हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #90 ☆ आलेख – हिंदी की समृद्धि में अभियंताओं का योगदान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  शोधपूर्ण आलेख ‘ हिंदी की समृद्धि में अभियंताओं का योगदान ’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 90 ☆

☆ आलेख – हिंदी की समृद्धि में अभियंताओं का योगदान  ☆

आज हिन्दी भाषी विश्व के हर हिस्से में प्रत्यक्षतः या परोक्ष रूप में कार्यरत हैं. इस तरह अब हिन्दी विश्व भाषा बन चुकी है. किसी भी भाषा की समृद्धि में उसका तकनीकी पक्ष तथा साहित्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है. कम्प्यूटर के प्रयोग हेतु यूनीकोड लिपि व विभिन्न साफ्टवेयर में हिन्दी के उपयोग हेतु अभियंताओ ने महत्वपूर्ण तकनीकी योगदान दिया है. हिन्दी के अन्य भाषाओ में ट्रांसलेशन, हिन्दी के सर्च एंजिन के विकास में भी अभियंताओ के ही माध्यम से हिन्दी दिन प्रतिदिन और भी समृद्ध हो रही है. तकनीक ने ही हिन्दी को कम्प्यूटर से जोड़ कर वैश्विक रूप से प्रतिष्ठित कर दिया है.

हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में उन साहित्यकारो का भी अप्रतिम योगदान है, जो व्यवसायिक रुप से मूलतः अभियंता रहे हैं. यथार्थ यह है कि साहित्य सृजन वही कर सकता है जो स्व के साथ साथ समाज के प्रति संवेदनशील होता है, तथा जिसमें अपने अनुभवो को सरलीकृत कर अभिव्यक्त करने की भाषाई क्षमता होती है. अभियंता विभिन्न परियोजनाओ के सिलसिले में सुदूर अंचलो में जाते आते हैं. परियोजनाओ के निर्माण कार्य में उनका आमना सामना अनेकानेक परिस्थितियो से होता है, इस तरह अभियंताओ का परिवेश व अनुभव क्षेत्र बहुत व्यापक होता है. जिन भी अभियंताओ में साहित्यिक रूप से उनके व्यक्तिगत अनुभवो के लोकव्यापीकरण व विस्तार का कौशल होता है वे किसी न किसी विधा में स्वयं को सक्षम रूप से अभिव्यक्त कर लेते हैं. जब पाठको का सकारात्मक प्रतिसाद मिलता है तो वे नियमित साहित्यिकार के रूप में स्थापित होते जाते हैं. स्वयं अपनी बात करूं तो मुझे तो पारिवारिक विरासत में साहित्यिक परिवेश मिला पर एक अभियंता के रूप में मेरे बहुआयामी कार्यक्षेत्र ने मुझे लेखन हेतु अनेकानेक तकनीकी विषयों सहित विस्तृत अनुभव संसार दिया है.

यद्यपि रचना को लेखक की व्यवसायिक योग्यता की अलग अलग खिड़कियों से नहीं देखा जाना चाहिये. साहित्य रचनाकार की जाति, धर्म, देश, कार्य, आयु, से अप्रभावित, पाठक के मानस को अपनी शब्द संपदा से ही स्पर्श कर पाता है. रचनाकार जब कागज कलम के साथ होता है तब वह केवल अपने समय को अपने पाठको के लिये अभिव्यक्त कर रहा होता है. यद्यपि समीक्षक की अन्वेषी दृष्टि से देखा जाये तो हिन्दी साहित्य में अभियंताओ का योगदान बहुत व्यापक रहा है. मूलतः इंजीनियर रहे चंद्रसेन विराट ने हिन्दी गजल में ऊंचाईयां अर्जित की हैं.

इंजीनियर नरेश सक्सेना हिन्दी कविता का पहचाना हुआ नाम है. इन दिवंगत महान अभियंता साहित्यकारो के अतिरिक्त अनेकानेक वर्तमान में सक्रिय साहित्यकारो में भी अलग अलग विधाओ में कई अभियंता रचनाकार लगातार बड़े कार्य कर रहे हैं.

मुझे गर्व है कि इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स जबलपुर द्वारा आयोजित यह वेबीनार इस विषय पर देश में पहला शोध कार्य है. इस शोध में भी तकनीक ने ही मेरी मदद की है. फेसबुक तथा व्हाट्सअप पर जब मैने यह सूचना दी कि अभियंता साहित्यकारो पर शोध पत्र तैयार कर रहा हूं तो मुझे अनेकानेक साहित्यिक अभियंता व गैर अभियंता मित्रो ने इस शोध कार्य की बहुत सारी जानकारी उपलब्ध करवाई है. गूगल सर्च एंजिन की सहायता से भी मैने काफी सामग्री जुटाई है.

यद्यपि कोई भी लेखक किसी विधा विशेष में बंधकर नही रहता सभी अपनी मूल विधा के साथ ही कभी न कभी संस्मरण, कविता, कहानी, लेख, साक्षात्कार में रचना लिखते मिलते हैं. व्यंग्य आज सबसे अधिक लोक प्रिय विधा है, जिसमें इंजी हरि जोशी जो तकनीकी शिक्षा से जुड़े रहे हैं, इंजी अरुण अर्णव खरे जो म. प्र. शासन के पी एच ई विभाग में मुख्य अभियंता होकर सेवानिवृत हुये हैं, इंजी अनूप शुक्ल  जो भारत सरकार की आयुध निर्माणी शाहजहांपुर में महा प्रबंधक हैं,इंजी श्रवण कुमार उर्मलिया जो पावर फाइनेंस कार्पोरेशन से सेवानिवृत महा प्रबंधक हैं, बी एस एन एल से सेवानिवृत इंजी राकेश सोहम व्यंग्य के जाने पहचाने चेहरे बन चुके हैं. इंजी शशांक दुबे बैंक सेवाओ में हैं पर मूलतः सिविल इंजीनियर हैं व व्यंग्य के साथ अन्य विधाओ में लेखन कर रहे हैं. इंजी मृदुल कश्यप इंदौर, इंजी अवधेश कुमार गोहाटी में प्लांट इंजीनियर हैं व व्यंग्य लिखते हैं. इंजी देवेन्द्र भारद्वाज झांसी से हैं तथा व्यंग्य लेखन में सक्रिय हैं. इंजी ललित शौर्य भी व्यंग्य का जाना पहचाना युवा नाम है.आत्म प्रवंचना न माना जावे तो स्वयं मैं इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव लगभग २० किताबो के प्रकाशन के साथ राष्ट्रीय स्तर पर लेखकीय ख्याति व पाठको का स्नेह पात्र हूं, मेरी कविता की किताब आक्रोश १९९२ में तारसप्तक अर्धशती समारोह में विमोचित हुई थी, कौआ कान ले गया, रामभरोसे, मेरे प्रिय व्यंग्य, धन्नो बसंती और बसंत, बकवास काम की, जय हो भ्रष्टाचार की, खटर पटर, समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य आदि मेरी व्यंग्य की पुस्तकें चर्चित हैं. बिजली का बदलता परिदृश्य तकनीकी लेखो की किताब है, नाटको पर भी मेरा बहुत कार्य है, साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश ने मेरी नाटक की किताब हिंदोस्तां हमारा को पुरस्कृत भी किया, मेरी संपादित अनेक किताबें व पत्रिकायें बहुचर्चित रहीं हैं, नियमित समीक्षा का कार्य भि मेरी अभिरुचि है. विदेशो में कार्यरत इंजीनियर्स भी हिन्दी में लेखन कार्य कर रहे हैं, आस्ट्रेलिया में कार्यरत इंजी संजय अग्निहोत्री ऐसा ही नाम है, वे भी व्यंग्य लिख रहे हैं.

उपन्यास में इंजी अमरेन्द्र नारायण महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं वे सरदार पटेल पर चर्चित उपन्यास लिख चुके हैं तथा टेलीकाम क्षेत्र के जाने माने इंजीनियर हैं जो भारत का प्रतिनिधित्व विश्व संस्थाओ में कर चुके हैं, वे एकता व शक्ति के संदेश को लेकर राष्ट्रीय भावधारा पर गहरा कार्य कर रहे हैं.

म. प्र. पी डब्लू डी से सेवानिवृत इंजी संजीव वर्मा ने, छंद शास्त्र तथा व्याकरण में खूब काम किया है,हमने साथ साथ दिव्य नर्मदा ई पोर्टल बनाया है. संजीव जी ने अनेक किताबों का संपादन किया है. संपादन के क्षेत्र में व व्यंग्य तथा विविध विषयो पर लेखन में नर्मदा वैली डेवेलेपमेंट अथारिटी से सेवानिवृत इंजी सुरेंद्र सिंह पवार राष्ट्रीय स्तर पर पहचान अर्जित कर चुके हैं वे नियमित पत्रिका साहित्य परिक्रमा का प्रकाशन कर रहे हैं, उनके तकनीकी लेख इंस्टीट्यूशन से पुरस्कृत हैं.

विद्युत मण्डल से सेवानिवृत इंजी प्रहलाद गुप्ता ने विशेष रूप से भगवान कृष्ण पर केंद्रित कलम चलाई है. सिंचाई विभाग से सेवानिवृत इंजी उदय भानु तिवारी तथा स्व इंजी गोपालकृष्ण चौरसिया मधुर, ने भी प्रचुर धार्मिक काव्य रचनायें की हैं. विद्युत ट्रांसमिशन कंपनी में सेवारत इंजी संतोष मिश्र ने भी धार्मिक विषयो पर लेखन किया है.

गीत लेखन में कई नाम सक्रिय हैं इंजी निशीथ पांडे छत्तीसगढ़ के सिंचाई विभाग से सेवानिवृत हैं, वे लिखते भी हैं और गाते भी हैं, इसी तरह बी एस एन एल से सेवानिवृत इंजी दुर्गेश व्यवहार भी काव्य लेखन तथा गायन में सुस्थापित हैं, उनके कई एलबम आ चुके हैं. भोपाल के इंजी अशेष श्रीवास्तव भी गायन व गीत लेखन पर काम कर रहे हैं वे पवन ऊर्जा के क्षेत्र में इंजीनियरिंग विशेषज्ञ हैं. इंजी राम रज फौजदार मूलतः सिविल इंजीनियर हैं पर उनकी गजल तथा रागों की समझ और अभिव्यक्ति उल्लेखनीय है.

इंजी बृजेश सिंग बिलासपुर, इंजी अमरनाथ अग्रवाल लखनऊ, इंजी मनोज मानव, इंजी कोमल चंद जैन विविध विषयी लेखन कर रहे हैं वे अपने सेवाकाल में अनेक देशो में कार्यरत रहे हैं व अब जबलपुर में रह रहे हैं. विद्युत मण्डल में सेवारत इंजी अशोक कुमार तिवारी ने तकनीकी साहित्य पर हिन्दी में भी काम किया है. इंजी प्रो संजय वर्मा ने तकनीकी विषयो पर हिन्दी में लेखन कार्य किया है. तकनीकी हिन्दी आलेखो के संपादन से बनी इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की पत्रिका अभियंता बंधु के संपादन के लिये इंजी शिवानंद राय रांची, इंजी विभूति नारायण सिंग लखनऊ, तथा तकनीकी विषयो पर हिन्दी लेखन के लिये प्रो जगदीश कुमार गहलावतदिल्ली, इंजी मलविंद्र सिंह बी एच ई एल हरिद्वार, इंजी नरेंद्र कुमार झा बेंगलोर, इंजी कृष्ण बिहारी अग्रवाल बरेली उप्र, इंजी डा सुधीर कुमार कल्ला पूर्व निदेशक राजस्थान विद्युत उत्पादन इकाई, इंजी डा एस एन विजयवर्गीय जीनस पावर जयपुर आदि तकनीकी लेखक हैं जो यद्यपि नियमित हिन्दी लेखक तो नही हैं किन्तु उन्होने जो भी कार्य किया है वह महत्वपूर्ण है.

कविता बहु रचित विधा है. जबलपुर के इंजी गजेंद्र कर्ण व इंजी हेमंत जैन म. प्र.शासन सिंचाई विभाग में कार्यरत थे, तथा सक्रिय रचनाकार हैं. इंजी हेमन्त जैन डाक टिकटो का संग्रह भी करते हैं, उनका टिकिट संग्रह बहुत विशाल है. उनके ही हम नाम उ प्र सिंचाई विभाग में सेवारत इंजी हेमन्त कुमार ग्राम फीना बिजनोर तकनीकी विषयो पर हिन्दी में सतत लेखन के लिये सम्मानित हो चुके हैं. इंजी महेश ब्रम्हेते विद्युत वितरण के क्षेत्र से जुड़े हुये हैं, इंजी प्रो अनिल कोरी, विविध विषयो पर काव्य, व्यंग्य स्फुट लेखन करते दिखते हैं. विद्युत मण्डल से सेवानिवृत इंजी सुधीर पाण्डे, इंजीनियर रामप्रताप खरेवर्तमान में रायपुर में रह रहे हैं, इंजी देवेन्द्र गोंटीया देवराज, जबलपुर, इंजी कमल मोहन वर्मा, इंजी सुनील कोठारी, नरसिंहपुर, म प्र सिंचाई विभाग से सेवा पूरी करके इंजी संजीव अग्निहोत्री, मंडला,म प्र सिंचाई विभाग से ही सेवा निवृत इंजी दिव्य कांत मिश्रा, मण्डला, इंजी मदन श्रीवास्तव, जबलपुर का नाम भी उल्लेखनीय है. विद्युत मण्डल सारणी में कार्यरत इंजी अनूप कुमार त्रिपाठी ‘अनुपम’ का उपन्यास आस्था की अनुगूँज आ चुका है,उनका भक्ति-गीत संकलन अमृत की बूंदें भी प्रकाशित है. इंजी अश्विनी कुमार दुबे,जल संसाधन विभाग इंदौर में कार्यरत थे, उनकी व्यंग्य, कहानी की लगभग १० किताबें प्रकाशित हैं उनका विश्वश्वरैय्या जी की जीवनी पर उपन्यास स्वप्नदर्शी चर्चित रहा है. इंजी अवधेश दुबे ने रेवा तरंग पत्रिका के सम्पादन का कार्य किया. इंजी अनिल लखेरा सेवानिवृत इंजीनियर हैं वे बड़े चित्रकार हैं स्फुट काव्य लेखन भी करते हैं. इंजी शरद देवस्थले पेट्रोलियम कार्पोरेशन से सेवानिवृत हुये हैं वे समीक्षा का अच्छा कार्य करते दिखते हैं. दिल्ली के इंजी ओम प्रकाश यति गजलकार हैं वे उप्र शासन सिंचाई विभाग में कार्यरत रहे हैं. इंजी सुनील कुमार वाजपेयी लखनऊ में हैं वे उ प्र लोकनिर्माण विभाग में कार्यरत थे, गीत छंद, कहानी आदि विधाओ में उनकी कई पुस्तके आ चुकी हैं. भोपाल के इंजी विनोद कुमार जैन भी विविध विषयी लेखक हैं. इंजी बृंदावन राय सरल म प्र शासन पी एच ई विभाग में सहायक अभियंता थे, सागर में रह रहे हें, गजल, कविता व बाल साहित्य की उनकी ५ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं. इंजी आई ए खान पी डब्लू डी मण्डला से सेवानिवृत होकर मण्डला में ही रह रहे हैं, उनकी गजलो की पुस्तक प्रकाशित है, उन्होने हिन्दी साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद के कार्य भी किये हैं, चंद्रसेन विराट की गजलों, मेरे पिता प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव की गजलों तथा मेरे व्यंग्य लेखों का अंग्रेजी अनुवाद उन्होंने किया है.इंजी कपिल चौबे सागर युवा साथी इंजी हैं तथा विविध विषयो पर कवितायें कर रहे हैं.इंजी धीरेंद्र प्रसाद सिंग, बिहार से हैं वे भी विविध आयामी लेखन कर रहे हैं.

महिला इंजीनियर लेखिकायें बहुत कम हैं. इंजी अनुव्रता श्रीवास्तव ने संस्मरण व तकनीकी विषयो पर हिन्दी में लेखन किया है उनकी संस्मरणात्मक उपन्यासिका भगत सिंग पुस्तकाकार आ चुकी है, वे दुबई में मैनेजमेंट क्षेत्र में सेवारत हैं. इंजी स्मिता माथुर यू ट्यूबर कवि हैं.इंजी. आशा शर्मा, राजस्थान विद्युत विभाग में बीकानेर में पदस्थ हैं,उनकी किताबें अनकहे स्वप्न कविता, उजले दिन मटमैली शामें-लघुकथा, अंकल प्याज -बाल कविता, तस्वीर का दूसरा रुख-कहानी, गज्जू की वापसी- बाल कहानी संग्रह, डस्टबिन में पेड़ -बाल कहानी संग्रह, मुफ्त की कीमत-लघुकथा प्रकाशित हो चुकी हैं. इंजी. अनघा जोगलेकर, गुड़गांव भी विविध विषयी लेखन कार्य में जुड़ी हुई हैं.

मूलतः इंजीनियर न होते हुये भी तकनीक से जुड़े बहुत सारे हस्ताक्षर हैं जिनका महत्वपूर्ण साहित्यिक योगदान है, डा प्रकाश खरे भारत मौसम विभाग से सेवानिवृत वैज्ञानिक हैं उनकी कवितायें व लेख चर्चित हैं, श्री हेमंत बावनकर बैंक से सेवानिवृत कम्प्यूटर विज्ञ हैं, वे ई अभिव्यक्ति साहित्यिक पोर्टल के निर्माता व संपादक हैं, शांति लाल जैन कम्प्यूटर विशेषज्ञ हैं वे व्यंग्य के जाने पहचाने सशक्त हस्ताक्षर हैं. श्री अजेय श्रीवास्तव व श्री बसंत शर्मा रेलवे में तकनीकी रूप से सेवारत हैं व साहित्य सृजन कर रहे हैं.

अभिव्यक्ति के स्वसंपादित माध्यम फेस बुक, ब्लाग तथा अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्मस ने भी इंजीनियर्स को लेकक के रूप में स्थापित होने में मदद की है. इस आलेख में ही लगभग साठ नामों का उल्लेख यहां किया जा चुका है. इनमें से कई लेखको के कृतित्व पर विस्तार से लिखा जा सकता है, अनेको के विषय में गूगल सर्च से विकीपीडीया सहित कई पृष्ठ जानकारियां, किताबें व उनकी रचनायें सुलभ हैं, तो ढ़ेरो नाम ऐसे भी हैं जिनके विषय में उनसे संपर्क करके ही विवरण जुटाने होंगे. सम्मिलित अभियंता रचनाकारो के विस्तृत विवरण समाहित करना नियत शब्द व समय सीमा में संभव नही है. विशाल भव्य हिन्दी संसार में अनेकों अभियंता लगातार अपनी शब्द आहुतियां दे रहे हैं. इस आलेख को परिपूर्ण बनाने के लिये अभी बहुत सारे नाम जोड़े जाने शेष हैं, जो आप सबके सहयोग से ही संभव हो सकता है, अतः आपके सुझाव व सहयोग की आकांक्षा है।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 3☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए चार भागों में क्रमबद्ध प्रस्तुत है पराक्रम दिवस के अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का विशेष  ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणास्पद आलेख महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस। )  

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☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 3 ☆

(केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है– संजय भारद्वाज )

फरवरी 1942 में जापान ने सिंगापुर को युद्ध में परास्त कर दिया। स्थिति को भांपकर नेताजी ने 15 फरवरी 1942 को आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से ब्रिटेन के विरुद्ध सीधे युद्ध की घोषणा कर दी। द्वितीय विश्वयुद्ध में धुरिराष्ट्र, मित्र राष्ट्रों पर भारी पड़ रहे थे। पर 22 जून 1941 को जर्मनी ने अकस्मात् अपने ही साथी सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। यहीं से द्वितीय विश्वयुद्ध का सारा समीकरण बिगड़ गया। एक नीति के तहत सोवियत संघ युद्ध को शीतॠतु में होनेवाले नियमित हिमपात तक खींच ले गया। स्थानीय स्तर पर सोवियत सैनिक हिमपात में भी लड़ सकने में माहिर थे, पर जर्मनों के लिए यह अनपेक्षित स्थिति थी। फलतः नाजी सेना पीछे हटने को विवश हो गई।

बदली हुई परिस्थितियों में जर्मनी द्वारा विशेष सहायता मिलते न देख नेताजी ने जर्मनी छोड़ने का निर्णय किया। वे बेहतर समझते थे कि भारत को मुक्त कराने का यह ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का समय है।

नेताजी ने अब जापान से सम्पर्क किया। उनकी जर्मनी से जापान की यात्रा किसी चमत्कार से कम नहीं थी। संकल्प और साहस की यह अदम्य गाथा है। नेताजी 9 फरवरी 1943 को जर्मनी के किएल से जर्मन पनडुब्बी यू-180 से गुप्त रूप से रवाना हुए। यू-180 ने शत्रु राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन के समुद्र में अंदर ही अंदर चक्कर लगाकर अटलांटिक महासागर में प्रवेश किया। उधर जापानी पनडुब्बी आई-29 मलेशिया के निकट पेनांग द्वीप से 20 अप्रैल 1943 को रवाना की गई। 26 अप्रैल 1943 को मेडागास्कर में समुद्र के गहरे भीतर दोनों पनडुब्बियां पहुँची। संकेतों के आदान-प्रदान और सुरक्षा सुनिश्चित कर लेने के बाद 28 अप्रैल 1943 को रबर की एक नौका पर सवार होकर नेताजी तेजी से जापानी पनडुब्बी में पहुँचे। जर्मनी से जापान की यह यात्रा पूरी होने में 90 दिन लगे। साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध में एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी में किसी यात्री के स्थानातंरण की यह विश्व की एकमात्र घटना है।

जापान में नेताजी, वहाँ के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो से मिले। तोजो उनके व्यक्तित्व, दृष्टि और प्रखर राष्ट्रवाद से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नेताजी का विशेष भाषाण जापान की संसद ‘डायट’ के सामने रखवाया।

जापान में ही वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी बोस भारतीय स्वाधीनता परिषद चलाते थे। रासबिहारी ने सुभाषबाबू से मिलकर उनसे परिषद का नेतृत्व करने का आग्रह किया। 27 जून 1943 को दोनों तोक्यो से सिंगापुर पहुँचे। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के फरेर पार्क में हुई विशाल जनसभा में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वाधीनता परिषद (आई.आई.एल.) का नेतृत्व नेताजी को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री तोजो भी यहाँ आई.आई.एल.की परेड देखने पहुँचे थे। यहीं आजाद हिन्द फौज की कमान भी विधिवत नेताजी को सौंपने की घोषणा हुई। कहा जाता है कि इस जनसभा में जो फूलमालाएं नेताजी को पहनाई गईं, वे करीब एक ट्रक भर हो गई थीं। इन फूल मालाओं की नीलामी से लगभग पचीस करोड़ की राशि अर्जित हुई। विश्व के इतिहास में किसी नेता को पहनाई गई मालाओं की नीलामी से मिली यह सर्वोच्च राशि है।

इस सभा में अपने प्रेरक भाषण में नेताजी ने कहा- ‘भारत की आजादी की सेना के सैनिकों !…आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। प्रसन्न नियति ने मुझे विश्व के सामने यह घोषणा करने का सुअवसर और सम्मान प्रदान किया है कि भारत की आजादी की सेना बन चुकी है। यह सेना आज सिंगापुर की युद्धभूमि पर-जो कि कभी ब्रिटिश साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था- तैयार खड़ी है।…

एक समय लोग सोचते थे कि जिस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता, वह सदा कायम रहेगा। ऐसी किसी सोच से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। इतिहास ने मुझे सिखाया है कि हर साम्राज्य का निश्चित रूप से पतन और ध्वंस होता है। और फिर, मैंने अपनी आँखों से उन शहरों और किलों को देखा है, जो गुजरे जमाने के साम्राज्यों के गढ़ हुआ करते थे, मगर उन्हीं की कब्र बन गए। आज ब्रिटिश साम्राज्य की इस कब्र पर खड़े होकर एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य अब एक बीती हुई बात है।…

मैं नहीं जानता कि आजादी की इस लड़ाई में हममें से कौन-कौन जीवित बचेगा। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में हम लोग जीतेंगे और हमारा काम तब तक खत्म नहीं होता, जब तक कि हममें से जीवित बचे नायक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दूसरी कब्रगाह-पुरानी दिल्ली के लालकिला में विजय परेड नहीं कर लेते।…

जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। गुलाम के लिए इससे बड़े गर्व, इससे ऊँचे सम्मान की बात और क्या हो सकती है कि वह आजादी की सेना का पहला सिपाही बने। मगर इस सम्मान के साथ बड़ी जिम्मेदारियाँ भी उसी अनुपात में जुड़ी हुई हैं और मुझे इसका गहराई से अहसास है। मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि अँधेरे और प्रकाश में, दुःख और खुशी में, कष्ट और विजय में मैं आपके साथ रहूँगा। आज इस वक्त में आपको कुछ नहीं दे सकता सिवाय भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के। लेकिन अगर आप जीवन और मृत्यु में मेरा अनुसरण करते हैं, जैसाकि मुझे यकीन है आप करेंगे, मैं आपको विजय और आजादी की ओर ले चलूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को आजाद देखने के लिए हममें से कौन जीवित बचता है। इतना काफी है कि भारत आजाद हो और हम उसे आजाद करने के लिए अपना सबकुछ दे दें। ईश्वर हमारी सेना को आशीर्वाद दे और होनेवाली लड़ाई में हमें विजयी बनाए।… इंकलाब जिन्दाबाद!…आजाद हिन्द जिन्दाबाद!’

क्रमशः … भाग – 4

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 2☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए चार भागों में क्रमबद्ध प्रस्तुत है पराक्रम दिवस के अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का विशेष  ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणास्पद आलेख महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस। )  

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☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 2 ☆

(केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है– संजय भारद्वाज )

16 जनवरी 1941 को  सुभाषबाबू जियाउद्दीन नामक एक पठान का रूप धरकर नजरकैद से निकल भागे। वे रेल से पेशावर पहुंचे। भाषा की समस्या के चलते पेशावर से काबुल तक की यात्रा उन्होंने एक अन्य क्रांतिकारी के साथ गूंगा-बहरा बनकर पहाड़ों के रास्ते पैदल पूरी की।

काबुल में रहते हुए उन्होंने ब्रिटेन के कट्टर शत्रु देशों इटली और जर्मनी के दूतावासों से सम्पर्क किया। इन दूतावासों से वांछित सहयोग मिलने पर वे ओरलांदो मात्सुता के छद्म नाम से इटली का नागरिक बनकर मास्को पहुंचे। मास्को में जर्मन राजदूत ने उन्हें विशेष विमान उपलब्ध कराया। इस विमान से 28 मार्च 1941 को सुभाष बाबू बर्लिन पहुंचे।

यहाँ से विश्वपटल पर सुभाषचंद्र बोस के रूप में एक ऐसा महानायक उभरा जिसकी मिसाल नामुमकिन सी है। बर्लिन पहुँचकर नेताजी ने हिटलर के साथ एक बैठक की। हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मीन कॉम्फ’ में भारतीयों की निंदा की थी। नेताजी ने पहली मुलाकात में ही इसका प्रखर विरोध किया। नेताजी के व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव हिटलर पर पड़ा कि ‘मीन कॉम्फ’ की अगली आवृत्ति से इस टिप्पणी को हटा दिया गया।

9 अप्रैल 1941 को नेताजी ने जर्मन सरकार के समक्ष अपना अधिकृत वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस वक्तव्य में नेताजी का योजना सामर्थ्य और विशाल दृष्टिकोण सामने आया। देश में रहते हुए तत्कालीन नेतृत्व जो कुछ नहीं कर पा रहा था, यह वक्तव्य, वह सब करने का ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया। इस दस्तावेज में निर्वासन में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा, स्वतंत्र भारत के रेडिओ का प्रसारण, धुरि राष्ट्रों और भारत के बीच सीधे सहयोग, भारत की इस अंतरिम सरकार को ॠण के रूप में जर्मनी द्वारा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराया जाना और भारत में ब्रिटिश सेना को परास्त करने के लिए जर्मन सेना की प्रत्यक्ष सहभागिता का उल्लेख था। हिटलर जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली शासक के साथ समान भागीदारी के आधार पर रखा गया यह वक्तव्य विश्व इतिहास में अनन्य है। नेताजी को जर्मनी की सरकार ने बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की। जर्मनी के आर्थिक सहयोग से बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर (आजाद भारत केंद्र) और आजाद हिंद रेडिओ का गठन किया गया।

2 नवम्बर 1941 को फ्री इंडिया सेंटर की पहली बैठक नेताजी की अध्यक्षता में हुई। इसमें चार ऐतिहासिक निर्णय लिए गये-

  1. स्वतंत्र भारत में अभिवादन के लिए ‘जयहिंद’ का प्रयोग होगा। इस बैठक से ही इस पर अमल शुरु हो गया।
  2. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी होगी।
  3. ‘सुख चैन की बरखा बरसे, भारत भाग है जागा’ (रचनाकार हुसैन) भारत का राष्ट्रगीत होगा।
  4. इसके बाद से सुभाषचंद्र बोस को ‘नेताजी’ कहकर सम्बोधित किया जाएगा।

कोलकाता से निकल भागने के बाद आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से नेताजी पहली बार जनता के सामने आए। विश्व ने नेताजी के सामर्थ्य पर दाँतों तले अंगुली दबा ली। आम भारतीय के मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। बच्चा-बच्चा जिक्र करने लगा कि देश को स्वाधीन कराने के लिए नेताजी सेना के साथ भारत पहुँचेंगे।

देश की आजादी के अपने स्वप्न को अमली जामा पहनाने की दृष्टि से नेताजी ने ब्रिटेन की ओर से लड़ते हुए धुरि राष्ट्रों द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को लेकर भारतीय मुक्तिवाहिनी गठित करने का विचार सामने रखा। हिटलर से बातचीत कर इन सैनिकों को मुक्त कराया गया। जर्मनी में पढ़ रहे भारतीय युवकों को भी मुक्तिवाहिनी में शामिल किया गया। जर्मन सरकार के साथ इन सैनिकों को जर्मन इन्फेंट्री में प्रशिक्षण देने का अनुबंध किया गया। नेतृत्व का समर्पण ऐसा कि सैनिक पृष्ठभूमि न होने के कारण स्वयं नेताजी ने भी इन सैनिकों के साथ कठोर प्रशिक्षण लिया। इस प्रकार भारत की पहली सशस्त्र सेना के रूप में जर्मनी की 950वीं  रेजिमेंट को ‘इंडियन इन्फेंट्री रेजिमेंट’ घोषित किया गया। नेताजी ने इस रेजिमेंट को निर्वासन में भारत की स्वतंत्र सरकार का पहला ध्वज प्रदान किया। यह ध्वज काँग्रेस का तिरंगा था, पर इसमें चरखे के स्थान पर टीपू सुल्तान के ध्वज के छलांग लगाते शेर को रखा गया। ‘इत्तेफाक, इत्माद और कुर्बानी’ (एकता, विश्वास और बलिदान) को सेना का बोधवाक्य घोषित किया गया। रामसिंह ठाकुर के गीत ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा’ को आजाद हिंद फौज का कूचगीत बनाया गया।

क्रमशः … भाग – 3

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 82 ☆ अपरिग्रह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 82 ☆ अपरिग्रह ☆

नये वर्ष के आरंभिक दिवस हैं। एक चित्र प्राय: देखने को मिलता है। कोई परिचित  डायरी दे जाता है। प्राप्त करनेवाले को याद आता है कि बीते वर्षों की कुछ डायरियाँ ज्यों की त्यों कोरी की कोरी पड़ी हैं। लपेटे हुए कुछ कैलेंडर भी हैं। डायरी, कैलेंडर जो कभी प्रयोग ही नहीं हुए। ऐसा भी नहीं है कि यह चित्र किसी एक घर का ही है। कम या अधिक आकार में हर घर में यह चित्र मौज़ूद है।

मनुष्य से अपेक्षित है अपरिग्रह। मनुष्य ने ‘बाई डिफॉल्ट’ स्वीकार कर लिया अनावश्यक  संचय। जो अपने लिये भार बन जाये वह कैसा संचय?

विपरीत ध्रुव की दो घटनायें स्मरण हो आईं। हाउसिंग सोसायटी के सामने की सड़क पर रात दो बजे के लगभग दूध की थैलियाँ ले जा रहा ट्रक पेड़ से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। भय से ड्राइवर भाग खड़ा हुआ। आवाज़ इतनी प्रचंड हुई कि आसपास के 500 मीटर के दायरे में रहनेवाले लोग जाग गये। आवाज़ से उपजे भय के वश कुत्ते भौंकने लगे। देखते-देखते इतनी रात गये भी भीड़ लग गयी।  सड़क दूध की फटी थैलियों से पट गयी थी। दूध बह रहा था। कुछ समय पूर्व भौंकने वाले चौपाये अब दूध का आस्वाद लेने में व्यस्त थे और दोपाये साबुत बची दूध की थैलियाँ हासिल करने की होड़ में लगे थे। जिन घरों में रोज़ाना आधा लीटर दूध ख़रीदा जाता है, वे भी चार, छह, आठ जितना लीटर हाथ लग जाये, बटोर लेना चाहते थे। जानते थे कि दूध नाशवान है, टिकेगा नहीं पर भीतर टिक कर बैठा लोभ, अनावश्यक संचय से मुक्त होने दे, तब तो हाथ रुके!

खिन्न मन दूसरे ध्रुव पर चला जाता है। सर्दी के दिन हैं। देर रात फुटपाथ पर घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को यथाशक्ति कंबल बाँटने का काम अपनी संस्था के माध्यम से हम करते रहे हैं। उस वर्ष भी मित्र की गाड़ी में कंबल भरकर निकले थे। लगभग आधी रात का समय था। एक अस्पताल की सामने की गली में दाहिने ओर के फुटपाथ पर एक माई बैठी दिखी। एक स्वयंसेवक से उन्हें एक कंबल देकर आने के लिए कहा। आश्चर्य! माई ने कंबल लेने से इंकार कर दिया। आश्चर्य के निराकरण की इच्छा ने मुझे सड़क का डिवाइडर पार करके उनके सामने खड़ा कर दिया था। ध्यान से देखा। लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था। संभवत: किसी मध्यम परिवार से संबंधित जिन्होंने जाने किस विवशता में फुटपाथ की शरण ले रखी है।… ‘माई! आपने कंबल नहीं लिया?’ वे स्मित हँसी। अपने सामान की ओर इशारा करते हुए साफ भाषा में स्नेह से बोलीं, ‘बेटा! मेरे पास दो कंबल हैं। मेरा जीवन इनसे कट जायेगा। ज़्यादा किसलिये रखूँ? इसी सामान का बोझ मुझसे नहीं उठता, एक कंबल का बोझ और क्यों बढ़ाऊँ? किसी ज़रूरतमंद को दे देना। उसके काम आयेगा!’

ग्रंथों के माध्यम से जिसे समझने-बूझने की चेष्टा करता रहा, वही अपरिग्रह साक्षात सामने खड़ा था। नतमस्तक हो गया मै!

कबीर ने लिखा है, “कबीर औंधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि/ तीन लोक की सम्पदा, का आबै घर माहि।”

पेट भरा होने पर भी धापा हुआ अथवा तृप्त अनुभव न करो तो यकीन मानना कि अभी सच्ची यात्रा का पहला कदम भी नहीं बढ़ाया है। यात्रा में कंबल ठुकराना है या दूध की थैलियाँ बटोरते रहना है, पड़ाव स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज

शनि. 23 जनवरी, अपराह्न 2:10 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख  ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अंतिम भाग। )

☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 2

उस समय स्लीमनाबाद के आसपास के क्षेत्र में मार्गों से यात्रा करने वाले लोगों को गायब कर दिया जाता है। उनका कभी पता नहीं चल पाता था। लोग दशहत में थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी भी इस रहस्य से हैरान थे। कंपनी ने विलियम स्लीमैन को गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इंग्लेंड से आए कर्नल स्लीमैन ने भारत में 1806 में बंगाल आर्मी ज्वाइन की थी। 1814-16 में नेपाल युद्ध में सेवाएं दीं और फिर 1820 में सिविल सेवा में आए। इसके बाद उन्हें जबलपुर में गवर्नर लॉर्ड विलियम का सहायक बनाया। इसी दौरान उन्होंने बनारस से नागपुर तक सक्रिय ठगों और पिंडारियों के उन्मूलन के लिए स्लीमनाबाद में अपना कैंप लगाया। ठगी प्रथा के उन्मूलन के बाद यहां उन्होंने मालगुजार गोविंद से 56 एकड़ जमीन लेकर स्लीमनाबाद बसाया था। अपने कैंप और भ्रमण के दौरान स्लीमैन को पता चला कि 200 सदस्यों का एक ऐसा गिरोह है जो लूटपाट के लिये हत्या करता है। इसी वजह से लोग घर नहीं लौट पाते और उनके गायब होने की चर्चा फैल जाती है। लूट और हत्या की वारदातों को अंजाम देने वालों का मुखिया वास्तव में ‘बेरहाम ठग’ है। बेरहाम मुख्यमार्गों और जंगलों पर अपने साथियों के साथ घोड़ों पर घूमता था। इस पतासाजी के बाद कंपनी ने विलियम स्लीमैन’ को ठगों के खिलाफ कार्यवाही इंचार्ज बना कर जबलपुर में रख दिया।

बहरहाल, तब जबलपुर के कमिश्नर मि. मलोनी हुआ करते थे। इन्हीं के नाम पर अब एक मोहल्ला मिलौनीगंज है। इनके एक सहायक जब कुछ लंबे समय के लिए छुट्टी पर गए तो उन्होंने सहायता के लिए नरसिंहपुर से स्लीमैन को बुलवा लिया। जहाँ कमिश्नर कार्यालय था, वहीं पास के मैदान में एक बहुत बड़ी शहादत हुई थी। 1857 के गदर के ठीक बाद यहाँ तत्कालीन रेजिमेंट के कमांडेंट क्लार्क ने गोंड राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप के मुँह में बाँधकर उड़ा दिया था। क्लार्क दुष्ट, क्रूर और आतताई था। गदर के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों पर और भी बहुत से जुल्म ढाए। पर जैसे काबुल में सब गधे नहीं होते, कुछ अंग्रेज भले भी थे। इन्हीं गिनती के लोगों में एक स्लीमैन भी थे। मि. मलौनी की सहायता करते हुए एक दिन स्लीमैन ने कमिश्नर कार्यालय की खिड़की से जो नजारा देखा, वही आने वाले दिनों में ठग और ठगी के साथ उनके बहुत बड़े काम का सबब बना। यही वह काम था जो इलाहाबाद में उन्हें बेचैन किए हुए था। आगे वे इस काम में इतने लिप्त हो गए कि उनके मित्र उन्हें विनोद में ‘ठगी स्लीमेन’ कहकर पुकारने लगे थे।

इस कहानी में एक फ़िल्मी मोड़ है। उन दिनों जबलपुर के आस-पास गन्ने की खेती नहीं होती थी। थोड़े पतले और लंबे ईख होते हैं। गर्मियों के दिन किसी अप्रैल महीने में स्लीमेन पहली बार भारत से बाहर ऑस्ट्रेलिया गए और सुदूर ताहिती द्वीप से गन्ने की रोपण-सामग्री ले आए। इसकी बढ़त में कुछ दिक्कत हुई तो मॉरीशस को खंगाला। एक व्यापारिक समझौते के तहत वहाँ से 19 साल की लड़की एमेली वांछित सामग्री लेकर आई। गन्ने बहुत मीठे थे और एमेली बहुत सुंदर थीं, दोस्ती हुई, फिर मोहब्बत भी। जैसे मुरब्बा बनाने पर शीरे की मिठास धीरे-धीरे आँवले को भेदती है, एमेली के प्रेम की मिठास स्लीमैन को पगाती गई। सौदा गन्ने का भी हुआ और दिलों का भी। जबलपुर के आस-पास गन्ने के खेत नज़र आने लगे और जबलपुर के क्राइस्ट चर्च में विवाह के बाद स्लीमेन और एमेली साथ-साथ। दोनों में उम्र का बड़ा फासला था, पर आगे वैचारिक धरातल पर एमेली हमेशा विलियम के साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। यह जिक्र बेहद जरूरी है कि विलियम के काम में एमेली का भी योगदान बराबरी का रहा।

कमिश्नर कार्यालय के पास ही तीन दिनों से मैली-कुचैली वेशभूषा में ग्रामीण लोगों एक काफ़िला ठहरा हुआ था। उन्हें संदेह में रोका गया था और कुछ न मिलने पर आगे निकलने के लिए कमिश्नर की मंजूरी बस मिलने ही वाली थी। तभी स्लीमैन ने देखा कि सरकारी वर्दी में एक अर्दली काफिले के किसी यात्री से बात कर रहा है। अर्दली ने गोरे हाकिम को उनकी निगरानी करते हुए देख लिया। वह घबराया-सा आया और स्लीमैन के पैरों में गिर पड़ा। कभी उन्होंने ही उसे नरसिंहपुर में नौकरी पर रखा था। उसने कहा कि वह सुधर गया है। स्लीमैन ने कुछ न जानते हुए भी अभिनय करते हुए कहा कि नहीं, तुम अब भी वैसे ही हो। धमकाया गया। राज खुला तो पता चला कि वह काफिला ठगों का गिरोह है, लेकिन तब तक कमिश्नर की अनुमति से उनकी रवानगी हो गई थी। काफिले को फिर से जबलपुर के पास माढ़ोताल नाम की जगह में घेरा गया। वापसी हुई। गिरोह के सरगना दुर्गा को फाँसी की धमकी दी गई, जो अर्दली कल्याण सिंह का भाई था। मनोवैज्ञानिक प्रपंच रचा गया। आखिरकार दुर्गा टूट गया और उसने कबूल किया कि वे सिवनी के रास्ते नागपुर से आ रहे हैं और लखनादौन के पास उन्होंने 5-6 लोगों की हत्याएँ कर उनका माल-असबाब लूट लिया है। स्लीमेन रात को ही पुलिस-दल के साथ रवाना हुए। दो लाशें ‘बिल’ से निकाली गईं और उन्हें सम्मान कमिश्नर निवास के आगे धर दिया गया।

दुर्गा और कल्याण से ठगों की मैथडालॉजी के बारे में हैरतअंगेज जानकारियां हासिल हुईं। स्लीमैन को अब पता चला कि दिल्ली-आगरा के रास्ते लोग कहाँ गायब हो जाते थे। अमीर अली फिरंगिया, बहराम वगैरह तब के नामी ठग सरदार थे। गिरोह काफिलों में चलता था। काफिले में कई तरह के हुनर वाले लोग होते। तब सामान्य यात्री-व्यापारी वगैरह भी अकेले नहीं चलते थे। इन्हें भरमाया जाता। “ठगों” का डर दिखाकर या बड़े काफिले में बड़ी सुरक्षा की बात कहकर भरोसे में लिया जाता। फिर मौका देखकर पीले रुमाल से इनकी मुश्कें कस दी जातीं और लाशों को ‘बिल’ में दफ़्न कर दिया जाता। जब यात्रियों का पूरा काफिला ही शिकार बन गया हो तो शिकायत कौन करे और गवाही कौन दे? घर-परिवार के लोग सोचते कि वे हिंस्र-पशुओं के शिकार बन गए होंगे।

ठगी पर काम करने के साथ-साथ स्लीमैन भारतीय रंग-ढंग में रमते जा रहे थे। अवकाश के दिन वे घोड़े पर बैठकर जबलपुर के आस-पास के इलाकों में घूमने के लिए निकल जाते। हाट-बाजार, मेला-मड़ई घूमते। ठेठ देहात के लोगों के साथ अड्डेबाजी जमाते। विवाह के कई सालों बात तक भी कोई संतान नहीं थी। पास के एक गाँव कोहकाटोला में एक बुजर्ग ने उनसे मंदिर में मन्नत मांगने को कहा। स्लीमेन ने कहा कि सिर्फ आपकी भावनाओं के सम्मान के लिए मैं ऐसा कर लेता हूँ। एमेली भी साथ थीं। अगले बरस उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया। स्लीमेन ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। घी के दिए जलाने के लिए सरकारी खजाने से राशि की मंजूरी दी। एक विशालकाय कांसे का दीप भी लगवाया जो अब भी इस मंदिर में अपनी रोशनी बिखेरता है।

स्लीमैन ने ठगों के गिरोह और उनके तौर-तरीकों को पकड़ तो लिया था, पर व्यावहारिक दिक्कत उन पर मुकदमे चलाने की थी। फिर देश भर में ठगों के कई गिरोह थे। अलग-अलग जागीरें, अलग-अलग स्टेट। एक जगह वारदात की और आगे बढ़ गए। गवाह मिलते न थे। आखिरकार स्लीमैन ने कम्पनी सेक्रेटरी को पत्र लिखा। लार्ड विलियम बैंटिक और डलहौजी तक बात पहुँची। देश में पहली बार जबलपुर में “ठग एंड डकैती सुप्रेशन डिपार्टमेंट” की स्थापना हुई। आगे चलकर यही विभाग सीआईडी के महकमे में तब्दील हुआ। स्लीमेन को बहुत से अधिकार दिए गए। वे देश में कहीं भी जाकर ठगों की धर-पकड़ कर सकते थे और उनके मुकदमे जबलपुर में ही चलाए जा सकते थे। गवाह आना नहीं चाहते थे सो मौके पर जाकर ही गवाही दर्ज करने का चलन शुरू किया। साक्ष्य जुटाने के लिए गिरोह में से ही कई लोगों को वायदा माफ गवाह बनाया।

स्लीमैन ने ठगों को कटनी की तरफ़ से घेरना शुरू किया तो ठग नर्मदा घाटी में शेर, शकर, दुधी नदी पार करके फ़तहपुर, शोभापुर, मकड़ाई रियासतों में घुसकर ठगी करने लगे। स्लीमैन ने उन्हें होशंगाबाद से घेरना शुरू किया और सोहागपुर को ठगी उन्मूलन का केंद्र बनाकर उन्हें जबलपुर और सोहागपुर के बीच समाप्त किया था। करीब 10 साल की कड़ी मशक्कत के बाद बेरहाम पकड़ा गया और तब सारी चीजों का खुलासा हुआ। ठगों में से कुछ को जबलपुर के वर्तमान क्राईस्टचर्च स्कूल के पास के इमली के पेडों पर और कुछ को स्लीनाबाद में फांसी पर लटका दिया।

जबलपुर से करीब 75 किमी दूर कटनी जिले के कस्बे स्लीमनाबाद को कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के नाम से ही बसाया गया है। कर्नल स्लीमैन ने ही 1400 ठगों का फांसी दी थी और उनकी सहायता करने वाले कई ठगों और उनके बच्चों को समाज की मुख्यधारा में जोडकऱ उनका पुनर्वास भी कराया था। स्लीमनाबाद में आज भी कर्नल स्लीमन का स्मारक है।

जबलपुर में एक “गुरंदी बाजार” बाज़ार है। इसका  भी एक जबरदस्त इतिहास है। अंग्रेजों द्वारा ठगी प्रथा खात्मे के बाद बचे हुए ठग गुरंदे कहलाए। जिंदा बचे ठगों और उनके बच्चों व परिवार का पुनर्वास गुरंदी बाजार में किया गया। इसलिए इसे गुरंदी बाजार कहा जाने लगा। गुरंदी में हर वह चीज मिला करती थी, जिसका किसी और जगह मिलना नामुमकिन होता था। इसी प्रकार कुछ परिवार सोहागपुर के नज़दीक बस गए, उस गाँव का नाम गुरंदे के बसने से गुंदरई हुआ। इस प्रकार सुरेश को गुरंदे, गुरंदा, गुरंदी और गुंदरई का मतलब पता चला।

पकड़े गए लोगों में से कोई एक फीसदी को ही संगीन सजाएँ हुई। बाकी के अपराध छोटे थे। कुछ बेकसूर पाए गए। कुछ वायदा माफ गवाह थे। इनके पुनर्वास का प्रश्न था क्योंकि वे भले ही ठगी के काम में लगे हों, पर वो एक काम तो था ही। जबलपुर के घमापुर इलाके में मिट्टी की जेल जैसी बनाई गई। हकीकतन यह एक खुली जेल थी और देश में इस तरह की सम्भवतः नवीन अवधारणा थी। फ़िल्म “दो आँखें बारह हाथ” में कुछ इस तरह का विचार दिखाई पड़ता है। यहाँ लोग खेती करने लगे। दस्तकारी के काम और प्रशिक्षण के लिए कलेक्ट्रेट के पास वाली जगह चुनी गई। इसे दरीखाना कहा जाता था और आजकल यहाँ होम गार्ड्स के कमांडेंट का कार्यालय है। यहाँ बनाई गई एक विशालकाय दरी को महारानी को तोहफे के रूप में भेजा गया और यह आज भी विंडसर में वाटरलू चैंबर में मौजूद है।

सुरेश को उसके साथ हुई लूट से सम्बंधित सारी बातों का उत्तर ज्ञात हो गया था। उसने रीको घड़ी   ठग के वंशज के पास रहने दी कि शायद उसका अच्छा समय आ जाए। फिर उसने स्लीमैन की जीवनी का सिलसिलेवार क्रम बिठाया, जो इस प्रकार था।

स्लीमैन का जन्म इंग्लैंड के क़स्बे स्ट्रैटन, कॉर्नवाल में हुआ था। वे तुर्क और सेंट टुडी के एक्साइज के पर्यवेक्षक फिलिप स्लीमैन के आठ बच्चों में से पाँचवें नम्बर के थे। 1809 में स्लीमैन बंगाल सेना में शामिल हो गए और बाद में 1814 और 1816 के बीच नेपाल युद्ध में सेवा की। 1820 में उन्हें प्रशासनिक सेवा  के लिए चुना गया और सौगोर (सागर) और नेरबुड्डा (नर्मदा) क्षेत्रों  में गवर्नर-जनरल के एजेंट के लिए कनिष्ठ सहायक बन गए। 1822 में उन्हें नरसिंहपुर जिले के प्रभारी के रूप में रखा गया था, और बाद में उनके जीवन के सबसे श्रमसाध्य भूमिका में उनके दो वर्षों का वर्णन किया जाएगा। वह 1825 में कैप्टन के पद पर आसीन थे, और 1828 में जुब्बलपुर जिले का प्रभार संभाला। 1831 में उन्हें एक सहयोगी के लम्बी छुट्टी पर जाने के कारण सागर जिले में स्थानांतरित कर दिया। अपने सहयोगी की वापसी पर, स्लीमैन 1835 तक सागर में मजिस्ट्रेट कर्तव्यों का निर्वाह करते रहे। अंग्रेज़ी उनकी मातृभाषा थी परंतु उन्होंने हिंदी-उर्दू में धाराप्रवाह बोलने, लिखने और पढ़ने का कौशल विकसित किया एवं कई अन्य भारतीय भाषाओं के काम के ज्ञान का विकास किया। बाद में अपने जीवन में, स्लीमैन को “उर्दू और फारसी में अवध के नबाव को संबोधित करने वाला एकमात्र ब्रिटिश अधिकारी बताया गया था।”  अवध पर 800 पृष्ठों की उनकी रिपोर्ट को अभी भी सबसे सटीक और व्यापक अध्ययनों में से एक माना जाता है।

स्लीमैन एशिया में डायनासोर जीवाश्मों के सबसे पहले खोजकर्ता बन गए जब 1828 में, नर्मदा घाटी क्षेत्र में एक कप्तान के रूप में सेवा करते हुए, उन्होंने कई बेसाल्टिक संरचनाओं पर ध्यान दिया, जिन्हें उन्होंने “पानी के ऊपर उठी चट्टानों” के रूप में पहचाना। उन्होंने जबलपुर के पास लमहेंटा बारा सिमला हिल्स में चारों ओर खुदाई करके कई झुलसे हुए वृक्षों का पता लगाया, साथ ही साथ कुछ खंडित डायनासोर जीवाश्म नमूनों को भी देखा। इसके बाद, उन्होंने इन नमूनों को लंदन और कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय को भेज दिया। 1877 में रिचर्ड लिडेकेकर द्वारा जीनस को टाइटेनोसॉरस इंडिकस नाम दिया गया। स्लीमैन ने उन जंगली बच्चों के बारे में लिखा, जिन्हें भेड़ियों ने छह मामलों में अपने बच्चों के साथ पाला था। इसने कई लोगों की कल्पना को दिशा दी और अंततः द जंगल बुक में रुडयार्ड किपलिंग के मोगली चरित्र को प्रेरित किया।

स्लीमैन ने 1843 से 1849 तक ग्वालियर में और 1849 से 1856 तक लखनऊ में रेजिडेंट के रूप में काम किया। लॉर्ड डलहौजी द्वारा अवध के अधिग्रहण का उन्होंने विरोध किया गया था, लेकिन उनकी सलाह की अवहेलना की गई थी। स्लीमैन का मानना ​​था कि ब्रिटिश अधिकारियों को भारत के केवल उन क्षेत्रों को अधिग्रहित करना चाहिए जो हिंसा, अन्यायपूर्ण नेतृत्व या खराब बुनियादी ढांचे से त्रस्त थे।

स्लीमैन ने अपना लगभग पूरा जीवन ही भारत में बिताया। भारतीय न होकर भी भारत से उन्हें बेपनाह मोहब्बत थी। अपने कामों के जरिए वे कुछ मूर्त चीजें भी यहाँ छोड़ गए ताकि इस वतन से नाता हमेशा बना रहे। नर्मदा के झाँसीघाट से गंगा किनारे मिर्जापुर तक उन्होंने सड़क के दोनों किनारों पर ठगों के जरिए पेड़ लगवाए। इन पेड़ों के तने अब खूब मोटे हैं। ठगों द्वारा लगाए जाने के बावजूद ये कोई ठगी नहीं करते और आज भी राहगीरों को खूब घनी छाँव देते हैं। विलियम आखिरी समय में रुग्ण हो गए थे। अपने देश वापस लौटना चाहते थे। नहीं लौट सके। समंदर की राह में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए। शव को जल में विसर्जित कर दिया गया। समंदर की लहरों ने उनके अवशेषों को भारत के ही किसी तट पर ला पटका होगा।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 1☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए चार भागों में क्रमबद्ध प्रस्तुत है पराक्रम दिवस के अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का विशेष  ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणास्पद आलेख महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस। )  

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☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 1 ☆

(आज 23 जनवरी है। महानायक सुभाषचंद्र बोस की जयंती। केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है – संजय भारद्वाज )

स्वाधीनता मानवजाति की मूलभूत आवश्यकता है। सोने के पिंजरे में रहकर भरपेट भोजन करते रहने से अच्छा मुक्त गगन में भूखे पेट विहार करना है । जाति को वरदान स्वरूप मिला स्वाधीनता का यह डी.एन.ए. ही है जिसने विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को समय-समय पर अपनी सार्वभौमता के लिए संघर्ष करने को उद्यत किया। इस संग्राम ने अनेक नायकों को जन्म दिया। विश्व इतिहास के इन नायकों में सुभाषचंद्र बोस अग्रणी हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महानायक कहा जाता है। सुभाषचंद्र का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था।

बालक सुभाष अत्यंत मेधावी छात्र थे। अपने पिता की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने सर्वाधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की। फलस्वरूप 1920 में उन्हें सरकारी प्रशासनिक सेवा में नौकरी मिली। पर जिसके भीतर राष्ट्र की स्वाधीनता की अग्नि धधक रही हो, वह भला विदेशी शासकों की गुलामी कैसे करता! केवल एक वर्ष बाद उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राजपत्रित अधिकारी का पद छोड़ना परिवार और परिचितों के लिए धक्का था।

20 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र मुम्बई के मणि भवन में महात्मा गांधी से मिले। गांधीजी उनसे प्रभावित हुए और कोलकाता में असहयोग आंदोलन की बागडोर संभालनेवाले देशबंधु चित्तरंजनदास के साथ काम करने की सलाह दी। सुभाषबाबू स्वयं भी देशबंधु के साथ जुड़ना चाहते थे। देशबंधु ने सुभाष की अनन्य प्रतिभा को पहचाना। 1922 में दासबाबू ने काँग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने कोलकाता महानगरपालिका का चुनाव जीता। दासबाबू कोलकाता के मेयर बने और सुभाषचंद्र बोस को प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) बनाया। सीईओ बनते ही सुभाषबाबू ने कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में मारे जानेवाले लोगों के परिजनों को मनपा में नौकरी देना भी आरंभ किया।

सुभाषबाबू का कद तेजी से बढ़ने लगा। 1928 में साइमन कमिशन को प्रत्युत्तर देने और भारत का भावी संविधान बनाने के लिए काँग्रेस ने पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय आयोग गठित किया। बोस को इस आयोग में शामिल किया गया। इसी वर्ष कोलकाता में हुए काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाष के भीतर के सैनिक ने मूर्तरूप लिया। उन्होंने खाकी गणवेश धारण कर पं. मोतीलाल नेहरू को सैनिक तरीके से सलामी दी।

1930 में जेल में रहते हुए उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। 26 जनवरी 1931 को सम्पूर्ण स्वराज्य की माँग करते हुए उन्होंने विशाल मोर्चा निकाला। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। अपने सार्वजनिक जीवन में नेताजी ग्यारह बार जेल गए। अंग्रेज उनसे इतना खौफ खाते थे कि छोटे-छोटे कारणों से गिरफ्तार कर उन्हें सुदूर म्यानमार के मंडाले कारागृह में भेज दिया जाता था। 1932 में तबीयत बिगड़ने पर सरकार ने उनके सामने युरोप चले जाने की शर्त रखी। ऐसी शर्तें पहले ठुकरा चुके सुभाषबाबू इस रिहाई को अवसर के रूप में लेते हुए युरोप चले गये। युरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैंड के नेता डी. वेलेरा से मिले। 1934 में अपने पिता की बीमारी के चलते वे भारत लौटे। कोलकाता पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर वापस युरोप भेज दिया गया। युरोप प्रवास में ही 26 दिसम्बर 1937 को उन्होंने ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकेल से विवाह किया।

1938 में काँग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। सुभाषबाबू को इसमें काँग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इस अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय उद्बोधन की सर्वाधिक प्रभावशाली अध्यक्षीय वक्तव्यों में गणना होती है। अध्यक्ष के रूप में अपने सेवाकाल में बोस ने पहली बार भारतीय योजना आयोग का गठन किया। पहली बार काँग्रेस ने स्वदेशी वैज्ञानिक परिषद का आयोजन भी किया।

सुभाषबाबू की आक्रमक कार्यपद्धति गांधीजी को मान्य नहीं थी। फलतः 1939 के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। सुभाषबाबू ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 203 मतों से परास्त कर यह चुनाव जीत लिया। काँग्रेस के इतिहास में पहली बार किसीने गांधीजी के अधिकृत प्रत्याशी को पराजित किया था। पार्टी में खलबली मच गई। गांधीजी के विरोध और कार्यकारिणी के सदस्यों के असहयोग के चलते 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

4 दिन बाद याने 3 मई 1939 को उन्होंने काँग्रेस के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। सुभाषबाबू के कद को बरदाश्त न कर सकनेवाली लॉबी ने उन्हें काँग्रेस से निष्कासित करवा दिया। फॉरवर्ड ब्लॉक अब स्वतंत्र पार्टी के रूप में काम करने लगी।

इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। भारतीयों से राय लिए बिना भारतीय सैनिकों को इस युद्ध में झोंक देने के विरोध में सुभाषबाबू ने आवाज उठाई। उन्होंने कोलकाता के हॉलवेल स्मारक को तोड़ने की घोषणा भी की। सुभाषबाबू को धारा 129 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस धारा में अपील करने का अधिकार नहीं था। सुभाष दूसरे विश्वयुद्ध को भारत की आजादी के लिए कारगर अस्त्र के रूप में देखते थे। फलतः रिहाई के लिए उन्होंने जेल में अनशन शुरु कर दिया। बढ़ते दबाव से अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से तो मुक्त कर दिया पर घर में नजरबंद कर लिया गया।

क्रमशः … भाग – 2

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख  ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं।)

☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1

यह बात 1984 कि है जब सुरेश की पोस्टिंग स्टेट बैंक की तुलाराम चौक, जबलपुर शाखा में थी। वह प्रशिक्षण हेतु भोपाल गया था। सुबह पाँच बजे के लगभग नर्मदा एक्सप्रेस से जबलपुर रेल्वे स्टेशन पर उतरकर बाहर निकल रहा था। तभी गेट पर एक साईकल रिक्शा वाले से घर तक का किराया दस रुपए में तय हो गया। वह बैग़ को दोनों पैरों पर रखकर रिक्शे में बैठ ऊँघने लगा। रिक्शा मालगोदाम गेट के बगल से निकल मुख्य सड़क पर सरपट दौड़ने लगा। बायें तरफ़ वन विभाग कार्यालय और दाहिनी तरफ़ हाईकोर्ट के बीच से आगे चौराहे पर पहुँच कर रिक्शा अचानक रुक गया।

सुरेश की नींद का झौंका टूटा तो उसने रिक्शा को तीन लोगों की गिरफ़्त में पाया। वे अपने मुँह कपड़े से ढँके थे। उनकी सिर्फ़ आँखें दिख रहीं थीं। एक गोल कंजी आँख वाले ने रामपुरी चाकू उसकी तरफ़ दिखाते हुए कहा कि जो भी कुछ माल है अंटी में ढ़ीला करो। सुरेश ने सुबह के धुँधलके में देखा कि दूसरा लुटेरा साईकल रिक्शा का हैंडल पकड़े था और

तीसरा बाईं तरफ़ लोहे की रॉड लेकर तैयार था। सुरेश अखाड़े का खिलाड़ी रहा था। वह चाकू, बल्लम, बर्छी और लाठी चलाना और वार से बचना जानता था। उसने स्थिति का आकलन किया और अन्दाज़ लगाया कि चाकू वाले लुटेरे का गुप्तांग उसकी दाहिनी टाँग की ज़द में था। वह चोट करके अपने दाएँ हाथ से उसका चाकू झटक सकता था, परंतु बाएँ तरफ़ वाला लुटेरा उसे रॉड से घायल कर सकता था। सुरेश ने  जो कुछ भी ज़ेब में था, सब निकाल कर लुटेरों के हवाले कर दिया। सामने वाले लुटेरे ने रक़म झटकते हुए हाथ में बंधी रीको घड़ी की तरफ़ इशारा किया, वह भी उसको दे दी। बाएँ तरफ़ वाले लुटेरे ने बैग़ की खानातलाशी लेते हुए ट्रेनिंग की फाइल एक तरफ़ फेंकी और कपड़े दूसरी तरफ़ फेंक बैग़ टटोल कर कहा “साला शिकार फटियल निकला, चलो रे।” सुरेश बिखरे सामान को बैग़ में रख रहा था तभी रिक्शा वाला रिक्शा लेकर रफ़ूचक्कर हो गया।

एकाध महीना बाद, सुरेश बैंक में बचत खाता पासिंग आफ़िसर की कुर्सी पर बैठा पासिंग कर रहा था। बग़ल में वीनू परांजपे सरकारी भुगतान की डेस्क पर काम कर रहे थे। एक पुलिस कांस्टेबल वीनू भाई की डेस्क पर आया। उसने सुरेश के सामने रखी कुर्सी खिसकाने की अनुमति चाही, इसके पहले कि कुछ कहा जाता वह कुर्सी खिसका कर वीनू भाई के सामने बैठ गया। वीनू भाई ने उसका परिचय ओमती थाने के दीवान के के रूप में कराया। वह थाने के स्टाफ़ के वेतन बिल का भुगतान लेने आया था। वीनू भाई ने चाय बुलाकर पिलाई। थोड़ी देर बाद एक गोल कंजी आँख वाला लम्बा छरछरा तीसेक साल का व्यक्ति पान की पुड़िया लेकर दीवान साहब के पास आया। दीवान साहब और वीनू भाई को पान देने के बाद उसने पुड़िया सुरेश की तरफ़ बढ़ाई तो उसकी नज़र उस व्यक्ति की कलाई पर बंधी घड़ी पर अटक गई। घड़ी एक जगह से घिस गई थी इसलिए वहाँ से हल्का पीलापन उभर आया था। सुरेश को अपनी घड़ी पहचानते देर नहीं लगी।

थोड़ी देर बाद जैसे ही लंच का समय हुआ, सुरेश पुलिस कांस्टेबल को लंच कराने बैंक केंटीन में ले गया। वहाँ उसने उससे पान लाने वाले व्यक्ति की जानकारी चाही। पुलिस कांस्टेबल ने कहा “वह पुलिस का मुखबिर याने पुलिस को खबर पहुँचाने वाला ख़बरी है। सुरेश के यह पूछने पर कि वह छोटी-मोटी वारदात को अंजाम देता है क्या? कांस्टेबल बोला “गुंदरा है, जात का रंग तो दिखाएगा साहब।

सुरेश ने जानना चाहा गुंदरा मतलब क्या? “गुंदरा याने गुरंदी का निवासी” कांस्टेबल ने बताया। आगे जोड़ा “अब आगे  न पूछना साहब, ज़्यादा पता करना हो तो एस.पी.साहब से मिल लो आकर, वे इनके बारे में किताब में पढ़ते रहते हैं।”

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(Confessions of a Thug is an English novel written by Philip Meadows Taylor)

सुरेश एस.पी.साहब से मिला, उन्होंने फिलिप मीडोज टेलर द्वारा 1839 में लिखी की पुस्तक  “कन्फेशंस ऑफ ए ठग” पुस्तक उसे दी। जिसे पढ़कर पता चला कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बुंदेलखंड से विदर्भ और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ठगों का आतंक था। यहां जीतू और ‘आमिर अली’ नामक ऐसे ठग थे, जिनके नाम पर सबसे ज्यादा हत्याएं इतिहास में दर्ज हैं। खास बात यह कि इन ठगों के खात्मे का मुख्य केन्द्र जबलपुर ही रहा था। आमिर अली यशवंत राव होलकर के साथ मिलकर सिंधिया के इलाक़ों में लूटपाट करते-करते बम्बई-आगरा रोड़ पर लूटमार करते पकड़ाया था।

फिलिप मीडोज टेलर की उस पुस्तक से ठगी प्रथा का पता चला। टेलर महोदय पुलिस कमिश्नर थे। उन्होंने ठग सरग़ना आमिर अली को पकड़ कर सागर सेंट्रल जेल में रखा था जहाँ उन्होंने आमिर अली से ठगी के तरीक़ों की पूरी जानकारी लेकर अपनी किताब में लिखी थी।

– ठगों की भाषा ‘रामासी’ थी। जो गुप्त और सांकेतिक थी।

– ठगों का मूल औजार तपौनी का गुड़, रूमाल और कुदाली होता था।

– ठग अपने शिकार को ‘बनिज’ कहते थे, जिनका रूमाल से गला घोंट दिया जाता था।

– शिकार का रूमाल से गला घोंटकर मारने के इशारे को झिरनी देना कहते थे।

– ठग शिकार को मारने के पहले उसकी कब्र खोदकर रखते थे और शिकार को मारकर उसके शव को कब्र में रख उसके पेट को फरसे से चीर देते थे ताकि शव फूलकर कब्र से बाहर न निकल आए।

– मूलत: ठग काली के उपासक थे, जिसमें मुस्लिम ठग भी शामिल थे।

जीतू के नेतृत्व वाले ठगों का कारोबार कटनी से होशंगाबाद तक फैला हुआ था। वे जबलपुर से नागपुर, सागर, बनारस और नर्मदा घाटी में शिकारों का काम तमाम करके उन्हें लूटते थे। ठगी विद्या में पहले शिकारी का भरोसा हासिल किया जाता था। जब उन्हें पक्का विश्वास हो जाता था तब मुख्य ठग दाहिने हाथ में रूमाल में सिक्का रख अंटी की फाँस बनाकर शिकार के पीछे खड़ा हो जाता था। उसके साथी शिकार को गाफ़िल पाते ही झिरनी याने इशारा देते थे। मुख्य ठग एक मिनट में शिकार का काम तमाम कर देता था।

जबलपुर से करीब 75 किलोमीटर दूर कटनी रोड पर स्थित “स्लीमनाबाद” व आसपास के कुछ क्षेत्रों में यह वर्ग लूट और ठगी का ही काम करता था। एक तरह से ठगी उनका परम्परागत व्यवसाय जैसा बन गया था। इस वर्ग के लोग राहगीरों को ठगकर या फिर लूटकर ही अपना परिवार चलाते थे। इसके अलावा और भी कई क्षेत्र थे जहां लूट के डर से शाम ढलने के बाद निकलना लोग जान से खिलवाड़ जैसा मानते थे। लूट और ठगी में किशोर और बच्चे तक शामिल रहते थे। इन गिरोहों ने अंग्रेजी हुकूमत तक की नींद मुश्किल कर दी थी। ये कभी पकड़ में नहीं आते थे। अंग्रेज हुकूमत परेशान थी।

आदमी की ज़िंदगी में कुछ घटनाएँ ऐसी भी घटती हैं कि सब कुछ असम्भव-अतार्किक सा लगता है। बिखरे-बेतरतीब सपनों की तरह। फिर इनकी यादें चाहे जब दिलो-दिमाग में दस्तक देने आ टपकती हैं। बेचैन करती हैं। इस बेकरारी का सबब कुछ समझ में नहीं आता। कभी लगता है कि यह फ़क़त दिमाग का फितूर है और ऐन इसी वक्त दिल कह रहा होता है कि कुछ तो है! अजीब से हालात होते हैं, जिन्हें स्लीमेन जबलपुर आने से पहले इलाहाबाद में झेल रहे थे। यहाँ वे चंद अरसा ही रहे, पर ये दिन बड़ी बेचैनी के थे। हाट-बाजार में घूमते हुए अचानक ऐसा लगता कि कोई उनका पीछा कर रहा है। पलटकर निगाह दौड़ाते तो मालूम पड़ता कि वैसा कुछ नहीं है। खुद पर खीझ हो आती कि यह क्या हरकत है? रातों को सोते हुए अचानक नींद खुल जाती। फिर कभी-कभी लगता कि कोई आवाज उनके पीछे है, जो उनसे कुछ कहना चाहती है। आवाज बहुत साफ होती बस उसके मायने पकड़ में नहीं आते! कभी आगत में खड़ी कोई चुनौती उन्हें ललकार रही होती। वह क्या थी, नहीं पता। पर वह जो भी थी अलग थी, अनूठी थी, अद्वितीय थी!

क्या यह उस जंग का असर था जो वे कुछ दिनों पहले नेपाल की सरहद में लड़कर आए थे? विलयम हैनरी स्लीमैन महज 21 साल की उम्र में  इंग्लैंड से भारत आकर दानापुर रेजिमेंट में भर्ती हो गए थे। इंसान चाहे कितना भी पत्थर-दिल हो, युद्धभूमि में मची मार-काट विचलित तो करती ही है। जंग सिर्फ बाहर नहीं होती, भीतर भी चलती है और जंग के खत्म हो जाने के बाद भी चलती रहती है। फिर स्लीमेन तो बहुत संवेदनशील थे। उनके बहुत से साथी बीमार पड़ गए। कुछ मारे भी गए। युद्ध से वितृष्णा-सी हो गई थी। कलकत्ते में आराम करने के लिए छुट्टी मिली। उन्होंने आला अफसरान को चिट्ठी लिखी कि वे फौज में लड़ने के बदले कॉलेज में पढ़ाना चाहते हैं। इलाहाबाद की एक लाइब्रेरी में किताबों के पन्ने पलटते रहे और बस एक पन्ने में उलझकर रह गए। यह एक फ्रेंच यात्री की किताब थी जो पचासेक साल पहले भारत-भ्रमण पर आया था। उनकी किताब के उस पन्ने पर आकर वे ठहर जाते, जिसमें लिखा था कि दिल्ली से आगरे का रास्ता बड़ा खतरनाक है और यहाँ से लोग न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं? इस एक पन्ने को उन्होंने बार-बार पढा। कई बार पढा। जंग की ताजी यादों के साथ यह एक पन्ना भी शायद इलाहाबाद में उनकी बेचैनी का सबब था।

मि. स्मिथ नाम के अंग्रेज अफसर को यह मंजूर नहीं था कि स्लीमैन जैसा नौजवान अपने आपको कॉलेज की चाहारदीवारी में कैद कर ले। स्लीमेन को उन्होंने सिविल सर्विसेस में भर्ती कर जबलपुर के पास सागर भेज दिया। फिर वे सागर से नरसिंहपुर आए। नरसिंहपुर में उस जमाने में ठगों की सबसे बड़ी ‘बिल’ के होने का वजूद सामने आया था। मजे की बात यह कि तब यह बात स्लीमेन को भी पता नहीं थी कि उनके दफ्तर से महज 300 मीटर के फासले पर कंदेली नामक एक गाँव ठगों का असली अड्डा है और पास ही मड़ेसुर में हिंदुस्तान की सबसे बड़ी ‘बिल’ है।

यह जो ‘बिल’ है, यह ठग-भाषा से है, जिसे रामासी कहा जाता था। ठगों की कूट भाषा। ‘बिल’ का आशय उस जगह से है जहाँ ‘बनिज’ (शिकार) को मारकर दफ़्न कर दिया जाता था। उस जमाने के ठग सच्चे ठग होते थे और उन्हें ‘बोरा’ या ‘ओला’ कहा जाता थे। जैसे कहते हैं कि सियासतदां के कुछ उसूल होते हैं, ठगों के भी कुछ उसूल हुआ करते थे और वे लोगों को जन्नत बख्शने के लिए धारदार हथियारों का इस्तेमाल नहीं करते थे। इस काम के लिए वे एक पीले रंग का रुमाल इस्तेमाल करते थे और उसे ‘पेलहू’ कहते थे। रुमाल की गांठों में विक्टोरियन सिक्का होता था ताकि पाप के भागी फिरंगी भी बनें! जैसे इन दिनों फाइन आर्ट्स-थिएटर वगैरह की बारीकी सीखने के लिए कई तरह के प्रशिक्षण से गुजरना होता है, तब ठगी की भी बाकायदा ट्रेनिंग होती थी। परीक्षा देनी पड़ती थी। दीक्षांत समारोह में गुरु चेले के हाथों में गुड़ का टुकड़ा रख देता। फिर वह एक पीले रंग का रुमाल निकालता और उसके सिरे पर चाँदी का विक्टोरियन सिक्का बाँध दिया जाता। एक तरह से यही प्रशिक्षु की डिग्री-डिप्लोमा होती। गुड़ खाते ही वह ‘सर्टिफाइड’ ठग बन जाता। रुमाल में बंधे सिक्के से गुड़ की एक खेप और मंगाई जाती और इसके साथ ‘गुड़-भोज’ के रूप में लंच या डिनर होता। यह गुड़ ‘तुपोनी का गुड़’ कहलाता और कहते हैं कि इसे चखने वाला ताजिंदगी ठग बना रहता। वो ठग तो अब नहीं रहे पर इस फरेबी दुनिया में तब के गुड़ की तासीर अभी भी बची हुई है।

क्रमशः  —- भाग – 2

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 79 ☆ को-रोना बनाम रुदाली ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख को-रोना बनाम रुदाली।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 79 ☆

☆ को-रोना बनाम रुदाली ☆

‘कोरोना तो रुदाली करने का बस एक बहाना है। बाकी लोग तो पहले से ही अपनों से दूर हो चुके हैं। वे तो पास होने का केवल नाटक करते हैं।’ राजेंद्र परदेसी जी का यह कथन कोटिशः सत्य है। ‘को-रोना’ काहे का और क्यों रोना’ विडंबना है जीवन की। वास्तव में आधुनिक युग में विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया है और मानव में आत्मकेंद्रितता के भाव में बेतहाशा उछाल आया है, क्योंकि सामाजिक-सरोकारों से उसका कोई लेना-देना नहीं रहा। जीवन मूल्य दरक़ रहे हैं और रिश्तों की अहमियत रही नहीं। सो! परिवार-व्यवस्था में मानव की आस्था न होने के कारण चहुंओर अविश्वास का वातावरण हावी है। पति-पत्नी अपने-अपने द्वीप में क़ैद हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। स्नेह, सौहार्द, प्रेम व विश्वास जीवन से नदारद हैं। इन विषम परिस्थितियों में पारस्परिक प्रेम व सहानुभुति के भाव होने की कल्पना बेमानी है।

वास्तव में को-रोना तो स्वार्थी मानसिकता वाले  लोगों के लिए वरदान है, जो अपनों के निकट संबंधी होने का दम भरते हैं अर्थात् स्वांग रचते हैं। वास्तव में वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं सकते। इसलिए कोरोना तो रुदाली की भांति लोक-दिखावा है… शोक प्रकट करने का एकमात्र साधन है। कोरोना ने तो उनकी मुश्किलें आसान कर दी हैं। अब उन्हें मातमपुर्सी के लिए किसी के वहां जाने की दरक़ार नहीं, क्योंकि वह एक जानलेवा बीमारी है। इसलिए इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सरकारी सम्पत्ति बन जाता है और पीड़ित का उसके परिवार से ही नहीं, संपूर्ण विश्व से नाता टूट जाता है। दूसरे शब्दों में वह रिश्ते- नातों के जंजाल से जीते-जी मुक्ति पा लेता है।

रुदाली एक प्राचीन परंपरा है और चंद महिलाओं के गुज़र-बसर का साधन, जिसके अंतर्गत उन्हें रोने अथवा मातम मनाने के लिए एक निश्चित अवधि के लिए वहां जाना पड़ता है, जबकि उनका उस व्यक्ति व परिवार से कोई संबंध नहीं होता। आजकल तो संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर रह गए हैं और अपनत्व का भाव भी  जीवन से लुप्त हो चुका है। लोग अक्सर निकट होने का नाटक करते हैं। परंतु संवेदनाएं मर चुकी हैं और रिश्तों को ग्रहण लग गया है। इसलिए कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा।

मुझे स्मरण हो रही है विलियम शेक्सपीयर की ‘सैवन स्टेजिज़ ऑफ मैन’ कविता–जिसमें वे संसार को रंगमंच की संज्ञा देते हुए मानव को एक क़िरदार के रूप में दर्शाते हैं, जो संसार में जन्म लेने के पश्चात् समयानुसार अपने विभिन्न पार्ट अदा कर चल देता है। वास्तव में यही सत्य है जीवन का, क्योंकि सब संबंध स्वार्थ के हैं। सच्चा तो केवल आत्मा-परमात्मा का संबंध है, जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। सो! मानव को सांसारिक मायाजाल से ऊपर उठना चाहिए, ताकि वह मुक्ति को प्राप्त कर सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 31 ☆ हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद”.)

☆ किसलय की कलम से # 31 ☆

☆ हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद ☆

चन्द्रमा और लक्ष्मी दोनों ही समुद्रमंथन से निकले होने के कारण भाई-बहन कहलाते हैं। भगवान विष्णु हमारे जगत पिता और देवी लक्ष्मी हमारी जगत माता हैं। इस रिश्ते के कारण ही देवी लक्ष्मी के भाई चन्द्र देव हम सबके मामा हुए। यही कारण है कि पूरा हिन्दु-विश्व चाँद को “चन्दा मामा” कहता है।

अन्तरिक्ष में पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण चाँद अपनी चाँदनी और अनेक विशेषताओं के कारण प्राणिजगत का अभिन्न अंग है। चाँद के घटते-बढ़ते स्वरूप को हम चन्द्रकलाएँ कहते हैं। इन्हीं कलाओं या स्थितियों को हमारे प्राचीन गणितज्ञों एवं ज्योतिषाचार्यों ने चाँद पर आधारित काल गणना विकसित की। प्रतिपदा से चतुर्दशी पश्चात अमावस्या अथवा पूर्णिमा तक दो पक्ष माने गए। शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष मिलकर एक मास बनाया गया है। आज हिन्दु समाज के सभी संस्कार अथवा कार्यक्रम इन्हीं तिथियों के अनुसार नियत किए जाते हैं। आज भी धार्मिक, श्रद्धालु एवं समस्त सनातनधर्मी जनसमुदाय काल गणना और अपने अधिकांश कार्य चन्द्र तिथियों के अनुसार ही करते हैं। दिन में जहाँ सूर्य अपने आलोक से पृथ्वी को जीवन्त बनाये हुए है, वहीं चाँद रात्रि में अपनी निर्मल चाँदनी से जन मानस को लाभान्वित करने के साथ ही अभिभूत भी करता है।

लोक संस्कृति में आज भी चाँद का महत्त्व सर्वोपरि माना जाता है। दीपावली, दशहरा, होली, रक्षाबंधन, शरद पूर्णिमा, गणेश चतुर्थी, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, सोमवती अमावस्यायें, कार्तिक पूर्णिमा, जैसे सारे व्रत या पर्व चाँद की तिथियों पर ही आधारित हैं। इनमें से शरद पूर्णिमा तो मुख्यतः चाँद का ही पर्व कहलाता है। इस दिन की चाँदनी यथार्थ में अमृत वर्षा करती प्रतीत होती है।

यदि हम समाज की बात करें तो आज भी छोटे बच्चों को चाँद की ओर इशारा कर के बहलाने का प्रयास किया जाता है। “चन्दा मामा दूर के, पुये पकाए बोर के” जैसे काव्य मुखड़ों से सारा समाज परिचित है। वहीं आज भी भगवान कृष्ण जी पर केन्द्रित गीत के बोल “मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों” किसे याद नहीं है। दूज के चाँद की सुन्दरता अनुपम न होती तो भगवान शिव इसे अपने भाल का श्रृंगार ही क्यों बनाते और वे चंद्रमौलि या चन्द्रशेखर कैसे कहलाते। यहाँ बुन्देली काव्य की दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:-

विष्णु को सारो, श्रृंगार महेश को,

सागर को सुत, लक्ष्मी को भाई .

तारन को पति, देवन को धन,

मानुष को है महा सुखदाई ॥

इन पंक्तियों में चाँद को मानव और देवताओं सभी के लिए सुखदाई बताया गया है।

इस तरह चाँद की तुलनाएँ, उपमाएँ और सौन्दर्य वर्णन में उपयोग को देखते हुए लगता है कि यदि चाँद नहीं होता तो कवि-शायरों के पास एक विकट समस्या खड़ी हो जाती। चौदहवीं का चाँद हो, चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी, चाँद सी महबूबा हो मेरी, या फिर मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी … आदि सदाबहार गीत हम आज न ही सुन पाते और न ही गुनगुना पाते।

प्रारम्भ से ही चाँद के प्रति प्राणिजगत का गहरा लगाव रहा है। यदि हम यहाँ पर ये कहें कि चाँद के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है, तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोग कल्पना करते थे कि चाँद पर कोई बुढ़िया चरखा चला रही है या झाड़ू लगा रही है। भले ही आज मानव चाँद पर जा चुका है पर उसकी विशेषताओं और महत्त्व में अभी तक कोई फर्क नहीं पड़ा है। चाँद की शीतलता और उसका तारों भरे आकाश में शुभ्र चाँदनी बिखेरना, किसे नही भाता। मेरे ही शब्दों में :-

पर्वतों कि चोटियों पे आ के

बादलों के घूँघटों से झाँके

हो गई ये रात भी सुहानी

चाँद तेरी रौशनी को पा के …

चाँद जहाँ सुन्दरता का प्रतीक माना जाता है, वहीं उस पर दाग होने की कमी भी बताई जाती है। हमारे ग्रंथों में एक स्थान पर तो उसे देखने से ही चोरी के कलंक का कारण भी बताया गया है। इसी सन्दर्भ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा शुक्लपक्षीय भाद्रपद की चतुर्थी के चाँद को देख लेने पर उनके ऊपर “स्यमन्तक मणि” की चोरी का आरोप भी लगा दिया गया था, भले ही बाद में वे निर्दोष सिद्ध हो गए। कहते है चाँदनी रात का सुरम्य, शांत और एकांतप्रिय माहौल कवि-शायरों की साधना के लिए उपयुक्त होता है। वहीं अशांत मन के लिए शान्ति के लिए भी  ऐसे वातावरण सुखद होता है :-

एक शाम सुनसान में,

चाँद था आसमान में।

गुमसुम सा बैठा रहा,

न जाने किस अरमान में।।

चलती रही शीतल पवन,

रात बनी रही दुल्हन।

शान्त नहीं था मन मेरा,

थी अजीब सी वो उलझन।।

हम लोक संस्कृति, काव्य, शायरी, चित्रकारी, धर्म, अथवा समाज कहीं की भी बात करें, चाँद हमारे करीब ही होता है। यह शत-प्रतिशत सत्य है। हम ईद के चाँद की बात करें अथवा करवा चौथ के चाँद की। ये व्यापक और धार्मिक पर्व मुख्यतः चाँद के दर्शन पर ही आश्रित होते हैं। हमारा समाज इन्हें कितनी आस्था और विश्वास के साथ मनाता है, यह किसी से छिपा नहीं है।

लोक संस्कृति में रचा-बसा, भगवान शिव के मस्तिष्क पर शोभायमान, कवि-शायरों की शृंगारिक विषयवस्तु, मनुष्य और देवताओं के सुखदाई चाँद की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 81 ☆ पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 81 ☆ पिंजरा ☆

मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।

वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।

जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को  सुख मानने लगता है।

परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।

उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।

सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना, आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।

निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।

वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-

पिंजरे की चारदीवारियों में/ फड़फड़ाते हैं मेरे पंख/ खुला आकाश देखकर / आपस में टकराते हैं मेरे पंख / मैं चोटिल हो उठता हूँ /अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ / अपनी असहायता को  / आक्रोश में बदल देता हूँ / चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ / अपलक नीलाभ निहारता हूँ / फिर थक जाता हूँ /टूट जाता हूँ / अपनी दिनचर्या के / समझौतों तले बैठ जाता हूँ / दुख कैद में रहने का नहीं / खुद से हारने का है / क्योंकि / पिंजरा मैंने ही चुना है / आकाश की ऊँचाइयों से डरकर / और / आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ / इस कैद से ऊबकर../ एक साथ, दोनों साथ / न मुमकिन था, न है / इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ / खुले बादलों का आमंत्रण देख / पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ / फिर बिन उड़े / पिंजरे में मिली रोटी देख / पंख समेट लेता हूँ../अनुत्तरित-सा प्रश्न है / कैद किसने, किसको कर रखा है?

वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?

प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।….आरंभ करें!

हे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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