हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रिय मित्रों,

श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है  की श्रृंखलाबद्ध कड़ियों की अगली कड़ी का प्रकाशन कल से यथावत जारी रहेगा। पर्यावरण दिवस की महत्ता को देखते हुए इस लघु आलेख को आपसे साझा न कर पाना कदाचित अपने आप में अन्याय होगा।  

☆ संजय दृष्टि  ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆

(मित्रो!  पर्यावरण दिवस 5 जून 2020 के अवसर पर अपना एक  लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।)

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( 30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट। )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार 

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का बंजारा लोक गीतों के सांस्कृतिक अध्ययन पर एक शोधपरक आलेख बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन। यह आलेख आपको बंजारों के लोकगीतों के माध्यम से उनके जन-जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं से भी अवगत कराने का प्रयास करेगा। हम भविष्य में आपसे ऐसे ही सकारात्मक साहित्य कि अपेक्षा करते हैं। इस अतिसुन्दर आलेख के लिए आपकी लेखनी को सादर नमन। )

☆ बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन ☆

भारत देश में कई सारी लोकसंस्कृतियाँ हैं। लोक संस्कृति को लोग साधारणतया ग्रामीण संस्कृति का पर्याय मानते हैं। जबकि यह उन सभी लोगों की संस्कृति है जो किसी समुदाय का हिस्सा है, जिनकी अपनी कुछ मान्यताएं तथा परंपराएं हैं। बंजारा संस्कृति भी भारत की एक महत्वपूर्ण संस्कृति है और जिसकी अपनी एक भाषा तो है किंतु न तो उसकी अपनी कोई लिपि है और ना ही कोई उसका अपना कोई व्याकरण। फिर भी इनके गीत और कथाएं आज भी मौखिक रूप में जीवित है। इनकी संस्कृति में समय के साथ कुछ बदलाव तो आते रहे हैं किंतु इनके लोकगीतों में कभी ठहराव नहीं आया है। वे किसी नदी की धारा के समान निरंतर प्रवाहमान रहे हैं, जिसमें उसकी अपनी एक सुगंध भी होती है। उनके गीतों से उनकी संस्कृति की छवियाँ साकार होती रही है।

बंजारा वह व्यक्ति है, जो बैलों पर अनाज लादकर बेचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है।  इन बंजारों का कोई ठौर ठिकाना नहीं होता ना ही कोई घर द्वार। अपना पूरा जीवन वे यायावार, घुम्मकड्ड बनकर रह जाते हैं। इनका किसी स्थान विशेष से कोई लगाव नहीं होता। सदियों से यह समाज देश के दूर दराज इलाकों में निडर होकर यात्राएँ करता रहता है।

बंजारों का मूल लगभग सभी इतिहासकारों ने राजस्थान को ही माना है।  बंजारा समाज भारत के प्रत्येक प्रांत में अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे महाराष्ट्र में बंजारा, कर्नाटक में लमाणी, आंध्र में लंबाडा, पंजाब में बाजीगर, उत्तर प्रदेश में नायक । अनादि काल से यह समाज व्यापार करता रहा था। तब से इस जाति को वाणिज्यकार के नाम से संबोधित किया जाता है। वाणिज्य शब्द को हिंदी में वणज कहा जाता है तथा बनज से ही बनजारा शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। बणजारा शब्द मुक्त जीवन के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, आप को हिंदी गीत की वह  पंक्तियाँ तो याद ही होगी,

ईक बणजारा गाये, जीवन के गीत सुनाये

हम सब जीनेवालों को जीने की राह सिखाए।

कर्नाटक की कई जातियों में बंजारा प्रमुख हैं। रंगीन आकर्षक पहनावे और गहनों से अलंकृत इन बंजारा स्त्री पुरूषों में उनकी संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। उत्तर भारत के राजस्थान मूल के ये लोग भारत के कोने कोने में फैले हुए हैं और समूचे भारत में इन्हें बंजारा के नाम से पहचाना जाता है। इनकी विशिष्ट वेशभूषा, भाषा, संस्कृति, रहन सहन आदि में अधिक समानता है।

जिस प्रकार किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, भगवान से प्रार्थना की जाती है वैसे ही बंजारों में प्रार्थना की जाती है। इसके लिए भी एक गीत है,

ये पणि जे पणि

गंगा पणि सरसती

निरंकार तू हर जे बोलो।

उपर्युक्त प्रार्थना के अनुसार गंगा सरस्वती का परिसर ही बंजारा संस्कृति का मूल बस्ती स्थान है। बंजारा समाज में नारियों को भी ‘हरपळी’ कहा जाता है। ‘हरपळी’ का बंजारा बोली में अर्थ- हडप्पा की रहनेवाली। इस संदर्भ में यह गीत दिखाई देता है।–

मारा हरपळी याडी

मारी हरपळी बाई

मार हरपळ नायकन

बंजारा संस्कृति में ज्यादातर लोग गाय-बैलों का ही व्यापार करते थे। जिस कारण बंजारा समाज को ‘गोर समाज’ भी कहा जाता है। हडप्पा संस्कृति के लोग भी खेती, व्यापार करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि, बंजारा जाति यह सिंधु संस्कृति तथा हडप्पा संस्कृति के काल की रही है। सिंधु संस्कृति की बहुत सारी मान्यताएँ बंजारा संस्कृति में दिखाई देती हैं।

एक सर्वे के अनुसार कर्नाटक में बंजारों की जनसंख्या 44,72.000 है और इनको परिशिष्ट जातियों में वर्गीकृत किया गया है। बेलगाँव डिविजन में जिसमें बागलकोट, वेलगाव, विजापुर, धारवाड, गदग, हावेरी और उत्तर कन्नड इलाको में इनकी संख्या रगभग 14 से 15  लाख  तक मानी गयी है। इनकी बस्तियाँ शहर से दूर होने के कारण शिक्षा, बिजली, सडक, जल आदि सुविधाएं इन तक  बहुत कम पहुँचती हैं। ये लोग अपने अपने तांडों में रहने के कारण भी इन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति  को सुरक्षित रखा है।  ये लोग अपनी भाषा को गोरबोली, बंजाराभाषा या लमाणी भाषा कहते हैं।  कर्नाटक में इनकी भाषा पर मराठी और कन्नड का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई देता है।  इस भाषा की अपनी कोई लिपि तो नहीं है। किंतु देवनागरी लिपि का प्रयोग आज उनके साहित्य के लिखित रूप के लिए किया जा रहा है।

इनका साहित्य विशाल और वैविध्यपूर्ण है। बंजारा लोगों को कर्नाटक में लम्बानि या लमाणि के नाम से जाना जाता है। इनके कबिलों को तांडा कहा जाता है। ये स्वयं को राजपुतों के वंशज मानते हैं और हिंदु धर्म का ही परिपालन करते हैं। अतः विशिष्ट अनुष्ठानों, तीज, त्योहारों में इनकी जुँबा पर अपने आप कुछ विशेष गीत आने लगते हैं। इनमें जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न अवसरों पर गीत गाए जाते हैं।  इनको संस्कार गीत कहा जाता है। ये उनके जीवन का अभिन्न अंग है। ये गीत लिपिबद्ध नहीं है। इनमें जो गीत गाए जाते हैं उनके कुछ विशिष्ट नाम भी हैं जैसे एकळपोयेर या वदाओं ( पुत्र जन्म से संबंधित), वळंग (मुंडन के समय का गीत), धुंड गीत ( होली के समय सुखमय जीवन की कामना का गीत), इसके अलावा देवी देवताओं से मिन्नत मांगने के लिए भी गीत गाए जाते हैं, इनमें तुलजा भवानी. सीतलामाता  प्रमुख हैं। विवाह के समय मंगलगीत, प्रेमगीत, छेडछाड गीत, ढावलों तथा हवेली आदि गीत भी गाए जाते हैं।  दूसरी  ओर कटाई, बुआई करते समय, चक्की पीसते समय आदि विभिन्न अवसरों पर भी गीत गाए जाते हैं।

इनके गीतों में मुग्धता, भोलापन, मादकता, मधुरता तो है ही साथ ही जीवन के प्रति आस्था भी है।  लय, ताल इनके गीतों की विशेषता है। ये गीत मौखिक होने के कारण इनका लिखित रूप नहीं मिलता और पीढि दर पीढि एक मूँह से दूसरे मूँह तक पहुँचते समय इनमें काफी परिवर्तन भी हो जाता है। इनके गीतों में व्याकरण का ध्यान नहीं रखा जाता।  इन गीतों का किसी व्यक्ति के नाम से गीत का कोई पेटेंट नहीं होता। लोग बस यह मौखिक परंपरा बनाए रखते हैं। बंजारों के गीत लिखित रूप में संकलित नहीं है। वह संगोष्ठियों, शोध कार्य आदि के कारण कुछ संकलित रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। इन गीतों के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग कर लिखित रूप दिया जाता है। महाराष्ट्र में मराठी के प्रभाव से हिंदी प्रदेश में हिंदी के प्रभाव से यह संकलित किए जा रहे हैं। इसलिए यह अल्पज्ञात है जिसे लिखित रूप में सामने लाया जा रहा है।

बंजारा लोक साहित्य में लोकगीत शीर्ष पर हैं। सर्वप्रिय भी है। इन लोकगीतों में एकजीवन पद्धति है, संस्कार है, संस्कृति है और जीवन दर्शन भी है। इन लोकगीतों में तीज-त्योहार, जन्म मृत्यु, सुख-दुख, प्रकृति- परिश्रम, नीति-भक्ति आदि से संबंधित भाव विचार मिलते हैं। इन गीतों में अभिव्यक्त संस्कृति का अध्ययन यहाँ प्रस्तुत है।

संस्कार गीत बंजारों में विशेष महत्व के हैं। जन्म, नामकरण, मुंडन, विवाह और मृत्यु आदि से संबंधित संस्कार बंजारा समुदाय में परंपरागत रूप से आचरण में लाए जाते हैं और ऐसे समय कुछ संस्कार गीत भी गाए जाते हैं। इनमें एक जो महत्वपूर्ण गीत है जिसे एकळपोयु गीद कहा जाता है। यह गीत पुत्रजन्म के अवसर पर गाया जाता है। बंजारों के परिवार में पुत्र का जन्म किसी उत्सव से कम नहीं होता है। इस पुत्र को सेवाभाया कहा जाता है। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं,

‘सेवाभाया जलमों येघर दूयों वजाळो/ भगवान जलमों येघर हूयो वजाळो।

याडि बापूरि आसिस ये बेटा जलमों ये/ देवू, धरमूरि आसिस ये बेटा जलमो ये।

आचि आचि घडी ये सूरज्या जलमों ये/ छटीमातार आसिस ये याडी घडी ये।

चांदा सूरजोरी उमर ये बेटान आसिस ये। माँ-बापेरि रे छडिवेन रिसतू/

सेवाभायार आसिस तोनरे बेटा/ भगवानेर आसिस तोनरे बेटा’।[1]

यह एक प्रकार का प्रार्थना गीत है जिससे बच्चे को भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हो सकें। इस गीत में  बच्चा बडा होकर अपने माता पिता तथा समाज के रक्षक बनने की प्रार्थना की जाती है। इसमें आनेवाले प्रतीक, रूपक तथा लय आदि अर्थपूर्ण होते हैं। इन गीतों के माध्यम से बंजारों का अभिव्यक्ति सौंदर्य तथा उनकी कल्पनाशीलता को देखा जा सकता है। पुत्र जन्म पर होनेवाली खुशी इतनी है कि उनको लगता है जैसे सारा घर सूर्य के प्रकाश से भर गया है। इस गीत में वजाळो, बापूरि, आचि आचि घडी,  आसिस ये शब्द हिंदी और मराठी से प्रभावित है। उजालो – वजाळो, अच्छि- आचि, घडी- क्षण, आसिस- आशिष।

उनका एक अन्य गीत ‘दळना धोकायेरो’ कहलाता है। जिसमें बंजारा लोग जन्म के बाद ‘छठी मता’ की आराधना करते हैं। उसके बाद बच्चे को पालने में डालने की रस्म की जाती है जिसे ‘छोरान तोटलाम घोलेरो’ का कहा जाता है। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है

वेमाता हासती हासती आयेस।/ रोती रोती जायेस।।

लेपो, लावण लेन पर जायेस। /सुवो सुतळी लेन आयेस।।

वेमाता हालन फूलन रकाडेस / सण ढेरो लेन आयेस

वेमाता सुई दोरा लेन पर जा लेन जायेस / सण सुतळी सुवो लेन आयेस।

इस गीत में स्त्री वेमाता अर्थात प्रसुता से हंसते हँसते घर आने को तथा रोते रोते जाने को कह रही है। इस गीत में लेपो -लावण तथा सुई-धागा शब्दों का प्रयोग बहुत ही उल्लेखनीय है। लेपो लावण बंजारा स्त्रियों के लहंगे  को कहते हैं। सुई धागा लमाणी महिलाओं के जीवन से जुडा अहम हिस्सा है।  इस गीत की यह पंक्तियाँ कि हँसते आना और रोते जाना भी विशेष उल्लेखनीय है जिसका अर्थ है यदि लडकी का जन्म हो तो तुम यहाँ से रोते जाना और पुत्र का जन्म हो तो हँसते आना। ‘बंजारों में भी बेटी का जन्म भी संभवतः बोझ माना जाता रहा होगा जैसा की अन्य समुदायों में भी है’।[2] कारण बेटी के जन्म पर पिता को उसकी शादी ब्याह की चिंता रहती है।

‘छोरोम धुंडेरो’ नामक एक और रस्म है जिसमें बच्चे का नामकरण किया जाता है। ‘बाळलट्टा काढेरो’ नामक संस्कार मुंडन संस्कार है।

विवाह संस्कार में प्रत्येक अवसर पर इनके यहाँ गीत है। जिसमें सगाई से लेकर विवाह संपन्न होने तक के विविघ विधि विधान हैं, जिसपर उनके गीत हैं और इन गीतों में उनकी संस्कृति भी झलकती है। इन गीतों में उनके भाव भी है और पारंपरिक नृत्य भी। इनके विदाई के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं उसमें दुल्हन के मनोभाव अभिव्यक्त होते हैं। वह अपने माता, पिता, भाई, सखियाँ तथा तांडा के नायकों से संबोधित करते हुए अपने मन के भाव व्यक्त करती है और पराए घर जाने का दुख व्यक्त करती है। कितुं इस गीत की जो सबसे बडी सांस्कृतिक विशेषता यह  है कि दुल्हन हवेली से, गाय, बैल, बकरी से संबोधित करती है और उनसे बिछुडन का दर्द उसके गीतों में झलकता है, द्रष्टव्य है,

हवेली ये आँ हियाँ..

तोती छुटो धोळो घन/ मोतो छुटो मारे जे

बापुरो बंगला आँ हियाँ…

वेसु  तो सो कांसेरी वाळ न लाग

काडी काडी कर सासी  ये माया जोडी

xxx

ये हवेली ये आँ हियाँ…

दूध,घी ये रो कालवा चलायेस

अन धनेरी कमी नवेस पाणी पावसेरी

कमी न वेस

ये हवेली ये आँ हियाँ…

गुरु र आसिस देस ये

ये हवेली आँ हियाँ

यह एक बहुत ही लंबा गीत है। किंतु इसमें मैंने उन्हीं पंक्तियों को लिया है जिसमें मुझे बंजारा संस्कृति की कुछ भिन्न विशेषता नज़र आयी।  दुल्हन अपनी विदाई के समय हवेली के प्रति हित की कामना करती है कि यहाँ जिस नगर में मेरे पिता की हवेली है वहाँ दूध घी की नदियाँ बहे, वहाँ अन्न. धन और पानी की  कभी कमी ना आए और इन पर गुरु का आशिष बना रहें। इसमें ‘पानी की कमी कभी ना हो’ इसमें जो विशिष्ट गर्भितार्थ है। बंजारो का निवास स्थान प्रमुखता से राजस्थान है, जो रगिस्तानी इलाका है। जहाँ पानी की कमी होती है। रेगिस्तान में बदरी का घिर आना और पानी का गिरना आहोभाग्य होता है। दुल्हन की चाहत है कि उसके पिता की नगरी में कभी पानी की कमी ना हो।

मनुष्य जीवन का अंतिम पडाव मृत्यु इस अवसर पर भी एक गीत उपलब्ध हैं। यह गीत शोक गीत है।  किंतु इनमें एक जो उल्लेखनीय है वह यह कि तांडा के नायक अंतिम संबोधिन, वह कहता है,

सामळो भाईयो

गोरमाटी मा एत कावत छ

जिवतेन बाटी

मूयेन माटी

इ जग रूढी छ करन म

रोवामत सासो करोमत

करन केरोचू भाईयों।। [3]

तांडा नायक सभी को संबोधित कर कहता है कि हम सब जानते हैं कि बंजारों में एक कहावत है कि जीवित को बाटी  (रोटी) मृतक को मिट्टी। यह तो संसार का दस्तुर ही है, इसलिए रोना नहीं है।

बंजारों में जीवन के विभिन्न अवसरों पर किए जानेवाले विधिविधानों के अवसरों पर जो गीत गाए जाते हैं उनसे एक बात निश्चित रूप से ज्ञात होती है कि  इन गीतों में  जहाँ खुशी है, उपदेश है वहीं शोक  भी है। वहीं दूसरी ओर कलात्मकता की दृष्टि से इन गीतों में ताल और लय के साथ गीतात्मकता है।  पहाडी नदी सा उबड खाबडपन है किंतु उसका अपना प्राकृतिक सौंदर्य भी है जो अपनी सहजता से सबको आकर्षित करती है।

संस्कार गीतों के अलावा बंजारों के धार्मिक गीत भी होते हैं।  इन गीतों में प्रार्थना, स्तुति, भजन तथा उपदेशपरक गीतों का समावेश होता है। ये लोग प्रकृति पूजक होने के कारण वे प्रकृति को ही अपना ईश्वर मानते हैं और सर्वप्रथम प्रकृति की स्तुति करते हैं। उसके बाद बंजारा लोग संत सेवालाल, तुळजाभवानी, मरिमाया, जगदंबा आदि के प्रति अपना भक्तिभाव व्यक्त करते हैं।  देवी के प्रति उनकी भक्ति भावना उल्लेखनीय है।  इस संदर्भ में डॉ. वी. सी रामकोटी ने कहा है कि, बंजारा मुख्य रूप से देवी के उपासक हैं। विभिन्न प्रांतों में बसे हुए बंजारें मेराना माडी (देवी) की पूजा करते हैं। कुछ देवियाँ तांडे में पूजी जाती है और कुछ देवियाँ जंगलों में या खेतखलिहानों में पूजी जाती है। ये लोग देवी ( माउली) को व्यक्तिगत रूप से पूजते हैं और सार्वजनिक रूप से भी।[4] इनके धार्मिक लोक गीतों में मानवता, बंधुता, लोक कल्याण, समता आदि को विशेष महत्व दिया गया है। इनकी लोक कल्याण की भावना मुझे अथिक भा गयी, जिसमें वे सेवालाल के प्रति अपने  को समर्पित करते है और सकल जीवों के प्रति ‘सेन साई वेस’ (सबको सुखी रखना) की मंगल कामना करते है। जिसमें जीव जन्तुओं के साथ संपूर्ण मनुष्य जाति का समावेश है। गीत के प्रारंभ में ये लोग तुळजा भवानी से अपनी चूक भूल माफ करने की प्रार्थना करते हैं और सबको सुखी रखने की प्रार्थना करते हैं। अंत में कहते हैं,

जिन्दगीर नैया पार लगायेस

अन ई – पूजा तारे देवळेम मंजूर करलेस याडी।

सा…ई… वेस.. याडी साहेबानी।

बंजारा समाज में तीज त्योहारों के समय भी खूब गीत गाए जाते हैं।  इनके महत्वपूर्ण त्योहार है, दीवाली, दशहरा, होली और गणगौर। दीवाली और होली ये प्रमुख त्योहार है। हिंदुओं की तरह ये भी इन दोनों त्योहारों का उत्साह के साथ मनाते हैं। बंजारे दीवाली को दवाळी या काली अमावस कहते  हैं। इस दिन वे बकरे की बलि देते है। दिवाली होली के संबंध में इनका लोक गीत है,

होळी- दवाळी दोई भनेडी

होळी को मांग छळहाक बोकडो

दवाळी तो मांग झगमग दिवळो

होळी आती ते, गेरियान बेटा गे जाती

दवाळी आती तो बळदान सक दे जाती।

बंजारों  में श्रृगार, देशभक्ति, श्रम  तथा प्रकृतिपरक अन्य गीत भी हैं।  जिसमें शब्द  का स्वाभाविक सौदर्य है। गीतात्मकता के साथ भाव सौंदर्य भी है।

इन सारे लोकिगीतों में अभिव्यक्त संस्कारों का जीवन में बडा महत्व है। मानव इन संस्कारों के द्वारा जन्मजात अपवित्रताओं से छुटकारा पाकर सच्चे मनुष्यत्व को प्राप्त करता है। संस्कारों के विधान के पीछे यही दृष्टिकोण लोकगीतों में समाहित है। लोकगीतों में लोकमानस की सहज अभिव्यक्ति होती है। लोकगीतों के पीछे सामाजिक परंपरा होती है। मानवीय मूल्य और सम्मान का भाव छिपा रहता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि लोकगीत की भावसंगती सूपर्ण लोक की मंगलकामना के रूप में उद्भाषित नजर आती है।

इनके लोकगीतों का अध्ययन करते समय एक बात विशेष रूप से ध्यान में आयी वह यह है कि इनकी भाषा में कई सारे शब्द मराठी, पंजाबी और हिंदी से प्रभावित है।  जिस क्षेत्र में रहते हैं उस भाषा का प्रभाव इनकी भाषा पर हो जाता है। कई शब्द क्षेत्रिय भाषा से प्रभावित हो जाते है और उनका प्रयोग भी अनायास उनकी भाषा में होने लगता है। उसीप्रकार वाक्यसंरचना भी प्रभावित हो जाती है। जैसे उदाहरण को लिए ऊपर एख संस्कार का उल्लेख किया छोरोम तोटलाम घालेरो। जहाँ तक मुझे लगता है तोटलाम और घालेरो दोनों शब्दों पर मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में झुले के लिए लोकभाषा में ‘तोटला’ कहा जाता है और ‘डालना’ (क्रिया)  के लिए ‘घालणे’  (क्रिया) शब्द का प्रयोग किया जाता है।

बंजारों मे केवल गीत भी नहीं है उनकी लोकथाएं भी हैं। ये लोकगीत तथा लोककथाएँ मौखिक ही रही हैं। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है ना ही कोई व्याकरण। कुछ लोगों ने इनके मौखिक साहित्य का अध्ययन किया है और उनको लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।  इनमें कर्नाटक में एक नाम विशेष हैं और वह है प्रो.  हेगप्पा लमाणी और दूसरे है डॉ. गुलाब राठोड जिन्होंने इस लिपिबद्ध किया है। मुझे लगता है, बंजारों का  जो मौखिक साहित्य इतनी मात्रा में उपलब्ध है उनका प्रतिलेखन देवनागरी लिपि में कर उसको सुरक्षित करने की आवश्यकता है। जिससे अध्ययन के, शोध के कई आयाम खुल सकते हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि इस भाषा के प्रलेखन से हमें इस समुदाय के सांस्कृतिक, सामाजिक स्वरूप को भी परिचय हो जाएगा। भारत जैसे बहुभाषाभाषी तथा बहुस संस्कृति देश में ऐसी अल्पज्ञात भाषाओं को सुरक्षित करना आवश्यक है।

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

 

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[1] बंजारा लोकगीत – ड़ा. गुलाब राठोड – पृ -21 लेखनी प्रकाशन, नई दिल्ली

[2]  The art and literature of Banjara’s – A socio- cultural study. Dhansing B Nayak – Page -17

[3]  बंजारा लोकगीत – डॉ गुलाब राठोड –लेखनी, नई दिल्ली –पृ 71

[4] बंजारा लोकगीत  डॉ, वी. रामकोटी – पृ -84

 

संदर्भ ग्रंथ

  • बंजारा लोकगीत – डॉ गुलाब राठोड
  • बंजारा लोकगीत – डॉ. वी.टी रामकोटी
  • The art and literature of Banjara’s – A socio- cultural study. Dhansing B Nayak

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 46 – कला ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “ कला । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 46 ☆

☆ कला  

जैसा कि मैंने आपको बताया था, कला का अर्थ कुछ विशेष गुणवत्ता है कई कलाओं के विशेष गुणों का समुच्चय ही किसी व्यक्ति को पूर्ण बनता है ।

भगवान कृष्ण के पास 16 कलाएँ और भगवान राम के पास 12 कलाएँ थी । इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि भगवान राम भगवान कृष्ण से किसी तरह से कम थे । किन्तु दोनों अलग-अलग राजवंशों में पैदा हुए थे और जिस जिस वंश में उनका जन्म हुआ था उनमे उस वंश की सभी कलाएँ उपस्थित थी । भगवान कृष्ण चंद्र वंश के थे और चंद्रमा की 16 कलाएँ होती हैं, इसलिए भगवान कृष्ण चंद्र की 16 कलाओं से युक्त थे । मैंने आपको चंद्रमा की 16 कलाएँ और उनकी 16 देवियों के विषय में बताया था ।

भगवान राम सूर्य वंश में जन्मे थे, और उनमे सूर्य की सभी 12 कलाएँ उपस्थित थी ना की चंद्रमा की 16 कलाएँ । और सूर्य की इन 12 कलाओं के देवता पुरुष हैं, न कि चंद्रमा की तरह उसकी 16 कलाओं की देवियाँ । सूर्य के ये 12 कला देवता 12 आदित्य हैं । उनके नाम एक शास्त्र से दूसरे में भिन्न हो सकते हैं, लेकिन वे 12 महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और उनकी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं, और पर्यावरण पर भी उनका अलग अलग प्रभाव पड़ता हैं जैसे चंद्रमा की विभिन्न तिथियों की भिन्न भिन्न देवियाँ होती है और उनका हर रात्रि हमारे मस्तिष्क और प्रकृति पर अलग अलग प्रभाव पड़ता हैं ।

तो आप समझते हैं कि सूर्य पुरुष ऊर्जा या शारीरिक ऊर्जा को दर्शाता है, इसलिए सूर्य की कलाओं के देवता पुरुष है और चंद्रमा स्त्री ऊर्जा या मानसिक ऊर्जा को दर्शाती है तो उसकी कलाओं की देवी स्त्री रूप है ।

यही कारण है कि भगवान राम ने रावण को भौतिक शक्ति से पराजित किया और भगवान कृष्ण ने मानसिक शक्तियों का उपयोग करके पांडवों की सहायता करके कौरवों का अंत किया । ना केवल सूर्य और चंद्रमा बल्कि अग्नि की भी कलाएँ होती हैं । अग्नि की दस कलाएँ होती हैं और वे धुमरा, अर्चि, ऊष्मा, ज्वालिन्यै, विस्फुलिंगिनैयी, सुसारी, सुरुपा, कपिला, हव्यवाह एवं काव्यवाह हैं ।

क्या आप जानते हैं कि भगवान विष्णु का कौन सा अवतार है जो अग्नि की सभी दस कलाओं से युक्त था ?

वह भगवान नरसिंह है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 50 ☆ रिश्ते नहीं रिसते ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते नहीं रिसते।  यह आलेख  रिसते हुए रिश्तों  पर एक शोधपरक आलेख है।  टूटते – बिखरते रिश्तों के कारणों का  यह दस्तावेज सिर्फ कारण की विवेचना ही नहीं करता अपितु उन्हें संजोने के उपाय भी बताता है। इस आलेख के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 49 ☆

☆ रिश्ते नहीं रिसते

इक्कीसवीं सदी में संबंध व रिश्तों की परिभाषा बदल गई है। कोई संबंध पावन रहा नहीं; न ही रही  उसकी अहमियत व मर्यादा। रिश्ते आजकल दरक़ रहे हैं– उस इमारत की भांति, जो खंडहर के रूप में खड़ी तो दिखाई पड़ती है, परंतु उसके गिरने का अंदेशा सदा बना रहता है। यही दशा है– आज के संबंधों की। संबंध अर्थात् सम+बंध, समान रूप से बंधा हुआ अर्थात् दोनों पक्ष के लोग उसकी महत्ता को समान रूप से समझें व स्वीकारें। परंतु आजकल तो संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। वैसे तो कोई हैलो- हाय करना भी पसंद नहीं करता। इसमें दोष हमारी सोच व तीव्रता से जन्मती-पनपती आकांक्षाओं का है; जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जा रही हैं और मानव उनकी पूर्ति हेतु जी-जान से स्वयं अपने जीवन को खपा देता है। उस स्थिति में उसे न दिन की परवाह रहती है; न ही रात की। वह तो प्रतिस्पर्द्धा के चलते; दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाता है। इस परिस्थिति में वह रिश्ते-नातों को भुला कर: दोस्ती को दांव पर लगा, निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहता है और अपने आत्मजों व प्रियजनों से बहुत दूर निकल जाता है…सांसारिक चकाचौंध में वह सबको भुला बैठता है। उसे दिखायी पड़ता है–केवल-मात्र अपना स्वार्थ-सिक्त लक्ष्य; जो पुच्छल तारे की भांति उसके विनाश का कारण बनता है। इस स्थिति में उसके पास पीछे मुड़कर देखने का समय भी नहीं होता।

‘रिश्तों की माला जब टूटती है, तो दोबारा जोड़ने से छोटी हो जाती है, क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं।’ यह कथन कोटिश: सत्य है–इसलिए उन्हें बहुत प्यार व सावधानी से सहेजने व संजोने की दरक़ार है। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।’ सो! रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं; किसी भी पल दरक़ जाते हैं और रिश्तों में आयी दरार कहीं खाई न बन जाए; उसका ख्याल रखना अत्यंत आवश्यक है। एक फिल्म की ये पंक्तियां, ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ व ‘ताल्लुक बोझ बन जाए, तो उसको तोड़ना अच्छा’ इन्हीं भावों को परिपुष्ट करती हैं। हृदय में संशय, संदेह, अविश्वास से अति-विषाक्त हो जाने से पूर्व अजनबी बन जाना बुद्धिमत्ता का प्रतीक है, ताकि संबंधों को पुन: स्थापित करने की संभावना बनी रहे। इसी संदर्भ में मेरे मनो-मस्तिष्क में दस्तक दे रही हैं वे पंक्तियां, ‘दुश्मनी इतनी करो कि पुन: दोस्त बनने की संभावना शेष बनी रहे।’ सो! संभावना जीवन में अपना अहम् दायित्व निभाती है और वह सदैव बनी रहनी चाहिए। रहीम जी का दोहा ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ जोरे से पुनि न जुरै, जुरै गांठ परि जाइ’ भी यही संदेश देता है… जैसे धागे के टूटने पर, वह दोबारा जो नहीं जुड़ पाता; उसमें गांठ पड़ना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार रिश्तों में भी शक़, आशंका, संशय व ग़लतफ़हमी ऐसी दरारें उत्पन्न कर देते हैं; जिन्हें पाटना अत्यंत दुष्कर होता है।

परंतु आजकल माधुर्यपूर्ण रिश्ते तो गुज़रे ज़माने की बात हो गए हैं। संबंध-सरोकार शेष बचे ही नहीं। हर रिश्ते में अजनबीपन का अहसास व्याप्त है। रिश्ता चाहे पति-पत्नी का हो या भाई-भाई का हो; पिता- पुत्र का हो या मां बेटी का– सब एकांत की त्रासदी झेल रहे हैं; यहां तक कि बच्चे भी अकेलेपन से जूझ रहे हैं। पति-पत्नी में स्नेह, प्रेम, त्याग व समर्पण के अभाव होने का ख़ामियाज़ा सबसे अधिक बच्चे भुगत रहे हैं तथा उनके हृदय में अनगिनत प्रश्न ग़ाहे-बेग़ाहे कुनमुनाते हैं और वे अपने माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, जिसे सुन वे स्तब्ध रह जाते हैं। ‘यदि उनके पास उनके पालन-पोषण करने का समय ही नहीं था, तो उन्होंने उन्हें जन्म ही क्यों दिया?’

अक्सर माता-पिता बच्चों को खिलौने व सुख- सुविधाएं प्रदान कर, अपने दायित्वों की इति-श्री समझ लेते हैं; परंतु बच्चों को उनकी दरक़ार नहीं होती, बल्कि उन्हें तो माता-पिता के प्यार-दुलार व सान्निध्य-साहचर्य की आवश्यकता होती है; जिसके अभाव में उन मासूमों के हृदय में आक्रोश की स्थिति पनपने लगती है– जिसका परिणाम हमें बच्चों के नशे के आदी होने व अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त होने के रूप में दिखने को मिलता है। इस स्थिति में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है? मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से उनका जुड़ाव व सर्वाधिक प्रतिभागिता सर्वत्र झलकती है; जो उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वे मानसिक रोगी बन जाते हैं।

आजकल अहंनिष्ठता के कारण माता-पिता में अलगाव की स्थिति पनप रही है, जिसके कारण सिंगल-पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। सो! बच्चों को माता का स्नेह-दुलार व पिता का सुरक्षा- दायरा नसीब नहीं हो पाता और वे कुंठा-ग्रस्त हो जाते हैं। उनके जीवन से आस्था व विश्वास के भाव नदारद हो जाते हैं और जीवन के प्रति उनका नज़रिया अथवा दृष्टिकोण सदैव नकारात्मक रहता है। सब्र, संतोष, करुणा, सहानुभूति, त्याग व  सहनशीलता से उनका दूर का नाता भी नहीं रहता। वे उसके श्रेय-प्रेय व शुभ-अशुभ पक्षों की ओर ग़ौर नहीं फ़रमाते; न ही निर्णय लेने व उसे कार्यान्वित करने में समय लगाते हैं; जिसका परिणाम हमें उनके प्रतिदिन फ़िरौती, अपहरण, लूटपाट, दुष्कर्म आदि के हादसों में लिप्त होने के रूप में दिखाई पड़ता है।

आज की युवा-पीढ़ी चार्वाक दर्शन से प्रभावित है तथा हर क्षण का तुरंत उपभोग कर लेना चाहती है। वे अगले पल अर्थात् कल व भविष्य की प्रतीक्षा नहीं करते। सो! युवावस्था में पदार्पण करने से पूर्व ही वे मासूम बच्चियों की अस्मत लूटने, एकतरफ़ा प्यार में तेज़ाब फेंकने व सरे-आम गोलियां चलाने से गुरेज़ नहीं करते। दुष्कर्म करने के पश्चात् उसकी दर्दनाक हत्या कर देना भी आजकल सामान्य सी घटना स्वीकारी जाती है, क्योंकि वे अपनी सुरक्षा-हेतु कोई भी सबूत छोड़ना नहीं चाहते। इस स्थिति में बहन, बेटी व मां के संबंध की सार्थकता उनकी दृष्टि में कहां महत्व रखती है? पहले पत्नी को छोड़कर हर महिला को मां, बहन, बेटी के रूप में मान्यता प्रदान की जाती थी और उनके आत्म-सम्मान पर आंच आने की स्थिति में; वे अपने प्राणों की बाज़ी तक लगा देने को तत्पर रहते थे। परंतु आजकल तो दुधमुंही मासूम बच्चियां भी अपने माता-पिता के आंचल तले महफूज़ नहीं हैं… गिद्ध नज़रें हर-पल उनके चारों ओर मंडराती दिखाई पड़ती हैं।

चलिए! प्रकाश डालते हैं– पति-पत्नी के विवाहेतर संबंधों पर– पति-पत्नी और वो अर्थात् पर-स्त्री-गमन आज के समाज का फैशन हो गया है। ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ के दुष्परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं। वैसे पैसा भी रिश्तों में दरार उत्पन्न करने में अहम् भूमिका अदा करता है। भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-पुत्र व मां-बेटी के पावन संबंध भी दांव पर लगे रहते हैं।अक्सर वे एक-दूसरे की जान लेने पर सदैव आमादा रहते हैं। संतान द्वारा माता-पिता की हत्या के किस्से सामान्य हो गये हैं। पहले संयुक्त परिवार-प्रथा का प्रचलन था। एक कमाता था, दस खाते थे। परंतु आजकल हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में व्यस्त है, परंतु स्थिति सर्वथा भिन्न है। परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक सिमट कर रह गये हैं और संवादहीनता के कारण  पनप रही संवेदनशून्यता की स्थिति के परिणाम-स्वरूप रिश्तों में ग्रहण लग गया है …माता- पिता को वृद्धाश्रमों में शरण लेनी पड़ रही है। वे कमरे के बंद दरवाज़ों व शून्य छत की ओर ताकते; उन आत्मजों की प्रतीक्षा में रत रहते हैं; जिनके लौटने की संभावना नगण्य होती है। अक्सर बच्चों के विदेश-गमन के पश्चात् वे जीवन में अकेले जूझते व संघर्ष करते रहते हैं; जिसका परिणाम दस माह पश्चात् एक फ्लैट में महिला का कंकाल प्राप्त होना है। यह आधुनिक समाज के सभी वर्ग के लोगों को कटघरे में खड़ा कर प्रश्न करता है– ‘क्या बच्चों का माता-पिता के प्रति कोई दायित्व नहीं है?’

वैसे इस अप्रत्याशित व भयावह स्थिति के लिए अपराधी केवल बच्चे नहीं; उनके माता-पिता भी हैं, जो उनके विदेश में होने पर फ़ख्र महसूस करते हैं। परंतु जब बच्चे वहां से लौट कर नहीं आते, तो उनकी जान पर बन आती है। सो! मैं अमुक घटना पर आपकी तवज्जो चाहूंगी; जिसे सुनकर आपके पांव तले से ज़मीन खिसक जाएगी। चंद दिन पहले पिता ने अपने बेटे को उसकी मां की गंभीर बीमारी के बारे में सूचित करते हुए कहा कि वह उसे बहुत याद करती है। एक बार आकर वह उसे मिल जाए। परंतु वह नहीं आया। इतना ही नहीं– उसका अपने भाई से यह आग्रह करना कि भविष्य में मां के निधन पर वह चला जाए और पिता के निधन पर वह चला जाएगा। क्या यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नहीं है?

आजकल तो लहू का रंग लाल ही नहीं रहा; श्वेत हो गया है। संवेदना-सरोवर सूख चुके हैं। अब उनमें कोई हलचल नहीं रही। संवाद संबंधों की जीवन- रेखा हैं। जब आप बात करना बंद कर देते हैं; अमूल्य संबंध खोने लगते हैं। उन्हें जीवित रखने के लिए आवश्यकता है– विवाद से बचने की और संबंधों को शाश्वत बनाए रखने की…जिसकी शर्त है, झुकना; सहन करना व प्रसन्नता से खुद पराजय स्वीकार कर, दूसरों को विजयी बनाने की बलवती इच्छा होना। सच्चे संबंध जीवन की वास्तविक पूंजी व धरोहर होते हैं, जो विषम परिस्थितियों में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इनसे निबाह करने के लिए मानव को अहम् का त्याग करना अनिवार्य होता है, अन्यथा उसी के बोझ से वे टूट जाते हैं। ‘तूफ़ान में किश्तियों का बचना तो संभव है, परंतु अहं से हस्तियों का डूबना अनिवार्य है, निश्चित है।’

सो! आजकल सब संबंध दिखावे के हैं, जो मात्र छलावा हैं। वास्तव में हर शख्स भीतर से अकेला है। यही है, जिंदगी की कशमकश; जिससे जूझता हुआ इंसान आवागमन के चक्र से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि उसे आजीवन सुनामी की आशंका बनी रहती है। वह हर पल इसी आशंका में जीता है कि वे रिश्ते किसी पल भी दरक़ सकते हैं, क्योंकि अविश्वास, संदेह व शंका रूपी दीमक उसे खोखला कर चुकी होती है और वे संबंध नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु फिर भी एक आशा; एक उम्मीद अवश्य बनी रहती है।

आइए! पारस्परिक मनोमालिन्य को तज, सहज रूप से जीवन जीएं व अहं का त्याग कर मंगल-कामना करें और ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठें। संसार में जो सत्य है; वह सुंदर व कल्याणकारी है। सो! सत्य को सदैव संजो कर रखना व विषम परिस्थितियों में सम बने रहना श्रेयस्कर है।। क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि वह पल-भर में सब रिश्तों में सेंध लगाकर, उन्हें नष्ट कर देता है। सो! दूसरों की भावनाओं का सदैव सम्मान करें व  उनसे वैसा व्यवहार करें; जिसकी अपेक्षा हम उनसे करते हैं। पहले लोग भावुक होते थे; भावना में बह कर रिश्ते निभाते थे। फिर लोग प्रैक्टिकल हुए–भावना का कोई स्थान नहीं रहा; रिश्तों से फायदा उठाने लगे और अब प्रोफेशनल हो गए हैं और वही रिश्ते निभाने लगे हैं; जिनसे अपने स्वार्थ साधे जा सकें। ‘रिश्ते नम्रता से निभाए जा सकते हैं; छल-कपट से तो केवल महाभारत रची जा सकती है।’ इसलिए बुरा मत मानिए–अगर लोग आपको ज़रूरत के समय याद करते हैं, बल्कि गर्व कीजिए, क्योंकि मोमबत्ती की याद तभी आती है; जब अंधेरा होता है। सो! रिश्तों की गहराई को अनुभव कीजिए-समझिए। सहृदय बनिये और स्नेह-सौहार्द बनाए रखिए। रिश्तों में प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए; केवल देना सीखिए अर्थात् समर्पण व त्याग की महत्ता व अहमियत स्वीकारिए, ताकि रिश्ते स्वस्थ बने रहें और उनमें ताज़गी बरकरार रहे। रिश्ते रिसते न रहें। रिश्तों का अहसास बना रहे और वे जीवन को आंदोलित करते रहें; जिससे जीवन-बगिया महकती रहे; लहलहाती रहे और वहां चिर-वसंत का वास हो… मलय वायु के झोंके सभी दिशाओं को आलोड़ित व अलौकिक आनंद से सराबोर करते रहें– यही अनमोल रिश्तों की सार्थकता है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 3 ☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं’।)

☆ किसलय की कलम से # 3 ☆

☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆

(यह आलेख लॉक डाउन के प्रथम चरण से संदर्भित है किन्तु, इसके तथ्य आज भी विचारणीय हैं जिन्हें आत्मसात करने की आवश्यकता है।) 

लगभग सौ वर्ष पूर्व का भारतीय सामाजिक परिवेश देखें तो हम पाएँगे कि समाज में वर्ण व्यवस्था जीवित तो थी लेकिन शिथिल भी होती जा रही थी। लोग वर्ण से इतर कामकाज और व्यवसाय-धंधे अपनाने लगे थे। धीरे-धीरे रूढ़िवादियाँ और असंगत प्रथाएँ समाप्त हो रहीं थी, वहीं पाश्चात्य की दस्तक से जीवनशैली बदलने लगी थी। जो समाज छुआछूत, ऊँच-नीच अथवा निम्न जातियों से परहेज करता था, उनके भी मायने बदलने लगे थे। लोगों में रहन-सहन, खान-पान और मेलजोल बढ़ने लगा था। यह कितना उचित था, कितना प्रासंगिक था? अथवा कितना आवश्यक था? ये सब वक्त और परिस्थितियों के साथ बदलता रहता है।

पहले स्नान-ध्यान, पूजा-भक्ति, नियम-संयम अथवा जाति-धर्म का बहुत महत्त्व होता था। जहाँ तक मैंने अध्ययन एवं चिंतन किया है, ये सब बातें कपोलकल्पित नहीं थीं। हर व्यवस्था अथवा कार्य के पृष्ठ में एक तर्क, सत्यता, व्यवस्था अथवा सुरक्षा का भाव निश्चित रूप से होता था। स्वस्थ जीवन के इस रहस्य को युगों-युगों से भारतीय जानते हैं। आज भी स्नान, स्वच्छता, शुद्धता, सद्भावना आदि का पहले जैसा ही महत्त्व है। आज बदलते परिवेश और प्रगति की अंधी दौड़ में हमारी दिनचर्या इतनी अनियमित व असुरक्षित हो गई है, जिस पर चिंतन किया जाए तो उसे कोई भी स्वीकार्य नहीं कर पायेगा।

घर में लाया गया खाद्यान्न हो अथवा कोई भी सीलबंद सामग्री, उसकी विश्वसनीयता हमेशा से संदेह के घेरे में रही है, आज के समय में क्या आप बाहर की किसी भी वस्तु या खाद्य पदार्थ घर में लाना चाहेंगे? शायद आज बिल्कुल नहीं, फिर भी हम विवश हैं। राम भरोसे सब कुछ ला रहे हैं और खा भी रहे हैं। वर्तमान में उत्पन्न हुईं ये परिस्थितियाँ हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का ही कुपरिणाम है। आज आदमी आदमी के निकट आने से घबरा रहा है। हाथ मिलाने के स्थान पर दूर से नमस्ते करने लगा है। आज सुरक्षा की दृष्टि से दूसरे के हाथों बने भोजन से परहेज करने लगा है। कुछ ही महीने पहले ऐसा लगता था कि इन सबके बिना आदमी जिंदा नहीं रह पाएगा परन्तु अब ऐसा लगने लगा है जैसे नए रूप में ही सही कुछ पुरानी प्रथाएँ पुनर्जीवित हो उठीं हों।

आज ट्रेनें बंद हैं। बाजार बंद हैं। आवश्यक सेवाएँ तक न के बराबर हैं, फिर भी सभी जिंदा हैं। इसका मतलब यही हुआ कि आदमी चाह ले तो सब संभव है। इसी को वक्त का बदलना कहते हैं। आज हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर आदमी अपने घरों को लौट रहे हैं। घर से बाहर निकला मजदूर अपने शहर और गाँव की ओर भाग रहा है। उसके मन में बस एक ही बात है कि जो भी हो, जैसे भी रहेंगे, अपने घर और अपनों के बीच में रहेंगे। इसीलिए कहा गया है कि-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’

सुख हो अथवा दुख अपनी माटी, अपने लोक और अपनी संस्कृति में आसानी से कट जाते हैं। आज जब आदमी अपने घरों की ओर भाग रहा है, तब उन उद्योगों-धंधों और व्यवसाय का क्या होगा? जहाँ बहुतायत में बाहरी मजदूर व कर्मचारी काम करते थे। उन मजदूरों, छोटे व्यापारियों और कुटीर उद्योगों का क्या होगा, जिनसे लोगों की रोजी-रोटी चलती थी। कुछ ही समय में ऐसे अनेक परिवर्तनों का खामियाजा हमारा समाज भुगतेगा,  जिन पर अभी तक किसी ने सोचा भी नहीं है। बड़े उत्पादों हेतु जब कर्मचारियों की कमी होगी तो उत्पादन और गुणवत्ता पर असर पड़ेगा ही। क्या उत्पाद महँगे नहीं होंगे? जब मजदूरों को मजदूरी नहीं मिलेगी तो क्या उनकी दिनचर्या में फर्क नहीं पड़ेगा? उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी? जब रोजी रोटी नहीं चलेगी तो बेरोजगारी, भूखमरी और अराजकता नहीं फैलेगी?  क्या निम्नवर्गीय बेरोजगार तबका न चाहते हुए भी अनैतिक और उल्टे-सीधे कार्य नहीं करेगा?

यदि समय रहते देश के जागरूक, बड़े उद्योगपति, देश के कर्णधार और प्रशासन देशहित में आगे नहीं आये, समृद्ध लोगों ने उदारता नहीं दिखलाई तो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, चोरी-डकैती, लूटमार की घटनाएँ बढ़ने में देर नहीं लगेगी। आज कोरोना-कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। कुछ ही महीनों में इस बीमारी के दुष्परिणाम दिखाई देने लगे हैं। अभी पूरा का पूरा निम्न वर्ग अपनी जमापूँजी के सहारे अपनी रोजी-रोटी जैसे-तैसे चला रहा है। जब पूँजी समाप्त हो जाएगी और रोजगार भी नहीं रहेगा, फिर क्या होगा? इसकी कल्पना ही भयावह लगती है।

कुछ लोगों की नासमझी, कुछ विवशताएँ एवं कुछ असावधानियाँ भी कोविड-19 को विकराल बनाने में सहायक हो रही हैं। आज वह चाहे छोटा हो या बड़ा, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, धनवान हो या निर्धन, जिस तरह बिजली और आग किसी में फर्क नहीं करती ठीक उसी तरह यह कोरोना किसी के साथ भेदभाव नहीं करता, जो सामने पड़ा उस पर वार करेगा ही। गंभीरता से सोचने पर कहा जा सकता है कि यह वह पीड़ा है जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं।

अतः हमें स्वयं को, अपने परिवार को, अपने गाँव-शहर को या यूँ कहें कि अपने देश को इस संकट से उबारना है तो हमें प्रशासन व चिकित्सकों के सभी निर्देशों का स्वस्फूर्तभाव से पालन करना होगा। यदि हम सब कृतसंकल्पित होते हैं तो शीघ्र ही हमारी और हमारे देश की परिस्थितियाँ वापस सामान्य होने लगेंगी और एक बार पुनः निर्भय, स्वस्थ और सुखशांतिमय जीवन की शुरुआत हो सकेगी।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – आत्मकथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  पर्यावरण दिवस पर विशेष रचना – आत्मकथा – समाधि का वटवृक्ष।  

☆ पर्यावरण दिवस विशेष – आत्मकथा समाधि का वटवृक्ष ☆

एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला‌ था‌, और घने जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, तभी सहसा उस नीरव वातावरण ‌ से एक तैरती आवाज कानों से टकराई,अरे ओ यायावर मानव !कुछ पल रूक मेरी राम कहानी सुनता जा,और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा, ताकि जब मैं ‌इस‌ जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा ‌पर पडा़ बोझ थोडा़ हल्का हो जाय ।

जब मैंने कूतूहल बस  अगल बगल देखा तो मुझे वहीं पास‌ में ही ‌जड़ से कटे पड़ें धरासाई वटवृक्ष से ये आवाज़ ‌फिजां में तैर रही थी,और दयनीय अवस्था में कटा‌ हुआ जमीन पर गिरा पड़ा‌ वटवृक्ष मुझसे आत्मिक संवाद कर अपनी राम कहानी कह उठा था, मैंने जब उसे ध्यान पूर्वक देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय आत्याचारों‌ की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना कट‌ कर अलग-अलग पड़ा था । शाखाएं अलग ही कटी पड़ी थी,वह धराशाई हो पड़ा था.

जहां उसके चेहरे पर चिंता एवम् विषाद की लकीरें खिंची पड़ी थी वहीं पर और लोक उपकार न कर पाने की  पीड़ा भी उसके हृदय से झांक रही थी, उसका मन मानवीय अत्याचारों से बोझिल था। उसने अपने जीवन के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा। प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेंरा  जन्म एक महात्मा की कुटिया के सामने धरती की कोख से हुआ। धरती की कोख में पड़ा गर्मी सर्दी  सहता पड़ा हुआ था,कि सहसा एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी फुहारों से तृप्त हो मेरे उस बीज से नवांकुर निकल पड़े,इस प्रकार मेरा जन्म हुआ, मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की नजरें पड़ी तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे, उन्होंने लोककल्याण की भावना से अभिभूत हो अपनी कुटिया के बाहर सामने ‌ही रोप दिया था मेरे बिरवे को  । वे रोज शाम को पूजन वंदन के लिए अमृतमयी गंगाजल लाते, और पूजन के बाद शेष बचे जल से मेरी जड़ों को सींचते तो उस जल की शीतलता से मेरी आत्मा खिलखिला उठती ।

इस तरह मंथर गति से समय चक्र चलता रहा,उसी के साथ मेरी आकृति तथा छाया विस्तार होता रहा,इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया, मुझे पता भी न चला,वे कभी मेरी  जड़ों में खाद पानी डाला करते कभी‌ मिट्टी पाट चबूतरा बनाया करते,जब वे परिश्रम करते करते थक कर निढाल हो मेरी छाया के नीचे बैठ विश्राम करते तो मेरी शीतल छांव‌ से उनके मन को अपार शांति मिलती,और मेरी छाया उनकी सारी पीड़ा  सारा थकान ‌हर लेती, उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि के भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता,मेरा‌ चेहरा चमक उठता, मेरी शाखाएं झुक झुक अपने धर्म पिता के गले में गलबहियां डालने को व्याकुल हो उठती।

गुजरते वक्त के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया, मैं जवान  हो गया था, मैंने हरियाली की चादर तान दी थी अपने धर्मपिता की कुटिया के उपर, तथा पूरे प्रांगण को ढक लिया था अपनी शीतल छांव से,मेरी शीतल‌ छाया का आभास धूप में जलते पथिक को होता तथा पके फल खाते पंछियों के कलरव से गूंज उठता कुटिया प्रांगण, उसे सुनकर मेरा चेहरा अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव से भर उठता,और उनके चेहरे काआभामंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता।अब उनकी प्रेरणा से मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट था,उन संत के सानिध्य का मेरी मनोवृत्ति पर बड़ा‌ ही गहरा प्रभाव पड़ा था, मेरी जीवन वृत्ति भी लोकोपकारी हो गई थी.

अब औरों के लिए दुख पीड़ा झेलने में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी । महात्मा जी ने मेरी छाया के नीचे चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था, लोगों का आना जाना तथा सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक दिनचर्या का अंग बन गया था । मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी तथा सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते हुए देखा,और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता प्राप्त कर इस नश्वर संसार से  विदा होते देखा,अब मेरी छाया के नीचे बने  चबूतरे को ही महात्मा जी का समाधि स्थल बना दिया गया, तब से अब तक महात्मा जी के साथ बिताए पलों ‌को अपने स्मृतिकोश में सहेजे लोक कल्याण की आश का दीप जलाये धूप जाड़े तथा बर्षा सहते उस समाधि को घनी छाया से आच्छादित किये बरसों से खड़ा था। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा,मैं कभी पक्षियों का आश्रयस्थल बना तो कभी किसी थके हारे पथिक की शरणस्थली। पर हाय ये मेरी तकदीर!ना जाने क्यूं ये मानव  मूझसे रूठा। मुझे नहीं पता, वो तेजधार कुल्हाड़ी से मेरी शाखाएं काटता रहा था,अपना स्वार्थ सिद्ध करता रहा, मैंने उसे कुछ नहीं कहा,बल्कि मौन हो उस दर्द पीड़ा को सहता रहा हूं, परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर मेरी जड़े काट मुझे मरने पर बिबस कर दिया,क्यो कि उन्होंने ने वहां मंदिर बनाने का निर्णय लिया है,इस क्रम में उन्होंने पहली बलि मेरी ही ली है।

मैंने सोचा कि जब मैं इस दुनिया से दूर जा ही रहा हूं तो क्यो न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता चलूं,ताकि मेरे मन का मलाल घुटन पीड़ा कम हो जाय तथा सीने पर पड़ा बोझ हल्का हो जाय।मेरा निवेदन है कि मेरी पीड़ा व्यथा तथा दर्द से समाज को अवगत करा देना ताकि यह मानव समाज और बृक्ष न काटे,इस प्रकार प्रकृति पर्यावरण का संरक्षण का संदेश देते हुए उसकी आंखें छलछला उठी,उसकी जुबां खामोश हो गयी, वह मर चुका था,उस वटवृक्ष  की दशा देख मेरा हृदय चीत्कार कर उठा,और मैं उस धराशाही वटवृक्ष  को निहार रहा था अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहाय होकर।

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 31 – बापू के संस्मरण-5 मैं तुझसे डर जाता हूं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मैं तुझसे डर जाता हूं”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 30 – बापू के संस्मरण – 5- मैं तुझसे डर जाता हूं☆ 

 

साबरमती-आश्रम में रसोईघर का दायित्व श्रीमती कस्तुरबा गांधी के ऊपर था । प्रतिदिन अनेक अतिथि गांधीजी सें मिलने के लिए आते थे बा बड़ी प्रसन्नता से सबका स्वागत-सत्कार करती थीं । त्रावनकोर का रहने वाला एक लड़का उनकी सहायता करता था एक दिन दोपहर का सारा काम निपटाने के बाद रसोईघर बन्द करके बा थोड़ा आराम करने के लिये अपने कमरे में चली गईं । गांधीजी मानो इसी क्षण की राह देख रहे थे बा के जाने के बाद उन्होंने उस लड़के को अपने पास बुलाया और बहुत धीमे स्वर में कहा, “अभी कुछ मेहमान आनेवाले हैं उनमें पंड़ित मोतीलाल नेहरु भी हैं उन सब के लिए खाना तैयार करना है बा सुबह से काम करते-करते थक गई हैं उन्हें आराम करने दे और अपनी मदद के लिए कुसुम को बुला ले और देख, जो चीज जहां से निकाले, उसे वहीं रख देना” ।

लड़का कुसुम बहन को बुला लाया और दोनो चुपचाप अतिथियों के लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगे । काम करते-करते अचानक एक थाली लड़के के हाथ से नीचे गिर गई । उसकी आवाज से बा की आंख खुल गई सोचा रसोईघर में बिल्ली घुस आई है वह तुरन्त उठकर वहां पहुंची, लेकिन वहां तो और कुछ ही दृश्य था बड़े जोरों से खाना बनाने की तैयारियां चल रही थीं वह चकित भी हुईं और गुस्सा भी आया ऊंची आवाज में उन्होंने पूछा, “तुम दोनों ने यहां यह सब क्या धांधली मचा रखी हैं?”

लड़के ने बा को सब कहानी कह सुनाई इसपर वह बोलीं, “तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?” लड़के ने तुरन्त उत्तर दिया, “तैयारी करने के बाद आपको जगानेवाले थे आप थक गई थीं, इसलिए शुरु में नहीं जगाया” । बा बोलीं, “पर तू भी तो थक गया था क्या तू सोचता है, तू ही काम कर सकता हैं,मैं नहीं कर सकती ?” और बा भी उनके साथ काम करने लगीं ।

शाम को जब सब अतिथि चले गये तब वह गांधीजी के पास गईं और उलाहना देते हुए बोलीं, “मुझे न जगाकर आपने इन बच्चों को यह काम क्यों सौंपा?” गांधीजी जानते थे कि बा को क्रोध आ रहा है इसलिए हंसते-हंसते उन्होंने उत्तर दिया, “क्या तू नहीं जानती कि तू गुस्सा होती है, तब मैं तुझसे ड़र जाता हूं?” बा बड़े जोर से हंस पड़ीं, मानो कहती हों –“आप और मुझसे डरते हैं!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – विशेष आलेख ☆ “व्यंग्यम स्मृतियाँ” – व्यंग्य विधा : एक ऐतिहासिक सन्दर्भ ☆ प्रस्तुति – हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर 

☆ ई- अभिव्यक्ति का विशेष आलेख  ☆ “व्यंग्यम स्मृतियाँ” – व्यंग्य विधा :  एक ऐतिहासिक सन्दर्भ ☆

(यह बात सन 2011 की है जब आदरणीय एवं अग्रज सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री श्रीराम अयंगार जी ने अपने ब्लॉग को अपनी प्रिय पत्रिका “व्यंग्यम” के नाम से शीर्षक दिया।  मैं कल्पना करता हूँ कि यदि यह पत्रिका जीवित रहती तो हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा की दिशा कुछ और ही होती। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिन पुरोधाओं ने 70 के दशक में अपने श्रम, परिकल्पना और स्वप्नों की आहुती दी उन्हें हिन्दी साहित्य में उचित स्थान सम्मान देना तो दूर, अपितु, इस तिकड़ी के दो जीवित पुरोधाओं को भी हमने भुला दिया। उनके कार्य को उन्हें जानने वाली समवयस्क और वरिष्ठ पीढ़ियों के अतिरिक्त शायद ही कोई जानता है। इस शोधपरक आलेख के लिए अग्रज आदरणीय श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सहयोग के लिए आभार । इस आलेख के माध्यम से मैं आपको व्यंग्य विधा के लिए समर्पित उन तीन नवयुवकों द्वारा रचे इतिहास से अवगत कराने का प्रयास कर रहा हूँ।  )

संस्कारधानी जबलपुर के तीन नवयुवक श्री महेश शुक्ल, स्व रमेश शर्मा ‘निशिकर’ एवं श्री श्रीराम आयंगर ने जनवरी 1977 में संभवतः मध्य प्रदेश की प्रथम व्यंग्य पत्रिका ‘व्यंग्यम’ का प्रथम अंक प्रकाशित किया होगा तब वे नहीं जानते थे कि वे इतिहास रच रहे  हैं।

आज श्री महेश शुक्ल जी सेंट्रल बैंक से सेवानिवृत होकर बिलासपुर में बस गए एवं श्री श्रीराम आयंगर जी इलाहाबाद बैंक से सेवानिवृत होकर बेंगलुरु में बस गए हैं। स्व निशिकर जी का देहांत लगभग 20-25 वर्ष पूर्व हो चुका है।

श्री महेश शुक्ल जी उस समय की याद करते हुए पुराने दिनों में खो जाते हैं। वे गर्व से बताते हैं कि उन्हें जी एस कॉलेज जबलपुर में डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी ने अङ्ग्रेज़ी और श्री ज्ञानरंजन जी ने हिन्दी की शिक्षा दी थी। आज डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी एवं श्री ज्ञानरंजन जी आज भी साहित्य सेवा में रत हैं। डॉ परिहार जी बाद में जी एस कॉलेज से प्राचार्य हो कर सेवानिवृत्त हुए एवं उम्र के इस पड़ाव में आज भी लघुकथा तथा व्यंग्य विधा में सतत लेखन जारी है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझता हूँ जो ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से मुझे भी उनका आशीर्वाद प्राप्त है।  श्री ज्ञानरंजन जी अपनी पत्रिका ‘पहल’ का सतत सफल सम्पादन कर रहे हैं।

अग्रज श्री श्रीराम आयंगार जी के शब्दों में “कुछ करने की जिजीविषा झलकती है और साथ ही असफलता हमें निराश करती है।” वे आज भी उसी ऊर्जा के साथ साहित्य एवं समाज सेवा में लिप्त हैं। जब मैंने उनसे इस बारे में चर्चा करनी चाही तो उन्होने अपने ब्लॉग का एक लिंक प्रेषित किया जो उनके पत्रिका के प्रति आत्मीय जुड़ाव एवं उन मित्रों के संघर्ष की कहानी बयां करती है।

श्री श्रीराम आयंगर जी अपने ब्लॉग के 6 जनवरी 2011 के अंक में लिखते हैं –

“31 वर्षों के बाद मैं अपने इस ब्लॉग को ’व्यंग्यम’ के लिए पुनः समर्पित कर रहा हूँ।  आपने मेरे ब्लॉग के टेम्प्लेट और शीर्षक में बदलाव देखा होगा। अब एक शब्द “वयंग्यम” प्रत्यय दिया है। 2011 की यह पहली पोस्ट हिंदी में एक त्रैमासिक लघु  पत्रिका “व्यंग्यम” को समर्पित है, जो पूरी तरह से व्यंग्य लेखन के लिए ही समर्पित थी। इस पत्रिका का सम्पादन मैं और मेरे जैसी मानसिकता वाले दो लेखक मित्र रमेश शर्मा ‘निशिकर’ और श्री महेश शुक्ला मिलकर करते थे। निशिकार जी का घर ही उनका कार्यालय हुआ करता था।

हिंदी में ‘व्यंग्य’ मेरे दिल के बहुत करीब है, जैसा कि मैं अपने कॉलेज के दिनों से पहले और बाद में अंग्रेजी में व्यंग्य लिख रहा हूं। अक्सर पाठक हास्य विधा को व्यंग्य विधा समझने की गलती करते हैं, लेकिन हम व्यंग्यकार के रूप में दोनों के बीच एक रेखा खींचते हैं। जबकि हास्य विशुद्ध रूप से हंसी और मनोरंजन के लिए है, व्यंग्य हास्य के स्पर्श के साथ गंभीर विचार प्रक्रिया है जो पाठक को सामाजिक और राजनीतिक रूप से और आसपास के समाज में विसंगतियों से अवगत कराता है।

यदि हम 70 या 80 का दशक देखें तो पाएंगे कि व्यंग्य को किसी भी हिन्दी पत्र पत्रिका में अनियमित रूप से फिलर की तरह उपयोग में लाया जाता था। उस दौरान मुंबई से  राम अवतार चेतन द्वारा प्रकाशित ‘रंग चकल्लस’ के अतिरिक्त हिन्दी की कोई भी पत्रिका नहीं थी जो व्यंग्य विधा में कार्य कर रही हो। यह पत्रिका भी हास्य और व्यंग्य का मिला जुला स्वरूप थी। मध्य प्रदेश उन दिनों देश के दो शीर्ष व्यंग्यकारों के लिए एक घर था, जैसे श्री हरि शंकर परसाई, जबलपुर में और भोपाल में श्री शरद जोशी। वे मेरे जैसे अन्य कई युवा लेखकों के प्रेरणा स्तम्भ थे।

हम तीन मित्रों ने व्यंग्य पर एक पत्रिका प्रारम्भ कर इस अंतर को भरने का विचार और फैसला किया। हम तीनों उस समय लिपिकीय ग्रेड में थे।  बिना किसी वित्तीय सहायता और कैनवसिंग या मार्केटिंग के अनुभव के केवल दृढ़ निश्चय और जुनून के बल पर अपनी योजना को आगे बढ़ाने का फैसला किया। यह वह समय था जब हमारा देश 1976 में ‘आपातकाल’ नामक इतिहास के एक काले दौर से गुजर रहा था। मीडिया पर पूर्ण सेंसरशिप थी; ‘अभिव्यक्ति का अधिकार’ दमनकारी था, विपक्षी नेता या तो जेल में थे या भूमिगत थे और सत्ता में मौजूद लोग रेंग रहे थे। व्यंग्य और हास्य पहली बार आपातकाल में हताहत हुआ था। ‘Shankar’s Weekly’ जैसी हास्य व विनोदी अंग्रेजी पत्रिका को बंद करने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि इसने घुटने टेकने से इनकार कर दिया था। ऐसे आपातकाल के घने बादलों के साये में हमारी पत्रिका की परिकल्पना की गई थी और हमने जनवरी 1977 में ‘व्यंग्यम’ नाम से 500 प्रतियों प्रकाशित की जिनका मूल्य दो रुपये रखा।

 प्रकाशन की अपनी पूरी अवधि में हम तीनों मित्रों ने संपादक, प्रूफ रीडर, लेआउट डिजाइनर, ऑफिस बॉय, चाय वाले, डिस्पैचर और फेरीवाले, सभी रोल अदा किए। वर्ष 77-78 के दौरान, त्रैमासिक पत्रिका के आठ अंकों का नियमित रूप से प्रकाशन किया गया था। पत्रिका को लेखकों के मुफ्त योगदान के माध्यम से सभी प्रसिद्ध और नवोदित लेखकों से पूर्ण समर्थन मिला किन्तु निरंतर वित्तीय सहायता के अभाव में 10वें अंक के प्रकाशित होते तक  पत्रिका ने थकान और बीमारी का संकेत देना शुरू कर दिया।  इसकी कम लागत के बावजूद, दुर्भाग्य से पत्रिका अपेक्षित बिक्री या सदस्यता प्राप्त नहीं कर सकी ।”

महेश शुक्ला जी बताते हैं कि “यह उन सबके लिए सदैव अविस्मरणीय रहेगा कि प्रिंटिंग प्रैस के मालिक श्री नटवर जोशी जी जिनकी प्रेस हनुमानताल में हुआ करती थी, ने हमें भरपूर सहयोग दिया। जब हमारे पास प्रकाशनार्थ पैसे नहीं होते थे तो भी वे हम पर विश्वास कर पत्रिकाएँ विक्रय के लिए सौंप देते थे और कहते थे – “जब भी बिक्री से पैसे आ जाएँ तो दे देना।”

श्री आयंगर जी बताते हैं कि “धन जुटाने के उद्देश्य से हमने दो पुस्तकें और श्री राम ठाकुर दादा का एक उपन्यास ’24 घंटे ‘ शीर्षक से  भी प्रकाशित किया, लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ हो गए ।”

वे आगे बताते हैं कि – “जल्द ही हम 1979 में पत्रिका को बंद करने के लिए मजबूर हो गए। “व्यंग्यम” को फिर से पुनर्जीवित नहीं किया जा सका। पत्रिका के बंद होने से हमारे कई मित्र लेखकों और शुभचिंतकों ने भी अपने असली रंग दिखाये और चुपचाप किनारा कर लिया।”

ये उस भाग्यशाली व्यंग्यकर पीढ़ी के सदस्य हैं, जिन्हें स्व हरीशंकर परसाईं जैसी विशिष्ट विभूति का सानिध्य एवं मार्गदर्शन मिला। इन्होने उस समय अपनी पत्रिका में श्री आयंगार जी द्वारा लिया गया परसाईं जी का साक्षात्कार भी प्रकाशित किया था । बाद में श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी ने परसाईं जी का सबसे लंबा एवं अतिम साक्षात्कार लिया था जो काफी चर्चित रहा और अब भी बतौर ऐतिहासिक सन्दर्भ स्मरण किया जाता है ।

श्री महेश शुक्ला जी बताते हैं कि – उस दौरान नवभारत टाइम्स ने पत्रिका कि समीक्षा प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक “आपातकाल में मुरझाया व्यंग्यम” था।

मुझे इन दोनों विभूतियों से मिलाने का अब तक सौभाग्य तो नहीं मिला किन्तु फोन पर बातचीत करते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि मैं इनसे अनजान हूँ । दोनों ने बड़ी संजीदगी से मुझसे संवाद किया और प्रेरित किया। दोनों बेहद जिंदादिल इंसान हैं । मुझे इन दोनों में एक अंतरंग समानता दिखाई दी जो साझा करना चाहता हूँ । दोनों को ही संगीत से प्रेम है। अग्रज श्री श्रीराम जी बेहद सुरीले स्वर में गाते हैं और श्री महेश शुक्ल जी संगीत की धुन पर थिरकने से स्वयं को रोक नहीं पाते। 

व्यंग्यम” के दुखद अध्याय पर आज भी चर्चा करते हुए इनके नेत्र नम हो जाते हैं।

हम अपने पाठकों के लिए तीनों वरिष्ठतम व्यंग्यकारों के सस्वर व्यंग्यपाठ आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं।  आशा है आपका स्नेह मिलेगा।

आप सम्मानित व्यंग्यकारों के चित्र अथवा नाम (अंग्रेजी  वर्णमाला के क्रम में) पर क्लिक कर उनकी रचना आत्मसात कर सकते हैं ।
☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ व्यंग्य रचना : किचन में मेरे कदम ☆ व्यंग्यकार एवं स्वर : श्री महेश शुक्ला ☆

श्री महेश शुक्ला 

जन्म – 15 नवंबर 1946 रायपुर
प्रकाशन –  250 व्यंग्य प्रमुख पत्रों में प्रकाशित
सम्प्रति – बैंक से सेवानिवृत्त के बाद बिलासपुर में निवास

 

☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ व्यंग्य रचना : सुदामा कृष्ण और महंगाई ☆ व्यंग्यकार : स्व. रमेश शर्मा ‘निशिकर’☆ स्वर : श्री श्रीराम आयंगर☆

स्व रमेश शर्मा ‘निशिकर’ 

जन्म – 13 सितंबर 1942 जबलपुर (म प्र )
भूतपूर्व कर्मी मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल जबलपुर, मध्यप्रदेश
प्रकाशन – साप्ताहिक हिंदुस्तान / कंचन प्रभा / माधुरी / मायापुरी / राष्ट्रधर्म / हास्यम आदि प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में .

 

☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ व्यंग्य रचना : जागरूक पीढ़ी ☆  व्यंग्यकार एवं स्वर : श्री श्रीराम आयंगर ☆

 

श्री श्रीराम आयंगर 

जन्म –  27 अप्रैल 1950 दुर्ग म प्र
प्रकाशन – सारिका, हास्यम, रंग, नवभारत टाइम्स। कहानीकार, कंचनप्रभा, मुक्ता, मायापुरी, यूथ टाइम्स, सन, अरुण, नवभारत एवं अनेक लघु पत्रिकाएं । आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित। समांतर लघु कथाएं  / काफिला / पाँच व्यंग्यकार / श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ संकलनों  में रचना प्रकाशित। व्यंगयम पत्रिका का जबलपुर से संयुक्त संपादन ( वर्तमान में स्थगित)।  पुस्तक एक बीमार सौ अनार १९८५। व्यंगयम शीर्षक से ब्लॉग 2011 से ।

लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड 2009 में उन सभी स्थानों पर विजिट करने के लिए जहां 50 वर्ष पूर्व रहे थे

एन जी ओ श्री मिशन के लिए ई पत्रिका मास्टर का सम्पादन

☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ चलते चलते – श्री महेश शुक्ला जी  एवं श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का एक महत्वपूर्ण संवाद ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

आदरणीय श्री महेश शुक्ल जी के विगत जबलपुर यात्रा के समय श्री महेश शुक्ल जी को व्यंग्यम गोष्ठी में सम्मानित किया गया एवं श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी ने उनसे संक्षिप्त संवाद को अपने मोबाईल में कैद कर लिया जिसे हम आपसे साझा कर रहे हैं  –

कृपया इस वीडियो लिंक पर क्लिक करें  >>>>>  चलते चलते – श्री महेश शुक्ला जी  एवं श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का एक महत्वपूर्ण संवाद

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“व्यंग्यम” पत्रिका की स्मृति में विगत 34 माह से जबलपुर में  मासिक व्यंग्यम गोष्ठी का आयोजन होता रहा है । व्यंग्यम को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से “व्यंग्यम गोष्ठी”  की श्रृंखला का आयोजन सतत जारी है और भविष्य में व्यंग्यम पत्रिका की योजना भी विचाराधीन है।

विगत 34 माह पूर्व जबलपुर में मासिक व्यंग्यम गोष्ठी की श्रंखला चल रही है जिसमें व्यंग्यकार हर माह अपनी ताजी रचनाओं का पाठ करते हैं।  34 महीने पहले इस आयोजन  को प्रारम्भ करने का श्रेय जबलपुर के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ कुंदन सिंह परिहार, श्री रमेश सैनी, श्री जय प्रकाश पाण्डेय, श्री द्वारका गुप्त आदि व्यंग्यकारों को जाता है। इस गोष्ठी की विशेषता यह है अपने नए व्यंग्य का पाठ इस गोष्टी में करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तीसरे माह किसी प्रतिष्ठित अथवा मित्र व्यंग्यकारों के व्यंग्य संग्रह की समीक्षा भी की जाती है।

कोरोना समय और लाॅक डाऊन के नियमों के तहत सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए और घर की देहरी के अंदर रहते हुए अप्रैल माह की व्यंग्यम गोष्ठी इंटरनेट पर  सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना एवं संचार तकनीक का प्रयोग करते हुए आयोजित करने का यह एक छोटा सा प्रयास किया गया था ।इस गोष्ठी के लिए सूचना तकनीक के कई प्रयोगों के बारे में विचार किया गया जैसे कि व्हाट्सएप्प और वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग। किन्तु, प्रत्येक की अपनी सीमायें हैं साथ ही हमारे वरिष्ठतम एवं कई  साहित्यकार इन तकनीक के प्रयोग सहजतापूर्वक नहीं कर पाते।  इस सन्दर्भ में ई- अभिव्यक्ति ने एक अभिनव प्रयोग किया था । इस प्रयास को आप निम्न लिंक पर देख सुन सकते हैं –

☆ ई- अभिव्यक्ति का अभिनव प्रयोग – प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था “व्यंग्यम” की प्रथम ऑनलाइन गोष्ठी ☆

इस ऐतिहासिक प्रयोग के पश्चात मई 2020 माह की “व्यंग्यम गोष्ठी” को  गूगल मीट तकनीक से  कल 30  मई 2020 को आयोजित की गई। सभी प्रतिभागी व्यंग्यकारों को उनके उत्साह के लिए अभिनंदन ।

ई–अभिव्यक्ति की ओर से तीनों मित्रों को व्यंग्य विधा में उनके अभूतपूर्व ऐतिहासिक कार्यों के लिए साधुवाद।

वर्तमान में हमारे बीच उपस्थित श्री महेश शुक्ला जी एवं श्री श्रीराम आयंगर जी का हम पुनः हार्दिक अभिनंदन करते हैं । 

हमें पूर्ण आशा एवं विश्वास है कि  इस शोधपरक आलेख को आप सबका स्नेह एवं प्रतिसाद मिलेगा। आदरणीय अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का आभार एवं आप सब का पुनः हृदय से आभार।  नमस्कार ।

अपने घरों में रहें, स्वस्थ रहें। आज का दिन शुभ हो।   

– हेमन्त बावनकर,  सम्पादक ई-अभिव्यक्ति, पुणे

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पत्रकारिता दिवस विशेष ☆ पत्रिका समूह के संस्थापक कर्तव्य परायण पत्रकार….श्री कर्पूर चंद्र कुलिश ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित एक समसामयिक विशेष रचना “पत्रिका समूह के संस्थापक कर्तव्य परायण पत्रकार….श्री कर्पूर चंद्र कुलिश। ) 

 

☆ पत्रिका समूह के संस्थापक कर्तव्य परायण पत्रकार….श्री कर्पूर चंद्र कुलिश ☆

 

जनतांत्रिक शासन के पोषक जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से, सबके जिनसे रहते हैं गहरे सरोकार

जो धड़कन हैं अखबारो की जिनसे चर्चायें प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के सब सुखदुख से रह निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार….

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते हैं कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार…

पत्रिका समाचार पत्र समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश ऐसे ही कर्तव्य परायण, स्वतंत्र, निष्पक्ष व जुझारू पत्रकार हैं. कलम के धनी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सास्कृतिक मूल्यों के संरक्षक,वेद विज्ञान के अध्येता श्रद्धेय कुलिश जी के अप्रतिम सामाजिक योगदान के चलते ही भारत सरकार ने उनकी स्मृति को अक्षुण्य बनाने के लिये ५ रुपये का डाकटिकिट भी जारी किया है.

पत्रकारिता के संदर्भ में पौराणिक संदर्भो का स्मरण करें तो नारद मुनि संभवतः पहले पत्रकार कहे जा सकते हैं, इसी तरह  युद्ध भूमि से लाइव रिपोर्टिंग का पहला संदर्भ संजय द्वारा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का हाल सुनाने का है. माना गया है कि  “पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान संबंधी बातों को जानकर अपना बंद मस्तिष्क खोलते हैं ।”

वर्तमान युग में  विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन् 131 ईसा पूर्व रोम में माना जाता है. तब  वहाँ “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं) किसी बड़े प्रस्तर पट  या धातु की पट्टी  पर वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं व  समाचार अंकित करके रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं.मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकाले जाने लगे जिनमें कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे.  ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे. 15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया. असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया. फिर समाचार पत्रो का मुद्रण शुरू हुआ.   दुनिया के पहले मुद्रित समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’ ऐसा माना जाता है.

हिंदी पत्रकारिता का उद्भव सन् 1826 से 1867 माना जाता है. 1867 से 1900 के समय को हिंदी पत्रकारिता के विकास का प्रारंभिक समय कहा गया है. 1900 से 1947 के समय को हिंदी पत्रकारिता के उत्थान का समय निरूपित किया गया है. 1947 से अब तक के समय को स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता कहा जाता है. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता में अखबार, पत्रिकायें, रेडियो तथा २० वीं सदी के अंतिम दो दशको में टी वी पत्रकारिता का उद्भव हुआ. २१वी सदी के आरंभ के साथ इंटरनेट तथा सोशल मीडीया का विस्तार हुआ. पत्रिका समूह को गौरव प्राप्त है कि प्रौद्योगिकी के इन परिवर्तनो के साथ वह अपने पाठको से कदम से कदम मिलाकर बढ़ रहा है, पत्रिका की वेबसाइट, ईपेपर इसके सजीव उदाहरण हैं.

देश की आजादी में पत्रकारो एवं समाचार पत्रो का अद्वितीय स्थान रहा है. स्वयं तिलक जी, महात्मा गांधी, व क्रांतिकारियो ने भी समय समय पर अनेक समाचार पत्र प्रकाशित किये, व उनके माध्यम से जन जागरण तथा सूचना का प्रसार किया. सूचना और साहित्य किसी भी सभ्य समाज की बौद्धिक भूख मिटाने के लिये अनिवार्य जरूरत है.  सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते सोशल मीडिया व ब्लाग जगत को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

तकनीक के विकास के साथ इस आवश्यकता को पूरा करने के संसाधन बदलते जा रहे हैं.हस्त लिखित अखबार और पत्रिकायें, फिर टंकित तथा साइक्लोस्टायल्ड अथवा फोटोस्टेट पत्रिकायें, न्यूज लैटर या पत्रक, एक एक अक्षर को फर्मे पर कम्पोज करके तथा फोटो सामग्री के ब्लाक बनाकर मुद्रित अखबार की तकनीक, विगत कुछ दशको में तेजी से बदली है और अब बड़े तेज आफसेट मुद्रण की मशीने सुलभ हैं, जिनमें ज्यादातर  कार्य वर्चुएल साफ्ट कापी में कम्प्यूटर पर होता है. समाचार संग्रहण व उसके अनुप्रसारण के लिये  टेलीप्रिंटर की पट्टियो को अभी हमारी पीढ़ी भूली नही है. आज हम इंटरनेट से  ईमेल पर पूरे के पूरे कम्पोज अखबारी पन्ने ही यहाँ से वहाँ ट्रांस्फर कर लेते हैं. कर्पूर चंद्र कुलिश जी ने पत्रिका समूह में सदैव नये परिवर्तनो को सहज भाव से स्वीकार करने का जो व्यवसायिक वातावरण बनाया तथा युवा पत्रकारो को जो काम करने की स्वतंत्रता तथा छत्रछाया दी उसका ही परिणाम है कि आज पत्रिका समूह के देश के विभिन्न भागो से ढ़ेरो संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं और एक विशाल टीम समूह इससे जुड़ी हुई है.

वास्तव में पत्रकारिता भी साहित्य की भाँति समाज में चलने वाली गतिविधियों एवं हलचलों की डायरी  है । वह हमारे परिवेश में घट रही प्रत्येक सूचना को हम तक पहुंचाती है । देश-दुनिया में हो रहे नए प्रयोगों और कार्यों को हमें बताती है । इसी कारण विद्वानों ने पत्रकारिता को प्रतिदिन लिखा जाने वाला  इतिहास भी कहा है । वस्तुतः आज की पत्रकारिता सूचनाओं और समाचारों का संकलन मात्र न होकर मानव जीवन के व्यापक परिदृश्य को अपने आप में समाहित किए हुए है । यह शाश्वत नैतिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों को समसामयिक घटनाचक्र की कसौटी पर कसने का साधन बन गई है । पत्रकारिता जन-भावना की अभिव्यक्ति, सद्भावों की अनुभूति और नैतिकता की पीठिका है । संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की वाणी होने के साथ ही यह पत्रकारिता क्रांति की अग्रदूतिका है । ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, आशा-निराशा, संघर्ष-क्रांति, जय-पराजय, उत्थान-पतन आदि जीवन की विविध भावभूमियों की मनोहारी एवं यथार्थ छवि के दर्शन हम युगीन पत्रकारिता के दर्पण में कर सकते हैं । पत्रिका समूह के समाचार पत्र व पत्रिकायें इन मूल्यो के प्रहरी हैं. इसकी नींव के पत्थर संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी ही हैं.

कर्पूरचंद्र कुलिश (केसीके) की स्मृति में  11 हजार डॉलर का अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार स्थापित किया गया है, यह पत्रिका समूह की पत्रकारिता के पुरोधा को विनम्र श्रद्धांजली है यह प्रतिष्ठित  अवॉर्ड खोजी पत्रकारिता के लिए देश-दुनिया के श्रेष्ठ पत्रकारों को दिया जाता है।.  कर्पूरचंद्र कुलिश जी ने जाने कितनो की जीवनियां पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित की पर स्वयं उनकी जीवनी और उन पर विस्तृत सामग्री  कम ही है. यह उनकी आत्म श्लाघा से दूर समर्पित भाव से कार्य करने की प्रवृति दर्शाती है. जरूरत है कि उन पर विशद विवेचनायें हो, उनके पत्रकार स्वरूप, साहित्यिक पक्ष , जैन संस्कृति को वेद विज्ञान से जोड़ते आध्यात्मिक पक्ष, समाज सेवी भाव , राजनैतिक पक्ष, स्वतंत्रता सेनानी स्वरुप तथा सफल व्यवसायिक पक्ष पर शोध कार्य किये जावें जिससे उनके अनुकरणीय जीवन से नई पीढ़ी के युवा पत्रकार  प्रेरणा पा सकें.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #50 ☆ सन्मति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # सन्मति ☆

यात्रा पर हूँ। एक भिक्षुक भजन गा रहा है, ‘रघुपति राघव राजाराम…..सबको सम्पत्ति दे भगवान।’

संभवतः यह उसका भाषाई अज्ञान है। अज्ञान से विज्ञान पर चलें। विज्ञान कहता है कि सजीवों में वातावरण के साथ अनुकूलन या तालमेल बिठाने की स्वाभाविक क्षमता होती है।

इस क्षमता के चलते स्थूल शरीर का भाव सूक्ष्म तक पहुँचता है। जो वाह्यजगत में उपजता है, उसका प्रतिबिंब अंतर्जगत में दिखता है।

आज वाह्यजगत भौतिकता को ‘त्वमेव माता, च पिता त्वमेव’ मानने की मुनादी कर चुका। संभव है कि इसके साथ मानसिक अनुकूलन बिठाने की जुगत में अंतर्जगत ने ‘सन्मति’ को ‘सम्पत्ति’ कर दिया हो।

क्या हम सब भी ‘सन्मति’ से ‘सम्पत्ति’ की यात्रा पर नहीं हैं? सन्मति के लोप और सम्पत्ति के लोभ का क्या कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध है? इनके अंतर्सम्बंधों की  पड़ताल शोधार्थियों को संभावनाओं के अगणित आयाम दे सकती हैं।

 

#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

मंगलवार 30 मई 2017, प्रात: 8:35 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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