हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 91 ☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 91 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 43 ☆ कहानी और चुनौतियाँ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “कहानी और चुनौतियाँ ”.)

☆ किसलय की कलम से # 43 ☆

☆ कहानी और चुनौतियाँ  ☆

प्राचीन काल में जब मानव अपनी स्मृतियाँ एवं घटनायें भाषा लिपि के बिना स्थायी रूप से सँजो नहीं पाता था, तब मानव शिकार, विपदा आदि के संस्मरण अपने परिवार तथा परिचितों को सुनाया करता था। यही बातें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती रही हैं। कुछ आश्चर्यजनक, कुछ साहसिक एवं हृदयस्पर्शी प्रसंग परिचितों एवं बच्चों को भले लगते थे। हमारे दादा-दादी और नाना-नानी द्वारा सुनाये गये प्रसंग ही कहानी बने और यही कहानी का शुरुआती दौर माना गया।

किसी घटना, स्थान, वस्तु या व्यक्ति के किसी एक पहलू पर प्रकाश डालते हुए संक्षिप्त में उद्देश्यपूर्ण रोचक विवरण ही कहानी कहलाते हैं। कहानी में कम पात्र एवं सीमित विषय वस्तु होने पर भी कहानीकार यदि कहानी के उद्देश्य को रोचक ढंग से प्रस्तुत कर पाने में सफल होता है, तब कहानी निश्चित रूप से लोकप्रिय हो जाती है। आज भी दादा-दादी अथवा नाना-नानी की कहानियाँ बड़ी रुचि और चाव से इसीलिए सुनी जाती हैं कि उनमें उद्देश्यपूर्ण रुचिकर विषयवस्तु का समावेश तो रहता ही है, साथ ही साथ ये कहानियाँ ज्ञानवर्धक और शिक्षाप्रद भी होती हैं। तात्पर्य यह है कि कहानी ऐसी विधा है जो किसी अन्य सहारे की मोहताज नहीं हैं, वह स्वयं ही इतनी सशक्त अभिव्यक्ति है कि उसे ही आधार बनाकर साहित्य विशेषज्ञ उसका विस्तार उपन्यास, एकांकी, महाकाव्य अथवा चित्रपट-कथा आदि के रूप में करते हैं।

इन सबके बावजूद कहानी आशानुरूप विस्तार प्राप्त क्यों नहीं कर पाई? कहानी के पिछड़ने के अनेक कारण हैं। कुछ साहित्यकारों द्वारा अपनी सस्ती लोकप्रियता हेतु लगातार निम्नस्तरीय साहित्य रचना की प्रवृत्ति ने समाज के एक विशेष वर्ग को ही आकर्षित किया है। शेष वर्ग को यह साहित्य अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहा है। वहीं कर्णप्रिय संगीत, लय और आवाज ने पद्य को शिखर पर पहुँचा दिया है। दूरदर्शन, सिनेमा और अंतरजाल आधारित दृश्य साधन उपन्यासों , नाटकों, पटकथाओं को अमर बना रहे हैं । इस प्रकार की साहित्य रचना आधुनिक युग में अपार धन-दौलत की आय के स्रोत बन गये हैं। वैसे भी समाज में ऐश्वर्य प्रतिस्पर्धा के प्रत्येक स्तर में पैर फैलने के कारण समाज जातिगत आधारित न होकर अमीरी-गरीबी के तबके में बँटता जा रहा हैं। यही कारण है कि साहित्य से जुड़े लोग भी आज जनता की रुचि और अपनी व्यावसायिक प्रवृत्ति के कारण स्तरीय साहित्य सृजन को छोड़कर अश्लील व स्तरहीन साहित्य लिखने लगे हैं। यह बात अलग है कि इससे उनकी आमदनी और विलासिता के स्तर में गुणात्मक वृद्धि होती है, परन्तु ऐसे लोग समाज में अपना सकारात्मक योगदान दरकिनार कर अपनी स्वार्थसिद्धि में ही लिप्त रहते हैं। ऐसे ही अनेक कारण हैं, जिससे कहानी विधा एक तरह से पिछड़ी ही है, इसे वह धरातल नहीं मिल पाया है जहाँ इसकी गुणवत्ता में चार चाँद लग सकते थे।

मैं सोचता हूँ, कहानी ऐसी साहित्य विधा है जिसमें न ही काव्य जैसे छन्द-लय के बन्धन होते हैं और न ही किसी वृहद स्तर पर क्लिष्ट शब्दों, अविधा-व्यंजना-लक्षणा शब्द शक्तियों अथवा भाषा की गूढ़ता का प्रयोग की आवश्यकता होती। कहानी में कहानीकार घटना विशेष को अपनी तूलिका से किस अंदाज में प्रस्तुत करता है? उसके द्वारा चुनी गई विषय वस्तु समाज के कितनी नजदीक है। उसके द्वारा अपनाई गई भाषा की मिठास ही उसके द्वारा लिखी कहानी की लोकप्रियता का मानक बनता है। यही कारण है कि लगातार कहानी लेखन से आगे चलकर श्रेष्ठ कहानियों के लिखे जाने में कोई संदेह नहीं रहता।

आज आवश्यकता है कहानी लेखन में एक क्रांति की। आज आवश्यकता है साहित्यप्रेमियों का इस ओर ध्यान आकर्षित कराने की। अन्य साहित्य विधायें जिन कारणों से आगे बढ़ रही हैं, वैसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न करना आज के कहानीकारों का दृढ़संकल्प ही ‘कहानी’ को आगे बढ़ा सकेगा। अत: सभी कहानीकारों को ऐसे अहम प्रयास करने होंगे जिससे कहानी जन-जन के और निकट पहुँच सके। हमें कहानी गोष्ठियों, कहानी संग्रहों के प्रकाशन से जनमानस में इसकी महत्ता प्रतिपादित करनी होगी। कहानी क्षेत्र में प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर और यथासंभव जागरूकता, कार्यशालाएँ, निरंतर आयोजनों के साथ-साथ वार्षिक सम्मानों की स्थापना भी करनी होगी। आज ऐसे प्रयास ही कहानी को भविष्य में जन-जन तक लोकप्रिय बना सकेंगे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

टीप –  नाटक भिखारिन की मौत श्रृंखला का प्रकाशन कल से पुनः यथावत रहेगा।

? संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श ?

भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी है। यही कारण है कि जन्म, परण और मरण तीनों के साथ उत्सव जुड़ा है। इस उत्सवप्रियता का एक चित्र इस लेखक की एक कविता की पंक्तियों में देखिए-

पुराने पत्तों पर नई ओस उतरती है,

अतीत की छाया में वर्तमान पलता है,

सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,

अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।

नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।

भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। हमारी आँचलिक रीतियों में कालगणना के लिए लगभग तीस प्रकार के अलग-अलग कैलेंडर या पंचांग प्रयोग किए जाते रहे हैं। इन सभी की मान्यताओं का पालन किया जाता तो प्रतिमाह कम से कम दो नववर्ष अवश्य आते। इस कठिनाई से बचने के लिए स्वाधीनता के बाद भारत सरकार ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को मानक पंचांग के रूप में मानता दी। इस कैलेंडर के अनुसार 1 जनवरी को नववर्ष होता है। भारत सरकार ने सरकारी कामकाज के लिए देशभर में शक संवत चैत्र प्रतिपदा से इस कैलेंडर को लागू किया पर तिथि एवं पक्ष के अनुसार मनाये जाने वाले भारतीय तीज-त्योहारों की गणना में यह कैलेंडर असमर्थ था। फलत: लोक संस्कृति में पारंपरिक पंचांगों का महत्व बना रहा। भारतीय पंचांग ने पूरे वर्ष को 12 महीनों में बाँटा है। ये महीने हैं, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ एवं फाल्गुन। चंद्रमा की कला के आरोह- अवरोह के अनुसार प्रत्येक माह को दो पक्षों में बाँटा गया है। चंद्रकला के आरोह के 15 दिन शुक्लपक्ष एवं अवरोह के 15 दिन कृष्णपक्ष कहलाते हैं। प्रथमा या प्रतिपदा से आरंभ होकर कुल 15 तिथियाँ चलती हैं। शुक्लपक्ष का उत्कर्ष पूर्णिमा पर होता है। कृष्ण पक्ष का अवसान अमावस्या से होता है। देश के बड़े भूभाग पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।

महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढीपाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला जरीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगे घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।

प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। जरी के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढीपाडवा।

कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। मान्यता वही कि ब्रह्मदेव ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया था। आम की पत्तियों एवं रंगावली से घर सजाए जाते हैं। ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु का पूजन होता है। वर्ष भर का पंचांग जानने के लिए मंदिरों में जाने की प्रथा है। इसे ‘पंचांग श्रवणं’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। ‘कोडिवस्त्रम्’ अर्थात नये वस्त्र धारण कर नागरिक किसी मंदिर या धर्मस्थल में दर्शन के लिए जाते हैं। इसे ‘विशुकणी’ कहा जाता है। इसी दिन अन्यान्य प्रकार के धार्मिक कर्मकांड भी संपन्न किये जाते हैं। यह प्रक्रिया ‘विशुकैनीतम’ कहलाती है। ‘विशुवेला’ याने प्रभु की आराधना में मध्यान्ह एवं सायंकाल बिताकर विशु विराम लेता है।

असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर किये जाने वाले ‘मुकोली बिहू’ नृत्य के कारण यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।

संकीर्ण धार्मिकता से ऊपर उठकर अनन्य प्रकृति के साथ चलने वाली भारतीय संस्कृति का मानव समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है। इस व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भिन्न धार्मिक संस्कृति के बावजूद बांग्लादेश में ‘पोहिला बैसाख’ को राष्ट्रीय अवकाश दिया जाता है। नेपाल में भी भारतीय नववर्ष वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को पूरी धूमधाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर मैं भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।

उष्ण राष्ट्र होने के कारण भारत में शीतल चंद्रमा को प्रधानता दी गई। यही कारण है कि भारतीय पंचांग, चंद्रमा की परिक्रमा पर आधारित है जबकि ग्रीस और बेबिलोन में कालगणना सूर्य की परिक्रमा पर आधारित है।

भारत में लोकप्रिय विक्रम संवत महाराज विक्रमादित्य के राज्याभिषेक से आरंभ हुआ था। कालगणना के अनुसार यह समय ईसा पूर्व वर्ष 57 का था। इस तिथि को सौर पंचांग के समांतर करने के लिए भारतीय वर्ष से 57 साल घटा दिये जाते हैं।

इस मान्यता और गणित के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा याने दीपावली के अगले दिन भी नववर्ष मानने की प्रथा है। गुजरात में नववर्ष इस दिन पूरे उल्लास से मनाया जाता है। सनातन परंपरा में साढ़े मुहूर्त अबूझ माने गये हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया एवं विजयादशमी। आधा मुहूर्त याने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा। इसी वजह से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को पूरे भारत में व्यापारी नववर्ष के रूप में भी मान्यता मिली। कामकाज की सुविधा की दृष्टि से आर्थिक वर्ष भले ही 1 अप्रैल से 31 मार्च तक हो, पारंपरिक व्यापारी वर्ष दीपावली से दीपावली ही माना जाता है।

भारतीय संस्कृति जहाँ भी गई, अपने पदचिह्न छोड़ आई। यही कारण है कि श्रीलंका, वेस्टइंडीज और इंडोनेशिया में भी अपने-अपने तरीके से भारतीय नववर्ष मनाया जाता है। विशेषकर इंडोनेशिया के बाली द्वीप में इसे ‘न्येपि’ नाम से मनाया जाता है। न्येपि मौन आराधना का दिन है।

मनुष्य की चेतना उत्सवों के माध्यम से प्रकट होती है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि इसकी उत्सव की परंपरा के साथ जुड़ा है गहन विमर्श। भारतीय नववर्ष भी विमर्श की इसी परंपरा का वाहक है। हमारी संस्कृति ने प्रकृति को ब्रह्म के सगुण रूप में स्वीकार किया है। इसके चलते भारतीय उत्सवों और त्यौहारों का ऋतुचक्र के साथ गहरा नाता है। चैत्र प्रतिपदा में लाल पुष्पों की सज्जा हो, पतझड़ के बाद आई नीम की नयी कोंपलें हो, बैसाखी में फसल का उत्सव हो या बिहू में चावल से बना ‘पिठ’ नामक मिष्ठान। हर एक में ऋतुचक्र का सानिध्य है, प्रकृति का साथ है।

सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-

न राग बदला न लोभ,न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर।

परिवर्तन का संवत्सर केवल कागज़ों पर ना उतरे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो। इति।

©  संजय भारद्वाज

(सर्वाधिकार, लेखक के अधीन हैं।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 103 ☆  संदर्भ हरिद्वार कुंभ… धार्मिक पर्यटन की हमारी सांस्कृतिक विरासत   ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय आलेख –  संदर्भ हरिद्वार कुंभ… धार्मिक पर्यटन की हमारी सांस्कृतिक विरासत ।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 103☆

? संदर्भ हरिद्वार कुंभ… धार्मिक पर्यटन की हमारी सांस्कृतिक विरासत  ?

भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं. प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है.द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.

इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं.मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है.शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.

भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है.जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है.  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.

इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं.चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा , नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं .  हरिद्वार का नैसर्गिक महत्व, ॠषीकेश, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री चार धाम, मनसा देवी पीठ तथा माँ गंगा के कारण हरिद्वार कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.

प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.

जब ऐसे विशाल, महीने भर की अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं,कला  विकसित होती है.  प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोजन की  व्यापक चर्चा हो रही  है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन कुंभ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो कुंभ के विशेषांक ही निकाले हैं. कुंभ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हो रही  हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. कुंभ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं.

कुंभ सदा से धार्मिक ही नहीं एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा. इस वर्ष कोविड के विचित्र संक्रमण काल में हरिद्वार कुंभ नये चैलेंज लिये आयोजित हो रहा है, हम सब की नैतिक व धार्मिक  सामाजिक जबाबदारी है कि हम कोविड प्रोटोकाल का खयाल व सावधानियां रखते हुये ही कुंभ स्नान व आयोजन में सहभागिता करें, क्योंकि यदि मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन तभी चंगा रह सकता है जब शरीर चंगा रहे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 93 ☆ सर्वाहारी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 93 ☆ सर्वाहारी ☆

विद्यालय में पढ़ा था कि मुख्य रूप से दो तरह के जीव होते हैं, शाकाहारी एवं मांसाहारी। मनुष्य को मिश्राहारी कहा गया था क्योंकि वह शाकाहार और मांसाहार दोनों करता है। पिछले दिनों बच्चों की किसी पाठ्यपुस्तक में मनुष्य के लिए ‘सर्वाहारी’ शब्द पढ़ा और सन्न रह गया। चिंतन का चक्र घूमा और विचारों का मंथन होने लगा।

सर्वाहारी द्वारा अँग्रेज़ी के ओमनीवोर्स का शाब्दिक अनुवाद कर अनुवादक ने बदलते समय के बदलते मूल्य का चित्र मानो पूरी भयावहता से उकेर कर रख दिया था।

सचमुच मनुष्य सबकुछ खाने लगा है। हर तरह के आहार के साथ-साथ  मनुष्य ने दूसरों का अधिकार खाना शुरू किया। उसने रिश्ते खा डाले, नाते चबा डाले। ऐसा खून मुँह लगा कि  भाई का हक़ खाया, बहन को बेहक़ किया। वह लाज बेचकर खाने लगा, देश बेचने में भी झिझक न रही। जो मिला खाता चला गया। उसका मुँह सुरसा का और पेट कुंभकर्ण  का  हो गया। आदमी के उपयोग के पदार्थ डकारने के बाद चौपायों का चारा, गौचर भूमि, पानी के संसाधन भी खा गया मनुष्य।

चौपाये भी खाने का शऊर पालते हैं। रोमंथक चौपाये खाने के बाद जुगाली करते हैं। मनुष्य चरता तो चौपाये जैसा है पर जुगाली उसके बूते के बाहर है। वह खा रहा है, बेतहाशा खा रहा है। इस कदर बेतहाशा कि जो कुछ कभी अशेष था, अब उसके अवशेष हैं। उसने  वस्तु से लेकर संवेदना तक सब कुछ बेचकर खाना सीख लिया।

अक्षयकुमार जैन ने अपनी एक कविता में लिखा था कि गाय, हम मनुष्यों ने तुम्हारे दूध , मूत्र, गोबर, चमड़ी सबका तो उपयोग ढूँढ़ लिया है। केवल कटते समय तुम जो चीखती हो, उस चीख का इस्तेमाल अब तक नहीं ढूँढ़ पाए हैं। पता चला कि  अरब में रईसों ने चीखों का भी व्यापार शुरू कर दिया। ऊँटों की दौड़ का लुत्फ़ उठाने के लिए  गरीब एशियाई देशों के बच्चे ऊँट की पीठ से बांध दिये जाते हैं। बच्चे चीखते हैं, ऊँट दौड़ते हैं। ऊँट दौड़ते हैं, बच्चे चीखते हैं। चीख का व्यापार फलता-फूलता है।

सारा डकार जाने की प्रक्रिया ने मानवता को दो ध्रुवों में बांट दिया है। एक ध्रुव पर सर्वहारा खड़ा है, दूसरे पर सर्वाहारी। दोनों के बीच की खाई आदमियत और आदिमपन के टकराव की आशंका को जन्म देती है।  इस आशंका से बचने के लिए वापसी की यात्रा अनिवार्य है। इस यात्रा में सर्वाहारी को शाकाहारी बनाना तो आदर्श होगा पर कम से कम उसे मिश्राहार तक  वापस ले आएँ तो आदमियत बची रह सकेगी।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 90 ☆ जीने का हुनर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीने का हुनर। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 90 ☆

☆ जीने का हुनर

‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात नि:संकोच सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला से भी अवगत होना चाहिए, जिसके लिए उसमें संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।

‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सबसे दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि ‘गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।

आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते; आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलें, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलें, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।

सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दाँव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन व शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते; सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था, विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि- नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में जैसी भी विषम परिस्थितियां हों; मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए… सम-भाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लाँघ जाता है, जिसका खामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं; उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानुकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग करना उसी प्रकार अपेक्षित है, जैसे हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे; उसे ग्रहण कर शेष को त्याग देना बेहतर है। अक्सर क्रोध में मानव कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो; सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं और उनके इलाज के लिए कोई मरहम नहीं होती।

हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा हैं… उसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लें, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वास्तव में यह मानव मन में गहराई से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित होकर ‘हैलो-हाय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम-सा पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।

अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करें और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहें। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है– सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास करके, मन की बात न कहने का संदेश प्रेषित किया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। सगे-संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों को दूर से दुआ-सलाम कीजिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।

‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हाँट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, तो हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+ वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं–दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।

अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते; क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते; भूल जाइये। हर क्षण को जीएं, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्-प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि वह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है; नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण कर धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह, संशय व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है। परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो और फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय।’ सो! भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 42 ☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ”.)

☆ किसलय की कलम से # 42 ☆

☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆

 कुछ वर्षों पूर्व स्वाधीनता दिवस पर देश के प्रधानमंत्री जी ने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से हर विकासखंड में एक आदर्श ग्राम विकसित करने का आह्वान किया था।

यदि इस योजना पर गंभीरतापूर्वक अमल हुआ होता तो निश्चित ही देश का कायाकल्प हो जाता। आज भी गाँवों से गरीबी एवं बेरोजगारी के कारण बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन जारी है। कहीं न कहीं सरकारी तंत्र की उदासीनता ग्रामीण प्रगति के आड़े आती है। ग्राम विकास की पहले भी कई योजनाएँ चलाई गईं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में खामियों और भ्रष्टाचार के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके हैं। हमारे देश में विकास का आधार गाँव ही हैं। आज भी हमारी अधिसंख्य आबादी गाँवों में ही निवास करती है। जब तक गाँवों में शिक्षा, विकास एवं सम्मानजनक जीवनशैली के प्रति जागरूकता नहीं आती। जब तक तीव्रगामी शहरों की तरह ग्रामीण प्रगति भी प्रतिस्पर्धात्मक रूप नहीं लेती। जब तक हमारी सरकारें ग्रामीण विकास की योजनाओं के लिए समुचित बजट आवंटन और योजनाओं के क्रियान्वयन की पारदर्शी व्यवस्था लागू नहीं करतीं, तब तक  ‘सुविकसित गाँव’ का सपना यथार्थतः साकार होना मुश्किल ही लगता है। हमें देखना होगा कि सरकारें आशा के अनुरूप आदर्श ग्राम योजना हेतु बजट आवंटित करती रहेंगी अथवा ये भी हवा हवाई घोषणाएँ ही सिद्ध होंगी। सरकारें विकास के क्या पैमाने बनाती हैं और योजनाओं को कैसे अमल में लाती हैं। सिर्फ नेक सोच जताने या घोषणा करने से काम नहीं चलेगा। आप, हम, सभी को यह भी स्मरण रखना होगा कि सुपरिणामों के बाद ही सही मायनों में इंसान वाहवाही का हकदार होता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆

माँ, सुबह के कामकाज करते हुए अपने मीठे सुर में एक भजन गाती थीं, “उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।”

बरसों से माँ का यह स्वर कानों में बसा है। माँ अब भी गाती हैं। अब कुछ शरीर साथ नहीं देता, कुछ भूल गईं तो समय के साथ कुछ भजन भी बदल गये।

यह बदलाव केवल भजन में नहीं हम सबकी जीवनशैली में भी हुआ है। अब 24×7 का ज़माना है। तीन शिफ्टों में काम करती अधिकतम दोहन की व्यवस्था है। रैन और नींद का समीकरण चरमरा गया है। ‘किचन’ में ज़बरिया तब्दील किया जा चुका चौका है, चौके के नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ी पड़ी हैं। आधी रात को माइक्रोवेव के ऑन-ऑफ होने और फ्रिज के खुलते-बंद होते दरवाज़े की आवाज़े हैं। टीवी की स्क्रिन में धँसी आँखें प्लेट में रखा फास्ट फूड अनुमान से तलाश कर मुँह में ठूँस रही हैं।

हमने सब ध्वस्त कर दिया है। प्रकृति के साथ, प्राकृतिक शैली के साथ भारी उलट-पुलट कर दिया है। भोजन की पौष्टिकता और उसके पाचन में सूर्यप्रकाश व उष्मा की भूमिका हम बिसर चुके। मुँह अँधेरे दिशा-मैदान की आवश्यकता अनुभव करना अब किवदंती हो चुका। अब ऑफिस निकलने से पहले समकालीन महारोग कब्ज़ियत से किंचित छुटकारा पाने की तिकड़में हैं।

देर तक सोना अब रिवाज़ है। बुजुर्ग माँ-बाप जल्दी उठकर दैनिक काम निपटा रहे हैं। बेटे-बहू के कमरे का दरवाज़ा खुलने में पहला पहर लगभग निपट ही जाता है। ‘हाई प्रोफाइल’ के मारों  के लिए तो शनिवार और रविवार ‘रिज़र्व्ड टू स्लिप’ ही है। बिना लांघा रोज होता सूर्योदय देखने से वंचित शहरी वयस्क नागरिकों की संख्या नए कीर्तिमान बना रही है।

कबीरदास जी ने लिखा है-

कबीर सुता क्या करे, जागिन जपे मुरारि

इक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारि।

लम्बे पाँव पसार कर सोने की बेला से पहले हम उठ जाएँ तो बहुत है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 89 ☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कानून, शिक्षा, संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 89 ☆

☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆

कानून, शिक्षा व संस्कार/ समाज से नदारद हो चुके हैं सब/ जी हां! यही है आज का सत्य। बेरोज़गारी, नशाखोरी, भ्रूण-हत्या के कारण लिंगानुपात में बढ़ रही असमानता; संबंधों की गरिमा का विलुप्त होना; गुरु-शिष्य के पावन संबंधों पर कालिख़ पुतना; राजनीतिक आक़ाओं का अपराधियों पर वरदहस्त होना… हैवानियत के हादसों में इज़ाफा करता है। औरत को मात्र वस्तु समझ कर उसका उपभोग करना…पुरुष मानसिकता पर कलंक है, क्योंकि ऐसी स्थिति में वह मां, बहन, बेटी, पत्नी आदि के रिश्तों को नकार उन्हें मात्र सेक्स ऑब्जेक्ट स्वीकारता है।

शिक्षा मानव के व्यक्तित्व का विकास करती है और किताबी शिक्षा हमें रोज़गार प्राप्त करने के योग्य बनाती है; परंतु संस्कृति हमें सुसंस्कृत करती है; अंतर्मन में दिव्य गुणों को विकसित व संचरित करती है; जीने की राह दिखाती है; हमारा मनोबल बढ़ाती है। परंतु प्रश्न उठता है– आज की शिक्षा-प्रणाली के बारे में….क्या वह आज की पीढ़ी को यथार्थ रूप से शिक्षित कर पा रही है? क्या बच्चे ‘हैलो-हाय’ व ‘जीन्स- कल्चर’ की संस्कृति से विमुख होकर भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं? क्या वे गुरु-शिष्य परंपरा व बुज़ुर्गों को यथोचित मान-सम्मान देना सीख पा रहे हैं? क्या उन्हें अपने धर्म में आस्था है? क्या वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा व निष्काम कर्म की अहमियत से वाक़िफ़ हैं? क्या वे प्रेम, अहिंसा व अतिथि देवो भव: की परंपरा को जीवन-मूल्यों के रूप में स्वीकार रहे हैं? क्या जीवन के प्रति उनकी सोच सकारात्मक है?

यदि आधुनिक युवाओं में उपरोक्त दैवीय गुण हैं, तो वे शिक्षित है, सुसंस्कृत हैं, अच्छे इंसान हैं…वरना वे शिक्षित होते हुए भी अनपढ़, ज़ाहिल, गंवार व असभ्य हैं और समाज के लिए कोढ़-सम घातक हैं। वास्तव में उनकी तुलना दीमक के साथ की जा सकती है, क्योंकि दोनों में व्यवहार-साम्य है… जैसे दीमक विशालकाय वृक्ष व इमारत की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देती है; वैसे ही पथ-भ्रष्ट, नशे की गुलाम युवा-पीढ़ी परिवार व समाज रूपी इमारत को ध्वस्त कर देती है। इसी प्रकार ड्रग्स आदि नशीली दवाएं भी जोंक के समान उसके शरीर का सारा सत्व नष्ट कर उसे जर्जर-दशा तक पहुंचा रही हैं। परिणामत: उन युवाओं की मानसिक दशा इस क़दर विक्षिप्त हो जाती है कि वे स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं तथा उचित निर्णय लेने में स्वयं को अक्षम पाते हैं।

संस्कारहीन युवा पीढ़ी समाज पर बोझ है; मानवता पर कलंक है; जो हंसते-खेलते, सुखी-समृद्ध परिवार की खुशियों को लील जाती है और उसे पतन की राह पर धकेल देती है। सो! उन्हें उचित राह पर लाने अर्थात् उनका सही मार्गदर्शन करने में हमारे वेद- शास्त्र, माता-पिता, शिक्षक व धर्मगुरु भी असमर्थ रहते हैं। उस स्थिति में उनके लिए कानून-व्यवस्था है; जिसके अंतर्गत उन्हें अच्छा नागरिक बनने को प्रेरित किया जाता है; अच्छे-बुरे, ग्राह्य-त्याज्य व उचित-अनुचित के भेद से अवगत कराया जाता है तथा कानून की पालना न करने पर दण्डित किया जाना उसकी अनिवार्य शर्त है। प्रत्येक व्यक्ति को अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य-बोध करवाया जाना आवश्यक है, ताकि समाज व देश में स्नेह- सौहार्द, शांति व सुव्यवस्था कायम रह सके।

मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ‘संस्कारों के बिना हमारी व्यवस्था पंगु है, मूल्यहीन है, निष्फल है, क्योंकि जब तक मानव में आस्था व विश्वास भाव जाग्रत नहीं होगा; वह तर्क-कुतर्क में उलझता रहेगा और उस पर किसी भी अच्छी बात का प्रभाव नहीं पड़ेगा। वैसे भी कानून अंधा है; साक्ष्यों पर आधारित है और उनके अभाव में अपराधियों को दंड मिल पाना असंभव है। इसी कारण अक्सर अपराधी दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध करने के पश्चात् भी छूट जाते हैं और स्वच्छंद रूप में विचरण करते रहते हैं… अगला ग़ुनाह करने की फ़िराक में और उसे अंजाम देने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। परिणामत: पीड़ित पक्ष के लोग न्याय से वंचित रह जाते हैं और उन्हें विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। अपराधी बेखौफ़ घूमते रहते हैं और पीड़िता के माता-पिता ही नहीं; सगे-संबंधी भी मनोरोगी हो जाते हैं… डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। अक्सर निर्दोष होते हुए भी उन पर दोषारोपण कर विभिन्न आपराधिक धाराओं के अंतर्गत जेल की सीखचों के पीछे धकेल दिया जाता है, जिसके अंतर्गत उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है।

यह सब देख कर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और वे अपराध-जगत् के शिरोमणि बनकर पूरे समाज में दबदबा कायम रखते हैं। आज मानव को आवश्यकता है…. सुसंस्कारों की, जीवन-मूल्यों के प्रति अटूट आस्था व विश्वास की, ताकि वे शिक्षा ग्रहण कर ‘सर्वहिताय’ के भाव से समाज व देश के सर्वांगीण विकास में योगदान प्रदान कर सकें… जहां समन्वय हो, सामंजस्य हो, समरसता हो और आमजन स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकें। सो! उन पर कानून रूपी अंकुश लगाने की दरक़ार ही न हो। यदि फिर भी समाज में अव्यवस्था व्याप्त हो; विषमता व विसंगति हो और संवेदनशून्यता हावी हो, तो हमें भी सऊदी अरब देशों की भांति कठोर कानूनों को अपनाने की आवश्यकता रहेगी, ताकि अपराधी ग़ुनाह करने से पूर्व, उसके अंजाम के बारे में अनेक बार सोच-विचार करें

जब तक देश में कठोरतम कानून नहीं बनाया जाता, तब तक ‘भ्रूण-हत्या व बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बेमानी अथवा मात्र जुमला बनकर रह जाएगा। ऐसे निर्मम, कठोर, हृदयहीन अपराधियों पर नकेल कसने के साथ उन्हें चौराहे पर फांसी के तख्ते पर लटका दिया जाना ही उसका सबसे उत्तम व सार्थक विकल्प है। वर्षों तक आयोग गठित कर, मुकदमों की सुनवाई व बहस में समय और पैसा नष्ट करना निष्प्रयोजन है। बहन-बेटियों पर कुदृष्टि रखने वालों से आतंकवादियों से भी अधिक सख्ती से निपटने का प्रावधान होना चाहिए।

हां! बच्चे हों या युवा– यदि वे अमानवीय कृत्यों में लिप्त पाये जाएं; तो उनके अभिभावकों के लिए भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए तथा महिलाओं को आत्म-निर्भर बनाने व महिला-सुरक्षा के निमित्त बजट की राशि में इज़ाफ़ा होना चाहिए, ताकि महिलाएं समाज में स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर, स्वतंत्रता से विचरण कर सकें…खुली हवा में सांस ले सकें। इस संदर्भ में शराब के ठेकों को बंद करना, नशे के उत्पादों पर प्रतिबंध लगाना–सरकार के प्राथमिक दायित्व के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।

बेटियों में हुनर है। वे हर क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा रही हैं और हर मुक़ाम पर सफलता अर्जित कर रही हैं। हमें उनकी प्रतिभा को कम नहीं आंकना चाहिए, बल्कि सुरक्षित वातावरण प्रदान करना चाहिए, ताकि उनकी प्रतिभा का विकास हो सके तथा वे निरंकुश होकर सुक़ून से जी सकें। यही होगी हमारी उन बेटियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि… जो निर्भया के रूप में दरिंदगी की शिकार होकर; अपने प्राणों की आहुति दे चुकी हैं। आइए! हम भी इस पावन यज्ञ में यथासंभव समिधा डालें और सुंदर, स्वस्थ, सुरम्य व सभ्य समाज के विकास में योगदान दें; जहां संवेदनहीनता का लेशमात्र भी अस्तित्व न हो।

यह तो सर्वविदित तथ्य है कि संविधान में महिलाओं को समानाधिकार प्रदान किए गए हैं; परंतु वे कागज़ की फाइलों में बंद हैं। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हो रहा है, निर्भयाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, क्योंकि अपराधियों के नये-नये संगठन अस्तित्व में आ रहे हैं। वे ग़िरोह में आते हैं; लूटपाट कर बर्बरता से दुष्कर्म कर, उन्हें बीच राह फेंक जाते हैं। सामान्य-जन उन दहशतगर्दों से डरते हैं, क्योंकि वे किसी के प्राण लेने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। भले ही सरकार ने दुष्कर्म के अपराधियों के लिए फांसी की सज़ा का ऐलान किया है, परन्तु कितने लोगों को मिल पाती है, उनके दुष्कर्मों की सज़ा? प्रमाण आपके समक्ष है…निर्भया के केस की सवा सात वर्ष तक जिरह चलती रही। कभी माननीय राष्ट्रपति से सज़ा-मुआफ़ी की अपील; तो कभी बारी-बारी से क्यूरेटिव याचिका लगाना; अमुक मुकदमे का विभिन्न अदालतों में स्थानांतरण और फैसले की रात को अढ़ाई बजे तक साक्ष्य जुटाने का सिलसिला जारी रहने के पश्चात् अपराधियों को सज़ा-ए-मौत का फरमॉन एवं तत्पश्चात् उसकी अनुपालना… क्या कहेंगे इस सारी प्रक्रिया को आप… कानून का लचीलापन या अवमानना?

यह तो सर्वविदित है कि कोरे वादों व झूठे आश्वासनों से कुछ भी संभव नहीं हो सकेगा। यदि हम सब एकजुट होकर ऐसे परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर, उन्हें उनकी औलाद के भीतर का सत्य दिखाएं, तो शायद! उनकी अंतरात्मा जाग उठे और वे पुत्र-मोह त्याग कर उसे अपनी ज़िंदगी से बे-दखल कर दें। परंतु यदि ऐसे हादसे निरंतर घटित होते रहेंगे… तो लोग बेटियों की जन्म लेने से पहले ही इस आशंका से उनकी हत्या कर देंगे…कहीं भविष्य में ऐसे वहशी दरिंदे उन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाने के पश्चात् निर्दयता से उन्हें मौत के घाट न उतार दें और स्वयं बेखौफ़ घूमते रहें।

वैसे भी आजकल दुष्कर्मियों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा हो रहा है। देश के कोने-कोने में कितनी निर्भया दरिंदगी की शिकार हो चुकी हैं और कितनी निर्भया अपनी तक़दीर पर जीवन भर आंसू बहाने को विवश हैं, बाध्य हैं। यह बताते हुए मस्तक लज्जा-नत जाता है और वाणी मूक हो जाती है कि हर दिन असंख्य मासूम अधखिली कलियों को विकसित होने से पहले ही रौंद कर, उनकी हत्या कर दी जाती है। हमारा देश ही नहीं, पूरा विश्व किस पायदान पर खड़ा है… यह सब बखान करने की शब्दों में सामर्थ्य कहाँ?

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 41 ☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है”.)

☆ किसलय की कलम से # 41 ☆

☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆

 प्रायः यह देखा गया है कि हमारे समाज में वृद्धों की स्थिति अधिकांशतः दयनीय ही होती है, भले ही वे कितने ही समृद्ध एवं सभ्य क्यों न हों। उनकी संतानें उनके सभी दुख-सुख एवं उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाते, मैं ये नहीं बताना चाहता कि इनके पीछे कौन-कौन से तथ्य हो सकते हैं। जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती है या उनका मन चाहता है, वे आसानी से प्राप्त नहीं कर पाते, तब उनके मन एवं मस्तिष्क में उस कमी के कारण चिंता के बीज अंकुरित होने लगते हैं। ये उनके के लिए घातक सिद्ध होते हैं। वैसे भी आधुनिक युग में वृद्ध अपनी जिंदगी से काफ़ी पहले ऊब जाते हैं। अधिकतर वृद्धों के चेहरों पर मुस्कराहट या चिकनाहट रह ही नहीं पाती। उनका गंभीर चेहरा उनके स्वयं की अनेक अनसुलझी समस्याओं का प्रतीक-सा बन जाता है। उनकी एकांतप्रियता दुखी हृदय की ही द्योतक होती है।

इस तरह की परिस्थितियाँ वृद्धावस्था में ही क्यों आती हैं? बचपन और जवानी के दिनों में क्यों नहीं आतीं ? इनके बहुत से कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। बचपन में संतानें माता-पिता पर आश्रित रहती हैं। उनका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा एवं नौकरी-चाकरी तक माँ-बाप लगवा देते हैं। इतने लंबे समय तक बच्चों को किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती। प्रत्येक चाही-अनचाही आवश्यकताओं की पूर्ति माता-पिता ही करते हैं। बच्चे जवानी की दहलीज़ पर पहुँचते-पहुँचते अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और अपने परिवार का भी दायित्व निर्वहन करने में सक्षम हो जाते हैं। अपनी इच्छानुसार अनेक मदों में धन का व्यय करके अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं।

इन्हीं परिस्थितियों एवं समय में वही परंपरागत वृद्धावस्था की समस्या अंकुरित होने लगती है। जब वृद्ध माता-पिता के खान-पान, उनकी उचित देख-रेख और उनके सहारे की अनिवार्य आवश्यकता होती है, इन परिस्थितियों में वे संतानें जिन्हें रात-रात भर जागकर और खुद ही इनके मूत्र भरे गीले कपड़ों में लेटे रहकर इन्हें सूखे बिस्तर में सुलाया। इनका पालन-पोषण और प्रत्येक इच्छाओं को पूरा करते हुए पढ़ाया-लिखाया फिर रोज़ी-रोटी से लगाया  उनका विवाह कराया, उनके हिस्से के सारे दुखों को खुद सहा और वह केवल इसलिए की वे खुश रहें और वृद्धावस्था में उनका सहारा बनें, परंतु आज की अधिकतर कृतघ्न संतानें अपने माता-पिता से नफ़रत करने लगती हैं। उनकी सेवा-सुश्रूषा से दूर भागने लगती हैं। उनकी छोटी-छोटी सी अनिवार्य आवश्यकताओं को भी पूरी करने में रुचि नहीं दिखातीं। ऐसी संतानों को क्या कहा जाए जो उनसे ही जन्म लेकर अपने फ़र्ज़ को निभाने में कोताही करते हैं। उनकी अंतिम घड़ियों में उनकी आत्मा को शांति नहीं पहुँचातीं।

आज ऐसी शिक्षा कि आवश्यकता है जिसमें माता-पिता के लिए भावनात्मक एवं कृतज्ञता की विषयवस्तु का समावेश हो। आवश्यकता है पाश्चात्य संस्कृति के उन पहलुओं से बचने की जिनकी नकल करके हम अपने माता-पिता की भी इज़्ज़त करना भूल जाएँ। वहीं दूसरी ओर समझाईस के रूप में यह भी आवश्यक है की वृद्ध माता-पिता को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संतान के परिपक्व होने के पश्चात उसे अपनी जिंदगी जीने का हक होता है और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप हानिकार ही होगा। अतः बात -बात पर, समय-असमय, अपनी संतानों को भला-बुरा अथवा अपने दबाव का प्रभाव न ही बताना श्रेयस्कर होगा, अन्यथा वृद्धों की यह परंपरागत समस्या निराकृत होने के बजाय भविष्य में और भी विकराल रूप धारण कर सकती है

(पाठकों से निवेदन है कि वे इस आलेख को संकेतात्मक स्वीकार करें, अपवाद तो हर जगह संभव हैं)

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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