हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 100 ☆ संवाद संजीवनी है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है पारिवारिक, सार्वजनिक जीवन में एवं राष्ट्रीय स्तर पर संवाद की  भूमिका। वास्तव में समय पर संवाद संजीवनी ही है।  इस शोधपरक विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

? श्री विवेक जी ने ई- अभिव्यक्ति में  अपने साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ में 100 रचनाओं के साथ अभूतपूर्व साहित्यिक सहयोग  किया ?

?अभिनन्दन ?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 100☆

? संवाद संजीवनी है ?

घर, कार्यालय हर रिश्ते में सीधे संवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण है.

संवादहीनता सदा कपोलकल्पित भ्रम व दूरियां तथा समस्यायें उत्पन्न करती है. वर्तमान युग मोबाइल का है, अपनो से पल पल का सतत संपर्क व संवाद हजारो किलोमीटर की दूरियों को भी मिटा देता है. जहां कार्यालयीन रिश्तों में फीडबैक व खुले संवाद से विश्वास व अपनापन बढ़ता है वहीं व्यर्थ की कानाफूसी तथा चुगली से मुक्ति मिलती है.

इसी तरह घरेलू व व्यैक्तिक रिश्तो में लगातार संवाद से परस्पर प्रगाढ़ता बढ़ती है, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, खुशियां बांटने से बढ़ती ही हैं और दुःख बांटने से कम होता है. कठनाईयां मिटती हैं. बेवजह ईगो पाइंट्स बनाकर संवाद से बचना सदैव अहितकारी है.

आज प्रायः बच्चे घरों से दूर शिक्षा पा रहे हैं उनसे निरंतर संवाद बनाये रख कर हम उनके पास बने रह सकते हैं व उनके पेरेण्ट्स होने के साथ साथ उनके बैस्ट फ्रैण्ड भी साबित हो सकते हैं. डाइनिंग टेबल पर जब डिनर में घर के सभी सदस्य इकट्ठे होते हैं तो दिन भर की गतिविधियो पर संवाद घर की परंपरा बनानी चाहिये.

यदि सीता जी के पास मोबाईल जैसा संवाद का साधन होता तो शायद राम रावण युद्ध की आवश्यकता ही न पड़ती और सीता जी की खोज में भगवान राम को जंगल जंगल  भटकना न पड़ता. विज्ञान ने हमें संवाद के संचार के नये नये संसाधन,मोबाईल, ईमेल, फोन, सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स आदि के माध्यम से सुलभ कराये हैं, पर रिश्तो के हित में उनका समुचित दोहन हमारे ही हाथों में है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ?

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।

पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है। पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष सारा जल अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है। सुभाषितकारों ने भी जल को पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।’

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।” बूँद वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु के साथ मॉं या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’ की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी प्यास बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों मेंे होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह का विराट दर्शन था। कालांतर में सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियॉं पैदा कर दीं कि गॉंव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भॉंय-भॉंय करते कुएँ और बावड़ियॉं एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं। बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहॉं से दूर का न देख पाने की बीमारी-मायोपिआ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।

पर्यावरणविद मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को मॉं कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है। गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियॉं अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।

आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गॉंवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै।ऐसेे प्रयासोंें को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।

रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत्‌ में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू) खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी। बेहतर होगा कि हम समय रहते चेत जाएँ।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆ 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में ज़मीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं।

इस मौन में अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की एक यूनिवर्सिटी समाहित है। उनके पास बैठना, उनके मौन को सुनना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा  है।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

जो व्यक्ति अभिवादनशील है अर्थात दूसरों का मान करना जानता है, दैनिक रूप से वृद्धों की सेवा करता है/ उनके मौन को सुनता-समझता है,  आशीर्वादस्वरूप उसके आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है।

क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन?

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 87 ☆ रिश्तों की तपिश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख रिश्तों की तपिश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 87 ☆

☆ रिश्तों की तपिश ☆

‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने’– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट कहां रही है?

विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ प्राणी अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे  हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।

प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें?  सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राज महल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल  तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं। सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के संबंध, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं, उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता…वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।

परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप करना तो सामान्य प्रचलन हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या परिवार- व्यवस्था सुरक्षित रह पायेगी?

मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर, अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं।  हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने को स्वतंत्र हैं। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं।  कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर, उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।

इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है–  सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, वे उसकी हत्या कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन इन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।

इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे दोनों इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर, कैसे अपनी ज़िंदगी गज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे  उसके अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।

यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।

जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं, पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि मानव खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 39 ☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है”.)

☆ किसलय की कलम से # 39 ☆

☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆

कन्या भ्रूणहत्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है। सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं, संगठनों, आम तथा खास सभी को भ्रूणहत्या पता लगाने एवं रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। आज भी अशिक्षित व पिछड़े समाज में महिलाओं के प्रति नकारात्मक सामाजिक सोच के फलस्वरूप उस वर्ग की बेटियों में शिक्षा का वांक्षित स्तर नहीं बढ़ सका है। ऐसा यदा कदा अन्यत्र भी देखने मिल जाता है। दहेजप्रथा कन्या भ्रूणहत्या का मूल कारक माना जा सकता है। इसके विरुद्ध कठोर एवं प्रभावी कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। बेटियों के प्रति माता-पिता के जेहन में असुरक्षा की भावना भी एक कारण है जिसके कारण बेटियों का घर से बाहर निकलना, विद्यालयों में आये दिन अश्लील हरकतों का प्रकाश में आना, अस्पतालों में चिकित्सकों से डर, सड़कों पर दोपाये  जानवरों की कुत्सित भावनाएँ, सरकारी एवं गैर सरकारी कार्य के दौरान अभिभावकों  में शंका- कुशंकाओं को जन्म देता है।

आज लक्ष्मी, मैत्रेयी, गार्गी, महादेवी जैसी विलक्षण महिलाओं के देश में बेटियों का पैदा होना चिंता का विषय बन जाता है, जबकि हमें स्वयं को गर्वित होना चाहिए कि बेटों की अपेक्षा बेटियाँ माँ-बाप से भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी होती हैं। घर एवं समाज में बेटियों की अहमियत से सभी भलीभाँति परिचित हैं। आज के बदलते परिवेश में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बेटियों का सुनहरा भविष्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बेटा-बेटी में फर्क करने से सबसे पहले ममतामयी माँ का हृदय ही आहत होता है। ऐसे समय में माँ की दृढता, आत्मविश्वास एवं जवाबदेही और बढ़ जाती है। उसे समाज, परिवार और स्वयं पर भी जीत हासिल करना होगी। जब बेटियों को समाज और शासन आगे बढ़ने का मौका देने लगा है तब यह भेद कैसा? यह तो सृष्टि से बगावत ही कहा जाएगा। आज हमें स्वीकारना ही होगा कि कन्या भ्रूणहत्या, बेटों की चाह के अलावा और कुछ भी नहीं है जिसे पुरुष प्रधान समाज में बड़ी अहमियत के तौर पर देखा जाता है तथा बेटियों के विषय में हीनभावना के परिणाम स्वरूप कन्या भ्रूणहत्या की जाती है। यह तय है कि पुरुष प्रधान समाज में इस भावना की जड़ें अभी तक जमी हुई हैं।

यूनिसेफ के अनुसार भारत में करोड़ों बेटियाँ एवं स्त्रियाँ गायब हैं। विश्व के अधिकतर देशों से तुलना की जाये तो भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या कम होती जा रही है। भारत में आज भी प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्याएँ अवैध रूप से होती हैं, जिससे बाल अत्याचार, विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध तथा यौनजनित हिंसा को बढ़ावा मिला है। यह एक विकासशील राष्ट्र के लिए बुरा संकेत है। देश की पिछली जनगणनाओं में सामने आये आँकड़ों में कम शिशु लिंगानुपात ने देश की चिंता बढ़ा दी है। ऐसे में इस समस्या के निराकरण हेतु विशेष कार्ययोजना की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

जिस देश का इतिहास स्त्रियों की सेवा-भावना, त्याग और ममता से भरा पड़ा हो वहाँ अब उसी वर्ग के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना पुरुषों के लिए लज्जा की बात है। हीन विचारधारा एवं रूढ़िवादी प्रथाओं के कम होने पर भी कन्या भ्रूणहत्या का प्रतिशत बढ़ना हमारे समाज के लिए घातक हो सकता है। वंश परम्परा का प्रतिनिधित्व, बुढ़ापे में सहारा की निश्चिन्तता एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए परिवार में बेटों को प्रधानता दी जाती है। इसी सोच ने धीरे-धीरे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं।

अब शिक्षा के सुधरते स्तर से इस कुप्रथा को उखाड़ फेकने की संभावना बढ़ी है परन्तु यह भावना अभी ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग तक पहुँचना शेष है। परमात्मा यदि सृष्टि निर्माता है तो नारी संतान का निर्माण करती है, जिससे समाज का अस्तित्व जुड़ा है, फिर बिना नारी के समाज का बढ़ना क्या संभव है?

वर्तमान में नारी का आत्मनिर्भर होते जाना, सकारात्मक योगदान एवं घर-बाहर सामान रूप से अपनी योग्यता का लोहा मनवाना क्या हमारे लिए प्रामाणिक तथ्य नहीं है? फिर कन्या भ्रूणहत्या किस मानसिकता का द्योतक है? कन्या विरोधी मानसिकता केवल अशिक्षित एवं पिछड़े वर्ग में ही बलवती नहीं है, इसकी जड़ में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं दैविक मान्यताओं तथा रूढ़िवादी प्रथाओं का ज्यादा हस्तक्षेप समझ में आता है। हमें इन विद्रूपताओं से निपटने के लिए अब आगे आना बेहद जरूरी हो गया है। पारिवारिक कार्यों में सहभागिता, व्यवसाय-भागीदारी में विश्वसनीयता एवं उत्तराधिकार के साथ साथ बुढ़ापे में सहारे के रूप में बेटियों की अपेक्षा बेटों को ही समाज में मान्यता प्राप्त है। लड़का घर की उन्नति में सहयोग एवं श्रीवृद्धि करता है, जबकि बेटियाँ पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण के खर्च के बाद एक दिन माता-पिता को दहेज के बोझ से दबा कर पराये घर चली जाती हैं। इन सबके अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में हिन्दु प्रथाओं के अनुसार केवल बेटे ही सहभागी बन सकते हैं। आत्मा की शान्ति हेतु बेटे द्वारा ही माता-पिता को मुखाग्नि देने की मान्यता है। ऐसे अनेक तथ्य गिनाए जा सकते हैं जो कन्या भ्रूणहत्याओं को बढ़ावा देने में सहायक बनते हैं।

ऐसा नहीं है कि शासन के प्रयास कम हैं, परन्तु उनके क्रियान्वयन में कहीं न कहीं कमी के चलते अपेक्षित परिणाम हमारे सामने नहीं आ पाते। वहीं हमारे समाज की उदासीनता भी आड़े आती है। समाज का इस विषय पर जागरूक होना अब अत्यावश्यक हो गया है। शासन के दहेज विरोधी कानून, शिशुलिंग की जानकारी के विरुद्ध कानून, बेटी की पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी के कानून एवं बेटियों के अधिकार के कानून लागू किये जाना इसके उदाहरण समाज के सामने हैं। यह मिशन तब सफल होगा जब नेता, अफसर और आम जनता में एक समन्वय स्थापित होगा।

पश्चिमी देशों के अंधानुकरण से भारत में भी अत्याचार, नारी अपमान, यौन शोषण की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। गांधी, बुद्ध और महावीर के देश में अब आध्यात्म एवं अहिंसा ने भी किनारा कर लिया है। कन्या भ्रूणहत्या एक अमानवीय तथा क्रूर कृत्य है। अहिंसा-प्रधान देश में कलंक है। यह सब हमारे दिमाग से उपज कर समाज में फैली कुप्रथाओं-परम्पराओं का कुपरिणाम कहा जा सकता है। हम कन्या जनित अपमान, बेबसी, दहेज, असुरक्षा जैसे कारकों से प्रभावित हो गए हैं, जो अब शिक्षित समाज से खत्म होना चाहिए। आज अत्याधुनिक तकनीकि ने कन्याभ्रूण परीक्षण के उपरान्त कन्या भ्रूणहत्या का औसत बढ़ा दिया है। यहाँ दुःख की बात यह भी है कि वह नारी समाज जो नारी अस्मिता, फ़िल्मी कल्चर, ब्यूटी काम्पटीशन, कालगर्ल एवं वेलेंटाइन कल्चर का पुरजोर समर्थन करता है, वही कन्या भ्रूणहत्या से जुड़े सवाल पर सकारात्मक तथा कड़ा प्रतिरोध क्यों नहीं करता ?

बेटी बचाओ अभियान के सन्दर्भ में कहा जाता है कि केन्द्र व राज्य सरकारें इस अभियान को सफल बनाने में जुटी हैं। अभी भी यह देखना बाकी है कि इस अभियान की रूप-रेखा, दिशा-निर्देश और कार्यान्वयन कितना कारगर हो पाता है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि सर्वप्रथम शासकीय, अशासकीय एवं देश की जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु भी कार्य योजना पर समग्र दृष्टिपात करना चाहिए।

बेटियों के सम्मान एवं भेदभाव की समाप्ति हेतु देश में व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। कन्या भ्रूणहत्या के प्रति लोगों को हतोत्साहित करना इस मिशन का मुख्य मकसद है। यह ‘हतोत्साह’ समाज में कैसे और किन-किन सुविधाओं तथा कानून से संभव है। यह काम सरकार को प्रमुखता से करना होगा। पिछड़ी एवं गरीब जनता को सामाजिक सुरक्षा, सहायता, बेटियों की विकासपरक योजनायें कारगर हो सकती हैं। जब तक समाज कन्याओं को बोझ समझना बंद नहीं करेगा, तब तक इस मिशन पर अनवरत कार्य करने की आवश्यकता है।

जानकार सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि कन्या भ्रूणहत्या की दर बढ़ रही है। केवल डॉक्टरों पर अंकुश लगाने से इस भ्रूणहत्या का ग्राफ कम होने से रहा। कन्या भ्रूणहत्या करने वाले, कराने वाले तथा प्रत्यक्ष दर्शियों पर भी नज़र रखने हेतु शासन को कठोर कदम उठाने की जरूरत है। वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह कुप्रथा नहीं बढ़ रही होती तो बेटी का लिंगानुपात क्यों कम होता। कन्या-क्रच, स्ट्रिंग ऑपरेशन ग्रुप रैलियाँ, कन्या दिवस, लाड़ली लक्ष्मी योजना या फिर विभिन्न प्रोत्साहन योजनाओं को क्यों चलाना पड़ता। इसका सीधा सा अर्थ है कि अभी तक हम कन्या भ्रूणहत्या पर वांछित अंकुश लगाने में असमर्थ रहे हैं।

भारत की 2001 एवं इसके बाद  की जनगणनाओं में सामने आये तथ्यों में बेटियों के घटते लिंगानुपात से चिंतित होकर शासन ने इस दिशा में अपने प्रयास तभी तेज कर दिए थे, फिर भी नई-नई भ्रूण परीक्षण की सुविधाओं एवं बच्चियों के प्रति उदासीनता के चलते इस अनुपात में गिरावट जारी है। अब तो मात्र 5 सप्ताह के भ्रूण का लिंग परीक्षण करने वाले अत्याधुनिक रक्त परीक्षण किट ‘बेबी जेंडर केंडर’ के चलन से कन्या भ्रूण हत्या और भी आसान हो गई है। ऐसे परीक्षणों पर हमेशा प्रतिबंध रहना चाहिए।

आज जब बेटियाँ अनेक क्षेत्रों में बेटों से भी आगे निकल चुकी हैं, तब ऐसे में बेटा बेटी में भेदभाव समाप्त हो जाना चाहिए और माँ-बाप को निश्चिन्त होकर हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी से सहमत होना चाहिए। बेटे के जन्म की तरह ही जब तक बेटी के जन्म पर समाज हर्षित नहीं होगा तब तक हमारे समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। हमारे  देश के विशेषज्ञों तथा शीर्षस्थों का भी कहना है कि कन्या भ्रूणहत्या अस्वीकार्य अपराध है, जिसे व्यापक रूप से नवीन तकनीकों के दुरुपयोग से बढ़ावा मिल रहा है तथा जिसका विचारहीन व्यापारिक दुरुपयोग रुकना चाहिए।

हमें भी अपनी मानसिकता को बदलना होगा और याद रखना होगा कि भ्रूण में भी जीव होता है जिसकी हत्या करना हिन्दु धर्मानुसार पाप माना गया है। इस पाप की सहज स्वीकृति परिवार के सारे सदस्य कैसे दे सकते हैं? अंधविश्वास, पाखण्ड एवं सामाजिक कुरीतियों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों एवं समाज की जागरूक जनता भी परस्पर समन्वय स्थापित करे। अभी तक बेटियों की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ नहीं हो पाई है। आज भी पिता होने का मतलब अपना सिर झुकाना ही कहलाता है। बेटियों के विवाह में आर्थिक बोझ पड़ता ही है। कभी-कभी तो विवशता में बेटी, पिता, माँ, भाई तक आत्महत्या तक करते पाए गए हैं।

वक्त धीरे धीरे बदल रहा है। भ्रूण हत्या के साक्षी होने पर हमें आगे आकर प्रतिरोध और कानूनी कार्यवाही में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिए। केवल अफसोस भर करके चुप नहीं बैठना चाहिए। डॉक्टरों को चंद पैसों की लालच में कंस नहीं बनाना चाहिए। भ्रूण हत्या करने वाले परिवारों का समाज द्वारा बहिष्कार किया जाना चाहिए। इसलिए अब समय की यही पुकार है कि हम सब एक सचेतक की भूमिका का निर्वहन करें, तभी हम इस कन्या भ्रूणहत्या के घिनोने कृत्य पर अंकुश लगाने में सफल होंगे। केवल बयानबाजी, भाषणबाजी, नारेबाजी, सभाओं, कार्यशालाओं से कुछ नहीं होने वाला। मेरे विचार से बेटी बचाओ अभियान सहित कन्या भ्रूणहत्या रोकने वाले समस्त प्रयासों को प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, नुक्कड़ नाटक, रैलियाँ, नारालेखन, पेम्पलेट्स, एस.एम.एस. के माध्यम से व्यापक प्रचारित-प्रसारित कर सफल बनाया जा सकता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अपनी भाषा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं हम ☆ श्री राजकुमार जैन राजन

श्री राजकुमार जैन राजन

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री राजकुमार जैन राजन जी का एक सारगर्भित आलेख ‘अपनी भाषा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं हम। हम भविष्य में भी ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी विशिष्ट रचनाओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।)

जीवन परिचय के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें — >> श्री राजकुमार जैन राजन

☆ आलेख ☆ अपनी भाषा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं हम ☆ श्री राजकुमार जैन राजन ☆

हिंदी की अस्मिता, स्वीकृति और व्यवहारिक प्रतिष्ठा के लिए समय समय पर व्यक्त की जाने वाली चिंता सचमुच हमारे  चिंतन का विषय है। हिंदी भाषी प्रदेश हों या अहिन्दी भाषी, सभी जगह अंग्रेजी ने अपनी गिरफ्त मज़बूत कर ली है। एक खास बंदरबांट की भूमिका में अंग्रेजी समस्त भारतीय भाषाओं को परस्पर लड़वा कर एक छत्र शासन करने की मंजिल पर है। वह हमसे हमारी भाषा नहीं हमारी स्वाधीन चेतना, आत्मगौरव व सांस्कृतिक विरासत भी छीनने की तैयारी में है। आज हमारी मानसिक दासता चरम सीमा पर जा पहुंची है क्योंकि हमारी यह समझ तक गायब हो चुकी हैं कि हम अपनी ही भाषा में अपने ही खिलाफ खड़े हो गए हैं।

आज अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देखा जाए तो हिंदी अपनी स्थिति मज़बूत बना रही है। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है किंतु हमारे ही देश में स्थिति दयनीय है। हमारी शैक्षणिक संस्थाओं में ऐसे मंदबुद्धि लोग बैठे हैं जो साँस तो हिंदी में लेते हैं, सोचते अंग्रेजी में हैं। खाते हिंदी में हैं, पचाते अंग्रेजी में हैं। वास्तव में हम अपना अधिकार ही खोते जा रहे हैं। संप्रेषण के इस जटिल युग में यदि अपनी भाषा की जड़ें स्वयं ही काटेंगे तो परिणाम विकट ही होंगे। जब हिंदी प्रेमी प्रधानमंत्री माननीय मोदी जी सत्ता में आए तो कुछ आशा बंधी थी कि हिंदी को जल्दी ही राष्ट्र भाषा का दर्ज़ा मिलेगा। पर भारत की राष्ट्रीय शिक्षानीति 2019 के प्रावधानों में हिंदी को ‘अनिवार्य भाषा’  की श्रेणी से ही हटाये जाने का प्रावधान किया है। यह कैसी मानसिकता है ? जो भाषा सहज रूप से प्राणवायु की तरह भारत के जन-जीवन में प्रवाहित है, उसको लेकर आशंकाएं और दुराव क्यों ? साहित्य, मीडिया, व्यवहार, पर्यटन,कॉरपोरेट जगत, व्यापार, नौकरी, प्रतियोगी परीक्षा आदि क्षेत्रों में बार-बार हिंदी को अपनी सामर्थ्य की अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। जिन लोगों पर इस भाषा की गरिमा कायम रखने की जिम्मेदारी है उनमें से कई दलगत, क्षेत्रगत,  स्वार्थगत, राजनीति की रोटियां सेंकने लगते हैं ।  साहित्यिक व्यक्तियों के लिए भी हिंदी केवल लेखन, प्रकाशन, सम्मान और गोष्ठियों- भाषणों की ही भाषा रह गई है। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो उनके परिवार-परिवार में भी अंग्रेजियत छाई हुई है। हिंदी एक समूह या भाषा भर नहीं है, यह भारत की परिभाषा है।

साइबर दुनिया के बढ़ते प्रभाव एवं कोरोना त्रासदी ने भी हिंदी की बिंदी पौंछने का जबरदस्त काम किया है। कई लोग स्वयम्भू विशेषज्ञ बनकर अपनी मठाधीशी चलाने लगे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो ऑनलाइन यू ट्यूब चैनल, व्हाट्सएप्प, फेसबुक व अन्य माध्यमों से हिंदी की दुर्दशा करने में कोई कमी नहीं रखी जा रही है। साहित्यकारों की एक नई जमात यहाँ पैदा हो गई जिसे न व्याकरण का ज्ञान है न भाषा का सौंदर्यबोध ही है। हिंदी भाषा को इस तरह विकृत रूप  में प्रस्तुत किये जाने के साथ ही रुपये देकर सम्मानित होने, रचनाएँ प्रकाशित करवाने का ‘व्यवसाय’ भी बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है। पत्रिकाओं के संपादक राशि लेकर घोड़े और गधों का समान मूल्यांकन कर रहे है। हिंदी साहित्य जगत में यह स्थिति चिंतनीय है।

हिंदी को देश में राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराने हेतु काफी प्रयास की आवश्यकता है तो केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा भी दृढ़ इच्छा शक्ति की दरकार रहेगी। हिंदी को राष्ट्र भाषा कहने पर कुछ लोगों को न जानें क्यों बदहजमी सी होने लगती है। पाखंड और कुतर्क इस समय के विचित्र लक्षण हैं विशेषज्ञ वर्षों से रुदन कर रहे हैं कि हिंदी में उच्च कोटि का वैज्ञानिक चिंतन नहीं है। मनीषी विलापरत हैं कि हिंदी में विश्व स्तर का साहित्य नहीं है। इन सब महान आत्ममुग्धों से भारत के नागरिकों को पूछना चाहिए कि जो नहीं है उसे सम्भव कौन करेगा? आप आगे बढ़कर हिंदी को समृद्ध करने का दायित्व क्यों नहीं उठाते ? क्यों नहीं आप अपनी प्राचीन साहित्यिक विरासत से रूबरू होते ? आज विश्व में हिंदी पढ़ने, लिखने, बोलने वालों की तादात बढ़ रही है, वहीं हिंदी भारत की समस्त बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं की अगुवाई कर रही है, कहीं कमजोरी है तो हम हिंदी वालों में ही है…… ।

© श्री राजकुमार जैन राजन 

प्रधान संपादक: ‘सृजन महोत्सव’

सम्पर्क – चित्रा प्रकाशन , आकोला -312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान

मोबाइल :  9828219919

ईमेल – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 89 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 89 ☆ शून्योत्सव ☆ 

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता के चलते केंद्र बनने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।….शून्य आदि है, शून्य इति है। मैं अपने अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ,। ..शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए अपने कानों को ट्यून करना होगा। करो ट्यून, बनो शून्य।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ इतिहास का अध्ययन – एक निवेदन ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। )

 ☆ आलेख ☆ इतिहास का अध्ययन – एक निवेदन ☆ श्री सुरेश पटवा ☆ 

सेवानिवृत्त बुजुर्गों को गुणवत्ता पूर्ण समय बिताने के लिए अपने देश के सच्चे इतिहास को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि उन्हें वर्तमान से जोड़कर एक स्वस्थ नज़रिया विकसित करने में सहूलियत हो सके। अन्यथा निहित स्वार्थों से अभिप्रेरित इतिहास उन्हें सही आकलन तक पहुँचने ही नहीं देता है।

भारत में राजनीतिक मजबूरियों के चलते इतिहास चार तरह से लिखा गया या लिखा जा रहा है।

  • साम्यवादी इतिहास
  • विजेता के नज़रिया का इतिहास
  • राष्ट्रवादी इतिहास
  • स्वतंत्र इतिहास

लोगों को यही नहीं पता कि स्वतंत्र इतिहास क्या है? वे प्रायोजित इतिहास की भूलभूलैया में भटक कर अनुचित अवधारणा विकसित कर लेते हैं। जिससे इतिहास के सबक़ भी गड़बड़ाने लगते हैं।

बीस सालों में इतिहास का शौक़िया अध्ययन करके मैंने भारत के स्वतंत्र इतिहास की प्राचीन काल से मध्ययुग तक के अध्ययन हेतु तीन किताबें चुनी हैं जो कि रोचक संदर्भ ग्रंथ भी हैं। प्रत्येक भारतीय को इन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए।

“प्राचीन भारत” प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार द्वारा और “दिल्ली सल्तनत” एवं “मुग़लकालीन भारत” आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव द्वारा कलमबद्ध की गई हैं। ये किताबें सस्ती भी उपलब्ध हैं या पुरानी किताबों की दुकान पर मिल जाती हैं। मैंने खुद चाँदनी चौक के ढ़ेर से ख़रीदीं थीं।

निवेदक: श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 86 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 86 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है, जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व मंगल का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देख कर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना– प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! इससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उस से क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की, जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी गलतफ़हमियां व झगड़े तत्क्षण तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् क्षमा भाव सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति निर्दयता भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं, तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए, ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव समरसता का द्योतक है। सो! अपने दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 38 ☆ पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा”.)

☆ किसलय की कलम से # 38 ☆

☆ पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा ☆

देश-काल-संस्कृति के अनुरूप पत्रकारिता के गुण, धर्म और कार्यशैली में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसलिए वर्तमान एवं पूर्ववर्ती पत्रकारिता की तुलनात्मक समीक्षा औचित्यहीन होगी।

पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं, अच्छाई- बुराई एवं दैनिक गतिविधियों का प्रकाशन कर समाज को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना है। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं तथा उनकी मूलभावनाओं से अवगत कराना पत्रकारिता का एक अंग है। हमारे आसपास घटित घटनाओं, विशेष अवसरों , विभिन्न परिस्थितियों के साथ ही आसन्न विपत्तियों में सम्पादकीय आलेखों के माध्यम से सचेतक का अहम कार्य भी पत्रकारिता का माना जाता है। वर्षा, ग्रीष्म और शरद की परवाह किए बिना विस्तृत जानकारी के साथ समाचारों का प्रस्तुतिकरण इनकी ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा का ही परिणाम है जो हम रोज देखते और पढ़ते आ रहे हैं। अखबारों के माध्यम से उठाई गई आवाज पर हमारा समाज चिंतन-मनन करता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। विश्व के महानतम परिवर्तन इसके उदाहरण हैं।

वर्तमान पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से हम-आप सभी परिचित हैं। यदि खाली डेस्क पर बैठकर समाचारों का लेखन होता तो उनमें न ही प्रमाणिकता होती और न ही जीवन्तता। दर्द, खुशी और वास्तविकता का एहसास भी नहीं होता। प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की अभिव्यक्ति ही अपने अखबार के प्रति सामाजिक विश्वास पैदा कराती है।

इन सबके बावजूद आज के पत्रकार को शासकीय-अशासकीय उच्चाधिकारियों, नेताओं और दबंगों के दबाव में काम करने हेतु बाध्य किया जाता है, जो कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार पर शिकंजा कसने जैसा है। सामाजिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों की वास्तविक जानकारी के अभाव में खोखले समाचारों से अखबार नहीं चला करते। पत्रकारों का सहयोग न करना, वास्तविकता को प्रकाशित न होने देने के लिए दबाव बनाना, आयोजनों में प्रवेश की अनुमति न देना अथवा अड़ंगे लगाना तथा पत्रकारों से अभद्रता करने जैसी वारदातें भी दर्ज होने लगी हैं। पत्रकारिता पर आघात और अपमान का यह खेल अनेक क्षेत्रों में चलन का रूप ले रहा है। आज दबंगों के दबदबे से सहमे पत्रकार स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। दूसरों के लिए आवाज उठाने वाले स्वयं के लिए आन्दोलन, अनशन, बहिष्कार अथवा अन्याय के विरुद्ध मोर्चा खोलने को बाध्य होने लगेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? हमारे संविधान ने प्रत्येक भारतीय को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। इस पर अंकुश लगाना अथवा दबाव डालना निश्चित रूप से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन ही है।

इन परिस्थितियों में अब जनतंत्र के सिपहसालारों को चिंतन कर ऐसे प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, जिससे कोई भी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर अवांछित शिकंजा कसने की हिमाकत न करे, अन्यथा इनकी मनमर्जी देश को अवनति के रसातल में पहुँचाकर छोड़ेगी।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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