हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 116 ☆ सोना और सोना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 116 ☆ सोना और सोना 

‘समय बलवान, समय का करो सम्मान’, बचपन में इस तरह की अनेक कहावतें सुनते थे। बाल मन कच्ची मिट्टी होता है, जल्दी ग्रहण करता है। जो ग्रहण करता है, वही अंकुरित होता है। जीवनमूल्यों के बीज, जीवनमूल्यों के वृक्ष खड़े करते हैं।

अब अनेक बार  किशोरों और युवाओं को मोबाइल पर बात करते सुनते हैं,- क्या चल रहा है?… कुछ खास नहीं, बस टीपी।.. टीपी अर्थात टाइमपास। आश्चर्य तो तब होता है जब अनेक पत्र-पत्रिकाओं के नाम भी टाइमपास, फुल टाइमपास, ऑनली टाइमपास, हँड्रेड परसेंट टाइमपास देखते-सुनते हैं। वैचारिक दिशा और दशा के संदर्भ में ये शीर्षक बहुत कुछ कह देते हैं।

वस्तुतः व्यक्ति अपनी दिशा और दशा का निर्धारक स्वयं ही होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है- “बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।” मनुष्य तन पाना सौभाग्य की बात है। देवताओं के लिए भी यह मनुष्य योनि पाना दुर्लभ है। वस्तुत: ईश्वर से साक्षात्कार की सारी संभावनाएँ इसी योनि में हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि यह योनि नश्वर है।

योनि नश्वर है, अर्थात कुछ समय के लिए ही मिली है। यह समय भी अनिश्चित है। किसका समय कब पूरा होगा, यह केवल समय ही जानता है। ऐसे में क्षण-क्षण का अपितु क्षणांश का भी जीवन में बहुत महत्व है। जिसने समय का मान किया, उसने जीवन का सदुपयोग किया। जिसने समय का भान नहीं रखा, उसे जीवन ने कहीं का नहीं रखा। अपनी कविता ‘क्षण-क्षण’ का स्मरण हो आता है। कविता कहती है,  “मेरे इर्द-गिर्द / बिखरे पड़े हज़ारों क्षण / हर क्षण खिलते/ हर क्षण बुढ़ाते क्षण/ मैं उठा/ हर क्षण को तह कर / करीने से समेटने लगा / कई जोड़ी आँखों में / प्रश्न भी उतरने लगा / क्षण समेटने का / दुस्साहस कर रहा हूँ /मैं यह क्या कर रहा हूँ?..अजेय भाव से मुस्कराता / मैं निशब्द / कुछ कह न सका/ समय साक्षी है / परास्त वही हुआ जो/ अपने समय को सहेज न सका।”

एक प्रसंग के माध्यम से इसे बेहतर समझने का प्रयास करते हैं। साधु महाराज के गुरुकुल में एक अत्यंत आलसी विद्यार्थी था। हमेशा टीपी में लगा रहता। गुरुजी ने उसका आलस्य दूर करने के अनेक प्रयास किए पर सब व्यर्थ। एक दिन गुरुजी ने एक पत्थर उसके हाथ में देकर कहा,” वत्स मैं तुझ से बहुत प्रसन्न हूँ। यह पारस पत्थर है। इसके द्वारा लोहे से सोना बनाया जा सकता है। मैं दो दिन के लिए आश्रम से बाहर जा रहा हूँ। दो दिन में चाहे उतना सोना बना लेना। कल सूर्यास्त के समय लौट कर पारस वापस ले लूँगा।” गुरु जी चले गए। आलसी चेले ने सोचा, दो दिन का समय है। गुरु जी नहीं हैं, सो आज का दिन तो सो लेते हैं, कल बाजार से लोहा ले आएँगे और उसके बाद चाहिए उतना सोना बना कर लेंगे। पहले दिन तो सोने पर उसका उसका सोना भारी पड़ा। अगले दिन सुबह नाश्ते, दोपहर का भोजन, बाजार जाने का लक्ष्य इस सबके नाम पर टीपी करते सूर्यास्त हो गया। हाथ में आया सोना, सोने के चलते खोना पड़ा।

स्मरण रहे, यह पारस कुछ समय के लिए हरेक को मिलता है। उस समय सोना और सोना में से अपना विकल्प भी हरेक को चुनना पड़ता है। इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #99 ☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 99 ☆

☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆

पृथ्वी सगंधसरसास्तथाप:, स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेज:।

नभ:  सशब्दं महतां सहैव, कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम्।

इत्थं प्रभाते परमंपवित्रम्, पठेतस्मरेद्वा श्रृणयाच्च  भक्त्या।

दु:स्वप्न नाशस्ति्त्व: सुप्रभातमं, भवेच्चनित्यम् भगवत् प्रसादात्।।

(वामन पुराण14-26,14-28)

अर्थात्–गंध युक्त पृथ्वी,रस युक्त जल,स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्द सहित आकाश, एवम् महतत्त्व, सभी मिलकर कर मेरा प्रात:काल मंगल मय करें।

सहयज्ञा: प्रजा:सृष्ट्वा पुरोवाचप्रजापति।

अनेन‌ प्रसविष्यध्वमेण वोअस्तित्वष्ट काम धुक्।।

 देवानंद भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं भावयंत:श्रेय: परमवाप्स्यथ।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यंते यज्ञभाविता:।

तैर्दत्तान प्रदायभ्यो तो भुंक्तेस्तेन एवस:।।

(श्री मद्भागवतगीताअ०३-१०-११-१२)

अर्थात् सृष्टि के प्रारंभ में समस्त प्राणियों के स्वामी प्रजापति ने भगवान श्री हरि विष्णु के प्रीत्यर्थ, यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं के संततियों की रचना की। तथा उनसे कहा कि तुम यज्ञ से सुखी रहो, क्यों कि इसके करने से तुम्हें सुख शांति पूर्वक रहने तथा मोक्ष प्राप्ति करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त होंगी, उन यज्ञों से पोषित  प्रसंन्न देवता वृष्टि करेंगे, इस प्रकार परस्पर सहयोग से सभी सुख-शांति तथा समृद्धि को प्राप्त होंगे। लेकिन जो देवताओं द्वारा प्रदत्त उपहारों को उन्हें अर्पित किए बिना उपभोग करेगा वह महाचोर है।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित श्लोक के चरणांश हमें शांत सुखी एवं आदर्श जीवन यापन की आदर्श शैली का सफल सूत्र तो बताती ही है।

हमारी जीवन पद्धति पूर्व पाषाण काल से लेकर आज तक लगभग प्रकृति की दया दृष्टि पर ही निर्भर है।जब पाषाण कालीन मानव असभ्य एवं बर्रबर था, सभ्यातायें विकसित नहीं थी, वह आग जलाना खेती करना पशुपालन करना नहीं जानता था। गुफा  पर्वतखोह कंदराएं ही उसका निवास होती थी। उस काल से लेकर वर्तमान कालीन  विकसित सभ्यता होने तक तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव समाज को  सुविधा भोगी आलसी एवं नाकारा एवम् पंगुं बना दिया, जिसके चलते हम प्रकृति एवम् पर्यावरण से दूर होते चले गए। हम आज भी उतनें ही लाचार एवम् विवस है जितना तब थे। बल्कि हम आज श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सिद्धांतों का परित्याग कर, प्रकृति का पोषण छोड़ उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। हम प्राकृतिक नियमों की अनदेखी कर प्राकृतिक प्रणाली में  खुला हस्तक्षेप करने लगे हैं। जिसका परिणाम आज सारा विश्व भुगतता त्राहिमाम करता दीख रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है।

इसी क्रम में हमें याद आती है हमारे सनातन धर्म में वर्णित वेद ऋचाओं में शांति पाठ के उपयोगिता की, जिसमें पूर्ण की समीक्षा करते हुए लोक मंगल की मनोकामनाओं के साथ  समस्त प्राकृतिक शक्तियों पृथ्वी, अंतरिक्ष, वनस्पतियों औषधियों को शांत रहने के लिए आवाहित किया गया है। इस लिए वैदिक ऋचाओं का उल्लेख सामयिक जान पड़ता है।

 ऋचा—-

ऊं  पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ऊं द्यौ:शान्तिरन्तरिक्षऽशांति शांति:, पृथ्वीशांतराप: शांतिरोषधय: शांति।

वनस्पतय: शांतर्विश्वेदेवा: शांतिर्ब्ह्म शांति: सर्वऽवम् शांति शातिरेव शांति:सा मां शातिरेधि शांति:।

ऊं शांति:! शांति:!! शांति!! सर्वारिष्टा सुशांतिर्भवंति।।

आज अंतरिक्ष अशांत है, पृथ्वी अशांत है, धरती एवम् आकाश के सीने में कोलाहल से हलचल मची हुई है, जलवायु प्रदूषण परिवर्तन तीव्रतम गति से जारी है, वनस्पतियां औषधियां अशांत हो अपना स्वाभाविक नैसर्गिक गुण खो रही है।

जिसका परिणाम सूखा बाढ़ बर्फबारी, आंधी तूफान तड़ित झंझा के रूप में दृष्टि गोचर हो रहा है, लाखों लोग भूकंप महामारी भूस्खलन से काल कवलित हो रहे हैं। वे अपने आचार विचार आहार विहार की प्राकृतिक नैसर्गिकता से बहुत दूर हो गये है।

प्राचीन समय के हमारे मनीषियों ने प्रकृति के प्राकृतिक महत्त्व को समझा था। इसी कारण वह धरती का शोषण नहीं पोषण करते थे।

जिसके चलते हमें प्रकृति ने फल फूल लकड़ी चारा जडी़ बूटियां उपलब्ध कराये। जिनके उपभोग से मानव  सुखी शांत समृद्धि का जीवन जी रहा था, यज्ञो तथा आध्यात्मिक उन्नति के चलते मानव समाज, लोक-मंगल कारी कार्यों में पूर्णनिष्ठा लगन से तन मन धन से जुड़ा रहता था, वह तालाबों कूपों बावड़ियों का निर्माण कराता, बाग बगीचे लगाता जिसे समाज का पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्राप्त होता। मानव औरों को सुखी देख स्वयं सुखी हो लेता,उसके लिए अपना सुख अपना दुख कोई मायने नहीं रखता। आत्म संतुष्टि से ओत प्रोत जीवन दर्शन का यही भाव कविवर रहीम दास जी के इस दोहे से प्रतिध्वनित होता है।

गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

लेकिन आज ज्यो ज्यो सभ्यता विकसित होती गई, प्रकृति के साथ हमारी संवेदनाएं तथा लगाव खत्म होता गया, हमारे आचार विचार व्यवहार अस्वाभाविक रूप से बदल गये, दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्यों की जगह हम स्वार्थी क्रूर अवसरवादी एवं उपभोग वादी बनते चले गये।

हमने जल जंगल जमीन के प्राकृतिक श्रोतों को काटना पाटना आरंभ कर दिया, पहाड़ों को नंगा कर ढहाने लगे, नदियों पर बांध बना तत्कालिक लाभ के लिए उसकी जीवन धारा ही छीन लिया।

उसमें शहरों की गंदी नालियों का जल-मल बहा उसे पनाले का रूप दे दिया। हमने अपने ही आंगन के पेड़ों कटाई कर उसकी छाया खत्म कर दिया, और हमारे शहर गांव कंक्रीट के जंगलों में बदलते चले गये  इस प्रकार हमारा जीवन भौतिक संसाधनों पर आश्रित होता चला गया, हमें अपनी संस्कृति अपने रीती रिवाज दकियानूसी लगने लगे, हमनें अपने कमरे तो ऐसी कूलर फ्रीज लगा ठंडा तो कर लिया लेकिन अपने वातावरण को भी जहरीली गैसों से भरते रहे आज हमारे शहर जहरीले गैस चेंबर में बदल गये है। भौतिक जीवन शैली और जलवायु परिवर्तन प्रदूषण ने जितना नुकसान आज पहुंचाया है उतना पूर्व काल में कभी भी देखा सुना नहीं गया।

आज इंसान अपने ही अविष्कारों के जंजाल में बुरी तरह फंस कर उलझ चुका है।

यद्यपि उसके द्वारा उत्पादित प्लास्टिक ने मानव जीवन को सुविधाजनक बनाया है लेकिन वहीं पर उसके न सड़ने गलने वाले प्लास्टिक एवम् इलेक्ट्रॉनिक रेडियो धर्मी कचरे ने पृथ्वी आकाश एवम् जलस्रोतों को इस कदर प्रदूषित किया है कि आज आदमी को पानी भी छान कर पीना पड़ रहा है।

मानव का जीना मुहाल होता जा रहा है। आज विश्व के सारे शहर प्लास्टिक के कचरे के ढेर में बदल रहे हैं। जिसके चलते डेंगू मलेरिया चिकनगुनिया  पीलिया हेपेटाइटिस तथा करोना जैसी महामारियां  तेजी से पांव पसार रही है।संक्रामक संचारी महामारियों के रूप पकड़ चुके हैं और इंसानी समाज अपने प्रिय जनों को खोकर मातम मनाने पर विवस है। जो आने वाले बुरे समय का भयानक संकेत दे रहा है जिससे दुनिया सहमी हुई है।हम अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब महाकाल नग्न नर्तन करेगा और एक दिन इंसानी सभ्यता मिट जायेगी। क्यौं कि हमने अपनी तबाही और बरबादी की सारी  सामग्री खुद ही जुटा रखी है।

इस क्रम में हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अपनी जीवनशैली से तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनके लंबी आयु का मुख्य आधार तनावमुक्त जीवन शैली थी। वे गुरुकुलो एवम् ऋषिकुल संकुलों में प्राकृतिक  साहचर्य में रहते थे। अपनी यज्ञशालाओं में वेदरिचाओं  का आरोह अवरोह युक्त सस्वर पाठ करते, उनकी ध्वनियों तथा यज्ञ में आहूत समिधा के जलने से उत्तपन्न सुगंध से सुवासित सारा वातावरण सुरभित हो महक उठता था और वातावरण की नकारात्मक उर्जा नष्ट हो सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो उठती, सुबह शाम का संध्याबंदन अग्निहोत्र हमारी सांस्कृतिक जीवन शैली में प्राण चेतना भर कर उसे अभिनव गरिमा प्रदान करती, हम दिनभर सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण रहते, जिसके चलते हमारे समाज का जन जीवन उमंग उत्साह एवम् आनंद से परिपूर्ण होता, हमारे व्रतो त्यौहारों का उद्देश्य कहीं न कहीं  लोक-मंगल एवम पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है, लेकिन आज़ तो हमारे जीवन की सुरूआत ही गाड़ी मोटर के हार्नो की कर्कस आवाजों टी वी मिक्सचर के शोर से आरंभ होकर  शाम डी जे के शोर में ढलती है क्यों कि हमारा कोई भी उत्सव हो अब बिना डीजे के शोर और धूमधड़ाके के अश्लील एवम् फूहड़ दो अर्थी गीतों के पूरा ही नहीं होता, मानों समस्त कर्मकांडो के अंत में कोई नया कर्मकांड जुड़ गया है।

आज हमारी स्वार्थपरता ने हमारे अपने बच्चों का ही बचपन छीन लिया है, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्हें बलि का बकरा बना दिया है, उन्हें डाक्टर या इंजिनियर बनाने की चाहत में हमने उनके खेलने खाने के दिन कम कर दिए हैं, उनकी जिंदगी पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की किताबों के बोझ तले दब कर घुट घुट कर सिसकने के लिए मजबूर है। उनकी बचपना की शरारतें खिलखिलाहट भरी नैसर्गिक मुस्कान उन्मुक्त हास्य कहीं मोबाइल फोन टीवी विडियो गेम के आकर्षण में खो गई है, टी वी नेट  तथा मोबाइल का अंधाधुंध दुरूपयोग बच्चों युवाओं को खेल के मैदान से दूर कर अपने मोह पास में कैद कर लिया है, जिससे उनका शारीरिक विकास तथा दमखम बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और अंत में कमरों के भीतर अंधेरे में गुजरने वाला समय एकाकी पन का रूप पकड़ मानसिक अवसाद में परिवर्तित हो आत्महत्या का कारण भी बन रहा है उसके आकर्षण से क्या बच्चा क्या जवान क्या बूढ़ा कोई नहीं बचा। आज हमारे दिन की शुरूआत चिड़ियों के कलरव, बच्चों की किलकारियों, संगीत की स्वरलहरियों से नहीं, ध्वनिप्रदूषण वायुप्रदूषण के दौर से गुजरती हुई तनाव के साथ शाम की अवसान बेला क्लबों के शोर शराबे, नशे की चुस्कियों के बीच गुजरने के लिए बाध्य है, जो जीवन को दुखों के दरिया में डुबोने को आतुर दीखती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कि प्राकृतिक जीवन शैली यज्ञों एवम् लोक मंगल कारी सोच विचार का मानव जीवन तथा समाज पर बड़ा ही गहरा एवम् सकारात्मक प्रभाव होता है तथा जीवन शांति पूर्ण बीतता है।

और अंत में———————

#सर्वे भवन्तु सुखिन: की मंगल मनोकामना#

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 110 ☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी और ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 110 ☆

☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆

कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं, कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं; कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है। वास्तव में ज़िंदगी निरंतर चलने का नाम है और रास्ते में चंद लोग हमें ऐसे मिलते हैं, जिनकी जीवन में अहमियत होती है। उनके बिना हम ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते और कुछ लोगों के ज़िंदगी में होने से हमें अंतर नहीं पड़ता अर्थात् उनके न रहने से भी हमारा जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जिन्हें हम अवसरवादी कह सकते हैं। ये स्वार्थ के कारण हमारा साथ देते हैं। सो! ऐसे लोगों से मानव को सावधान रहना चाहिए। सच्चे दोस्त वे होते हैं, जो सुख-दु:ख में हमारे अंग-संग रहते हैं और सदैव हमारे हितैषी होते हैं। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारे पक्षधर होते हैं। वास्तव में उनके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे हर विषम परिस्थिति व आपदा में वे हमारा साथ निभाते हैं।

जीवन एक यात्रा है। इसे ज़बरदस्ती नहीं; ज़बरदस्त तरीके से जीएं। मानव जीवन अनमोल है तथा चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए हमें जीवन में कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए, बल्कि इसे उत्सव समझना चाहिए और असामान्य परिस्थितियों में भी आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम की पंक्तियां– ‘आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं; जिससे आपका भविष्य स्वतः बदल सकता है।’ भले ही हम अपनी नियति नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं और यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। यदि हमारी सोच सकारात्मक होगी, तो हमें गिलास आधा खाली नहीं; आधा भरा हुआ दिखाई पड़ेगा, जिसे देख हम संतोष करेंगे और अवसाद रूपी शिकंजे से सदैव बचे रहेंगे।

हर समस्या का समाधान होता है–आवश्यकता होती है आत्मविश्वास व धैर्य की। यदि हम निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं और बीच राह से लौटने से परहेज़ करते हैं, तो हमें सफलता अवश्य प्राप्त होती है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम यदि किसी कार्य में लगा दिया जाए, तो असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर समस्या के समाधान के केवल दो ही रास्ते नहीं होते हैं। हमें तीसरे विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए तथा तथा उस दिशा में अग्रसर होना चाहिए। ऐसी सीख हमें शास्त्राध्ययन, गुरुजन व सच्चे दोस्तों से प्राप्त हो सकती है।

संसार में जिसने दूसरों की खुशी में ख़ुद की खुशी सीखने का हुनर सीख लिया, वह कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। बहुत ही आसान है/ ज़मीन पर मकान बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ ज़िंदगी गुज़र जाती है। सो!  चंचल मन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। यह पल भर में तीन लोकों की यात्रा कर लौट आता है। यदि इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती, तो क्रोध बढ़ता है; यदि पूरी होती हैं, तो लोभ बढ़ता है। इसलिए हमें हर परिस्थिति में सम रहना है और सुख-दु:ख के ऊपर उठना है। इसके लिए आवश्यकता है– मौन रहने और अवसरानुकूल सार्थक वचन बोलने की। मानव को तभी बोलना चाहिए, यदि उसके शब्द मौन पर बेहतर हैं। जितना समय आप मौन रहते हैं; आपकी इच्छाएं शांत रहती हैं और आप राग-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहते हैं। जब तक मानव एकांत व शून्य में रहता है; उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है और वह अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है।

परमात्मा सदैव हमारे मन में निवास करता है। ‘तलाश ना कर मुझे/ ज़मीन और आसमान की ग़र्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं/ तो मैं कहीं भी नहीं।’ आत्मा व परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। वह घट-घट वासी है तथा उसे कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं; अन्यथा हमारी दशा उस मृग की भांति हो जाएगी, जो जल की तलाश में भटकते हुए अपने प्राणों का त्याग कर देता है। ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन माहिं/ ऐसे घट-घट राम हैं/  दुनिया देखे नाहिं।’ सो! मानव को मंदिर-मस्जिद में जाने की आवश्यकता नहीं।

परमात्मा तक पहुंचने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हमारा अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव है; जो हमें सब से अलग कर देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो अपनों के बिना बीती वह उम्र और जो अपनों के साथ बीती  वह ज़िंदगी। सो!अहंकार प्रदर्शित कर रिश्तों को तोड़ने से अच्छा है, क्षमा मांगकर रिश्तों को निभाना। संसार में अच्छे लोग बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति का नियम है–जैसे कर्म आप करते हैं, वही लौटकर आपके पास आते हैं। इसलिए सदैव निष्काम भाव से सत्कर्म कीजिए और किसी के बारे में बुरा भी मत सोचिए, क्योंकि समय से पहले और भाग्य से अधिक इंसान को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए अपनी ख़ुदी को ख़ुदा की रज़ा में मिला दीजिए; तुम्हारा ही नहीं, सबका मंगल ही मंगल होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 61 ☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “परहित सरिस धरम नहिं भाई।)

☆ किसलय की कलम से # 61 ☆

☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई 

परहित, परोपकार, परसेवा अथवा परमार्थ जैसे शब्दों को ही सुनकर हमारे मन में दूसरों की मदद हेतु भाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी भी तरह के जरूरतमंदों की सहायता करना, उनकी सेवा करना मानवसेवा का प्रमुख उदाहरण है। यदि ईश्वर ने आपको सक्षम बनाया है, या आप गरीबों की अंशतः भी मदद करते हैं तो इससे बढ़कर अच्छा कार्य और कुछ भी नहीं हो सकता। परहित का आधार मात्र आर्थिक नहीं होता। आप समाज में रहते हुए अनेक तरह से ये कार्य कर सकते हैं। आपके द्वारा किया गया श्रमदान, शिक्षादान, अंगदान, सहृदयता, अथवा भावनात्मक संबल भी परहित है। किसी को गंतव्य तक पहुँचाना, अनजान को राह दिखाना, किसी को दिशाबोध कराना सहृदयता ही है। भूखे को खाना, प्यासे को पानी, धूप से व्यथित व्यक्ति को अपने घर की छाँव देकर भी मदद की जा सकती है। अपने घर की पुरानी, अनुपयोगी वस्तुएँ, कपड़े, बर्तन, बचा भोजन आदि भी हम जरूरतमंदों को दे सकते हैं। घर के आयोजनों में कुछ गरीबों को बुलाकर उन्हें भोजन करा सकते हैं या फिर भोजन ले जाकर गरीबों में बाँट सकते हैं। गरीब बच्चों की शालेय शुल्क, पोशाक, जूते, बैग, पुरानी किताबें आदि भी दी जा सकती हैं। ये कार्य  सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से व्यापक स्तर पर भी किए जा सकते हैं। प्रतिवर्ष नवंबर, दिसंबर और जनवरी महीनों में ठंड का प्रभाव काफी बढ़ जाता है। हर किसी का सुबह और रात में निकलना मुश्किल हो जाता है। अब आप ही सोचें कि जो बेसहारा अथवा गरीब लोग विभिन्न कारणों से फुटपाथ, पेड़ों के नीचे या खुली जगह में रात काटने पर विवश होते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? हम यदि मानवीयता और सहृदयता के भाव से सोचेंगे तो स्वमेव लगेगा कि इन जरूरतमंदों की मदद निश्चित रूप से की जाना चाहिए। हम चाहें तो इन्हें यथासंभव खाने के पैकेट्स दे सकते हैं। इन्हें अपने घरों के पुराने कपड़े दे सकते हैं। रात में मंदिर, पूजाघरों, धर्मशालाओं, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, फुटपाथों और पेड़ों के नीचे उन तक पहुँचकर उन्हें पुराने कपड़े, ऊनी वस्त्र, कंबल, चादर आदि भी दे सकते हैं। जब भी परसेवा की बात आती है तो हर किसी के मन में एक प्रश्न जरूर उठता है- कहीं ऐसा तो नहीं कि ये ठंड में ठिठुरता अथवा भूखा आदमी अपने बुरे कर्मों से आज इस अवस्था में है, इसकी मदद करना चाहिए या नहीं। तब यहीं पर हमें अपनी नेकनियति की विशालता पहचानने की आवश्यकता होती है कि आँखों के सामने ठंड में ठिठुरते अथवा भूखे आदमी को मानवीय आधार पर यूँ ही तो नहीं छोड़ा जा सकता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि एक इंसान होने के नाते गरीब और जरूरतमंदों की सेवा करना भी हमारा सामाजिक दायित्व है। तब देखिए, आपका यह सेवाकार्य, यह सेवाभाव आपके मन को कितनी शांति पहुँचाता है। आपकी यह प्रवृत्ति आपकी खुशी का कारण तो बनेगी ही, साथ में अन्य लोगों को भी ऐसे कार्यों हेतु प्रेरित करेगी।

मनुष्य के सामाजिक प्राणी बनने का कारण भी यही है कि वह सुख-दुख में परस्पर काम आए। अपने से कमजोर अथवा जरूरतमंदों की सहायता करे। अन्य बात यह भी है कि जब ईश्वर ने आपको इतना काबिल बनाया है कि आप समाज के कुछ काम आ सकते हैं, तब आपको दया, करुणा व नम्रता के भावों को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए। जरूरतमंदों की पीड़ा अनुभव कर उनकी यथोचित सहायता हेतु आगे आना चाहिए।

समाज में भले ही आज परोपकारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, फिर भी समाज में ऐसे अनेक लोग दिखाई दे ही जाते हैं जो परहित का बीड़ा उठाए नेक कार्यों में संलग्न हैं। समाज में ऐसी संस्थाएँ भी होती हैं जो निश्छल भाव से जरूरतमंदों की तरह-तरह से सहायता करती रहती हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी भी होती हैं जो व्यापक स्तर पर जनसेवा में जुड़ी रहने के बाद भी प्रचार-प्रसार से दूर रहती हैं। उनका मात्र यही उद्देश्य होता है कि वे यथासामर्थ्य समाज में अपना कर्त्तव्य निर्वहन करें। ऐसे लोग और ऐसी संस्थाओं को मैंने बहुत निकट से देखा है। इन्हें न तो अपनी प्रशंसा की भूख होती है और न ही किसी सम्मान की आशा। परहित कार्यों से जुड़े लोग बताते हैं कि परहित से मिली शांति और खुशी ने हमारी जीवनशैली ही बदल दी है। वे आगे कहते हैं कि दुनिया में आत्मशांति से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं होती और वही हमें इस कार्य से प्राप्त होती रहती है। हमें बुजुर्गों के आशीर्वचन, बच्चों के मुस्कुराते चेहरे और जरूरतमंदों की अप्रतिम खुशी के सहज ही दर्शन हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी लोग पशु-पक्षियों के प्रति भी सहृदयता रखते दिखाई देते हैं। हमारे शहर में हाल ही में घटी एक घटना का संदर्भित जिक्र है कि जब एक शख्स ने एक कुत्ते की गोली मारकर हत्या कर दी, तब इस अमानवीय कृत्य को देखकर क्षेत्रीय नागरिकों का आक्रोश फूट पड़ा और प्रशासन को उसे गिरफ्तार कर उसके विरुद्ध कार्यवाही करना पड़ी। लोगों का कहना था कि आखिर एक पशु के साथ आदमी इतनी क्रूरता कैसे कर सकता है। इस अपराध के लिए उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए। यह घटना एक ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़ा करती है। पानी में भीगे, ठंड में ठिठुरते और गर्मियों में पशु-पक्षियों को भोजन, दाना, पानी के बर्तन, सकोरे आदि रखते हुए तो सभी ने देखा ही होगा। घायल पशु-पक्षियों की चिकित्सा कराते भी हमने देखा है। आसपास गौशालाएँ, आवारा कुत्तों की देखरेख करते लोग दिखाई दे जाते हैं। हिंदू धर्म में हिंसा को अनुचित माना गया है। जैन धर्म तो अहिंसा की धुरी पर ही चल रहा है। दुनिया में निःस्वार्थ और निःशुल्क अनगिनत चिकित्सालय संचालित हैं। असंख्य अनाथालय और वृद्धाश्रम अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। हमारे शहर में ही एक कैंसर हॉस्पिस है जहाँ कैंसर के गंभीर रोगियों को निःशुल्क चिकित्सा, दवाईयों के साथ रोगियों की सेवा-सुश्रूषा भी हॉस्पिस द्वारा की जाती है। ऐसे परोपकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना और ऐसे कार्यों में सहभागी बनना प्रत्येक के लिए गौरव की बात है। जीवन के अंतिम समय में जब लोग अपने ही स्वजनों की सेवा और उनके समीप जाने में भी कतराते हैं, तब ये हॉस्पिस वाले ऐसे मरीजों की अंतिम साँस तक तीमारदारी और दवाईयाँ उपलब्ध कराते हैं। इसे परोपकार का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित है कि अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति के उपलब्ध होने के कारण लोग एवं मृतात्मा के परिजन लीवर, आँखें, किडनी व अन्य अंग भी दान कर मानवीयता का परिचय देते हैं।

यह बात अलग है कि समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानवता को ताक पर रखकर स्वार्थवश इस परहित को एक धंधे के तौर पर संचालित करते हैं। ये लोग व्यक्तिगत अथवा अपनी संस्था के माध्यम से सरकारी अनुदान, लोगों के दान अथवा सहायता को स्वार्थसिद्धि का माध्यम बना लेते हैं। ये अनैतिक कार्य करने वाले लोग  अर्थ को ही ईश्वर और प्रतिष्ठा का पर्याय मानते हैं। इन्हें संपन्नता तो प्राप्त हो जाती है, लेकिन ये वास्तविक सुख शांति से सदैव वंचित ही रहते हैं।

इस दुनिया में हमने जन्म लिया है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि, विवेक और क्षमताएँ भी हमें अधिक प्राप्त हैं। सोचिए! क्या हमें इनका सदुपयोग नहीं करना चाहिए। सुख, शांति, प्रेम, भाईचारे व आदर्श जीवन शैली एक आदर्श इंसान की चाह होती है। यदि यह सुनिश्चित हो जाए तो एक आम इंसान इसके आगे और कोई अपेक्षा नहीं करेगा। आपकी यश, कीर्ति, मान, प्रतिष्ठा तो आपके विवेक पर निर्भर रहती है, जो आपके बुद्धि, कौशल एवं श्रम का ही सुफल होता है। यह बात अलग है कि कुछ उँगलियों पर गिने जाने वाले लोग भी होते हैं जो समाज में अराजकता, हिंसा, विद्वेष आदि फैलाकर अपना छद्म वर्चस्व स्थापित करते हैं। एक प्रतिभावान, परोपकारी व सहृदय इंसान का सम्मान कौन नहीं करेगा? फिर हमें बजाय शॉर्टकट के आदर्श मार्ग अपनाने में संकोच क्यों होता है। पता नहीं क्यों आज के अधिकांश लोग न्याय, धर्म, परोपकार व भाईचारे के मार्ग पर चलना ही नहीं चाहते। झूठी योग्यता का ढिंढोरा पीटकर स्वार्थ सिद्ध करना इंसानियत कदापि नहीं हो सकती।

आईये हम एक सच्चे इंसान की तरह आदर्श जीवनशैली अपनाएँ। खुद जिएँ और लोगों को चैन से जीने दें। भले ही कुछ इंसान असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहकर समाज में विकृति फैलाएँ, लेकिन हमें परोपकार के मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए। मानवता के पथ पर आगे बढ़कर घर, समाज और देशहित की सोच लिए आगे बढ़ते जाना है, क्योंकि दुनिया में जरूरतमंदों की मदद करना परहित का श्रेष्ठतम उदाहरण है। कहा भी गया है कि-

परहित सरिस धरम नहिं भाई,

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 130 ☆ आलेख – पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख  ‘पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी’ । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 130 ☆

?  आलेख – पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ?

वर्तमान युग वैश्विक सोच व ग्लोबल बाजार का हो चला है.  सारी दुनियां में विश्व बैंक तथा समानांतर वैश्विक वित्तीय संस्थायें अधिकांश देशों की सरकारों पर अपनी सोच का दबाव बना रही हैं.  स्पष्टतः इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थानो के निर्देशानुसार सरकारें नियम बनाती दिखती हैं.  पाकिस्तान जैसे छोटे मोटे देशों की आर्थिक बदहाली के कारणों में उनकी स्वयं की कोई वित्तीय सुढ़ृड़ता न होना व पूरी तरह उधार की इकानामी होना है जिसके चलते वे इन वैश्विक संस्थानो के सम्मुख विवश हैं.  किंतु भारत एक स्वनिर्मित सुढ़ृड़ आर्थिक व्यवस्था का मालिक रहा है.  २००८ की वैश्विक मंदी या आज २०२० की कोविड मंदी के समय में भी यदि भारत की इकानामी नही टूटी तो इसका कारण यह है कि “है अपना हिंदुस्तान कहां ?, वह बसा हमारे गांवों में”.

हमारे गांव अपनी खेती व ग्रामोद्योग के कारण आत्मनिर्भर बने रहे हैं.  नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ें तो शायद विकास की शहरी चकाचौंध न पहुंच पाने के चलते भी अप्रत्यक्षतः गांव अपनी गरीबी में भी आत्मनिर्भर रहे हैं.  इस दृष्टि से किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचने की जरूरत है.

हमारे शहरों  की इकानामी की आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ा हाथ पब्लिक सेक्टर नवरत्न सरकारी कंपनियों का है.  इसी तरह यदि शहरी इकानामी में नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ी जाये तो शायद समानांतर ब्लैक मनी की कैश इकानामी भी शहरी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारणो में एक हो सकती है.

हमारा संविधान देश को जन कल्याणकारी राज्य घोषित करता है.  बिजली, रेल, हवाई यात्रा, पेट्रोलियम, गैस, कोयला, संचार, फर्टिलाइजर, सीमेंट, एल्युमिनियम, भंडारण, ट्रांस्पोरटेशन, इलेक्ट्रानिक्स, हैवी विद्युत उपकरण, हमारे जीवन के लगभग हर क्षेत्र में आजादी के बाद से  पब्लिक सेक्टर ने हमारे देश में ही नही पडोसी देशो में भी एक महत्वपूर्ण संरचना कर दिखाई है.  बिजली यदि पब्लिक सेक्टर में न होती तो गांव गांव रोशनी पहुंचना नामुमकिन था.  हर व्यक्ति के बैंक खाते की जो गर्वोक्ति देश दुनियां भर में करता है, यदि बैंक केवल निजी क्षेत्र में होते तो यह कार्य असंभव था.

विगत दशको में सरकारें किसी भी पार्टी की हों, वे शनैः शनैः इस बरसों की मेहनत से रची गई इमारत को किसी न किसी बहाने मिटा देना चाहती हैं.  जिस पब्लिक सेक्टर ने स्वयं के लाभ से जन सरोकारों को हमेशा ज्यादा महत्व दिया है, उसे मिटने से बचाना, देश के व्यापक हित में आम भारतीय के लिये जरूरी है.   तकनीकी संस्थानो में आईएएस अधिकारियो के नेतृत्व पर प्रधानमंत्री जी ने तर्क संगत सवाल उठाया है.  यह पब्लिक सेक्टर की कथित अवनति का एक कारण हो सकता है.

पब्लिक सेक्टर देश के नैसर्गिक संसाधनो पर जनता के अधिकार के संरक्षक रहे हैं.  जबकि पब्लिक सेक्टर की जगह निजी क्षेत्र का प्रवेश देश के बने बनायें संसाधनो को, कौड़ियो में व्यक्तिगत संपत्ति में बदल देंगे.  इससे संविधान की  “जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा” आधारभूत भावना का हनन होगा.  चुनी गई सरकारें पांच वर्षो के निश्चित कार्यकाल के लिये होती हैं, किन्तु निजीकरण के ये निर्णय पांच वर्षो से बहुत दूर तक देश के भविष्य को  प्रभावित करने वाले हैं.  कोई भी बाद की सरकार इस कदम की वापसी नही कर पायेगी.   प्रिविपर्स बंद करना, बैंको का सार्वजनिकरण, जैसे कदमो का यू टर्न स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान की मूल लोकहितकारी भावना के विपरीत परिलक्षित होता है.  हमें वैश्विक परिस्थितियों में अपनी अलग जनहितकारी साख बनाये रखनी चाहिये, तभी हम सचमुच आत्मनिर्भर होकर स्वयं को विश्वगुरू प्रमाणित कर सकेंगे.  

क्या उपभोक्ता अधिकार निजी क्षेत्र में सुरक्षित रहेंगे ? पब्लिक सेक्टर की जगह लाया जा रहा निजी क्षेत्र महिला आरक्षण, विकलांग आरक्षण, अनुसूचित जन जातियो का वर्षो से बार बार बढ़ाया जाता आरक्षण तुरंत बंद कर देगा.  निजी क्षेत्र में कर्मचारी हितों, पेंशन का संरक्षण कौन करेगा ?  ऐसे सवालों के उत्तर हर भारतीय को स्वयं ही सोचने हैं, क्योंकि सरकारें राजनैतिक हितों के चलते दूरदर्शिता से कुछ नही सोच रही हैं.

सरल भाषा में समझें कि यदि सरकार के तर्को के अनुसार व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा ही सारे आदर्श मानक हैं और मां, बहन या पत्नी के हाथों के स्वाद, त्वरित उपलब्धता, आत्मीयता, का कोई महत्व नहीं है, हर कुछ का व्यवसायीकरण ही करना है, तब तो सब के घरों की रसोई बंद कर दी जानी चाहिये और हम सबको होटलों से टेंडर बुलवाने चाहिये.  स्पष्ट समझ आता है कि यह व्यापक हित में नही है.   

अतः संविधान के पक्ष में, जनता और राष्ट्र के व्यापक हित में एवं विश्व में भारत की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये आवश्यक है कि किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचा जाये व पब्लिक सेक्टर को तोड़ने के आत्मघाती कदमो को तुरंत रोका जाये.  बजट में जन हितकारी धन आबंटन हो न कि यह बताया जाये कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिये उसका निजीकरण किया जावेगा.  सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और सुढ़ृड़ीकरण की तरकीब ढ़ूंढ़ना जरूरी है न कि उसका निजीकरण कर उसे समाप्त करना.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समझ समझकर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – समझ समझकर ??

प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’ बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।

कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।

कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर संतुलन(!) साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।

समझ समझकर समझ को समझो।…क्या समझे!

©  संजय भारद्वाज

(‘मैं नहीं लिखता कविता’ संग्रह से।)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साहित्यिक समारोह और साहित्य का प्रचार प्रसार ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ साहित्यिक समारोह और साहित्य का प्रचार प्रसार ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

आज एक साहित्यिक समारोह में जालंधर हूं और सोच रहा हूं कि कोरोना के बाद संभवतः यह पहला साहित्यिक समारोह है जिसमें भाग लेने पहुंचा हूं। डेढ़ दो साल तो सारी गतिविधियां बुरी तरह कोरोना ने लील ली थीं और इसीलिए सन् 2020 में कोई बड़ा साहित्यिक आयोजन नहीं हुआ। यहां तक कि हरियाणा साहित्य अकादमी ने भी अवाॅर्ड की राशि घर चैक के रूप में भेजनी शुरू कर दी। अन्य राज्यों की अकादमियों ने भी शायद ऐसे ही कदम उठाये हों। अब जालंधर में पंजाब कला साहित्य अकादमी (पंकस) ने यह हौंसला किया। सिमर सदोष इसे पच्चीस साल से आयोजित करते आ रहे हैं और अब तो पंकस के अवाॅर्ड बड़ी प्रतिष्ठा के अवाॅर्ड हो चुके हैं। इनके हौंसले को सलाम। सिमर सदोष से पहले जालंधर दूरदर्शन के समाचार संपादक व प्रसिद्ध उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ के लेखक जगदीश चंद्र वैद भी जालंधर में साहित्यिक आयोजन करते रहे और उनके बाद यह मोर्चा सिमर सदोष ने संभाला। यह साहित्यिक यात्रा चलती रहे।

इधर हिमाचल में पूर्व आईएएस  अधिकारी व रचनाकार विनोद प्रकाश शलभ और कथाकार एस आर हरनोट ने भी मिलकर शिमला में हिमाचल के वरिष्ठ लेखकों को ‘नवल प्रयास’ की ओर से सम्मानित किया था जिसमें मुझे भी अतिथि के रूप में आमंत्रित किया तो सभी रचनाकारों के चेहरों पर जो खुशी देखी वह भूल नहीं पाया। सम्मान पाकर कौन गर्व महसूस न करेगा? इस तरह नये रचनाकारों में भी उत्साह व आशा का संचार होता है। हिमाचल में हरनोट व गुप्ता की जोड़ी अनेक कार्यक्रम कर चुकी है और यह सिलसिला बना रहे, यही दुआ है। इसी प्रकार आर डी शर्मा भी शिमला में सक्रिय है और आयोजन करते रहते हैं।

व्यंग्य यात्रा ने भी प्रतिवर्ष दिए जाने वाले रवींद्रनाथ त्यागी सम्मान, शीर्ष और सोपान सम्मान 2020 तथा 2021 का अयोजन दिल्ली के हिंदी भवन में 4 सितम्बर किया। इसी दिन व्यंग्य यात्रा आलोचना एवं रचना पुरस्कार दिए गए।

हरियाणा में एक समय जब हरियाणा साहित्य अकादमी ने पुरस्कार बंद कर दिये थे तब राज्यकवि उदय भानु हंस ने साहित्य कला संगम बना कर ‘हंस पुरस्कार’ देने शुरू किये और जब तक  वे जीवित रहे और स्वास्थ्य ने उनका साथ दिया वे प्रतिवर्ष ‘हंस पुरस्कार’ प्रदान करते रहे और बाकायदा नकद राशि भी देते। देखते देखते ‘हंस पुरस्कार’ हरियाणा के लेखकों में प्रतिष्ठा का सम्मान बन गया। अब उनके जाने के बाद एक बार हम इसका आयोजन उनके बाद कर पाये क्योंकि मुझे ही उनकी संस्था का जिम्मा सौंपा गया पर ऐसे साहित्यिक आयोजन बड़ा समय और श्रम मांगते हैं। इसलिए इसे निरंतर न कर पाये। पर एक बात तय है कि ऐसे आयोजन होते रहने चाहिएं और इनके बहाने दूर दराज से साहित्यकार मिल पाते हैं व विचार विमर्श कर पाते हैं। इसी प्रकार हरियाणा में कैथल साहित्य सभा भी वर्षों से सक्रिय है और हर वर्ष न केवल पुरस्कार प्रदान करती है बल्कि इस बहाने अनेक लेखकों की नयी पुस्तकों का लोकार्पण भी हो जाता है। डाॅ चंद्र त्रिखा ने भी अपने बेटे धीरज त्रिखा के नाम पर पत्रकारिता पुरस्कार शुरू कल रखा है जो सौभाग्य से सबसे पहले मेरी झोली में आया। सिरसा में भी साहित्यिक आयोजन होते रहते हैं और सबसे चर्चित आयोजन छत्रपति पुरस्कार का होता है जिसमें एक चर्चित पत्रकार को प्रदान किया जाता है और इसकी बड़ी प्रतिष्ठा बन चुकी है।

व्यंग्य यात्रा ने भी प्रतिवर्ष दिए जाने वाले रवींद्रनाथ त्यागी सम्मान शीर्ष और सोपान सम्मान 2020 तथा 2021 का अयोजन दिल्ली के हिंदी भवन में सितम्बर में किया। इसी दिन व्यंग्य यात्रा आलोचना एवं रचना पुरस्कार दिए गए।

 इन सब आयोजनों में एक सुझाव है कि पुस्तक प्रदर्शनियों अवश्य एक जरूरी हिस्सा बनाई जानी चाहिएं तभी साहित्य भी प्रचलित होगा।

28 नवम्बर 2021

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय 

अंधकार से प्रकाश की यात्रा मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। स्थूल के भीतर सूक्ष्म का प्रकाश है जो मनुष्य को यात्रा कराता है। यह यात्रा बाहर से भीतर की है। कभी-कभी कोई प्रसंग, कोई घटना अकस्मात एक लौ भीतर प्रज्ज्वलित कर देती है। यात्रा आरम्भ हो जाती है।

ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रचेता के पुत्र थे रत्नाकर। किंवदंती है कि बचपन में इनका अपहरण एक भीलनी ने कर लिया था। कालांतर में परिवेश के प्रभाव में वे रत्नाकर डाकू हो गए। रत्नाकर डाकू वन में आते- जाते व्यक्तियों को लूट लेने के लिए कुख्यात हो चला। एक बार देवर्षि नारद उस मार्ग से निकले। रत्नाकर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। देवर्षि ने पूछा, “यह पापकर्म क्यों करते हो?” उत्तर मिला, “अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए।” देवर्षि ने फिर प्रश्न किया, “तुम्हारे पाप में क्या तुम्हारे परिजन भागीदार होंगे?” ” निश्चित, उन्हीं के लिए तो करता हूँ।”….देवर्षि हँस पड़े। बोले,” चाहे तो मुझे बांध जाओ पर जाकर एक बार अपने परिजनों को पूछ तो लो, उनसे पुष्टि तो ले लो।” नादान रत्नाकर एक मोटी रस्सी से देवर्षि को बांधकर घर पहुँचा। सारा घटनाक्रम सुनाकर परिजनों से पूछा कि उसके पाप में वे सम्मिलित हैं या नहीं?” परिजन बोले, ” हम तुम्हारे पाप में भागीदार क्यों समझे जाएँगे? पाप तुम्हारा, दंड भी तुम्हारा ही।” बैरागी भाव लेकर रत्नाकर, देवर्षि के पास पहुँचा। पापों से मुक्त होने और अंधकार से प्रकाश की यात्रा का मार्ग जानना चाहा। मुनि ने कहा, “तपस्या करो। संभव है। सीधे राम राम तुमसे न जाय तो मरा-मरा से आरम्भ करो।” डाकू रत्नाकर पहला व्यक्ति हुआ जो मरा- मरा, से मराम-मराम होते-होते राम राम तक पहुँचा। प्रदीर्घ तपस्या में शरीर पर दीमकों ने बाँबी बना ली। रत्नाकर, उसी बाँबी में समाप्त हो गए और महर्षि वाल्मीकि ने जन्म लिया।

अज्ञान के तम की जानकारी प्रकाश की यात्रा में पहला चरण है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #98 ☆ -हिंदूधर्माचरण एक   संस्कारित  भारतीय जीवनशैली- ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 98 ☆ -हिंदूधर्माचरण एक   संस्कारित  भारतीय जीवनशैली- ☆

हमारा देश भारतवर्ष  पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप  के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत  के नाम से पहचाना जाता है। जिसका सीमा विस्तार काफी लंबा था आर्य जहां निवास करते थे ऋग्वेद के अनुसार उस जगह को सप्तसैंधव अर्थात् सात नदियों वाले स्थान के नाम चिंन्हित किया गया। ऋग्वेद नदी सूक्त ( 1075 ) के अनुसार जिस जगह आर्य निवास किए वहां सात नदियां बहती थी, जिसमें 1कुंभा(काबुल नदी) 2- क्रुगु (कुर्रम)3–गोमती(गोमल)4–सिंधु

5–परूष्णी(रावी)6–सुतुद्री(सतलज)7–वितस्ता(झेलम) के अलावा गंगा यमुना सरस्वती तक था इनके आस-पास सीमा क्षेत्र में आर्य रहते थे। लेकिन जल प्रलय के समय आर्यो ने खुद को त्रिविष्टप( तिब्बत) जैसे ऊंचे क्षेत्र में खुद को सुरक्षित कर लिया।जल प्रलय के बाद उन्होंने दक्षिणी एशिया तक अपने देश का सीमा विस्तार किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती इसी आधार पर आर्यों को तिब्बत का निवासी मानते हैं। ऋग्वेद काल में धरती का विस्तार से अध्ययन मिलता है उस समय आर्यो का एक समूह उन सात नदी क्षेत्रो तक फैला हुआ था , इतिहास कारों का मानना है कि वैदिक भारतीय जन समूह वहीं से घूमते हुए अन्य जगहों पर पहुंचा। तथा राजा प्रचेतस के जिनका वर्णन पांच पुराणों में आता है,वे प्रचेतस वंशजों के रूप में वे भारत के उत्तर पश्चिमी दिशाओं में फैल कर अपने राज्य स्थापित कर सीमा विस्तार किया। जानकारी स्रोत (बेव दुनिया डांट काम) से—

राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।  लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज  के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।

जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूट कर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को देता है  वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है  लेकिन हमारा समाज  सोडष  संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है जिसमें मुख्य रूप से  1–गर्भाधान संस्कार 2–पुंशवन संस्कार 3–सीमंतोन्नयन संस्कार 4–जातकर्म संस्कार 5–नामकरण संस्कार 6–निष्क्रमण संस्कार 7–अन्नप्राशन संस्कार 8–मुण्डन संस्कार 9–कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15–पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।

इनमें से हर संस्कार का‌ मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर  टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है , यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित सूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत  झांकी दिखाता है।

वहीं जड़भरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता  है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 109 ☆ जीवन का सार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीवन का सार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 109 ☆

☆ जीवन का सार ☆

धन, वैभव, सफलता व सार जीवन के मूलभूत उपादान हैं; इनकी जीवन में महत्ता है, आवश्यकता है, क्योंकि ये खुशियाँ प्रदान करते हैं; धन-वैभव व सुख-सुविधाएं प्रदान करते हैं तथा इन्हें पाकर हमारा जीवन उल्लसित हो जाता है। सफलता के जीवन में पदार्पण करते ही धन-सम्पदा की प्राप्ति स्वत: हो जाती है, परंतु प्रेम की शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है। प्रेम के साथ तो धन-वैभव व सफलता स्वयंमेव खिंचे चले आते हैं, जिससे मानव को सुख-शांति व सुक़ून प्राप्त होता है; जो अनमोल है। प्रेम जहां स्नेह व सौहार्द-प्रदाता है, वहीं हमारे संबंधों व दोस्ती को प्रगाढ़ता व मज़बूती प्रदान करता है। यदि मैं यह कहूं कि प्रेम जीवन का सार है; इसके बिना सृष्टि शून्य है और सृजन संभव नहीं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेम में त्याग है और वहां से स्वार्थ भाव नदारद रहता है। सो! जिस घर में प्रेम है; वहां जन्नत है, स्वर्ग है और जहां प्रेम नहीं है, वह घर मसान है, श्मशान है।

यदि हम आधुनिक संदर्भ में प्रेम को परिभाषित करें, तो यह अजनबीपन का प्रतीक है, क्योंकि जहां राग-द्वेष वहां प्यार व त्याग नहीं है, जो आजकल हर परिवार में व्याप्त है अर्थात् घर-घर की कहानी है। पति-पत्नी में बढ़ता अलगाव, बच्चों में पल्लवित होता एकाकीपन का भाव, रिश्तों में पनपती खटास हमारे अंतर्मन में आत्म-केंद्रिता के भाव को पोषित करती है। इस कारण तलाकों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है। बच्चे मोबाइल व टी•वी• में अपना समय व्यतीत करते हैं और ग़लत आदतों का शिकार हो जाते हैं। वे दलदल में फंस जाते हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। ऐसी स्थिति में माता-पिता व बच्चों में फ़ासले इस क़दर बढ़ जाते हैं, जिन्हें पाटना असंभव होता है और वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं पाते। शेष संबंधों को भी दीमक चाट जाती है, क्योंकि वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, करुणा व सहानुभुति का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता। आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं और बहुत से रिश्ते अपनी मौत मर रहे हैं, क्योंकि परिवार हम दो, हमारे दो तक सिमट कर रह गये हैं। जहां दादा- दादी व नाना-नानी आदि का स्थान नहीं होता।  मामा, चाचा, बुआ, मौसी आदि संबंध तो अब रहे ही नहीं। वैसे भी कोई रिश्ता पावन नहीं रहा, सब पर कालिख़ पुत रही है। जीवन में प्रेम भाव की अहमियत भी नहीं रही।

मुझे स्मरण हो रही है महात्मा बुद्ध की कथा, जिसमें वे मानव को जीवन की क्षण-भंगुरता व अनासक्ति भाव को स्वीकारने का संदेश देते हैं। आसक्ति वस्तु के प्रति हो या व्यक्ति के प्रति– दोनों मानव के लिए घातक हैं, जिसे वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं। यह शाश्वत् सत्य है कि मानव को अपने बेटे से सर्वाधिक प्यार होता है; भाई के बेटे से थोड़ा कम; परिचित पड़ोसी के बेटे से थोड़ा बहुत और अनजान व्यक्ति के बेटे से होता ही नहीं है। अपने बेटे के निधन पर मानव को असहनीय पीड़ा होती है, जो दूसरों की संतान के न रहने पर नहीं होती। इसका मूल कारण है आसक्ति भाव, जिसकी पुष्टि वे इस उदाहरण द्वारा करते हैं। एक बच्चा समुद्र के किनारे मिट्टी का घर बनाता है, जिसे लहरें पल भर में बहा कर ले जाती हैं और वह रोने लगता है। क्या मनुष्य उस स्थिति में आंसू बहाता है? नहीं–वह नहीं रोता, क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि वह घर लहरों के सम्मुख ठहर नहीं सकेगा। इसी प्रकार यह संसार भी नश्वर है, क्षणभंगुर है; जिसे पानी के बुलबुले के समान पल भर में नष्ट हो जाना है। सो! मानव को अनासक्ति भाव से जीना चाहिए, क्योंकि आसक्ति अर्थात् प्रेम व मोह ही दु:खों का मूल कारण है। मानव को जल में कमलवत् रहने की आदत बनानी चाहिए, क्योंकि संसार में स्थाई कुछ भी नहीं। सुख-दु:ख मेहमान हैं; आते-जाते रहते हैं तथा एक की उपस्थिति में दूसरा दस्तक देने का साहस नहीं जुटाता। इसलिए मानव को हर स्थिति में प्रसन्न रहना चाहिए।

सफलता का संबंध कर्म से होता है। सफल लोग निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। वे भी ग़लतियां करते हैं, लेकिन लक्ष्य के विरुद्ध प्रयास नहीं छोड़ते। कानारार्ड हिल्टन निरंतर परिश्रम करने की सीख देते हैं। संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सत्कर्म व शुद्ध पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। योग वशिष्ठ की यह उक्ति सत्कर्म व पुरुषार्थ की महत्ता प्रतिपादित करती है। भगवद्गीता में भी निष्काम कर्म का संदेश दिया गया है। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘अतीत में मत देखो, भविष्य का सपना मत देखो, वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो’– यही सर्वोत्तम माध्यम है सफलता प्राप्ति का, जिसके लिए सकारात्मक सोच महत्वपूर्ण योगदान देती है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ  का यह कथन उक्त तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘यदि आप इस प्रतीक्षा में है कि दूसरे लोग आकर आपकी मदद करेंगे आप सदैव प्रतीक्षा करते रह जाएंगे।’ सो! जीवन में प्रतीक्षा मत करो, समीक्षा करो। विषम परिस्थितियों में डटे रहो तथा निरंतर कर्मरत रहो, क्योंकि संघर्ष ही जीवन है। डार्विन ने भी द्वंद्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष को सृष्टि का मूल स्वीकारा है अर्थात् इससे तीसरी का जन्म होता है। संघर्षशील   मानव को उसके लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। यदि हम आगामी तूफ़ानों के प्रति पहले से सचेत रहते  हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं।

‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ है’–खलील ज़िब्रान जीवन में प्रेम की महत्ता दर्शाते हुए प्रेम रहित जीवन को ऐसे पेड़ की संज्ञा देते हैं, जो बिना फूल के होता है। किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान। प्रेम में अहं का स्थान नहीं है तथा जो कार्य-व्यवहार स्वयं को अच्छा ना लगे, वह दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है। यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। सो! अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ चाणक्य आत्मा की शुद्धता पर बल देते हैं, क्योंकि अहं का त्याग करने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर सुखी हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान व लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठर यहां दुष्ट- प्रवृत्तियों को त्यागने का संदेश देते हैं।

‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तों में/ अलग-अलग विचारों को एक होना पड़ता है।’ यह एकात्म्य भाव अहं त्याग करने के परिणामस्वरूप आता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘ऐ! मन सीख ले ख़ुद से बात करने का हुनर/ खत्म हो जाएंगे सारे दु:ख और द्वंद्व’ अर्थात् यदि मानव अआत्मावलोकन करना सीख ले, तो जीवन की सभी समस्याओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है ‘जहां दूसरों को समझना मुश्किल हो, वहां ख़ुद को समझना अधिक बेहतर होता है।’ इंसान की पहचान दो बातों से होती है–प्रथम उसका विचार, दूसरा उसका सब्र, जब उसके पास कुछ ना हो। दूसरा उसका रवैय्या, जब उसके पास सब कुछ हो। अंत में मैं इन शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी कि ‘मेरी औक़ात से ज़्यादा न देना मेरे मालिक, क्योंकि ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी भी मानव को अंधा बना देती है।’ सो! जीवन में सामंजस्यता की आवश्यकता होती है, जो समन्वय का प्रतिरूप है और दूसरों की सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान देने से प्राप्त होता है। वास्तव में यह है जीवन का सार है और जीने की सर्वोत्तम कला।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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