हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #38 – मुखिया मुख सो चाहिये ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मुखिया मुख सो चाहिये”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 38 ☆

☆ मुखिया मुख सो चाहिये

देश की आजादी से पहले स्वतंत्रता के आंदोलन हुये. आजादी पाने के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजियां लगा दी. अनेक युवा हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गये. सत्य की जीत और आजादी पाने के लिये महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन, अनशन, उपवास, अहिंसा का एक सर्वथा नया मार्ग प्रशस्त किया. देश स्वतंत्र हुआ, अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा. लेकिन प्रश्न है कि वह क्या कारण था कि देश का हर व्यक्ति आजादी चाहता था? उन दिनो तो शहरो में बसने वाले देश के संपन्न वर्ग के लोग आसानी से विदेशो से शिक्षा ग्रहण कर ही लेते थे, राज परिवारो, जमीदारों, अधिकारियों, उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोगो के अंग्रेजो से सानिध्य के लिये हर शहर कस्बे में क्लब थे. सुसंपन्न चाटुकार महत्वपूर्ण लोगो को रायबहादुर वगैरह के खिताब भी दिये जाते थे. गांवो की जनसंख्या तो अंग्रेजो के शासन में शहरी आबादी से कहीं ज्यादा थी और, “है अपना हिंदुस्तान कहाँ? वह बसा हमारे गांवो में”. गांवो से सत्ता का अधिकांश नाता केवल लगान लेने का ही था. संचार के साधन बहुत सीमित थे. लोगो की जीवन शैली में संतोष और समझौते की प्रवृत्ति अधिक बलवान थी, लोग संतुष्ट थे.  फिर क्यों आजादी की लड़ाई हुई ? बिना बुलाये जन सभाओ में क्यो लोग भारी संख्या में एकत्रित होते थे ? अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी वह पीढ़ी आजादी क्यो पाना चाहती थी?  इसका उत्तर समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा ही है.

आजादी के रण बांकुंरो की आत्मायें यदि बोल सकती, तो वे यही कहती कि उनने एक समर्थ तथा समृद्ध भारत की परिकल्पना की थी. आजादी का निहितार्थ यही था कि एक ऐसी शासन प्रणाली लागू होगी जिसमें संस्कार होगें. सत्य की पूछ परख होगी. राम राज्य की आध्यात्मिकता जिसके अनुसार “मुखिया मुख सो चाहिये खान पान कहुं एक,  पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक ” वाले अधिकारी होंगे.देश का संविधान बनते और लागू होते तक यह विचार प्रबल रहा तभी तो “जनता का, जनता के लिये जनता के द्वारा ” शासन हमने स्वीकारा. पर उसके बाद कहीं न कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ हो गई. आजादी के बाद से देश ने प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया. जहाँ एक सुई तक देश में नहीं बनती थी, और हर वस्तु “मेड इन इंग्लैंड” होती थी. आज हम सारी दुनिया में “मेक इन इण्डिया” का नारा लगा पाने में सक्षम हुये हैं. हमारे वैज्ञानिको ने ऐसी अभूतपूर्व प्रगति की है कि हम चांद और मंगल तक पहुँच चुके हैं. अमेरिका की सिलिकान वैली की सफलता की गाथा बिना भारतीयो के संभव नहीं दिखती. पर दुखद है कि आजादी के बाद हमारे समाज का चारित्रिक अधोपतन हुआ. आम आदमी ने आजादी के उत्तरदायित्वो को समझने में भारी भूल की है. हमने शायद स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता लगा लिया.

सर्वमान्य सत्य है कि हमेशा से आदमी किसी न किसी डर से ही अनुशासन में रहता आया है. भगवान के डर से, अपने आप के डर से या राजा अर्थात शासन के डर से. सच ही है “भय बिन होई न प्रीति “. आजादी के बाद के दशको में वैज्ञानिक प्रगति ने भगवान के कथित डर को तर्क से मिटा दिया.

भौतिक सुख संसाधनो के बढ़ते माया जाल ने लोगो को संतुष्टि से “जितना चादर है उतने पैर फैलाओ” की जगह पहले पैर फैलाओ फिर उस नाप के चादर की व्यवस्था करो का पाठ सीखने के लिये विवश किया है. इस व्यवस्था के लिये साम दाम दण्ड भेद, नैतिक अनैतिक हर तरीके के इस्तेमाल से लोग अब डर नहीं रहे. “‌‌ॠणं कृत्वा घृतं पिवेत् ” वाली अर्थव्यवस्था से समाज प्रेरित हुआ. राजा शासन या कानून  का डर मिट गया है क्योकि भ्रष्टाचार व्याप्त हुआ है, लोग रुपयो से या टेलीफोन की घंटियो के बल पर अपने काम करवा लेने की ताकत पर गुमान करने लगे हैं. जिन नेताओ को हम अपनी सरकार चलाने के लिये चुनते हैं वे हमारे ही वोटो से चुने जाने बाद हम पर ही रौब गांठने के हुनर से शक्ति संपन्न हो जाते हैं, इस कारण चुनावी राजनीति में धन व बाहुबल का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. राजनेता सरकारी ठेकों, देश की प्राकृतिक संपदा के दोहन, सार्वजनिक संपत्तियों को अपनी बपौती मानने लगे हैं. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई क्योकि कलम से जनअधिकारो की रक्षा की अपेक्षा थी  किंतु पूंजीपतियो तथा राजनेताओ ने इसका भी अपने हित में दोहन किया है.अनेक मीडिया हाउस तटस्थ होने की जगह पार्टी विशेष   के प्रवक्ता के रूप में सक्रिय हैं. आम जनता दिग्भ्रमित है हर बार चुनावो में वह पार्टी बदल बदल कर परिवर्तन की आशा करती है पर नये सिरे से ठगी जाती है.  इस तरह भय हीन समाज निरंकुश होता जा रहा है.

लेकिन सुखद बात यह है कि आज भी जनतांत्रिक मूल्यो में देश में गहरी आस्था है. हमारे देश के चुनाव विश्व के लिये उदाहरण बने हैं. इसी तरह न्यायपालिका के सम्मान की भावना भी हमारे समाज की बहुत बड़ी पूंजी है. समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना व  वर्तमान समाज में सुधार हेतु आशा की किरण कानून और उसके परिपालन के लिये उन्नत टेक्नालाजी का उपयोग ही सबसे कारगर विकल्प दिखता है. अंग्रेजो के समय के लचर राज पक्षीय पुराने कानूनो की विस्तृत विवेचना समय के साथ जरूरी हो चुकी है. नियम उपनियम,पुराने फैसलो के उदाहरण,  कण्डिकायें इतनी अधिक हो गईं है  कि नैसर्गिक न्याय भी कानून की किताबों और वकील साहब की फीस के मकड़जाल में उलझता जा रहा है. एक अदालत कुछ फैसला करती है तो उसी या उस जैसे ही प्रकरण में दूसरी अदालत कुछ और निर्णय सुनाती है. आज समय आ चुका है कि कानून सरल, बोधगम्य और स्पष्ट बनें. आम आदमी भी जिसने कानून की पढ़ाई न की हो नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से उनहें समझ सके और उनका अमल करे. समाज में नियमों के परिपालन की भावना को सुढ़ृड़ किया जाना जरूरी हो चुका है.आम नागरिको के  नियमो के पालन को सुनिश्चित करने के लिये  प्राद्योगिकी व संचार तकनीक का सहारा लिया जाना उपयुक्त है. हमारी पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह रेल रिजर्वेशन में कम्प्यूटरीकरण से व्यापक परिवर्तन हुये, सुविधा बढ़ी, भ्रष्टाचार बहुत कम हुआ. वीडियो कैमरो की मदद से आज खेल के मैदान पर भी निर्णय हो रहे हैं, जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानो, कार्यालयों में और तेजी से कम्प्यूटरीकरण किया जावे, संचार तकनीक से आडियो वीडियो निगरानी बढ़ाई जावे. इस तरह न केवल अपराधो पर नियंत्रण बढ़ेगा वरन आजादी के सिपाहियो द्वारा देखी गई समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा मूर्त रूप ले सकेगी. कानून व तकनीकी निगरानी के चलते जनता, अधिकारी या नेता हर कोई मूल्य आधारित संस्कारित व्यवहार करने पर विवश होगा. धीरे धीरे यह लोगो की आदत बन जायेगी. यह आदत समाज के संस्कार बने इसके लिये शिक्षा के द्वारा लोगों के मन में भौतिक की जगह नैतिक मूल्यो की स्थाई प्रतिस्थापना की जानी जरूरी है.  जब यह सब होगा तो आम आदमी आजादी के उत्तरदायित्व समझेगा स्वनियंत्रित बनेगा,अधिकारी कर्मचारी स्वयं को जनता का सेवक समझेंगे और  नेता अनुकरणीय बनेंगे.  देश में अंतिम व्यक्ति तक सुशासन पहुंचेगा. देश में प्राकृतिक या बौद्धिक संसाधनो की कमी नहीं है, जरूरत केवल यह है कि मूल्य आधारित प्रणाली से देश के विकास को सही दिशा दी जावे. भारत समर्थ है, हमारी पीढ़ी को इसे  समृद्ध भारत में बदलने का सुअवसर समय ने दिया है, इस हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना जरूरी है. इस अवधारणा को लागू करने के लिये हमें कानून व प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #36 ☆ चिरमृतक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 36 ☆

☆ चिरमृतक ☆

-कल दिन बहुत खराब बीता।

-क्यों?

-पास में एक मृत्यु हो गई थी। जल्दी सुबह वहाँ चला गया। बाद में पूरे दिन कोई काम ठीक से बना ही नहीं।

-कैसे बनता, सुबह-सुबह मृतक का चेहरा देखना अशुभ होता है।

विशेषकर अंतिम वाक्य इस अंदाज़ में कहा गया था मानो कहने वाले ने अमरपट्टा ले रखा हो।

इस वाक्य को शुभाशुभ का सूत्र न बनाते हुए विचार करो। हर सुबह दर्पण में किसे निहारते हो? स्वयं को ही न!…कितने जन्मों की, जन्म- जन्मांतरों की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचे हो…हर जन्म का विराम कैसे हुआ..मृत्यु से ही न! रोज चिरमृतक का चेहरा देखते हो! इसका दूसरा पहलू है कि रोज मर कर जी उठने वाले का चेहरा देखते हो। चिरमृतक या चिरजन्मा, निर्णय तुम्हें करना है।

स्मरण रहे, चेहरे देखने से नहीं, भीतर से जीने और मरने से टिकता और दिखता है जीवन। जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।

जीवन देखो, जीवन जियो।

 

©  संजय भारद्वाज

( प्रातः 7.55 बजे, 4.6.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 31 – महाशिवरात्रि पर्व विशेष – हिन्दू खगोल-विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  महाशिवरात्रि पर्व पर  विशेष सामायिक आलेख  “हिन्दू खगोल-विज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 31☆

☆ हिन्दू खगोलविज्ञान 

ब्रह्माण्ड में ग्रहों की कोई गति और हलचल हमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं से प्रभावित करती है । हम जानते हैं कि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति पृथ्वी पर एक वर्ष के लिए जिम्मेदार है और यदि हम इस गति को छह हिस्सों में विभाजित करते हैं तो यह वसंत, ग्रीष्मकालीन, मानसून, शरद ऋतु, पूर्व-शीतकालीन और शीतकालीन जैसे पृथ्वी पर मौसम को परिभाषित करता है । इसमें दो-दो विषुव (equinox) और अयनांत (solstice) भी सम्मलित हैं । पृथ्वी पर हमारे सौर मंडल के ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन हमेशाएक ही प्रकार का नहीं होता है क्योंकि विभिन्न ग्रहों की गति और हमारी धरती के आंदोलन की गति भिन्न भिन्न होती है । विशेष रूप से ऊर्जा के प्रवाह को जानने के लिए हमें ब्रह्माण्ड में सूर्य की स्थिति, नक्षत्रों में चंद्रमा की स्थिति, चंद्रमा की तिथि, जिसकी गणना चंद्रमा के उतार चढ़ाव या शुक्ल और कृष्ण पक्षों के चक्रों से की जाती है, और अन्य कई पहलुओं को ध्यान में रखना पड़ता है । हर समय इन ऊर्जायों के सभी संयोजन समान नहीं होते हैं । कभी-कभी कुछ अच्छे होते हैं, और अन्य बुरे, और इसी तरह । आपको पता होगा ही कि सूर्य की ऊर्जा के कारण पृथ्वी पर जीवन संभव है, सूर्य के बिना पृथ्वी पर कोई जीवन संभव नहीं हो सकता है । जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि हमारे वातावरण में जीवन की मूल इकाई, प्राण आयन मुख्य रूप से सूर्य से ही उत्पन्न होते हैं, और चंद्रमा के चक्र समुद्र के ज्वार- भाटा, व्यक्ति के मस्तिष्क और स्त्रियों के मासिक धर्म चक्र पर प्रभाव डालते हैं । मंगल गृह हमारी शारीरिक क्षमता और क्रोध के लिए ज़िम्मेदार होता है, और इसी तरह अन्य ग्रहों की ऊर्जा हमारे शरीर, मस्तिष्क हमारे रहन सहन और जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव डालती है ।

अयनांत अयनांत/अयनान्त (अंग्रेज़ी:सोलस्टिस) एक खगोलय घटना है जो वर्ष में दो बार घटित होती है जब सूर्य खगोलीय गोले में खगोलीय मध्य रेखा के सापेक्ष अपनी उच्चतम अथवा निम्नतम अवस्था में भ्रमण करता है । विषुव और अयनान्त मिलकर एक ऋतु का निर्माण करते हैं । इन्हें हम संक्रान्ति तथा सम्पात इन संज्ञाओं से भी जानते हैं । विभिन्न सभ्यताओं में अयनान्त को ग्रीष्मकाल और शीतकाल की शुरुआत अथवा मध्य बिन्दु माना जाता है । 21 जून को दोपहर को जब सूर्य कर्क रेखा पर सिर के ठीक ऊपर रहता है, इसे उत्तर अयनान्त या कर्क संक्रांति कहते हैं । इस समय उत्तरी गोलार्ध में सर्वाधिक लम्बे दिन होते हैं और ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है । मार्च और सितम्बर में जब दिन और रात्रि दोनों 12-12 घण्टों के होते हैं तब उसे विषुवदिन कहते हैं।

तो हम कह सकते हैं कि ब्रह्मांड इकाइयों के कुछ संयोजनों के दौरान प्रकृति हमें एकाग्रता, ध्यान, प्रार्थना इत्यादि करने में सहायता करती है अन्य में, हम प्रकृति के साथ स्वयं का सामंजस्य बनाकर शारीरिक रूप से अधिक आसानी से कार्य कर सकते हैं आदि आदि । तो कुछ संयोजन एक तरह का कार्य प्रारम्भ करने के लिए अच्छे होते हैं और अन्य किसी और प्रकार के कार्य के लिए । पूरे वर्ष में पाँच प्रसिद्ध रातें आती हैं जिसमें विशाल मात्रा में ब्रह्मांड की ऊर्जा पृथ्वी पर बहती है । अब यह व्यक्ति से व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस ऊर्जा को अपने आप के लिए या किसी और के लिए उसका उपयोग अच्छे तौर पर कर सकता है या दूसरों के लिए बुराई के तौर पर, जैसे कुछ तांत्रिक अनुष्ठानों में किया जाता है । इसके अतरिक्त कुछ रातें ऐसी भी होती है जो 3-4 वर्षो में एक बार या 10-20 वर्षो में एक बार एवं कुछ तो सदियों में एक बार या युगों में एक बार आती हैं । ये सब हमारे सौर मंडल में उपस्थित ग्रहों, नक्षत्रों और कुछ हमारे सौर मंडल के बाहर के पिंडो आदि की सापेक्ष गति और अन्य कई कारणों से होता है ।

ये पाँच विशेष रातें पाँच महत्वपूर्ण हिन्दु पर्वों की रात्रि हैं जो महाशिवरात्रि से शुरू होती हैं और उसके पश्चात होली, जन्माष्टमी, कालरात्रि और पाँचवी और तांत्रवाद के लिए सबसे खास रात्रि वह रात्रि है जो दिवाली के पूर्व मध्यरात्रि से शुरू होती है जिसे नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली या काली चौदस या भूत चौदस भी कहा जाता है । अर्थात वह समय, जो दिवाली रात्रि विशेष समय पूर्व, दिवाली रात्रि या नरक चतुरादाशी रात्रि 12:00 बजे से सुबह दिवाली की सुबह ब्रह्म मुहूर्त तक होता है ।

कालरात्रि नवरात्रि समारोहों की नौ रातों के दौरान माँ कालरात्रि की परंपरागत रूप से पूजा की जाती है । विशेष रूप से नवरात्र पूजा (हिंदू प्रार्थना अनुष्ठान) का सातवां दिन उन्हें समर्पित है और उन्हें माता देवी का भयंकर रूप माना जाता है, उसकी उपस्थिति स्वयं भय का आह्वान करती है । माना जाता है कि देवी का यह रूप सभी दानव इकाइयों, भूत, आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं का विनाशक माना जाता है, जो इस रात्रि उनके आने के  स्मरण मात्र से भी भागते हैं ।

नरक चतुर्दशी यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है । मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है । विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो कर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं । शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है । इस रात्रि दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं । एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंधी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था । इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजायी जाती है इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति (अर्थ : केलि, क्रीड़ा, विराम) देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे । उन्होंने जाने-अनजाने में भी कभी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए । यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आये हो क्योंकि आपके यहाँ आने का अर्थ है कि मुझे नर्क जाना होगा । आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है । पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है । दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे एक वर्ष का और समय दे दे । यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी । राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुँचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है । ऋषि बोले हे राजन आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणो को भोजन करवा कर उनसे अपने हुए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें । राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया । इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ । उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है । स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है । इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है ।

नरक चतुर्दशी (काली चौदस, रूप चौदस, छोटी दीवाली या नरक निवारण चतुर्दशी के रूप में भी जाना जाता है) हिंदू कैलेंडर अश्विन महीने की विक्रम संवत में और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (चौदहवें दिन) पर होती है । यह दीपावली के पाँच दिवसीय महोत्सव का दूसरा दिन है । भूत चतुर्दशी चंद्रमा की बढ़ती अवधि के दौरान अंधकार पक्ष या कृष्ण पक्ष के 14 वें दिन पर हर बंगाली परिवार में मनाया जाता है और यह पूर्णिमा की रात्रि से पहले होता है । यह सामान्य रूप से अश्विन या कार्तिक के महीने में 14 दिन या चतुर्दशी पर होता है ।

ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय के डेढ़ घण्टा पहले का मुहूर्त, ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है । सही-सही कहा जाय तो सूर्योदय के 2 मुहूर्त पहले, या सूर्योदय के 4 घटिका पहले का मुहूर्त । 1 मुहूर्त की अवधि 48 मिनट होती है । अतः सूर्योदय के 96 मिनट पूर्व का समय ब्रह्म मुहूर्त होता है । इस समय संपूर्ण वातावरण शांतिमय और निर्मल होता है । देवी-देवता इस काल में विचरण कर रहे होते हैं । सत्व गुणों की प्रधानता रहती है । प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है । जल्दी उठने में सौंदर्य, बल, विद्या और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । यह समय ग्रंथ रचना के लिए उत्तम माना गया है । वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायुमंडल प्रदूषणरहित होता है । इसी समय वायुमंडल में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है । शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है । ऐसे समय में शहर की सफाई निषेध है । आयुर्वेद के अनुसार इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है । ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है । यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि रात्रि को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है । सुबह ऑक्सिजन का स्तर भी ज्यादा होता है जो मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करता है जिसके चलते अध्ययन बातें स्मृति कोष में आसानी से चली जाती है ।

अगर हम बारीकी से विश्लेषण करे, महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुन के महीने में आता है ।

फाल्गुन हिंदू कैलेंडर का एक महीना है । भारत के राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष का बारहवां महीना है, और ग्रेगोरियन कैलेंडर में फरवरी/मार्च के साथ मेल खाता है । चंद्र-सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष के एक ही समय में नए चंद्रमा या पूर्णिमा पर शुरू हो सकता है, और वर्ष का बारहवां महीना होता है । हालांकि, गुजरात में, कार्तिक वर्ष का पहला महीना है, और इसलिए फाल्गुन गुजरातियों के लिए पाँचवें महीने के रूप में आता है । होली (15वी तिथि या पूर्णिमा शुक्ल पक्ष फाल्गुन) और महाशिवरात्रि (14वी तिथि कृष्ण पक्ष फाल्गुन) की छुट्टियां इस महीने में मनाई जाती हैं । सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन सूर्य के मीन राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है, और सौर वर्ष, या वसंत का बारहवां महीना होता है । यह वह समय है जब भारत में बहुत गर्म या ठंडा मौसम नहीं होताहै ।

महा शिवरात्रि कृष्णपक्ष की 14वीं तिथि या चंद्रमा के घटने के चक्र में चौदवें दिन मनाया जाता है। वैज्ञानिक रूप से कृष्ण पक्ष के चंद्रमा की चतुर्दशी पर, चंद्रमा की पृथ्वी को ऊर्जा देने की क्षमता बहुत कम हो जाती है (जो की उसके अगले दिन अमावस्या को पूर्ण समाप्त हो जाती है), इसलिए मन की अभिव्यक्ति भी कम हो जाती है, एक व्यक्ति का मस्तिष्क  परेशान हो जाता है, और किसी भी विचार से कई मानसिक तनाव हो सकते हैं ।

तो अच्छे विचारों के साथ एक खाली मस्तिष्क भरने के लिए या हमारे मन पर प्रक्षेपित चंद्रमा की ऊर्जा को नए और ताजे रूप से स्थापित करने के लिए सब को महा शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । महा शिवरात्रि से पहले, सूर्य देव (सूर्य के देवता), भी उत्तरायण तक पहुँच चुके होते हैं अर्थात यह मौसम बदलने का समय भी होता है ।

उत्तरायण सूर्य की एक दशा है । ‘उत्तरायण’ (= उत्तर + अयन) का शाब्दिक अर्थ है – ‘उत्तर में गमन’ । दिन के समय सूर्य के उच्चतम बिंदु को यदि दैनिक तौर पर देखा जाये तो वह बिंदु हर दिन उत्तर की ओर बढ़ता हुआ दिखेगा । उत्तरायण की दशा में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन लम्बे होते जाते हैं और रातें छोटी । उत्तरायण का आरंभ 21 या 22 दिसम्बर होता है । यह अंतर इसलिए है क्योंकि विषुवों के पूर्ववर्ती होने के कारण अयनकाल प्रति वर्ष 50 चाप सेकंड (arcseconds) की दर से लगातार प्रसंस्करण कर रहे हैं, यानी यह अंतर नाक्षत्रिक (sidereal) और उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों के बीच का अंतर है । सूर्य सिद्धांत बारह राशियों में से चार की सीमाओं को चार अयनांत कालिक (solstitial) और विषुव (equinoctial) बिंदुओं से जोड़कर इस अंतर को पूरा करता है । यह दशा 21 जून तक रहती है । उसके बाद पुनः दिन छोटे और रात्रि लम्बी होती जाती है । उत्तरायण का पूरक दक्षिणायन है, यानी नाक्षत्रिक राशि चक्र के अनुसार कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति के बीच की अवधि और उष्णकटिबंधीय राशि चक्र के अनुसार ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अयनांत के बीच की अवधि ।

तो यह शुभ समय होता है वसंत का स्वागत करने के लिए । वसंत जो खुशी और उत्तेजना के साथ मस्तिष्क को भरता है, महा शिवरात्रि पर भी सबसे शुभ समय ‘निशिता काल’ (अर्थ : हिंदू अर्धरात्रि का समय) है, जिसमें धरती पर सभी ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन उनके कुंडली ग्रह की स्थिति के बावजूद पृथ्वी के सभी मानवों के लिए सकारात्मक होता है । महा शिवरात्रि पर आध्यात्मिक ऊर्जा के संयोजन की व्याख्या करने के लिए, यह फाल्गुन महीने में पड़ता है, जो कि सूर्य के स्थान परिवर्तन का समय होता है और वह उत्तरायन में प्रवेश कर चूका होता है इस समय सर्दी का मौसम समाप्त हो जाता है । फाल्गुन नाम ‘उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र’ पर आधारित है, जिसके स्वामी सूर्य देव हैं, जिसमें मोक्ष, आयुर्वेदिक दोष  वात, जाति योद्धा, गुणवत्ता स्थिर, गण मानव, दिशा पूर्व की प्रेरणा होती है । महा शिवरात्रि चंद्रमा के घटने के चक्र के 14 वें दिन पर आता है, इसके एकदम बाद अमावस्या (जिसमे चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर नहीं दिखाई देता) होती है । तो चंद्रमा के घटने की 14वी तिथि वह समय होता है जब चंद्रमा के चक्र की ऊर्जा का अंतिम भाग उसकी ऊर्जा के दूसरे भाग द्वारा परिवर्तित होने वाला होता है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 35 ☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “तृष्णाएं–दु:खों का कारण”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख में  महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 35☆

☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण 

किसी को हरा देना बेहद आसान है, परंतु किसी को जीतना बेहद मुश्किल है। तुम किसी को बुरा-भला कह कर, उसे नीचा दिखला कर, गाली-गलौच कर, उसे शारीरिक व मानसिक रूप से आहत व पराजित कर सकते हो, परंतु उस के अंतर्मन पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। ‘वास्तव में यदि तुम किसी का अनादर करते हो, तो वह खुद का अनादर है’… ऋषि अंगिरा का यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु अहंनिष्ठ बावरा मन इतराता है कि वह किसी पर क्रोध दरशा कर,  ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर  बड़ा बन गया है। वास्तव में इससे आपकी प्रतिष्ठा का हनन होता है, आपका मान-सम्मान दांव पर लगता है, दूसरे का नहीं… यदि वह मौन रहकर आपकी बदमिजाज़ी व आरोपों व को सहन करता है। इसलिए मनुष्य को दूसरे का अनादर करने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह अपना अनादर करने जा रहा है। लोग दूसरे को नहीं, आपको बुरा-भला कह कर आपकी निंदा करेंगे। ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ अर्थात् आधी भरी हुई गागर छलकती है, शोर करती है और पूरी भरी हुई शांत रहती है, क्योंकि  उसमें स्पेस नहीं रहता।

सो! जीवन में जितनी तृष्णाएं होंगी, उतने छेद होंगे। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। इसी प्रकार मानव आजीवन तृष्णाओं के भंवर से बाहर नहीं आ सकता, क्योंकि यह मानव को एक पल भी चैन से नहीं बैठने देतीं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म लेती है। सो! मानव को चिंतन करने का समय प्राप्त ही नहीं होता और न ही वह इस तथ्य से अवगत हो पाता है कि उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? वह क्यों आया है, इस जगत् में? उम्र भर वह स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से बाहर नहीं आ पाता। मनुष्य सदैव इसी भ्रम में जीता है कि वह सर्वश्रेष्ठ है और वह कभी गलती कर भी नहीं सकता।

‘विश्व रूपी वृक्ष के अमृत समान दो फल हैं… सरस प्रिय वचन व सज्जनों की संगति’…चाणक्य की उक्त युक्ति चिंतनीय है, माननीय है, विचारणीय है। अहंनिष्ठ, आत्मकेंद्रित व क्रोधी मानव सज्जनों की संगति नहीं करता…क्योंकि उसे तो सबमें दोष ही दोष नज़र आते हैं। सो! मधुर व प्रिय वचन बोलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्रोधी व्यक्ति हर समय आग-बबूला रहता है तथा सदैव कटु वचनों का प्रयोग करना उसकी नियति बन जाती है। सरस व  प्रिय वचन तो वही बोलेगा, जो विनम्र होगा, ज़मीन से जुड़ा होगा, सत्य के निकट होगा, अच्छाई-बुराई से परिचित होगा, क्योंकि पके हुए फल जिस वृक्ष पर लगते हैं, वह सदैव झुका रहता है। लोग भी  सदैव उसे ही पत्थर मारते हैं, क्योंकि सबको मीठे फलों की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार लोग ऐसे व्यक्ति की संगति चाहते हैं, जो मधुभाषी हो, विनम्र हो, सत्य व हितकर वाणी बोले।

विद्या से विनम्रता आती है और विनम्रता से विनय भाव जाग्रत होता है। ‘सामान्यत: जो व्यक्ति के सत्य के साथ कर्त्तव्य-परायणता में लीन रहता है, उसके मार्ग में बाधक होना कोई सरल कार्य नहीं’… टैगोर जी का यह कथन कोटिश: सत्य है। जो व्यक्ति सत्य की राह पर चलता है, अपने कर्म को पूजा समझ कर करता है, उसके मार्ग में बाधाएं आ ही नहीं सकतीं और न ही उसे पथ-विचलित कर सकती हैं। अच्छे का फल सदैव अच्छा व बुरे का बुरा ही होता है। इसलिए अब्राहिम लिंकन कहते हैं कि ‘जब मैं अच्छा करता हूं, तो अच्छा महसूस होता है और बुरा करता हूं, तो बुरा महसूस होता है, यही मेरा धर्म है।’ सो! वे उसे शास्त्र- सम्मत स्वीकार जीवन में धारण करते हैं। यदि आपके भीतर संतोष है, तो आप सबसे अमीर हैं…यदि शांति है, तो सबसे सुखी हैं… यदि दया है, तो आप सबसे अच्छे इंसान हैं। इसलिए संतोष व शांति से बढ़कर है करुणा भाव, जो इंसान को इंसान बनाता है। यही सर्वश्रेष्ठ गुण है… महात्मा बुद्ध ने भी करुणा को सर्वोत्तम गुण स्वीकारा है। प्रेम व करुणा में सभी दैवीय भाव समाहित हैं। जहां प्रेम के साथ करुणा है, वहां स्नेह व सौहार्द होगा, सहृदयता व सदाशयता होगी…एक-दूसरे की परवाह होगी और सहानुभूति, सहनशीलता व संवेदना होगी। जीवन में इनकी दरक़ार मानव को सदैव रहती है। इसलिए मानव को दूसरों के चश्मे से न देखने की सलाह दी गई है, क्योंकि उनकी नज़रें धुंधली हो सकती हैं। खुद को खुद से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

असफलता में सफलता छिपी होती है। हर असफलता मानव को पाठ पढ़ाती है, तभी वह एक दिन सफल होता है। सफलता अनुभव की पाठशाला है, जिससे गुज़र कर इंसान महानता का पद प्राप्त कर सकता है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘पहले के अनुभव से नया अनुभव हासिल करना होता है। इस क्रिया को ज्ञान कहते हैं।’ जो निर्णय लेने से पूर्व उसके समस्त पहलुओं पर चिंतन-मनन कर निर्णय लेता है, उसे असफलता का मुंह देखना नहीं पड़ता…यह क्रिया ज्ञान कहलाती है, जीवन की राह दर्शाती है । इसी संदर्भ में उनकी यह उक्ति भी विचारणीय है कि ‘कोई व्यक्ति कितना भी महान् क्यों न हो, आंखे मूंदकर उसके पीछे न चलें। यदि ईश्वर की ऐसी मंशा होती, तो वह हर प्राणी को आंख, कान, नाक, मुंह और दिमाग क्यों देता?’

इसलिए अंधानुकरण भले ही व्यक्ति का हो या रास्ते का,… मानव को पथ-विचलित करता है और दिग्भ्रमित  होने के कारण, उसका अपने लक्ष्य तक पहुंचना असंभव हो जाता है। एक बार गलत राह का अनुसरण करने के पश्चात् उसका लौटना दुष्कर होता है, अत्यंत कठिन होता है। इस उक्ति के माध्यम से, वे समाज को सजग-सचेत करते हुए कहते हैं कि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। यह संसार मृग-तृष्णा है। उसके पीछे मत भागो अन्यथा रेगिस्तान में जल की तलाश में बेतहाशा भागते हुए हिरण के समान होगी, मानव की दुर्दशा… जिसका अंत प्राणोत्सर्ग के रूप में होना अवश्यांभावी है।

ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।  इंसान कमाल का है कि पसंद करे, तो बुराई नहीं देखता, नफ़रत करे, तो अच्छाई नहीं देखता। सो! ज्ञान से दृष्टि व सोच अधिक प्रभावशाली है। ज्ञान से हमें शब्दार्थ समझ में आते हैं, परंतु अर्थ हमें जीवन के रहस्य से अवगत कराते हैं.. अनुभव दे जाते हैं। वास्तव में प्रेम व नफ़रत से ही हर व्यक्ति का मूल्यांकन संभव हैं। अकसर हमारा ध्यान उसके दोषों की ओर नहीं जाता… यदि हम उससे घृणा करते हैं। इस स्थिति में हमें उसके दोष गुणों व अच्छाइयों-सम भासते हैं। जैसाकि सौंदर्य व्यक्ति में नहीं, उसकी दृष्टि में होता है। हमारी मन:स्थिति, सोच व नज़रिया निर्धारित करते हैं…व्यक्ति व वस्तु  के सौंदर्य व कुरूपता को…सो! ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ इससे भी बढ़कर है हमारा व्यवहार… जो  ज्ञान से भी बड़ा है। ज़िंदगी में अनेक परिस्थितियां आती हैं, जब ज्ञान फेल हो जाता है। परंतु हम उत्तम व्यवहार से प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सफल हो जाते हैं अर्थात् सुविचार व व्यवहार बगिया के वे सुंदर पुष्प हैं, जो व्यक्तित्व को महका देते हैं और सब्र व सच्चाई अपने शहसवार को कभी गिरने नहीं देते, न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में अर्थात् वे हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि जीवन एक यात्रा है… रो-रो कर जीने से लंबी लगेगी, हंस कर जीने से कब पूरी हो जाएगी… पता ही नहीं चलेगा। इसलिए अपनों के बीच अपनों की तलाश कीजिए… है तो यह बहुत कठिन, परंतु यह भी अकाट्य सत्य है कि पीठ में छुरा घोंपने वाले आपके निकटतम संबंधी व प्रियजन ही होते हैं। सो! दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखिए, यही सर्वोत्तम प्रेरणा-स्रोत है, जो आपकी दुर्गम राह को सुगम व प्राप्य बनाता है।

सो! तृष्णाएं सुरसा के मुख की भांति कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं, निरंतर बढ़ती रहती है और आजीवन हमें दु:ख के भंवर से बाहर नहीं आने देतीं। हम उन्हें पूरा करने में पूरे जीवन की खुशियां झोंक देते हैं… गलत हथकंडे अपनाते हैं और उनकी की भावनाओं को रौंदते हुए चले जाते हैं। दूसरों पर अकारण दोषारोपण करना, हमारी आदत में शुमार हो जाता है। निंदा हमारा स्वभाव बन जाता है और अहं व  सर्वश्रेष्ठता का भाव हमारे अंतर्मन में इस प्रकार घर कर लेता है, जिसे बाहर निकाल फेंकना व उससे मुक्ति पाना हमारे वश की बात नहीं रहती। तृष्णा व अहं का चोली दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। इसलिए जब आप तृष्णाओं को अपने जीवन से बाहर निकाल देते हैं…अहं स्वत: नष्ट हो जाता है और जीवन में सुख-शांति व आनंद का पदार्पण हो जाता है।

शालीनता, विनम्रता आदि इसके जीवन साथी के रूप में प्रवेश पाकर सुक़ून पाते हैं। समय पंख लगा कैसे उड़ जाता है, व्यक्ति जान ही नहीं पाता। उसके जीवन में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। अर्थशास्त्र भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देता है, क्योंकि  सीमित साधनों द्वारा इनकी पूर्ति करना असंभव है। यह चिंता, तनाव व अवसाद की जनक है, जिससे मुक्ति पाने का इंसान के पास कोई कारग़र उपाय नहीं है। तृष्णाएं हमारे जीवन को नरक के द्वार पर पहुंचा देती हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन है। परंतु जब तक हम उनके प्रवेश पर अंकुश लगा निषिद्ध कर देते हैं तो वे पुन: दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाते। तृष्णाएं तो सर्प की भांति हैं। उम्र भर दूध पिलाओ, डसने से बाज़ नहीं आतीं। यह सदैव हानि पहुंचाती हैं… मानव को कटघरे में खड़ा कर तमाशा देखती हैं। इनके फ़न को कुचलना ही सबके लिए उपयोगी व हितकारी है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 

आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजभाषा घोषित किया था। पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) बांग्लाभाषी था। वहाँ छात्रों ने बांग्ला को द्वितीय राजभाषा का स्थान देने के लिए मोर्चा निकाला। बदले में उन्हें गोलियाँ मिली। इस घटना ने तूल पकड़ा। बाद में 1971 में भारत की सहायता से बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।

1952 की घटना के परिप्रेक्ष्य में 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया।

आज का दिन हर भाषा के सम्मान , बहुभाषावाद एवं बहुसांस्कृतिक समन्वय के संकल्प के प्रति स्वयं को समर्पित करने का है।

मातृभाषा मनुष्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा की जड़ों में उस भूभाग की लोकसंस्कृति होती है। इस तरह भाषा के माध्यम से संस्कृति का जतन और प्रसार भी होता है। भारतेंदु जी के शब्दों में, ‘ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’

हृदय के शूल को मिटाने के लिए हम मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा की मांग और समर्थन करते हैं।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

21.2.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 16 – महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु”.)

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु ☆

मेरे साथी श्री उदय सिंह टुंडेले ने महात्मा जी पर  लिखा कि  “यह कुछ ऐसा ही है कि तेज रौशनी में हमारी आँखें चौंधियां जाती हैं और हम आसपास की कई चीजें देख ही नहीं पाते.” सचमुच गांधीजी का भारत भूमि की धरा पर आगमन कुछ ऐसा ही था। यदि वे बीसवीं सदी में हमारे देश को ईश्वर की अनुपम देन है तो पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के लिए गांधीजी की अद्भुत खोज हैं। गांधीजी को नेहरू ने परखा, समझा, उन्हे समर्थन दिया और कभी कभी उनके विचारों से असहमति  भी व्यक्त करी और उन पर बेबाकी से भरपूर लिखा। अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में उन्होने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गांधीजी की छाप की विस्तृत विवेचना की है। एक अध्याय “गांधीजी मैदान में” वे लिखते है:

“ 1919 के शुरू में गांधीजी एक सख्त बीमारी से उठे थे। रोग-शैय्या से उठते ही उन्होने वॉइसराय से प्रार्थना की थी की वह इस बिल को कानून न बनने दें। इस अपील की उन्होने, दूसरी अपीलों की तरह कोई परवाह ना की और उस हालत में, गांधीजी को अपनी तबीयत के खिलाफ इस आंदोलन का अगुआ बनना पड़ा, जो उनके जीवन में पहला भारत-व्यापी आंदोलन था।उन्होने सत्याग्रह सभा शुरू की, जिसके मेम्बरों से यह प्रतिज्ञा कराई गई थी के उनपर लागू किए जाने पर वे रौलट-कानून को न मानेंगे।दूसरे शब्दो में यह खुलमखुल्ला और जानबूझकर जेल जाने की तैयारी करनी थी।

जब मैंने अखबारों में यह खबर पढ़ी तो मुझे बड़ा संतोष हुआ।आखिर इस उलझन से एक रास्ता मिला तो। वार करने का एक हथियार तो मिला, जो सीधा, खुला और बहुत करके रामबाण था। मेरे उत्साह का पार ना रहा और में फौरन सत्याग्रह सभा में शामिल होना चाहता था।…मगर एकाएक मेरे सारे उत्साह पर पाला पड़ गया और मैंने समझ लिया की मेरा रास्ता आसान नहीं है, क्योंकि पिताजी इस विचार के घोर विरोधी थे।…पिताजी ने गांधीजी को बुलाया और वह इलाहाबाद आए। दोनों की बड़ी देर तक बातें होती रही। उस समय मैं मौजूद न था। इसका नतीजा यह हुआ कि गांधीजी ने मुझे सलाह दी कि जल्दी न करो और ऐसा काम न करो जो पिताजी को असह्य हो।“

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू के जीवन, रहन सहन, तौर तरीके से अच्छे-खासे प्रभावित थे, और सही मायने मे  आम भारतीय पुत्रों की तरह वे भी पिता को अपना आदर्श मानते थे। “मेरी कहानी” के एक अध्याय “ पिताजी और गांधीजी” में वे अपने पिता व गांधीजी की तुलना करते हुये लिखते हैं कि “ मगर मेरे पिताजी गांधीजी से कितने भिन्न थे! उनमें भी व्यक्तित्व का बल था और बादशाहियत की मात्रा थी। वह ना तो नम्र ही थे , न मुलायम ही, और गांधीजी के उलट वह उन लोगों की खबर लिए बिना नहीं रहते थे जिनकी राय उनके खिलाफ होती थी।“ विचारों से इतनी मत-भिन्नता रखने वाले पंडित मोतीलाल नेहरू को भी  गांधीजी ने अपना मित्र बना लिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू आगे लिखते हैं- “ एक दूसरे से उनकी राय चाहे कितनी ही खिलाफ होती, लेकिन दोनों के दिल में एक दूसरे के लिए सद्भाव और आदर था। ‘विचार-प्रवाह’ (Thought Currents) नाम की एक पुस्तिका में गांधीजी के लेखों का संग्रह छापा गया। इस पुस्तक की भूमिका पिताजी ने लिखी थी। उन्होने लिखा है- मैंने महात्माओं और महान पुरुषों की बाबत बहुत सुना है, लेकिन उनसे मिलने का आन्नद मुझे कभी नहीं मिला। और मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझे उनकी असली हस्ती के बारे में कुछ शक है। मैं तो मर्दो में और मर्दानगी में विश्वास करता हूँ। इस पुस्तिका में जो विचार इकट्ठा किए गए हैं, वे एक ऐसे ही मर्द के दिमाग से निकले हैं और उनमे मर्दानगी है।वे मानव प्रकृति के दो बड़े गुणों के नमूने हैं-यानी श्रद्धा और पुरुषार्थ के… जिस आदमी में न श्रद्धा है, न पुरुषार्थ है, वह पूछता है, ‘इन सबका नतीजा क्या होगा?’ यह जबाब कि जीत होगी या मौत उसे अपील नहीं करता। इस बीच में वह विनीत और छोटा-सा व्यक्ति अजेय शक्ति और श्रद्धा के साथ सीधा खड़ा हुआ अपने देश के लोगों को मातृभूमि के लिए अपनी कुर्बानी करने और कष्ट सहने का अपना संदेश देता चला जा रहा है। लाखों लोगों के हृदय में इस संदेश की प्रतिध्वनि उठती है।………”

ऐसा नही था की पंडित नेहरू गांधीजी के प्रत्येक निर्णय से सहमत होते। अनेक अवसरों पर उन्होने गांधीजी से विभिन्न मत रखा और अपनी आत्मकथा में इसका उल्लेख भी बड़ी शालीनता से किया है। सितंबर 1932 के बीच में ब्रितानिया हुकूमत द्वारा लिए गए सांप्रदायिक निर्णय जिसके अनुसार दलित जातियों को अलग चुनाव के अधिकार दिये जाने के विरोध में वे गांधीजी द्वारा आमरण अनशन किए जाने के निर्णय से असहमत थे। अपनी आत्मकथा के “धर्म क्या है?” अध्याय में वे लिखते हैं – “ और फिर मुझे झुझलाहट भी आई  कि उन्होने अपने अंतिम बलिदान के लिए एक छोटा सा, सिर्फ चुनाव का, मामला लिया है। हमारे आजादी के आंदोलन का क्या होगा? क्या अब, कम से कम थोड़े वक्त के लिए ही सही, बड़े सवाल पीछे नहीं पड़ जाएँगे? और अगर वह अपनी अभी की बात पर कामयाब भी हो जाएँगे, और दलित जातियों के लिए सम्मिलित चुनाव प्राप्त भी कर लेंगे, तो क्या इससे एक प्रतिक्रिया न होगी, और यह भावना न फैल जाएगी कि कुछ-न-कुछ तो प्राप्त कर ही लिया गया है, और कुछ दिन तक अब कुछ भी नही करना चाहिए?”

पंडित नेहरू 1934 में अलीपुर जेल में कैद थे, तभी उन्हे अखबारों से खबर मिली कि गांधीजी ने सत्याग्रह वापिस ले लिया है, इस खबर से वे विचलित हुये। अपनी आत्मकथा  के एक अन्य अध्याय “नैराश्य” में वे लिखते हैं “ लेकिन गांधीजी की महानता का, भारत के प्रति उनकी महान सेवाओं का या अपने प्रति की गई महान उदारताओं का, जिनके लिए मैं उनका ऋणी हूँ, कोई प्रश्न ही नही है। इन सब बातों के होते हुये भी वह बहुत सी बातों में गलती कर सकते हैं।आखिर उनका लक्ष्य क्या है? इतने वर्षो तक उनके निकटतम रहने पर भी मुझे खुद अपने दिमाग में यह बात साफ साफ नही दिखाई देती कि उनका ध्येय आखिर क्या है। वह यह कहते कभी नही थकते कि हम अपने साधनों की चिंता रक्खे तो साध्य अपने आप ठीक हो जाएगा।“

पंडित नेहरू द्वारा अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में गांधीजी के विषय में बहुत  कुछ भी लिखा गया है  और इस आत्मकथा के विभिन्न अध्याय हमे गांधीजी के विचारों की तह में जो भावनाएँ काम करती रही हैं उन्हे समझने में मदद करते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #37 – कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 37 ☆

☆ कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी

 

हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, पर प्रश्न है कि क्या सचमुच ही हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा बन पाई है ? इस यक्ष प्रश्न को अनुत्तरित छोड देने में विगत पीढी के उन राजनेताओं की बहुत बडी गलती है, जिसके अनुसार हमारी संसद ने यह विधेयक पारित कर दिया कि जब तक देश का एक भी राज्य हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करने में अपनी तैयारी या अन्य कारणो से असमर्थता व्यक्त करें, तब तक हिंदी को अनिवार्य नहीं किया जावेगा। यही कारण है कि क्षेत्रवाद, भाषाई राजनीति, पक्ष, विपक्ष के चलते कानूनी रूप से हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा के रूप में आजादी के बहत्तर  वर्षों बाद भी स्थापित नहीं हो पाई।

लोकतंत्र में कानून से उपर जन भावनायें होती है, विगत कुछ दशकों में बाजारवाद विश्व पर हावी हुआ है। आज का युवावर्ग इसी बाजारवाद से प्रभावित है, जहां आजादी के दिनों में उत्सर्ग, देश के लिये समर्पण और त्याग की भावनायें युवाओं को आकृष्ट कर रही थी, वहीं वर्तमान समय में स्वंय की आर्थिक उन्नति, बढती आबादी के दबाव के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा में येन केन प्रकारेण आगे निकलने की होड में युवा सतत व्यस्त है। आज कार्पोरेट जगत में युवा शक्ति का साम्राज्य है।  विभिन्न कंपनियो के शीर्ष पदो पर अधिकांशतः युवा ही पदारूढ़ हैं।  बाजार वैश्विक हो चला है।  अंग्रेजी वैश्विक संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है, अतः आज युवावर्ग ने मातृभाषा हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हुये अपनी अभिव्यक्ति व संपर्क का माध्यम बनाया है, त्रिभाषा फार्मूले के शीर्ष पर अंग्रेजी स्थापित होती दिख रही है। आंकडो में देखे तो हिन्दी का विस्तार हो रहा है, नई पत्र पत्रिकायें, किताबें, हिन्दी बोलने वालो की संख्या, विश्वविद्यालयों में हिन्दी पाठ्यक्रम, सब कुछ बढ रहा है। पर वास्तविकता से परिचित होने की जरूरत है, जर्मन रेडियो डायचेवेली ने हिन्दी प्रसारण बंद कर दिया है। बीबीसी अपने हिन्दी प्रसारण अप्रैल 2011 से बंद करने का निर्णय लिया था। हिंदी पुस्तको के प्रथम संस्करणों में 200 से 250 प्रतियां ही छप रही है। हिंदी लेखकों को कोई उल्लेखनीय रायल्टी नहीं मिल रही है। हिदीं ‘हिन्गलिश‘ बन रही है। मोबाईल पर एस.एम.एस हो या नेटवर्किग साइट पर युवा वर्ग की चैटिंग, रेडियो जाकी की एफ.एम. रेडियो पर उद्घोषणायें  हो या टीवी के युवाओ में लोकप्रिय कार्यक्रम, शुद्ध हिंदी मिलना दुष्कर है। गांव गांव तक हमारी फिल्मो व फिल्मी गीतो का युवा वर्ग पर विशेष प्रभाव है।  अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शीर्षक की फिल्में , उनके डायलाग तथा हिन्दी व्याकरण को ठेंगा बताती शब्दावली के फिल्मी गीत अपनी तेज संगीत वाली धुनो के कारण युवाओ में लोकप्रिय हैं. आशा की किरण यही है कि यह सब जो कुछ भी है देवनागरी में है, सकारात्मक ढ़ंग से देखें तो इस तरह भी हिन्दी देश को जोड़ रही है, तथा विश्व में हिन्दी को स्थान भी दिला रही हैं।  कार्पोरेट जगत के एम बी ए पढ़े लिखे युवा भले ही अंग्रेजी में गिटर पिटर करें या कार्पोरेट जगत का आंतरिक पत्र व्यवहार, प्रगति प्रतिवेदन आदि भले ही अंग्रेजी में हो पर जब वे अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग करते हैं तो उन्हें विज्ञापनो में हिन्दी का ही सहारा लेना पड़ता है, यह और बात है कि यह हिन्दी भी विशुद्ध न होकर जन बोली ही होती है।

हिंदी कविताओं की पुस्तके छपती है, पर वे विजिटिंग कार्ड की तरह बांटी जाने को विवश है, एवं लेखकीय आत्ममुग्धता से अधिक नहीं है। युगांतकारी रचना धार्मिता का युवा हिन्दी लेखको, कवियो में अभाव दिख रहा है। देश की आजादी के समय मिशन स्कूल, पब्लिक स्कूल एवं कावेंट स्कूलो के पास जो संस्थागत ताकत शिक्षण के क्षेत्र में थी, उसका हिंदी के विपरीत समाज पर स्पष्ट दुष्प्रभाव अब परिलक्षित हो रहा है । शिक्षा, रोजगार का साधन बनी, व्यक्ति की संस्कारों या सच्चे ज्ञान की वाहक अपेक्षाकृत कम रह गयी। रोजगार तथा बच्चो के सुखद आर्थिक भविष्य के दृष्टिकोण से स्वंय हिन्दी के समर्थक पालको ने भी अपने बच्चो को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने में ही भलाई समझी इसके परिणाम स्वरूप आज की अंग्रेजी माध्यम से पढी पीढी सत्रह, इकतीस या उननचास नहीं समझ पाती, उसे सेवेनटीन, थर्टीवन और फोर्टीनाइन बतलाना पडता है, यह पीढ़ी अंग्रेजी में सोचकर भले ही हिंदी में लिख ले पर वह हिन्दी के संस्कारो से जुड़ नही पाई है।

किंतु सब कुछ निराशाजनक ही नहीं है, एटीएम मशीन हो, या कम्पयूटर के साफ्टवेयर अंग्रेजी के साथ हिंदी के विकल्प भी अब सुलभ है, हिंदी शिक्षण हेतु नेट पर कक्षायें भी चल रही है, हिंदी ब्लाग प्रजातंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में स्थापित हो चला है, नित नये हिन्दी ब्लाग्स विविध विषयो पर देखने को मिल रहे हैं। यह सब हमारा युवा वर्ग ही कर रहा है, हिंदी में शोध करने वाले आज भी गंभीर कार्य कर रहे है, इसके दीर्घकालिक प्रभाव देखने को जरूर मिलेगें। आने वाले समय में आज का युवा ही हिंदी को किसी कानून के कारण नहीं, या उपर से थोपे स्वरूप में नहीं वरन् स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बीच, अंतरमन से हिंदी की सरलता, सहजता के कारण तथा हिन्दी के भातर की जनभाषा होने के कारण  व्यापक स्वरूप में अपनायेगा, हमारी पीढी इसी आशा और विश्वास के साथ हिंदी को बढ़ता देखना चाहती है।

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #35 ☆ ढाई आखर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 35 ☆

☆ ढाई आखर ☆

(14 फरवरी के संदर्भ में)

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनाभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 34 ☆ सुखी जीवन का मंत्र ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “सुखी जीवन का मंत्र”डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख का प्रथम कथन  “सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो ” यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है।  डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 34☆

☆ सुखी जीवन का मंत्र 

 

‘सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो’ यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है। उसके जीवन में कभी अवसाद आ ही नहीं सकता, क्योंकि जब मन में किसी के प्रति दुर्भावना व दुष्भावना नहीं होगी, तो तनाव कैसे होगा? सो! आपको किसी में भी बुराई नज़र आयेगी ही नहीं। आइए! आज से उसे धारण करते हैं, जीवन में तथा उस परमात्म सत्ता का हर पल नाम-स्मरण करना…सृष्टि में उसकी सत्ता को अनुभव करना और ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ को अपने अंतर्मन में बसाए रखना अर्थात् उसकी  विस्मृति न करना ही सुखी जीवन का रहस्य है। यह अकाट्य सत्य है कि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, फिर उससे भय कैसा? गीता में तो इसे वस्त्र धारण करने के समान स्वीकारा गया है। मृत्यु के पश्चात् मानव शरीर भी नया चोला धारण करता है… इसके लिए शोक क्यों?

यदि हम सृष्टि-नियंता में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, तो हम कभी कोई गलत काम करने की सोचते भी नहीं, क्योंकि ‘कर्म करावन अपने आप, न कछु बंदे के हाथ’ जब मालिक सब कुछ करने वाला है…सो! कल की चिंता क्यों? आज अथवा वर्तमान निश्चित है, कल कभी आता नहीं, क्यों न आज ही अच्छे कर्म करें? कल अनिश्चित है, कभी आता नहीं, फिर क्यों न आज से ही अच्छे कर्म करें, खूब परिश्रम कर जीवन को सार्थक बनाएं। क्योंकि आज कभी जाता नहीं और कल आता नहीं। इसलिए हर पल को जीवन का अंतिम पल समझ कर, प्रसन्नता से जीना चाहिए। अपने हृदय में कलुषता व किसी के प्रति मलिनता ने आने दें। इस स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का शमन-अंत स्वत: हो जाएगा। राग-द्वेष की जनक है, स्व-पर की भावना अर्थात् जब हम अपनों से प्रेम करते हैं, उनका हित चाहते हैं, उस स्थिति में अपने-पराए का भाव घर कर जाता है और हम उसके हित में कुछ ग़लत भी कर गुज़रते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘अंधा बांटे रेवड़ियां, बार-बार अपनों माहिं’ उसे अपनों के सिवाय कोई नज़र ही नहीं आता। उसका दायरा बहुत सीमित होता है। परंतु मानव में सबके प्रति समभाव और प्राणी-मात्र के कल्याण का भाव होना चाहिए। इस स्थिति में वह संतोषी जीव अपरिग्रह रूपी रोग से मुक्त रहेगा और उसके मन में यही धारणा बनी रहेगी, कि इस संसार में मानव जो भी करता है, वही लौटकर उसके पास आता है। सो! मानव नि:स्वार्थ भाव से कार्य करता है। परंतु स्वार्थ हमें एकांगी बनाता है, आत्म- केंद्रितता का भाव जाग्रत करता है, जिसका जनक है…लोभ व मोह का भाव। माया के कारण यह नश्वर संसार व संबंध सत्य भासते हैं, जबकि सब संबंध स्वार्थ के होते हैं तथा इनसे मुक्ति पाना मानव जीवन का लक्ष्य  होता है।

यह स्थिति तभी आती है, जब मानव दो बातें भूल जाए…कि ‘उसने कभी किसी का भला किया है या किसी ने उसका बुरा किया है।’ और ‘भलाई कर कुएं में डाल’ इस कहावत से तो आप सब परिचित होंगे। यदि आप किसी का हित करके उसे नहीं भुलाते हैं, तो आपके अंतर्मन में प्रतिदान की इच्छा जाग्रत होना स्वाभाविक है। आप में अपेक्षा भाव जाग्रत होगी कि मैंनें उसके लिए यह सब किया, परंतु बदले में मुझे क्या मिला… यह भाव हमें पतन के गर्त में ले जाता है। हम स्वार्थ के ताने-बाने से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते।। इसका दूसरा पक्ष यह भी है, कि हम भूल जाएं… किसी ने हमारा बुरा किया है। जी हां! हम यह सोचें कि यह तो हमारे कर्मों का फल है, जो हमें मिला है। इसमें किसी का क्या दोष… भगवान ने उसे बुद्धि ही ऐसी दी है, तभी वह यह सब कर रहा है, वरना उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह सकारात्मक सोच है, जो हमें व्यर्थ की चिंता व चिंतन से मुक्त कर सकती है और हम तनाव-रहित जीवन जी सकते हैं। यह सोच हमारे हृदय में प्रभु के प्रति आस्था भाव उत्पन्न करती है कि वह हमारा सबसे बड़ा हितैषी है…वह हमारा बुरा कभी सोच ही नहीं सकता। जिस प्रकार माता-पिता मतभेद होने के पश्चात् भी, अपनी संतान का हित चाहते हैं, तो वह सृष्टि-नियंता, जिससे हमारा जन्म- जन्मांतर का अटूट संबंध है, वह हमारा अमंगल कैसे कर सकता है? वह तो हमारा सच्चा हितैषी है, जो  हमें प्रभु देता है, जिससे हमारा मंगल होता है, न कि जो हम चाहते हैं। इसलिए सब कुछ प्रभु पर छोड़ कर, मस्ती से जियो… सब अच्छा ही अच्छा होगा और जीवन में कभी भी, कोई बुरा वक्त आएगा ही नहीं।

मुझे स्मरण हो रहा है, ग़ालिब का वह शेयर

गुज़र जायेगा यह दौर भी, ज़रा इत्मीनान तो रख

जब खुशी ना ठहरी, तो ग़म की औक़ात क्या

अर्थात् सुख-दु:ख, हानि-लाभ सब मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। दोनों एक स्थान पर इकट्ठे ठहर ही नहीं सकते। सो! स्मरण रहे, कि रात के पश्चात् दिन व दु:ख के पश्चात् सुख का आना अवश्यंभावी है। सूरज भी हर शाम अस्त होता है और भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, सबको उल्लसित- ऊर्जस्वित करता है। वह कभी निराश नहीं होता और पूर्ण उत्साह से अंधकार को दूर करता है।

सो! परिवर्तन सृष्टि का नियम है और समय अपनी गति से निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं। इसलिए मानव को भी निरंतर पूर्ण उत्साह व साहस के साथ कर्मशील रहना चाहिए। ज़िंदगी तो एक फिल्म की भांति है, जिसका अर्द्ध-विराम होता ही नहीं, केवल अंत होता है। इसलिए जीवन में कभी रुकिए नहीं, अविराम चलते रहिए…अपनी संस्कृति तथा संस्कारों से जुड़े रहिए। इंसान कितना भी ऊंचा उठ जाए, परंतु उसके कदम ज़मीन से जुड़े रहने चाहियें, क्योंकि अहंकारनिष्ठ मानव पल भर में अर्श से फर्श पर आन गिरता है। इसलिए अहं को कोटि शत्रुओं सम स्वीकार, उसका त्याग कर दीजिए और जीवन को साक्षी भाव से देखने का अंदाज़ सीख लीजिए, क्योंकि जो होना है, निश्चित है… अवश्य होकर रहेगा। लाख प्रयास करने पर भी, आप उसे रोक नहीं सकते। सो! आप प्रेम से पूरे संसार को जीत सकते हैं और अहं से सब कुछ खो सकते हैं। इसलिए प्रशंसा के दो बोल सुनकर फूलिए मत, क्योंकि यह विकास पथ में अवरोधक स्वरूप प्रकट होते हैं। हां! आलोचना पर गंभीरता से विचार करना अपेक्षित है, यह हमें अपने गुण-दोषों से अवगत करा कर, सीधे-सपाट मार्ग पर चलने की राह दर्शाती है। इसलिए उन पहलुओं पर दृष्टिपात कर चिंतन-मनन कीजिए और अपने दोषों में सुधार कीजिए।

सफल जीवन जीने के लिए आवश्यक है… अच्छे दोस्तों का होना। धन व दोस्त समान होते हैं, अनमोल  होते हैं… जिन्हें बनाना तो बहुत कठिन और खोना बहुत आसान होता है। इसी प्रकार रिश्ते भी नाज़ुक होते हैं, तनिक लापरवाही व ग़लतफ़हमी से टूट जाते हैं। इन्हें बहुत सहेज व संजो कर रखने की आवश्यकता होती है। सो! आप दूसरों से अपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि अपेक्षा ही तनाव का कारण है। न अपेक्षा, न ही उपेक्षा। सो! निरपेक्षता को जीवन- मंत्र बना लीजिए। सब को सम्मान दीजिए, सम्मान प्राप्त कीजिए…सारे जहान की खुशियों से आपका दामन भर जायेगा और ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख’ वाली कहावत सार्थक हो जायेगी। इसलिए दाता बनिए… किसी के सम्मुख हाथ न पसारिए। आत्म संतोष सबसे बड़ा धन है और इस के सम्मुख सब धन धूरि समान अर्थात् रहीम जी के यह शब्द ‘जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान’ बहुत सार्थक  है। संतोष रूपी धन, अपनी असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने व आत्माव- लोकन करने के पश्चात् प्राप्त होता है। जब हम संसार को मिथ्या समझ, सबका मंगल चाहने लगते हैं और सृष्टि के कण-कण में परमात्मा सत्ता का आभास पाते हैं, तो उस परम सत्ता से हमारा तादात्म्य हो जाता है। इस स्थिति में हृदय पावन हो जाता है तथा हम किसी का अमंगल चाहते ही नहीं… न ही हमें किसी से अपेक्षा रहती है। सो! हमें वक्त, दोस्त व संबंधों की कद्र करनी चाहिए…वे अनमोल होते हैं। हमारे जीवन का आधार होते हैं… उन्हें बहुत संभाल कर रखना चाहिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 33 ☆ आलेख – बिजली और महात्मा गांधी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर विशेष
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्या अभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर एक ऐतिहासिक एवं ज्ञानवर्धक आलेख  “बिजली और महात्मा गांधी”।  इस ज्ञानवर्धक एवं ऐतिहासिकआलेख  के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 33 ☆ 

☆ आलेख – बिजली और महात्मा गांधी ☆

भारत में प्रारंभिक व्यवसायिक बिजली उत्पादन कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉरपोरेशन ने 1899 में शुरू किया था, यद्यपि  गांधी जी के जन्म के लगभग दस पंद्रह वर्षो के भीतर ही कोलकाता ही देश का पहला शहर था जहां अंग्रेजो ने शाम के समय बिजली के प्रकाश की व्यवस्थाये कर दिखाईं थी। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में १९०५ में दिल्ली में भी बिजली से प्रकाश व्यवस्था का प्रारंभ हुआ।  शुरुआती दौर में डीजल से बिजली बनाई जाती थी। 1911 के तीसरे दिल्ली दरबार के समय जब अंग्रेज राजा ने बुराड़ी के कोरोनेशन पार्क में आयोजित एक समारोह में ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, उसी साल यहां पर भाप से  बिजली उत्पादन स्टेशन बनाया गया। अंग्रेजों ने 20वीं सदी के पहले दशक में भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार सन 1903 एवं 1911 में  किए, जिनमें बिजली से साज-सजावट की गई। लियो कोल्मैन ने अपनी पुस्तक ‘ए मॉरल टेक्नॉलजी, इलेक्ट्रिफिकेशन एज पॉलिटिकल रिचुअल इन न्यू डेल्ही’ में भारत की राजधानी के बिजलीकरण के बहाने सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक सोच को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित किया है। ‘दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट’ के लेखक एच सी फांशवा ने पूर्व (यानी भारत) में बिजली की रोशनी की शुरुआत पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल खर्च के रूप में खारिज कर दिया था। उसने तर्क देते हुए कहा कि दिल्ली में कलकत्ता के विपरीत कारोबार शाम के समय खत्म हो जाता है। ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी ही काफी है। ‘मैसर्स जॉन फ्लेमिंग’ नामक एक अंग्रेज कंपनी ने दिल्ली में 1905 में पहला डीजल पावर स्टेशन बनाया था। इस कंपनी के पास बिजली बनाने और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों की जिम्मेदारी थी। विद्युत अधिनियम, 1903 के तहत लाइसेंस लेने के बाद ‘जॉन फ्लेमिंग कंपनी’ ने पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया। बाद में इसका नाम ‘दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी’ हो गया। 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने वाले स्टेशन की शुरुआत हुई। ‘दिल्ली गजट, 1912’ के अनुसार, बिजली से रोशनी के मामले में दिल्ली किसी भी तरह से दुनियां से पिछड़ी नहीं थी। 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी बनाई गई थी।

यह वर्ष महात्मा गांधी के १५० वें जन्म वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से १९१५ में पूरी तरह भारत लौटे थे, इस तरह देश में बिजली की प्रकाश के उपयोग हेतु सुलभता तथा महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में सक्रिय योगदान लगभग समकालीन ही हैं।

१८८८ में जब गांधी जी लंदन पढ़ने गये थे तब लंदन में बिजली से प्रकाश व्यवस्था की जा चुकी थी। इसलिये गांधी जी बिजली से बहुत वाकिफ रहे। १८९३ से १९१४ तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे, तब तक दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन आदि शहरो में भी बिजली का उपयोग होने लगा था। टेलीग्राफ, इलेक्ट्रिक मोटर उपकरणो का उपयोग भी धीरे धीरे बढ़ रहा था। टेलीग्राम के उपयोग के दृष्टांत महात्मा गांधी की जीवनी में भी जगह जगह पढ़ने  मिलते हैं। यद्यपि सीधे तौर पर बिजली को लेकर महात्मा गांधी के विचार किसी पुस्तक में मुझे पढ़ने नही मिले पर महात्मा गांधी मशीनीकरण के अंधानुगमन के विरोध में थे। वे स्वायत्त ग्रामीण व्यवस्था के पक्षधर थे, बिजली के संदर्भ में इन विचारो को अधिरोपित करें तो आज बिजली वितरण, उत्पादन की जो क्षेत्रीय कंपनियां बनाई जा रही हैं, किंबहुना यह ढ़ांचा महात्मा गांधी के विकास के स्वशासित अनुपूरक ढ़ांचे का ही विस्तार कहा जा सकता है।

18 मार्च 1922 को गांधी जी को छह साल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें गुजरात की साबरमती जेल से विशेष ट्रेन से पुणे की येरवडा जेल स्थानांतरित कर दिया गया था। गांधी जी को अपेंडिसाइटिस की गंभीर समस्या के कारण 12 जनवरी 1924 में पुणे के ससून अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। अंग्रेज सरकार उनके आपरेशन के लिये मुंबई से आने वाले भारतीय चिकित्सकों का इंतजार करना चाहती थी लेकिन आधी रात से पहले ब्रितानी सर्जन कर्नल मैडॉक ने गांधी जी को बताया कि उनका तत्काल ऑपरेशन करना पड़ेगा जिस पर सहमति भी बन गई।

जब ऑपरेशन की तैयारी की जा रही थी, गांधीजी के अनुरोध पर ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ के प्रमुख वी एस श्रीनिवास शास्त्री और मित्र डॉ फटक को भी वहां  बुलाया गया जिससे देश की जनता के सामने अंग्रेज डाक्टर की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह न लगे। एक सावर्जनिक बयान जारी किया जिसमें गांधी जी ने कहा कि उन्होंने ऑपरेशन के लिए सहमति दी है, चिकित्सकों ने उनका भली-प्रकार उपचार किया है और कुछ भी अप्रिय होने पर सरकार विरोधी प्रदर्शन नहीं होने चाहिए।

दरअसल, अस्पताल के अधिकारी और गांधी जी यह भली भांति जानते थे कि यदि ऑपरेशन में कुछ गड़बड़ी हुई तो देश के जन मानस पर इसके अपरोक्ष राजनैतिक  प्रभाव होंगे।  गांधी जी ने जब इस बयान पर हस्ताक्षर के लिए  कलम उठाई, तो उन्होंने कर्नल मैडॉक से मजाकिया अंदाज में कहा, ‘देखो, मेरे हाथ कैसे कांप रहे हैं।।। आपको यह सही से करना होगा।’  जवाब में डा मैडॉक ने कहा कि वह पूरी ताकत लगा लेंगे। इसके बाद गांधी जी को क्लोरोफॉम सुंघा दी गई। जब ऑपरेशन शुरू किया गया, उस समय आंधी और वर्षा हो रही थी। ऑपरेशन के बीच में ही बिजली गुल हो गई ऑपरेशन के लिए टार्च लाइट की मदद ली गई। ऑपरेशन के बीच में इसने भी जवाब दे दिया। आखिरकार, ब्रितानी चिकित्सक ने लालटेन की रोशनी में गांधी जी का सफल ऑपरेशन किया। इस घटना के 95 साल बीत चुके हैं। सरकारी अस्पताल के 400 वर्ग फुट के इस ऑपरेशन थियेटर को एक स्मारक में बदल दिया गया है।महात्मा गांधी के जीवन की इस अहम घटना का साक्षी बने इस कमरे में महात्मा गांधी के ऑपरेशन के लिए इस्तेमाल की गई एक मेज, एक ट्राली और कुछ उपकरण रखे हैं। इस कमरे में एक दुर्लभ पेंटिंग भी है जिसमें बापू के ऑपरेशन का चित्रण है। किंतु आपरेशन के समय अस्पताल की बिजली गुल हो जाने की घटना रोमांचक तो है ही।

आज जाने कितनी बिजली परियोजनाओ का नामकरण महात्मा गांधी के नाम पर किया गया है, जाने कितनी विद्युतीकरण योजनायें उनके नाम पर चलाई जा रही हैं किंतु यदि महात्मा गांधी के सिद्धांतो से बिजली को जोड़ कर देखें तो हम कह सकते हैं कि सबके लिये सदैव बिजली की सौभाग्य योजना के लक्ष्य पा लेने के बाद जब देश के अंतिम व्यक्ति को भी बिजली का लाभ पहुंच सक रहा है तभी महात्मा गांधी और बिजली का वास्तविक सामंजस्य बनता समझ आता है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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