( आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्रीमती समीक्षा तैलंग जी का गंभीर चिंतन से उपजा एक विचारणीय ललित लेख गहराते श्याम वर्ण की उजास।)
☆ ललित लेख ☆ गहराते श्याम वर्ण की उजास☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆
आज सुबह ऊपरवाले ने क्या खूब कूची चलाई कि आसमान में कहीं रंग हल्के तो कहीं गाढे थे। हल्का नीला आंखों को शीतलता और तरोताजा कर रहा था। गाढा नीला रंग उसके बीच अपना अस्तित्व दिखा रहा था। सारे हल्के रंग मिलकर ही तो गाढा रंग बनाते हैं। जैसे जीवन के रंग…!!
सुनहरी छटा को बीच-बीच में कुछ छिड़क-सा दिया था। हां, यही सुनहरा चाहते हैं ना हम सब। धुंधलके से उजला होता। धीमा पडता स्याह रंग।
वह द्रव्य भी तो श्याम ही है जिसमें धरती समाहित है। लेकिन उस श्याम को वरण करना इतना ही आसान होता तो उसमें हम सब समा जाते। खुद को समर्पित कर देते उस श्याम में।
लेकिन हमारी आंखों की चमक सुनहरेपन से हमेशा ही आकर्षित होती है। हम भागते हैं उसके पीछे। लेकिन श्याम तो हमारे जीवन का मुख्य रंग है। उसे हम आंखें मूंदकर भी महसूस कर सकते हैं। उसी में प्रस्फुटित होता है ये सुनहरापन। और यही हमेशा शाश्वत रहता है।
काले में सुनहरा ढूंढना हरेक के बस की बात नहीं होती। इसीलिए हमारे अपने हाथों में भी वही कूची दे दी जन्मदाता ने। ऊपरवाला रंगों से परिचय करा देता है। लेकिन जीवन के कैनवस पर उसे भरने के लिए यही कूची काम आती है।
हम यदि उन रंगों के मार्फत उसका संदेश समझ पाते हैं तो हम सही रंगों का संतुलित सम्मिश्रण कर उससे अपनी जन्मकुंडली में निखार लाते हैं। बस रंगों की गहराई को समझना ही तो जीवन है।
जिस दिन श्याम को समझ जाएंगे, जीवन उजास हो जाएगा। प्रकृति ने अपनी रंगीन छटा में मुझे आकृष्ट कर लिया। और अब उसने अपना सुनहरा रूप दिखाना शुरू कर दिया है।
नात्यातली वीण ” “नाते”दोनच अक्षरी शब्द.मनामनांना जोडणारा. स्नेह, प्रेम, आपुलकी, जवळीक दर्शविणारा. जन्मल्याबरोबर आई-वडिलांबरोबर रक्ताच्या नात्याचे बंध निर्माण होतात. त्यानंतर मूल जसजसे मोठे होत जाते तसतसा त्याचा/तिचा भाऊ, बहिण, आजी आजोबा, काका-काकू, मावशी, आत्या इ. अनेक नात्यांशी परिचय होऊ लागतो. आईच्या स्पर्शातून मायाच पाझरते. म्हणूनच आपण मोठे झालो तरी ठेच लागली किंवा काही दुखले-खुपले तरी “आई ग” असेमहणतो. राव रंक सर्वांसाठी हे नातेसमान असते. पिता कठोर असतो तर दोघेही अपत्याच्या भल्यासाठी झटतात. आई वडिलांच्या संस्कारांची शिदोरी घेऊन आपण वाटचाल करतो.
बंधुप्रेमाचे उदाहरण घ्यायचे झाले तर राजसिंहासनावर श्रीरामांच्या पादुका स्थापून स्वतः पर्णकुटीत राहणारा भरत आठवतो. राखीचा एक धागा बहिणीने बांधला कि भाऊराया तिच्या प्रेमात बद्ध होतो. तिचा रक्षणकर्ता होतो, पाठीराखा बनतो.रक्ताचे नाते नसले तरीही काही वेळा हे नाते मनाने स्वीकारलेले असते. महाभारतात श्रीकृष्ण दौपदीशी असाच जोडलेला दिसतो. इतका कि वस्त्रहरणाच्या बाक्या प्रसंगी त्याने तिचे नव्हे तर समस्त स्त्रीजातीचे लज्जारक्षण केले असे म्हणावे वाटते.
समाजात वावरताना जेंव्हा परस्परांची. वेव्हलेंग्थ दोघांना आक्रुष्ट करते तेव्हा प्रियकर प्रेयसीचे नाते निर्माण होते.हे आगळेच. संमती ने किंवा संमतीशिवाय ही ते दोघे पती पत्नीत रुपांतरित होतात. नि वीण घट्ट बनते.
.. परंतु काही वेळा रक्ताच्या नात्याच्या पलिकडचे असे एक जिवाभावाचे नाते आपण पाहतो, अनुभवतो. ते नाते म्हणजे मैत्रीचै. म्हणूनच” पसायदानात” ज्ञानेश्वर माउली म्हणतात भूतां परस्परे जडो। मैत्र जीवाचे।
इथं भूत म्हणजे फक्त कुटुंबिय नाहीत तर परिसरातील किंबहुना अखिल विश्वातील पशु; पक्षी, प्राणी, वनस्पती यांच्याशी सुद्धा आपण मैत्र साधले पाहिजे. “वसुधैव कुटुंबकम्” म्हणजे हे विश्वचि माझे घर अशी भावना असली तरच आपण नातेसंबंध टिकवु शकतो. शुद्ध हवा, शुद्ध पाणी देणारा नि अन्न ,वस्त्र, निवारा या गरजा पूर्ण करणारा निसर्ग हा आपला सर्वात जवळचा मित्र आहे. संत तुकाराम म्हणतात “व्रुक्ष वल्ली आम्हां सोयरे वनचरे.”
सर्वात शेवटी यम्हणावे वाटते कि मानवतेचे अर्थाने माणुसकीचे नाते सर्वश्रेष्ठ आहे. गुरू-शिष्य, रुग्ण-डॉक्टर हे मानवतेच्या नात्याने जोडले आहेत.
इथं विश्वासाची गरज असते. म्हणूनच असे हे परस्परांना जोडणारे नाते संबंध स्नेहबंध ठरतात नि म्हणावे वाटते
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुकरणीय सीख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 94 ☆
☆ अनुकरणीय सीख ☆
‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। इस बात को जितनी जल्दी मान लोगे, ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी’ अब्दुल कलाम जी की यह सीख अनुकरणीय है। आप अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं, क्योंकि जैसे कर्म आप करते हैं, वैसा ही फल आपको प्राप्त होता है। सो! आप के कर्मों के लिए दोषी कोई अन्य कैसे हो सकता है? वैसे दोषारोपण करना मानव का स्वभाव होता है, क्योंकि दूसरों पर कीचड़ उछालना अत्यंत सरल होता है। दुर्भाग्य से हम यह भूल जाते हैं कि कीचड़ में पत्थर फेंकने से उसके छींटे हमारे दामन को भी अवश्य मलिन कर देते हैं और जितनी जल्दी हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाती है। वास्तव में मानव ग़लतियों का पुतला है, परंतु वह दूसरों पर आरोप लगा कर सुक़ून पाना चाहता है, जो असंभव है।
‘विचारों को पढ़कर बदलाव नहीं आता, विचारों पर चलकर आता है।’ कोरा ज्ञान हमें जीने की राह नहीं दिखाता, बल्कि हमारी दशा ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ व ‘थोथा चना, बाजे घना’ जैसी हो जाती है। जब तक हमारे अंतर्मन में चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं होती, हमारा भटकना निश्चित् है। इसलिए हमें कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उसके सभी पक्षों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। यदि हम तुरंत निर्णय दे देते हैं, तो उलझनें व समस्याएं बढ़ जाती हैं। इसलिए कहा गया है ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ क्योंकि जिह्वा से निकले शब्द व कमान से निकला तीर कभी लौटकर नहीं आता। द्रौपदी का एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ महाभारत के युद्ध का कारण बना। वैसे शब्द व वाक्य जीवन की दिशा बदलने का कारण भी बनते हैं। तुलसीदास व कालिदास के जीवन में बदलाव उनकी पत्नी के एक वाक्य के कारण आया। ऐसे अनगिनत उदाहरण विश्व में उपलब्ध हैं। सो! मात्र अध्ययन करने से हमारे विचारों में बदलाव नहीं आता, बल्कि उन्हें अपने जीवन में धारण करने पर उसकी दशा व दिशा बदल जाती है। इसलिए जीवन में जो भी अच्छा मिले, उसे अपना लें।
अनुमान ग़लत हो सकता है, अनुभव नहीं। यदि जीवन को क़ामयाब बनाना है, तो याद रखें – ‘पांव भले ही फिसल जाए, ज़ुबान को कभी ना फिसलने दें।’ अनुभव जीवन की सीख है और अनुमान मन की कल्पना। मन बहुत चंचल होता है। पल-भर में ख़्वाबों के महल सजा लेता है और अपनी इच्छानुसार मिटा डालता है। वह हमें बड़े-बड़े स्वप्न दिखाता है और हम उन के पीछे चल पड़ते हैं। वास्तव में हमें अनुभव से काम लेना चाहिए; भले ही वे दूसरों के ही क्यों न हों? वैसे बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव से सीख लेते हैं और सामान्य लोग अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं। परंतु मूर्ख लोग अपना घर जलाकर तमाशा देखते हैं। हमारे ग्रंथ व संत दोनों हमें जीवन को उन्नत करने की सीख देते और ग़लत राहों का अनुसरण करने से बचाते हैं। विवेकी पुरुष उन द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलकर अपना भाग्य बना लेते हैं, परंतु अन्य उनकी निंदा कर पाप के भागी बनते हैं। वैसे भी मानव अपने अनुभव से ही सीखता है। कबीरदास जी ने भी कानों-सुनी बात पर कभी विश्वास नहीं किया। वे आंखिन देखी पर विश्वास करते थे, क्योंकि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती और उसका पता हमें उसे परखने पर ही लगता है। हीरे की परख जौहरी को होती है। उसका मूल्य भी वही समझता है। चंदन का महत्व भी वही जानता है, जिसे उसकी पहचान होती है, अन्यथा उसे लकड़ी समझ जला दिया जाता है।
यदि नीयत साफ व मक़सद सही हो, तो यक़ीनन किसी न किसी रूप में ईश्वर आपकी सहायता अवश्य करते हैं और आपकी चिंताओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करते जाओ; आपका कभी भी बुरा नहीं होगा। यदि हमारी नीयत साफ है अर्थात् हम में दोग़लापन नहीं है; किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं है, तो वह हर विषम परिस्थिति में आपकी सहायता करता है। हमारा लक्ष्य सही होना चाहिए और हमें ग़लत ढंग से उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। यदि हमारी सोच नकारात्मक होगी, तो हम कभी भी अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाएंगे; अधर में लटके रह जाएंगे। इसके साथ एक अन्य बात की ओर भी मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमारे पांव सदैव ज़मीन पर टिके रहने चाहिए। इस स्थिति में हमारे अंतर्मन में अहं का भाव जाग्रत नहीं होगा, जो हमें सत्य की राह पर चलने को प्रेरित करेगा और भटकन की स्थिति से हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव हमें वस्तुस्थिति व व्यक्ति का सही आकलन नहीं करने देता, बल्कि हम दूसरों को स्वयं से हेय समझने लगते हैं। अहं दौलत का भी भी हो सकता है; पद-प्रतिष्ठा व ओहदे का भी हो सकता है। दोनों स्थितियां घातक हैं। ये मानव को सामान्य व कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं रहने देती। हम दूसरों पर आधिपत्य स्थापित कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। पैसा बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं: अच्छे कपड़े दे सकता है, सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। सो! दौलत पर कभी भी ग़ुरूर नहीं करना चाहिए।
अहंकार व संस्कार में फ़र्क होता है। अहंकार दूसरों को झुकाकर खुश होता है; संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। इसलिए बच्चों को सुसंस्कृत करने की सीख दी जाती है; जो परमात्मा में अटूट आस्था, विश्वास व निष्ठा रखने से आती है। तुलसीदास जी ने भी ‘तुलसी साथी विपद् के, विद्या, विनय, विवेक’ का संदेश दिया है। जब भगवान हमें कठिनाई में छोड़ देते हैं, तो विश्वास रखें कि या तो वे तुम्हें गिरते हुए थाम लेंगे या तुम्हें उड़ना सिखा देंगे। प्रभु की लीला अपरंपार है, जिसे समझना अत्यंत कठिन है। परंतु इतना निश्चित है कि वह संसार में हमारा सबसे बड़ा हितैषी है। इंसान संसार में भाग्य लेकर आता है और कर्म लेकर जाता है। अक्सर लोग कहते हैं कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। परंतु वह अपने कृत-कर्म लेकर जाता है, जो भविष्य में उसके जीवन का मूलाधार बनते हैं। इसलिए रहीम जी कहते हैं कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।’
सो! संसार में मन की शांति से बड़ी कोई संपत्ति नहीं है। महात्मा बुद्ध शांत मन की महिमा का गुणगान करते हैं। ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्कारियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ़ दिल से होता है।’ इसलिए मानव को ऐसे लोगों से सचेत व सावधान रहना चाहिए, जिनका ‘तन उजला और मन मैला’ होता है।’ ऐसे लोग कभी भी आपके मित्र नहीं हो सकते। वे किसी पल भी आपकी पीठ में छुरा घोंप सकते हैं। ‘भरोसा है तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलते हैं।’ इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न कीजिए; ज़िंदगी छोटी हो जाती है। गुस्से के वक्त रुक जाना/ ग़लती के वक्त झुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद।’ हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ की तरह मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की कद्र करें; वे भाग्य से मिलते हैं। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि मानव स्वयं अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है और इस तथ्य को स्वीकारना ही बुद्धिमानी है, महानता है। सो! अपनी सोच, व्यवहार व विचार सकारात्मक रखें, यह ही आपके भाग्य-निर्माता हैं।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख “राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें”.)
☆ किसलय की कलम से # 46 ☆
☆ राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें ☆
भारत एक विशाल देश है। विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं, परंतु सभी भाषाओं की धरोहर भारतीय संस्कृति ही है। प्रत्येक भाषा में रामायण और महाभारत के ग्रंथ उपलब्ध हैं। विभिन्न भाषाओं में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही विषय पर साहित्य उपलब्ध होना कोई नई बात नहीं है। यही कारण है कि अपनी मूल भाषा की उन्नति के लिए क्षेत्रीय लोगों का उद्वेलित होना एक सीमा तक उचित प्रतीत होता है। हर व्यक्ति अपनी समृद्धि के रक्षार्थ हद से आगे जा सकता है। हिन्दी को लेकर भी कुछ इसी तरह का विरोध समझ में आता है परंतु इसमें क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले कितने दोषी हैं। यह एक चर्चात्मक विषय है। इसके लिए शासन की कमजोरियाँ एवं प्रचार-प्रसार का गलत नजरिया भी दोषी है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों को शायद ऐसा भ्रम होने लगता है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार से कहीं वे अपनी भाषा ही को न खो बैठें। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज हिन्दी के अतिरिक्त सभी अन्य भाषा बोलने वाले लोगों का झुकाव गुरोत्तर अंग्रेजी की ओर होने लगा तथा शासन द्वारा लगातार की जा रही उपेक्षा आग में घी का काम कर रही है। आज देश के प्रत्येक शिक्षित एवं समृद्ध वर्ग की संस्कृति इंग्लिश, हिन्दी एवं अंग्रेजी का मिश्रण होती जा रही है। आज उच्च वर्ग का आधार अंग्रेजियत से भी जोड़ा जाता है। इस परिवेश में हिन्दी की सार्थकता पर चिंतित होना स्वाभाविक है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक सर्वसम्मत भाषा होती है, जिसका आदर एवं प्रचार-प्रसार करना प्रत्येक देशवासी का कर्त्तव्य होना चाहिए। आज हमारे देश में राष्ट्रभाषा के नाम पर स्वीकृत हिन्दी अपने आपको यथोचित स्थान पर स्थापित करने में असमर्थता का अनुभव करती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राष्ट्र स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती तक पहुँचकर भी हिन्दी की प्रगति नहीं कर सकता। आज हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि साहित्य तकनीकी एवं चिकित्सकीय क्षेत्र में भी हिन्दी बहुत आगे निकल गई है। हिन्दी शब्दकोष विशाल से विशालतम हो गया है। प्रत्येक हिन्दी भाषी को उसकी सार्थकता का अनुभव देश-विदेश में होने लगा है। यह अक्षरतशः सत्य है कि हिन्दी अब किसी भी विदेशी भाषा से कमजोर नहीं है। इतनी समर्थ भाषा का सर्वसम्म6 राष्ट्रभाषा बनने की असमर्थता निश्चित रूप से कुछ लोगों की अदूरदर्शिता के अलावा और कुछ नहीं है , क्योंकि संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि किसी भी प्रादेशिक भाषा का विकास भी उतना ही आवश्यक है । जितना कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का सर्वांगीण विकास। आज समय की मांग है कि भारत की सुख-समृद्धि चाहने वाला प्रत्येक भारतवासी सारे भ्रम दूर कर अपनी भाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी विकास एवं प्रचार-प्रसार करे तभी हिन्दी की सार्थकता में चार चाँद लग सकेंगे।
अंततः यह कहना उचित होगा कि चाहे राष्ट्र की प्रगति का प्रश्न हो या जन जागृति का, प्रदेश की बात हो अथवा संपूर्ण राष्ट्र की, जब तक हिन्दी भारत की संपर्क भाषा के रूप में अंगीकृत नहीं की जाती तब तक इसकी वास्तविकता सार्थकता सिद्ध नहीं होगी और न ही विश्व समुदाय इसकी महत्ता स्वीकार करेगा।
वर्षातील ५२ रविवार पैकी कुठल्याही एका रविवारी हे वरील वाक्य एखाद्या घरात म्हणले गेले नसेल असे मला तरी वाटत नाही. रविवार अशा साठी की जरा निवांत, सुट्टीचा दिवस म्हणून. कुटुंबातील सदस्यांनी मिळून कपाट आवरणे हा एक छान कौटुंबिक सोहळा आहे असे माझे स्पष्ट म्हणणे.
म्हणजे बघा अश्विनी ते रेवती अशी २७ नक्षत्र आहेत. पूर्वी ‘अभिजीत ‘ नावाचे पण नक्षत्र मोजत पण आता हे नक्षत्र धरत नाहीत. नक्षत्र पुस्तकात प्रत्येक नक्षत्राची माहिती देताना या नक्षत्रावर एखादी गोष्ट हरवली तर ती मिळण्याचे ठोकताळे दिलेले आहेत. अभिजित नक्षत्रावर ही माहिती अर्थातच नाही. पण पूर्वी समजा या नक्षत्राची कुठे माहिती दिली असेल त्यात या नक्षत्रावर करायच्या कामात
‘कपाट आवरणे ‘ हे नक्की असावे असे माझे मन सांगतय.
अश्विनी ते रेवती नक्षत्रावर केंव्हाही तुमची गोष्ट हरवली असेल आणि तेंव्हा अगदी याच कपाटात, इथल्या ड्राँवर मधे, कप्प्यांमधे कितीही वेळेला तुम्ही शोधली असली तरी आजच्या ‘चला कपाट आवरु या ‘ अभिजात मुहूर्तावर मात्र ही मिळण्याची खूप म्हणजे खूप म्हणजे खूपच शक्यता असते.
तर अधून मधून असं कपाट आवरणं हे जरी शास्त्र असले तरी
मागच्या वर्षी कपाट आवरताना नाही हे राहू दे, टाकू या नको म्हणून ठेवलेल्या गोष्टी या वर्षी कपाट आवरताना कच-याच्या ढिगात टाकणे ही एक मोठी कला आहे
कपाट आवरताना हातात आलेले मित्राने दिलेले वाढदिवसाचे ग्रिटींग बघून, छान स्माईल करुन परत त्याच जागी ठेवणे हा ” मैत्री धर्म ” आहे.
लहानपणीची ‘फोटो गँलरी’ आपलं
‘ फोटो अल्बम’ हातात आल्यावर चहाचा कप बाजूला ठेऊन शेवट पर्यतचे फोटो बघणे आणि कपाट आवरण्याच्या कार्यक्रमाला थोडा ब्रेक घेणे ही “नैतिक जबाबदारी” आहे.
गधडे/ गधड्या आँन लाईन क्लासला मिळत नव्हती ना ही वही ? कपाटात नीट बघ म्हणलेलं, शोधली नीट? नाही, आत्ता कशी मग आली? नीट बघायचंच नाही, हे माय लेकींचे / माय लेकांचे ( बर का मित्रों, आपण अशावेळी परत एकदा फोटो अल्बम बघायला काढायचा) संवाद हे “आवश्यक कर्तव्य ” आहे.
ती वही उघडताच आत मधे मिळालेली १०० रुपयाची नोट घेऊन आईला देऊन संध्याकाळी भेळ/ पाणीपुरी/ शेव पुरी ( छे असल्या गोष्टी संकष्टीलाच आठवतात नेमक्या) रुपी ‘अर्थपूर्ण सेटलमेंट’ आहे.
मागच्या वर्षी आवश्यक वाटणारी गोष्ट पण यावर्षी अचानक अनावश्यक कच-यात टाकून कपाट मस्त आवरलयं आता. एकदिवस संगणक, मोबाईल रुपी कपाटातील पण कचरा साफ करायचा आहे असाच. विनाकारण सेव्ह केलेल्या फाईल, फोटो, अँप सगळं साफ करायचं आहे
बघू सवड मिळाली तर याच पद्धतीने मनातील कपाटातील ही काही अनावश्यक कप्पे, विनाकारण सेव्ह केलेले विचार, पूर्वग्रह वेगैरे साफ करता आले तर!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक ऐतिहासिक जानकारी से ओतप्रोत आलेख – जल-जंगल -जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा। इस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 107 ☆
जल-जंगल-जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा
आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था. यह तब की बात है जब ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं. वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.
1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे, अकाल पड़ा, लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए. सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.
अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया. उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है, भितरघात और अपने ही किसी की लालच से, बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया. किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.
लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये. राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है. आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं.उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन.
☆ स्निग्ध जिव्हाळा तुझा लाभला (एक आस्वादन) – भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
(मागील भागात – त्यांच्या ‘ऋतु हिरवा ऋतु बारवा’ कळ्यांचे दिवस फुलांच्या राती’, ‘रुपेरी वाळूत माडांच्या बनात ये ना’, ‘सजणा का धरीला परदेश’, अशी किती तरी गीतं आपल्या कानात रुंजी घालू लागतात. आता इथून पुढे…..)
मेघदूत आणि त्रिवेणी
शांताबाईंच्या कवितांचा विचार त्यांच्या काव्यानुवादाच्या विचारांशीवाय अपुरा राहील. त्यांनी कालिदासाच्या ‘मेघदूता’चा आणि गुलजार यांच्या ‘त्रिवेणी’चा सुंदर अनुवाद केला आहे. अनुवाद करणं ही काही सोपी गोष्ट नाही. त्यातून काव्यानुवाद अधीकच दुरापस्त. केवळ आशयच नव्हे, भावाच्या सूक्ष्म छटा, त्याच्या रूपरंगपोतासहित दुसर्या भाषेत आणणं अवघड असतं. त्या भाषेच्या संस्कृतीशी ते समरसून जावं लागतं. शांताबाईंना हे छान जमून गेलय, याची प्रचीती मेघदूत आणि त्रिवेणी वाचताना येते.
मेघदूत
‘मेघदूत’ या खंडकाव्याची अनेकांप्रमाणे शांताबाईंना मोहिनी पडली. अनेकांनी ‘मेघदूता’चा मराठीत अनुवाद केलाय. अनेकांनी त्यावर गद्यातून प्रतिक्रिया व्यक्त केल्या आहेत. या सार्याचं वाचन, आपण अनावर ओढीनं केलं असं शांताबाई सांगतात. तरीही ‘मेघदूता’चा अनुवाद त्यांना करून बघावासा वाटला. या अनुवाद पुस्तकाच्या प्रारंभी त्या म्हणतात, ‘अनुवाद करून बघणे, हा माझा आनंद व छंद आहे. अनुवाद करून बघणे, हा मूळ कलाकृतीचा अधीक उत्कटतेने रसास्वाद घेण्याचा एक सुंदर मार्ग आहे.’ अशी आपली भूमिका त्यांनी स्पष्ट केलीय. वेगळं काही करायचं म्हणून नव्हे, कलाकृती अधिक समजून घेण्यासाठी त्यांनी हा अनुवाद केलाय. त्यांनी अपेक्षा केल्याप्रमाणे अतिशय ललित, मधुर असा हा अनुवाद, वाचकाच्या मनात मूळ संस्कृत काव्याचे वाचन करण्याची उत्सुकता निर्माण करणारा आहे. ही उत्सुकता निर्माण झाल्यावर, वाचकाला मूळ काव्यासाठी शोधाशोध करायला नको. अनुवादाच्या वर मूळ श्लोक दिलेलाच आहे.
त्रिवेणी
गुलजार हे हिंदीतील प्रतिभावंत लेखक, कवी. त्यांनी ‘त्रिवेणी’ हा कवितेचा एक नवीन रचनाबंध निर्माण केला. यात पहिल्या दोन पंक्तींचा गंगा-यमुनाप्रमाणे संगम होतो. आणि एक संपूर्ण कविता तयार होते पण या दोन प्रवाहाखालून आणखी एक नदी वाहते आहे. तिचे नाव सरस्वती. तिसर्या काव्यपंक्तीतून ही सरस्वती प्रगट होते. पहिल्या दोन काव्यपंक्तीतच ती कुठे तरी लपली आहे. अंतर्भूत आहे. शांताबाईंनी या ‘त्रिवेणी’चा अतिशय अर्थवाही, यथातथ्य भाव प्रगट करणारा नेमका अनुवाद केलाय. जीवनाचे, वास्तवाचे, यथार्थ दर्शन, चिंतन त्यातून प्रगट होते. त्यांची एक रचना जीवनावर कसे भाष्य करते पहा.
‘कसला विचित्र कपडा दिलाय मला शिवायला
एकीकडून खेचून घ्यावा, तर दुसरीकडून सुटून जातो
उसवण्या-शिवण्यातच सारं आयुष्य निघून गेले’
किंवा
‘चला ना बसू या गोंगाटातच, जिथे काही ऐकायला येत नाही
या शांततेत तर विचारही कानात सारखे आवाज करतात.
हे कंटाळवाणे पुरातन एकाकीपण सतत बडबडत असते.’
प्रियकर – प्रेयसीची नजारनजर त्यांचे एकटक बघणे आणि त्याच वेळी लोकं बघातील म्हणून तिला वाटणारा चोरटेपणा किती मनोज्ञपणे खाली व्यक्त झालाय.
‘डोळ्यांना सांग तुझ्या, इतक्या लोकात
मोठ्या आवाजात बोलू नका ना माझ्याशी
लोकांना माझे नाव ओळखू यायचे कदाचित’
अशीच आणखी एक कविता-
‘सांजेला जळणारी मेणबत्ती बघत होती वाट
अजून कसा कुणी पतंग आला नाही
असेल कुणी सवत माझी जवळच कुठे जळत’
या अशा कविता. त्यांच्यावर वेगळं भाष्य नकोच. वाचायच्या अन मनोमनी उमजून घ्यायच्या. जीवन-मृत्यूच्या संदर्भातले एक प्रगल्भ चिंतन पहा.
‘मोजून – मापून कालगणना होते वाळूच्या घड्याळात
एक बाजू रीती होते, तेव्हा घड्याळ पुन्हा उलटे करतात.
हे आयुष्य संपेल तेव्हा तो नाही असाच मला उलटे करणार?’
खरोखर शांताबाईंचा अनुवाद हा केवळ अनुवाद नसतोच. अनुसृजन असते ते!
गुलजारांनी ‘त्रिवेणी’ शांताबाईंना समर्पित करताना लिहिलय –
‘आप सरस्वती की तरह ही मिली
और सरस्वती की तरह गुम हो गई
ये ‘त्रिवेणी’
आप ही को अर्पित कर रहा हूँ।’
एका विख्यात, प्रतिभावंत कवीने शांताबाईंना ‘सरस्वती’ची उपमा दिली, ती काही केवळ सरिता- काव्यसरिता या मर्यादित अर्थाने नव्हे! नाहीच! सरस्वती विद्या कला यांची अधिष्ठात्री देवता. या सरस्वतीने आपला अंश शांताबाईंच्या जाणिवेत परावर्तित केलाय, असं वाटावं, इतकी प्रसन्न, प्रतिभासंपन्न कविता शांताबाईंची आहे. रसिक वाचकाला तिचा लळा लागतो. स्निग्ध जिव्हाळा जाणवतो.
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 96 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆
लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच ज़मीन की फरोख्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
साधारणपणे १९९२/९३ सालीची गोष्ट असावी! मी त्यावेळी तळेगाव दाभाडे (जि.पुणे) येथे वैद्यकीय अधिकारी होतो. मला साहित्याची आवड शाळेपासून होती.कविता पाठ करायला आवडायचे.शांता शेळके यांच्या कविता आमच्या मराठीच्या पुस्तकात होत्या.तळेगावातील” चंद्रकिरण काव्य मंडळ” या साहित्य विषयक कार्य करणाऱ्या मंडळाचा मी त्या वेळी अध्यक्ष होतो.एकदा तेथील एका संस्थेने शांता शेळके यांना एका कार्यक्रमासाठी बोलावले होते.त्या कार्यक्रमाला प्रमुख पाहुणे म्हणून मला बोलावले होते.मला अत्यंत आनंद झाला.मला १५ मि.बोलायचे असे सांगण्यात आले. ४ दिवस अवकाश होता.मी वाचनालयात गेलो व त्यांच्या निवडक कविता, भावगीते, चित्रपट गीते यांचा अभ्यास केला.भाषण शांताबाईंसमोर करायचे म्हणजे चांगली तयारी हवी.
कार्यक्रमाचा दिवस आला. शांताबाई वेळेवर आल्या. कार्यक्रमापूर्वी ओळख झाली. मी त्यांच्या पाया पडलो.
चहापाणी झाले. शांताबाईंबरोबर अनौपचारिक गप्पा झाल्या. माझे प्रस्ताविक भाषण झाले. त्यांचे भाषण ऐकताना आम्ही भारावून गेलो.आपली जुनी लोकगीते, त्यांची आवडती गाणी व कविता, प्रचंड वाचन आणि शब्दसंग्रह….सारेच अवाक् करणारे… त्यांनी “तारांबळ” हा शब्द कसा निर्माण झाला असावा ? हे फार मार्मिकपणे सांगितले. त्या म्हणाल्या,” लग्नामध्ये सगळ्यांची गडबड चालू असते, त्यावेळी भटजी ” तदेव लग्नं सुदिनं तदेव!” ताराबलं” दैवबलं तदेव….!!” असे म्हणत असतात. त्यावेळी ‘आमचं ताराबलं झालं’ (गडबड झाली)असं कोणीतरी म्हणाले असेल, त्यावरून हा शब्द रूढ झाला असावा”. ही एक आठवण..त्या म्हणाल्या,” पाच वर्षे वयाच्या मुलीलाही मी मैत्रीण समजते..मला तिच्याशी छान खेळता येतं. ” ही दुसरी आठवण.
मला भावला तो त्यांचा अत्यंत साधेपणा, ओघवती भाषा, गद्यातून पद्यात आणि पद्यातून गद्यात कधी, कशा जायच्या हे कळायचे नाही. त्यांचा सत्कार करण्याची संधी मला मिळाली, ही माझ्या आयुष्यातील achievement..! त्यांच्या सर्व प्रकारच्या आणि सर्व काळातील साहित्याचा अभ्यास अचंबित करणारा आहे.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 93 ☆
☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़☆
ग़लत सोच, ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो, स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।
ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत ख़तरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए, ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो सके।
मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी आप स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के इतर कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय वसुधैव कुटुंबकम् की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफल है।
सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख-दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और किसी को अपने समान नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु दु:ख में वह टूट जाता है और पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा कभी दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।
परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि यह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। उस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज़ से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना श्रेयस्कर है।