हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ। )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार☆

प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 81 ☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मोबाइल और ज़िन्दगी।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 81 ☆

☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆

ज़िन्दगी एक मोबाइल की भांति है, जिसमें अनचाही तस्वीरें, फाइलों व अनचाही स्मृतियों को डिलीट करने से उसकी गति-रफ़्तार तेज़ हो जाती है। भले ही मोबाइल ने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया है; हम सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह गये हैं; खुद में सिमट कर रह गये हैं…संबंधों व सामाजिक सरोकारों से दूर…बहुत दूर, परंतु मोबाइल पर बात करते हुए हम विचित्र-सा सामीप्य अनुभव करते हैं।

आइए! हम मोबाइल व ज़िन्दगी की साम्यता पर चिंतन-मनन करने का प्रयास करें। सो! यदि ज़िन्दगी व ज़हन से भी मोबाइल की भांति, अनचाहे अनुभव व स्मृतियों को फ़लक से हटा दिया जाये, तो आप खुशी से ज़िन्दगी जी सकते हैं। वैसे ज़िन्दगी बहुत छोटी है तथा मानव जीवन क्षणभंगुर … जैसा हमारे वेद-शास्त्रों में उद्धृत है। कबीरदास जी ने भी—‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात/ देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा प्रभात’ तथा ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो ज्ञानी’…यह दोनों पद मानव जीवन की क्षणभंगुरता व नश्वरता का संदेश देते हैं। मानव जीवन बुलबुले व आकाश के चमकते तारे के समान है। जिस प्रकार पानी के बुलबुले का अस्तित्व पल-भर नष्ट हो जाता है और वह पुनः जल में विलीन हो जाता है; उसी प्रकार भोर होते तारे भी सूर्योदय होने पर अस्त हो जाते हैं। जल से भरा कुंभ टूटने पर उसका जल, बाहर के जल में समा जाता है, जिसमें वह कुंभ रखा होता है। सो! दोनों के जल में भेद करना संभव नहीं होता। यही है मानव जीवन की कहानी अर्थात् जिस शरीर पर मानव गर्व करता है; आत्मा के साथ छोड़ जाने पर वह उसी पल चेतनहीन हो जाता है, स्पंदनहीन हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या होता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। परंतु बावरा मन इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि प्रभु मानव को पल-भर में अर्श से फर्श पर गिरा सकते हैं, क्योंकि जब जीवन में अहं का पदार्पण होता है, तब हमें लगता है कि हमने कुछ विशिष्ट अथवा कुछ अलग किया है। यही ‘कुछ विशेष’ हमें ले डूबता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरों की कही बातों व जुमलों पर विश्वास करने लगते हैं तथा उसकी गहराई तक नहीं जाना चाहते। वास्तव में ऐसे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमसे ईर्ष्या करते हैं। वे हमें उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख सहन नहीं कर पाते और तुरंत नीचे गिरा देते हैं। सो! उनसे दूर रहना ही बेहतर है, उपयोगी है, क़ारगर है।

परंतु हमें सम्मान तब मिलता है, जब दुनिया वालों को यह विश्वास हो जाता है कि आपने दूसरों से कुछ अलग व विशेष किया है, क्योंकि मानव के कर्म ही उसका आईना होते हैं। शायद! इसलिए ही इंसान के पहुंचने से पहले उसकी प्रतिष्ठा, कार्य-प्रणाली, सोच, व्यवहार व दृष्टिकोण वहां पहुंच जाते हैं। वे हमारे शुभ कर्म ही होते हैं, जो हमें सबका प्रिय बनाते हैं तथा विशिष्ट मान-सम्मान दिलाते हैं। सम्मान पाने की आवश्यक शर्त है— दूसरों की भावनाओं को अहमियत देना; उनके प्रति स्नेह, सौहार्द व विश्वास रखना, क्योंकि इस संसार में– जो आप दूसरों को देते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है…वह आस्था, श्रद्धा हो या आलोचना; प्रशंसा हो या निंदा; अच्छाई हो या बुराई। सो! महात्मा बुद्ध का यह संदेश मुझे सार्थक प्रतीत होता है कि ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी अपेक्षा आप उनसे रखते हैं।’ मधुर वाणी व मधुर व्यवहार हमारे जीवन के आधार हैं। मधुर वचन बोल कर आप शत्रु को भी अपना प्रिय मित्र बना सकते हैं और वे आपके क़ायल हो सकते हैं…आप उनके हृदय पर शासन कर सकते हैं। कटु वचन बोलने से आपका मान-सम्मान उसी क्षण मिट्टी में मिल जाता है; जो कभी लौटकर नहीं आता…जैसे पानी से भरे गिलास में आप और पानी तो नहीं डाल सकते, परंतु यदि आप आपका व्यवहार मधुर है, तो आप शक्कर या नमक की भांति सबके हृदय में अपना स्थान बना कर अपना अस्तित्व कायम कर सकते हैं। सामान्यतः नमक हृदय में कटुता व ईर्ष्या का भाव उत्पन्न करता है, परंतु शक्कर सौहार्द व माधुर्य … जो जीवन में अपेक्षित है और वह उसकी दशा व दिशा बदल देती है।

महाभारत के युद्ध का कारण द्रौपदी द्वारा उच्चरित शब्द ‘अंधे का पुत्र अंधा’ ही थे, जिसके कारण वर्षों तक उनके मन में कटुता का भाव व्याप्त रहा और वे प्रतिशोध रूपी अग्नि में प्रज्ज्वलित होते रहे। उसके अंत से तो हम हम सब भली-भांति परिचित हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा; जो आज भी प्रासंगिक व सम-सामयिक है। इतना ही नहीं, विदेशी लोग तो गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में स्वीकारने लगे हैं और विश्व में ‘गीता जयंती’ व ‘योग दिवस’ बहुत धूमधाम से मनाया जाता है… परंतु यह सब हम लोगों के दिलों में पूर्ण रूप से नहीं उतर पाया। वैसे भी ‘जो वस्तु विदेश के रास्ते से भारत में आती है, उसे हम पूर्ण उत्साह व जोशो-ख़रोश से अपनाते व मान सम्मान देते हैं तथा जीवन में धारण कर लेते हैं, क्योंकि हम भारतीय विदेशी होने में फख़्र महसूस करते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि हमारे मन में अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था का अभाव है और पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करना; हमारी आदत में शुमार है। इसलिए हम ‘जीन्स-कल्चर व हैलो-हॉय’ को इतना महत्व देते हैं। ‘लिव-इन, मी टू व परस्त्री-गमन’ हमारे लिए स्टेटस-सिंबल बन गए हैं, जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बखूबी सेंध लगा रहे हैं। इनके भयावह परिणाम बच्चों में बढ़ रही हिंसा, बुज़ुर्गों के प्रति पनप रहा उपेक्षा भाव व वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में हमारे समक्ष हैं। इसी कारण शिशु से लेकर वृद्ध तक अतिव्यस्त व तनाव-ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। हमारे संबंधों को दीमक चाट रही है और सामाजिक सरोकार जाने कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। संबंधों की अहमियत न रहने से स्नेह-सौहार्द के अस्तित्व व स्थायित्व की कल्पना करना बेमानी है। सो! जहां मनोमालिन्य, स्व-पर व ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का एकछत्र साम्राज्य होगा; वहां प्रेम व सुख-शांति कैसे क़ायम रह सकती है? सो! मोबाइल जहां संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है; दिलों की दूरियों को नज़दीकियों में बदलता है; हमें दु:खों के अथाह सागर में डूबने से बचाता है… वहीं ज़िंदगी में अजनबीपन के अहसास को भी जाग्रत करता है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलों की धड़कन बन सदैव अंग-संग रहता है और उसके बिना जीवन की  कल्पना करना बेमानी प्रतीत होता है।

आइए! इस संदर्भ में सुख व सुविधा के अंतर पर दृष्टिपात कर लें। मोबाइल से हमें सुविधा के साथ  सुख तो मिल सकता है, परंतु शांति नहीं, क्योंकि सुख भौतिक व शारीरिक होता है और शांति का संबंध मन व आत्मा से होता है। जब मानव को मोबाइल की लत लग जाती है और वह सुविधा के स्थान पर उसकी ज़रूरत बन जाती है, तो उसके अभाव में उसका हृदय पल-भर के लिये भी शांत नहीं रह पाता; जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विदेशों में बसे लोग हैं। उनके पास भौतिक सुख-सुविधाएं तो हैं, परंतु मानसिक शांति व सुक़ून की तलाश में वे भारत आते हैं, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति अत्यंत समृद्ध है तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की भावना से आप्लावित है। ‘अतिथि देवो भव’ का परिचय–’अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को/ मिलता एक सहारा’ की भावना, हमें विश्व में सिरमौर स्वीकारने को बाध्य करती है; जहां बाहर से आने वाले अतिथि को हम सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उनके प्रति अजनबीपन का भाव, हृदय में लेशमात्र भी दस्तक तक नहीं दे पाता। जिस प्रकार सागर में विभिन्न नदी-नाले समा जाते हैं; वैसे ही बाहर के देशों से आने वाले लोग  हमारे यहां इस क़दर रच-बस जाते हैं कि यहां रंग, धर्म, जाति-पाति आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं रहता।

‘प्रभु के सब बंदे, सब में प्रभु समाया’ अर्थात् हम सब उसी परमात्मा की संतान हैं और समस्त जीव-जगत् व सृष्टि के कण-कण में मानव उसी ब्रह्म की सत्ता का आभास पाता है। आदि शंकराचार्य का यह वाक्य ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ का इस संदर्भ में विश्लेषण करना आवश्यक है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जो भी हमें दिखाई पड़ता है, मिथ्या है; परंंतु माया के कारण सत्य भासता है। सो! प्राणी-मात्र में उस प्रभु के दर्शन पाकर हम स्वयं को धन्य व भाग्यशाली समझते हैं; उनकी प्रभु के समान उपासना करते हैं। इसलिए हम हर दिन को उदार मन से उत्सव की तरह मनाते हैं और उस मन:स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां हमें लेशमात्र भी छू नहीं पातीं।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त व्यक्ति हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि वह हमारे पथ की बाधा बनकर उपस्थित हुआ है और हमें उसकी रौ में नहीं बह जाना है। तभी हमारे मन में यह भाव दस्तक देता है कि हमें आत्मावलोकन कर आत्म-विश्लेषण करना होगा ताकि हम स्वयं में सुधार ला सकें। वास्तव में यह अपने गुण-दोषों के प्रति स्वीकार्यता का भाव है। जब हमें यह अनुभूति हो जाती है कि हम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उस स्थिति में हम खुद में सुधार ला सकते हैं और दूसरों को दुष्भावनाओं व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने में अहम् भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। वास्तव में जब तक हम अपने दोषों व अवगुणों से वाक़िफ़ नहीं होते; आत्म-परिष्कार संभव नहीं है। वास्तव में वे लोग उत्तम श्रेणी में आते हैं; जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जो लोग अपने अनुभव से सीखते हैं, वे द्वितीय श्रेणी में आते हैं और जो लोग ग़लती करने पर भी उसे नहीं स्वीकारते; वे ठीक राह को नहीं अपना पाते। वास्तव में वे निकृष्टतम श्रेणी के बाशिंदे कहलाते हैं तथा उनमें  सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। हां! कोई दैवीय शक्ति अवश्य उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। ऐसे लोग अपने अनुभव से अर्थात् ठोकरें खाने के पश्चात् भी अपने पक्ष को सही ठहराते हैं। मोबाइल के वाट्सएप, फेसबुक आदि के ‘लाइक’ के चक्कर में लोग इतने रच-बस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी वे उससे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते और वे शारीरिक व मानसिक रोगी बन जाते हैं। इस मन:स्थिति में वे स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझते।

परमात्मा सबका हितैषी है। वह जानता है कि हमारा हित किस में है…इसलिए वह हमें हमारा मनचाहा नहीं देता, बल्कि वह देता है…जो हमारे लिए हितकर होता है। परंतु विनाश काल में अक्सर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; विपरीत दिशा में चलती है और उसे सावन के अंधे की भांति सब  हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में मानव अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है और स्वयं को उस उधेड़बुन से मुक्त नहीं कर पाता, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया है, कभी लौटकर नहीं आता। सो! उसे स्मरण कर समय व शक्ति को नष्ट करना उचित नहीं है। हमें अतीत की स्मृतियों को अपने जीवन से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वे हमारे विकास में बाधक व अवरोधक होती हैं। हां! स्वर्णिम स्मृतियां हमारे लिए प्रेरणास्पद होती हैं, जिनका स्मरण कर हम वर्तमान की ऊहापोह से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और उस स्थिति में हमारे हृदय में आत्मविश्वास जागृत होता है। प्रश्न उठता है कि यदि हममें पहले से ही वह सब करने की सामर्थ्य थी, तो हम पहले ही वैसे क्यों नहीं बन पाये? सो! यदि हममें आज भी साहस है, उत्साह है, ओज है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है…फिर कमी किस बात की है? शायद जज़्बे की… ‘मैं कर सकता हूं; मेरे लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। ‘वह विषम परिस्थितियों में सहज रहकर उनका साहसपूर्वक सामना कर, अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकता है। मुझे याद आ रही हैं– स्वरचित अस्मिता की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां…’मुझमें साहस ‘औ’ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ हर मानव में साहस है, उत्साह है ….हां! आवश्यकता है– आत्मविश्वास और जज़्बे की…जिससे वह कठिन से कठिन कार्य कर सकता है और मनचाहा प्राप्त कर सकता है। ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद/ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो/ तबीयत से उछालो! यारो।’ आप कर सकते हैं…निष्ठा से, साहस से, आत्मविश्वास से…परंतु उस कार्य को अंजाम देने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है।

हां! असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और बुद्धिमान तो अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिए वह सब कुछ कर गुज़रते हैं; जो कल्पनातीत होता है और पर्वत भी उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। वे विषम परिस्थितियों में भी पूर्ण तल्लीनता से अपने पथ पर अग्रसर रहते हैं। वैसे भी जीवन में ग़लती को पुन: न दोहराना श्रेष्ठ होता है। सो! अपने पूर्वानुभवों से शिक्षा ग्रहण कर जीने की राह को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जीवन में केवल दो रास्ते ही नहीं होते …तीसरा विकल्प भी अवश्य होता है। उद्यमी व परिश्रमी व्यक्ति सदैव तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाते हैं और मंज़िल को प्राप्त कर लेते हैं। बनी-बनाई लीक पर चलने वाले ज़िंदगी में कुछ भी नया नहीं कर सकते और उनके हिस्से में सदैव निराशा ही आती है; जो भविष्य में कुंठा का रूप धारण कर लेती है। मुझे तो रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘एकला चलो रे’ पंक्तियों का स्मरण हो रही हैं… ‘इसलिए भीड़ का हिस्सा बनने से परहेज़ रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि शेरों की जमात नहीं होती।’ इसलिए अपनी राह का निर्माण खुद करें। मालिक सबका हित चाहता है और हमें सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है– ‘उसकी नवाज़िशों में कोई कमी न थी/ झोली हमारी में ही छेद था।’ यह पंक्तियां परमात्मा के प्रति हमारे दृढ-संकल्प व अटूट विश्वास को दर्शाती हैं व स्थिरता प्रदान करती हैं। वह करुणामय प्रभु सब पर आशीषों की वर्षा करता है तथा हमें आग़ामी आपदाओं से बचाता है। हां! कमी हममें ही होती है, क्योंकि हम पर माया का आवरण इस क़दर चढ़ा होता है कि हम सृष्टि-नियंता की रहमतों का अंदाज़ भी नहीं लगा पाते…उस पर विश्वास करना तो कल्पनातीत है। हम अपने अहं में इस क़दर डूबे रहते हैं कि हम स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने लगते हैं। इसलिए हमारी  झोली हमेशा खाली रह जाती है। वास्तव में जब हम उस सृष्टि-नियंता के प्रति समर्पित हो जाते हैं; उसके प्रति आस्था, श्रद्धा व विश्वास रखने लगते हैं; तो हमारा अहं स्वत: विगलित होने  लगता है और हम पर उसकी रहमतें बरसने लगती हैं। इस स्थिति में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हमारा कौन-सा अच्छा कर्म, उस मालिक को भा गया होगा कि उसने हमें फ़र्श से उठाकर अर्श पर पहुंचा दिया।

यदि हम उपरोक्त स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो मानव को अपने हृदय में निहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि भावों को निकाल बाहर फेंकना होगा और उसके स्थान पर स्नेह, प्यार, त्याग, सहानुभूति आदि से अपनी झोली के छेदों को भरना होगा। इस स्थिति में आपको दूसरों से संगति व सद्भाव की अपेक्षा नहीं रहेगी। आप एकांत में अत्यंत प्रसन्न रहेंगे, क्योंकि मौन को सबसे बड़ा तप व त्याग स्वीकारा गया है; जो नव-निधियों का प्रदाता है। ‘बुरी संगति से अकेला भला’ में भी यह सर्वश्रेष्ठ संदेश निहित है। इसलिए जो व्यक्ति एकांत रूपी सागर में अवग़ाहन करता है; वह अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त कर सकता है; जिसमें उसे अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सो! तादात्म्य की स्थिति तक पहुंचने के लिए मानव को अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं। हां! यदि आप अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो भी यह सच्चा सौदा है। आप सांसारिक बुराइयों अर्थात् तेरी-मेरी, राग-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त नहीं होंगे … आपका मन सदैव पावन, मुक्त व शून्यावस्था में रहेगा और आप प्रभु की करुणा-कृपा पाने के सुयोग्य पात्र बने रहेंगे।

आइए! अतीत की स्मृतियों को विस्मृत कर वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, ताकि सुखद व सुंदर भविष्य की कल्पना कर; हम खुशी से अपना समय व्यतीत कर सकें। ज़िंदगी बहुत छोटी है। सो! हर पल को जी लें। मुझे याद आ रही हैं… वक्त फिल्म की दो पंक्तियां ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है।’ यह पंक्तियां चारवॉक दर्शन ‘खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ’ की पक्षधर हैं। इसलिए मानव को अतीत और भविष्य के भंवर से स्वयं को मुक्त कर, वर्तमान अर्थात् आज में जीने की दरक़ार है, क्योंकि यही वह सार्थक पल है। यह सर्वविदित है कि हम ज़िंदगी भर की संपूर्ण दौलत देकर एक पल भी नहीं खरीद सकते। इसलिए हमें समय की महत्ता को जानने, समझने व अनुभव करने की आवश्यकता है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय लौट कर नहीं आता।  सो! सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा व रहमत को अनुभव कर उसके सान्निध्य को महसूस करना बेहतर है। यही वह माध्यम है…उस प्रभु को पाने का; उसके साथ एकाकार होने का; स्व-पर का भेद मिटा अलौकिक आनंद में अवग़ाहन करने का। सो! एक सांस को भी व्यर्थ न जाने दें… सदैव उसका नाम-स्मरण करें…उसे अपने क़रीब जानें और अपनी जीवन-डोर उसके हाथों में सौंप कर निर्मुक्त अवस्था में जीवन-यापन करें… यही निर्वाण की अवस्था है, जहां मानव लख-चौरासी अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यही कैवल्य की स्थिति और हृदय की  मुक्तावस्था है। सो! हर पल ख़ुदा की रहमत को अनुभव करें और ज़िंदगी को सुहाना सफ़र समझें, क्योंकि ‘यहां कल क्या हो…किसने जाना’ आनंद फिल्म की इन पंक्तियों में निहित जीवन संदेश… ‘हंसते, गाते जहान से गुज़र, दुनिया की तू परवाह न कर’…इसलिए ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे बचें, क्योंकि ‘लोगों का काम है कहना; टीका-टिप्पणी व आलोचना करना।’ परंतु यदि आप उनकी ओर ध्यान नहीं देते, तभी आप अपने ढंग से ज़िंदगी जी सकते हैं, क्योंकि प्रेम की राह अत्यंत संकरी है, जिसमें दो नहीं समा सकते। जब आप पूर्ण रूप से सृष्टि-नियंता के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तो परमात्मा आगे बढ़ कर आपको थाम लेते हैं … अपना लेते हैं और आप अपनी मंज़िल तक पहुंच पाते हैं। इसलिए कछुए की भांति स्वयं को आत्म-केंद्रित कर, अपनी पांचों कर्मेंद्रियों को अंकुश में रखें और हंसते-हंसते इस संसार से सदैव के लिए विदा हो जाएं। इस स्थिति में आप लख चौरासी से मुक्त हो जायेंगे, जो मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 33 ☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं”.)

☆ किसलय की कलम से # 33 ☆

☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆

परियों और राजकुमारियों के सौन्दर्य बखान करने में कवियों – शायरों – कहानीकारों ने शायद ही कोई कसर छोड़ी होगी। आदि से अब तक रूप, रंग और सुन्दरता को ही प्राय: लोकप्रियता का आधार माना जाता रहा है, भले ही उसका दूसरा पहलू प्रशंसनीय रहा हो अथवा नहीं। यही कारण है कि लोगों का झुकाव सुन्दरता की दिशा में अधिक होता गया और निश्चित रूप से जो सुन्दर नहीं है, उनके मन में कहीं न कहीं हीन भावना अपना स्थान बनाने में सफल होती गई, मगर दृढ़ता और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि ऐसा कदापि नहीं है। अनपढ़ कालिदास, अंधे सूरदास, पोलियोग्रस्त क्रिकेटर चन्द्रशेखर, संगीतज्ञ दिव्यदर्शी रवीन्द्र जैन आदि अनेक नामों को गिनाया जा सकता है, जिन्हें लोकप्रियता रंग, रूप अथवा सौन्दर्य के बलबूते नहीं मिली। इन्होंने अपनी विशेष योग्यताओं के कारण लोकप्रियता हासिल की है। आज भी कला, संगीत, अभिनय, नृत्य, गायन, खेल, समाज सेवा जैसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें दक्ष महिलायें अथवा पुरुष दोनों ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचकर अपने जीवन को सुखमय एवं सार्थक बनाने में सफल हो सकते हैं, फिर भी लड़कियों एवं महिलाओं में अपने रंग, रूप और सौन्दर्य को लेकर प्रतिस्पर्धा सहज ही निर्मित हो जाती है। वहीं दूसरी ओर हीन भावना भी पनपती है। यह हीन भावना उन लड़कियों में अधिक प्रभाव डालती है जो कम सुन्दर होने के साथ – साथ किसी भी अन्य क्षेत्र में निपुण नहीं होतीं। इन परिस्थितियों में स्वयं लड़कियों अथवा अभिभावकों की ज़रा सी भूल या असतर्कता उनका सारा जीवन अंधकारमय बना सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि लड़कियाँ आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब इसका मतलब यह कदापि नहीं होना चाहिये कि उनका तिरस्कार किया जाए। किसी न किसी बहाने अथवा मौका मिलते ही इनकी कमियों की ओर इशारा और समझाईश दी जाना चाहिए। उन लड़कियों और नवयुवतियों को भी चाहिए कि वे विवाह पूर्व इस कमी की पूर्ति हेतु अनेक कलाओं – विधाओं में दक्षता प्राप्त कर लें। यह पाया गया है कि अधिकांश लोगों का ध्यान सौन्दर्य दर्शन में ही केन्द्रित होता है और शेष गुणों की ओर अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं। यह सत्यता भी है कि सामने दिखाई देने वाले गुण प्रथम दृष्टि में ही प्रभावित कर लेते हैं, जबकि अन्य गुणों की जानकारी हेतु निकटता एवं संवाद की आवश्यकता होती है। प्राय: लड़कियों में उत्पन्न सौंदर्यबोध अभिमान का अनुभव कराने लगता है। साथ ही गैरों की टिप्पणियाँ जहाँ एक ओर आनंद की अनुभूति देती है, वहीं दूसरी ओर तनाव भी बढाती हैं, जिनसे वे लक्ष्य को पाने में आंशिक परेशानी महसूस करने लगती हैं। यहाँ कहा तो जा सकता है कि लड़कियों का दूसरा वर्ग इस तरह की परेशानियों से अछूता रहता है, फिर भी ऐसे में सुन्दरता की कमी को पूर्ण करने हेतु कोई न कोई पूरक अथवा विकल्प अत्यावश्यक होता है। यही पूरक अथवा विकल्प ही उन लड़कियों का भविष्य निश्चित करता है। उसमें कठिन परीक्षा लगन, साहस और धैर्य की आवश्यकता होती है। लगातार मेहनत और लगन उसे अच्छी गायिका, समाज सेवी, अभिनेत्री, साहित्यकार, चित्रकार अथवा किसी भी गरिमापूर्ण पद पर आसीन करा सकता है जो कि वर्तमान में आवश्यक भी है। इससे उन लड़कियों के लिए प्रतिष्ठित परिवार, सुयोग्य वर एवं सुखमय जीवन की सर्वोच्च आकांक्षा की पूर्ति के द्वार भी खुल जाते हैं।

नारी का सौंदर्य ही केवल सार्थक जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। सुन्दरता के अतिरिक्त लड़की का एक भी अवगुण या कमी निश्चित रूप से उसका जीवन चुनौतीपूर्ण बना देती है। साथ ही उस कारण ससुराल में भी अनावश्यक कठिनाईयाँ पैदा हो सकती हैं, लेकिन लड़की यदि प्रतिभावान हो, अथवा परिवार चलाने की कला में निपुण हो, उसमें कोई उल्लेखनीय हुनर हो या फिर अच्छे ओहदे पर कार्यरत हो तो एक समझदार पति सारी जिन्दगी अपने परिवार को खुशहाल बनाए रख सकेगा और अपनी पत्नी का सदैव सम्मान भी करेगा। अत: यह बात हमारे परिवार के प्रत्येक सदस्यों को ध्यान में रखना होगी कि यदि हमारी लड़की, हमारी बहन, हमारी बहू आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब भी उसका तिरस्कार कदापि नहीं किया जाना चाहिए। हमें उनके अंत:करण में ऐसे बीज अंकुरित करना होंगे जो भविष्य में मीठे फलों को पैदा कर सके, जिनकी मिठास उनमें निहित कमी को भी भुला दे और परिवार के सदस्य उनकी प्रतिभा की भूरी – भूरी प्रशंसा करते रहें। यही हम सबका सार्थक प्रयास भी होना चाहिए अन्यथा महिलायें सदैव अपने भाग्य को कोसती रहेंगी, मनचाहा वर न मिलने पर स्वयं को दोषी ठहराएँगी, तब उनके लिए पश्चाताप के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचेगा।

आज जब नारी वर्ग शिक्षा, तकनीकि, उद्योग, अन्तरिक्ष, सैन्य सहित अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चश्व कायम करने में सफल हो रहा है। समाज और शासन भी प्राचीन दकियानूसी बातों को नकार कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहा है, तब बहन – बेटियों को चाहिए कि वे कोई न कोई ऐसी विशेषता, कला या गुणों में निपुण होना सुनिश्चित करें जो उनके सुखद भविष्य हेतु मील का पत्थर बने।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 60 ☆ कूड़े की आत्मकथा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय आलेख  “कूड़े की आत्मकथा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 60 ☆

☆ कूड़े की आत्मकथा ☆ 

दोस्तो मैं कूड़ा हूँ । मुझे आज अपनी आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि लोग मुझे यथास्थान न डालकर नाले – नालियों , रेलवे लाइनों के किनारे या ऐसी जगह फेंकते हैं, जहाँ कोई भी अपने को मनुष्य कहनेवाला मानव नहीं फेंकेगा। लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं , ऐसा लग रहा है कि वे बिल्कुल चिकने घड़े हो गए हैं। अपना चेहरा भी सबको ऐसे दिखाते हैं कि हमसे ज्यादा तो कोई काबिल है ही नहीं। बल्कि जो भी समझदार मनुष्य ऐसा करने के लिए मना भी करे या समझाए तो उसे पागल, मसखरा कहकर अपने ही जैसे लोगों के बीच मख़ौल उड़ाते हैं, कमाल के लोग हैं साहब इस प्रजातंत्र के। छुट्टे सांड की तरह मनमानी करना चाहते हैं। लज्जा शर्म तो उन्होंने उतार कर ही रख दी है। अज्ञान और अहंकार में गले तक डूबे हैं। क्योंकि उनको बाहुबल और माया का गुरूर है। वैसे मैं मानता हूँ कि सुविधाभोगी लोगों ने मुझ कूड़े से धरती और जल को पाटकर पर्यावरण को विनाशकारी बनाया है और निरंतर बना रहे हैं। अब मैं धरती पर प्लास्टिक अर्थात मोमजामे से बनी पन्नियों के रूप में धरती और जल पर अपना घर स्थापित कर रहा हूँ। लोग मुझे एक बार के अलावा दुबारा भी प्रयोग नहीं करना चाहते हैं। मुझसे तो खिलवाड़ गरीब और अमीर सब ही कर रहे हैं। सबको हर सामान प्लास्टिक की पन्नी में चाहिए। मजे की बात है कि सरकार ने मुझे बन्द करने के लिए कुछ आदेश भी कर रखे हैं लेकिन मैं तो कूड़े के रूप में वैध अवैध रूप से खूब उत्पादित हो रहा हूँ। सब कुछ भ्रष्टाचार के रूप में सब कुछ फल फूल रहा है। सब भाग रहे हैं मैराथन दौड़ में।

लोग हैं कि प्लास्टिक की पन्नियों में पशुओं के खाने का कूड़ा आदि भरकर सड़क, राह व मौहल्ले में फेंक देते हैं, उसे ही खाकर कितनी ही गाय आदि अकाल ही मौत के मुँह में समाए जा रही हैं। कमाल के लोग हैं साहब इस देश के, अति के लापरवाह और गैरजिम्मेदार।

दोस्तो हर घर में ही मेरा रहन सहन होता रहता है और हर घर से ही मुझे नाक मुँह सिकोड़ते और बेकार समझकर रोज – रोज तो कभी होली और दीवाली पर बाहर फेंक दिया जाता है। मुझ कूड़े के हजारों रूप हैं।

कुछ लोग मुझसे ही रोजगार पाते हैं, मुझे गले लगाते हैं, मेरे साथ सोते जागते भी हैं। बल्कि मेरी उपस्थिती में ही पीते-खाते हैं। मैं उनके लिए बड़े काम की चीज हूँ साहब।

नित्य ही वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं। नई निराली वस्तुएँ सुविधाभोगिता की बढ़ती ही जा रही हैं। उतना ही मैं भी भी खूब फल फूल रहा हूँ। मुझसे ही कबाड़ का व्यापार करने वाले अनेकानेक बड़े और छोटे कबाड़ी रोजगार पा रहे हैं। कितने ही  मुझ कूड़ा में से उपयोगी चीजें एकत्रित करनेवाले परिवार मेरी सँग ही जीते और मरते हैं, हजारों बड़े और बच्चे।

हर वस्तु की अपनी उम्र भी होती है। लेकिन मैं अमर हूँ। मैं किसी न किसी रूप में हर युग में उपस्थित रहा हूँ। जब प्लास्टिक की उत्पाद का जन्म नहीं हुआ था, तब लोग सामान क्रय करने के लिए घर से कपड़े के थैले लेकर आते थे। घर के सब्जी व फलों के आदि के छिलकों आदि को गाय और पशुओं को खिला दिया जाता था। या उसका खाद ही बना लिया जाता था। अर्थात उसका सही उपयोग हो जाता था। साथ ही लोग सामान खरीदने के लिए अपने साथ कपड़े से बना थैला आदि रखते थे, लेकिन जब से नए नए आविष्कार और सुविधाभोगिता ने पाँव पसारे हैं, तब से तो मेरी बहार ही आ गई है। हर जगह मेरा साम्राज्य फैल गया है। धरती और नदियों से लेकर समुंदर तक।

हजारों टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि जब पूरी तरह खराब और अनुपयोगी हो जाते हैं तब वे कूड़ा बनकर कबाड़ की दुकानों तक पहुंचते हैं, फिर बड़े व्यापारियों तक और फिर  उन तक जो मुझे जलाकर उसमें से तांबा आदि वस्तुओं को निकालते हैं। यह सब काम व्यापारी और पुलिस की सांठगांठ से सम्पन्न होता रहता है और मैं कूड़ा वायु में मिलकर तुम सबकी साँसों में समा जाता हूँ तथा तुम्हें बीमारियां परोसकर अपना साम्राज्य बढ़ाता रहता हूँ।

मैं कूड़ा हूँ मैं सुचारू रूप से अपना निदान और समाधान आपके द्वारा चाहता हूँ। एक हमारे दादाजी हैं वे तो सब्जी फल आदि के छिलकों का पौधों के लिए घर में ही खाद बना लेते हैं। तोते, बन्दर और गिलहरी आदि भी उसमें से चुन कर कुछ खा जाते हैं और जो बचता है उसकी खाद बना लेते हैं। पौधे मस्त और स्वस्थ हो जाते हैं। अर्थात एक पंथ दो काज।

मैं कूड़ा चाहता हूँ कि मुझे यथास्थान डालो, मेरा उपयोग करो। नाले और नालियों में नहीं डालो। न ही नदियों में मुझे डालो, जैसा कि धर्मभीरू लोग पूजा का अवशेष प्लास्टिक की पन्नियों में भरकर डाल रहे हैं। वे सब पाप के भागी ही बन रहे हैं। हरा और सूखा कूड़ा अलग डालो। उसका उपयोग हो। सरकारी मशीनरी उसका सही निदान खोजे।अनुपयोगी सामान जैसे टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल या अन्य ऐसे ही सामानों का सरकार और वैज्ञानिक समाधान और निदान खोजें। नहीं तो ये धरती एक दिन कूड़े के ढेर के रूप में सिमट जाएगी। वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण से आज सभी ही त्रस्त हैं। अधिकांश लोग अर्थात सरकारी मशीनरी से लेकर सभी सुविधाभोगिता और निजी स्वार्थ के मायाजाल में फँसे हुए हैं। बहुत कम लोग पंच तत्वों को बचाने की सोच रहे हैं। प्लास्टिक की फैक्टरियों पर प्रतिबंध भी लगने चाहिए। विशेष तौर अवैधों पर। तब कहाँ दिखेंगी ये धरा और जल पर फैली प्लास्टिक की पन्नियाँ। और कौन इन्हें जलाकर करेगा वायु प्रदूषण।

मैं कूड़ा हूँ मेरा उचित निदान और समाधान खोजिए, यदि युद्धस्तर पर नहीं सोचा गया या किया गया तो न पीने का पानी शुद्ध मिलेगा और न वायु। सारे के सारे भौतिक संसाधन और नए नए उत्पाद धरे के धरे रह जाएंगे। लोग कोरोना महामारी की तरह बेमौत दम तोड़ेंगे। मंथन और चिंतन करिए। शुरुआत अपने से करिए। मुझ कूड़े का यथासंभव निदान करिए।नदियों और नाले नालियों को मुझ कूड़े से मत पाटिए।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆

प्रातः भ्रमण के बाद कुछ समय के लिये उद्यान में बैठा। दृष्टि उठाकर देखा तो स्वयं को डेकोरेटिव प्रजाति के दो-चार पेड़ों से घिरा पाया। चिकनी-चुपड़ी छाल, आसमान छूने की जल्दबाज लोलुपता, किसी के काम न आनेवाली ऊँची टहनियाँ, धरती के भीतर जाकर अधिकाधिक जल अवशोषित करने को आतुर जड़ें, अपनी ही सूखी डाल को खटाक से नीचे फेंक देनेवाला पेड़। देखा कि इस पेड़ से निर्वासित सूखी डालियाँ भी दूसरे पेड़ों की डालियों पर आसन जमाये बैठी हैं।

विचार उठा कि साहित्य हो या राजनीति, ब्यूरोक्रेसी या कोई अन्य सार्वजनिक क्षेत्र, मनुष्य के भीतर भी एक डेकोरेटिव प्रजाति है जो निरंतर फलती-फूलती जा रहा है। साम, दाम, दंड या भेद से येन केन प्रकारेण सारा कुछ अवशोषित करने की स्वार्थलोलुप प्रवृत्ति वाली प्रजाति। दुर्भाग्य यह कि आजकल इसी प्रजाति एवं प्रवृत्ति का रोपण तथा विकास किया जाता है। मन खिन्न हो गया।

खिन्न विचारों की सुस्त धारा में एकाएक उमंग की कुछ लहरें उठने लगीं। एक बुजुर्ग महिला आती दिखीं। कुछ दूर खड़े पीपल की जड़ों में उन्होंने एक लोटा जल अर्पित किया। फिर दीया चासा। प्रज्ज्वलित दीपक से उठती लौ ने मानो नयी दृष्टि दी। दृष्टि आगे बढ़ी तो मन्नत के धागों से लिपटा किसी ऋषि-सा वटवृक्ष खड़ा था।…और विस्तार किया तो पाया कि उद्यान की सीमा पर विशालकाय नीम पहरा दे रहे हैं। सघन पेड़ों में अपने घरौंदे बनाये बैठे पंछियों के स्वर अब कानों में अमृत घोल रहे हैं।

सीमित आयु वाले निरुपयोगी डेकोरेटिव या सैकड़ों वर्ष की आयु वाले पीपल, बरगद, नीम! मनुष्य के पास विकल्प है- अस्थायी दिखावटी चमक से इतराने या चराचर के लिए घनी छाया देकर प्रकृति की स्मृति में अंगद के पाँव-सा डटने का।…सदा की तरह अंतिम बात, अपने विकल्प का चयन स्वयं करो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 80 ☆ मी टू : अंतहीन सिलसिला ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मी टू : अंतहीन सिलसिला।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 80 ☆

☆ मी टू : अंतहीन सिलसिला ☆

‘मी टू’ एक सार्थक प्रयास, शोषित महिलाओं को न्याय दिलाने की मुहिम, वर्षों से नासूर बन रिसते ज़ख्मों से निज़ात पाने की अचूक मरहम… एक अंतहीन सिलसिला है। बरसों से सीने में दफ़न चिंगारी ज्वालामुखी पर्वत की भांति सहसा फूट निकलती है, जो दूसरों के शांत-सुखद जीवन को तहस-नहस करने का उपादान बन, अपनी विजयश्री का उत्सव मना रही होती है, विजय पताका लहरा रही होती है, जिससे समाज में व्याप्त समन्वय व सामंजस्यता का अंत संभाव्य है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने शोषित मासूमों में अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस जगाया है, क्योंकि अन्याय व ज़ुल्म सहन करने वाला, ज़ुल्म करने वाले से अधिक दोषी व अपराधी  स्वीकारा जाता है। औरतों की ‘मी टू’ में सक्रिय प्रतिभागिता होने पर, समाज के हर वर्ग के रसूखदार सदमे में हैं, क्योंकि किसी भी पल उन पर उंगली उठ सकती है और वे हाशिए पर आ सकते हैं। वैसे तो हर औरत इन हादसों की शिकार होती है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक कदम-कदम पर उसकी अस्मत पर प्रहार किया जाता है और उसे इन विषम परिस्थितियों से जूझना पड़ता है…मुंह बंद कर के रहना पड़ता है ताकि परिवार का रूतबा कायम रह सके।

आइये! ज़रा दृष्टिपात करें  इसके स्याह पक्ष पर…  बहुत सी महिलाएं अपना स्वार्थ साधने हेतु निशाना दाग़ने से नहीं चूकतीं। वे धन- ऐश्वर्य पाने, झूठी पद- प्रतिष्ठा बटोरने व अधिकाधिक सुख-सुविधा जुटाने के निमित्त, लोक-मर्यादा की परवाह न करते हुए, हर सीमा का अतिक्रमण कर गुज़रती हैं। जैसे 498 ए के अंतर्गत दहेज मांगने के इल्ज़ाम में, पति व ससुराल पक्ष के लोगों को कटघरे खड़ा करना, जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाना या दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाने का दम्भ भरना, अपनी कारस्तानियों का सबके सम्मुख सीना तान कर दम्भ भरना..सोचने पर विवश करता है… आखिर किस घने स्याह अंधकार में खो गयी है ममता की सागर, सीने में अथाह प्यार, असीम वफ़ा व त्याग समेटे नि:स्वार्थी, संवेदनशील, श्रद्धेय नारी…जिसकी तलाश आज भी जारी है। मी टू के झूठे आरोप लगा कर या दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाकर पैसा व धन- सम्पत्ति ऐंठने का प्रचलन बदस्तूर जारी है, जिसके  परिणाम- स्वरूप आत्महत्या के मामले भी सामने आ रहे हैं, जो समाज के लिए घातक हैं; मानव-जाति पर कलंक हैं… शोचनीय हैं, चिन्तनीय हैं, मननीय हैं, निन्दनीय हैं।

एक प्रश्न मन में कुलबुलाता है…आखिर इतने वर्षों के पश्चात्, इन दमित भावनाओं का प्राकट्य क्यों… यह दोषारोपण तुरन्त क्यों नहीं? इसके पीछे की मंशा व प्रयोजन जानने की आवश्यकता है, जिसका ज़िक्र पहले किया जा चुका है। इस संदर्भ में उन महिलाओं की चुप्पी व तथाकथित कारणों पर प्रकाश डालने की अत्यंत आवश्यकता है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पश्चात् सहसा यह विस्फोट क्यों?

प्रश्न उठता है क्या ‘मी टू’ वास्तव में विरेचन है…उन दमित भावनाओं का, अहसासों का, जज़्बातों का, जो उनके असामान्य व्यवहार को सामान्य बना सकता है। वे लोग,जो शराफ़त का नकाब ओढ़े, समाज में ऊंचे-ऊंचे पदों पर काबिज़ हैं, उनकी हक़ीक़त को उजागर करने का माध्यम है, उनके जीवन के कटु यथार्थ को प्रकट करने का मात्र उपादान है, साधन है। क्या यह आधी आबादी को न्याय दिलाने का एकमात्र उपाय है?

आइए! इस विषय के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करें…क्या यह दोनों पक्षों के हित में है… शायद नहीं। वास्तव में आरोपी पक्ष पर इल्ज़ाम लगाने पर, कीचड़ के छींटे हमारे उजले दामन को भी मैला करते हैं और दोनों परिवारों की इज़्ज़त ही दांव पर नहीं लगती, उनके घरों का सुख-चैन, शांति व सुक़ून भी नदारद हो जाता है। यहां तक कि चंद आत्महत्याओं के मामलों ने तो अंतर्मन को इस क़दर झिंझोड़ कर रख दिया कि सुप्रीम कोर्ट की सोच पर भी पुन:चिंतन करने की आवश्यकता का विचार मन में सहसा कौंधा, क्योंकि इससे मानसिक आघात व हंसते-खेलते परिवारों में ग्रहण लगने की अधिक संभावना है।शेष निर्णय व दायित्व आप पर।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 32 ☆ खुद की आलोचना पर आत्मावलोकन ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “खुद की आलोचना पर आत्मावलोकन”.)

☆ किसलय की कलम से # 32 ☆

☆ खुद की आलोचना पर आत्मावलोकन ☆

मानव के दुर्गुण जब समाज के सामने आते हैं तब उसकी निन्दा होना स्वाभाविक है। यदि किसी की आलोचना होती रहे तो वह निन्दित-दुर्गुणों की ओर ध्यान अवश्य देगा और उनके निराकरण के उपाय भी सोचेगा। वहीँ निन्दा से घबराए इन्सान अक्सर समाज में अपनी प्रतिष्ठा नहीं बना पाते। वैसे किसी ने सच ही कहा है कि निन्दा की सकारात्मक स्वीकृति एक बड़े साहस की परिचायक है। यदि इन्सान अपनी ही निन्दा अर्थात आत्मावलोकन करना स्वयं शुरू कर दे और उन पर अमल करे तो इसे हम “सोने पर सुहागा” वाली कहावत को चरितार्थ होना कहेंगे। मन से दुर्गुण रूपी मैल के निकल जाने से इन्सान में चोखापन आता है। स्वयं की बुराईयों को नज़र अन्दाज़ करने वाले इन्सान को कभी भी नीचा देखना पड़ सकता है, लेकिन इन्सान अपने आप में सद्विचार और परिवर्तन लाता है तब वह दूसरों को भी सुधारने या सद्मार्ग की ओर प्रेरित करने का हक़ प्राप्त कर लेता है। यही कारण है कि ऐसे इन्सान के समक्ष कोई भी दुर्गुणी ज्यादा देर तक टिक ही नहीं पाता। यह कहना भी उचित है कि कोई भी व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न हो ही नहीं सकता और यदि सर्वसम्पन्न है तो वह मानव नहीं देवता कहलायेगा।

हम सभी ये जानते हुए भी कि सद्कर्मी सर्वत्र प्रशंसनीय होते हैं, फिर भी हमारी प्रवृत्ति सद्कर्मोन्मुखी कम ही होती है। हम अपने गुणों का बखान करने के स्थान पर यदि आत्मावलोकन करें और बुराईयों को दूर करने का प्रयत्न करें तो निश्चित रूप से हमारे अन्दर ऐसे परिवर्तन आयेंगे जिससे हम समाज में कम से कम एक अच्छे इन्सान के रूप में तो जाने जायेंगे।

अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि अपनी निन्दा या आलोचना को सदैव सहज स्वीकृति देते हुए उस पर आत्मावलोकन करें, आत्म चिंतन करें और जो निष्कर्ष सामने आएँ उनका अनुकरण करें तो इन्सान कभी भी दुखी या निराश नहीं रहेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साहित्यिक पत्रकारिता: कल, आज और कल…… ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

कल ही आपका नवीन लघुकथा संग्रह “मैं नहीं जानता” प्रकाशित हो कर आया है।  यह लघुकथा संग्रह डॉ नरेंद्र मोहन जी को समर्पित एवं हंस प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इससे पहले आपके चार लघुकथा संग्रह – “मस्तराम जिंदाबाद”, “ऐसे थे तुम”, “इस बार” और “इतनी सी बात” प्रकाशित हुए हैं। “इतनी सी बात” का पंजाबी अनुवाद “ऐनी कु गल्ल” के नाम से प्रकाशित हुआ है। निश्चित ही उनकी यह उपलब्धि हिंदी साहित्य में अपना एक अलग स्थान बनाएंगी।

? श्री कमलेश भारतीय जी को “मैं नहीं जानता” के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें ?

आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी के व्यक्तित्व एवं साहित्यिक जीवन से सीखने के लिए उनका साहित्य एक दर्पण है, जो हमें और हमारी साहित्यिक विचारधारा को समय समय पर आइना होता दिखाता है। आज प्रस्तुत है उनकी साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़ी अतीत, वर्तमान और भविष्य को लेकर संस्मरणात्मक विमर्श – साहित्यिक पत्रकारिता :  कल, आज और कल… )

☆ आलेख ☆ साहित्यिक पत्रकारिता: कल, आज और कल… ☆

मेरे बड़े भाई फूलचंद मानव उम्र के इस पड़ाव पर भी किसी युवा की तरह सक्रिय हैं । यह देख कर खुशी भी होती है और प्रेरणा भी मिलती है । मैं लगभग चार दशक से ऊपर इनकी स्नेह छाया में हूं । मेरी साहित्यिक यात्रा के हर पड़ाव पर मेरा इनका साथ है । यहा तक कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों सम्मान के भी हम एक दूसरे के साक्षी रहे । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के तीन साल की अवधि में कितनी ही शामें इनके घर ठहाकों के साथ बिताईं और कुछ गोष्ठियां भी कीं ।

साहित्यिक पत्रकारिता से मेरा लगाव और जुड़ाव शुरू से ही है । हालांकि मूलतः मैं कथा विधा से जुड़ा हूं -कथा और लघुकथा । इसके बावजूद मुझे निर्मल वर्मा और मणि मधुकर के साहित्यिक सफ़रनामे बहुत लुभाते रहे । निर्मल वर्मा से तो मेरी चिट्ठी पत्री और फोन पर बातचीत भी होती रही । उनकी ची चीड़ों पर चांदनी इस विधा की बहुत लुभावनी पुस्तक है । अज्ञेय की अरे यायावर रहेगा याद और मोहन राकेश की आखिरी चट्टान तक पुस्तकें चाहकर भी मेरे हाथ नहीं लगीं । श्रीपत राय जी तक पहुंचा लेकिन पुस्तकें आउट ऑफ स्टाक मिलीं । आज तक इन्हें न पढ़  पाने का खेद है । हालांकि सचमुच कन्याकुमारी तक और,आखिरी चट्टान तक पहुंचा । मणि मधुकर के यात्रा संस्मरण की एक प्रारम्भिक पंक्ति दिल को छू गयी – “अभी अभी लौटा हूं और मैंने जूते उतारे हैं और वहीं की मिट्टी और यादें मेरे साथ चली आई हैं ।” क्या बात और क्या शुरुआत । इसी तरह निर्मल  वर्मा ने जो हरिद्वार के कुंभ मेले का दिनमान के लिए वर्णन किया और नर्मदा नदी के किनारे किनारे जाकर जो लिखा वह भी सदैव आदर्श बना रहा । क्या ऐसे संस्मरण या साहित्यिक पत्रकारिता भी की जा सकती है ? सच । आज तक विश्वास नहीं होता । विद्यानिवास मिश्र और कुबेर दत्त के आलेखों को भी इतने ही प्यार से पढ़ता रहा । विद्यानिवास मिश्र ने तो नवभारत टाइम्स से विदाई पर लिखा कि “जैसे गली में ठेले पर विविध चीज़ें लाद कर बेचने वाला आता है, ऐसे ही हम संपादक भी अखबार में विविध काॅलम लेकर आते  हैं।” आज मैं इन सबको समेट कर जा रहा हूं । क्या कहा और कितनी सरलता से कह दिया ।

मैं दैनिक ट्रिब्यून में उप संपादक बन कर चंडीगढ़ आया । मेरी खुशकिस्मती कि मुझे पहले सहायक संपादक और बाद में संपादक विजय सहगल का स्नेह और आत्मीयता मिली । सबसे पहले मुझे सेक्टर 47 के एक तंदूर वाले पर लिखने का आदेश मिला । मैं वहां गया और बातचीत की और आधी रात तक अपनी पहली असाइनमेंट को बेहतर तरीके से पूरा करने पर विचार करता रहा । आखिर भवानी प्रसाद मिश्र की कविता का शीर्षक ही काम आया – “जी हां हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ”  और इसी तर्ज पर शीर्षक दिया- “जी हां हुजूर, मैं तंदूर बेचता हूं” और उस विकलांग की सारी पारिवारिक व सामाजिक परेशानियों को लिख डाला । वह  पहला ही आलेख बहुत पसंद किया गया ।

इसके बाद मुझे दिल्ली भेजा गया अक्तूबर में गांधी जयंती पर राजघाट के एक दृश्य के लिए । मैं वहां गया । सब देखा । गांधी की समाधि से लेकर प्रतिष्ठान तक । वापस आकर सोचा । क्या और कैसे नया लिखा जाए ? फिर बाहर फूल बेचने वाली वृद्धा ध्यान में आई । वहीं से शुरू किया और किसी गीत की तरह वहीं खत्म किया कि कैसे हम श्रद्धा और विश्वास से समाधि स्थल तक जाते हैं लेकिन गांधी के विचार तक नहीं छूते हमें । क्यों ? मुन्ना भाई जैसी फिल्म भी इसी ओर संकेत करती है । फूल, विश्वास और श्रद्धा सब कुछ होते हुए भी हम गांधी की राह से दूर होते जा रहे हैं । जरा जरा सी बात पर रक्तरंजित आंदोलन क्यों ?

इसी तरह जगरांव के पास ढुढिके भेजा लाला लाजपत राय के जन्म स्थान पर बने स्मारक पर संस्मरण लिखने के लिए । विजय सहगल मेरे अंदर खटकड़ कलां के शहीद भगत सिंह के पुरखों के गांव को पहचानते थे । वह आलेख धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था । इसी को देखते जगरांव के निकट ढुढिके भेजा । मुझे याद है जब इसे देखने के बाद लौटा तो आधी रात हो गयी थी और मैं बारिश में बुरी तरह भीग कर घर आया तो पत्नी ने कहा कि ऐसे तो बीमार हो जाओगे और मुगालते में न रहो कि बहुत बड़े पत्रकार बन जाओगे । पर मुझे सुकून था कि मैं एक ऐसी बारिश में भीगा हूं जिसमें मोहन राकेश का कालिदास भीगा होगा ।

आज देखता हूं कि साहित्यिक पत्रकारिता की भूमि बंजर होती जा रही है । पत्र पत्रिकाओं में इसके लिए कोई जगह नहीं बची । या रखी नहीं गयी । मैंने एक जुनून में साहित्यिक लोगों के इंटरव्यूज किए और यादों की धरोहर के रूप में इस पुस्तक के दो संस्करण जैसे हाथों हाथ गये और हिमाचल दस्तक ने इसका धारावाहिक प्रकाशन शुरू किया उससे लगा कि शायद अनजाने में मुझसे कुछ अच्छा काम हो गया है । नया ज्ञानोदय में काशीनाथ सिंह का इंटरव्यू ध्यान में आता है और व्यंग्य यात्रा के त्रिकोणीय इंटरव्यूज भी एक नयी सूझ है । इस तरह के प्रयोग होते रहने चाहिएं ।

जहां भी हम ऐसे संस्मरण या प्रसंग लिखें वहां कहीं न कहीं विचार की चिंगारी जरूर छोड़ें । नया प्रतीक में प्रफुल्ल चंद्र ओझा का मुंशी प्रेमचंद पर लिखा संस्मरण बहुत ही प्रेरणाप्रद रहा और अनेक मंचों पर मैंने इसे सुनाया । आखिर में इतना ही कहना चाहूंगा ;

इस सदन में मैं अकेला ही दीया नहीं हूं लेकिन इसके लिए स्पेस बची रहनी चाहिए पत्र पत्रिकाओं में ,,,

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए ☆ श्री राजकुमार जैन राजन

श्री राजकुमार जैन राजन 

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री राजकुमार जैन राजन जी का हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपका एक सारगर्भित आलेख ‘पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए । हम भविष्य में भी ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी विशिष्ट रचनाओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।)

जीवन परिचय के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें — >> श्री राजकुमार जैन राजन

☆ आलेख ☆ पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए ☆ श्री राजकुमार जैन राजन ☆

भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों ने पर्यावरण को स्वच्छ और वातावरण को स्वस्थ रखने के लिए अनेक व्यवहारिक पक्ष समाज को दिए हैं। धरती पर जीवन संतुलित बना रहे, आबाद रहे इसके लिए पर्यावरण संरक्षण आवश्यक है। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वन, पहाड़, नदी, झील आदि के महत्व को उन्होंने जाना और समझा। इसके संरक्षण हेतु अनेक मार्ग भी बताए। जब हम स्वच्छ पर्यावरण की बात करते हैं, तो यह केवल हानिकारक गैसों और रसायनों से मुक्त होने की बात नहीं होती। पर्यावरण में हमारे आस-पास का सारा माहौल शामिल है। इस माहौल को दूषित करने के अपराध सहभागी हर वह व्यक्ति है, जो कहीं भी थूक देते हैं, गुटका-पाउच, पॉलीथिन सड़कों पर कहीं भी फैंक देते हैं। अपने घर का कचरा समेटकर किसी तरह थैले में ठूंस कर कहीं भी पटक आते हैं, जला देते हैं …। क्या आपको अंदाजा है कि कचरे के प्रकार, मात्रा और उसके उचित निस्तारण के प्रति अपने उदासीन रवैये के चलते पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने में हम सब बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।

आधुनिक युग में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का एक भयानक पहलू है पर्यावरणीय असंतुलन।जिसके कारण धरती की सेहत लगातार गिरती जा रही है। धरती पर पादप जगत और जीव जगत एक दूसरे पर आश्रित हैं। यह सहजीवन जितना सहज होगा, दुनिया मे उतनी ही खुशहाली, हरियाली रहेगी। हजारों सालों से यह संतुलन बरकरार रहा, लेकिन धीरे धीरे जब इंसानी आबादी विस्तार लेने लगी और उसके अस्तित्व के लिए प्राकृतिक संसाधन कम पड़ने लगे, तो इसके लिए पेड़ -पौधों को काटा जाने लगा। नदियों को बाँधा जाने लगा और पहाड़ों को क्षरित किया जाने लगा, तो पर्यावरण संतुलन बिगड़ने लगा। परिणामतः मानव जाति के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया। यह ठीक है कि विज्ञान ने हमको बहुत कुछ दिया है, जिससे मानव बहुत सरल व सुखी हो गया है। परंतु अपनी तृष्णाओं व अनन्त विकास-विस्तार, संवेदनहीनता, बौद्धिकता की लालसा, बेइंतहा भाग-दौड़ से मानवता का स्वभाव भी अधिक मारक व उग्र होता जा रहा है। तकनीकी के ज्यादा प्रयोग और मुनाफा कमाने के चक्कर में मानव ने जल, थल, नभ सभी कुछ को ही मथ डाला है। आज मानव विकास के मार्ग पर तेजी से बढ़ रहा है वहीं बड़े-बड़े कल-कारखानों की चिमनियों से लगातार उठने वाली जहरीली गैसें, धुआँ वायुमंडल में घुलती जा रही है। बड़ी-बड़ी मशीनों का शोर वायु प्रदूषण के साथ-साथ पर्यावरण को दूषित कर रहा है। प्राणवायु देने वाले पेड़ों को काटकर राजमार्ग बनाये जा रहे है। कॉलोनियां बसाई जा रही है। इससे धरती पर जीवनदायनी ऑक्सीजन की कमी होती जा रही है। मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। कई तरह की बीमारियां पनप रही है।

मानव जीवन को भौतिक सुविधाएं तो प्राप्त हो रही है, परन्तु पृथ्वी पर मौजूदा जीवन आधारित स्त्रोत तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं । भूमि के अतिरिक्त दोहन व उत्खनन से जैव-विविधता, पशु-पक्षी, वनस्पति, जल, नदियां, तालाब, झीलें, पहाड़ धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं। विभिन्न प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन के साथ धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी ने धरती के ऋतु चक्र को ही गड़बड़ा दिया है। युद्ध जैसी विभीषिकाओं से उत्सर्जित रासायनिक पदार्थ व गैसें हमारे प्राकृतिक संसाधन को ही नहीं, बल्कि समूचे वायुमंडल को विषाक्त कर रहे हैं। पूरी धरती का दम प्रदूषण से घुट रहा है। इस घुटन के प्परिणाम स्वरूप ही तो प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने लगी है। भूकम्प, अतिवृष्टि, पहाड़ों के टूटना, सुनामी जैसे खतरे बढ़ने लगे गए हैं। इन बढ़ते खतरों से मानव जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है। हम इस बात पर गर्वकर सकते हैं कि मोबाइल फोन, लेपटॉप, कम्प्यूटर, टी. वी., माइक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, एयर कंडीशनर आदि की संख्या कुल आबादी से कई गुनाअधिक हो गई है।हर दिन इनमें से कई हज़ार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़ में डाल दिए जाते हैं। सभी इलेक्ट्रिक उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं जो जल, जमीन, वायु, मानव और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उबरना लगभग ना मुमकिन है। यही ई-कचरा है। यही बात प्लास्टिक व प्लास्टिक उत्पादों के बारे में कहीं जा सकती है। इनसे निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी मे मिलकर उन्हें बंजर और विषैला बना देती है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा तथा वनस्पति ये सब पंचभूत तत्व मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। इन सबमें प्रकृति जन्य संतुलन बना रहना  मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक है। धरती के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए हमें अपनी जीवन चर्या को इर तरह नियंत्रित करना चाहिए कि जिससे प्रकृति के साथ सहयोग, समन्वय और समरसता बनी रहे। उपभोगवादी संस्कृति और अति स्वार्थपूर्ण प्रवृतियों को बदलने की जरूरत है, तभी मानवता का भविष्य व पृथ्वी का अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है। विश्व के विभिन्न देशों की सरकारों को जागरूक होकर पर्यावरण संरक्षण के लिए कारगर उपायों की तरफ शीघ्रता से चिंतन करना चाहिए। बूंद-बूंद  से घड़ा भरता है। सरकारें तो इस दिशा में कार्य करेगी है, पर धरती के आम नागरिक होने के नाते पर्यावरण संरक्षण के लिए हर व्यक्ति अपने-अपने प्रयास ईमानदारी पूर्वक करने चाहिए।  व्यक्ति अपनी सोच, अपने कर्म, अपने उद्देश्य को बदलें। सबको सही समय पर दिशा मिले, क्योंकि बिना महत्वाकांक्षी-मन को संयमित किये पर्यावरण दूषित होने से बच नहीं  सकता। कितनी विचित्र बात है कि एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो सब कुछ पाकर भी खुद को खो देने के जतन में लगा है। दूसरों की समस्याओं का समाधान ढूँढते-ढूँढते स्वयं अपनी अस्मिता और अस्तित्व खोने की ओर अग्रसर है। कहाँ गया वो आदमी, जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचर भूमि का एक ग़ज़ टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिए जल की एक-एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी।जो वन्य जीवों के संरक्षण के लिए पेड़ लगाना अपना धर्म मानता था।  वातावरण को स्वच्छ करने के लिए तुलसी का पौधा हर घर -आँगन की शोभा हुआ करता था। जो आदमी धरती को माँ की तरह सम्मान देता था, अफसोस कि ऐसा आदमी दुनियावी विकास की आंधी में कहीं खो गया है। आज आदमी खुद पर्यावरण बैरी बन गया है। जब आदमी के भाव, विचार और कर्म बदलते हैं तो उसका प्रभाव बाहरी पर्यावरण पर भी पड़ता है। दूषित पर्यावरण दूषित वृत्तियों का परिफलन है। इस लिए जरूरी है कि प्रकृति-संतुलन और सुरक्षा के लिए व्यक्ति स्वयं के चरित्र को बदले। शुरुआत हमें अपने आप से करनी होगी।

आज हमारी फैलाई गंदगी हमारी ही सांसों में घुल रही है, भोजन-पानी मे मिल रही है। हमारा फैलाया कचरा हमें ही बीमार कर रहा है। क्या हम जानते हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में हम खुद रोज कितना योगदान देते हैं? एकबार अपनी जीवन शैली पर नज़र डालें। रोज जाने -अनजाने कितना कचरा फैलाते है हम? भारत मे सार्वजनिक स्थलों, धर्मस्थलों, बाग-बगीचों आदि जगहों पर फैली गंदगी को देखकर बाकी दुनिया को लगता है कि गंदगी फैलाना हमारा मौलिक अधिकार है। क्या आप कभी ऐसा सोचते है? हम विदेशों में जाते हैं, एयरपोर्ट या हाई प्रोफाइल मॉल में जाते हैं तो वहां चिप्स का खाली पैकेट या चॉकलेट का रैपर भी डस्टबिन नहीं दिखने पर जेब में रख लेते हैं, तो हर जगह सही काम क्यों नहीं करते? अपने आप को धार्मिक कहते हैं लेकिन धर्मस्थलों पर गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते? दुनिया भर में आप अपने प्रकृति प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटते हैं, और विकास के नाम पर सैकड़ों पेड़ कटवा देते हैं। क्या आप पर्यावरण की महत्ता, उसकी सुरक्षा का समुचित ज्ञान अपने बच्चों को देते हैं? कोई भी कार्य केवल सरकार के बूते नहीं हो सकता। पर्यावरण की स्वछता नागरिकों का भी कर्तव्य है। हम बस एक बार अपनी जीवन शैली पर नज़र डालें। किसी के प्रति नहीं, हम खुद के, अपने परिजनों और आनेवाली अपनी पीढ़ियों के प्रति जवाबदेह हैं। गंदगी केवल बीमार पर्यावरण, रुग्ण हालात, लोग और माहौल पैदा करेगी। जब समय और पीढ़ी सवाल पूछेगी, तो क्या हमारे  पास जवाब होगा? धरती की पुकार कानों में कसक पैदा कर रही है कि पर्यावरण के सुधार के लिए लग जाओ ताकि स्वच्छ हवा, पानी मनुष्य को मिलता रहे। धरती को पेड़ों से आच्छादित करदो ताकि जीवनदायिनी हवा कम न हो। मानव जीवन बचाना है तो पर्यावरण बचाना ही हमारी प्राथमिकता हो। अगर आप देश, समाज के लिए मुफ्त में कुछ करना चाहते हैं, तो गंदगी न फैलाएं। यह पाप मत कीजिये। खुद सफाई रखिये और इसके लिए आगे बढ़कर पहल कीजिये। पर्यावरण प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बचने के लिए पेड़ों को बचाइए, गंदगी मत फैलाइये और पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए। धरती और मानवता आपकी आभारी रहेगी।

© श्री राजकुमार जैन राजन 

सम्पर्क – चित्रा प्रकाशन , आकोला -312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान

मोबाइल :  9828219919

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ गणतंत्र दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

Flag: India on WhatsApp 2.20.206.24  गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ Flag: India on WhatsApp 2.20.206.24

☆ साथी हाथ बढ़ाना ☆

(चार वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस पर लिखी एक पोस्ट साझा कर रहा हूँ।)

  • गण की रक्षा के लिए गांदरबल में कल भारी हिमपात के बीच आतंकियों से जूझते सैनिकों के चित्र देखे।
  • चौबीस घंटे पल-पल चौकन्ना सुरक्षातंत्र और उनकी कीमत पर राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी मनाता गण अर्थात आप और हम।
  • विचार उठा क्यों न राष्ट्रीय पर्वो की छुट्टी रद्द कर उन्हें सामूहिक योगदान से जोड़ें!
  • बुजुर्गों तथा बच्चों को छोड़कर देश की आधी जनसंख्या लगभग पैंसठ करोड़ लोगों के एक सौ तीस करोड़ हाथ एक ही समय एक साथ आएँ तो कायाकल्प हो सकता है।
  • देश की सामूहिकता केवल डेढ़ घंटे में एक सौ तीस करोड़ पौधे लगा सकती है, लाखों टन कचरा हटा सकती है, कृषकों के साथ मिलकर अन्न उगाने में हाथ बँटा सकती है।
  • हो तो बहुत कुछ सकता है। ‘या क्रियावान स पंडितः’..। पूरे मन से साथी साथ आएँ तो ‘असंभव’ से ‘अ’ भी हटाया जा सकता है।

   – संजय भारद्वाज 

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☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 4 ☆

(केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है– संजय भारद्वाज )

अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए 27 जुलाई 1943 को नेताजी सत्रह दिनों की यात्रा पर निकले। 10 अगस्त 1943 को वे रंगून में बर्मा के स्वतंत्रता समारोह में सम्मिलित हुए। फिर बैंकॉक पहुँचे। थाईलैंड से भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए समर्थन मांगा। तत्पश्चात वियतनाम और मलेशिया गये। भारत की आजादी के लिए सर्वस्व अर्पित करने के आह्वान के साथ सुभाषबाबू जहाँ भी जाते, हजारों भारतीयों की भीड़, उनको देखने-सुनने के लिए प्रतीक्षा कर रही होती।

21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के कैथी सिनेमा हॉल के परिसर में आयोजित विशाल जनसभा में नेताजी ने हुकूमत-ए-आजाद हिंद (स्वतंत्र भारत की सरकार) की घोषणा कर दी। नेताजी को इस सरकार का प्रधानमंत्री, युद्ध और विदेशी मामलों का मंत्री एवं सर्वोच्च सेनापति घोषित किया गया। सरकार के प्रमुख के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी ने कहा-

‘ईश्वर के नाम पर मैं यह पवित्र शपथ लेता हूँ कि मैं भारत को और अपने अड़तीस करोड़ देशवासियों को आजाद कराऊँगा। मैं सुभाषचन्द्र बोस, अपने जीवन की आखिरी साँस तक आजादी की इस पवित्र लड़ाई को जारी रखूँगा। मैं सदा भारत का सेवक बना रहूँगा और अपने अड़तीस करोड़ भारतीय भाई-बहनों की भलाई को अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझूँगा। आजादी प्राप्त करने के बाद भी, इस आजादी को बनाए रखने के लिए मैं अपने खून की आखिरी बूँद तक बहाने के लिए सदा तैयार रहूँगा।’

इस मंत्रिमंडल के परामर्शदाता के रूप में रासबिहारी बोस की नियुक्ति हुई। डॉ. लक्ष्मी विश्वनाथन, एस.ए.अय्यर, एस.जी.चटर्जी, अजीज अहमद, एन.एस.भगत, जे.के. भोसले, गुलजारासिंह, एम.जे. कियानी, ए.डी.लोकनाथन, शहनवाज खान, सी.एस.ढिल्लों, करीम गांधी, देबनाथ दास, डी.एम.खान, ए. थेलप्पा, जेधिवी, ईश्वरसिंह को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया। भारत की इस अंतरिम सरकार को जापान, जर्मनी और इटली सहित विश्व के नौ देशों ने मान्यता भी प्रदान कर दी। दिसम्बर 1943 के अंत में जापानी नौसेना ने समारोहपूर्वक अंडमान और निकोबार आजाद हिंद फौज को सौंप दिये। नेताजी ने तुरंत प्रभाव से दोनों द्वीपों का नाम बदलकर क्रमशः शहीद और स्वराज रखा। ए.डी.लोकनाथन को आजाद हिन्द सरकार का ले.गर्वनर नियुक्त किया गया।

इस बीच नेताजी ने आजाद हिन्द फौज में तीन ब्रिगेडों का गठन किया। हर ब्रिगेड में दस हजार सैनिक थे। इन्हें गांधी, आजाद और नेहरु ब्रिगेड का नाम दिया। बाद में उन्होंने महिलाओं की एक रेजिमेंट ‘झांसी की रानी रेजिमेंट’ नाम से गठित की। 6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडिओ के माध्यम से उन्होंने गांधीजी से संवाद स्थापित किया। अपने इस संबोधन में सुभाषबाबू ने विस्तार से आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य, अंतरिम सरकार की स्थापना, और जापान से सहयोग जैसे मुद्दों पर चर्चा की। यही वह भाषण था जिसमें नेताजी ने गांधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया था। गांधीजी का ‘राष्ट्रपिता’ नामकरण इस भाषण के बाद ही पड़ा। नेताजी ने कहा था, ‘एक बार देश आजाद हो जाए, फिर इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के हाथों सौंप दूँगा।’ आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित करते हुए जून 1944 में नेताजी ने वह अमर नारा दिया, जिसकी अनुगूँज भारत की रग-रग में सदा सुनाई देती रहेगी। यह नारा था-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ नेताजी के ऐतिहासिक भाषण के कुछ अंश इस प्रकार हैं-

‘अब जो काम हमारे सामने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे; जवानों, धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए हैं। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूँ। जवान, धन और सामग्री अपने आप विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते। हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिए, जो हमें बहादुर व नायकोचित कार्यों के लिए प्रेरित करे।

सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुँच में दिखाई देती है, आपका यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी। यहाँ मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए-मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके; एक शहीद की मौत मरने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।

साथियो, स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियो ! आज मैं आपसे एक ही चीज मांगता हूँ; सबसे ऊपर मैं आपसे खून मांगता हूँ। यह खून ही उस का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’

नेताजी के कदम तेजी से भारत की ओर बढ़ने लगे थे। जापानी सेना के साथ मिलकर आजाद हिन्द फौज इंफाल और कोहिमा तक आ पहुँची। तभी जापान ने पर्ल-हार्बर पर आक्रमण कर दिया। भारी संख्या में अमेरिकी युद्धपोत और सैनिक हताहत हुए। अमेरिका ने युद्ध में सीधे उतरने की घोषणा कर दी। अगस्त में जापान के क्रमशः हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका ने अणुबम डाल दिया। पलक झपकते ही लाखों लोग मारे गए। असंख्य विकलांग हो गए । मानवीय इतिहास की इस सर्वाधिक भयानक विभीषिका के बाद जापान ने घुटने टेक दिए।

इधर स्थितियाँ मित्र राष्ट्रों के पक्ष में झुकने लगी। मणिपुर-नागालैंड आ पहुँची जापानी सेना पीछे हटने लगी। अंग्रेजों ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों का भीषण संहार किया। पर नेताजी हार माननेवालों में नहीं थे। वे किसी भी मूल्य पर भारत को स्वाधीन देखना चाहते थे। रूस को साथ लेने की दृष्टि से उन्होंने मंचुरिया जाने का फैसला किया। 18 अगस्त 1945 को वे एक युद्धयान से मंचुरिया के लिए रवाना भी हुए।

23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई न्यूज एजेंसी ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का विमान ताइवान में दुर्घटना ग्रस्त हो गया था और दुर्घटना में बुरी तरह जले नेताजी का अस्पताल में निधन हो गया है। एजेंसी के अनुसार नेताजी की अस्थियाँ जापान के रेनकोजी बौद्ध मंदिर में रखी गई हैं।

तब से, अब तक नेताजी की मृत्यु को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। 1956 और 1977 में गठित जाँच आयोगों ने निष्कर्ष निकाला कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में ही हुई थी। जबकि 1999 में बने मुखर्जी आयोग ने नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु का कोई सबूत नहीं पाया। यह पहला आयोग था जिसने ताइवान सरकार से 18 अगस्त 1945 की दुर्घटना की अधिकृत रपट मांगी थी। ताइवान सरकार ने आयोग को बताया कि उस दिन ताइवान में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी। बाद में भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रपट को अस्वीकार कर दिया।

18 अगस्त 1945 से 80 के दशक तक देश के विभिन्न भागों से नेताजी को देखे जाने की खबरें आती रहीं। गुमनामी बाबा और स्वामी शारदानंद के नेताजी होने के दावे भी किये गए पर अन्यान्य कारणों से प्रशासनिक स्तर पर इन दावों की कोई जाँच नहीं की गई।

1897 में जन्मे सुभाषबाबू अब नहीं हैं, यह तो निश्चित है। अपनी दैहिक मृत्यु के बाद भी अद्भुत व्यक्तित्व और अनन्य राष्ट्रप्रेम का यह उफनता ज्वालामुखी जनमानस की आँखों में निराकार से साकार हो उठता है। नेताजी को अमर और चेतन मानने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि उन्हें मरणोपरांत भारतरत्न देने की बात पर देश भर में विरोध की लहर उठी। भारतीय जनता इस योद्धा को मृत मानने को तैयार नहीं। फलतः सरकार को अपनी बात वापस लेनी पड़ी।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जीवन इस बात का अनन्य उदाहरण है कि अकेला व्यक्ति चाहे तो अदम्य साहस, धैर्य और प्रखर राष्ट्रवाद से महासत्ता को भी चुनौती दे सकता है। भारत की अधिकांश जनता मानती है कि यदि नेताजी होते तो विभाजन नहीं होता।

सुभाषबाबू ने अपने देश के स्वाधीनता संग्राम के यज्ञ की जैसी वेदी बनाई, जिस तरह समिधा तैयार की, विशाल जनसमर्थन जुटाया और फिर अपनी आहुति दे दी, यह भारत ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का असाधारण उदाहरण है। उन्होंने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ का केवल नारा भर नहीं दिया बल्कि आजादी हासिल करने के लिए अपना रक्त अर्पित भी कर दिया। आजादी की लड़ाई के इस शीर्षस्थ महानायक को उसीके तय किये हुए अभिवादन में ‘जयहिंद !’

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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