हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 69 ☆ डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी के प्रति उनकी मनोभावनाओं को प्रदर्शित करता हुआ एक आलेख  डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 69 ☆

☆ डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी ☆

दशमलव ६६ सेकेंड में गूगल ने डा ज्ञान चतुर्वेदी सर्च करने पर दो लाख से ज्यादा परिणाम वेब पेजेज, यू ट्यूब, फेसबुक पर ढूँढ निकाले. वे युग के सतत सक्रिय चुनिंदा व्यग्यकारों में से हैं, जो नई पीढ़ी के व्यंग्यकारो को मार्गदर्शन करते, उनका हाथ पकड़ रास्ता बतलाते दिखते हैं.

रचनाधर्मिता मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर सकने की दक्षता होती है. कविता, लेख, कहानी, उपन्यास या व्यंग्य कोई भी विधा अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है. पिछली शताब्दि के उत्तरार्ध तक अधिकांश  साहित्य लेखन शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयों, पत्रकारिता, से जुड़े लोगों तक सीमित था. किन्तु, पिछले कुछ दशको में डाक्टर्स, इंजीनियर्स, बैंक कर्मी, पोलिस कर्मी भी सफल उच्च स्तरीय लेखन में सुप्रतिष्ठित हुये हैं.

डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यवसायिक योग्यता में एक अत्यंत सफल चिकित्सक हैं. उन्हें उनकी व्यंग्य लेखन की उपलब्धियों के लिये पद्मश्री का सम्मान प्रदान किया गया है. यह हम व्यंग्य कर्मियों के लिये एक लैंडमार्क है. मैंने अपने छात्र जीवन से ही जिन कुछ चुनिंदा व्यंग्यकारो को पढ़ा है उनमें  डा ज्ञान चतुर्वेदी का नाम प्रमुखता से शामिल है, अनेक बार किसी बुक स्टाल पर पत्रिकाओ के पन्ने अलटते पलटते केवल उनका व्यंग्य देखकर ही मैंने पत्रिका खरीदी है.  एक चिकित्सक होते हुये भी उनके व्यंग्य लेखक के रूप में सुप्रतिष्ठित होने से मैं भीतर तक प्रभावित हूँ. यही कारण रहा कि मैंने साग्रह उनसे अपने नये व्यंग्य संग्रह “समस्या का पंजीकरण” की भूमिका लिखवाई है.

वे अपनी कलम से लोगों के मन की सर्जरी में निष्णात हैं. व्यंग्य उपन्यासों के माध्यम से व्यंग्य साहित्य में उन्होंने उनकी विशिष्ट जगह बनाई है.

अपनी अशेष मंगलकामनायें उनके उज्वल भविष्य के लिये अभिव्यक्त करता हूं. डा ज्ञान चतुर्वेदी की हिन्दी व्यंग्य  यात्रा में यह विशेषांक एक छोटा सा पड़ाव ही है, वे उस यात्रा के राही हैं,  जिनसे व्यंग्य जगत के हम सह यात्रियो को अभी बहुत कुछ पाने की आकाँक्षा है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शिक्षक दिवस विशेष – गांधीजी और शिक्षक तथा  गुरु ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “शिक्षक दिवस विशेष – गांधीजी और शिक्षक तथा  गुरु”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ शिक्षक दिवस विशेष – गांधीजी और शिक्षक तथा  गुरु

शिक्षकों के प्रति गांधीजी के मन में बालकाल से ही बड़ा सम्मान था।  अपने स्कूली जीवन की  तीन घटनाओं का उल्लेख गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में किया हैI वे लिखते हैं कि ‘ मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पडी थी।  मार का दुःख नहीं था, पर मैं दंड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुःख रहाI मैं खूब रोया। ’ पहली या दुसरी कक्षा में घटे इस प्रसंग के अलावा एक अन्य प्रसंग जो सातवीं कक्षा से सम्बंधित है को याद करते हुए गांधीजी ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि ‘उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड मास्टर थे।  वे विद्यार्थी  प्रेमी थे , क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे , व्यवस्थित रीति से काम करते और लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे।  उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिए थे।  मुझे इनसे अरुचि थी।  इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल में गया ही न था।  न जाने मेरा शर्मीला स्वभाव ही एक मात्र कारण था।  अब देखता हूँ कि वह अरुचि मेरी भूल थी। ’ अपनी इस भूल को स्वीकारते हुए गांधीजी ने शिक्षा का अर्थ विद्याभ्यास के साथ व्यायाम भी बताया और माना कि मानसिक व शारीरिक शिक्षण का शिक्षा में बराबरी का स्थान होना चाहिए।  छठवी कक्षा में घटित एक तीसरी घटना के बारे में गांधीजी ने लिखा है कि ‘संस्कृत-शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे।  विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे।  मैं भी फारसी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठ गया।  संस्कृत-शिक्षक को दुःख हुआ।  उन्होंने मुझे बुलाया और कहा : “ यह तो समझ कि तू किनका लड़का है।  क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा? तुझे जो कठनाई हो, सो मुझे बता।  मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ।  आगे चलकर उसमे रस के घूँट पीने को मिलेंगे।  तुझे यों हारना नहीं चाहिए।  तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ। ” मैं शिक्षक के प्रेम की अवगणना न कर सका।  आज मेरी आत्मा कृष्ण शंकर मास्टर का उपकार मानती है। ’ गांधीजी ने संस्कृत भाषा के उस स्कूली  ज्ञान के आधार पर ही संस्कृत साहित्य के ग्रंथों का अध्ययन अपनी विभिन्न जेल यात्राओं के दौरान किया।

स्कूल के शिक्षकों के अलावा गांधीजी ने आध्यात्मिक गुरुओं के सम्बन्ध में भी समय-समय पर अपने विचार रखे हैं।  वे अपने जीवनकाल में आदर्श गुरु की तलाश में रहे।  इस सम्बन्ध में वे कहते थे कि ‘ मैं तो ऐसे आदर्श गुरु की तलाश में हूँ जो देहधारी होने पर भी अविकारी है , जो विकारों से निर्लिप्त है ,  स्त्री पुरुष के भाव से मुक्त है और जो सत्य और अहिंसा का पूर्ण अवतार है।  और इसलिए न वह किसी से डरता है और न कोई दूसरा ही उससे डरता हैI

हम सबके जीवन में यही कुछ गुजरा है और स्कूली शिक्षा के अलावा हमारे जीविकोपार्जन के व्यवसायिक पेशे में अनेक शिक्षकों ने हमें ज्ञान दिया है, उचित सलाह व मार्गदर्शन प्रदान कर हमारे जीवन को सफ़ल बनाया है।  शिक्षक दिवस पर उन सबको नमन।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #61 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – मनुष्य अशेष विद्यार्थी है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  शिक्षक दिवस विशेष – मनुष्य अशेष विद्यार्थी है ☆

मनुष्य अशेष विद्यार्थी है। प्रति पल कुछ घट रहा है, प्रति पल मनुष्य बढ़ रहा है। घटने का मुग्ध करता विरोधाभास यह कि प्रति पल, पल भी घट रहा है।

हर पल के घटनाक्रम से मनुष्य कुछ ग्रहण कर रहा है। हर पल अनुभव में वृद्धि हो रही है, हर पल वृद्धत्व समृद्ध हो रहा है।

समृद्धि की इस यात्रा में प्रायः हर पथिक सन्मार्ग का संकेत कर सकने वाले मील के पत्थर को तलाशता है। इसे गुरु, शिक्षक, माँ, पिता, मार्गदर्शक, सखा, सखी कोई भी नाम दिया जा सकता है।

विशेष बात यह कि जैसे हर पिता किसी का पुत्र भी होता है, उसी तरह अनुयायी या शिष्य, मार्गदर्शक भी होता है। गुरु वह नहीं जो कहे कि बस मेरे दिखाये मार्ग पर चलो अपितु वह है जो तुम्हारे भीतर अपना मार्ग ढूँढ़ने की प्यास जगा सके। गुरु वह है जो तुम्हें ‘एक्सप्लोर’ कर सके, समृद्ध कर सके। गुरु वह है जो तुम्हारी क्षमताओं को सक्रिय और विकसित कर सके।

गुरु वह है जो तुम्हें एकल नहीं एकाकार की यात्रा कराये। एकाकार ऐसा कि पता ही न चले कि तुम गुरु के साथ यात्रा पर हो या तुम्हारे साथ गुरु यात्रा पर है। दोनों साथ तो चलें पर कोई किसी की उंगली न पकड़े।

यदि ऐसा गुरु तुम्हारे जीवन में है तो तुम धन्य हो। तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है।

जिनकी गुरुता ने जीवन का मार्ग सुकर किया, उनको वंदन। जिन्होंने मेरी लघुता में गुरुता देखी, उन्हें नमन।

शुभं भवतु।

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 60 ☆ महाभारत नहीं रामायण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख महाभारत नहीं रामायण । इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 60 ☆

☆ महाभारत नहीं रामायण ☆

जब तक सहने की चरम सीमा रही, रामायण लिखी जाएगी। मांगा हक़ जो अपने हित में महाभारत हो जाएगी। जी! हां, यही सत्य है जीवन का, जो सदियों से धरोहर के रूप में सुरक्षित है। इसलिए जीवन में नारी को सहन करने की शिक्षा दी जाती है, क्योंकि मौन सर्वश्रेष्ठ निधि है। वैसे तो यह सबके लिए वरदान है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने मौन रहकर, चित्त को एकाग्र कर अपने अभीष्ट को प्राप्त किया है और जीव-जगत् व आत्मा-परमात्मा के रहस्य को जाना है। जब तक आप में सहन करने व त्याग करने का सामर्थ्य है; परिवार-जन व संसार के लोग आपको सहन करते हैं, अन्यथा जीवन से बे-दखल करने में पल-भर भी नहीं लगाते। विशेष रूप से नारी को तो बचपन से यही शिक्षा दी जाती है, ‘तुम्हें सहना है कहना नहीं’ और  वह धीरे-धीरे उसे जीवन जीने का मूल-मंत्र बना लेती है तथा पिता, पति व पुत्र के आश्रय में सदैव मौन रह कर अपना जीवन बसर करती है।

वास्तव में नारी धरा की भांति सहनशील है; गंगा की भांति निर्मल व निरंतर गतिशील है; पर्वत की भांति अटल है; पापियों के पाप धोती है, परंतु कभी उफ़् नहीं करती। इसी प्रकार नारी भी ता-उम्र सबके व्यंग्य-बाणों के असंख्य भीषण प्रहार व ज़ुल्म हंसते-हंसते सहन करती है… यहां तक कि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस भी नहीं जुटा पाती। वैसे तो पुरुष वर्ग द्वारा यह अधिकार नारी प्रदत्त ही नहीं है। सो! वह दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है… एक हाड़-मांस की जीवित प्रतिमा, जिसे दु:ख-दर्द होता ही नहीं, क्योंकि उसका मान-सम्मान नहीं होता। इसलिए आजीवन कठपुतली की भांति दूसरों के इशारों पर नाचना उसकी नियति बन जाती है। वह आजीवन समस्त दायित्व-वहन करती है; उसी आबोहवा में स्वयं को ढाल लेती है; दिन-भर घर को सजाती-संवारती व व्यवस्थित करती है और वह उस अहाते में सुरक्षित रहती है। बच्चों को जन्म देकर ब्रह्मा व उनकी परवरिश कर विष्णु का दायित्व निभाती है और उसके एवज़ में उसे वहां रहने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि वह संतान को जन्म देने में असमर्थ रहती है, तो बांझ कहलाती है और उससे उस घर में रहने का अधिकार भी छीन लिया जाता है, क्योंकि वह वंश-वृद्धि नहीं कर पाती। परिणाम-स्वरूप पति के पुनः विवाह की तैयारियां प्रारंभ की जाती हैं। इस स्थिति में साक्षर-निरक्षर का भेद नहीं किया जाता है… भले ही वह अपने पति से अधिक धन कमा रही हो; अपने सभी दायित्वों का सहर्ष वहन कर रही हो। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना…जहां एक शिक्षित नौकरीशुदा महिला को केवल बांझ कह कर ही तिरस्कृत नहीं किया गया; उसे पति के विवाह में जाने को भी विवश कर लिया गया, ताकि उसके मांग में सिंदूर व गले में मंगलसूत्र धारण करने का अधिकार कायम रह सके और उसे उस छत के नीचे रहने का अधिकार प्राप्त हो सके। परंतु एक अंतराल के पश्चात् घर में बच्चों की किलकारियां गूंजने के पश्चात् घर-आंगन महक उठा और वह खुशी से अपना पूरा वेतन घर में खर्च करती रही। धीरे-धीरे उसकी उपस्थिति नव-ब्याहता को खलने लगी और वह उस घर को छोड़ने को मजबूर हो गयी। परंतु फिर भी वह मांग में सिंदूर धारण कर पतिव्रता नारी होने का स्वांग रचती रही। है न यह अन्याय….परंतु उस पीड़िता के पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठाता।

सो! जब तक सहनशक्ति है, आपकी प्रशंसा होगी और रामायण लिखी जाएगी। परंतु जब आपने अपने हित में हक़ मांग लिया, तो महाभारत हो जाएगी। वैसे भी अपने अधिकारों की मांग करना संघर्ष को आह्वान करना है और संघर्ष से महाभारत हो जाता है और जीवन का कोई भी पक्ष इससे अछूता नहीं। राजनीति हो या धर्म, घर-परिवार हो या समाज, हर जगह इसका दबदबा कायम है। राजनीति तो सबसे बड़ा अखाड़ा है, परंतु आजकल तो सबसे अधिक झगड़े धर्म के नाम पर होते हैं। घर-परिवार में भी अब इसका हस्तक्षेप है। पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति- पत्नी के जीवन से स्नेह-सौहार्द इस प्रकार नदारद है, जैसे चील के घोसले से मांस। जहां तक पति-पत्नी का संबंध है, उनमें समन्वय व सामंजस्य है ही नहीं… वे दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपना क़िरदार निभाते हैं, जिसका मूल कारण है अहं, जो मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। इसी कारण आजकल वे एक-दूसरे के अस्तित्व को भी नहीं स्वीकारते, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल संयुक्त परिवार-व्यवस्था का स्थान एकल परिवार व्यवस्था ने ले लिया है, परंतु फिर भी पति-पत्नी आपस में प्रसन्नता से अपना जीवन बसर नहीं करते और एक-दूसरे से निज़ात पाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते। वैसे भी आजकल ‘तू नहीं, और सही’ का बोलबाला है। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे हैं, जिसका मूल कारण लिव-इन व प्रेम-विवाह है। अक्सर बच्चे भावावेश में संबंध तो स्थापित कर लेते हैं और चंद दिन साथ रहने के पश्चात् एक-दूसरे की कमियां उजागर होने लगती हैं, उन्हें वे स्वीकार नहीं पाते और परिणाम होता है तलाक़, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। वैसे आजकल सिंगल पेरेंट का प्रचलन भी बहुत बढ़ गया है। सो! इन विषम परिस्थितियों में बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है? एकांत की त्रासदी झेलते बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। वे असामान्य हो जाते हैं; सहज नहीं रह पाते और वही सब दोहराते हुए अपना जीवन नरक-तुल्य बना लेते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छी बातों की अपेक्षा कर हम आधे ग़मों को प्राप्त करते हैं और आधी मुसीबतें हम अच्छे लोगों में दोष ढूंढ कर प्राप्त करते हैं। ग़लत साथी का चुनाव करके हम अपने जीवन के सुख-चैन को दांव पर लगा देते हैं और दोष-दर्शन हमारा स्वभाव बन जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हमारा जीवन जहन्नुम बन जाता है। आजकल लोग भाग्य व नियति पर कहां विश्वास करते हैं? वे तो स्वयं को भाग्य- विधाता समझते हैं और यही सोचते हैं कि उनसे अधिक बुद्धिमान संसार में कोई दूसरा है ही नहीं। इस प्रकार वे अहंनिष्ठ प्राणी पूरे परिवार के जीवन भर की खुशियों को लील जाते हैं। संदेह व अविश्वास इसके मूल कारक होते हैं। सो! समाज में शांति कैसे व्याप्त रह सकती है? इसलिए बीते हुए कल को याद करके, उससे प्राप्त सबक को स्मरण रखना श्रेयस्कर है। मानव को अतीत का स्मरण कर अपने वर्तमान को दु:खमय नहीं बनाना चाहिए, बल्कि उससे सीख लेकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहिए। जीवन में सफलता पाने का मूल-मंत्र यह है कि ‘उस लम्हे को बुरा मत कहो, जो आपको ठोकर पहुंचाता है; बल्कि उस लम्हे की कद्र करो, क्योंकि वह आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है। दूसरे शब्दों में अपनी हर ग़लती से सीख गहण करो, क्योंकि आपदाएं धैर्य की परीक्षा लेती हैं और तुम्हें मज़बूत बनाती हैं। सो! ग़लती को दोहराओ मत। जो मिला है, उन परिस्थितियों को उत्तम बनाने की चेष्टा करो, न कि भाग्य को कोसने की। हर रात के पश्चात् सूर्योदय अवश्य होता है और अमावस के पश्चात् पूनम का आगमन भी निश्चित है। जीवन में आशा का दामन कभी मत छोड़ो। गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। हर पल को सुंदर बनाने का प्रयास करो। जीवन में सहन करना सीखो; त्याग करना सीखो, क्योंकि अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को त्यागना पड़ता है। संचय की प्रवृत्ति का त्याग करो। इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही इस संसार से जाना है। सदाशयता को अपनाओ और दूसरों के प्रति कर्तव्यनिष्ठता का भाव  रखो, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। अधिकार स्थापत्य अशांति-प्रदाता है; हृदय का सुक़ून छीन लेता है। उसे अपने जीवन से बाहर का रास्ता दिखा दो, ताकि हर घर में रामायण की रचना हो सके। पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष व संघर्ष को जीवन में पदार्पण मत करने दो, क्योंकि ये महाभारत के जनक हैं, प्रणेता हैं। सो! अलौकिक आनंद से अपना जीवन बसर करो।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 13 ☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या)

☆ किसलय की कलम से # 13 ☆

☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या

पावस को भारतीय ऋतु-चक्र में महत्त्वपूर्ण  माना गया है। पावस में ही श्रावण मास भी आता है, जो व्रत, पर्वों, उपवास तथा स्वास्थ्य के लियेअत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। श्रवण नक्षत्र के योग के कारण ही ‘श्रावण मास’ कहलाने वाले  इस मास और प्रकृति का आपस में अत्यंत मधुर संबंध है। पावस ग्रीष्म की तपन से व्याकुल जीवों को वर्षा और फुहारों से शीतलता प्रदान कर आत्मिक सुख देता है। आँखों के सामने सर्वत्र हरियाली व यत्रतत्र भरा हुआ जल दिखाई देता है। विशेषतः कृषकों के चेहरे हरे-भरे खेतों को देखकर खिल उठते हैं। प्रकृति नवयौवना सी सजने लगती है। पपीहे, मोर, चातक, कोयल व विभिन्न पक्षियों की मधुर आवाजें कानों में रस घोलती हैं। थोड़ा सा मौसम खुलते ही भँवरे व तितलियाँ  सबकी आँखों को अनोखा सुख पहुँचाती हैं। हमारे देश में सावन की झड़ी तथा वर्षा की फुहारें जनमानस में विशेष स्थान रखती हैं। जल की उपलब्धता, फसलों की पैदावार व प्राकृतिक हरियाली भी इसी वर्षा पर निर्भर करती है।

पावस  व्रत-पर्वों का समय होता है। हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी व शिव को समर्पित श्रावण के सभी सोमवार, हसलषष्ठी, संतान सप्तमी आदि अनेक त्यौहार पावस को हर्षोल्लास से युक्त तथा भक्तिमय बना देते हैं। भगवान विष्णु के देवशयनी एकादशी से योगमुद्रा में जाने के पश्चात भगवान शिव ही सृष्टि के पालनकर्ता बन जाते हैं। यही कारण है कि श्रावण में शिव भगवान की सर्वाधिक भक्ति व आराधना की जाती है। इन्हीं दिनों देवी सती ने अपना शरीर त्यागने से पूर्व हर जन्म में शिव जी को ही पति के रूप में पाने का प्रण लिया था। समुद्र-मंथन से निकले विष को भी श्रावण माह में ही शिव जी ग्रहण कर नीलकंठ के नाम से विख्यात हुए। विष की तपन और व्याकुलता कम करने के लिए उस समय सभी ऋषि-मुनियों व देवताओं ने शिवजी को जल अर्पित किया था।  तब से आज तक श्रावण में शिव जी को जलाभिषेक से शीतलता प्रदान कर प्रसन्न किया जाता है। कन्यायें योग्य वर के लिए व महिलायें अपने पति की मंगल कामना हेतु व्रत, उपवास व शिव आराधना करती हैं। वैसे भी शिव ध्वनि में ऐसी विराट शक्ति है कि जिसके प्रभाव से प्राणियों के दुख-संकट दूर हो जाते हैं। “शिवमस्तु सर्व जगताम्” अर्थात संपूर्ण विश्व का कल्याण हो। आशय यह है कि जब शिव का मूल ही कल्याण हो तब उनकी भक्ति-आराधना से मनुष्यों का कल्याण तो होना ही है। अतः सनातन धर्मावलंबियों के लिए देवों के देव महादेव अर्थात शिव जी विशेष महत्त्व रखते हैं। ऐसे विशिष्ट देव और भगवान राम के आराध्य शिवजी की पूजा तथा आराधना भी विशिष्ट तरह से ही की जाती है।

मंदिरों व देवस्थानों के अतिरिक्त पार्थिव शिवलिंग का भी विशेष महत्त्व हमारे ग्रंथों में वर्णित है। स्नान करने के उपरांत इष्ट का स्मरण करते हुए गंगाजल अथवा पवित्र जल, भस्म, गाय का गोबर, कोई एक अनाज, उपलब्ध फलों का रस, कनेर के पुष्प, मक्खन, गुड़ एवं स्वच्छ मिट्टी अथवा रेत सहित सभी को किसी बड़े पात्र में लेकर गूँथ लें। तत्पश्चात पवित्र किए गए नियत स्थान पर अक्षत रखकर शिवलिंग का निर्माण करें। अभिषेक हेतु ताम्रपत्र के अतिरिक्त अन्य धातु के पात्रों का उपयोग करें, क्योंकि दुग्ध अथवा पंचामृत ताम्रपात्र में मदिरा तुल्य हो जाते हैं और हम अनजाने में शिव जी को विष का अर्पण कर देते हैं। इसी तरह शिव जी द्वारा श्रापित केतकी के फूल, तुलसी पत्र, हल्दी, सिंदूर आदि शिवलिंग पर न चढ़ायें। दुग्ध, शहद, दही, जल से शिवलिंग का अभिषेक करें। बिल्व पत्रों पर चंदन से ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखकर शिवलिंग पर चढ़ायें। शिव जी भोले भंडारी हैं। आप के पास पूजन हेतु जो भी सामग्री उपलब्ध उनका ही उपयोग करें, शेष हेतु अपने भाव निवेदित करने से भी वही फल प्राप्त होता है। अतः जो भी उपलब्ध हो- दूर्वा, हरसिंगार, जुही, कनेर, बेला, चमेली, अलसी के फूल, शमी के पत्ते, बेलपत्र, केसर, चंदन, इत्र, मिश्री, ऋतुफल, चंदन, अबीर, भभूती, गुलाल, ऋतुफल, भाँग, धतूरा, अकौआ, श्वेत मिष्ठान, धूप, दीप, हवन, आरती के साथ पूजन संपन्न करें। पूजन के उपरांत चावल, तिल जौ, गेहूँ, चना आदि गरीबों में बाँटना चाहिए। ऐसा भी कहा गया है कि पारद शिवलिंग की पूजा से समृद्धि व धन-धान्य प्राप्त होता है। काँसे के पात्र में भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिये। शरीर पर तेल न लगायें। दिन में शयन न करें। नंदी (बैल) को हरी घास या कुछ न कुछ अवश्य खिलायें। श्रावण में व्रत न रखने वाले प्राणी स्नानपूर्व कुछ ग्रहण न करें और न ही तामसी भोजन करें। आटे की गोलियाँ मछलियों को खिलाना चाहिए। हरे पेडों को न काटें। हमारे शिव जी इतने भोले हैं कि शिवमूर्ति अथवा शिवलिंग के अभाव में भक्तजन अपने अंगूठे को भी शिवलिंग मानकर उनका स्मरण कर सकते हैं, इसीलिये  तो कहा गया है कि ईश्वर भाव के भूखे होते हैं।

भगवान शिव का अभिषेक जल से करने पर ताप-ज्वर, शहद चढ़ाने से क्षय रोग व गौ-दुग्ध से शारीरिक क्षीणता समाप्त होती है। पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ के जाप से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

वैज्ञानिक दृष्टि से श्रावण मास सहित पूरे पावस में उपवास रखने से पाचन संस्थान ठीक से कार्य करता है। स्वच्छता, संतुलित भोजन, सुपाच्य फलाहार, धूप, दीप, हवन, आराधना, ध्यान, जाप आदि निश्चित रूप से शांति व स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। व्रत, शिव आराधना, परोपकार व सात्त्विक दिनचर्या जहाँ तनाव एवं रक्तचाप बढ़ने नहीं देती वहीं मानव कठिन परिस्थितियों में विचलित भी नहीं होता। ऐसा करने पर प्राणी स्वयं से मौसमी बीमारियाँ दूर रखते हुए नीरोग रह सकता है, क्योंकि अब यह वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हो चुका है कि कुछ मंत्रों के जाप, शंख ध्वनि, तुलसी, पंचामृत, पंचगव्य, हवन, धूप आदि हानिकारक जीवाणुओं और विषाणुओं को नष्टकर हमें अनेक बीमारियों से सुरक्षित रखने में सक्षम हैं।

पावस में प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ जाता है। धरा को जलवृष्टि से संतृप्ति मिलती है। पावस प्राणियों में सद्भावना का गुण विकसित करता है। पवित्रता, स्वच्छता तथा संयमित खानपान हमें बीमारियों से बचाते हैं।  प्राणियों द्वारा किये जाने वाले व्रत, उपवास और शिव की पूजा-आराधना का विधान संपूर्ण विश्व के कल्याण हेतु ही बना है। यही पावस के श्रावण मास में शिव आराधना का उद्देश्य तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या भी है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 22 जुलाई 2020

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 61 – जापानी विधा ‘हाइबन’ ☆ एक परिचय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। 

आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के विशेष अनुरोध पर श्री ओमप्रकाश जी का आलेख  जापानी विधा ‘हाइबन’ – एक परिचय । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 61 ☆

☆ जापानी विधा ‘हाइबन’ – एक परिचय ☆

हाइबन एक जापानी विधा है। इसमें हाइकु के साथ साहित्य की अन्य विधा का गठजोड़ होता है। पहले साहित्य की अन्य विधा को लिखा जाता है। इसके अंत में एक हाइकू होता है। इसके संयुक्त रुप को हाइबन कहते हैं। संक्षेप में कहें तो किसी भी विधा में प्रकृति की व्याख्या अथवा रचना के बाद या रोचक विवरण के बाद अंत में एक हाइकू की रचना की जाती है। इस रचना को  हाइबन कहते हैं।

इसके प्रथम भाग में डायरी, संस्मरण,लघुकथा, संक्षिप्त कहानी, यात्रा वृतांत के रोचक प्राकृतिक तथ्य, प्रेरक पूरक, गद्य की रोचक व संपूर्ण रचना अथवा प्रकृति का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे भाग में 17 वर्णोँ  में अपनी बात नियमों के तहत रखनी होती है। इन 17 वर्णों में प्रथम पंक्ति में पांच वर्ण होते हैं । दूसरी पंक्ति में 7 वर्ण और तीसरी में फिर 5 वर्ण होते हैं। इस तरह हाइकु की रचना की जाती है। मसलन –

तोरणद्वार~

सेल्फी लेते फिसली

नवब्याहता।

हाइकु में दो वाक्य होते हैं। इसमें दो बिंब का समावेश होना अनिवार्य शर्त होती हैं। दोनों बिंब दर्शनीय हो । वह आंखों के सामने स्पष्ट नजर आए । अर्थात फोटो खींचने की तरह वह दृश्य आंखों के सामने स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाए । इसका सीधा मतलब यही है।

हाइकु के दोनों वाक्य स्वतंत्र होते हैं। प्रथम या अंतिम पांच वर्ण में क्रिया नहीं होनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चीजों का वर्णन इसकी अनिवार्य शर्त है। जिससे उसका बिंब आंखों के सामने दृष्टिगोचर हो जाए। मुँह से आह और वाह निकल जाएं।

दूसरे भाग में 12 वर्णों में दूसरा बिंब खींचा जाता है। यह प्रथम व द्वितीय अथवा द्वितीय व तृतीय पंक्ति हो सकती हैं। यह पूरा एक वाक्य होता है । इस तरह हाइकू  17 वर्गों में रची गई एक रोचक काव्य रचना होती है। इसमें नियमों के तहत एक सुंदरतायुक्त, संक्षिप्त, बिंबयुक्त काव्य रचना रची जाती है।

एक तरह से यह 17 वर्णों की सबसे छोटी काव्य रचना है। इसमें अपनी बात प्राकृतिक तत्वों के अंतर्गत रखना होती है । इस कारण इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं होता है। आप तुलना नहीं कर सकते हैं । इसमें कोई साधारण वाक्य नहीं होना चाहिए । इस कारण इसमें धार्मिकता का प्रयोग वर्जित होता है।

हाइबन में धार्मिक स्थानों का वर्णन उसके अन्य महत्व के आधार पर किया जा सकता है। इसके अंतर्गत वास्तुकला की बारीकी, उसकी पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से दर्शनीय कला, उस की मोहकता  और वस्तुकला संबंधित दर्शनीयता का चित्र खींच सकते हैं । मगर यहां आपको कोई कल्पना नहीं करनी है क्योंकि काव्य की तरह हाइकु में कल्पना करना वर्जित है।

इसमें किसी दृश्य यानी फोटो को शब्दों के माध्यम से पाठकों को सम्मुख 17 वर्णों में व्यक्त कर दिखाना होता है। वह भी सीमित वर्णों में दो चित्र वाले यानी बिंब को साकार करना होता है। इसमें किसी एक 5 वर्ण वाली पंक्ति में क्रिया के उपयोग की मनाई होती है।

हाइकु वर्तमान काल में लिखी जाने वाली काव्य रचना या कृति होती है ।इसके वाक्यों में वर्तमान काल का प्रयोग किया जाता है ।जो सम्मुख हो रहा है या दिख रहा है वही शब्दों में दिखाना पड़ता है । इस कारण इसमें भूतकाल और भविष्य काल की क्रिया की मनाही होती है।

विवरण इस तरह लिखना होता है कि वह दो दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाए । इसमें भी दोनों दृश्य में कार्य कारण का संबंध न हो। दोनों दृश्य अलग-अलग हो।मसलन-चूहा भाग रहा है और सांप पीछे आ रहा है। जैसे दो दृश्य आप नहीं दिखा सकते हैं। क्योंकि इसमें कार्य और कारण का संबंध उपस्थित होता है।

एक दृश्य दूसरा दृश्य से पूरी तरह से मुक्त होना चाहिए। दोनों दृश्य एक साथ आंखों के सामने दृष्टिगत हो जाए। इन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है ।उनमें कार्य फल का सिद्धांत लागू नहीं होना चाहिए।

इसके अलावा हाइकू की रचना करने में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना पड़ता है। इसमें प्रकृति का मानवीकरण नहीं किया जा सकता है। दो वाक्य स्वतंत्र होते हैं। इस रचना में शब्दों का दोहराव वर्जित होता है। इस को धर्म विशेष व्यक्ति विशेष के वर्णन से मुक्त रखा गया है। मगर विरोधीभाषी वाक्य लिखे जा सकते हैं। तुकबंदी का प्रयोग पूर्णत वर्जित होता है।

यह विधा पूर्णता प्रकृतिमूलक है। इसी कारण इसमें प्राकृतिक दृश्यों का होना अनिवार्य है ।दूसरे वाक्य में आप अन्य स्पष्ट प्रतिबिंब दर्शा सकते हैं। यही हाइकु की संक्षिप्त विशेषता होती है।

हाइकु लेखन विधा में दो मत प्रचलित है । एक हाइकू को  5,7,5 वर्ण की तुकान्त और सौंदर्ययुक्त भावनात्मक रचना मानते हैं। जिसमें भरपुर कल्पना, मानवीकरण और तुकबंदी के साथसाथ मनोदशा का सुन्दर वर्णन कर सकते हैं। इस काव्य की सब से छोटी रचना में अपनेमन के भावों को उंडैल देते हैं। मसलन- इस रचनाकार की एक रचना देखिए।

शक की सुई~

पंचर कर देती

रिश्तों की गाड़ी।

यह हाइकु के नियमों से मुक्त होकर लिखी गई काव्य रचना है। यानी इस रचना में दूसरे मत वाले हाइकु को प्रतिनिधित्व मिलता है। इस हाइकु में हाइकु  की तरह कोई प्राकृतिक दृश्य नहीं है। केवल 5, 7, 5 के वर्णों में लिखी गई रचना है। मगर भाव का सुंदर समन्वय लिए हुए हैं । यह रचना कई मंचों पर सराही गई है।

मगर हाइकु के उपरोक्त नियम नियमानुसार नहीं है। इसमें निम्नानुसार दो दृश्य नहीं है । केवल भाव का सुंदर समन्वय है। सुनने में भावोक्ति भरी बेहतरीन रचना है।

हाइकु में दो वाक्यों के बीच विभेदक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इसे अंग्रेजी में कटमार्क कहते हैं। इससे दो वाक्यों को अलग-अलग दर्शाया जाता है । इसे हम दो वाक्यों का विभाजक चिह्न कह सकते हैं।

इस तरह हाइबन में जिस बिंब या दृश्य की प्रथम भाग में रचना करते हैं उसे दूसरे भाग में हाइकू के रुप में लिख कर दृश्य रुप में साकार करते हैं। अंत में हाइकू नियमानुसार हाइकू विधा में लिखा जाता है। हाइबन के प्रथम भाग में कोई व्याख्या, रोचक वर्णन, लोककथा, लघुकथा, प्रेरक प्रसंग, दृश्य या कोई विवरण होता है । उसके बाद अंत में हाइकु की रचना की जाती है। इस संपूर्ण रचना को हाइबन कहते हैं। हाइबन लिखने में आपको पद्य और गद्य लिखने में माहिर होना पड़ता है। तभी यह प्रभावी बन पाता है।

इस रचनाकार का एक हाइबन देखकर आप इसे अच्छी तरह समझ सकते हैं । इस हाइबन का शीर्षक है- नभ की छवि । इसके द्वारा आप हाइबन को और स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे।

हाइबन—नभ में छवि

आठ वर्षीय समृद्धि बादलों को उमड़तीघुमड़ती आकृति को देखकर बोली, ” दादाजी ! वह देखो । कुहू और पीहू।” और उसने बादलों की ओर इशारा कर दिया।

बादलों में विभिन्न आकृतियां बन बिगड़ रही थी, ” हां बेटा ! बादल है ।” दादाजी ने कहा तो वह बोली, ” नहीं दादू , वह दादी है।” उसने दूसरी आकृति की ओर इशारा किया, ”  वह पानी लाकर यहां पर बरसाएगी।”

” अच्छा !”

” हां दादाजी, ”  कहकर वह बादलों  को निहारने लगी।

नभ में छवि~

दादाजी को दिखाए

दादी का फोटो।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 68 ☆ कोरोना काल और व्यंग्य लेखन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का समसामयिक  विषय पर आधारित रचनाकारों की मनोदशा दर्शाता आलेख  कोरोना काल और व्यंग्य लेखन। इस अत्यंत सार्थक  व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 68 ☆

☆ व्यंग्य – कोरोना काल और व्यंग्य लेखन ☆

कोरोना जैसे वायरस के लगभग 100 वर्षों के अंतराल में एक बार आने की आवृत्ति देखी गई है । विकिपीडिया के अनुसार 1820 मैं वैश्विक प्लेग के बाद 1920 में स्पेनिश फ्लू और अब 2020 में  कोरोना का प्रकोप दुनियाभर में है । इस वायरस ने सबको अचानक एकाकी कर दिया है ।

प्रायः रचनाकार के एकाकी मन में अभिव्यक्ति की छटपटाहट होती है

कोरोना काल का यह अत्यंत दुखद पहलू रहा की यह समय विसंगतियों से भरपूर है,अनायास बिना स्पष्ट प्लानिंग के टोटल लाकडाउन सुदूर गांवों तक लागू हुआ जो जहां था वहीं अटक गया ।

सारे देश मे सोनूसूद की जिजीविषा, गुरुद्वारों के लंगर की  जरूरत महसूस हो रही थी,  छोटे छोटे प्रयास हर शख्स ने किए भी, मध्यवर्ग ने अपनी कामवाली, माली, चौकीदार,ड्राइवर को बिना काम वेतन दिए, सरकार ने भी उनकी समझ में बहुत कुछ किया पर यह सब नाकाफी सिध्द हो रहा है, देश, परिवार, संस्थाओं की आर्थिक स्थितियां गड़बड़ा गई हैं ।

व्यंग्यकार जो हर छोटी बडी घटना पर लिखता है, इस सब परिवेश पर चुप रह ही नही सकता, फिर खाली समय ने अतिरिक्त सहयोग किया ।

स्वयं मैंने लाकडाउन शीर्षक से एक व्यंग्य संकलन वैश्विक स्तर पर संकलित किया जो छपने को है, व्यक्तिगत स्तर पर अनेक व्यंग्य लिखे जो कोरोना की वैश्विक विसंगतियों पर केंद्रीय भाव के  साथ हैं।

इस परिचर्चा के संदर्भ में आशय यही है कि कोरोना जनित अभूतपूर्व स्थितियो में व्यंग्यकर्मियो के लिए असीमित कैनवास पर अपने अपने अनुभवों के आधार मनचाहे चित्रांकन के अवसर को हम व्यंग्य यात्रियों ने यथासम्भव सकारात्मक तरीके से उपयोग किया है ।

लेखन, प्रकाशन हमारी इसी ऊर्जा का सुपरिणाम है ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 41 – बापू के संस्मरण-15- काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए ……… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए ……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 41 – बापू के संस्मरण – 15 – काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए ………

 नहाते समय गांधीजी साबुन का प्रयोग नहीं करते थे । अपने पास एक खुरदरा पत्थर रखते थे।  वर्षों पहले मीराबहन ने उन्हें यह पत्थर दिया था । नोआखाली की यात्रा के समय एक बार पत्थर संयोग से पिछले पड़ाव पर छूट गया । उस समय मनु गांधीजी के साथ रहती थी । स्नानघर में जब उसने गांधीजी से कहा, बापूजी, नहाते समय आप जिस पत्थर का प्रयोग करते हैं, वह मैं कहीं भूल आई हूं । कल जिस जुलाहे के घर ठहरे थे, शायद वह वहीं छूट गया है । अब क्या करूं?”

गांधीजी कुछ देर सोचते रहे । फिर बोले, तुझसे गलती हुई, तू उस पत्थर को खुद खोजकर ला।”

सुनकर मनु सकपका गई। फिर झिझकते हुए पूछा,”गांव में बहुत से स्वयंसेवक हैं, उनमें से किसी को साथ ले जाऊं?”

बापू ने पूछा, “क्यों?”

मनु को क्रोध आ गया । बापूजी सब कुछ जानते हैं, फिर भी पूछते हैं. यहां नारियल और सुपारी के घने जंगल हैं । अनजान आदमी तो उसमें खो जाये । फिर ये तूफान के दिन हैं । आदमी, आदमी का गला काटता है। आदमी, आदमी की लाज लूटता है। राह एकदम वीरान और उजाड़ है । उस पर कोई अकेले कैसे जाये? मगर भूल जो हुई थी। उसने क्यों का कोई जवाब नहीं दिया । किसी को साथ भी नहीं लिया, अकेली ही उस राह पर चल पड़ी । कांप रही थी, पर उसके कदम आगे बढ़ रहे थे। पैरों के निशान देखती जाती थी, रामनाम लेती जाती थी और चलती जाती थी । आखिर वह उस जुलाहे के घर पहुंच गई । उस घर में उस वक्त केवल एक बुढ़िया रहती थी । वह क्या जाने कि वह पत्थर कितना कीमती था । शायद उसने तो उसे फेंक दिया था । मनु इधर-उधर ढ़ूंढने लगी। आखिर वह मिल गया । मनु के आनंद का पार न रहा ।  खुशी-खुशी लौटी ।

डेरे पर पहुंचते-पहुंचते एक बज गया । जोर की भूख लग आई थी और इस बात का दुख भी था कि इस भूल के कारण वह अपने बापू की सेवा से वंचित रह गई । इसीलिए वह उन्हें पत्थर देते समय रो पड़ी । उसे समझाते हुए गांधीजी बोले, “इस पत्थर के निमित्त आज तेरी परीक्षा हुई । इसमें तू पास हुई । इससे मुझे कितनी खुशी हो रही है । यह पत्थर मेरा पच्चीस साल का साथी । जेल में, महल में, जहां भी मैं जाता हूं, यह मेरे साथ रहता है । अगर यह खो जाता तो मुझे और मीराबहन को बहुत दुख होता ।

तूने आज एक पाठ सीखा । ऐसे पत्थर बहुत मिल जायेंगे, दूसरा ढ़ूंढ लेंगे, इस खयाल से बेपरवाह नहीं होना चाहिए । काम की हर चीज को संभालकर रखना सीखना चाहिए।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बुंदेली दिवस विशेष – बुंदेली और बुंदेली विद्वानो को सुप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

बुंदेली दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।

स्व डॉ पूरन चंद श्रीवास्तव जी के 104 वे जन्म दिवस  पर उन्हें सादर नमन।  इसअवसर पर प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विशेष आलेख बुंदेली और बुंदेली विद्वानो को सुप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता”।  विदित हो कि स्व डॉ पूर्ण चंद श्रीवास्तव जी का जन्मदिवस बुंदेली दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस समसामयिक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ बुंदेली दिवस विशेष – बुंदेली और बुंदेली विद्वानो को सुप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता ☆

ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं,उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है. उनकी ख्‍याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है,  उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है.

बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है. यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं. बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं. प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में  बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ  है. बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है. वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं. इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं. भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है.  सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं. जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी. पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है. बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है.  बुंदेली की अपनी चाल,  प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है. भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी. आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन, संपन्न, बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है. आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है. क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं.

ऐसी लोकभाषा के उत्थान, संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों,संस्थाओ, पढ़े लिखे विद्वानो के  द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे. बुंदेली में कार्यक्रम हों. जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे, वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध, अपनापन ली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो. प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद, गुंजन कला सदन, वर्तिका जैसी संस्थाओ ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है. प्रति वर्ष १ सितम्बर को स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सुअवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं. स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस को बुंदेली दिवस के रूप में मनाया जाता है।

आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक, कवि, शिक्षाविद स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व, विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाना चाहिए. जमाना इंटरनेट का है. इस कोरोना काल में सांस्कृतिक आयोजन तक यू ट्यूब, व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं, किंतु बुंदेली के विषय में, उसके लेखकों, कवियों, साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है.

स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी का जन्म १ सितम्बर १९१६ को ग्राम रिपटहा, तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था. कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है, उन्होने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी, और पी एच डी की उपाधि अर्जित की. वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्रापत करते हुये प्राचार्य पद से १९७६ में सेवानिवृत हुये. यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था. पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे. बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था. उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा. रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं. वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं. रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है. भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है. भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तके लिखि, जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं. इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण, शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख, साक्षात्कार, अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं. मिलन, गुंजन कला सदन, बुंदेली साहित्य परिषद, आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं. वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नही माना जाता था, एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे.

उनके कुछ चर्चित बुंदेली  गीत उधृत कर रहा हूं…

कारी बदरिया उनआई……. ️

कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार .

सोंधी सोंधी धरती हो गई,  हरियारी मन भाई,खितहारे के रोम रोम में,  हरख-हिलोर समाई .ऊम झूम सर सर-सर बरसै,  झिम्मर झिमक झिमकियाँ .लपक-झपक बीजुरिया मारै,  चिहुकन भरी मिलकियां. रेला-मेला निरख छबीली- टटिया टार दुवार,कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार .

औंटा बैठ बजावै बनसी,  लहरी सुरमत छोरा .  अटक-मटक गौनहरी झूलैं,  अमुवा परो हिंडोरा .खुटलैया बारिन पै लहकी,  त्योरैया गन्नाई .खोल किवरियाँ ओ महाराजा  सावन की झर आई  ऊँचे सुर गा अरी बुझाले,  प्रानन लगी दमार,कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार .

मेंहदी रुचनियाँ केसरिया,  देवैं गोरी हाँतन .हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं  भादों कारी रातन .माती फुहार झिंझरी सें झमकै  लूमै लेय बलैयाँ-घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें,  प्यारी लाल मुनैयाँ .हुलक-मलक नैनूँ होले री,  चटको परत कुँवार,कारी बदरिया उनआई,  हाँ काजर की झलकार .

इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है.

इसी तरह उनकी  एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उनहोंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है.

बिसराम घरी भर कर लो जू…————-

बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,ढील ढाल हर धरौ धरी पर,  पोंछौ माथ पसीना .तपी दुफरिया देह झांवरी,  कर्रो क्वांर महीना .भैंसें परीं डबरियन लोरें,   नदी तीर गई गैयाँ .बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां .

सतगजरा की सोंधी रोटीं,  मिरच हरीरी मेवा .खटुवा के पातन की चटनी,  रुच को बनों कलेवा .करहा नारे को नीर डाभको,  औगुन पेट पचैयाँ .बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां .

लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें,  एजू डीम-डिगलियां .हफरा चलत प्यास के मारें,  बात बड़ी अलभलियां .दया करो निज पै बैलों पै,  मोरे राम गुसैंयां .बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां .

 वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे. सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे.

अकल-विकल हैं प्रान राम के—————-

अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ .फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,  करें झाँवरी मुइयाँ .

पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें,  बरसज साज बहेरा .धवा सिहारू महुआ-कहुआ,  पाकर बाँस लमेरा .

वन तुलसी वनहास माबरी,  देखी री कहुँ सीता .दूब छिछलनूं बरियारी ओ,  हिन्नी-मिरगी भीता .

खाई खंदक टुंघ टौरियाँ,   नादिया नारे बोलौ .घिरनपरेई पंडुक गलगल,  कंठ – पिटक तौ खोलौ  .ओ बिरछन की छापक छंइयाँ,  कित है जनक-मुनइयाँ ?अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ .

उपटा खांय टिहुनिया जावें,  चलत कमर कर धारें .थके-बिदाने बैठ सिला पै,  अपलक नजर पसारें .

मनी उतारें लखनलाल जू,  डूबे घुन्न-घुनीता .रचिये कौन उपाय पाइये,  कैसें म्यारुल सीता .

आसमान फट परो थीगरा,  कैसे कौन लगावै .संभु त्रिलोचन बसी भवानी,  का विध कौन जगावै .कौन काप-पसगैयत हेरें,  हे धरनी महि भुंइयाँ .अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ .

बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है, अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं, समय की मांग है कि स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानो को उनका समुचित श्रेय व स्थान, प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #60 ☆ सेल्फ क्वारंटीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – सेल्फ क्वारंटीन ☆

लॉकडाउन आरम्भ हुआ। पहले लगा, थोड़े समय की बात है। फिर पूर्णबंदी की अवधि बढ़ती गई। अनेकजन को लगता था कि यूँ समय कैसे कटेगा?

समय बीतता गया। कभी विचार किया कि इस समय को बिताने(!) में आभासी दुनिया का कितना बड़ा हाथ रहा! वॉट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, टेलिग्राम पर कितना समय बीता। ब्लॉगिंग, मेलिंग और ऑनलाइन मीटिंग एपस् ने कितना समय लिया। फिर आभासी दुनिया से ऊब हो चली। जान लिया कि हरेक स्वमग्न है यहाँ। आभासी की खोखली वास्तविकता समझ आने लगी।

विडंबना यह है कि जिसे वास्तविक दुनिया समझते हो, वह भी ऐसी ही आभासी है।

सफलता, पद, प्रतिष्ठा, धन, संपदा, लाभ पाने की इच्छा, यही सब छिपा है इस आभास में भी। तुमसे थोड़ी मात्रा में भी लाभ मिल सकने की संभावना बनती है तो जमावड़ा है तुम्हारे इर्द-गिर्द। …और जमावड़े की आलोचना क्यों करते हो, ध्यान से देखो, तुम भी वहीं डटे हो जहाँ से कुछ पा सकते हो। तुम अलग नहीं हो। वह अलग नहीं है। मैं अलग नहीं हूँ। सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। सारे के सारे स्वमग्न!

मानसिक व्याधि है स्वमग्नता। है कोई कुछ नहीं पर सोचता है कि वह न हो तो जगत का क्या हो!

चलो प्रयोग करें। एक शब्द चलन में है इन दिनों,’क्वारंटीन’.., एकांतवास। कुछ दिन वास्तविक अर्थ में सेल्फ क्वारंटीन करो। विचार करो कि ऐसे कितने साथी हैं जो तन, मन, धन तीनों को खोकर भी तुम्हारा साथ दे सकेंगे? सिक्के को उलटकर अपना विश्लेषण भी इसी कसौटी पर कर लेना। सारे रिश्तों की पोल खुल जाएगी।

स्वमग्नता से बाहर आने का मार्ग दिखाया है आपदा ने। अभी भी समय है चेतने का। अपने यथार्थ को जानने-समझने का। आभासी से वास्तविक में लौटने का।

जगत में ऐसे रहो जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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