हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 101 ☆ क़ामयाब-नाक़ामयाब ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़क़ामयाब-नाक़ामयाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 101 ☆

☆ क़ामयाब-नाक़ामयाब ☆

‘कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं; फिर कोशिश करो। अच्छी नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सैमुअल वेकेट मानव को यही संदेश देते हैं कि ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ इसलिए मानव को नाकामी से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि मकड़ी से सीख लेकर बार-बार प्रयत्न करना चाहिए। जैसे किंग ब्रूस ने मकड़ी को बार-बार गिरते-उठते व अपने कार्य में तल्लीन होते देखा और उसके हृदय में साहस संचरित हुआ। उन्होंने युद्ध-क्षेत्र की ओर पदार्पण किया और वे सफल होकर लौटे। जार्ज एडीसन का उदाहरण भी सबके समक्ष है। अनेक बार असफल होने पर भी उन्होंने पराजय स्वीकार नहीं की, बल्कि अपने दोस्तों को आश्वस्त किया कि उनकी मेहनत व्यर्थ नहीं हुई। अब उन्हें वे सब प्रयोग दोहराने की आवश्यकता नहीं होगी। अंततः वे बल्ब का आविष्कार करने में सफल हुए।

‘पूर्णता के साथ किसी और के जीवन की नकल कर जीने की तुलना में अपने आप को पहचान कर अपूर्ण रूप से जीना बेहतर है।’ भगवान श्रीकृष्ण मानव को अपनी राह का निर्माण स्वयं करने को प्रेरित करते हैं। यदि हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी है, तो हमें अपनी राह का निर्माण स्वयं करना होगा, क्योंकि लीक पर चलने वाले कभी भी मील के पत्थर स्थापित नहीं कर सकते। बनूवेनर्ग उस व्यक्ति का जीवन निष्फल बताते हुए कहते हैं कि ‘जो वक्त की कीमत नहीं जानता; उसका जन्म किसी महान् कार्य के लिए नहीं हुआ।’ वे मानव को ‘एकला चलो रे’ का संदेश देते हुए कहते हैं कि ज़िंदगी इम्तिहान लेती है। सो! आगामी आपदाओं के सिर पर पांव रख कर हमें अपने मंज़िल की ओर अग्रसर होना चाहिए।

जीवन में समस्याएं आती हैं और जब कोई समस्या हल हो जाती है, तो हमें बहुत सुक़ून प्राप्त होता है। परंतु जब समस्या सामने होती है, तो हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं और कुछ लोग तो उस स्थिति में अवसाद का शिकार हो जाते  हैं। रॉबर्ट और उपडेग्रॉफ ‘थैंकफुल फॉर योअर ट्रबल्स’ पुस्तक में समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि हम चतुराई व समझदारी से समस्याओं के ख़ौफ से बच सकते हैं और उनके बोझ से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। अधिकतर समस्याएं हमारे मस्तिष्क की उपज होती हैं और वे उनके शिकंजे से मुक्त होकर बाहर नहीं आतीं। अधिकतर बीमारियां बेवजह की चिन्ता का परिणाम होती हैं। हमारा मस्तिष्क उन चुनौतियों को, समस्याएं मानने लगता है और एक अंतराल के पश्चात् वे हमारे अवचेतन मन में इस क़दर रच-बस जाती हैं कि हम उनके अस्तित्व के बारे में सोचते ही नहीं। वास्तव में संसार में हर समस्या का समाधान उपलब्ध है। हमें अपनी सूझ-बूझ से उन्हें सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार हमें न केवल आनंद की प्राप्ति होगी, बल्कि अनुभव व ज्ञान भी प्राप्त होगा। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग –जब एक युवती संत के पास अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंचती है कि उसे विवाह योग्य सुयोग्य वर नहीं मिल रहा। संत ने उस से एक बहुत सुंदर फूल लाने की पेशकश की और कहा कि ‘उसे पीछे नहीं मुड़ना है’ और शाम को उसके खाली हाथ लौटने पर संत ने उसे सीख दी कि ‘जीवन भी इसी प्रकार है। यदि आप सबसे योग्य की तलाश में भटकते रहोगे, तो जो संभव है; उससे भी हाथ धो बैठोगे।’ इसलिए जो प्राप्तव्य है, उसमें संतोष करने की आदत बनाओ। राधाकृष्णन जी के मतानुसार ‘आदमी के पास क्या है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि वह क्या है?’ सो गुणवत्ता का महत्व है और मानव को संचय की प्रवृत्ति को त्याग उपयोगी व उत्तम पाने की चेष्टा करनी चाहिए।

जीवन में यदि हम सचेत रहते हैं, तो शांत, सुखी व  सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। इसलिए हमें समय के मूल्य को समझना चाहिए और आगामी आपदाओं के आगमन से पहले पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए ताकि हमें किसी प्रकार की हानि न उठानी पड़े। इसलिए कहा जाता है कि यदि हम  विपत्ति के आने के पश्चात् सजग व सचेत नहीं  रहते, तो विनाश निश्चित है और उन्हें सदैव हानि उठानी पड़ती है। सो! हमें चीटियों से भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे सदैव अनुशासित रहती हैं और एक-एक कण संकट के समय के लिए एकत्रित करके रखती हैं। मुसीबतों से नज़रें चुराने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए मानव को उनका साहस-पूर्वक सामना करना चाहिए।

समस्याएं डर व भय से उत्पन्न होती हैं। यदि जीवन में भय का स्थान विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन हिल पूर्ण  विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उन्हें अवसर में बदल डालते थे। अक्सर वे ऐसे लोगों को बधाई देते थे, जो उनसे समस्या का ज़िक्र करते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यदि आपके जीवन में समस्या आई है, तो बड़ा अवसर आपके सम्मुख है। सो! उसका पूर्ण लाभ उठाएं और समस्या की कालिमा में स्वर्णिम रेखा खींच दें। हौसलों के सामने समस्याएं सदैव नतमस्तक होती हैं और उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए उनसे भय कैसा?

गंभीर समस्याओं को भी अवसर में बदला जा सकता है। यदि हम समस्याओं के समय मन:स्थिति को बदल दे और सोचें कि वे क्यों, कब और कैसे उत्पन्न हुईं और उसने कितनी हानि हो सकती है… लिख लें कि उनके समाधान मिलने पर उन्हें क्या प्राप्त होगा– मानसिक शांति, अर्थ व उपहार। यदि वे सब प्राप्त होते हैं, तो वह समस्या नहीं, अवसर है और उसे ग्रहण करना श्रेयस्कर है।

आइए! एक प्रसन्नचित्त व्यक्ति के बारे में जानें कि वह अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत करता था। वह अपने दिनभर की मानसिक समस्याएं अपने दरवाज़े के सामने वाले पेड़ ‘प्राइवेट ट्रबल ट्री ‘ अर्थात् कॉपर ट्री पर टांग आता था और अगले दिन जब वह काम पर जाते हुए उन्हें उठाता और देखता कि 50% समस्याएं तो समाप्त हो चुकी होती थीं और शेष भी इतनी भारी व चिंजाजनक नहीं होती थीं। इससे सिद्ध होता है कि हम व्यर्थ ही अपने मनो-मस्तिष्क पर बोझ रखते हैं; बेवजह की चिंताओं में उलझे रहते हैं। सो! हमें समस्या को अवसर में बदलना सीखना होगा और उन्हें तन्मयता से सुलझाना होगा। उस स्थिति में वे अवसर बन जाएंगी। वैसे भी जो व्यक्ति अवसर का लाभ नहीं उठाता; मूर्ख कहलाता है तथा सदैव भाग्य के सहारे प्रतीक्षा करता रह जाता है। इसलिए मानव को केवल दृढ़-निश्चयी ही नहीं; पुरुषार्थी बनना होगा और अथक परिश्रम से अपनी मंज़िल पर पहुंचना होगा, क्योंकि जीवन में दूसरों से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 53 ☆ ऑन लाईन खरीदी में ठगे जाते लोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “ऑन लाईन खरीदी में ठगे जाते लोग”.)

☆ किसलय की कलम से # 53 ☆

☆ ऑन लाईन खरीदी में ठगे जाते लोग ☆

वर्तमान में ऑन लाईन खरीदी का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। यह खासतौर पर नई पीढ़ी का शौक अथवा यूँ कहें कि ये उनकी विवशता बनती जा रही है। आज एक ओर कुछ ऑन लाईन विक्रय करने वाली कंपनियाँ और एजेंसियाँ ऐसी हैं जिन्होंने अपनी सेवा और गुणवत्ता से लोगों का दिल जीत लिया है। उनकी नियमित और त्वरित सेवाओं के साथ-साथ नापसंदगी व टूट-फूट आदि पर वापसी की सुविधा रहती है। जिस कारण लोगों का विश्वास भी बढ़ता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर ऐसी असंख्य ऑन लाईन विक्रय करने वाली वेब साईट्स और कंपनियाँ बाजार में उतरती जा रही हैं जिनका काम ग्राहकों को केवल और केवल ठगना ही होता है। यह हम बहुत पहले से सुनते आए हैं कि रेडियो बुलाने पर पैकिंग के अंदर घटिया खिलौने निकलते हैं। यहाँ तक कि पत्थर, लकड़ी के टुकड़े या पेपर के गत्ते बंद पार्सल में मिले हैं। इनके उत्पाद तो इतने लुभावने होते हैं कि अधिकतर लोग उनके झाँसे में आकर ऑर्डर बुक कर ही देते हैं। दिखाये जाने वाले चित्रों में सामग्री अथवा उत्पादों को इतने आकर्षक और उत्कृष्टता के साथ प्रदर्शित किया जाता है कि उस पर विश्वास कर हम ऑर्डर करने हेतु विवश होकर बहुत बड़ी भूल कर बैठते हैं। एक बार पार्सल खुलने और उसमें वांछित उत्पाद न निकलने पर कंपनी द्वारा उलझाया और कई तरह से घुमाया जाता है। लाख संपर्क करने पर भी तरह-तरह की बातें करते करते हुये उल्टे आप को ही दोषी साबित कर दिया जाता है। इस तरह 100 में से 99 लोग बेवकूफ बनते हैं। 1% लोगों को दोबारा उत्पाद प्राप्त तो हो जाता है, लेकिन तब तक उस उत्पाद की कीमत से कई गुना अधिक पैसा, समय और तनाव लोग झेल चुके होते हैं। मैं स्वयं भी इस ठगी का भुक्तभोगी हूँ कि मुझे उत्पाद बदल कर नहीं मिल पाया। एक बात और होती है कि इन एजेंसियों और कंपनियों की सेवा शर्तें तथा नियमावलियाँ ऐसी होती हैं कि आप चाह कर भी उनके विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पाते। शर्तें, नियम और कानून इतने विस्तृत और बारीक शब्दों में प्रिंट होते हैं कि लेंस से भी पढ़ने में कठिनाई होगी। कटे-फटे कपड़े, टूटा-फूटा सामान, अमानक और घटिया उत्पाद भेजना ऐसी अज्ञात-सी कंपनियों का उद्देश्य ही रहता है। दिखाई देने में सस्ते प्रतीत होने वाले उत्पाद पार्सल खोलते ही घटिया स्तर की कचरे में फेंकने जैसी वस्तु प्रतीत होते हैं। कुछ तो पहली या दूसरी बार उपयोग करते ही दम तोड़ देते हैं। यह सब हमारे आलस और कुछ अज्ञानता के चलते होता है। हम घर बैठे सामान प्राप्त होने की सुविधा के चलते सोचते हैं कि मार्केट जाने का खर्चा बच जाएगा या फिर सोचते हैं कि यह वस्तु बाजार में उपलब्ध ही नहीं होगी, जबकि ऐसा नहीं होता। क्योंकि आज के युग में उत्पाद के लांच होते ही वह यत्र-तत्र-सर्वत्र उपलब्ध हो ही जाती है, बस हमें मार्केट जाकर थोड़ी पूछताँछ करना होती है। कुछ जगहों पर घूमना पड़ता है। फिर ये चीजें इतनी उपयोगी तो होती ही नहीं है कि उनके न मिलने पर हमारा काम नहीं चलेगा।

साथियो! ये सभी चीजें लांच होने के कुछ ही दिनों बाद सस्ती और आम हो जाती हैं, जिनके लिए हम बेताब होकर ऑनलाईन खरीदी से ठगते रहते हैं। आज छोटे-मझोले शहरों में भी बड़े-बड़े शॉपिंग सेण्टर और बड़े-बड़े मॉल खुल गए हैं, जहाँ पर जरूरत की हर चीजें उपलब्ध होती हैं। हम वहाँ जाकर अपनी आँखों से देख-परख कर और जानकारी प्राप्त कर अच्छा उत्पाद खरीद सकते हैं। नापसंद अथवा खराबी होने पर उन्हें आसानी से बदल सकते हैं, फिर उपभोक्ता फोरम हमारी मदद के लिए तो है ही। हमें क्रय-रसीद के साथ उत्पाद की खराबी भर बतलाना होती है। उस पर त्वरित निदान और विक्रेता के विरुद्ध सजा तथा दंड आदि का प्रावधान है।

आज के व्यस्तता भरे जीवन में कभी-कभी ये सब प्रक्रियाएँ अनिवार्य सी प्रतीत होती हैं, फिर भी सावधानी रखने में ही हमारी भलाई है। अति आवश्यक होने पर ही ऑनलाईन खरीदी करें और यह ध्यान रखें कि हम किस कंपनी से खरीदी कर रहे हैं वह प्रतिष्ठित और जाँची-परखी कंपनी है भी या नहीं।

हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आजकल अंतरजालीय अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। आपके साथ धोखाधड़ी के अवसर ज्यादा होते हैं। ऑनलाईन पेमेंट करते समय भी आपका खाता हैक हो सकता है। आपके द्वारा दी गई थोड़ी सी जानकारी व लापरवाही आपके अकाउंट को खाली करवा सकती है, यह भी ऑनलाईन खरीदी में एक बहुत बड़ी कमी है।

इस तरह हम देखते हैं कि ऑनलाईन खरीदी में पता नहीं किस तरह से और कब आपकी क्षति हो जाए। आपका विवरण इण्टर नेट पर जाते ही हैकर्स के स्रोत के रूप में उपलब्ध हो जाता है, जिससे आर्थिक क्षति की संभावना सदैव बनी रहती है। यह अच्छी बात होगी यदि आप अभी तक ठगे नहीं गए, लेकिन ठगे जाने की संभावना भी कम नहीं होती। इसीलिए ऑनलाईन खरीदी में सतर्कता बेहद जरूरी है। देखने, सुनने और जानकारियों के बावजूद आज भी ऑनलाईन खरीदी में अक्सर लोगों के ठगे जाने की खबरें मिलती रहती हैं। लोग यह भी जानते हैं कि कंपनियों या एजेंसियों से दुबारा मानक उत्पाद पाने में दाँतों पसीना आता है। अतः ऑन लाईन उत्पाद खरीदते समय सतर्क रहें और ठगे जाने से बचें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ अवघ्या आशा श्रीरामार्पण ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

?  विविधा ?

☆ अवघ्या आशा श्रीरामार्पण ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

Best Bhojpuri Video Song - Residence w‘गीतरामायण’ आणि कविवर्य ग. दि. माडगूळकर हे एक रत्नजडित समीकरण आहे. ही  ६६ वर्षांपूर्वीची गोष्ट आहे. गदिमा आणि आकाशवाणीचे अधिकारी सीताकांत लाड रोज प्रभातफेरीला जात असत. मराठी श्रोते आपल्या कुटुंबासह आनंद घेऊ शकतील असा वर्षभर चालणारा एक कार्यक्रम आकाशवाणीवर सादर करण्याची कल्पना लाडांनी एकेदिवशी मांडली.बऱ्याच कालावधी पासून गदिमांच्या मनात रामकथा घोळत होती.आकाशवाणी कार्यक्रमाबद्दल ऐकले त्याच वेळी गदिमांच्या मनात गीत रामायणाचे बीज रुजले आणि त्यातून ही दैवी रचना आकाराला आली.

त्यावेळी श्रीराम कथेने त्यांना जणू भारून टाकले होते. या भारलेल्या अवस्थेतच प्रासादिक शब्दरचना, प्रासादिक संगीत आणि प्रासादिक स्वर यांच्या त्रिवेणी संगमातून एक महाकाव्य जन्माला आले  ‘ गीत रामायण ‘. १एप्रिल १९५५ ची रामनवमी या दिवशी पुणे आकाशवाणी वरून पहिले गीत सादर झाले,

स्वये श्री रामप्रभू ऐकती

कुशलव रामायण गाती ||

एका दैवी निर्मितीची अशी ही सुरुवात झाली. रामनवमी १ एप्रिल १९५५ ते रामनवमी १९ एप्रिल १९५६  या काळात एकूण ५६ गीते सादर झाली.

प्रत्येक गीतातला रामकथेचा भाग  रामचरित्रातीलच एका व्यक्तीच्या तोंडून सांगितलेला आहे.  ही एक गीत शृंखलाच आहे. बऱ्याच गीतांमधील कथाभाग गीताच्या शेवटी पुढील प्रसंग किंवा पुढील गाण्याशी जोडलेला आहे.

मुळामध्ये ‘वाल्मिकी रामायण’ हे चिरंतन काव्य आहे. त्यातले अमृतकण गीत रामायणात देखील प्रकट झालेले आहेत. त्यामुळेच त्याला अध्यात्मिक अर्थ आणि श्रेष्ठत्व प्राप्त झालेले आहे. महर्षी वाल्मिकींनी उभ्या केलेल्या मंदिरात गदिमांनी श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान यांच्या मराठमोळ्या मूर्तींची प्राणप्रतिष्ठा केली. त्यामुळे गीतरामायण हे सर्वसामान्यांच्या देखील ‘मर्मबंधातली ठेव’ बनले आहे.

या रामकथेमधून मानवी प्रवृत्तीच्या विविध भावनांचे दर्शन होते. त्यामुळेच रामायणाच्या गीतांमधून सर्व रसांचा अनुभव आपल्याला येतो. रौद्र, कारुण्य, वात्सल्य, शौर्य, आनंद, असहाय्यता, त्वेष अशा सर्व भावनांचा यातून मिळणारा अनुभव थेट काळजाला भिडतो. या गीतांसाठी अतिशय चपखल अशी भावप्रधान, रसप्रधान  शब्दयोजना आणि गायकी वापरली गेल्याने या गीतातील भावनेशी आपण सहज एकरूप होतो.मनाला  भावविभोर करणारे संगीत आणि भक्तीच्या ओलाव्याने चिंब भिजलेले शब्दसामर्थ्य यांच्या मिलाफाने जनमानस अक्षरश: नादावून गेले.   

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम म्हणजे आदर्शांची परिपूर्ती. रामकथेच्या अनेक घटनांनी उत्तम आदर्श प्रस्थापित केले आहेत. मनुष्याला दुराचारापासून परावृत्त करणे आणि पुढे दुराचाराविरुद्ध उभे करणे ही रामायणाची प्रेरणा आणि चिंतन आहे. गीतरामायणाचे मोठेपण हे आहे की, या प्रेरणेचे आणि चिंतनाचे प्रतिबिंब त्यात उमटले आहे.

मनुष्य हा परमेश्‍वराचा अंश आहे म्हणजे, मुख्य ज्योतीने चेतविलेली एक छोटी ज्योत आहे. त्याने परमेश्वरी शक्तीचे आरतीरूप गुणगान केले, तसे होण्याचा प्रयत्न केला तर ‘नराचा नारायण होणे’ अवघड नाही. हे सर्व सार गदिमा सहज एका ओळीच सांगून जातात ज्योतीने तेजाची आरती.

कमीत कमी शब्दात गहन अर्थ भरण्याची गदिमांची हातोटी विलक्षण अशीच आहे.

कित्येक गीतांच्या ओळी या सुभाषितवजाच आहेत. ‘

पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा ‘ 

हे  गीत याचा आदर्श नमुना आहे. श्रीरामांनी या गीतातून जीवनाचे सार आणि चिरंतन तत्वज्ञान साऱ्या मानवजातीसाठी सांगितलेले आहे. गदिमांच्या प्रतिभा संपन्नतेचा हा आविष्कार आपल्याला थक्क करणारा असाच आहे.

असे हे गीतरामायण गदिमा आणि सुधीर फडके यांच्या गीत आणि संगीत क्षेत्रातला शिरपेचच आहे. महाराष्ट्राला तर त्याने वेड लावलेच.पण त्याचबरोबरीने हिंदी, गुजराथी, कानडी, बंगाली, आसामी, तेलगू, मल्याळी, संस्कृत, कोकणीतही त्याचे भाषांतर झालेले आहे.  मूळ अर्थामध्ये किंचितही फरक नाही. विशेष म्हणजे सर्वत्र बाबूजींच्या चालीत ते गायले जाते.

सर्व मानवी मूल्यांचा आदर्श असणारा ‘श्रीराम’ जनमानसाच्या गाभाऱ्यात अढळपदी विराजमान आहे. ही गीते आकाशवाणीवरून सादर होत असताना लोक रेडिओला हार घालून धूपदीप लावून अत्यंत श्रद्धाभावाने गीत ऐकत असत. असाच अनुभव दूरदर्शन वरून ‘रामायण’ सादर होतानाही आला. आत्ताच्या लॉक-डाऊनच्या काळात पुन्हा ‘रामायण’ प्रक्षेपित केले गेले तेव्हाही नव्या पिढीने अतिशय आस्थेने त्याला प्रतिसाद दिला. नवीन कलाकार अतिशय श्रद्धेने गीतरामायण सादर करतात आणि जागोजागी या कार्यक्रमांना मिळणारा उदंड प्रतिसाद पाहून जनमानसावर रामकथेची मोहिनी अजूनही तशीच आहे याचे प्रत्यंतर येते. रामकथा ऐकल्यावर मन अननुभूत अशा तृप्तीने, समाधानाने भरून जाते. ” अवघ्या आशा श्रीरामार्पण ” याची अनुभूती येते.

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शहीद ए आज़म – स्व भगत सिंह ☆ श्री कमलेश भारतीय 

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ शहीद ए आज़म – स्व भगत सिंह   ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

[मित्र विवेक मिश्र ने एक काम मेरे जिम्मे लगाया। बड़ी कोशिश रही कि जल्द से जल्द दे सकूं पर इधर उधर के कामों के बावजूद शहीद भगत सिंह के प्रति मेरी श्रद्धा और उनके पैतृक गांव खटकड़ कलां में बिताये ग्यारह वर्ष मुझे इसकी गंभीरता के बारे में लगातार सचेत करते रहे। बहुत सी कहानियां हैं उनके बारे में। किस्से ऊपर किस्से हैं। इन किस्सों से ही भगत सिंह शहीद ए आज़म हैं।

मेरी सोच है या मानना है कि शायद शुद्ध जीवनी लिखना कोई मकसद पूरा न कर पाये। यह विचार भी मन में उथल पुथल मचाता रहा लगातार। न जाने कितने लोगों ने कितनी बार शहीद भगत सिंह की जीवनी लिखी होगी और सबने पढ़ी भी होगी।  मैं नया क्या दे पाऊंगा? यह एक चुनौती रही।   – कमलेश भारतीय ]

सबसे पहले जन्म की बात आती है जीवनी में। क्यों लिखता हूं मैं कि शहीद भगत सिंह का पैतृक गांव है खटकड़ कलां, सीधी सी बात कि यह उनका जन्मस्थान नहीं है। जन्म हुआ उस क्षेत्र में जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है। चक विलगा नम्बर 105 में 28 सितम्बर, 1907 में जन्म हुआ। और यह बात भी परिवारजनों से मालूम हुई कि वे कभी अपने जीवन में खटकड़ कलां आए ही नहीं। फिर इस गांव की इतनी मान्यता क्यों? क्योंकि स्वतंत्र भारत में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धा अर्पित करने के  दो ही केद्र हैं -खटकड़ कलां और हुसैनीवाला। इनके पैतृक गांव में इनका घर और कृषि भूमि थी। इनके घर को परिवारजन राष्ट्र को अर्पित कर चुके हैं और गांव में मुख्य सड़क पर ही एक स्मारक बनाया गया है। बहुत बड़ी प्रतिमा भी स्मारक के सामने है। पहले हैट वाली प्रतिमा थी, बाद में पगड़ी वाली प्रतिमा लगाई गयी।  इसलिए इस गांव का विशेष महत्त्व है। हुसैनीवाला वह जगह है जहां इनके पार्थिव शवों को लाहौर जेल से रात के समय लोगों के रोष को देखते हुए चोरी चुपके लाया गया फांसी के बाद और मिट्टी का तेल छिड़क आग लगा दी जैसे कोई अनजान लोग हों -भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। दूसरे दिन भगत सिंह की माता विद्यावती अपनी बेटी अमर कौर के साथ रोती हुई पहुंची और उस दिन के द ट्रिब्यून अखबार के पन्नों में राख समेट कर वे ले आई तीनों की जो आज भी शहीद स्मारक में ज्यों की त्यों रखी हैं। यही नहीं स्मारक भगत सिंह जो डायरी लिखते थे और कलम दवात भी रखी हैं।  मानो अभी कहीं से भगत सिंह आयेंगे और अपनी ज़िंदगी की कहानी फिर से और वहीं से लिखनी शुरू कर देंगे, जहां वे छोड़ कर गये थे। इनकी सबसे बड़ी बात कि इन्होंने अपने से पहले शहीद हुए सभी शहीदों की वो गलतियां डायरी में लिखीं जिनके चलते वे पकड़े गये थे। जाहिर है कि वे इतने चौकन्ने थे कि उन गलतियों को दोहराना नहीं चाहते थे। वैसे यह कितनी बड़ी सीख है हमारे लिए कि हम भी अपनी ज़िंदगी में बार बार वही गलतियां न दोहरायें।

अब बात आती है कि आखिर कैसे और क्यों भगत सिंह क्रांतिकारी बने या क्रांति के पथ पर चले? शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने किसान आंदोलन पगड़ी संभाल ओए जट्टा में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया जिसके चलते उन पर अंग्रेज सरकार की टेढ़ी नज़र थी। उन्हें जेल में ठूंसा गया दबाने के लिए। इनके पिता किशन सिंह भी जेल मे थे। जब इनका जन्म हुआ तब पिता और चाचा जेल से छूटे तो दादी ने इन्हें भागां वाला कहा यानी बहुत किस्मत वाला बच्चा कहा। जिसके आने से ही पिता और चाचा जेल से बाहर आ गये। इस तरह इसी भागां वाले बच्चे का नाम आगे चल कर भगत सिंह हुआ।

फिर इनके बचपन का यह किस्सा भी बहुत मशहूर है कि पिता किशन सिंह खेत में हल चलाते हुए बिजाई कर रहे थे और पीछे पीछे चल रहे थे भगत सिंह। उन्होंने अपने पिता से पूछा कि बीज डालने से क्या होगा?

-फसल।  यानी ज्यादा दाने।

-फिर तो यहां बंदूकें बीज देते हैं जिससे ज्यादा बंदूकें हो जायें और हम अंग्रेजों को भगा सकें।

यह सोच कैसे बनी और क्यों बनी? इसके पीछे बाल मनोविज्ञान है।

इनके चाचा अजीत सिंह ज्यादा समय जेल में रहते और चाची हरनाम कौर रोती बिसूरती रहती या उदास रहती। बालमन पर इसका असर पड़ा और चाची से गले लग कर वादा करता रहा कि एक दिन इन अंग्रेजों को सबक जरूर सिखाऊंगा। इनके चाचा अजीत सिंह उस दिन डल्हौजी में थे जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ और उसी दिन वहीं उनका खुशी में हृदय रोग से निधन हो गया। डल्हौजी में उनका स्मारक भी बनाया गया है जिसे देखने का सौभाग्य वहां जाने पर मिला था।

परिवार आर्य समाजी था और इनके दादा अर्जुन सिंह भी पत्र तक हिंदी में लिखते थे जो अनेक पुस्तकों में संकलित हैं। भगत सिंह सहित परिवार के बच्चों के यज्ञोपवीत भी हुए। इस तरह पहले से ही यह परिवार नयी रोशनी और नये विचारों से जीने में विश्वास करता था जिसका असर भगत सिंह पर भी पड़ना स्वाभाविक था और ऐसा ही हुआ भी।

इस तरह क्रांति के विचार बालमन में ही आने लगे। फिर जब जलियांवाला कांड हुआ तो दूसरे दिन बालक भगत अपनी बहन बीबी अमरकौर को बता कर अकेले रेलगाड़ी में बैठकर  अमृतसर निकल गया और शाम को वापस आया तो वहां की मिट्टी लेकर और फिर वह विचार प्रभावी हुआ कि इन अंग्रेजों को यहां से भगाना है। उस समय भगत सिंह मात्र तेरह साल के थे। बीबी अमर कौर उनकी सबसे अच्छी दोस्त जैसी थी। वह मिट्टी एक मर्तबान में रख कर अपनी मेज़ पर सजा ली ताकि रोज़ याद करें इस कांड को। इस तरह कड़ी से कड़ी जुड़ती चली गयी। भगत सिंह करतार सिंह सराभा को अपना गुरु मानते थे और उनकी फोटो हर समय जेब मे रखते थे। उन्हें ये पंक्तियां बहुत पसंद थीं

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर

हमको भी मां बाप ने पाला था दुख सह सह कर,,,

दूसरी पंक्तियां जो भगत सिंह को प्रिय थीं और गुनगुनाया करते थे :

सेवा देश दी करनी जिंदड़िये बड़ी औखी

गल्लां करनियां ढेर सुखलियां ने

जिहना देश सेवा विच पैर पाया

उहनां लख मुसीबतां झल्लियां ने,,,

स्कूल की पढ़ाई के बाद जिस काॅलेज में दाखिला लिया वह था नेशनल काॅलेज, लाहौर जहां देशभक्ति घुट्टी में पिलाई जा रही थी। यह काॅलेज क्रांतिकारी विचारकों ने ही खोला था। उस घुट्टी ने बहुत जल्द असर किया। वैसे भगत सिंह थियेटर में भी दिलचस्पी रखते थे और लेखन में भी। इसी काॅलेज में वे अन्य क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए और जब लाला लाजपतराय को साइमन कमीशन के विरोध करने व  प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल किया गया तब ये युवा पूरे रोष में आ गये। स्मरण रहे इन जख्मों को पंजाब केसरी लाला लाजपत राय सह नहीं पाये और वे इस दुनिया से विदा हो गये। लाला लाजपतराय की ऐसी अनहोनी और क्रूर मौत का बदला लेने की इन युवाओं ने ठानी। सांडर्स पर गोलियां बरसा कर जब भगत सिंह लाहौर से निकले तो थियेटर का अनुभव बड़ा काम आया और वे दुर्गा भाभी के साथ हैट लगाकर साहब जैसे लुक में बच निकले। दुर्गा भाभी की गोद में उनका छोटा सा बच्चा भी था। इस तरह किसी को कोई शक न हुआ। भगत सिंह का यही हैट वाला फोटो सबसे ज्यादा प्रकाशित होता है।

इसके बाद यह भी चर्चा है कि घरवालों ने इनकी शादी करने की सोची ताकि आम राय की तरह शायद गृहस्थी इन्हें सीधे या आम ज़िंदगी के रास्ते पर ला सके लेकिन ये ऐसी भनक लगते ही भाग निकले। क्या यह कथा सच है? ऐसा सवाल मैंने आपकी माता विद्यावती से पूछा था तब उन्होंने बताया थे कि सिर्फ बात चली थी। कोई सगाई या कुड़माई नहीं हुई न कोई रस्म क्योंकि जैसे ही भगत सिंह को भनक लगी उसने भाग जाना ही उचित समझा। तो  क्या फ़िल्मों में जो गीत आते हैं वे झूठे हैं?

जैसे : हाय रे जोगी हम तो लुट गये तेरे प्यार में,,,इस पर माता ने कहा कि फिल्म चलाने के लिए कुछ भी बना लेते हैं। वैसे सारी फिल्मों में से मनोज कुमार वाली फिल्म ही सही थी और मनोज कुमार मेरे से आशीर्वाद लेने भी आया था।

खैर भगत सिंह घर से भाग निकले और कानपुर जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी के पास बलवंत नाम से पत्रकार बन गये। उस समय पर इनका लिखा लेख -होली के दिन रक्त के छींटे बहुचर्चित है। और भी लेख लिखे। मैं हमेशा कहता हूं कि यदि भगत सिंह देश पर क़ुर्बान न होते तो वे एक बड़े लेखक या पत्रकार होते। इतनी तेज़ कलम थी इनकी।

इसके बाद इनका नाम आया बम कांड में। क्यों चुना गया भगत सिंह को इसके लिए? क्योंकि ये बहुत अच्छे वक्ता थे और इसीलिए योजना बनाई गयी कि बम फेंककर भागना नहीं बल्कि गिरफ्तारी देनी है। भगत सिंह ने अदालत में लगातार जो विचार रखे वे अनेक पुस्तकों में सहेजे गये है और यह भी स्पष्ट किया कि हम चाहते तो भाग सकते थे लेकिन हम तो अंग्रेजी सरकार को जगाने आये थे। दूसरे यह गोली या बम से परिवर्तन नहीं आता लेकिन बहरी सरकार को जगाने के लिए इसे उपयोग किया गया।  इस तरह यह सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि हम आतंकवादी नहीं बल्कि क्रांतिकारी हैं। भगत सिंह की एक पुस्तिका है-मैं नास्तिक क्यों हूं? यह खूब खूब बिकती है और पढ़ी जाती है। भगत सिंह हरफनमौला और खुशमिजाज युवक थे। इनके साथी राजगुरु और सुखदेव भी फांसी के हुक्म से जरा विचलित नहीं हुए और किसी प्रलोभन में नहीं आए। अनेक प्रलोभन दिए गये। आखिरी दिन तक प्रलोभन दिये जाते रहे लेकिन भारत माता के ये सपूत अपनी राह से बिल्कुल भी पीछे न हटे। डटे रहे।

भगत सिंह पुस्तकें पढ़ने के बहुत शौकीन थे और अंत तक जेल में अपने वकील या मिलने आने वालों से पुस्तकें मंगवाते रहे। आखिर जब फांसी लगने का समय आया तब भी लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब बुलावा आया कि चलो। तब बोले कि ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। अपने छोटे भाई कुलतार को भी एक खत में लिखा था कि पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो क्योकि विचारों की सान इसी से तेज़ होती है।

बहुत छोटी उम्र मे  23 मार्च, 1931 में फांसी का फंदा हंसते हंसते चूम लिया। क्या उम्र होती है मात्र तेईस साल के आसपास। वे दिन जवानी की मदहोशी के दिन होते हैं लेकिन भगत सिंह को जवानी चढ़ी तो चढ़ी आज़ादी पाने की।

फिर भी रहेंगी कहानियां,,

तुम न रहोगे, हम न रहेंगे

फिर भी रहेंगी कहानियां,,

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #83 – संरक्षकता ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी  आलेख  “संरक्षकता”)

☆ आलेख #83 – संरक्षकता”☆ 

आज 29 सितंबर है और आज से ठीक तीन दिन बाद सारा विश्व महात्मा गांधी की जन्म जयंती ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाएगा।  मैं विगत अनेक वर्षों से, इन सात दिनों तक गांधी चर्चा करने और इस विश्व-मानव के सदविचारों, जो पीड़ित मानवता को राहत पहुंचाने के लिए किसी मलहम से कम नहीं है, पर लिखता रहा हूँ। इस बार मैंने सोचा कि  महात्माजी के संरक्षकता या trusteeship के सिद्धांत पर आपसे चर्चा करूँ।  मेरी यह कोशिश होगी कि  पहले छह-सात दिन तक गांधीजी के विचार, इस सिद्धांत को लेकर, पढ़ें और फिर उसका विश्लेषण आधुनिक समय के अनुसार करते हुए, उसकी वर्तमान में उपादेयता का आंकलन करें।  

– अरुण कुमार डनायक

संरक्षकता (Trustee-ship) का सिद्धांत (2)

आप कह सकते हैं की ट्रस्टीशिप तो कानून शास्त्र  की एक कल्पना मात्र है; व्यवहार में उसका कहीं कोई अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ता।  लेकिन यदि लोग उस पर सतत विचार करें और उसे आचरण में उतारने की कोशिश भी करते रहें, तो मनुष्य-जाति के जीवन की नियामक शक्ति के रूप प्रेम आज जितना प्रभावशाली दिखाई देता है, उससे कहीं अधिक दिखाई पड़ेगा। बेशक, पूर्ण ट्रस्टीशिप तो यूक्लिड की बिन्दु की व्याख्या की तरह कल्पना ही है और उतनी ही अप्राप्य भी है। लेकिन यदि उसके लिए कोशिश की जाए, तो दुनिया में समानता की स्थापना की दिशा में हम किसी दूसरे उपाय से जितनी दूर तक जा सकते हैं, उसके बजाय इस उपाय से ज्यादा दूर तक जा सकेंगे। ….. मेरा दृढ़ निश्चय है कि यदि राज्य ने पूंजीवाद को हिंसा के द्वारा दबाने की, तो वह खुद ही हिंसा के जाल में फंस जाएगा और फिर कभी भी अहिंसा का विकास नहीं कर सकेगा। राज्य हिंसा का एक केंद्रित और संघटित रूप ही है। व्यक्ति में आत्मा होती है, परंतु चूंकि राज्य एक जड़ यंत्रमात्र है इसलिए उसे हिंसा से कभी नहीं छुड़ाया जा सकता। क्योंकि हिंसा से ही तो उसका जन्म होता है। इसीलिए मैं ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को तरजीह देता हूं।  यह डर हमेशा बना रहता है कि कहीं राज्य उन लोगों के खिलाफ, जो उससे मतभेद रखते हैं, बहुत ज्यादा हिंसा का उपयोग न करे।  लोग यदि स्वेच्छा से ट्रस्टियों की तरह व्यवहार करने लगें, तो मुझे  सचमुच बड़ी खुशी होगी। लेकिन यदि वे ऐसा न करें तो मेरा ख्याल है कि  हमें राज्य के द्वारा भरसक कम हिंसा का आश्रय  लेकर उनसे उनकी संपत्ति ले लेनी पड़ेगी। …. (यही कारण है की मैंने गोलमेज परिषद में यह कहा था की सभी निहित हित वालों की संपत्ति की जांच होनी चाहिए और जहां आवश्यक हो वहां उनकी संपत्ति राज्य को मुआवजा देकर या मुआवजा दिए बिना ही, जहां जैसा उचित हो, अपने हाथ में कर लेनी चाहिए।  ) व्यक्तिगत तौर पर तो मैं यह चाहूंगा  कि राज्य के हाथों में शक्ति का ज्यादा केन्द्रीकरण न हो, उसके बजाय ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार हो। क्योंकि मेरी राय में राज्य की हिंसा की तुलना में वैयक्तिक मालिकी की हिंसा कम खतरनाक है। लेकिन यदि राज्य की मालिकी अनिवार्य ही हो,  तो मैं भरसक कम से कम राज्य की मालिकी की सिफारिश करूंगा।  

 दी  माडर्न रिव्यू 1935

( यह लेख मैंने गांधीजी के विचारों के संग्रह पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ से लिया है और कतिपय जगह ऐसा लगा कि उनके विचारों में काट छांट की गई है।  गांधीजी का इस संबंध में लिखा मूल आलेख खोजने का प्रयास कर रहा हूं )

संरक्षकता (Trustee-ship) का सिद्धांत (3)

आजकल यह कहना एक फैशन हो गया है कि  समाज को अहिंसा के आधार पर न तो संघटित किया जा सकता है और न चलाया जा सकता है। मैं इस कथन का विरोध करता हूं। परिवार  में जब पिता अपने पुत्र को अपराध करने पर थप्पड़ मार देता है, तो पुत्र उसका बदला लेने की बात नहीं सोचता।  वह अपने पिता की आज्ञा इसलिए स्वीकार कर लेता है कि इस थप्पड़ के पीछे वह अपने पिता के प्यार को आहत हुआ देखता है, इसलिए नहीं कि थप्पड़ उसे वैसा अपराध दुबारा करने से रोकता है।  मेरी  राय में समाज की व्यवस्था इस तरह होनी चाहिए; यह उसका छोटा रूप है।  जो बात परिवार के लिए सही है, वही समाज के लिए सही है, क्योंकि समाज एक बड़ा परिवार ही है।   

हरिजन, 01.12.1938 

मेरी धारणा है कि अहिंसा केवल वैयक्तिक गुण नहीं है।  वह एक सामाजिक गुण भी है और अन्य गुणों की तरह उसका भी विकास किया जाना चाहिए।  यह तो मानना ही होगा कि समाज के पारस्परिक व्यवहारों का नियमन बहुत हद तक अहिंसा के द्वारा होता है।  मैं इतना ही चाहता हूं कि इस सिद्धांत का बड़े पैमाने पर, राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय पैमाने पर विस्तार किया जाए। 

हरिजन, 07.01.1939

(गांधीजी के अहिंसा संबंधी विचारों को ‘मेरे सपनों का भारत’ के एक अध्याय ‘संरक्षकता का सिद्धांत’ में स्थान दिया गया है। आगे जब हम संरक्षकता पर उनके विचार पढ़ेंगे तो यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि अहिंसा केवल सत्याग्रह और दमन का प्रतिकार करने का साधन मात्र नहीं है।  यह एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसे महात्मा गांधी ने धन कमाने की असीमित लिप्सा को शांत करने का उपाय बताया था)

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ महालक्ष्मी पूजा विशेष –  महालक्ष्मी व्रत ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

☆ महालक्ष्मी पूजा विशेष –  महालक्ष्मी व्रत – श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव ☆

(आज महालक्ष्मी पूजा पर विशेष आलेख)

महर्षि  वेदव्यास जी  ने हस्तिनापुर में माता कुंती तथा गांधारी को महालक्ष्मी व्रत कथा बताई थी  जिससे  सुख-संपत्ति, पुत्र-पोत्रादि व परिवार सुखी रहें । इसे गजलक्ष्मी व्रत भी कहा जाता है। प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण अष्टमी को विधिवत यह पूजन किया जाता है।

इस दिन स्नान करके 16 सूत के धागों का डोरा बनाएं, उसमें 16 गांठ लगाएं, हल्दी से पीला करें। प्रतिदिन 16 दूब व 16 गेहूं डोरे को चढ़ाएं। 16 दिनों से महालक्ष्मी पूजन चलता रहता है अतः 16 का महत्व है । आश्विन (क्वांर) कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर मिट्टी के हाथी पर श्री महालक्ष्मीजी की प्रतिमा स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन करें। यह व्रत पितृ दिवसों के बीच पड़ता है , शायद पितरों के खोने के अवसाद को किंचित भुला कर लक्ष्मी जी का स्मरण करना इसका उद्देश्य हो । 

महर्षि ने कुंती व गांधारी से वास्तविक ऐरावत हाथी का पूजन  करवाया  था , इसलिए प्रतीक रूप में मिट्टी के हाथी पर महा लक्ष्मी स्थापित कर पूजन की परम्परा है । कुछ लोग पीतल के हाथी का भी पूजन करते हैं ।

चूंकि कुंती व गांधारी ने स्वर्ण आभूषणों से ऐरावत को सजाया था अतः बेसन के बने पीले आभूषण पकवानों से हाथी को सजाने की परम्परा बन गई है । बच्चों को यह गहने पकवान जो विशिष्ट आकार के पपड़ी नुमा कुरकुरे तले हुए होते हैं , बहुत आकर्षित करते हैं ।

 

©  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 105 ☆ समुद्र मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 105 ☆ समुद्र मंथन ☆

स्वर्ग की स्थिति ऐसी हो चुकी थी जैसे पतझड़ में वन की। सारा ऐश्वर्य जाता रहा। महर्षि दुर्वासा के श्राप से अकल्पित घट चुका था। निराश देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे।  भगवान ने समुद्र की थाह लेने का सुझाव दिया। समुद्र में छिपे रत्नों की ओर संकेत किया। तय हुआ कि सुर-असुर मिलकर समुद्र मथेंगे।

मदरांचल पर्वत की मथानी बनी और नागराज वासुकि बने रस्सी या नेती। मंथन आरम्भ हुआ। ज्यों-ज्यों गति बढ़ी, घर्षण बढ़ा, कल्पनातीत घटने की संभावना और आशंका भी बढ़ी।

मंथन के चरम पर अंधेरा छाने लगा और जो पहला पदार्थ बाहर निकला, वह था, कालकूट विष। ऐसा घोर हलाहल जिसके दर्शन भर से मृत्यु का आभास हो। जिसका वास नासिका तक पहुँच जाए तो श्वास बंद पड़ने में समय न लगे। हलाहल से उपजे हाहाकार का समाधान किया महादेव ने और कालकूट को अपने कंठ में वरण कर लिया। जगत की देह नीली पड़ने से बचाने  के लिए शिव, नीलकंठ हो गए।

समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।

अमृत पाने के लिए दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं। अंतत: नारायण को मोहिनी का रूप धारण कर दैत्यों को भरमाना पड़ा और अराजकता शाश्वत नहीं हो पाई।

समुद्र मंथन की फलश्रुति के क्रम पर विचार करें। हलाहल से आरंभ हुई यात्रा अमृत कलश पर जाकर समाप्त हुई। यह नश्वर से ईश्वर की यात्रा है। इसीलिए कहा गया है, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’

अमृत प्रश्न है कि क्या समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?  फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा है, वह क्या है? विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर !

अपनी कविता की पंक्तियाँ स्मरण आती हैं-

इस ओर असुर/ उस ओर भी असुर ही / न मंदराचल / न वासुकि / तब भी-/ रोज़ मथता हूँ / मन का सागर…/ जाने कितने/ हलाहल निकले/ एक बूँद/ अमृत की चाह में..!

इस एक बूँद की चाह ही मनुष्यता का प्राण है।   यह चाह अमरत्व प्राप्त करे।…तथास्तु!

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…2”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

दरअसल “मैं” की यात्रा दुरूह होती है। माँ के गर्भ में आते ही “मैं” को कई सिखावन से लपेटना शुरू होता है वह यात्रा के हर पड़ाव पर कई परतों से ढँक चुका होता है। घर, घर के सदस्य, मोहल्ला, मोहल्ला के साथी, पाठशाला, पाठशाला के साथी, शिक्षक, संस्कारों की बंदिशें, मूल्यों की कथडियों, संस्था और संस्थाओं के रूढ़-रुग्ण नियमों से “मैं” घबरा कर समर्पण कर देता है। यह समर्पण स्थापित व्यवस्था के समक्ष होता है, देव या सर्वोच्च दैविक सत्ता के समक्ष नहीं। “मैं” का   दैविक सत्ता के समक्ष समर्पण अंतिम परिणति है। वह समर्पण मृत्यु के पूर्व चिंतन विधि से नियति के समक्ष जागृत अवस्था में होता है या मृत्यु देव के शिकंजे में लाचार स्थिति में होता है। यही मुख्य भेद है।

“मैं” मौलिकता खो देता है। उसकी जगह नया सृजित “मैं” सिंहासन पर क़ाबिज़ हो चुकता है। जिसे धन, यौवन, यश, मोह की रस्सियों से कस दिया जाता है। “मैं” जब कभी मौलिकता की ओर लौटना चाहता है तो उसे संस्कारों की दुहाई से बरबस खींच कर सृजित “मैं” की खोल में पुनः लाकर लपेट दिया जाता है।

आध्यात्मिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि “मैं” को छापों से मुक्त करके ही प्रज्ञा जन्मी है। कृष्ण गीता में अर्जुन के मस्तिष्क पर से उसके “मैं” की छापों से मुक्त करके एक स्वतंत्र अस्तित्व से परिचय करवाते हैं। जहाँ मोहग्रस्तता से मुक्त आत्मा निष्काम कर्म को प्रेरित होती है।

भगवत गीता में, “मैं” याने आत्मा की खोज याने आत्मचिंतन द्वारा आत्मबोध की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का हवाला मिलता है। गीता कहती है “मैं” याने आत्मा देह से विलग एक स्वतंत्र अस्तित्व है। देह प्रकृति से उत्पन्न है उसमें परमात्मा का तत्व आत्मा रूप में स्थित है, जब तक आत्मा देह में है, देह सत्य है, शिव है, सुंदर है परंतु आत्मा के निकलते ही देह शव हो जाती है। जिसे अविलम्ब पंचतत्वों में विलीन करके प्रकृति को वापस करना होता है।

गीता बताती है कि आत्म तत्व को देह से अलग करने की अनुभूति ध्यनापूर्वक चिंतन से प्राप्त की जा सकती है। ग्रंथ कहता है कि “मैं” और देह के बीच इंद्रियों की सत्ता है। जब मैं भोग करूँ तब यह भाव मन में रहे कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, इंद्रियाँ इंद्रियों में बरत रहीं हैं।” यदि जलेबी खा रहा हूँ तो यह कहना होगा कि रसना रस ले रही है, आत्मा को रस से कोई मतलब नहीं है। इस सोच से इंद्रियों से मोह छूटना आरम्भ होता है। यहीं से आत्मतत्व को देह तत्व से विलग करने की यात्रा आरम्भ की जा सकती है। इस यात्रा को ध्यान पद्धति से निरंतर करके आत्मबोध की तरफ़ बढ़ा जा सकता है। जैसे-जैसे आत्मबोध अनुभूति पक्की होने लगती है वैसे-वैसे जन्म-मृत्यु का बोध लुप्त होने लगता है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 100 ☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 100 ☆

☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆

ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से  गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो; स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।

ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत खतरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो।

मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना  जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी वह स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफलन है।

सुख व्यक्ति के साहस की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और अपने समान किसी को नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु  दु:ख में वह टूट जाता है; पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि वह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। इस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना सबसे कारग़र है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 52 ☆ पर्व एवं आस्था ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “पर्व एवं आस्था”.)

☆ किसलय की कलम से # 52 ☆

☆ पर्व एवं आस्था ☆

हिन्दु धर्मावलंबी धार्मिक कृत्य करने के समय या दिन को पर्व कहते हैं। लोग बड़ी आस्था, श्रद्धा व पवित्रता से धर्म के निर्देशानुसार अलग-अलग पर्वों पर उपवास, पूजन-हवन, प्रार्थनाएँ, आरती करते हैं, जिससे आनन्दमयी वातावरण निर्मित हो जाता है। शायद ही विश्व में कोई ऐसा धर्म होगा जिसमें इतने बहुसंख्य पर्व मनाए जाते होंगे। आप हिन्दी पञ्चाङ्ग खोल कर देखेंगे तो हर तिथि पर कोई न कोई पर्व दिखाई पड़ ही जाएगा। आप भी पढ़ लीजिए-  प्रथम तिथि पर बैठकी, धुरेड़ी, अन्नकूट पर्व आते हैं। भाईदूज, अक्षय तृतीया, हरतालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, बसंत पंचमी, रंग पंचमी, नाग पंचमी, हलषष्ठी, छठ पूजा, संतान सप्तमी, दुर्गाष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, दशहरा, प्रत्येक माह की एकादशी व द्वादशी (प्रदोष व्रत), धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, नरक चौदस, प्रत्येक माह की अमावस्या एवं पूर्णिमा। इस तरह मास में दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में प्रत्येक दिन कोई न कोई पर्व रहता ही है। आशय यह है कि हिन्दुधर्म में प्रत्येक दिन धर्मप्रधान होता है। सभी हिन्दुओं का कर्तव्य है कि वे आस्था और पवित्र मन से दिन की शुरुआत करें और रात्रि में शयन पूर्व प्रभु का नाम लेते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करें।

ये तो धर्मोक्त की बातें हुईं। आज इक्कीसवीं सदी में ऐसे कितने प्रतिशत लोग बचे होंगे जो नियमित रूप से धर्मानुसार दिनचर्या अपना रहे होंगे। आज जब अर्थ और स्वार्थ का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। निंदा, झूठ, छल, द्वेष आदि को स्वहित में जायज माना जाता है, तब सत्य, आदर्श, प्रेम, परोपकार, सद्भाव, रिश्ते जैसे शब्दों के अर्थ भी बदले-बदले लगने लगे हैं।

हमारे पारंपरिक पर्वों के आदर्श तार-तार हो चुके हैं। हर पर्व को लोग अवसर मानकर अपनी अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं, जबकि हमारे पर्वों के पीछे कोई न कोई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होते ही हैं। स्वास्थ्य एवं सामाजिक गतिविधियों की सार्थकता से जुड़े ये पर्व हमें परस्पर एक सूत्र में पिरोने का काम करते हैं। पावन, निश्छल एवं सद्भावना पूर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, लेकिन जब हम पर्वों को ही महत्त्व नहीं देंगे तो बाकी अन्य सभी बातें गौण हो ही जायेंगी।

आज पर्व का मतलब घर में पकवान बनना होता है। उपवास के नाम पर भरपेट फलाहार करना होता है। हर पर्व पर समाज के लोगों द्वारा इनसे कमाई का, स्वार्थ का, मनोरंजन का, व्यसन का, फूहड़ता का, और तो और अश्लीलता का तरीका ढूँढ़ लिया जाता है। पर्वों में लगने वाली हर सामग्री आम दिनों की अपेक्षा लगभग दुगनी महँगी हो जाती है। खरीदने की अनिवार्यता के चलते व्यापारी वर्ग घटिया वस्तुएँ तथा बासे खाद्य पदार्थ तक बेच डालता है। पर्वों पर हर सेवाएँ भी जाने क्यों महँगी हो जाती हैं। लोग मुनाफे के कोई भी अवसर नहीं छोड़ते। पता नहीं इन लोगों की आस्था पर पत्थर पड़ जाते हैं।

आजकल पर्वों पर भोंड़े नृत्य-गीत-संगीत अथवा द्विअर्थी गानों की धूम मच जाती है। भीड़ की आड़ में लोग अश्लीलता की पराकाष्ठा पार कर जाते हैं। सौन्दर्य-दर्शन जहाँ कुछ पुरुषों के शगल बन जाते हैं, वहीं कुछ युवतियाँ भी सौन्दर्य, आकर्षक एवं लुभावनी दिखने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। छेड़छाड़, वाद-विवाद एवं स्तरहीन टिप्पणियों के चलते मजनूँ प्रकृति के लोग ही दोषी करार दिए जाते हैं। उनकी अधैर्यता का खामियाजा उन्हें पुलिस के सानिध्य में भुगतना पड़ता है।

पर्वों पर आस्था उस वक्त और भी किसी कोने में छिप जाती है, जब जोश का अतिरेक होने लगता है। इतर धर्म तथा हिन्दु धर्म की ईर्ष्या-निन्दा पर विवाद बढ़ते हैं। धर्म की आड़ में प्रतिशोध लिए जाते हैं। कट्टरवादिता के चलते मानवता को रौंद दिया जाता है। इन्हीं पर्वों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकना भी कोई नई बात नहीं है। छुटभैये अपने नेता के दबदबे का भरपूर फायदा उठाते हैं।

आज कल पर्व के कुछ दिन पूर्व से कुछ दिनों पश्चात तक बड़े, भव्य, विशाल पंडालों में प्रायोजित तथाकथित धार्मिक आयोजन किए जाते हैं, जिनमें आस्था कम पुरुषों और महिलाओं के परस्पर आकर्षण और सौंदर्य दर्शन की ही प्रधानता होती है। पर्वों के अवसर पर घर से बाहर निकलने वाले कुछ युवक एवं युवतियों का भी यही उद्देश्य रहता है। यहीं पर धर्म और आस्था के तले प्रेम प्रसंग पनपते हैं जिनमें से कुछ वैवाहिक स्थिति तक भी पहुँच जाते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन प्रेम में धोखा, जबरदस्ती की  घटनाओं के स्रोत क्या है? इन पर अभिभावकों के साथ-साथ स्वयं युवापीढ़ी का भी सावधान रहना अत्यावश्यक है।

वैसे तो अधिकांश पर्व धर्म पर आधारित होते हैं, लेकिन कुछ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व प्राकृतिक हित को भी ध्यान में रखकर मनाए जाते हैं, जो सद्भावना, सर्वकल्याण सुख-शांति, स्वच्छता स्वास्थ्य आदि के लिहाज से भी उपयोगी होते हैं। हमारे सभी पर्वों में अकेले मानव ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, नदियों-जलस्रोतों, सूर्य,चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

पर्वों के पावन, रम्य, सुखद वातावरण हमारे बच्चों में अच्छे संस्कारों के बीजारोपण में मददगार साबित होते हैं। मौसमी और अनूठे पकवान नए वस्त्र, घरों की स्वच्छता तथा सौंदर्यीकरण धार्मिक वातावरण  के साथ ही सबकी सहभागिता निश्चित रूप से सकारात्मकता बढ़ाती है। सबके दिलों में नवीन ऊर्जा और सात्विक विचारधारा का जन्म होता है। इन पर्वों के शुभ-अवसरों पर इतर धर्मावलंबियों को भी हमारे पर्व व धार्मिक कृत्यों को नजदीक से देखने-समझने का अवसर मिलता है, जिससे आपस में सद्भावना बढ़ती है। हम भी आगे बढ़कर उनका अभिनंदन करते हैं, क्योंकि हमारा वेदोक्त ही ‘वसुदेव कुटुंबकम’ है।

अंत में बस यही रह जाता है कि यदि हमें अपनी संस्कृति और धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखना है, इसकी गरिमा बनाए रखना है तो पर्वों को अवसरवादिता की घटिया भावनाओं से ऊपर उठकर शत-प्रतिशत आस्था के साथ मनाना होगा। हम अपने पर्वों को आस्था पूर्वक पवित्र मन से मनाएँगे तो निश्चित रूप से हमारी भावी पीढ़ी पर्वों का वास्तविक उद्देश्य समझ पाएगी, अन्यथा भूमंडलीकरण एवं आधुनिकता की होड़ में हमारे धर्म और हमारी आस्था का क्या होगा? आप स्वयं समझ सकते हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares