हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

निठल्ला चिंतन-

☆ संजय दृष्टि  ☆ मोक्ष

यात्रा पर हूँ। बृहद जीवनयात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की लघुकाय सहज यात्रा पर। जीवनयात्रा को बृहद कहा है क्योंकि जीवनयात्रा एक जन्म तक सीमित नहीं है। वह जन्म-जन्मांतर अबाध है। सृष्टि में आने-जाने, चोला बदल-बदल कर फिर-फिर आने की यात्रा है जीवनयात्रा। अधिकांश समय यात्रा पर ही रहते हैं मेरे जैसे जीव।

अपवादस्वरूप किंचित जन परिक्रमा से मुक्त होकर यात्रा के नियंता वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। घोष से मुक्त मोक्ष को, परित्राण से परे निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं।

जानता हूँ कि मोक्ष की योग्यता नहीं है मेरी। यदि कल्पना करूँ कि मोक्ष और यात्रा में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिले तो मैं यात्रा चुनूँगा।

कितना देती है हर यात्रा! लघुकाय यात्रा भी महाकाय यात्रा के दर्शन के किसी न किसी अंश को आत्मसात करने में सहायक होती है। कागज़ और कलम साथ हों तो हर यात्रा मुझे मोक्ष की प्रतीति कराती है।

आज फिर मोक्ष में हूँ!

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 10 बजे, 8.2.201

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 18 ☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा)

☆ किसलय की कलम से # 18 ☆

☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा☆

 

मानव जीवन में मुद्दे न हों तो श्रम, बुद्धि और क्रियाशीलता का महत्त्व ही कम हो जाएगा। इंसान इच्छा, उद्देश्य, मतलब या मुद्दे जैसे शब्दों को लेकर जिंदगी भर भागदौड़ करता रहता है, फिर भी उसकी जिजीविषा अधूरी ही रहती है। समाज में मानव अपनी मान-प्रतिष्ठा एवं समृद्धि हेतु अलग-अलग मार्ग चुनता है। नौकरी, उद्योग, धंधे, धर्म, राजनीति, सेवाओं के साथ ही विभिन्न नैतिक अथवा अनैतिक कारोबारों के माध्यम से भी अपनी उद्देश्यों की पूर्ति करता है। वैसे तो मुद्दों का सभी क्षेत्रों में महत्त्व है, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में कहा जाता है कि मुद्दों की नींव पर ही राजनीति का अस्तित्व निर्भर करता है। मुद्दों पर ही अक्सर सियासत गर्माती है। मुद्दतों से मुद्दों को लेकर बड़े-बड़े उथल-पुथल होते रहे हैं। धर्म स्थापना के मुद्दे पर ही ऐतिहासिक महाभारत युद्ध हुआ था। बदलते समय व परिवेश में ये मुद्दे भी लगातार बदलते गए। हमारे देखते ही देखते भारतीय राजनीति में अनेकानेक मुद्दे छाए और विलुप्त हुए हैं।

आजादी के पश्चात एक लंबे समय तक आजादी का श्रेय लेने वाली कांग्रेस पार्टी को आजादी के श्रेय का लाभ मिलता रहा। देश के दक्षिण में कुछ समय तक हिंदी थोपने का मुद्दा छाया रहा। नसबंदी, आपातकाल, गरीबी हटाओ, महँगाई जैसे सैकड़ों मुद्दे गिनाए जा सकते हैं, जिनकी आग में राष्ट्रीय, प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। बेचारी जनता है कि इनके छलावे, बहकावे और झूठे आश्वासनों के जाल में बार-बार फँसती चली आ रही है। जिस दल पर विश्वास किया जाता है, वही दल सत्ता प्राप्त कर अधिकांशतः अपने वायदे पूर्ण नहीं करता। जनहित के अनेकों कार्य पूरे ही नहीं होते।  हाँ, अब तक इतना जरूर हुआ है कि राजनीति करने वालों की अधिकांश जिजीविषाएँ जरूर पूर्ण होती रही हैं। इसका साक्ष्य यही है कि आज भी देश में अगर सबसे समृद्ध और मान-सम्मान वाला वर्ग बढ़ा है तो वह राजनेताओं का वर्ग है। आजकल तो बाकायदा शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के उपरांत राजनेता अपनी संतानों को अपने इसी पारंपरिक धंधे अर्थात राजनीति में उतारने लगे हैं। पिछले दो-तीन दशक से विभिन्न राजनीतिक मुद्दे हमारे सामने आए हैं। बेरोजगारी, राष्ट्र विकास, स्वच्छता, कालाबाजारी या नोटबंदी के नाम पर पार्टियाँ हारती और जीतती आ रही हैं, और यह सब इसलिए भी होता आया है कि पार्टियाँ जनता के दिलोदिमाग में स्वयं को सबसे बड़ा जनहितैषी सिद्ध करने में कामयाब हो जाती हैं। नेताओं की लच्छेदार बातों एवं वायदों में यदि 50% भी सत्यता होती तो आज हमारा देश जापान, अमेरिका और चीन के समकक्ष खड़ा होता।

तीन दशक से तो हर चुनावों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से श्रीराम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठते दिखा है। इस मुद्दे के विरोध को भी बहुत हवा दी गई। हर पार्टी के प्रत्याशियों को इसका लाभ भी मिला। मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता की आड़ में देश तक को दाव पर लगाने से कई नेता बाज नहीं आते। आज धारा 370, धारा 35ए, तीन तलाक आदि मुद्दों के चलते भारत कहीं एकजुट तो कहीं बँटा हुआ नजर आया। संसद में स्वीकृति के बाद भले ही कुछ लोगों अथवा कुछ पार्टियों को तिलमिलाहट हुई हो, लेकिन समय की नजाकत को देखते हुए अनेक विरोधी दल अथवा पार्टियाँ इन मुद्दों को फिर से उठाने से बच रही हैं। शायद यही सोच है जो इनको चुनावी अखाड़े में इन मुद्दों को आजमाने की इजाजत नहीं देती। स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा और लंबा चलने वाला मुद्दा अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण का रहा है। यह मुद्दा न ही केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में चर्चित हुआ। 6 दिसंबर 1992 से 5 अगस्त 2020  अर्थात श्रीराम मंदिर शिलान्यास तक लगभग 29 वर्ष चले इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मचा दी। कई सरकारें गिरीं या बर्खास्त कर दी गईं। संसद की सत्ता परिवर्तन तक इस मुद्दे का कारण बना। श्रीराम मंदिर मुद्दा से कई लोग शून्य से शिखर पर पहुँच गए, कई सेलिब्रिटी बन गए तो कई खलनायक भी बने। अब जब हिंदुओं के आराध्य श्रीराम मंदिर का निर्माण प्रारंभ हो ही गया है, तब हिंदुओं पर पुनः इस मुद्दे को आजमाने का कोई औचित्य ही नहीं बचा। यदि कृतज्ञता-वोट की भी बात की जाए तो भारतीय जनता पिछले 30 वर्ष से अपने मताधिकार द्वारा कृतज्ञता ज्ञापित कर चुकी है। इसलिए अब इन पार्टियों को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि जनता उन्हें पुनः कृतज्ञता के नाम पर वोट देगी। वैसे भी नोटबंदी के बाद महँगाई व कोविड-19 के चलते जनता पहले से ही परेशान है और सच कहा जाए तो जनता अब प्रायोगिक होती जा रही है। राम मंदिर का चुनावी हिसाब-किताब चुकता होने के बाद अब जनता देश में उद्योग, नौकरियाँ और राष्ट्रीय विकास होते देखना चाहती है, जिन पर स्पष्ट, सुदृढ़ और सकारात्मक क्रियान्वयन की भी आवश्यकता है।

इसीलिए अब इतना तो तय है कि भारतीय राजनीति के लिए आने वाले समय में चुनावी मुद्दों का टोटा होगा। हिन्दु विरोधी दलों की बातें उनके ही मतदाता अब सुनने वाले नहीं हैं और न ही अब कृतज्ञता के नाम पर हिन्दु मतदाता वोट देने वाले हैं। कृतज्ञता या विरोध से क्या भला आम जनता का पेट भरेगा? वर्तमान में अब देश के प्रमुख, छोटे या क्षेत्रीय दल सबको एक पारदर्शी सोच, सद्भावना, जनहित और राष्ट्रीय विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के साथ ईमानदार, कर्मठ और सक्रिय प्रत्याशियों को लेकर चुनावी अखाड़े में उतरना होगा। पुराने अथवा बूढ़े पहलवानों को जिताने के बजाय ऊर्जावान एवं ईमानदार नव युवकों को अवसर दिया जाना चाहिए।

हमारा देश अब अविकसित अवस्था में नहीं है। शिक्षा, जागरूकता, उद्योग, तकनीकि, सैन्य, अंतरिक्ष जैसे विभिन्न क्षेत्रों में बहुत आगे निकल चुका है। लोगों की सोच भी बदली है। अब लोग चार-पाँच दशक पुरानी मानसिकता वाले नहीं 21वीं सदी के प्रायोगिक बन गए हैं। निश्चित रूप से अब आम मतदाताओं को भी अगले चुनाव में बरगलाना टेढ़ी खीर होगा। आज राष्ट्र की स्थिति और राष्ट्र का माहौल बदलता प्रतीत होने लगा है। इसलिए राजनेताओं की कार्यशैली तथा समर्पण भाव में और सुधार की अपेक्षा जनता कर रही है।

आज की परिस्थितियों और जनता की रुचि का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो विश्लेषक भी पाएँगे कि राजनीतिक दलों हेतु निश्चित रूप से अब चुनावी मुद्दों का टोटा पड़ने वाला है। इन परिस्थितियों में सत्ता की उम्मीद अथवा विश्वास रखने वाले दलों को चाहिए कि वे अब अत्यन्त सावधानी और दूरदर्शिता के साथ ऐसे चुनावी मुद्दों का चयन करें, जो उनकी मान-प्रतिष्ठा तो बढ़ाएँ ही, राष्ट्र तथा जनमानस को भी समृद्धि व विकास के मार्ग पर आगे ले जा सकें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ सेहत, सुख ,सुकून और खुशहाली का महात्मा गांधी मार्ग ☆ श्री शिखर चन्द जैन

श्री शिखर चन्द जैन

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं।  आज प्रस्तुत है श्री शिखर चन्द जैन जी की एक प्रस्तुति  “सेहत, सुख ,सुकून और खुशहाली का महात्मा गांधी मार्ग”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ सेहत, सुख ,सुकून और खुशहाली का महात्मा गांधी मार्ग ☆

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुआयामी व्यक्तित्व, सादगी पूर्ण रहन-सहन और उच्च व सुलझे हुए विचारों ने ही उन्हें भारतीय जनमानस का सच्चा नायक बना दिया ।उनकी जीवनशैली व विचारों को ऑब्जर्व करके व उन्हें अपनाकर जीवन को सुखमय,सुकूनपरक,स्वस्थ और खुशहाल बनाया जा सकता है ।उनकी जीवनशैली और समय-समय पर कही गई बातों को देखें तो हमें ये सीख मिलती है—-

मिनिमलिस्ट बनें—–आप कभी दिल्ली स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में जाएंगे तो महात्मा गांधी की जिंदगी भर की भौतिक संपत्ति के रूप में एक सूटकेस देखेंगे जिसमें उनकी निजी जरूरत की कुछ चीजें मिलेंगी ।ऐसा नहीं है कि वे चाहते तो ज्यादा चीजें हासिल नहीं कर सकते थे या इकट्ठा नहीं कर सकते थे लेकिन वे जरूरत से ज्यादा चीजें इकट्ठा करने या उनका इस्तेमाल करने के सख्त खिलाफ थे ।गांधीजी अपरिग्रह के सिद्धांत पर चलते थे ।आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि आज की तारीख में चिंता ,अवसाद और अशांति की सबसे बड़ी वजह है ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुखों को हासिल करने की अंधी दौड़ ।विज्ञापन जगत और कारपोरेट दुनिया ने लोगों पर अपना प्रोडक्ट थोपने के लिए उनकी जरूरतों को बढ़ा दिया है ।अगर हम अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को समझ जाएं और अनावश्यक चीजों हासिल करने की जिद छोड़ दें तो हमारी आधी चिंताएं और बेचैनियाँ तो यूं ही दूर हो जाएंगी।

खानपान का संतुलन और वाकिंग जरूरी —- महात्मा गांधी संतुलित और पूरी तरह प्राकृतिक व शाकाहारी भोजन के पैरोकार थे। अपनी 79 साल की उम्र में उन्होंने 29 बार में कुल 154 दिन अनशन किया। 1921 में उन्होंने व्रत लिया की आजादी मिलने तक हर सोमवार उपवास करूंगा। यानी कुल 1341 दिनों तक उन्होंने उपवास किया ।गांधीजी अपनी डाइट को लेकर तरह-तरह के प्रयोग करते थे ।यही उनकी फिटनेस का राज था। यंग इंडिया और हरिजन समाचार पत्र में उन्होंने अपने प्रयोगों के बारे में भी लिखा है। वह हमेशा साधारण भोजन करते थे ।उनका कहना था कि भोजन सिर्फ भूख शांत करने का साधन नहीं बल्कि मानव चेतना को आकार देने वाला आवश्यक घटक है। उन्होंने शाकाहार के नैतिक आधार पर जोर दिया और स्वास्थ्य के लिए फलों व जड़ी बूटियों का सेवन करने की सलाह दी ।ब्राउन राइस, दाल और स्थानीय सब्जियां उनका पसंदीदा आहार थी। वे बकरी के दूध का सेवन करते थे ।रिफाइंड चीनी की बजाय में गुड़ खाना पसंद करते थे ।चोकर सहित अनाज की रोटी, बाजरा आदि उनके फेवरेट थे।से अपने जीवन में 40 साल तक वे रोजाना 22000 कदम पैदल चले ।संभवत यही उनके माइंड और बॉडी की फिटनेस का राज था ।”इंडियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च” में प्रकाशित रिपोर्ट में गांधीजी को सेल्फ मोटिवेटेड वैलनेस गुरु बताया गया है ।

जरा आहिस्ते जीना सीखें —- आज जिसे देखिये वही अनावश्यक हड़बड़ी में है ।इसके कारण ही ज्यदातर लोग बेचैन और परेशान हैं। महात्मा गांधी कहते थे कि जीवन में स्पीड के अलावा भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण है ।वे कहते थे कि बाहर की ओर दौड़ लगाने से ज्यादा जरूरी है अपने अंदर की यात्रा। जब तक हम अपने अंतर्मन को नहीं समझेंगे तब तक अपनी पूरी क्षमता के साथ कोई काम नहीं कर पाएंगे। उनके इस जीवन मंत्र में सफलता का सबसे बड़ा सूत्र छिपा हुआ है ।क्योंकि किसी भी कार्य में सफलता के लिए उसे पूरे मन से धैर्यपूर्वक एवं पूरी क्षमता से करना जरूरी है। सक्सेस गुरु और मोटिवेशनल स्पीकर भी हड़बड़ी के काम में गड़बड़ी के प्रति सचेत करते रहे हैं।

दुनिया से पहले खुद को बदलें—- आपने गौर किया होगा कि वर्तमान दौर में हमारी बेचैनी और नाराजगी की सबसे बड़ी वजह है दुनिया से शिकायत। हमें इस बात से चिढ हो जाती है कि लोगों का व्यवहार और आचरण हमारे अनुकूल नहीं ।ऐसे में महात्मा गांधी का यह कथन बहुत उपयोगी और सार्थक है कि आप दुनिया में जो बदलाव लाना चाहते हैं वह सबसे पहले खुद में लाएं ।अगर हम बदल जाएंगे तो दुनिया अपने आप बदल जाएगी ।अगर हम इस कथन को आत्मसात कर ले तो लोगों के प्रति हमारी शिकायत खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी ।

हिंसा के पथ से दूर रहें — महात्मा गांधी ने कहा था कि “आंख के बदले आंख” के सिद्धांत पर चले तो एक दिन यह दुनिया अंधी हो जाएगी ।उन्हें हिंसा से सख्त से सख्त नफरत थी। अहिंसा और सत्य पर उन्होंने जीवन भर लोगों को सीख दी ।गांधीजी कहते थे कि धार्मिक ,सांस्कृतिक व राजनीतिक विचारों में अंतर हो सकते हैं लेकिन इसे हिंसा का आधार बनाना बिल्कुल गलत है ।हमें वैचारिक भिन्नता का सम्मान करना चाहिए ।आज के युग में जब हर कोई धार्मिक ,सांस्कृतिक या राजनीतिक मतभेद के कारण एक-दूसरे के खून का प्यासा हो रहा है ऐसे में दुनिया को सुकून और चैन के लिए अहिंसा के पथ पर चलना जरूरी है।।।

© श्री शिखर चंद जैन

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-20- मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ…. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 20 – मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ ….☆ 

आगाखां महल से छूटकर गांधीजी पर्णकुटी मैं आकर ठहरे ।

उनकी चप्पलें कई दिन पहले ही टूट थीं। मनु ने वे टूटी चप्पलें उनसे बिना पूछे मरम्मत करने के लिए मोची को दे दीं । चप्पलें देकर लौटी तो देखा कि गांधीजी अपनी चप्पलें ढूंढ़ रहे हैं । मनु को देखकर उन्होंने पूछा “तूने मेरी चप्पलें कहां रख दी हैं?”

मनु ने कहा, “बापूजी, वे तो मैं मरम्मत के लिए मोची को दे आई हूं ।” मनु ने जवाब दिया, “आठ आने मजदूरी ठहराई है, बापूजी ।”

गांधीजी बोले,” लेकिन तू तो एक कौड़ी भी नहीं कमाती और न मैं कमाता हूं । तब मजदूरी के आठ आने कौन देगा?”

मनु सोच में पड़ गयी । आखिर मोची से चप्पलें वापस लाने का निर्णय उसे करना पड़ा । लेकिन उस बेचारे को तो सवेरे-सवेरे यही मजदूरी मिली थी. इसीलिए वह  बोला, “सवेरे के समय मेरी यह पहली-पहली बोहनी है, चप्पलें तो मैं अब वापस नहीं दूंगा ।”

मनु ने लाचार होकर उससे कहा, “ये चप्पलें महात्मा गांधी की हैं. तुम इन्हें लौटा दो भाई ।”

यह सुनकर मोची गर्व से भर उठा , बोला, “तब तो मैं बड़ा भाग्यवान हूं. ऐसा मौका मुझे बार-बार थोड़े ही मिलने वाला है । मैं बिना मजदूरी लिये ही बना दूंगा, लेकिन चप्पलें लौटाऊंगा नहीं ।”

काफी वाद-विवाद के बाद मनु चप्पलें और मोची दोनों को लेकर गांधीजी के पास पहुंची और उन्हें सारी कहानी सुनाई ।

गांधीजी ने मोची से कहा, ” तुम्हें तुम्हारा भाग ही तो चाहिए न? तुम मेरे गुरु बनो, मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ। मुझे सिखाओ कि चप्पलों की मरम्मत कैसे की जाती है?”

और गांधीजी सचमुच उस मैले-कुचैले मोची को गुरु बना कर चप्पल सीने की कला सीखने लगे । वे अपने मिलने वालों से बातें भी करते जाते थे और सीखते भी जाते थे । गुरु-चेले का यह दृश्य देखकर मुलाकाती चकित रह गये । उन्होंने जानना चाहा कि बात क्या है?

गांधीजी बोले,”यह लड़की मुझसे बिना पूछे मेरी चप्पलें मरम्मत करने दे आई थी , इसलिए इसको मुझे सबक सिखाना है और इस मोची को इसका भाग चाहिए, इसलिए मैंने इसे अपना गुरु बना लिया है ।” फिर हंसते हुए उन्होंने कहा, “देखते हैं न आप महात्माओं का मजा!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 65 ☆ जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। काल की गेंदबाजी पर कर्म के बल्ले से साँसों द्वारा खेला जा रहा क्रिकेट। अंपायर की भूमिका में समय सन्नद्ध है। दुर्घटना, अवसाद, निराशा, आत्महत्या फील्डिंग कर रहे हैं। मारकेश अपनी वक्र दृष्टि लिए विकेटकीपर की भूमिका में खड़ा है। बोल्ड, कैच, रन-आऊट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू….,  ज़रा-सी गलती हुई कि मर्त्यलोक का एक और विकेट गया। अकेला जीव सब तरफ से घिरा हुआ है जीवन के संग्राम में।

महाभारत में उतरना हरेक के बस में नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के फेर में अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह समय तय करेगा। तुम रन बटोरो, खतरे उठाओ-रिस्क लो, रन-रेट नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि मैच जीतो ही पर अंतिम गेंद तक जीत के जज़्बे से खेलते रहने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, ‘स्ट्रैटिजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, विकेटकीपर और क्षेत्ररक्षक तो तैयार हैं ही।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग-२ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख  काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–२”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–२ 

(दो‌ शब्द‌ लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष  की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता ‌रहेगा ।  – सूबेदार पाण्डेय )

पिछले अंक में इस शोधालेख में आपने काशी तथा गंगा  के पौराणिक कथाओं ‌मान्यताओं के आधार पर उसकी जीवन शैली पौराणिक महत्व तथा विभूतियों के बारे लेखक की राय जानी, अब क्रमशःअगले भाग में काशी के बारे जनश्रुति तथा लोक मानस में व्याप्त ऐतिहासिक महत्त्व का अध्ययन करेंगे, तथा अपनी अनमोल प्रतिक्रिया से अभिसिंचित करेंगे।  जी हां ये वही काशी है, जहां आज भी लोग विश्व के कोने-कोने से शिक्षा संस्कृति तथा अध्यात्म की गहराई को नजदीक से जानने समझने की कामना लेकर आते हैं। तथा अध्यात्मिक सांस्कृतिक जीवन शैली की गहराई में डूबकर यहीं के‌ होकर रह जाते है।

वर्तमान समय में काशी के उत्तरी छोर पर बसा सारनाथ बौद्ध महातीर्थ यात्रा परिपथ है, यहीं से बौद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन चला था, उसके उत्तर में जिले के अंतिम सीमा पर बसे कैथी ग्राम में गंगा गोमती के पावन संगम तट पर बसा  महाभारत कालीन मार्कण्डेय महादेव का ऐतिहासिक अतिप्राचीन मंदिर तथा तपस्थली है जिसके बारे में पौराणिक मान्यता है कि अपनी तपस्या के प्रताप से उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने आयु बल  की पुनर्समीक्षा कर नवजीवन प्रदान करने के लिए   देवताओं को बाध्य  कर दिया था।

काशी के दक्षिण में महामना की ज्ञान बगिया भारतीय हिंदू युनिवर्सिटी है।

काशी के पूर्वी छोर पर गंगा के उस पार राजा बनारस का रामनगर का किला है, जहां आज भी राजसी आन बान शान के साथ एक माह तक अनवरत चलने वाला रामलीला का सांस्कृतिक मंचन तथा आयोजन होता है जो काशी के इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर है। तथा सारे विश्व में राजपरिवार के मुखिया की पहचान भगवान शिव के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रुप में होती है। रामनगर किले के पास से बहने वाली गंगा अर्धचंद्राकार स्वरूप में बहती है जिसके जल में पड़ने वाले  द्वीप समूहों तथा  प्रकाश स्तंभों का झिलमिल प्रकाश  शिव के मस्तक पर चंद्रमा के होने का  मृगमरीचिका का भ्रम पैदा कर  देता है। वहीं पश्चिमी छोर पर पंचकोसी परिक्रमा पथ पर बसा महाभारत कालीन भगवान शिव का रामेश्वर महादेव स्वरूप काशी क्षेत्र को अभिनव गरिमा से भर देता है।

काशी में गंगा घाट पर उगते सूर्य के साथ सुबह बनारस, तथा  लखनवी  शामें अवध अपनी अद्भुत छवि के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है, सबेरे की‌ गंगा घाट की सुर साधना तथा सायंकालीन गंगा आरती काशी के आध्यात्मिक सौंदर्य को नवीन आभा मंडल प्रदान करती है। यह काशी के आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव ही है, जो लोगों को बार बार काशी भ्रमण के लिए प्रेरित करता है।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास में काशी वासियों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यहां के निवासियों का “अतिथि देवो भव” का सेवाभाव भक्ति साधनायुक्त जीवन-शैली से ओत-प्रोत फक्कडपन भरा खांटी देशी अंदाज की जीवन शैली लोगों के जीवन काल का अंग बन गई है। यहां रहनेवाला हर समुदाय तथा संप्रदाय का व्यक्ति उत्सवधर्मी है। यहां साल के तीसों दिन बारहों महीने कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। जो काशी वासियों के हृदय में उमंग उत्साह का सृजन तो करता ही है, यात्रीसमूहों को आकर्षित भी करता है।तभी तो काशी की महिमा से आश्वस्त कबीर कहते हैं –  जौ काशी तन तजें कबीरा,रामै कौन निहोरा रे।

अर्थात् काशी में महाप्रयाण  करने पर तो मोक्ष अवश्यंभावी है, इसमें राम का कैसा एहसान है, और अंतिम समय में अपने सत्कर्मो के परीक्षण के लिए मगहर चले जाते हैं। अनेक लोक कहावतें भी काशी को महिमा मंडित करती हैं, तथा उसकी महत्ता दर्शाती है, लोक मानस में ये उक्ति प्रचलित है ———–

चना चबेना गंगजल, जौ पुरवै करतार।
काशी न कहूं छोडिये, विश्वनाथ दरबार।।

ये कहावत काशी वासियों के हृदय का उद्गगार है। जिसमें आत्मसंतुष्टि से ओत-प्रोत जीवन की अलग ही छटा दीखती है। जिस काशी की महिमा पुराणों तथा लोक मानस ने गाई है, उस काशी के बारे में यह भी किंवदंती है कि इसी काशी में बाबा विश्वनाथ ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा स्वरूप वरदान मांगा था कि यहां भूखा भले ही कोई उठे, पर सायंकाल कोई भी व्यक्ति भूखा न सोये।  काशी में मां गंगा तथा मां अन्नपूर्णा पेट भरने के लिए भोजन तथा पीने के लिए पवित्र गंगा जल हमेशा उपलब्ध कराती हैं। इस क्षेत्र में मां अन्नपूर्णा की कृपा सदैव बरसती है। यहां रहनेवाला कोई भी जीव चाहे पशु-पक्षी ही क्यों न हो, वह मां अन्नपूर्णा के आंचल की छांव तले सुखी शांत जीवन यापन करता है। यहां का धर्मप्राण चेतना युक्त जनसमूह पशुओं पंछियों बीमारों अपाहिजो सबका ध्यान रखता है। नर सेवा नारायण सेवा के कथन में विश्वास रखता है, बाबा विश्वनाथ को अवढरदानी भी कहते हैं। वह अपना सब कुछ लुटा कर लोगों का दुख हरते हैं।  इसी विश्वास और भरोसे पर तो  रामबनवास के समय अयोध्या में महाराज दशरथ का आकुल व्याकुल आर्तमन पुकार उठता है।

चौपाई  –

सुमिरि महेशहि कहहि निहोरी,आरति हरहुं सदाशिव मोरी।
आशुतोष तुम अवढरदानी, आरति हरहुं दीन जन जानी।।

(रा०च०मा०अयोध्या का०४४)

यही कारण है कि काशी में  विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा,  मां गंगा तथा  काशी कोतवाल भैरवनाथ प्रात: स्मरणीय तथा पूजनीय है। जिनके स्मरण मात्र से जीव स्थूल शरीर त्याग स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। इसी भरोसे तथा विश्वास के पुष्टि में कबीर लिख देते हैं———

हेरत हेरत हे सखी ,रहा कबीर हेराइ।
बूंद समानी समझ में अरु किछु कहा न जाइ।।

संभवतः यही कारण बना होगा इस कहावत  के पीछे कि – काशी तीन लोक से न्यारी।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 65 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 65 ☆

☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… अहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’…अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा- स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर, सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग- दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर, नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को  रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 17 ☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य)

☆ किसलय की कलम से # 17 ☆

☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆

अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बने।  विश्व के समस्त धर्मों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है। किसी अन्य धर्म की आलोचना करना अथवा किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा। लोग अपने-अपने धर्मानुसार जीवन यापन व धर्मसम्मत पूजा,भक्ति, प्रार्थना और ध्यान कर आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं। विश्व के अलग-अलग देशों में किसी न किसी धर्म की बहुतायत होती ही है। उस देश के लोग वर्ष भर अपने धर्मानुसार पर्व, उत्सव, जन्मदिवस, मोक्ष दिवस आदि मनाते हुए सामाजिक जीवन खुशी-खुशी जीते हैं। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उस देश के अन्य धर्मावलंबी अपना जीवन अपने अनुसार नहीं जीते। अन्य धर्मों के कार्यक्रम अथवा पर्वों में जनाधिक्य का अभाव व यदा-कदा असहजता प्रकट होना अलग बात है, लेकिन विश्व के अधिकांश देशों में किसी को भी अपने धर्म सम्मत जीवन यापन करने की कोई रोक-टोक नहीं है। हर देश में वहाँ की परिस्थितियों, मान्यताओं, ग्रंथों एवं संस्कृति का महत्त्व होता है। प्राचीन प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुरूप धर्म का अनुकरण भी उस धर्म के अनुयायी करते हैं। पूरे विश्व में परम्परायें एवं परिस्थितियाँ समय, दूरी व मान्यताओं के चलते भिन्न भिन्न होती हैं।

अलग-अलग धर्मों के मतानुसार एक ही बात, एक ही वस्तु या एक ही कार्य पवित्र-अपवित्र अथवा उचित-अनुचित भी हो सकते हैं। आशय यह है कि हमारे लिए जो बातें सही हैं वे अन्य धर्म के लिए असंगत भी हो सकती हैं। यही बात उनके लिए भी लागू होती है परन्तु ऐसा नहीं है कि सर्वत्र मानवता, हिंसा, बुराई, अच्छाई, अथवा घृणा के भी अलग अलग मायने हैं।

विश्व के किसी भी देश का एक सच्चा इंसान ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास रखता है। अधिकांश महापुरुषों, धर्मगुरुओं एवं विशिष्ट लोगों के विचार भी किसी अन्य धर्म की आलोचना को अनुमति नहीं देते। हर देश में 5 से 10% लोग धर्मों के बँटवारे व धर्म की राजनीति करने वाले पाए ही जाते हैं। ये वही विघ्नसंतोषी लोग हैं, जो अपने स्वार्थ अथवा थोड़ी प्रसिद्धि हेतु अपने प्रभाव व समर्थकों के साथ अन्य धर्मों के विरुद्ध विष वमन करते हैं। कुछ दिग्भ्रम व अवसरवादी लोग भी इनसे जुड़कर सद्भाव के वातावरण को दूषित करते हैं। अनेक धर्मावलंबियों से लम्बी वार्ताएँ, अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि 5 से 10 प्रतिशत लोगों को छोड़कर शेष सभी धर्मावलंबी आपसी सद्भाव और शांति के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।

समाज में सभी प्रेम-भाईचारे के साथ खुश रहते हैं। इन विघ्न संतोषियों के उन्माद के कारण फिजा में जरूर अल्प समय के लिए जहर घुल जाता है, लेकिन अब तक भुगत चुका आदमी इनके बहकावे में नहीं आता। वैसे भी अपवाद तो हर जगह, हर काल में रहे हैं। कभी कभी जरा सी चूक या नासमझी से ही ऐसी कुछ असहज परिस्थितियाँ कुछ दिनों के लिए निर्मित होती हैं लेकिन पुनः सामान्य स्थिति बहाल हो जाती है। कुल मिलाकर विश्व में चार-छह दशक पूर्व वाली धर्म विरोधी परिस्थितियाँ उत्पन्न होना अब नामुमकिन है।

धर्मों के प्रति घृणा और कम-ज्यादा महत्त्व की बातें अब ज्यादा दिखाई व सुनाई नहीं देती, लेकिन पिछले कुछ दशकों से एक ऐसे वर्ग में निरंतर वृद्धि हो रही है जो हिंदू धर्म का माखौल उड़ाने से पीछे नहीं हटता। लोक-परलोक, पाप-पुण्य और आस्थाभाव से परे ये लोग लगातार अपने कुकृत्यों और कुतर्कों से हिंदू धर्म की मर्यादा को कलंकित करने पर तुले हुए हैं।

माना कि हर आदमी गलत नहीं होता परन्तु हर वर्ग में कुछ ऐसे अप्रिय लोग जरूर पाए जाते हैं। चित्रकारों एवं कार्टूनिस्टों में ऐसे बहुत से लोग पाए जाते हैं जो अपनी तूलिका से हिन्दु देवी-देवताओं के अमर्यादित व अभद्र चित्रों को उकेरकर हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करते रहते हैं। कुछ कलाकारों द्वारा विभिन्न पर्वों पर दुर्गा, गणेश, होलिका की मूर्तियों सहित विभिन्न झाँकियों में भी धार्मिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर धर्मविरुद्ध मूर्तियाँ एवं आकृतियाँ दर्शन हेतु तैयार करते हैं, जबकि धर्म के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ अथवा असंगत दखल कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। समाज के प्रबुद्ध जनों को ऐसे अनुचित कृत्यों पर हस्तक्षेप हेतु आगे आना चाहिए। माना ऐसे चित्रों से सामान्य लोगों में कौतूहल उत्पन्न तो होता है लेकिन ऐसी कुछ परिपाटियाँ भी जन्म लेती हैं जो धर्मपरायण नहीं हैं।

वर्ष भर हिन्दुओं के धार्मिक पर्वों के चलते प्रमुख रूप से दशहरा एवं गणेश उत्सव के संदर्भ में देखा गया है कि ये दोनों पर्व दस-ग्यारह दिन लगातार चलते हैं। अखबारों में इन्हीं देवी-देवताओं के सुसज्जित चित्रों का प्रकाशन होता है। खास तौर पर अनंत चतुर्दशी, दुर्गाष्टमी नवमी एवं विजयादशमी पर प्रतिदिन खाद्य पदार्थों को पैक करने में, बिछाकर बैठने के अतिरिक्त सामान्य जनता अन्य तरह से उपयोग कर इन्हीं अखबारों के पन्नों को रास्ते में ही फेंक देते हैं और लोग अधिकतर इन्हें पैरों तले कुचलते रहते हैं। इस पर भी सामग्री विक्रेताओं व उपयोगकर्ताओं को ध्यान देना होगा। लोग अखबारों के इन सचित्र परिशिष्टों को अलग कर अपने पास रख सकते हैं अथवा पवित्र जगहों पर विसर्जित भी कर सकते हैं।

इसके बाद देखा गया है कि कुछ कट्टरपंथी अपने प्रवचनों और धार्मिक आयोजनों में अन्य धर्मों की आलोचना कर श्रोताओं को दिग्भ्रमित करते हैं। साहित्य क्षेत्र के कुछ लोग भी विकृत मानसिकता को अपनी लेखनी के माध्यम उजागर करते हैं। उनके गद्य-पद्यों में किसी न किसी रूप से हिन्दु धर्म पर बुरी नीयत से कटाक्ष और व्यंग्य कसे जाते हैं। इसी वर्ग का दूसरा हिस्सा मंचीय कवियों तथा हास्य कलाकारों का होता है। आजकल अधिकांश कवि सम्मेलन स्वस्थ मनोरंजन और प्रेरक काव्य के स्थान पर ओछे व्यंग्यों, चुटकुलों एवं हास्य की बातों के मंच बन गए हैं। इन मंचों से कविता की चार पंक्तियाँ सुनने के लिए कान तरस जाते हैं। चार पंक्तियों के लिए आपको कम से कम बीस-तीस मिनट तक इनके फूहड़ चुटकुले अथवा बकवास झेलना पड़ती है। इन सब में सबसे गंभीर और विकृत परिस्थितियाँ यही तथाकथित हास्य कवि तथा हास्य कलाकार निर्मित करते हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य यही रहता है कि फूहड़ और ओछी बातों से जनता का मनोरंजन किया जा सके। ये हमारे ही धर्म के असभ्य लोग हैं जो अपने ही देवी-देवताओं को लेकर ऐसी बातें करते हैं, जिससे हर सच्चे हिन्दु की आत्मा आहत हो जाती है। भला ये कैसे हिन्दु हैं जो चार पैसों और अपनी अल्प प्रसिद्धि के लिए अपने ही धर्म की मान-मर्यादा को भी दाँव पर लगाते हैं। देश के विभिन्न मंचों, टी.वी. सीरियलों एवं अपने यूट्यूब चैनलों, अपनी वेबसाइट्स, अपने एल्बमों द्वारा हिन्दुधर्म और इसमें समाहित आस्था की धज्जियाँ उड़ाते हैं। हिन्दु कलाकारों को जब अपने ही धर्म की खिल्ली उड़ाने में डर नहीं लगता तब देश के दूसरे धर्मावलम्बी कलाकारों को डर क्यों लगने लगा। हिन्दु धर्मावलंबियों के अतिरिक्त ऐसी सहिष्णुता अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती। वैसे भी अन्य धर्मों में सख्ती के चलते ये सब सम्भव ही नहीं है। मंच, ऑडियो, वीडियो और उनकी पुस्तकों में लिखित साक्ष्यों एवं हिन्दुधर्म को अपमानित करने पर बहुत कम लोगों ही दण्डित हुए होंगे। हिन्दुधर्म पर अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बनना आवश्यक होता जा रहा है। जनहित याचिकाएँ एवं यदा-कदा न्यायालय के संज्ञान में आने पर भी स्वमेव कार्यवाही होते देखी गई हैं। क्या ऐसे ही किसी तरह से इन गतिविधियों पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। इन कृत्यों पर देश के तथाकथित कर्णधारों, धार्मिक संगठनों और जन सामान्य द्वारा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। आखिर ऐसी जागरूकता एवं समझदारी लोगों में कब आएगी। गहन चिंतन करने पर यह पता चलता है कि अन्य धर्मों की अपेक्षा हिन्दुधर्म के देवी-देवताओं और ग्रंथों में लिखे गए विषयों और प्रसंगों पर कुछ ज्यादा ही कुतर्क किए जाते हैं लेकिन यह बात भी दृढ़ता से कही जा सकता है कि हिन्दुधर्म व हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के सतही अध्ययन व अपूर्ण उद्देश्यप्रधान जानकारी के अभाव में ही ये सब अल्पज्ञ लोग घटिया तर्कों का सहारा लेकर हमारे धर्म पर कीचड़ उछलते हैं।

हम सभी जानते हैं कि हर चीज व हर बातें समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। तुलसीदास जी, बाल्मीकि जी, वेदव्यास जी सहित ऐसे अनेक प्रकांड हिन्दु विद्वानों द्वारा ग्रंथों में लिखी गईं एक एक बात तात्कालिक दृष्टि से शत प्रतिशत सही है। आज भी कुछ ऐसे लोग व जातियाँ हैं, जिनके पूर्वज स्वयं उन्हीं नामों से स्वयं का परिचय देते थे परंतु आज उन्हीं शब्दों के संबोधन असंगत या बुरे लगते हैं। तब उन बातों को हम उसी समय के लिए ही छोड़ देना श्रेयस्कर क्यों नहीं मानते। क्या विरोध करने से ग्रंथों के भी शब्द बदल जाएँगे। क्या मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के नाम पुरानी पुस्तकों या अभिलेखों से हटा सकते हैं। नहीं न। फिर कुछ ऐसी ही सरल-सहज पढ़ी-लिखी गईं विगत धार्मिक और सामाजिक बातों की आड़ में विषवमन क्यों किया जाता है। इन पर अमर्यादित धार्मिक अभिव्यक्ति कतई न्याय संगत नहीं है। देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो हिन्दु होते हुए भी अपने ही धार्मिक ग्रंथों और देवी-देवताओं पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर कीचड़ उछालते रहते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि एक सीमा के बाद गलत अभिव्यक्ति भी आपराधिक कृत्य माना जा सकता है।

देवी देवताओं के नामों पर असंगत दुकानों, उपयोगी वस्तुओं, सेवाओं के साथ इनका नाम नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जूते, चप्पल, मांस-मदिरा के उत्पादों पर धार्मिक चित्रों के उपयोग पर प्रतिबंध होना चाहिए। धर्म, देवी-देवताओं, ग्रंथों आदि पर कटाक्ष तथा माखौल उड़ाने पर ऐसे लोगों की निंदा एवं बहिष्कार जैसे कदम उठाए जाना चाहिए।
हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति का यह एक बेहद संवेदनशील विषय है। इस पर हिंदुओं सहित हर धर्म के लोगों को भी सोचना होगा कि हम ऐसे कोई कार्य न करें, जिससे किसी भी धर्म की भावनाओं को ठेस पहुँचे। धर्म लोगों के जीवन का अभिन्न अंग होता है। धर्म पथ पर चलने के आचार एवं व्यवहार हमें विरासत में मिलते हैं। आस्था हमारे हृदय में बसी होती है। धर्म व धर्मावलंबी होने के अस्तित्व परस्पर पूरक होते हैं। इसलिए इनकी मान-मर्यादा एवं सम्मान को बनाए रखना हम सबका दायित्व है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।)

आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख  एवं ई-अभिव्यक्ति  का आह्वान एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें। 

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन इस संदर्भ की एक रचना पाठकों के लिए लाने जा रहे हैं, लेखकों से हमारा आव्हान है कि इस विषय पर कलम चला कर रचनाएँ भेजें, हम इस का प्रारम्भ करेंगे सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति” आयोजन में प्राप्त चुनी हुई रचनाओं से

☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें  ☆

कोरोना के परिदृश्य में स्पष्ट हो चुका है कि केवल सबके बचाव में ही स्वयं का बचाव संभव है. एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें हैं. जो देश इस कठिनाई के समय में भी विस्तार की नीति अपना रहे हैं, वहां की सरकारें जनता से छल कर रही हैं. दुनियां के लिये यह समय सामंजस्य और एकता के विस्तार का है.

हमारी युवा शक्ति ही देश की सबसे बड़ी ताकत है.बुद्धि और विद्वता के स्तर पर हमारे देश के युवाओ ने सारे विश्व में मुकाम स्थापित किया है. हमारे साफ्टवेयर इंजीनियर्स  के बगैर किसी अमेरिकन कंपनी का काम नही चलता. हमारी स्त्री शक्ति सशक्त हुई है. देश के युवाओ से यही कहना है कि  हम किसी से कम नही है और हमारे देश को विश्व में नम्बर वन बनाने की जबाबदारी हमारी पीढ़ी की ही है.हमें नीति शिक्षा की किताबो से चारित्रिक उत्थान के पाठ पढ़ने ही नही उसे अपने जीवन में उतारने की जरूरत है. मेरा विश्वास है कि भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्व शासन प्रणाली प्रमाणित होगी, इस समय जो कमियां भ्रष्टाचार, जातिगत आरक्षण, क्षेत्रीयता, भाषावाद, वोटो की खरीद फरोक्त को लेकर देश में दिख रही हैं उन्हें दूर करके हम विश्व नेतृत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् के प्राचीन भारतीय मंत्र को साकार कर दिखायेंगे. आज जब मानवीय मूल्य समाप्त होते जा रहे हैं, संभवतः रोबोट और मशीनी व्यवस्थायें ही देश से भ्रष्टाचार समाप्त कर सकती है, जैसा कंप्यूटरीकरण के विस्तार से रेल्वे या अन्य विभिन्न क्षेत्रो में हो भी रहा है.

सैक्स के बाद यदि दुनिया में कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय विषय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है.और सारे विश्व में भारतीय लोकतंत्र न केवल सबसे बड़ा है वरन सबसे  तटस्थ चुनावी प्रणाली के चलते विश्वसनीय भी है. चुनावी उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय  घोषित कर चुके हैं  वह हमसे छिपी नही है,  एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है,वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि  आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है. क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है ? मेरे तो परिवार जन तक मेरे इतने ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है,  राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादात में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में.  जबकि उन्हें पता था कि नेता जी आकर क्या बोलने वाले हैं. इसका अर्थ  यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं जिसे मेरे जैसे मूढ़ बुद्धि शायद समझ नही पा रहे. तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते, देश ही नही दुनिया भर में हमारे रामभरोसे की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. रामभरोसे वोटरे के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से करते रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करती हूं.पिछले अनुभवों में हर बार बेचारा रामभरोसे वोटर ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है रामभरोसे, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर रामभरोसे का सपना टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है, नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं,जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला रामभरोसे पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है.मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम अब तक यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छबिया होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में रामभरोसे के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद   कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल रामभरोसे के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि  नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं रामभरोसे के खर्चे पर, वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. संभवतः सर्वहारा को सर्व शक्तिमान बना सकने की ताकत रखने वाले लोकतंत्र की सफलता के लिये उसकी ये कमियां स्वीकार करनी जरूरी हैं.जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है, तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है.

भारतीय लोकतात्रिक प्रणाली की वैधानिक व्यवस्थायें अमेरिकन व इंगलैण्ड सहित दुनिया के विभिन्न संविधानो के अध्ययन के उपरांत भीमराव अम्बेडकर जैसे विद्वानो ने निर्धारित की थीं. भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार तो विजयी उम्मीदवारों में से सबसे बड़े दल के सांसद,अपना नेता चुनते हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिये राष्ट्रपति के सम्मुख अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करता है, अर्थात जनता अपने वोट से सीधे रूप से प्रधानमंत्री का चुनाव नही करती यद्यपि सत्ता की मूल शक्ति प्रधानमंत्री में ही सन्नहित होती है . जबकि अमेरिकन प्रणाली में राष्ट्रपति सत्ता की शक्ति का केंद्र होता है, और उसका सीधा चुनाव जनता अपने मत से करती है.

अब जन आकांक्षा केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस चाहती है . सरकार से हमें देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें  हैं . सरकार सबके हितो के लिये काम करे न कि पार्टी विशेष के, पर्दे के सामने या पीछे के नुमाइन्दो से सिफारिश पर, केवल उन लोगो के काम हो जिन के पास वह खास सिफारिश हो. जो उम्मीदें चुनावी भाषणो और रैलियो में जगाई गई हैं, वे बिना भ्रष्टाचार के मूर्त रूप लें .महिलाओ को सुरक्षा मिले, पुरुषो की बराबरी का अधिकार मिले. युवाओ को अच्छी शिक्षा तथा रोजगार मिले. आम आदमी को मंहगाई और भ्रष्टाचार से निजात मिले. अल्पसंख्यको को विश्वास मिले. देश का सर्वांगीण विकास हो सके.राष्ट्र कूटनीतिक रूप से, तकनीकी रूप से,सक्षम हो.  विकास के रथ पर सवार होकर हमारा देश दुनिया के सामने एक विकसित राष्ट्र के रूप में पहचान बनाये यह हर भारतीय की आकांक्षा है, और यही  सरकार की चुनौती है.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के चलते विकास के सारे मापदण्ड छिन्न भिन्न हैं  निश्चित ही सारी जबाबदारी केवल सरकार पर नही डाली जा सकती, हर नागरिक को भी इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभानी ही  होगी. सरकार विकास का वातावरण बना सकती है, सुविधायें जुटा सकती है, पर विकास तो तभी होगा जब प्रत्येक इकाई विकसित होगी, हर नागरिक सुशिक्षित बनेगा. जब देशप्रेम की भावना का अभ्युदय  हर बच्चे में होगा तो स्वहित के साथ साथ देशहित भी हर नागरिक के मन मस्तिष्क का मंथन करेगा. भ्रष्टाचार स्वयमेव नियंत्रित होता जायेगा और देश उत्तरोत्तर विकसित हो सकेगा. अतः नागरिको में सुसंस्कार विकसित करना भी नई सरकार के सम्मुख एक चुनौती है.

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-19- इसी का नाम है अंधा प्रेम …. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “इसी का नाम है अंधा प्रेम ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 19 – इसी का नाम है अंधा प्रेम ….☆ 

उन दिनों गांधीजी बिहार में काम कर रहे थे । अचानक वायसराय ने उन्हें बुला भेजा । अनुरोध किया कि वे हवाई जहाज से आयें । गांधीजी ने कहा, “जिस सवारी में करोड़ों गरीब लोग सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठूं?” उन्होंने रेल के तीसरे दर्जे से ही जाना तय किया । मनु बहन को बुलाकर बोले,” मेरे साथ सिर्फ तुझको चलना है । सामान भी कम-से-कम लेना और तीसरे दर्जे का एक छोटे-से-छोटा डिब्बा देख लेना ।” सामान तो मनु बहन ने कम-से-कम लिया, लेकिन जो डिब्बा चुना, वह दो भागों वाला था.

एक में सामान रखा और दूसरा गांधीजी के सोने-बैठने के लिए रहा । ऐसा करते समय मनु के मन में उनके आराम का विचार था । हर स्टेशन पर भीड़ होगी , फिर हरिजनों के लिए पैसा इकट्ठा करना होता है, रसोई का काम भी उसी में होगा तो वह घड़ी भर आराम नहीं कर सकेंगे । यही बातें उसने सोची पटना से गाड़ी सुबह साढ़े-नौ बजे रवाना हुई ।

गर्मी के दिन थे, उन दिनों गांधीजी दस बजे भोजन करते थे । भोजन की तैयारी करने के बाद मनु उनके पास आई, वे लिख रहे थे । उसे देखकर पूछा,”कहां थी?” मनु बोली,”उधर खाना तैयार कर रही थी ।

“गांधीजी ने कहा, जरा” खिड़की के बाहर तो देख ।” मनु ने बाहर झांका, कई लोग दरवाजा पकड़े लटक रहे हैं, वह सबकुछ समझ गई ।

गांधीजी ने उसे एक मीठी-सी झिड़की दी और पूछा,”इस दूसरे कमरे के लिए तूने कहा था?” मनु बोली,” जी हां, मेरा विचार था कि यदि इसी कमरे में सब काम करूंगी तो आपको कष्ट होगा ।

” गांधीजी ने कहा,”कितनी कमजोर दलील है । इसी का नाम है अंधा-प्रेम । यह तो तूने सिर्फ दूसरा कमरा मांगा, लेकिन अगर सैलून भी मांगती तो वह भी मिल जाता । मगर क्या वह तुझको शोभा देता? यह दूसरा कमरा मांगना भी सैलून मांगने के बराबर है ।” गांधीजी बोल रहे थे और मनु की आंखों से पानी बह रहा था ।

उन्होंने कहा, “अगर तू मेरी बात समझती है तो आंखों में यह पानी नहीं आना चाहिए । जा, सब सामान इस कमरे में ले आ । गाड़ी जब रुके तब स्टेशन मास्टर को बुलाना ।” मनु ने तुरंत वैसा ही किया. उसके मन में धुकड़-धुकड़ मच रही थी । न जाने अब गांधीजी क्या करेंगे! कहीं वे मेरी भूल के लिए उपवास न कर बैठे! यह सोचते-सोचते स्टेशन आ गया, स्टेशनमास्टर भी आये ।

गांधीजी ने उनसे कहा, “यह लड़की मेरी पोती है, शायद अभी मुझे समझी नहीं, इसीलिए दो कमरे छांट लिए । यह दोष इसका नहीं है, मेरा है । मेरी सीख में कुछ कमी है । अब हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है । जो लोग बाहर लटक रहे हैं, उनको उसमें बैठाइये, तभी मेरा दुख कम होगा ।” स्टेशन मास्टर ने बहुत समझाया, मिन्नतें की, पर वे टस-से-मस न हुए । अन्त में स्टेशन मास्टर बोले, मैं उनके लिए दूसरा डिब्बा लगवाये देता हूं ।

” गांधीजी ने कहा, हां, दूसरा डिब्बा तो लगवा ही दीजिये, मगर इसका भी उपयोग कीजिये । जिस चीज की जरूरत न हो उसका उपयोग करना हिंसा है । आप सुविधाओं का दुरुपयोग करवाना चाहते हैं । लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं । बेचारा स्टेशनमास्टर! शर्म से उसकी गर्दन गड़ गई । उसे गांधीजी का कहना मानना पड़ा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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