डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है”.)
☆ किसलय की कलम से # 39 ☆
☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆
कन्या भ्रूणहत्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है। सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं, संगठनों, आम तथा खास सभी को भ्रूणहत्या पता लगाने एवं रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। आज भी अशिक्षित व पिछड़े समाज में महिलाओं के प्रति नकारात्मक सामाजिक सोच के फलस्वरूप उस वर्ग की बेटियों में शिक्षा का वांक्षित स्तर नहीं बढ़ सका है। ऐसा यदा कदा अन्यत्र भी देखने मिल जाता है। दहेजप्रथा कन्या भ्रूणहत्या का मूल कारक माना जा सकता है। इसके विरुद्ध कठोर एवं प्रभावी कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। बेटियों के प्रति माता-पिता के जेहन में असुरक्षा की भावना भी एक कारण है जिसके कारण बेटियों का घर से बाहर निकलना, विद्यालयों में आये दिन अश्लील हरकतों का प्रकाश में आना, अस्पतालों में चिकित्सकों से डर, सड़कों पर दोपाये जानवरों की कुत्सित भावनाएँ, सरकारी एवं गैर सरकारी कार्य के दौरान अभिभावकों में शंका- कुशंकाओं को जन्म देता है।
आज लक्ष्मी, मैत्रेयी, गार्गी, महादेवी जैसी विलक्षण महिलाओं के देश में बेटियों का पैदा होना चिंता का विषय बन जाता है, जबकि हमें स्वयं को गर्वित होना चाहिए कि बेटों की अपेक्षा बेटियाँ माँ-बाप से भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी होती हैं। घर एवं समाज में बेटियों की अहमियत से सभी भलीभाँति परिचित हैं। आज के बदलते परिवेश में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बेटियों का सुनहरा भविष्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बेटा-बेटी में फर्क करने से सबसे पहले ममतामयी माँ का हृदय ही आहत होता है। ऐसे समय में माँ की दृढता, आत्मविश्वास एवं जवाबदेही और बढ़ जाती है। उसे समाज, परिवार और स्वयं पर भी जीत हासिल करना होगी। जब बेटियों को समाज और शासन आगे बढ़ने का मौका देने लगा है तब यह भेद कैसा? यह तो सृष्टि से बगावत ही कहा जाएगा। आज हमें स्वीकारना ही होगा कि कन्या भ्रूणहत्या, बेटों की चाह के अलावा और कुछ भी नहीं है जिसे पुरुष प्रधान समाज में बड़ी अहमियत के तौर पर देखा जाता है तथा बेटियों के विषय में हीनभावना के परिणाम स्वरूप कन्या भ्रूणहत्या की जाती है। यह तय है कि पुरुष प्रधान समाज में इस भावना की जड़ें अभी तक जमी हुई हैं।
यूनिसेफ के अनुसार भारत में करोड़ों बेटियाँ एवं स्त्रियाँ गायब हैं। विश्व के अधिकतर देशों से तुलना की जाये तो भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या कम होती जा रही है। भारत में आज भी प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्याएँ अवैध रूप से होती हैं, जिससे बाल अत्याचार, विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध तथा यौनजनित हिंसा को बढ़ावा मिला है। यह एक विकासशील राष्ट्र के लिए बुरा संकेत है। देश की पिछली जनगणनाओं में सामने आये आँकड़ों में कम शिशु लिंगानुपात ने देश की चिंता बढ़ा दी है। ऐसे में इस समस्या के निराकरण हेतु विशेष कार्ययोजना की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।
जिस देश का इतिहास स्त्रियों की सेवा-भावना, त्याग और ममता से भरा पड़ा हो वहाँ अब उसी वर्ग के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना पुरुषों के लिए लज्जा की बात है। हीन विचारधारा एवं रूढ़िवादी प्रथाओं के कम होने पर भी कन्या भ्रूणहत्या का प्रतिशत बढ़ना हमारे समाज के लिए घातक हो सकता है। वंश परम्परा का प्रतिनिधित्व, बुढ़ापे में सहारा की निश्चिन्तता एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए परिवार में बेटों को प्रधानता दी जाती है। इसी सोच ने धीरे-धीरे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं।
अब शिक्षा के सुधरते स्तर से इस कुप्रथा को उखाड़ फेकने की संभावना बढ़ी है परन्तु यह भावना अभी ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग तक पहुँचना शेष है। परमात्मा यदि सृष्टि निर्माता है तो नारी संतान का निर्माण करती है, जिससे समाज का अस्तित्व जुड़ा है, फिर बिना नारी के समाज का बढ़ना क्या संभव है?
वर्तमान में नारी का आत्मनिर्भर होते जाना, सकारात्मक योगदान एवं घर-बाहर सामान रूप से अपनी योग्यता का लोहा मनवाना क्या हमारे लिए प्रामाणिक तथ्य नहीं है? फिर कन्या भ्रूणहत्या किस मानसिकता का द्योतक है? कन्या विरोधी मानसिकता केवल अशिक्षित एवं पिछड़े वर्ग में ही बलवती नहीं है, इसकी जड़ में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं दैविक मान्यताओं तथा रूढ़िवादी प्रथाओं का ज्यादा हस्तक्षेप समझ में आता है। हमें इन विद्रूपताओं से निपटने के लिए अब आगे आना बेहद जरूरी हो गया है। पारिवारिक कार्यों में सहभागिता, व्यवसाय-भागीदारी में विश्वसनीयता एवं उत्तराधिकार के साथ साथ बुढ़ापे में सहारे के रूप में बेटियों की अपेक्षा बेटों को ही समाज में मान्यता प्राप्त है। लड़का घर की उन्नति में सहयोग एवं श्रीवृद्धि करता है, जबकि बेटियाँ पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण के खर्च के बाद एक दिन माता-पिता को दहेज के बोझ से दबा कर पराये घर चली जाती हैं। इन सबके अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में हिन्दु प्रथाओं के अनुसार केवल बेटे ही सहभागी बन सकते हैं। आत्मा की शान्ति हेतु बेटे द्वारा ही माता-पिता को मुखाग्नि देने की मान्यता है। ऐसे अनेक तथ्य गिनाए जा सकते हैं जो कन्या भ्रूणहत्याओं को बढ़ावा देने में सहायक बनते हैं।
ऐसा नहीं है कि शासन के प्रयास कम हैं, परन्तु उनके क्रियान्वयन में कहीं न कहीं कमी के चलते अपेक्षित परिणाम हमारे सामने नहीं आ पाते। वहीं हमारे समाज की उदासीनता भी आड़े आती है। समाज का इस विषय पर जागरूक होना अब अत्यावश्यक हो गया है। शासन के दहेज विरोधी कानून, शिशुलिंग की जानकारी के विरुद्ध कानून, बेटी की पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी के कानून एवं बेटियों के अधिकार के कानून लागू किये जाना इसके उदाहरण समाज के सामने हैं। यह मिशन तब सफल होगा जब नेता, अफसर और आम जनता में एक समन्वय स्थापित होगा।
पश्चिमी देशों के अंधानुकरण से भारत में भी अत्याचार, नारी अपमान, यौन शोषण की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। गांधी, बुद्ध और महावीर के देश में अब आध्यात्म एवं अहिंसा ने भी किनारा कर लिया है। कन्या भ्रूणहत्या एक अमानवीय तथा क्रूर कृत्य है। अहिंसा-प्रधान देश में कलंक है। यह सब हमारे दिमाग से उपज कर समाज में फैली कुप्रथाओं-परम्पराओं का कुपरिणाम कहा जा सकता है। हम कन्या जनित अपमान, बेबसी, दहेज, असुरक्षा जैसे कारकों से प्रभावित हो गए हैं, जो अब शिक्षित समाज से खत्म होना चाहिए। आज अत्याधुनिक तकनीकि ने कन्याभ्रूण परीक्षण के उपरान्त कन्या भ्रूणहत्या का औसत बढ़ा दिया है। यहाँ दुःख की बात यह भी है कि वह नारी समाज जो नारी अस्मिता, फ़िल्मी कल्चर, ब्यूटी काम्पटीशन, कालगर्ल एवं वेलेंटाइन कल्चर का पुरजोर समर्थन करता है, वही कन्या भ्रूणहत्या से जुड़े सवाल पर सकारात्मक तथा कड़ा प्रतिरोध क्यों नहीं करता ?
बेटी बचाओ अभियान के सन्दर्भ में कहा जाता है कि केन्द्र व राज्य सरकारें इस अभियान को सफल बनाने में जुटी हैं। अभी भी यह देखना बाकी है कि इस अभियान की रूप-रेखा, दिशा-निर्देश और कार्यान्वयन कितना कारगर हो पाता है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि सर्वप्रथम शासकीय, अशासकीय एवं देश की जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु भी कार्य योजना पर समग्र दृष्टिपात करना चाहिए।
बेटियों के सम्मान एवं भेदभाव की समाप्ति हेतु देश में व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। कन्या भ्रूणहत्या के प्रति लोगों को हतोत्साहित करना इस मिशन का मुख्य मकसद है। यह ‘हतोत्साह’ समाज में कैसे और किन-किन सुविधाओं तथा कानून से संभव है। यह काम सरकार को प्रमुखता से करना होगा। पिछड़ी एवं गरीब जनता को सामाजिक सुरक्षा, सहायता, बेटियों की विकासपरक योजनायें कारगर हो सकती हैं। जब तक समाज कन्याओं को बोझ समझना बंद नहीं करेगा, तब तक इस मिशन पर अनवरत कार्य करने की आवश्यकता है।
जानकार सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि कन्या भ्रूणहत्या की दर बढ़ रही है। केवल डॉक्टरों पर अंकुश लगाने से इस भ्रूणहत्या का ग्राफ कम होने से रहा। कन्या भ्रूणहत्या करने वाले, कराने वाले तथा प्रत्यक्ष दर्शियों पर भी नज़र रखने हेतु शासन को कठोर कदम उठाने की जरूरत है। वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह कुप्रथा नहीं बढ़ रही होती तो बेटी का लिंगानुपात क्यों कम होता। कन्या-क्रच, स्ट्रिंग ऑपरेशन ग्रुप रैलियाँ, कन्या दिवस, लाड़ली लक्ष्मी योजना या फिर विभिन्न प्रोत्साहन योजनाओं को क्यों चलाना पड़ता। इसका सीधा सा अर्थ है कि अभी तक हम कन्या भ्रूणहत्या पर वांछित अंकुश लगाने में असमर्थ रहे हैं।
भारत की 2001 एवं इसके बाद की जनगणनाओं में सामने आये तथ्यों में बेटियों के घटते लिंगानुपात से चिंतित होकर शासन ने इस दिशा में अपने प्रयास तभी तेज कर दिए थे, फिर भी नई-नई भ्रूण परीक्षण की सुविधाओं एवं बच्चियों के प्रति उदासीनता के चलते इस अनुपात में गिरावट जारी है। अब तो मात्र 5 सप्ताह के भ्रूण का लिंग परीक्षण करने वाले अत्याधुनिक रक्त परीक्षण किट ‘बेबी जेंडर केंडर’ के चलन से कन्या भ्रूण हत्या और भी आसान हो गई है। ऐसे परीक्षणों पर हमेशा प्रतिबंध रहना चाहिए।
आज जब बेटियाँ अनेक क्षेत्रों में बेटों से भी आगे निकल चुकी हैं, तब ऐसे में बेटा बेटी में भेदभाव समाप्त हो जाना चाहिए और माँ-बाप को निश्चिन्त होकर हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी से सहमत होना चाहिए। बेटे के जन्म की तरह ही जब तक बेटी के जन्म पर समाज हर्षित नहीं होगा तब तक हमारे समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। हमारे देश के विशेषज्ञों तथा शीर्षस्थों का भी कहना है कि कन्या भ्रूणहत्या अस्वीकार्य अपराध है, जिसे व्यापक रूप से नवीन तकनीकों के दुरुपयोग से बढ़ावा मिल रहा है तथा जिसका विचारहीन व्यापारिक दुरुपयोग रुकना चाहिए।
हमें भी अपनी मानसिकता को बदलना होगा और याद रखना होगा कि भ्रूण में भी जीव होता है जिसकी हत्या करना हिन्दु धर्मानुसार पाप माना गया है। इस पाप की सहज स्वीकृति परिवार के सारे सदस्य कैसे दे सकते हैं? अंधविश्वास, पाखण्ड एवं सामाजिक कुरीतियों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों एवं समाज की जागरूक जनता भी परस्पर समन्वय स्थापित करे। अभी तक बेटियों की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ नहीं हो पाई है। आज भी पिता होने का मतलब अपना सिर झुकाना ही कहलाता है। बेटियों के विवाह में आर्थिक बोझ पड़ता ही है। कभी-कभी तो विवशता में बेटी, पिता, माँ, भाई तक आत्महत्या तक करते पाए गए हैं।
वक्त धीरे धीरे बदल रहा है। भ्रूण हत्या के साक्षी होने पर हमें आगे आकर प्रतिरोध और कानूनी कार्यवाही में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिए। केवल अफसोस भर करके चुप नहीं बैठना चाहिए। डॉक्टरों को चंद पैसों की लालच में कंस नहीं बनाना चाहिए। भ्रूण हत्या करने वाले परिवारों का समाज द्वारा बहिष्कार किया जाना चाहिए। इसलिए अब समय की यही पुकार है कि हम सब एक सचेतक की भूमिका का निर्वहन करें, तभी हम इस कन्या भ्रूणहत्या के घिनोने कृत्य पर अंकुश लगाने में सफल होंगे। केवल बयानबाजी, भाषणबाजी, नारेबाजी, सभाओं, कार्यशालाओं से कुछ नहीं होने वाला। मेरे विचार से बेटी बचाओ अभियान सहित कन्या भ्रूणहत्या रोकने वाले समस्त प्रयासों को प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, नुक्कड़ नाटक, रैलियाँ, नारालेखन, पेम्पलेट्स, एस.एम.एस. के माध्यम से व्यापक प्रचारित-प्रसारित कर सफल बनाया जा सकता है।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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