हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 90 ☆ जीने का हुनर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीने का हुनर। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 90 ☆

☆ जीने का हुनर

‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात नि:संकोच सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला से भी अवगत होना चाहिए, जिसके लिए उसमें संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।

‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सबसे दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि ‘गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।

आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते; आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलें, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलें, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।

सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दाँव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन व शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते; सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था, विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि- नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में जैसी भी विषम परिस्थितियां हों; मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए… सम-भाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लाँघ जाता है, जिसका खामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं; उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानुकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग करना उसी प्रकार अपेक्षित है, जैसे हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे; उसे ग्रहण कर शेष को त्याग देना बेहतर है। अक्सर क्रोध में मानव कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो; सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं और उनके इलाज के लिए कोई मरहम नहीं होती।

हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा हैं… उसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लें, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वास्तव में यह मानव मन में गहराई से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित होकर ‘हैलो-हाय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम-सा पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।

अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करें और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहें। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है– सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास करके, मन की बात न कहने का संदेश प्रेषित किया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। सगे-संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों को दूर से दुआ-सलाम कीजिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।

‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हाँट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, तो हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+ वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं–दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।

अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते; क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते; भूल जाइये। हर क्षण को जीएं, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्-प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि वह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है; नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण कर धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह, संशय व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है। परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो और फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय।’ सो! भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 42 ☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ”.)

☆ किसलय की कलम से # 42 ☆

☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆

 कुछ वर्षों पूर्व स्वाधीनता दिवस पर देश के प्रधानमंत्री जी ने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से हर विकासखंड में एक आदर्श ग्राम विकसित करने का आह्वान किया था।

यदि इस योजना पर गंभीरतापूर्वक अमल हुआ होता तो निश्चित ही देश का कायाकल्प हो जाता। आज भी गाँवों से गरीबी एवं बेरोजगारी के कारण बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन जारी है। कहीं न कहीं सरकारी तंत्र की उदासीनता ग्रामीण प्रगति के आड़े आती है। ग्राम विकास की पहले भी कई योजनाएँ चलाई गईं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में खामियों और भ्रष्टाचार के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके हैं। हमारे देश में विकास का आधार गाँव ही हैं। आज भी हमारी अधिसंख्य आबादी गाँवों में ही निवास करती है। जब तक गाँवों में शिक्षा, विकास एवं सम्मानजनक जीवनशैली के प्रति जागरूकता नहीं आती। जब तक तीव्रगामी शहरों की तरह ग्रामीण प्रगति भी प्रतिस्पर्धात्मक रूप नहीं लेती। जब तक हमारी सरकारें ग्रामीण विकास की योजनाओं के लिए समुचित बजट आवंटन और योजनाओं के क्रियान्वयन की पारदर्शी व्यवस्था लागू नहीं करतीं, तब तक  ‘सुविकसित गाँव’ का सपना यथार्थतः साकार होना मुश्किल ही लगता है। हमें देखना होगा कि सरकारें आशा के अनुरूप आदर्श ग्राम योजना हेतु बजट आवंटित करती रहेंगी अथवा ये भी हवा हवाई घोषणाएँ ही सिद्ध होंगी। सरकारें विकास के क्या पैमाने बनाती हैं और योजनाओं को कैसे अमल में लाती हैं। सिर्फ नेक सोच जताने या घोषणा करने से काम नहीं चलेगा। आप, हम, सभी को यह भी स्मरण रखना होगा कि सुपरिणामों के बाद ही सही मायनों में इंसान वाहवाही का हकदार होता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆

माँ, सुबह के कामकाज करते हुए अपने मीठे सुर में एक भजन गाती थीं, “उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।”

बरसों से माँ का यह स्वर कानों में बसा है। माँ अब भी गाती हैं। अब कुछ शरीर साथ नहीं देता, कुछ भूल गईं तो समय के साथ कुछ भजन भी बदल गये।

यह बदलाव केवल भजन में नहीं हम सबकी जीवनशैली में भी हुआ है। अब 24×7 का ज़माना है। तीन शिफ्टों में काम करती अधिकतम दोहन की व्यवस्था है। रैन और नींद का समीकरण चरमरा गया है। ‘किचन’ में ज़बरिया तब्दील किया जा चुका चौका है, चौके के नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ी पड़ी हैं। आधी रात को माइक्रोवेव के ऑन-ऑफ होने और फ्रिज के खुलते-बंद होते दरवाज़े की आवाज़े हैं। टीवी की स्क्रिन में धँसी आँखें प्लेट में रखा फास्ट फूड अनुमान से तलाश कर मुँह में ठूँस रही हैं।

हमने सब ध्वस्त कर दिया है। प्रकृति के साथ, प्राकृतिक शैली के साथ भारी उलट-पुलट कर दिया है। भोजन की पौष्टिकता और उसके पाचन में सूर्यप्रकाश व उष्मा की भूमिका हम बिसर चुके। मुँह अँधेरे दिशा-मैदान की आवश्यकता अनुभव करना अब किवदंती हो चुका। अब ऑफिस निकलने से पहले समकालीन महारोग कब्ज़ियत से किंचित छुटकारा पाने की तिकड़में हैं।

देर तक सोना अब रिवाज़ है। बुजुर्ग माँ-बाप जल्दी उठकर दैनिक काम निपटा रहे हैं। बेटे-बहू के कमरे का दरवाज़ा खुलने में पहला पहर लगभग निपट ही जाता है। ‘हाई प्रोफाइल’ के मारों  के लिए तो शनिवार और रविवार ‘रिज़र्व्ड टू स्लिप’ ही है। बिना लांघा रोज होता सूर्योदय देखने से वंचित शहरी वयस्क नागरिकों की संख्या नए कीर्तिमान बना रही है।

कबीरदास जी ने लिखा है-

कबीर सुता क्या करे, जागिन जपे मुरारि

इक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारि।

लम्बे पाँव पसार कर सोने की बेला से पहले हम उठ जाएँ तो बहुत है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 89 ☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कानून, शिक्षा, संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 89 ☆

☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆

कानून, शिक्षा व संस्कार/ समाज से नदारद हो चुके हैं सब/ जी हां! यही है आज का सत्य। बेरोज़गारी, नशाखोरी, भ्रूण-हत्या के कारण लिंगानुपात में बढ़ रही असमानता; संबंधों की गरिमा का विलुप्त होना; गुरु-शिष्य के पावन संबंधों पर कालिख़ पुतना; राजनीतिक आक़ाओं का अपराधियों पर वरदहस्त होना… हैवानियत के हादसों में इज़ाफा करता है। औरत को मात्र वस्तु समझ कर उसका उपभोग करना…पुरुष मानसिकता पर कलंक है, क्योंकि ऐसी स्थिति में वह मां, बहन, बेटी, पत्नी आदि के रिश्तों को नकार उन्हें मात्र सेक्स ऑब्जेक्ट स्वीकारता है।

शिक्षा मानव के व्यक्तित्व का विकास करती है और किताबी शिक्षा हमें रोज़गार प्राप्त करने के योग्य बनाती है; परंतु संस्कृति हमें सुसंस्कृत करती है; अंतर्मन में दिव्य गुणों को विकसित व संचरित करती है; जीने की राह दिखाती है; हमारा मनोबल बढ़ाती है। परंतु प्रश्न उठता है– आज की शिक्षा-प्रणाली के बारे में….क्या वह आज की पीढ़ी को यथार्थ रूप से शिक्षित कर पा रही है? क्या बच्चे ‘हैलो-हाय’ व ‘जीन्स- कल्चर’ की संस्कृति से विमुख होकर भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं? क्या वे गुरु-शिष्य परंपरा व बुज़ुर्गों को यथोचित मान-सम्मान देना सीख पा रहे हैं? क्या उन्हें अपने धर्म में आस्था है? क्या वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा व निष्काम कर्म की अहमियत से वाक़िफ़ हैं? क्या वे प्रेम, अहिंसा व अतिथि देवो भव: की परंपरा को जीवन-मूल्यों के रूप में स्वीकार रहे हैं? क्या जीवन के प्रति उनकी सोच सकारात्मक है?

यदि आधुनिक युवाओं में उपरोक्त दैवीय गुण हैं, तो वे शिक्षित है, सुसंस्कृत हैं, अच्छे इंसान हैं…वरना वे शिक्षित होते हुए भी अनपढ़, ज़ाहिल, गंवार व असभ्य हैं और समाज के लिए कोढ़-सम घातक हैं। वास्तव में उनकी तुलना दीमक के साथ की जा सकती है, क्योंकि दोनों में व्यवहार-साम्य है… जैसे दीमक विशालकाय वृक्ष व इमारत की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देती है; वैसे ही पथ-भ्रष्ट, नशे की गुलाम युवा-पीढ़ी परिवार व समाज रूपी इमारत को ध्वस्त कर देती है। इसी प्रकार ड्रग्स आदि नशीली दवाएं भी जोंक के समान उसके शरीर का सारा सत्व नष्ट कर उसे जर्जर-दशा तक पहुंचा रही हैं। परिणामत: उन युवाओं की मानसिक दशा इस क़दर विक्षिप्त हो जाती है कि वे स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं तथा उचित निर्णय लेने में स्वयं को अक्षम पाते हैं।

संस्कारहीन युवा पीढ़ी समाज पर बोझ है; मानवता पर कलंक है; जो हंसते-खेलते, सुखी-समृद्ध परिवार की खुशियों को लील जाती है और उसे पतन की राह पर धकेल देती है। सो! उन्हें उचित राह पर लाने अर्थात् उनका सही मार्गदर्शन करने में हमारे वेद- शास्त्र, माता-पिता, शिक्षक व धर्मगुरु भी असमर्थ रहते हैं। उस स्थिति में उनके लिए कानून-व्यवस्था है; जिसके अंतर्गत उन्हें अच्छा नागरिक बनने को प्रेरित किया जाता है; अच्छे-बुरे, ग्राह्य-त्याज्य व उचित-अनुचित के भेद से अवगत कराया जाता है तथा कानून की पालना न करने पर दण्डित किया जाना उसकी अनिवार्य शर्त है। प्रत्येक व्यक्ति को अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य-बोध करवाया जाना आवश्यक है, ताकि समाज व देश में स्नेह- सौहार्द, शांति व सुव्यवस्था कायम रह सके।

मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ‘संस्कारों के बिना हमारी व्यवस्था पंगु है, मूल्यहीन है, निष्फल है, क्योंकि जब तक मानव में आस्था व विश्वास भाव जाग्रत नहीं होगा; वह तर्क-कुतर्क में उलझता रहेगा और उस पर किसी भी अच्छी बात का प्रभाव नहीं पड़ेगा। वैसे भी कानून अंधा है; साक्ष्यों पर आधारित है और उनके अभाव में अपराधियों को दंड मिल पाना असंभव है। इसी कारण अक्सर अपराधी दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध करने के पश्चात् भी छूट जाते हैं और स्वच्छंद रूप में विचरण करते रहते हैं… अगला ग़ुनाह करने की फ़िराक में और उसे अंजाम देने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। परिणामत: पीड़ित पक्ष के लोग न्याय से वंचित रह जाते हैं और उन्हें विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। अपराधी बेखौफ़ घूमते रहते हैं और पीड़िता के माता-पिता ही नहीं; सगे-संबंधी भी मनोरोगी हो जाते हैं… डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। अक्सर निर्दोष होते हुए भी उन पर दोषारोपण कर विभिन्न आपराधिक धाराओं के अंतर्गत जेल की सीखचों के पीछे धकेल दिया जाता है, जिसके अंतर्गत उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है।

यह सब देख कर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और वे अपराध-जगत् के शिरोमणि बनकर पूरे समाज में दबदबा कायम रखते हैं। आज मानव को आवश्यकता है…. सुसंस्कारों की, जीवन-मूल्यों के प्रति अटूट आस्था व विश्वास की, ताकि वे शिक्षा ग्रहण कर ‘सर्वहिताय’ के भाव से समाज व देश के सर्वांगीण विकास में योगदान प्रदान कर सकें… जहां समन्वय हो, सामंजस्य हो, समरसता हो और आमजन स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकें। सो! उन पर कानून रूपी अंकुश लगाने की दरक़ार ही न हो। यदि फिर भी समाज में अव्यवस्था व्याप्त हो; विषमता व विसंगति हो और संवेदनशून्यता हावी हो, तो हमें भी सऊदी अरब देशों की भांति कठोर कानूनों को अपनाने की आवश्यकता रहेगी, ताकि अपराधी ग़ुनाह करने से पूर्व, उसके अंजाम के बारे में अनेक बार सोच-विचार करें

जब तक देश में कठोरतम कानून नहीं बनाया जाता, तब तक ‘भ्रूण-हत्या व बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बेमानी अथवा मात्र जुमला बनकर रह जाएगा। ऐसे निर्मम, कठोर, हृदयहीन अपराधियों पर नकेल कसने के साथ उन्हें चौराहे पर फांसी के तख्ते पर लटका दिया जाना ही उसका सबसे उत्तम व सार्थक विकल्प है। वर्षों तक आयोग गठित कर, मुकदमों की सुनवाई व बहस में समय और पैसा नष्ट करना निष्प्रयोजन है। बहन-बेटियों पर कुदृष्टि रखने वालों से आतंकवादियों से भी अधिक सख्ती से निपटने का प्रावधान होना चाहिए।

हां! बच्चे हों या युवा– यदि वे अमानवीय कृत्यों में लिप्त पाये जाएं; तो उनके अभिभावकों के लिए भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए तथा महिलाओं को आत्म-निर्भर बनाने व महिला-सुरक्षा के निमित्त बजट की राशि में इज़ाफ़ा होना चाहिए, ताकि महिलाएं समाज में स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर, स्वतंत्रता से विचरण कर सकें…खुली हवा में सांस ले सकें। इस संदर्भ में शराब के ठेकों को बंद करना, नशे के उत्पादों पर प्रतिबंध लगाना–सरकार के प्राथमिक दायित्व के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।

बेटियों में हुनर है। वे हर क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा रही हैं और हर मुक़ाम पर सफलता अर्जित कर रही हैं। हमें उनकी प्रतिभा को कम नहीं आंकना चाहिए, बल्कि सुरक्षित वातावरण प्रदान करना चाहिए, ताकि उनकी प्रतिभा का विकास हो सके तथा वे निरंकुश होकर सुक़ून से जी सकें। यही होगी हमारी उन बेटियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि… जो निर्भया के रूप में दरिंदगी की शिकार होकर; अपने प्राणों की आहुति दे चुकी हैं। आइए! हम भी इस पावन यज्ञ में यथासंभव समिधा डालें और सुंदर, स्वस्थ, सुरम्य व सभ्य समाज के विकास में योगदान दें; जहां संवेदनहीनता का लेशमात्र भी अस्तित्व न हो।

यह तो सर्वविदित तथ्य है कि संविधान में महिलाओं को समानाधिकार प्रदान किए गए हैं; परंतु वे कागज़ की फाइलों में बंद हैं। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हो रहा है, निर्भयाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, क्योंकि अपराधियों के नये-नये संगठन अस्तित्व में आ रहे हैं। वे ग़िरोह में आते हैं; लूटपाट कर बर्बरता से दुष्कर्म कर, उन्हें बीच राह फेंक जाते हैं। सामान्य-जन उन दहशतगर्दों से डरते हैं, क्योंकि वे किसी के प्राण लेने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। भले ही सरकार ने दुष्कर्म के अपराधियों के लिए फांसी की सज़ा का ऐलान किया है, परन्तु कितने लोगों को मिल पाती है, उनके दुष्कर्मों की सज़ा? प्रमाण आपके समक्ष है…निर्भया के केस की सवा सात वर्ष तक जिरह चलती रही। कभी माननीय राष्ट्रपति से सज़ा-मुआफ़ी की अपील; तो कभी बारी-बारी से क्यूरेटिव याचिका लगाना; अमुक मुकदमे का विभिन्न अदालतों में स्थानांतरण और फैसले की रात को अढ़ाई बजे तक साक्ष्य जुटाने का सिलसिला जारी रहने के पश्चात् अपराधियों को सज़ा-ए-मौत का फरमॉन एवं तत्पश्चात् उसकी अनुपालना… क्या कहेंगे इस सारी प्रक्रिया को आप… कानून का लचीलापन या अवमानना?

यह तो सर्वविदित है कि कोरे वादों व झूठे आश्वासनों से कुछ भी संभव नहीं हो सकेगा। यदि हम सब एकजुट होकर ऐसे परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर, उन्हें उनकी औलाद के भीतर का सत्य दिखाएं, तो शायद! उनकी अंतरात्मा जाग उठे और वे पुत्र-मोह त्याग कर उसे अपनी ज़िंदगी से बे-दखल कर दें। परंतु यदि ऐसे हादसे निरंतर घटित होते रहेंगे… तो लोग बेटियों की जन्म लेने से पहले ही इस आशंका से उनकी हत्या कर देंगे…कहीं भविष्य में ऐसे वहशी दरिंदे उन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाने के पश्चात् निर्दयता से उन्हें मौत के घाट न उतार दें और स्वयं बेखौफ़ घूमते रहें।

वैसे भी आजकल दुष्कर्मियों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा हो रहा है। देश के कोने-कोने में कितनी निर्भया दरिंदगी की शिकार हो चुकी हैं और कितनी निर्भया अपनी तक़दीर पर जीवन भर आंसू बहाने को विवश हैं, बाध्य हैं। यह बताते हुए मस्तक लज्जा-नत जाता है और वाणी मूक हो जाती है कि हर दिन असंख्य मासूम अधखिली कलियों को विकसित होने से पहले ही रौंद कर, उनकी हत्या कर दी जाती है। हमारा देश ही नहीं, पूरा विश्व किस पायदान पर खड़ा है… यह सब बखान करने की शब्दों में सामर्थ्य कहाँ?

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 41 ☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है”.)

☆ किसलय की कलम से # 41 ☆

☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆

 प्रायः यह देखा गया है कि हमारे समाज में वृद्धों की स्थिति अधिकांशतः दयनीय ही होती है, भले ही वे कितने ही समृद्ध एवं सभ्य क्यों न हों। उनकी संतानें उनके सभी दुख-सुख एवं उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाते, मैं ये नहीं बताना चाहता कि इनके पीछे कौन-कौन से तथ्य हो सकते हैं। जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती है या उनका मन चाहता है, वे आसानी से प्राप्त नहीं कर पाते, तब उनके मन एवं मस्तिष्क में उस कमी के कारण चिंता के बीज अंकुरित होने लगते हैं। ये उनके के लिए घातक सिद्ध होते हैं। वैसे भी आधुनिक युग में वृद्ध अपनी जिंदगी से काफ़ी पहले ऊब जाते हैं। अधिकतर वृद्धों के चेहरों पर मुस्कराहट या चिकनाहट रह ही नहीं पाती। उनका गंभीर चेहरा उनके स्वयं की अनेक अनसुलझी समस्याओं का प्रतीक-सा बन जाता है। उनकी एकांतप्रियता दुखी हृदय की ही द्योतक होती है।

इस तरह की परिस्थितियाँ वृद्धावस्था में ही क्यों आती हैं? बचपन और जवानी के दिनों में क्यों नहीं आतीं ? इनके बहुत से कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। बचपन में संतानें माता-पिता पर आश्रित रहती हैं। उनका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा एवं नौकरी-चाकरी तक माँ-बाप लगवा देते हैं। इतने लंबे समय तक बच्चों को किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती। प्रत्येक चाही-अनचाही आवश्यकताओं की पूर्ति माता-पिता ही करते हैं। बच्चे जवानी की दहलीज़ पर पहुँचते-पहुँचते अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और अपने परिवार का भी दायित्व निर्वहन करने में सक्षम हो जाते हैं। अपनी इच्छानुसार अनेक मदों में धन का व्यय करके अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं।

इन्हीं परिस्थितियों एवं समय में वही परंपरागत वृद्धावस्था की समस्या अंकुरित होने लगती है। जब वृद्ध माता-पिता के खान-पान, उनकी उचित देख-रेख और उनके सहारे की अनिवार्य आवश्यकता होती है, इन परिस्थितियों में वे संतानें जिन्हें रात-रात भर जागकर और खुद ही इनके मूत्र भरे गीले कपड़ों में लेटे रहकर इन्हें सूखे बिस्तर में सुलाया। इनका पालन-पोषण और प्रत्येक इच्छाओं को पूरा करते हुए पढ़ाया-लिखाया फिर रोज़ी-रोटी से लगाया  उनका विवाह कराया, उनके हिस्से के सारे दुखों को खुद सहा और वह केवल इसलिए की वे खुश रहें और वृद्धावस्था में उनका सहारा बनें, परंतु आज की अधिकतर कृतघ्न संतानें अपने माता-पिता से नफ़रत करने लगती हैं। उनकी सेवा-सुश्रूषा से दूर भागने लगती हैं। उनकी छोटी-छोटी सी अनिवार्य आवश्यकताओं को भी पूरी करने में रुचि नहीं दिखातीं। ऐसी संतानों को क्या कहा जाए जो उनसे ही जन्म लेकर अपने फ़र्ज़ को निभाने में कोताही करते हैं। उनकी अंतिम घड़ियों में उनकी आत्मा को शांति नहीं पहुँचातीं।

आज ऐसी शिक्षा कि आवश्यकता है जिसमें माता-पिता के लिए भावनात्मक एवं कृतज्ञता की विषयवस्तु का समावेश हो। आवश्यकता है पाश्चात्य संस्कृति के उन पहलुओं से बचने की जिनकी नकल करके हम अपने माता-पिता की भी इज़्ज़त करना भूल जाएँ। वहीं दूसरी ओर समझाईस के रूप में यह भी आवश्यक है की वृद्ध माता-पिता को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संतान के परिपक्व होने के पश्चात उसे अपनी जिंदगी जीने का हक होता है और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप हानिकार ही होगा। अतः बात -बात पर, समय-असमय, अपनी संतानों को भला-बुरा अथवा अपने दबाव का प्रभाव न ही बताना श्रेयस्कर होगा, अन्यथा वृद्धों की यह परंपरागत समस्या निराकृत होने के बजाय भविष्य में और भी विकराल रूप धारण कर सकती है

(पाठकों से निवेदन है कि वे इस आलेख को संकेतात्मक स्वीकार करें, अपवाद तो हर जगह संभव हैं)

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆

प्रातःकालीन भ्रमण पर हूँ। देखता हूँ कि कचरे से बिक्री लायक सामान बीनने वाली एक बुजुर्ग महिला बड़ा सा-थैला लिए चली जा रही है। अंग्रेजी शब्दों के चलन के आज के दौर में इन्हें रैगपिकर कहा जाने लगा है। बूढ़ी अम्मा स्थानीय सरकारी अस्पताल के पास पहुँची कि पीछे से भागता हुआ एक कुत्ता आया और उनके इर्द-गिर्द लोटने लगा। अम्मा बड़े प्यार से उसका सिर सहलाने-थपकाने और फिर समझाने लगीं, ” अभी घर से निकली।  कुछ नहीं है पिशवी (थैले) में।  पहले कुछ जमा हो जाने दे, फिर खिलाती।”  वहीं पास के पत्थर पर बैठ गईं अम्मा और सुनाने लगी अपनी रामकहानी। आश्चर्य! आज्ञाकारी अनुचर की तरह वहीं बैठकर कुत्ता सुनने लगा बूढ़ी अम्मा की बानी। अम्मा ने क्या कहा, श्वानराज ने क्या सुना, यह तो नहीं पता पर इसका कोई महत्व है भी नहीं।

महत्व है तो इस बात का कि जो कुछ अम्मा कह रही थी, प्रतीत हो रहा था कि कुत्ता उसे सुन रहा है। महत्व है संवाद का, महत्व है विरेचन। कहानी सुनते समय ‘हुँकारा’ भरने अर्थात ‘हाँ’ कहने की प्रथा है। कुत्ता निरंतर पूँछ हिला रहा है। कोई सुन रहा है, फिर चाहे वह कोई भी हो लेकिन मेरी बात में किसी की रुचि है, कोई सिर हिला रहा है, यह अनुभूति जगत का सबसे बड़ा मानसिक विरेचन है।

कैसा विरोधाभास है कि घर, आंगन, चौपाल में बैठकर बतियाने वाले आदमी ने मेल, मैसेजिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सएप, टेलिग्राम जैसे संवाद के अनेक द्रुतगामी प्लेटफॉर्म विकसित तो कर लिए लेकिन ज्यों-ज्यों कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्मों से नज़दीकी बढ़ी, प्रत्यक्ष संवाद से दूर होता गया आदमी। अपनी अपनी एक कविता याद आती है,

“खेत/ कुआँ/ दिशा-मैदान/ हाट/  सांझा चूल्हा/  चौपाल/ भीड़ से घिरा/ बतियाता आदमी…, कुरियर/टेलीफोन/ मोबाइल/ फोर जी/  ईमेल/ टि्वटर/ इंस्टाग्राम/ फेसबुक/  व्हाट्सएप/ टेलिग्राम/  अलग-थलग पड़ा/  अकेला आदमी…”

तमाम ई-प्लेटफॉर्मों पर एकालाप सुनाई देता है।  मैं, मैं और केवल मैं का होना, मैं, मैं और केवल मैं का रोना… किसी दूसरे का सुख-दुख सुनने  का किसी के पास समय नहीं, दूसरे की तकलीफ जानने-समझने की किसी के पास शायद इच्छा भी नहीं। संवाद के अभाव में घटने वाली किसी दुखद घटना के बाद संवाद साधने की हिदायत देने वाली पोस्ट तो लिखी जाएँगी पर लिखने वाले हम खुद भी किसी से अपवादस्वरूप ही संवाद करेंगे। वस्तुत: हर वाद, हर विवाद का समाधान है संवाद। हर उलझन की सुलझन है संवाद। संवाद सेतु है। यात्रा दोनों ओर से हो सकती है। कभी अपनी कही जाय, कभी उसकी सुनी जाय। अपनी एक और रचना की कुछ पंक्तियाँ संक्षेप में बात को स्पष्ट करने में सहायक होंगी,

विवादों की चर्चा में/ युग जमते देखे/  आओ संवाद करें/ युगों को पल में पिघलते देखें/… मेरे तुम्हारे चुप रहने से/ बुढ़ाते रिश्ते देखे/ आओ संवाद करें/ रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें/…

नयी शुरुआत करें, आओ संवाद करें !

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 88 ☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 88 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 40 ☆ भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका ऐतहासिक, ज्ञानवर्धक एवं रोचक आलेख  “भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’”.)

☆ किसलय की कलम से # 40 ☆

☆ भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’ ☆

मध्य प्रदेश में स्थित जबलपुर विशाल भारत के प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण नगरों में से एक है। आचार्य विनोबा भावे द्वारा ‘संस्कारधानी‘ नाम से विभूषित जबलपुर शब्द की उत्पत्ति के संबंध में इसको जाउलीपत्तन का अपभ्रंश माना जा सकता है जो कि कल्चुरी नरेश जयसिंह के ताम्रलेख के अनुसार एक मण्डल था। जाबालि ऋषि की तपोभूमि होने के कारण इसे जाबालीपुरम् से भी जोड़ा जाता है। जबलपुर एवं इसका निकटवर्ती प्रक्षेत्र ऐतिहासिक, दार्शनिक, राजनैतिक, साहित्यिक एवं सामरिक दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखता है।

प्राकृतिक सुन्दरता की गोद में बसे जबलपुर की दक्षिण – पश्चिम दिशा में बहती पावन नर्मदा एवं दूर तक दृष्टिगोचर होती पर्वत श्रृंखलाओं के फलस्वरूप इस नगर की सुन्दरता में एक अनोखा सामंजस्य बन गया है। भेड़ाघाट में संगमरमरी चट्टानों की सुरम्य घाटियों के दृश्य देखते हुए लोगों की आँखें आश्चर्य चकित हो जाती हैं। पास ही प्रकृति की अनोखी धरोहर ‘धुआँधार‘ नामक जलप्रपात के रूप में दिखाई देता है।

यहीं पहाड़ी पर बना चौसठ योगिनी का मन्दिर प्राचीन शिल्पकला का अनूठा उदाहरण है। एक चक्र के आकार में 86 से भी अधिक देवी, देवताओं एवं योगिनियों की मूर्तियों में अद्भुत शिल्पकला के दर्शन होते हैं। भेड़ाघाट के समीप ही नर्मदा के  लम्हेटाघाट में पाई जाने वाली चट्टानें विश्व की प्राचीनतम् चट्टानों में गिनी जाती हैं। भूगर्भशास्त्रियों द्वारा इनकी  प्राचीनता लगभग 50 लाख वर्ष बताई गई है जिन्हें विश्व की भूगर्भीय भाषा में लम्हेटाईट नाम से जाना जाता है। जबलपुर की पश्चिम दिशा में भेड़ाघाट रोड पर स्थित वर्तमान तेवर ही कल्चुरियों की राजधानी त्रिपुरी है जो कि शिशुपाल चेदि राज्य का वैभवशाली नगर था। इसी त्रिपुरी के त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध करने के कारण ही भगवान शिव का नाम ‘त्रिपुरारि‘ पड़ा।

गांगेय पुत्र कल्चुरी नरेश कर्णदेव एक प्रतापी शासक हुए, जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे।

कल्चुरियों के पश्चात गौंड़ वंश का इतिहास सामने आता है और गढ़ा-मण्डला की वीरांगना रानी दुर्गावती की वीरता तथा देशभक्ति याद आती है। मुगलों से लड़ते हुए उनके पुत्र वीरनारायण की शहादत एवं अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए स्वयं के प्राणोत्सर्ग की घटना दुर्लभ कही जा सकती है। महारानी दुर्गावती के पूर्व मदनशाह की स्मृति में सुरम्य पहाड़ियों के मध्य बना मदन महल हो अथवा रानी दुर्गावती नाम का रानीताल, दुर्गावती के सेनापति अधार सिंह के नाम से अधारताल, श्वसुर संग्राम शाह के नाम से संग्राम सागर,, चेरी अर्थात दासी की स्मृतियों में बने चेरीताल के रूप में आज भी गौड़ वंश की स्मृतियाँ जीवित हैं। गौंड़ साम्राज्य चार भागों में बँटा हुआ था। उत्तर प्रान्त की राजधानी सिंगौरगढ, दक्षिण-पूर्व की मण्डला, पश्चिम की चौरागढ़ तथा मध्य की गढ़ा राजधानी थी। गढ़ा समस्त साम्राज्य का केन्द्र था।

स्वतंत्रा संग्राम की लड़ाई में भी जबलपुर का सक्रिय योगदान रहा है। भारत में झण्डा आंदोलन का सूत्रपात जबलपुर से ही हुआ था। जबलपुर वासियों की स्वतंत्रता के प्रति सक्रयिता का ही परिणाम था कि सन् 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस का 52 वाँ ‘त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन’ जबलपुर में हुआ था। ज्ञातव्य है कि इस अधिवेशन में महात्मा गांधी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को हराकर सुभाष चन्द्र बोस के राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी और उनके बीच मतभेद की परिणति सुभाष बाबू के फारवर्ड ब्लाक के गठन के रूप में हुई, जिसकी स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐतिहासिक दृष्टि यह बात भी सदैव याद की जाएगी  कि श्री सुभाष चन्द्र बोस स्वतंत्रा आंदोलन में जबलपुर सेन्ट्रल जेल में भी रहे हैं।

‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी‘ कविता की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान, व्यंग्य विधा के जनक हरिशंकर परसाई जैसे साहित्यकारों की नगरी जबलपुर में ख्यातिलब्ध व्यक्तित्वों की कमी नहीं रही। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र, मध्य प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष कुंजीलाल दुबे, सेठ गोविन्ददास, राजर्षि परमानन्द भाई पटेल, राजस्थान के पूर्व राज्यपाल निर्मल चंद जैन, साहित्य मनीषी रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल‘ एवं मध्य प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी का नाम कौन नहीं जानता।

जबलपुर की माटी और संस्कृति में पल्लवित आचार्य रजनीश (ओशो) एवं महर्षि महेश योगी विश्वविख्यात विभूतियाँ हैं। सम्पूर्ण भारत के डाकतार विभाग में पिन कोड अर्थात पोस्टल इन्डेक्स नंबर की प्रणेता भी जबलपुर की ही श्रीमती चौरसिया थीं। मध्य प्रदेश राज्य की विद्युत कंपनियों के मुख्यालय, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, पश्चिम-मध्य रेलवे जोन मुख्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय एवं आयुध निर्माणियों का यह नगर देश में अपना विशेष स्थान रखता है।

उपनगरीय क्षेत्र गढ़ा में पर्वत श्रृंखला पर स्थित जैन मंदिर समूह एवं नीचे नंदीश्वर द्वीप सहित कांग्रेस अधिवेशन की स्मृति में निर्मित गांधी स्मारक कमानिया गेट, त्रिपुरी कांग्रेस स्मारक, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय भवन, गोकुलदास धर्मशाला आदि इमारतें आज भी वैभव एवं वास्तुकला के प्रमाण हैं। सुभाष चन्द्र बोस, विनोबा भावे, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु की अनेक प्रवासों की स्मृतियाँ संजोए जबलपुर आज भी राजनीति, साहित्य और संस्कारों की निजी पहचान बनाए हुए हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मनिषा खटाटे और इतिहास के साथ पहल! ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

परिचय 

सुश्री मनिषा खटाटे जी एक प्रयोगवादी लेखिका हैं। आपका साहित्य अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है. इस योगदान के लिये ‘रणरागिणी’ पुरस्कार प्राप्त हुआ है. साहित्य और दर्शन तथा मनोविज्ञान का प्रभाव आपकि साहित्यिक कृतियों में स्पष्ट रुप से पाया जाता है. साहित्य से भी सृजनशील मानवता का जन्म हो सकता है. साहित्य भी मनुष्य की आत्मा को प्रकाशित कर सकता है.टिप्पणियाँ इस अवधारणा के साथ सकारात्मक साहित्य की उपज हो सकती है. अज्ञात लेखक की टिप्पणियाँ (उपन्यास), मेरे आयाम की कहानियाँ (कथा संग्रह), मरुस्थल (काव्य संग्रह) प्रकाशनधीन हैं. आपका एक यूट्यूब चैनल भी है.

यूट्यूब लिंक >>>> Maisha Khatate

 ☆ आलेख ☆ मनिषा खटाटे और इतिहास के साथ पहल ! ☆ सुश्री मनिषा खटाटे ☆ 

(सुश्री मनिषा खटाटे जी के उपन्यास ‘अज्ञात लेखक की टिप्पणियाँ’ का एक अंश)

मनिषा खटाटे और इतिहास के संदर्भो के साथ जो पहल हुई वह एक अज्ञात लेखक की आत्मा और मैं के बींच एक ग्रंथालय में हुई. वह ग्रंथालय पुरानी और नयी किताबों की अनंत संभावनाये लेकर खडा था. इतिहास और वर्तमान के कई रहस्य अपने आप में छुपाये हिम्मत से अपनी जडों को संभाल रहा था. वह मुझे पुराने किले की तरह भी छायांकित कर रहा था. उसके तहखाने में प्रवेश करना जैसे समय के अंधेरे में हाथ में दीया लेकर उतना ही देखना है कि जितनी दीये के प्रकाश की आभा है. उन पुरानी किताबों को वर्तमान के दीये तले ही पढना होता है. इतिहास समय के चक्रव्यूह में फँसी हुई मनुष्य के अस्तित्व की एक पहेली हैं. जो अस्तित्व के अर्थ खोजने का अंतहीन, अर्थहीन प्रयास है.

मुझे सामने वाली दीवार पर लटकी हुअी घडी में प्रवेश करके काटों पर सवार होकर समय को पीछे की तरफ धकेलना होता है. मूलस्रोत तक पहँचने की यात्रा में मुझे इतिहास के उन काले पन्नो को भी पढना होता है, जहाँ पर नासमझियों के पहाड खडे है. परंतु, मेरी वेदना यह है की सिर्फ देखने सिवाय हाथों मे कुछ नहीं है. आत्मा पर एक और बोझ चढ जाता है. लेखिका होने के नाते मैं उन पन्नों को मेरी इच्छा के अनुसार लिख भी नहीं सकती. ये स्वतंत्रता सिर्फ मेरी कहानियाँ मुझे देती हैं.

यह पहल मुझे ईसा मसिह की जीवनी का स्मरण करा देती है. उनका पूरा जीवन पुराने  भविष्यवक्ताओं के वचनों को जिंदा करने में बीता. सूली चढने के समय वे बच सकते थे. मगर उनको मसीह होने के अंतिम वचन को सिद्ध करना था. जो पुनरुत्थान के बाद ही हो सकता था. इतिहास भी पुनरुत्थान जैसा है. जो उसके बाद समय पर छा गये. इतिहास की सीमा रेखा पर मृत्यु खडी थी. जो स्वयं की आत्मा का पुनरुत्थान करके अनंत आकाश में छा गया.. इतिहास नियति के द्वारा नियत नही होता है, वह तो संघर्ष तथा युध्द की अमिट गाथाये है. इतिहास में मनुष्य या समाज की जडे खोज सकते हैं मगर इतिहास के काले पन्नो को मिटा नही सकते. इतिहास की किताबों की धूल झटकने के बाद मै के अस्तित्व की शुरुआत नयी चेतना के साथ करनी चाहिये.

इतिहास भी पुनरुत्थान जैसा है. सूली पर चढने के बाद और पुनरुत्थान के बाद वे इतिहास बने और पूरी मनुष्यता पर छा गये. इतिहास की सीमा रेखा पर मृत्यु खडी थी. जो स्वयं की आत्मा का पुनरुत्थान करके अनंत आकाश में छा गयी.

इतिहास पिता के आज्ञा की तरह भी होता हैं, जो उसकी आज्ञा अपने बच्चों के प्रति नियम का काम करती है. आत्मप्रकाश के लिये अपने संतान के लिये त्याग और संघर्ष की मांग करती है. हम इतिहास के पुत्र है, इतिहास की सत्ता के सामने हमारा कोई वजूद नहीं है. हम स्वतंत्र है ऐसा सोचकर हम स्वयं के अस्तित्व के नये नये अर्थ खोजते रहते है. आज्ञा को तोडने के बाद हम सजा के भी हकदार बनते है. इतिहास मनुष्य चेतना की प्रेरणा है, जो साहस बढाने का काम करता है. मैं अपना इतिहास जिंदा रखने के लिये जीती और मरती हूँ. अहिंसा को सिद्ध करने के लिये हिंसा करती हूँ. समानता स्थापित करने के लिये मनुष्यता की बलि लेती हूँ. मै स्वयं से हराने के लिये स्वयं से प्रतिबद्ध हूँ. मेरे सम्मुख मेरे सिवाय कोई नही है. मेरे कदम हर रास्ते पर पडते हैं, हे खुदा कहीं तेरे ऊपर आंच ना आ जाये, मेरा रास्ता देखकर कहीं तू अपना रास्ता ना बदल दे. क्या है तेरे दिल में, बयां कर किसको, क्या मेरे दिल में तू बसता है? क्या यह मै समझूँ कि मेरे दिल से जो आवाज निकलती है, वहीं तुम हो ? क्या ईश्वर के बाद मेरा नाम लिया जायेगा? अगर लिया भी गया तो हे! ईश्वर क्या तुम मेरे आत्मा में बसते नहीं हो?

मनिषा खटाटे इतिहास का एक छोटा सा संदर्भ है. उन संदर्भों के साथ संवाद करने के लिये भाषा ही एकमात्र माध्यम है. परंतु भाषा भी मनुष्य की रचना है. वह माया है. अंतिम सत्य नही है. लेकिन मैं सत्य हूँ! मेरा अस्तित्व भी सत्य है, मेरी संवेदनाओं के साथ, मेरी भावनाये और मेरे विचारों के साथ. दुर्भाग्यवश यह जगत भी सत्य हैं और मनिषा खटाटे भी!

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शहीद दिवस विशेष – शहादत का दिन और हम ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ आलेख ☆ शहीद दिवस विशेष – शहादत का दिन और हम ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

(शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की पुण्यतिथि पर विशेष)

आज शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का शहीद दिवस है । सन् 1931 को इन तीनों को अंग्रेज सरकार ने देर शाम फांसी दी थी और लोग भड़क न जाएं इस डर से सतलुज के किनारे हुसैनीवाला में मिट्टी का तेल छिड़क कर अमानवीय ढंग से अंतिम संस्कार कर दिया था । दूसरे दिन भगत सिंह की बहन बीबी अमरकौर अपनी मां विद्यावती के साथ गयी थी और उस दिन के ट्रिब्यून अखबार में शहीदों की अस्थियां समेट कर लाई थी जो आज भी उसी अखबार मैं  लिपटीं या कहिए कि सहेजी रखी हैं खटकड़ कलां के शहीदी स्मारक में । सुखदेव की टोपी वाला कुल्ला रखा है और भगत सिंह की डायरी और पैन जैसे कि अभी भगत सिंह आयेंगे और नये जमाने पर अपनी बात लिखने लगेंगे । लाहौर के नेशनल कालेज गये तो थे पढ़ने लेकिन क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए और फिर फांसी के फंदे तक झूल गये । नाटक और लेखन में भी रूचि थी । कानपुर अखबार में बलवंत नाम से पत्रकारिता भी की । अपने छोटे भाई को भी खत लिख कर पढ़ने की सलाह देते रहते थे । सुखदेव एक संगठनकर्त्ता थे । पैसा इकट्ठा करना और संगठन को चलाना उनका काम था । वे भी पंजाब के लुधिथाना के नौघरां मोहल्ले के थापर परिवार से थे । उनके छोटे भाई मथरादास थापर मुझसे मिलने हापुड़ से खटकड़ कलां आए थे और उन पर लिखी पुस्तक अनेकों में से एक : अमर शहीद सुखदेव उपहार में दे कर गये थे । इसी प्रकार शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह ने पुस्तक उपहार में दी : भगत सिंह के पुरखे । यह उन्होंने बड़ी खोज और शोध के बाद लिखी जिसका संपादन सहयोग प्रो चमन लाल ने किया । ये सारी पुस्तकें मुझसे मेरे जालंधर दूरदर्शन में कार्यरत मित्र कृष्ण कुमार रत्तू एक कार्यक्रम बनाने के लिए ले गये और फिर जैसे कि होता है लौटाना भूल गये । शहीद भगत सिंह के परिवार से पूरे ग्यारह वर्ष मुलाकातों का सुनहरी अवसर मिलता रहा खटकड़ कलां के आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्राध्यापक व कार्यकारी प्रिंसिपल रहने के चलते । वे मेरे जीवन के सुनहरी साल कहे जा सकते हैं । हर बार पंजाब सरकार इन परिवारजनों को बुलाकर सम्मानित करती । मां विद्यावती को तो जब ज्ञानी जैल सिंह मुख्यमंत्री थे एक एम्बेसेडर कार और पंजाब माता की उपाधि भी दी गयी थी । इस पर संत राम उदासी नाम के पंजाबी के चर्चित कवि ने लिखा था गीत

हाड़े भगत सिंह दी मां

बेशक बनेयो

पर हाड़े बनेयो न कोई

पंजाब माता ।

यानी उदासी के विचार में जो भारतमाता के स्टेट्स के बराबर थीं वह पंजाब माता बन कर क्यों सिमट जाए ? यह गीत आज भी उनकी बेटी इकबाल कौर गाती हैं मंचों पर । फिर इसी शहीद स्मारक में भगत सिंह को प्रिय लगने वाली पंक्तियां भी लिखी गयी हैं जिन्हें वे अक्सर गुनगुनाते रहते थे :

सेवा देश दी करनी जिंदड़िए बड़ी ओक्खी

गल्लां करनियां ढेर सुख्लियां ने

जिहना देश सेवा विच पैर पाया

उहनां लक्ख मुसीबतां झल्लियां ने

इसी प्रकार उन्हें यह भी प्रिय थीं :

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर

हमको भी मां-बाप ने पाला था

दुख सह सह कर ,,,

कौन मां बाप चाहता है कि उसका बेटा फांसी पर झूल जाए ? पर भारत मां के लिए हम झूल गये । कोई अफसोस नहीं । फिर आयेंगे और फिर इसी देश के लिए क़ुर्बान हो जायेंगे ।

शहीदों की चिताओं पर

लगेंगे हर बरस मेले

वतन पे मिटने वालों का

यही बाकी निशां होगा ,,,

आज भी भगत सिंह और उनका इंकलाब जिंदाबाद अमर है ।

नमन् और स्मरण । इन शहीदों को ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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