवकाश दिया जाता है। नेपाल में भी भारतीय नववर्ष वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को पूरी धूमधाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर मैं भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।
उष्ण राष्ट्र होने के कारण भारत में शीतल चंद्रमा को प्रधानता दी गई। यही कारण है कि भारतीय पंचांग, चंद्रमा की परिक्रमा पर आधारित है जबकि ग्रीस और बेबिलोन में कालगणना सूर्य की परिक्रमा पर आधारित है।
भारत में लोकप्रिय विक्रम संवत महाराज विक्रमादित्य के राज्याभिषेक से आरंभ हुआ था। कालगणना के अनुसार यह समय ईसा पूर्व वर्ष 57 का था। इस तिथि को सौर पंचांग के समांतर करने के लिए भारतीय वर्ष से 57 साल घटा दिये जाते हैं।
इस मान्यता और गणित के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा याने दीपावली के अगले दिन भी नववर्ष मानने की प्रथा है। गुजरात में नववर्ष इस दिन पूरे उल्लास से मनाया जाता है। सनातन परंपरा में साढ़े मुहूर्त अबूझ माने गये हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया एवं विजयादशमी। आधा मुहूर्त याने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा। इसी वजह से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को पूरे भारत में व्यापारी नववर्ष के रूप में भी मान्यता मिली। कामकाज की सुविधा की दृष्टि से आर्थिक वर्ष भले ही 1 अप्रैल से 31 मार्च तक हो, पारंपरिक व्यापारी वर्ष दीपावली से दीपावली ही माना जाता है।
भारतीय संस्कृति जहाँ भी गई, अपने पदचिह्न छोड़ आई। यही कारण है कि श्रीलंका, वेस्टइंडीज और इंडोनेशिया में भी अपने-अपने तरीके से भारतीय नववर्ष मनाया जाता है। विशेषकर इंडोनेशिया के बाली द्वीप में इसे ‘न्येपि’ नाम से मनाया जाता है। न्येपि मौन आराधना का दिन है।
मनुष्य की चेतना उत्सवों के माध्यम से प्रकट होती है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि इसकी उत्सव की परंपरा के साथ जुड़ा है गहन विमर्श। भारतीय नववर्ष भी विमर्श की इसी परंपरा का वाहक है। हमारी संस्कृति ने प्रकृति को ब्रह्म के सगुण रूप में स्वीकार किया है। इसके चलते भारतीय उत्सवों और त्यौहारों का ऋतुचक्र के साथ गहरा नाता है। चैत्र प्रतिपदा में लाल पुष्पों की सज्जा हो, पतझड़ के बाद आई नीम की नयी कोंपलें हो, बैसाखी में फसल का उत्सव हो या बिहू में चावल से बना ‘पिठ’ नामक मिष्ठान। हर एक में ऋतुचक्र का सानिध्य है, प्रकृति का साथ है।
सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-
न राग बदला न लोभ,न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर।
परिवर्तन का संवत्सर केवल कागज़ों पर ना उतरे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो। इति।
© संजय भारद्वाज
(सर्वाधिकार, लेखक के अधीन हैं।)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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