श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
दुखद और विसंगत स्थिति यह है कि एक वर्ग 15 अगस्त को ‘फलां देश में ये है, फलां देश में ये है जबकि इस देश में…’ ( मानो वह इस देश का नागरिक न हो) जैसी अव्यवहार्य तुलना से हीनभावना का शिकार हो रहा होता है। अपने ही देश की खामियों को इंगित करने वाली कविताओं की 15 अगस्त और 26 जनवरी के आसपास सोशल मीडिया पर बाढ़ आ जाती है। जैसे हमारा देश दुनिया का ऐसा टापू हो जिसे सूर्य ने छुआ न हो और सब तरफ अंधेरा पसरा हो।
किसी भी देश की व्यवस्था में चाहे वह कितना ही उन्नत क्यों न हो, कुछ कमियाँ अवश्य होती हैं। दुनिया को सबसे ज़्यादा हथियार बेचने वाला महाशक्ति अमेरिका, हथियारों के जंजाल में ऐसा फँसा है कि उसके विद्यालयों में उसीके छात्र, लाइसेंसशुदा बंदूकों से एक-दूसरे का रक्त बहा रहे हैं और व्यवस्था लाचार है। इसी तरह किसी देश की, चाहे वह कितना ही पिछड़ा हुआ क्यों न हो, कुछ अच्छाइयाँ अवश्य होती हैं। पाकिस्तान जैसे पिछड़े देश में सड़क दुर्घटना या भावावेश में हुए कुछ अपराधों में पीड़ित पक्ष को परस्पर सहमति के आधार पर ‘एलिमनी’ या हर्जाना देकर अपराध से मुक्त होने का प्रावधान है। पीढ़ियों के वैमनस्य और अनंत न्यायिक प्रक्रिया से तो कुछ मायनों में यह बेहतर है।
खामियाँ गिनाने से नहीं, उसके लिए साधे जाने वाले समय से असहमति है। 364 दिन दरकिनार कर एक दिन ही देश की कमियाँ याद आना क्या इंगित करता है? सनद रहे कि सोहर के समय मर्सिया नहीं बाँचा जाता।
स्वाधीनता दिवस सोहर गाने का दिन है। इस सोहर के नए बोल प्रसिद्ध साहित्यकार अमृता प्रीतम ने लिखे थे। अमृता ने विदेश से इमरोज़ को लिखे ख़त में कहा था, ”यदि एक वाक्य में बताना हो कि मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी अहमियत क्या है तो मैं कहूँगी- इमरोज़, तू 15 अगस्त है मेरी ज़िंदगी की।”
15 अगस्त यानि स्वाधीन देश में वैचारिक स्वाधीनता के उन्मुक्त गगन में विचरण कर सकने के अधिकार पर अधिकृत मोहर। एक व्यक्ति से कहा गया कि कल्पना करो कि तुम रोटी और प्याज खा रहे हो। उसने कहा, कल्पना ही करनी है तो मैं पूड़ी और राजभोग की करुँगा। ‘मेन इज़ अ प्रॉडक्ट ऑफ हिज़ थॉट्स।’ देश के नागरिकों की जो सोच होगी, वही देश की सोच बनेगी। युद्ध के मैदान में सेना की टुकड़ी के हर जवान की सोच होती है कि सबसे पहले देश, सबसे अंत में मैं। यही सोच मनोबल बढ़ाती है, लक्ष्य को बेधती है, सेना को अजेय बनाती है। सेना की टुकड़ी एक उदाहरण है। इस मॉडेल को देश पर लागू करने में आने वाली कठिनाइयाँ गिनाना इसका हल नहीं है। कठिनाइयाँ कहाँ नहीं हैं? अपने कलेजे के टुकड़े को ममत्व से स्तनपान कराने वाली माँ को भी बच्चे के काटने से कठिनाई है। घर्षण न हो तो वाहन चलाने में कौनसा कौशल बचा रहेगा? गुरुत्वाकर्षण न हो तो आकाश में उड़ने का साहस किस काम का रहेगा? कठिनाई न होगी तो पराक्रम का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। पराक्रम से ही मिलती है स्वाधीनता।
स्वाधीनता दिवस देश की आबादी का सामूहिक जन्मदिन है। आइए, सामूहिक जन्मोत्सव मनाएँ, सबको साथ लेकर मनाएँ। इस अनूठे जन्मोत्सव का सुखद विरोधाभास यह कि जैसे-जैसे एक पीढ़ी समय की दौड़ में पिछड़ती जाती है, उस पीढ़ी के अनुभव से समृद्ध होकर देश अधिक शक्तिशाली और युवा होता जाता है।
देश को निरंतर युवा रखना देशवासी का धर्म और कर्म दोनों हैं। चिरयुवा देश का नागरिक होना सौभाग्य और सम्मान की बात है। हिंद के लिए शरीर के हर रोम से, रक्त की हर बूँद से ‘जयहिंद’ तो बनता ही है।
जयहिंद!
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603