हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  का महात्मा गाँधी जयंती पर विशेष आलेख  “गांधी और जीवन मूल्य “। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के आज के सन्दर्भ में इस सार्थक एवं  विचारणीय विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य  

जीवन मूल्य सामाजिक अभिलाषाओं का वह रूप होते हैं जो एक मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाते हैं और ये ऐसे नैतिक सिद्धांत व विश्वास भी हैं जो व्यक्ति के साथ-साथ समाज को भी उत्प्रेरित करते हैं।  इतना ही नहीं किसी भी संस्कृति के आध्यात्मिक, भौतिक और सौंदर्य परक मूल्यों में ये मानवीय मूल्य भीतरी तह तक समाए हुए होते हैं और मनुष्य को मानवता की ओर ले जाते हैं। उसे सामान्य मानव से ऊपर उठाकर उच्च और उदात्त मनुष्य बनाते हैं।

दुनिया भर के सभी महापुरुषों के जीवन मूल्य कमोबेश एक जैसे होते हैं। प्राय:शाश्वत और समावेशी होते हैं। लेकिन जब हम बापू के संदर्भ में मानवीय मूल्यों की बात करते हैं तो उनमें सबसे पहले मानवीय संवेदना आती है जिसे वह सत्य,अहिंसा,सत्याग्रह,अपरिग्रह, त्याग, निर्लोभ, वात्सल्य, करुणा और निर्लिप्त प्रेम से पोषित करते हैं। बापू के ये मानवीय मूल्य शाश्वतता के साथ ही अपनी समसामयिक आवश्यकता और प्रासंगिकता से लैस हैं। उनके ये मूल्य आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के काफ़ी बाद तक जन-जन में फैले हुए देखे जा सकते हैं।

वे मानवीय मूल्यों को समय और समाज के संदर्भ में देखते थे। उनके जीवन दर्शन से पता चलता है कि कभी बहुमूल्य रहे मानवीय मूल्यों को वह कभी सीधे-सीधे अपनाते नहीं हैं।  अपितु यथास्थिति वादियों से लोहा लते हुए समय और समाज के सापेक्ष रखकर तोलते हैं। यदि वे अनुकूल पाए जाते हैं तभी उन्हें अपनाते हैं फिर वे चाहे ब्राह्मण,उपनिषद या पौराणिक काल की मिथकीय धरोहर क्यों हों। ब्राह्मण कालीन कर्मकांड को उन्होंने अपने आचरण का हिस्सा नहीं बनाया। किसी भी धर्मग्रन्थ का जो हिस्सा उपयोगी था उसे लेकर शेष छोड़ दिया। प्राचीन काल से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को भले ही वह नकारते नहीं लेकिन उसमें व्याप्त अस्पृश्यता को वे सिरे से खारिज़ करते हैं और हृदय परिवर्तन के साथ वह उस वर्ग को अपनाते हैं, गले लगाते हैं, जिसे समाज वर्षो से उपेक्षित किए हुए था।  दलित बनाए हुए था ।

उनके मानवीय मूल्य लोकतंत्र के पोषक मूल्य हैं। जनकल्याण के पक्षधर मूल्य हैं। लोक कल्याणकारी सरकार की संस्थापना हेतु उन्होंने तुलसी का रामराज्य लिया और स्वराज की कल्पना को साकार करने में प्राणपण से जुट गए।

उनमें पक्षपात नहीं है। बुद्ध की करुणा की तरह ही इनकी करुणा भी एकरस होकर बहती है ।  वह किसी- किसी के लिए और कभी- कभी नहीं बहती और न ही कभी अवरुद्ध होती है बल्कि सभी के लिए अनवरत और अनवरुद्ध बहती है। उनका प्रेम किसी वर्ग या वर्ण के लिए आरक्षित न होकर पशु पक्षी से लेकर समस्त मानव जगत तक व्याप्त है।

हर जीव के जीवन को बहुमूल्य मानना भी उनका जीवन मूल्य है। लेकिन उनके अनुसार मनुष्य जीवन तो अनमोल है। उनमें संस्कार बहुत ज़रूरी है। वे निश्छल और सरल मन बच्चे को ही नहीं अपितु बड़े से बड़े पापी को भी संस्कारित करने की बात करते हैं । इसलिए वह उनमें भी संस्कार डालकर हृदय परिवर्तन कर मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने में विश्वास करते हैं। वे जीवन को गढ़ना सामाजिक धर्म मानते हैं और मूल्य भी।  बचपन में देखा गया नाटक सत्यवादी हरिश्चंद्र उनके जीवन को परिवर्तित करने वाला नाटक इसलिए भी सिद्ध हो सका क्योंकि उनमें बालपन से ही ऐसे संस्कार थे,जो मानव मूल्यों से आपूरित थे।  सत्य की रक्षा के लिए अपने राजपाट से लेकर अपनी संतान तक का खोना हरिश्चंद्र के लिए ही नहीं बापू के लिए भी आदर्श रहा और उसे उन्होंने जीवन भर भी निभाया। उन्होंने अपने प्राण सत्य, अहिंसा और मानवीय मूल्यों के लिए ही अर्पित कर दिये।

अत्याचार और असत्य का दृढ़ता से प्रतिकार उनका बहुमूल्य और समसामयिक  जीवन मूल्य रहा है। इसीलिए वे सदियों से शोषित समाज के उत्थान के लिए सत्य की प्रयोगशाला में परीक्षित मानववादी जीवन मूल्यों के पुरस्कर्ता बां सके थे । चुनौतियों के सामने पहाड़ की श्वेत धवल,शीतल बरफ़ीली चोटी-से निर्भय खड़े-खड़े सामना करने का साहस   रखने वाले अपराजेय योद्धा के रूप में  उन्हें सामने पाकर आखिरकार ब्रिटिश अत्याचार का ज्वालामुखी भी एक दिन ठण्डा ही पड़ गया।

अंतत:उनके जैसे अहिंसा और  सत्य के नि:शस्त्र आग्रही के आगे असत्य का क्रूर दानव नतमस्तक हो गया। वह इसलिए कि वे वर्तमान के स्रष्टा और भविष्य के द्रष्टा थे।   वे पराई पीर को अन्तर्मन से समझने वाले वैष्णव थे।

असहमति का विवेक उनका ऐसा जीवन मूल्य था जो उनके जीवन में विवादों का कारण रहा। लेकिन वे इससे रंच भी विचलित नहीं हुए।   गांधी जी अपने सत्याग्रह की व्याख्या में यह कहना नहीं भूलते कि उनके सत्याग्रह में केवल उन्हीं का सत्य शामिल नहीं है बल्कि विपक्षी का सत्य भी शामिल है। इसी के साथ वे असहमति के विवेक को भी बराबर महत्त्व देते थे। इसी कारण से वे अपने ‘हरिजन’और आंबेडकर के दलित विमर्श की सहमति -असहमति से ऊपर उठकर ‘पूना पैक्ट’ में सफल हुए थे। आंबेडकर के जाति उच्छेद को वे सही नहीं मानते थे। जाति उन्मूलन की ज़गह वे अस्पृश्यता का उच्छेद सही मानते थे। इस संदर्भ में उनका यह स्पष्ट कहना था कि,’स्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन हृदय परिवर्तन का आन्दोलन है। ‘जबकि बाबा साहेब आंबेडकर इनके ‘हरिजन’ शब्द से नफ़रत करते थे और मानते थे कि अगर जाति का नाश नहीं होगा तो स्पृश्यता का नाश सपना ही रह जाएगा।  किसी हद तक गाँधी के विचार आज अधिक प्रासंगिक लग रहे हैं कि अस्पृश्यता तो समाप्त हो गई पर जाति व्यवस्था अब भी है। स्वयं दलित ही आज अपनी जाति की पहचान को इसलिए नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि इससे उनके आरक्षण के अधिकार को आघात लगने का भय दिखता है।

वे मानव मूल्यों को केवल मानते ही नहीं थे,उनके पोषक भी थे। इन्हीं कारणों से एक आदर्श और नैतिक पिता के रूप में हम बापू को पाते हैं। इसीलिये तो वे सर्व स्वीकार्य राष्ट्रपिता हैं।

माता-पिता के दैहिक रूप पर कोई नहीं   रीझता। इसी से हर बच्चे को उसकी माँ ही सबसे प्यारी होती है उसके बाद पिता।  माँ के पहचनवाने पर कि उसका पिता कौन है बच्चा भी रूप-कुरूप के भेद से परे भाव से उसे अपना लेता है। मेरी माँ ने भी मुझे किसी शिशु के हिसाब से  डरावनी मूंछों वाले मेरे पिता से कब और कैसे परिचय कराया होगा यह तो होश नहीं लेकिन राष्ट्रपिता से परिचय का होश है।  मेरी माँ के ‘बापू’अवतारी थे और अवतारी नहीं थे तो कम से कम सिद्ध पुरुष अवश्य थे जो लखनऊ में ज़मीन में प्रवेश करके सीतापुर में निकलकर उनके बाबा से मिले थे।

विद्यालय में बापू के जिस चित्र को देखते हुए हम बड़े हुए वह पसलियां दर्शाती दुर्बल काया थी। आगे के दांत टूटे।  हाथ में लाठी लिए तेज़-तेज़ चलता अर्धनग्न शरीर वाला फ़कीर।

भौतिक आँखें तो चमक देखती हैं फिर वह चाहे सोने की हों या पीतल की।  ऐसे में वे भला रीझें  भी तो किस पर। बाहरी आंखों को क्या पता  कि वे रूपवान नहीं चरित्रवान थे और चरित्र तो नंगी आंखों देखा नहीं जा सकता उसके लिए तो भीतरी आँखें  चाहिए।

गाँधी अपने वात्सल्य और चरित्र के कारण आज भारत ही नहीं सारी दुनिया में पूजे जा रहे  हैं। सारी दुनिया उन्हें पिता मान रही है। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि  अपने मानव मूूल्यों के चलते ही हमारे राष्ट्र पिता आज विश्व पिता हो गए हैं।

इस दुनिया का बच्चा- बच्चा गाँधी से प्रभावित हुआ है तो हम  भला कैसे अछूते रह जाते।  हम भी प्रभावित हुए थे।   लेकिन गांधी के विचारों को मलिन करने वालों के कारण हमारा बालमन उस समय आहत हुआ था जब गाँँधी के कुटीर उद्दयोग  में इकलौते बचे उनके चरखे की अर्थी उठाकर हम भी दस-ग्यारह विद्यार्थी पहली बार गांव से बाहर  पांचवीं की परीक्षा देने गए थे। हाथ में रुई (कपास) लिए-लिए उकता गए थे।  चरखा एक, कातने वाले दस । अपनी बारी आने तक रुई हथेली के पसीने से भीग भी गई थी। इसके बाद उसे काता हमारे गुरु जी ने था। यह गाँधी दर्शन और उनके आर्थिक विचारों का उनकी ही संतानों द्वारा किया जा रहा अन्तिम सम्मान या संस्कार था, जिससे पूर्व किशोरवास्था में ही हमारा परिचय हो गया था। उस इम्तिहान से पहले हमने सिर्फ तकली,रुई और बापू को देखा था लेकिन चरखे को नहीं। यहाँ तक कि चित्र में भी नहीं। शायद इसीलिए बचपन में तो उतना नहीं रीझे जितनी मेरी माँ रीझी थी।   अपनी  माँ की तरह ही थोड़ा बड़े यानी समझने लायक होने पर मैं भी रीझा और पाया कि अपने ही घर में उपेक्षित होने के बावजूद बापू पर मैं ही क्या  सारी दुनिया रीझी हुई है और ऐसी रीझी हुई है कि जैसे चुंबक  पर लोहा रीझता है।  उनकी आत्मा के चुंबक के जो भी  करीब आया उसे  ऐसे चिपकाया जैसे जनम-जनम से वह उनका ही रहा हो या  होकर रह गया हो और अब तो पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि  उनपर जो नहीं रीझा या रीझ रहा वह संवेदनशील मनुष्य तो क्या  हाँड़-माँस  का   विवेक शून्य पशु भी नहीं यहाँँ तक कि  जड़  भी  नहीं।

मूल्य भले अमूर्त होते हैं लेकिन आचरण में ढलकर मूर्त हो उठते हैं। गांंधी का चरित्र  बड़ा कीमती चरित्र इसलिए बन सका है कि मूल्य उनके आचरण की टकसाल में ढाले गए हैं।  वे जितना जज के लिए कीमती हैं उतना ही किसी  अपराधी के लिए भी। उनके विचार एक विशुद्ध दार्शनिक के ही विचार नहीं बल्कि सहृदय और विवेकशील पिता के  भी विचार हैं । ‘आँख के बदले आँख’ से तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी और ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ के माध्यम सेे वे जहाँ जज के लिए मार्गदर्शन करते हैं  वहीं चोर के लिए भी आत्म सुधार का रास्ता खोलते हैं। हृदय परिवर्तन से पापी में भी सच्चाई,ईमानदारी,कर्तव्यनिष्ठा,सहिष्णुता,करुणा,अहिंसा,प्रेम,सौहार्द,विश्वास,आस्था और आदर भाव जैसे मानवीय मूल्य स्थापित किए जा सकने में पूरा विश्वास रखते थे।

वे साध्य की शुद्धता से अधिक साधन की शुद्धता पर जोर देते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि में यही सबसे सुंदर और कारगर औजार था जिससे हम सुंदर समाज की संरचना कर सकते थे। इसीलिए गांधी   क्या उनके हर अनुयायी को  इन  दो बातों से चिढ़ थी। एक ओर  सब  कुुुछ  चुपचाप   सहे  जाना और दूसरी ओर  सारे शोषण को रातोंरात मिटा देने का उन्माद। अत:बापू के  हिसाब से  अत्याचार सहना स्पष्टत: कायरता थी। ऐसे निर्भय और  आत्मनिर्भर  समाज की सरंचना  करनेे वाले को आज दबे-छिपे और कहीं-कहीं तो खुलेआम  भी  गालियाँ  दी जा रही हैं ।  लेकिन वे इसके परिणाम पहले ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी एक सटीक बात कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों  वाले  हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों ,परस्पर सम्मान,और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार करते हैं।   ”

वे सौंदर्य परक मूल्यों को अच्छी तरह समझते थे। लेकिन वे उन्हें रोटी,कपड़ा और मकान के भौतिक मूल्यों से जोड़कर देखने के पक्षधर थे। गाँव -गाँव  और घर-घर स्वच्छता और खुशहाली चाहते थे। समता और बंधुता उनके मूल्य ही नहीं आत्मीय संकल्प थे। इसके वे औरों के सामने जीवंत आदर्श रख रहे थे । वह इसलिए भी कि इससे उनका दिल दुखता था।  अस्पृश्यता का निवारण वे शब्दों से नहीं आचरण से चाहते थे। इसीलिए वे अपने शौचालय स्वयं साफ़ करें। श्रम की कद्र करने के लिये वे अपने जूते-चप्पल स्वयं भी गांठते थे। उनके  अनुसार खादी और ग्रामोद्योग से बिना पूंजी और कौशल के भी  ग्रामीणों को रोजगार मिल सकता है। वे कहते थे,”बुद्धि, श्रम और कौशल   को अलग करने से गांवों की  अनदेखी का अपराध हुआ है और  इसी लिए हमें गांवों में  सौन्दर्य की जगह कूड़े के ढेर  नज़र आते हैं । ”

निर्भयता और अचौर्य भी उनके अपरिहार्य जीवन मूल्य थे। प्राय: हम लोग उनकी अहिंसा को कायरता समझते हैं लेकिन यह हमारी भारी भूल है। वह एक अहिंसक को निडर व्यक्ति बनाते हैं, कायर नहीं । उनका मानना है कि कायर कभी अहिंसक हो ही नहीं सकता। हम दुर्बल हैं।  हिंसक हैं। कायर हैं। इसलिए बापू को नहीं समझ पाते।  हम बापू को इसलिए भी नहीं समझ पाते क्योंकि हम भीतर से चोर और बाहर से कोतवाल हैं। बहुत से लोगों का आरोप है कि गाँधी जी ने शहीद भगत सिंह की पैरवी नहीं की। इसे मैं मारीशस के यशस्वी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के ‘गांधी जी बोले थे’ उपन्यास के पात्र  देवराज का सहारा लेते हुए साफ़ करना चाहूँगा कि यही एक पड़ाव है जहाँ वे अपने सिद्धांत के विरुद्ध जाते हुए मिलते हैं, जिसे एक विदेशी साहित्यकार तो स्वीकारता है लेकिन हममें वैसा साहस नहीं।  क्योंकि हमें उनके व्यक्तित्त्व की विराटता सहन नहीं होती। इसलिए हर बड़ी लकीर की तरह इसे भी छोटी करने के उपक्रम करते रहते हैं। हिंसा के बदले हिंसा वाला चरित्र बताता है कि उपन्यासकार के मनो मस्तिष्क में स्वाधीनता के लिये हिंसा के पक्षधर क्रान्तिकारियों का पक्ष भी है और उनके प्रति अहिंसक गाँधी का सॉफ़्ट कार्नर भी। उसे वह गांधीवादी मदन के माध्यम से कहलवाता है कि,”देव !तुम निर्दोषों को फांसी चढ़ने से रोकने के लिए खुद अपनी गर्दन में फंदा डाल बैठे। ”    यह गांंधी का  ईमानदार   चारित्र  ही है जो  उन्हें  देश-काल से  बाहर ले जाता है ।

अचौर्य व अपरिग्रह का पाठ  उन्होंने जन-जन को पढ़ाया  कि किसी के खेत से कुछ मत छूना। जो लेना हो बस अपने खेत से लाओ।  अपने आचरण से हमें अपरिग्रह भी सिखाया और अहिंसा भी।

उनके आचरण की पाठशाला जीवन्त दूर शिक्षण शाला की तरह थी। इसी से बापू से ही सीख कर जो बड़े स्तर पर बापू ने सारी दुनिया के लिए  किया वही  मेेेरी माँ ने मेरे लिए किया।  बचपन मेें मुझे मेरी निरक्षर माँ  पढ़ाती थी और किसी के घर या खेत से कुछ लाने के लिए साफ़ मना करती थी।    वह जहाँ पढ़ी  थी वह पाठशाला बापू की जीवनी थी और  वहाँ उसका शिक्षक कोई और नहीं बस बापू का सुना-सुनाया आचरण था।  इस अर्थ मेें बापू सारी दुनिया  केे लिए   एक आदर्श पिता के साथ-साथ प्राथमिक अध्यापक भी कहे जा सकते हैं।

वे एक जागरूक पिता की तरह सेवा और सदाचार भाव के साथ भारतीय जनमानस को तैयार कर रहे थे,जिसमें धर्म सर्वोपरि था। लेकिन उनका धर्म ऐसा धर्म था जिसमें सच में सारी वसुधा और उसके जन समाए हुए थे फिर वे चाहे किसी भी भूभाग के या किसी भी पंथ को मानने वाले क्यों नहों। उनके इसी विराट वैश्विक व्यक्तित्त्व वाले सजग नेतृत्व में ही भारतीय जनमानस  पला -पुसा। भटके और डरे हुए भारत को वे धर्माध्यात्म,नीति,समाजनीति,संयम,सत्याचरण ,अहिंसा, राजनीति,आत्मबल वाली जीवनोपयोगी शिक्षा और दर्शन सब एक साथ सिखा-समझा रहे थे।  गाँधी  और उनके जीवन-दर्शन के विशेषज्ञ आचार्य नन्द किशोर कहते हैं,”महात्मा गांधी जब सत्य को ही ईश्वर कहते हैं तो स्पष्टत: धर्म से उनका आशय सत्य की साधना के उपाय से हो जाता है।  वे संपूर्ण सृष्टि को सत्य अर्थात् ईश्वर और उसकी सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानते हैं। इस तरह  मानवता की सेवा ही गांधी जी के लिए धर्म है,क्योंकि उसके माध्यम से वे सत्य को पा सकते हैं। “गांधी जी ने साफ़  शब्दों में कहा है कि ,”जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है,वे धर्म का अर्थ नहीं जानते। ”

गाँधी सब धर्मों से प्रभावित हैं।  इसलिए उनके राजनीतिक मूल्य मानवीय मूल्यों के पोषक मूल्य हैं। वे उनके दुरुपयोग  से भी भिज्ञ थे। ऋषि  हृदय बापू को पूर्वाभास था कि एक न एक दिन मंदिर-मस्ज़िद,गिरिजाघर और गुरुद्वारे में राजनीति और राजनीतिक  दलों के कार्यालयों और सभा स्थलों पर किसान,मज़दूर और मज़बूर के दर्द के बजाय अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म की तकरीरें होंगी। शायद इसीलिए वे कहते थे,”धर्मों के भीतर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से लुप्त हो रहा है। ” इसके दुष्परिणाम बापू  भलीभाँति जानते थे ।

प्रयोगधर्मिता भी उनका मानवीय मूल्य था। इसीलिए दुनियावी दृष्टि में यदि कहीं विफल नज़र आएँ तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। विज्ञान में भी सारे प्रयोग सफल नहीं होते। जो प्रयोग सफल होता है उसी पर सिद्धांत बनते हैं। इसीलिए बापू की किसी विफलता के पहले उनका यह विचार जानना बहुत ज़रूरी है कि उनका आखिरी कथन,विचार या प्रयोग ही अमल में लाया जाए । इस परिप्रेक्ष्य में यह कथन बहुत उपयोगी है कि ‘उनका जीवन ही उनका संदेश है। ‘

जो गांधी की विफलता का ढोल पीटते हैं और उसे  रेखांकित करते हुए यह बार-बार बताते हैं कि उन्होंने देश का सत्यानाश कर दिया, उन्हें  बापू को तोपों वाली सेना के सामने निडर खड़े भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में समझना होगा।  उनको उनके ही समय और समाज के परिप्रेक्ष्य में देखने पर पता चलेगा कि वे(बापू) कितने कीमती थे,जिनके व्यक्तित्त्व का असर देश की सीमाओं को लाँघ सात समुद्र पार तक पहुँच गया था ।

नैतिकता और पवित्रता भी बापू के जीवन मूल्य थे। इसी से वे पूँजी के प्रवाह में प्रगतिगामी नैतिकता को प्रमुख स्थान देते हैं और ट्रस्टीशिप जैसे मूल्य को जोड़ कर उसके प्रवाह को गंगा की तरह पवित्र बनाना चाहते हैं।  बापू   को  समझने  वाले जानते  हैं  कि  वे निर्धन समाज के लिए उसी तरह बराबर चिंतित रहे जिस तरह से कोई भी पिता अपनी संतानों में सबसे अधिक निकटता अपनी कमजोर  संतान के प्रति   रखता है। वे भी इनके प्रति ऐसे ही चिंतित रहे जैसे बापू की चिंता के केंद्र में दुनिया भर के दुखी -दरिद्र रहे।  मारीशस और दक्षिण अफ्रीका के गिरटिया मज़दूरों और  शोषित लोगों के साथ तो वे प्रत्यक्ष रूप से भी खड़े रहे। उनकेअर्थ दर्शन के पीछे  यथार्थ की आँच में तपे प्रौढ़  और अनुभवी मुखिया का अर्थिक चिंतन था।  बापूअर्थशास्त्र की बुनियादी चिंताओं की  ओर ध्यान देने वाले राजनीतिज्ञ थे। प्लेटो के बाद बापू ही दुनिया के सबसे आध्यात्मिक राजनीतिक विचारक हैं।

मेरी राय में वे किसी देश की अर्थ व्यस्था को भी घर की तरह चलाने में विश्वास करने वाले एक सच्चे राष्ट्र पिता थे।   संसाधनों का आवंटन, आजीविका की रचना, वस्तुओं व सेवाओं का  उत्पादन व वितरण,उत्पादकों के साधनों के स्वामित्व की  प्रकृति और उनके न्यायोचित वितरण के पक्षधर राष्ट्रीय चिंतक थे।  गरीबी, ढांचागत संरचना,हिंसा और अन्याय  को लेकर गहरी चिंता उनके आर्थिक चिंतन का मूल थी।  गांधी के ‘दरिद्र नारायण की छवि हम सबको  इस  विश्वास से भी मुक्त करती है कि भौतिक वस्तु ही इंसानी अहमियत का वास्तविक पैमाना होती है और इसलिए इन्हें हासिल करना ही सबसे उपयोगी पुरुषार्थ है। ‘  गांधी ने ईश्वर को इसी दरिद्र का या दरिद्र को ईश्वर का और आगे चलकर सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप देकर दरअसल ईश्वर की अवधारणा को उसकी मूल रूपांतरकारी और मुक्त करने वाली क्षमता लौटा दी।  बापू की दरिद्र नारायण की धारणा बहुत सार्थक है लेकिन वह संपन्न लोगों को नहीं भाई । इसी तरह ट्रस्टीशिप का विचार भी सबके लिए है। यह विचार पूंजी के संचयन व संग्रहण के खिलाफ नहीं बल्कि नैतिक अनिवार्यता के तौर पर पुनर्विचार तथा  न्याय का ख्याल रखना है।

प्रताड़ना का प्रतिकार उनका प्रगतिशील मानव मूल्य है। “गरीब को शरीर की हिंसा से बचाने का एकमात्र तरीका मानक व्यवहार अपनाने का है चाहे वह ईश्वर में व्याप्त हो, दरिद्र नारायण में या ईश्वर के किसी संदर्भ के बिना ट्रस्टीशिप में। ” बापू का यही स्वरूप हमें इस रूप में भी लुभाता है कि  राजनेता या आध्यात्मिक संत के रूप में वे भले अपूर्ण लगते हों पर  पिता के रूप में संपूर्ण थे।    वे ऐसे पिता थे जो अपने बच्चों का भौतिक  विकास तो चाहता है पर पूर्ण   नैतिकता के साथ। वह अपनी संतति को संपन्न तो बनाना चाहते थे लेकिन अपरिग्रह की भावना के साथ।  वह हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं जगतपिता थे।  इसलिए उनका नैतिक धर्म था कि वह राष्ट्र और दुनिया को चरित्रवान बनाएँ  । नैतिक और अपरिग्रही बनाएँ ताकि दुनियाभर के सभी भाई-बहन समृद्ध और सुखी जीवन जी सकें। वह अपनी संतानों को अमीर के बजाय सही अर्थों में सुखी बनाना चाहते थे। शारीरिक या मानसिक रोगी बनाने के बजाय संपूर्ण रूप से स्वस्थ बनाना चाहते थे। इसी लिए बापू खानपान पर भी जगह-जगह विचार करते हुए मिलते हैं। उन्होंने स्वयं सालों तक शाकाहारी बनने के लिए संघर्ष किया । गाय तक का दूध  छोड़ा।  वह साबुत और कच्चे अनाज व  मूंगफली के दूध पर विश्वास करते थे। उपवास पर भी उनका अपूर्व विश्वास था। देश और दुनिया की सेवा के लिए उनका स्वस्थ रहना भी ज़रूरी था। इसीलिए अंततः उन्होंने बकरी के दूध को एक उत्तम और अन्यतम विकल्प के रूप में स्वीकार कर ही लिया।

बापू से पहले अध्यात्म प्रेरित राजनीतिक चिंतक विगत पांच हज़ार सालों में भगवान श्री कृष्ण के अलावा दूसरा कोई न हुआ। बहुत संभव है कि  पिछले इन सालों के  शुरुआती हज़ार-दो हज़ार साल इसी ऊहापोह में बीत गए हों कि कहीं महाभारत के सूत्रधार कृष्ण ही तो नहीं हैं।   संभव यह भी है कि गांधारी के द्वारा दिए गए  शाप को समाज इसीलिए स्वीकार करता  हो कि वह भी उन्हें महाभारत के महाविनाश का दोषी मानता रहा हो ।  हो तो यह भी  सकता है कि  गान्धारी कोई और नहीं स्वयं जनमानस हो और जिसने गांधारी की ओट ली हो।  बापू को भी समझने में हज़ार साल  तो लगेगा ही। इस अर्थ में आइंस्टीन का यह कहना भी गलत न होगा  कि,’हज़ार साल  बाद  लोग यह विश्वास  ही नहीं करेंगे कि धरती पर हांड़- मास का ऐसा पुतला जन्मा था। ‘ यह भी  असंभव नहीं कि हज़ार दो हज़ार साल बाद बापू को भी उसी तरह अवतार भी मान लिया जाए जैसे बुद्ध को मान लिया गया और यह अवतार सारी दुनिया का सर्वमान्य अवतार हो।

ब्रह्मचर्य उनका एक ऐसा जीवन मूल्य रहा जो सर्वाधिक विवादास्पद हुआ। कुछ विरोधियों को तो जैसे एक धारदार हथियार बापू ने खुद पकड़ा दिया। लेकिन उसे समझने के उसी कोटि के चरित्र की आवश्यकता है जो आधुनिक काल में बापू और ओशो के सिवा किसी के पास नहीं है। आधुनिक काल के ये दो महान प्रयोग धर्मी महापुरुष (बापू और ओशो)बहुतों से समझे ही नहीं गए। जिन्होंने थोड़ा -बहुत इन्हें समझा भी तो दूसरों को सही से समझा नहीं पाए । बापू ने  राजनीति के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए तो  ओशो ने अध्यात्म के क्षेत्र में और  ऐसे- ऐसे प्रयोग किए जो सामान्य जन के लिये अबूझ पहेली और जादू की तरह समझ व पकड़ से परे रहे। हम इन्हें क्यों नहीं समझ पाए इसका उत्तर भी बहुत सीधा-सा है कि चाहे अध्यात्म का क्षेत्र हो या फिर राजनीति का दोनों क्षेत्रों में हम पूर्ण ईमानदार कभी नहीं रहे। हमने सत्य और अहिंसा का पथ इस तरह अपनाया कि बाहर से कोतवाल और भीतर से चोर बने रहे। उनकी देह को तो केवल एक ने ही गोली मारी पर उनके विचारों को अनेक ने मारा ।  मारा ही नहीं बल्कि निशाना  साध-साध कर छलनी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं उनके सत्य,अहिंसा और असहयोग जैसे उपयोगी औजारों को उन्हीं के साथ जला भी दिया गया। उनके चरखे को उनके फूलों वाली हंडिया के साथ पीपल पर लटका दिया गया। यही कारण है कि गांधी जहां दुनिया भर की समझ में आ गए हम उनके बारे में  असमंजस में ही पड़े रहे ।

बापू को ठीक से समझने के लिए पहले हमें भी अपने बारे में गांधी की ही तरह ईमानदार होकर पीपल पर लटकी उनके फूलों(अस्थियों)की हांड़ी को हिम्मत से उतारना होगा।  चरित्र से पवित्र होना होगा अन्यथा उनके पवित्र फूल अपवित्र हो जाएँगे।  हमें भीतर से पूर्ण अहिंसक और सत्य का पक्षधर बनना होगा तब जाकर हम उन्हें समझने लायक बन सकेंगे। इतना सब होने में ही सौ-दो सौ साल लग जाएँगे। जो उन्हें केवल मुसलमानों का पक्षधर  मानते हैं उन्हें बिल्कुल समझ नहीं पाए। हिंदू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य के संबंध में उनका विचलित रूप ऐसा लगता है जैसे कि  कोई पिता बँटवारे के बावज़ूद अपनी संतानों में असहमति का विवेक पैदा करके उन्हें प्रेम से रहना सिखाना चाहने के मूड में हो और ऐसा होते न पाकर झुंझला रहा हो।

आज का तथाकथित गांधीवाद की जुगाली करने वाला वर्ग अपने स्वार्थ से गांधी  पर लिख और बोल रहा है। वह वैसे ही भ्रमित है जैसे एक वासनांध युवा प्रेम के मर्म को समझने के लिए  फुटपाथ पर कोक शास्त्र की किताब खोज रहा हो।  हम गाँधी की तस्वीर लगाकर गाँधी छाप बटोर रहे हैं।  पता  नहीं किस भ्रम में जी रहे हैं। हम सामने वाले से उसकी मज़बूरी या छोटे से स्वार्थ के बदले उसका सारा ईमान गिरवीं रख ले रहे हैं। ऊपर से यह मानने-मनवाने का मुगालता भी रखते हैं कि वह हमें अपना ट्रस्टी समझे। बापू की ट्रस्टीशिप वह नहीं है जो हम समझ और कर रहे हैं। उनकी ट्रस्टीशिप का ट्रस्टी एक संपूर्ण पिता है।  उसमें त्याग ही त्याग है लाभ-लोभ का लेश भी नहीं।

बापू का एकांगी आकलन करने वाले  हम अपने आचरण को देखें तो पता चलेगा कि हम भी कुछ  वैसा ही कर  रहे  हैं  जैसे कोई डॉक्टर  शरीर का पोस्टमार्टम करके   उससे हत्यारे की मंशा जांचने की कोशिश कर रहा  हो । लेकिन ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि शरीर के घाव भला हत्यारे की मंशा को कैसे और कितना बता पाएंगे।

शुद्धाचरण उनका बेशकीमती जीवन मूल्य है। उनको जानने-समझने के लिये हमें भी शुद्धाचरण अपनाना होगा। इसके लिए पहली शर्त ही यह है कि तन के बजाय मन को धोना होगा। लेकिन हम मन के बजाय तन धो रहे हैं। जीवन रस से हीन मुर्दे तनों में  कलम   लगा   रहे हैं।  गाँधी को जीने और उनपर सोचने-विचारने के पहले  हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मुर्दों  के भीतर नहीं अपितु जीवितों में विचारों को जीवित करना होगा,जैसा बापू ने किया था। उन्होंने ज़िन्दा तनों में कलमें लगाई थीं मुर्दे तानों में नहीं। क्योंकि कलमें भी ज़िन्दा पेड़ में ही लगती हैं।

कहीं  हम ‘बापू – बापू’ का नाटक तो नहीं  खेल रहे हैं।  आखिर उन पर नाटक खेलने के लिए भी तो उनकी लुंगी और लाठी  के बजाय उनके चारित्र को भी जीना होगा। उनके विचारों में उन्हें साक्षात्  जीवित देखते हुए उनकी भावनाओं को समझना होगा।  हमें यह भी समझना होगा कि वह अहिंसा के कितने पक्षधर थे और  हम कितने हैं।    इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि  जहाँ एक ओर बापू को पूजा जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनकी अहिंसा को खुलेआम गालियाँ  दी जा रही हैं।  लेकिन वे इस परिणाम को भी पहले से ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी ठीक ही कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों  वाले  हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों,परस्पर सम्मान, और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार भी करते हैं। ”

बापू की अहिंसा के कारण उन्हें असफल और भोला राजनेता कहा गया।  गोली का जवाब गोली से देने वालों के लिए उन्होंने साफ़ संदेश दे ही दिया था कि आँख के बदले आँख से सारी दुनिया अंधी हो जाएगी।  इसके बावजूद लोग उनसे जबरन हिंसक आंदोलन में समर्थन चाहते रहे।  इनकी निश्छलता के कारण कुछ पाश्चात्य चिंतकों ने भी इन्हें भोला अहिंसक कहा है।  मार्टिन बूबर जैसे तत्कालीन चर्चित  विचारक  का  भी मानना था  कि यदि बापू  जर्मनी में होते तो सत्याग्रह के पहले कदम पर ही  नाज़ियों ने  उन्हें मिटा दिया होता। लेकिन मेरा विश्वास है की बूबर का विश्वास गलत है। सही यह है कि जर्मनी का यह दुर्भाग्य है कि बापू जर्मनी में पैदा नहीं हुए। जिस ब्रिटिश सत्ता को बापू ने घुटने टिकवा दिये उसके भय से कायर हिटलर को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा। क्रूरता,विवशता और कायरता का पर्याय हिटलर बापू के सामने टिक ही नहीं पाता।

बापू हर देश और काल के लिए प्रासंगिक राजनीतिज्ञ ही नहीं सच्चे मार्गदर्शक महात्मा और पिता हैं।  अपने बापू को अगर सही अर्थों में याद करना है तो    उनके जीवन    मूल्यों को समझना होगा।  उनके  राजनीतिक विचारों के साथ-साथ धर्म संबंधी विचारों को  भी समझना होगा।

सच्ची मानवता के  निश्छल पुजारी और परमहंसी भावधारा वाले संत बापू को कोई सिरफिरा कहे या  सफल पाखंडी या फिर उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को भी उनकी सनक कहे तो  कहता रहे। हम तो उनके  सबकी कुशल-क्षेम के साधक विश्व के सबसे बड़े व बहुजातीय राष्ट्र वाले लोकतंत्र के उस संपूर्ण  और नियामक पिता रूप के पुजारी हैं जो हमारे लिए आधी रोटी खाकर उठ जाता रहा हो।  अधनंगे बदन पर शीत ,ताप और बारिश सहते हुए निष्काम योगी -सा गाँव- गाँव,देश-देश भरमा हो।  अपनी गंभीर रूप से बीमार संतानों के भले के लिए अस्पताल-अस्पताल भटका हो।  कलश,गुंबद या मीनार में भेद किए बिना दर-दर माथा टेका हो ।  अपने बूढ़े शरीर का होश रखे बिना पागल जवानी के खूनी उन्माद का उपचार करने के लिए नंगे पाँवों हाँफते हुए   बिना रुके और थके भूखे-प्यासे बदहवास भागता रहा हो ।

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

इस आलेख में व्यक्त विचार साहित्यकार के व्यक्तिगत विचार हैं।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ गांधीजी के जन्मोत्सव पर विशेष – कुली लोकेशन की होली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। आज प्रस्तुत है महात्मा गाँधी जी की जयंती पर एक संस्मरण “कुली लोकेशन की होली

☆ गांधीजी के जन्मोत्सव पर विशेष – संस्मरण – कुली लोकेशन की होली  ☆

हिंदुस्तान में बड़ी से बड़ी सेवा करने वाले को भंगी की उपमा दिया जाता था और उन्हें गाँव के बाहर रखा जाता था। जिन्हें “देढवाडा” भी कहते थे। उन्हें बहुत नफरत की दृष्टि से देखा जाता था।

बात उन दिनों की है जब दक्षिण अफ्रीका के शहर में हिंदुस्तानियों को ‘देढ’ कहते थे। बाद में यही शब्द जोहानेसबर्ग में कुली के नाम से मशहूर हो गया।

1914 से 1917 के बीच महात्मा गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में वकालत का काम शुरू किए और उनका आना जाना होता था। भारतीयों को शहर से बाहर तिरस्कार कर उनको मालिकाना हक नहीं दिया जाता था और उसी कुली लोकेशन पर जहाँ साफ-सफाई बिल्कुल नहीं थी वहीँ  पर रहने दिया जाता था।

उस समय हिंदुस्तान से बहुयाता की संख्या में धन और धंधे के लिए लोग बाहर जाने लगे। और कुली लोकेशन पर भीड़ एकत्रित होने की वजह से महामारी फैल गई। गांधी जी ने स्वयं सभी लोगों को मिलकर, वहां की साफ-सफाई और व्यवस्था अपने हाथों में लेकर, उस जगह को स्वच्छ किया। गरीब हिंदुस्तानी चांदी और तांबे के सिक्के जमीन पर गढ़ा कर रखे थे। उस जगह को वह छोड़ना नहीं चाहते थे। गांधीजी ने उन्हें समझाया कि यह जगह अब दूषित हो चुकी है। मुझ पर विश्वास करो और इस जगह को खाली कर मैं आपको सुरक्षित जगह पर ले चलता हूं।

इधर अंग्रेज बैंक के कर्मचारी गांधी जी से मिलकर कहने लगे कि वह सिर्फ आपके ही हाथ से पैसे बैंक में जमा करेंगे। आँख मूंदकर गांधी जी पर अटूट विश्वास लोगों का था। और सब चीजों को सुरक्षित निकालकर गांधी जी सभी को दूसरी जगह व्यवस्थित कर अपने एकता और शक्ति का परिचय दिखा दिया।

अंग्रेजों ने सोचा था कि इसको पूरी तरह नष्ट करने के लिए इनको ही जला दिया जाए। गांधीजी तक यह बात पहुंची और गांधीजी उस जगह पर पहुंच गए। वहां पर जाकर गांधीजी सभी कुली वर्ग के लिए वकील बने। अपने सूझबूझ से 70 केस जीतकर सिर्फ एक केस हारे। शेष बाकी सब जीतकर गांधीजी ने एकता और शक्ति की मिसाल कायम की। जबकि अंग्रेज इसे जड़ से मिटाना चाहते थे।

अपने सूझबूझ के कारण चाहे धन रहे या ना रहे। परिश्रम और सूझबूझ से मानवता की सेवा करते गांधीजी ने महामारी से अपने लोगों को सुरक्षित बचा लिया।

2 अक्टूबर गांधी जी को समर्पित एकता और शक्ति की मिसाल पर उनका संस्मरण  पुस्तक – मेरे अनुभव – मोहनदास करमचंद गाँधी से उद्धृत।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 64 ☆ जीने का हुनर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख जीने का हुनर। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 64 ☆

☆ जीने का हुनर ☆

‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात निसंकोच, स्पष्ट रूप से सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला भी आनी चाहिए, जिसके लिए आप में संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।

‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल  सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सब से दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।

आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते, आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलिए, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलिए, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ

दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।

सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर  परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दांव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन, शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था  विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि-नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में कैसी भी विषम परिस्थितियां हों, मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए…समभाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लांघ जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं, उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानूकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग कीजिए। हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच, मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर, शेष को त्याग दें। क्रोध में मानव अक्सर कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो, सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं, जिनके इलाज के लिए कोई मरह़म नहीं होती।

हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा है…इसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लो, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखो।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है।  वास्तव में यह मानव-मन में गहरायी से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित हो ‘हैलो-हॉय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।

अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करो और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहो। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है, सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास कर के, मन की बात न कहने का संदेश दिया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख, आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों से सावधान रहिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।

‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हांट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं। दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।

अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइये। हर क्षण को जियें, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्- प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि यह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है, नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण करो और धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है… परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो, फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय’ अर्थात् भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 73 ☆ कैसे करें  साहित्यिक समीक्षा ? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख कैसे करें  साहित्यिक समीक्षा ?।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 73 ☆

☆ कैसे करें  साहित्यिक समीक्षा ? ☆

लेखन की विभिन्न विधाओ में एक समीक्षा भी है. हर लेखक समीक्षक नही हो सकता. जिस विधा की रचना की समीक्षा की जा रही है, उसकी व्यापक जानकारी तथा उस विधा की स्थापित रचनाओ का अध्ययन ही समीक्षा को स्तरीय बना सकता है.

समीक्षा करने के कई बुनियादी सिद्धांत हैं:

समीक्षा में रचना का गहन विश्लेषण, काम की सामग्री के संदर्भ में तर्क और इसके मुख्य विचार के बारे में संक्षिप्त निष्कर्ष की होना चाहिये.

विश्लेषण की गुणवत्ता समीक्षक के स्तर और क्षमताओं पर निर्भर करती है।

समीक्षक को भावनात्मक रूप से जुड़े बिना अपने विचारों को तर्कसंगत और तार्किक रूप से व्यक्त करना चाहिए. विश्लेषणात्मक सोच समीक्षक को समृद्ध बनाती है.

समीक्षा की जा रही रचना को बिना हृदयंगम किये जल्दबाजी में  लिखी गई सतही समीक्षा न तो रचनाके साथ और न ही रचनाकार के साथ सही न्याय कर सकती है. समीक्षा पढ़कर रचना के गुणधर्म के प्रति प्रारंभिक ज्ञान पाठक को मिलना ही चाहिये, जिससे उसे मूल रचना के प्रति आकर्षण या व्यर्थ होने का भाव जाग सके. यदि समीक्षा पढ़ने के बाद पाठक मूल रचना पढ़ता है और वह मूल रचना को  समीक्षा से  सर्वथा भिन्न पाता है तो स्वाभाविक रूप से समीक्षक से उसका भरोसा उठ जायेगा, अतः समीक्षक पाठक के प्रति भी जबाबदेह होता है. समीक्षक रचना का उभय पक्षीय वकील भी होता है और न्यायाधीश भी.

पुस्तक समीक्षा महत्वपूर्ण आलोचना है और इसका एक उद्देश्य रचनाकार का संक्षिप्त परिचय व रचना का  मूल्यांकन भी है, विशेष रूप से  जिनके बारे में आम पाठक को कुछ भी पता नहीं है.

पुस्तक समीक्षा लिखने में कई सामान्य गलतियाँ हो रही हैं

  • मूल्यांकन में तर्क और उद्धरणों का अभाव
  • कथानक के विश्लेषण का प्रतिस्थापन
  • मुख्य सामग्री की जगह द्वितीयक विवरण ओवरलोड करना
  • पाठ के सौंदर्यशास्त्र की उपेक्षा
  • वैचारिक विशेषताओं पर ध्यान न देना
  • मुंह देखी ठकुर सुहाती करना

रचनात्मक काम का मूल्यांकन करते समय, समीक्षक  को  विषय प्रवर्तन की दृढ़ता और नवीनता पर भी ध्यान देना चाहिए. यह महत्वपूर्ण है कि रचना  समाज के निर्माण व मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों के लिये, जो साहित्य की मूलभूत परिभाषा ही है कितनी खरी है.इन बिन्दुओ को केंद्र में रखकर यदि समीक्षा की जावेगी तो हो सकता है कि लेखक सदैव त्वरित रूप से प्रसन्न न हो पर वैचारिक परिपक्वता के साथ वह निश्चित ही समीक्षक के प्रति कृतज्ञ होगा, क्योंकि इस तरह के आकलन से उसे भी अपनी रचना में सुधार के अवसर मिलेंगे. समीक्षक के प्रति पाठक के मन में विश्वास पैदा होगा तथा साहित्य के प्रति समीक्षक सच्चा न्याय कर पायेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 44 – बापू के संस्मरण-18- यही तो पवित्र दान है ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 18 – यही तो पवित्र दान है ☆ 

खादी-यात्रा के समय दक्षिण के बाद गांधीजी उड़ीसा गये थे ।

घूमते-घूमते वे ईटामाटी नाम के एक गांव में पहुंचे । वहां उनका व्याख्यान हुआ और उसके बाद, जैसा कि होता था, सब लोग चंदा और भेंट लेकर आये । प्रायः सभी स्थानों पर रुपया-पैसा और गहने आदि दिये जाते थे, लेकिन यहां दूसरा ही दृश्य देखने में आया । कोई व्यक्ति कुम्हड़ा लाया था, कोई बिजोरा, कोई बैंगन और कोई जंगल की दूसरी भाजी । कुछ गरीबों ने अपने चिथड़ों में से खोल खोलकर कुछ पैसे दिये ।

काकासाहब कालेलकर घूम-घूमकर पैसे इकट्ठे कर रहे थे । उन पैसों के जंग से उनके हाथ हरे हो गये । उन्होंने अपने हाथ बापू को दिखलाये । वे कुछ कह न सके, क्योंकि उनका मन भीग आया था । उस क्षण तो गांधीजी ने कुछ नहीं कहा । उस दृश्य ने मानों सभी को अभिभूत कर दिया था । अगले दिन सवेरे के समय दोनों घूमने के लिए निकले । रास्ता छोड़कर वे खेतों में घूमने लगे । उसी समय गांधीजी गम्भीर होकर बोले,”कितना दारिद्र्य और दैन्य है यहां! क्या किया जाये इन लोगों के लिए ? जी चाहता है कि अपनी मरण की घड़ी में यहीं आकर इन लोगों के बीच में मरूं । उस समय जो लोग मुझसे मिलने के लिए यहां आयेंगे, वे इन लोगों की करुण दशा देखेंगे । तब किसी-न-किसी का हृदय तो पसीजेगा ही और वह इनकी सेवा के लिए यहां आकर बस जायेगा ।” ऐसा करुण दृश्य और कहीं शायद ही देखने को मिले ।

लेकिन जब वे चारबटिया ग्राम पहुंचे तो स्तब्ध रह गये । सभा में बहुत थोड़े लोग आये थे । जो आये थे उनमें से किसी के मुंह पर भी चैतन्य नहीं था, थी बस प्रेत जैसी शून्यता । गांधीजी ने यहां भी चन्दे के लिए अपील की । उन लोगों ने कुछ-न-कुछ दिया ही, वही जंग लगे पैसे । काकासाहब के हाथ फिर हरे हो गये । इन लोगों ने रुपये तो कभी देखे ही नहीं थे । तांबे के पैसे ही उनका सबसे बड़ा धन था । जब कभी उन्हें कोई पैसा मिल जाता तो वे उसे खर्च करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे । इसीलिए बहुत दिन तक बांधे रहने या धरती मैं गाड़ देने के कारण उस पर जंग लग जाता था । काकासाहब ने कहा, “इन लोगों के पैसे लेकर क्या होगा?”

गांधीजी बोले,” यही तो पवित्र दान है. यह हमारे लिए दीक्षा है । इसके द्वारा इन लोगों के हृदय में आशा का अंकुर उगा है । यह पैसा उसी आशा का प्रतीक है. इन्हें विश्वास हो गया है कि एक दिन हमारा भी उद्धार होगा ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  राजभाषा माह के परिपेक्ष्य में स्थानीय / आंचलिक भाषा पर आधारित एक ज्ञानवर्धक लेख   “भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज

किसी भी भाषा की  संरचना का मूल आधार व्याकरण है  बिना व्याकरण के ज्ञान के न तो कोई भाषा शुद्ध रूप से लिखी जा सकती है न  बोली जा सकती है न पढ़ी जा सकती  है।  भाषा साहित्य के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। व्याकरण के ज्ञान द्वारा ही  त्रुटिहीन लेखन वाचन संभव होता है। जिस भाषा का प्रसार राष्ट्रीय स्तर पर होता है वह राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त करती है। जो भाषा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिखी पढ़ी बोली जाती है उसे अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होता है। लेकिन राष्ट्र भाषा के साथ आंचलिक भाषा जिसे मातृभाषा कहते हैं भी बोली लिखी पढ़ी जाती है।

मातृभाषा का ज्ञान बच्चा बिना व्याकरण ज्ञान के मात्र माता पिता तथा परिवार से  सुनकर अथवा बोल कर प्राप्त करता है। क्षेत्रीय भाषा के साथ आंचलिक ‌भाषा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, आंचलिक भाषा का प्रभाव शब्दों  के उच्चारण  तथा बोलने के अंदाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से बिहार के भोजपुर तक बोली जाने वाली आंचलिक भाषा को भोजपुरी भाषा कहते हैं जो भोजपुरिया समाज द्वारा लिखी पढ़ी व बोली जाती है ।  जिसका असर राष्ट्र‌भाषा‌ पर   पड़ता है जो क्षेत्रीय अंचल के साथ बदलती चली जाती जैसे ‌पूर्वांचल में भोजपुरी, अवध में अवधी, मथुरा में ब्रज भाषा के रूप में बोली जाती है। या यूं कह लें, वह क्षेत्रीय लोक कलाओं, लोक संस्कृति तथा लोक संस्कारों का मातृभाषा पर गहरा असर दीखता है । जैसे राम-सीता तथा राधा-कृष्ण के कथा चरित्र पर आंचलिक भाषा का प्रभाव दिखता है। भाषा ज्ञान बच्चा बिना पढ़े लिखे मात्र सुनकर समझ कर भी बोल कर भी कर सकता है। आंचलिक भाषा की आत्मा उसकी लोक रीतियां लोक परंपराये तथा उनमें पलने वाली लोक संस्कृति ही आंचलिक भाषा को सुग्राह्य तथा समृद्ध बनाती है ।

तभी तो आंचलिक स्तर पर बोली जाने वाली भाषा भाव से समृद्ध होती है उसकी संस्कृति में रचा बसा माधुर्य लोक विधाओं का माधुर्य बन प्रस्फुटित होता है, जो अंततोगत्वा विधाओं की प्राण चेतना बन लोक साहित्य तथा लोक धुनों के रूप में अपने आकर्षण के मोहपाश में बांध लेता ह तथा श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। जो कभी आल्हा, कभी कजरी, कभी चैता के रूप में आम जन के मानस पर गहरी छाप छोड़ता है। कभी‌ बारह‌ मासा, कभी विदेशिया के रूप दृष्टिगोचर होता है। गो ० तुलसी‌ साहित्य  जो मुख्यत: अवधी ब्रज संस्कृति तथा भोजपुरी-मैथिली आदि के सामूहिक रूप का दर्शन कराता है तो वहीं सूर साहित्य पूर्ण रूप से ब्रज  भाषा पर आधारित है। जिसके संम्मोहन से कोई बच नहीं सकता, भर्तृहर-चरित्र, कृष्ण-सुदामा चरित आज भी अपने कारुणिक प्रसंग के चलते श्रोताओं की आंख में पानी भर देता है। भोजपुरी भाषा को उसके भावों को न  समझने वाला भी उसे गुनगुना लेता है, एक छोटा सा उदाहरण देखे—–

गवना कराई पियवा गइले बिदेशवा,
भेजले ना कवनो सनेश।
नेहिया के रस बोरी, पिरीति के डोरि तोरी।
गईले भुलाई आपन देश।
पुरूआ के गरदी से जरदी चनरमा पे,
देहिया के टूटे पोरे पोर।
घरवा में सेजिया पे तरपत तिरियवा,
दुखवा के नाही ओर छोर।

वहीं पर दूसरा उदाहरण देखे——

बगिया में गूजेला कोइलिया के बोलियां,
खेतवा  में बिरहा के तान ।
अंग अंग गोरिया के बंसरी बजावे रामा,
लोगवा के डोलेला ईमान ।
नखरा गोरकी पतरकी अजब करें हो,
जब नियरे बोलाई अब तब करें हो ।

अथवा —-जोगी जी धीरे धीरे ,नदी के तीरे तीरे, का नशा अभी भी लोगों की स्मृतियों में हावी है जिसे सुनते सुनते  आम जनमानस गुनगुना उठता है । इसी तरह तमाम आंचलिक ‌भाषायें अपनी संस्कृति का साहित्य  तमाम क्षेत्रीय घटनाक्रम क्षेत्रीय साहित्य के कथा कोष को समृद्ध करने का काम करती हैं। आत्मसौंदर्य समेटे लोकसंस्कृति तथा लोक विधाओं का ध्वज वाहक बनी दीखती है। तोता मैना, शीत बसंत, सोरठी बृजाभार की कहानियां आज भी उसी चाव से कही सुनी जाती हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 63 ☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 63 ☆

☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆

अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह ना पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़, जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में ही सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, वे अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर, सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा…’ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिस से दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए, मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है, शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते, वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी ऊपर जाएगी। यदि हम जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, वह उतनी ऊपर की ओर जाएगी। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी। जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे, वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।

तूफ़ान में किश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं।ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य को बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। यह अकाट्य सत्य है कि वे ही उस मुक़ाम पर पहुंचते हैं, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन में विश्वास करते हैं। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है, सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और इंसान उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर-उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।

सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक अंधविश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल भर में टूट सकते हैं व ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। इगो (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है, जो बारह शब्दों के रिलेशनशिप ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार उनमें दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसीलिए मानव को बोलने से तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है, उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण बने रहते हैं और वह कभी भी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता।

मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और आपके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है, त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से उनके हित प्रार्थना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाव-वश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां-कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है। यह तो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय, आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं, जो आपको उन्नति करते देख आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर रहेंगे तथा मुसीबत में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर होंगे और आपके ज़ज़्बात समय-समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है, आप के मनोभाव आपके साथी की ज़ुबान बन जाते हैं… तभी यह संभव हो पाता है। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर, उसकी मंज़िल पर पहुंचा देते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 16 ☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि)

☆ किसलय की कलम से # 16 ☆

☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि 

एक सामाजिक प्राणी होने के कारण ही मनुष्य गाँवों और शहरों में एक साथ निवास करता है। मनुष्य अकेला रहकर सुरक्षित वह सुखमय जीवन यापन नहीं कर सकता। समाज में रहते हुए परस्पर आवश्यकताओं के विनिमय तथा सहयोग से ही मानव आज प्रगति की अकल्पनीय ऊँचाई पर पहुँच चुका है। इन गावों और नगरों से ही बने देश में हम एक प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करते हैं। हमारा देश भारत व्यापक भौगोलिक सीमा तथा विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। हमारे देश की संस्कृति, आचार-विचार, जीवनशैली, प्राकृतिक-परिवेश एवं वर्ण-व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं के कारण अन्य देशों से भिन्न है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथों में हमारी ऐसी अनेक विशेषताओं का विस्तृत वर्णन मिलता है जहाँ अपने परिवार, परमार्थ, अपने समाज व अपने देश की आन-बान-शान को सर्वोच्च स्थान प्रदत्त है। समाज कल्याण व देशहित के ऐसे हजारों-हजार उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम ग्रंथों, काव्यों, पुस्तकों, लोकोक्तियों, मुहावरों सुभाषितों, नृत्य-नाटकों और अब रेडियो टी.वी. तथा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं, देख और सुन भी सकते हैं।

सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग के राजा-महाराजाओं, ऋषि-मुनियों, विशिष्ट तथा आम लोगों द्वारा अपने समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन के जो कीर्तिमान स्थापित किए गए वे विश्व में अन्यत्र कहीं दिखाई या सुनाई नहीं देते। तत्पश्चात इस कलयुग में भी देशभक्त व जनहितैषी राजा-महाराजाओं, दिशादर्शकों एवं समाजसुधारकों की एक लंबी श्रृंखला है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महारानी लक्ष्मीबाई जैसे पूजनीय और चिरस्मरणीय व्यक्तित्वों का नाम आते ही सीना फूल जाता है। श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। देश और समाज के प्रति निर्वहन किए गए उनके कर्त्तव्य याद आते ही हम बौनेपन का अनुभव करने लगते हैं। उनके सामने तराजू के पासंग के बराबर भी स्वयं को नहीं पाते।

आखिर हममें इतना बदलाव कैसे आ गया? क्या केवल इसलिए कि आज हम एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं? क्या राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रगति और सामाजिक व्यवस्था की संपूर्ण जवाबदेही केवल शासन-प्रशासन की है? क्या हमें अपने और अपने परिवार के आगे किसी और के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए? क्या समाज और राष्ट्र के प्रति हमारे कोई दायित्व नहीं हैं? सच तो यही है कि अधिकांश लोगों की सोच कुछ ऐसी ही बन चुकी है। उन्हें न तो समाज हित दिखाई देता है और न ही राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन। इन सब के पीछे अनेक तथ्यों को गिनाया जा सकता है। किसी भी तथ्य को जानने के लिए उसके दोनों पहलुओं अथवा पक्षों का जानना अति आवश्यक होता है। सीधी सी बात है कि मिठास, अच्छाई और प्रेम को भलीभाँति तभी समझा जा सकता है जब हमें कड़वाहट, बुराई और घृणा के बारे में भी जानकारी हो। यदि मानव ने ये  स्वयं भोगे हों अथवा अनुभव किया हो तो उन सबके मूल्यों को वह अच्छी तरह से समझ सकता है।

आज स्वतंत्रता पूर्व के उन लोगों का बहुत कम प्रतिशत बचा है जिन्होंने अपनी आँखों से अंग्रेजों के अत्याचार और स्वातंत्र्य वीरों की गतिविधियों एवं बलिदान को देखा या सुना है। यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे अधिकांश लोगों को आजादी की कीमत और महत्त्व भलीभाँति स्मृत होगा। आजादी के लम्बे आंदोलन तथा अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचारों की पराकाष्ठा ने मानवता की जो धज्जियां उड़ाई थीं, उसकी कल्पना मात्र भी आज की पीढ़ी को असहज कर सकती है।

हर इंसान इस सच्चाई को जानता है कि उसे एक न एक दिन सब कुछ छोड़कर मरना ही है, फिर भी वह निजी हितों के आगे सब कुछ भुला देता है। आज हमारे जीवनचर्या की भी अजीब विडंबना है। पहले हम अपनी सुख-शांति की चाह में उद्योग-धंधे, कोठियाँ और गाड़ियाँ खड़ी करने हेतु दिन-रात पैसे कमाने में जुटे रहते हैं, लेकिन सब कुछ मिल जाने के बाद कभी रात में नींद नहीं आती, तो कभी छप्पन भोग की व्यवस्था होने पर भी कुछ खा नहीं पाते। अनेक लोग कहीं शुगर से, कहीं हृदयाघात से और कहीं रक्तचाप जैसी बीमारियों से जूझते देखे जा सकते हैं। उनकी सारी धन-दौलत तथा सुख-संपन्नता किसी कोने में धरी की धरी रहती है।

आज एक ऐसा शोषक वर्ग बढ़ता जा रहा है जो गरीब, मजदूर व कमजोरों की रोजी-रोटी, लघु उद्योग एवं मजदूरी तक छीन रहा है। पहले ऐसे बहुत कुछ जरूरत के सामान व सामग्री हुआ करती थी, जो यह गरीब तबका बनाकर अपनी रोजी-रोटी चला लेता था, लेकिन आज अधिकतर वही चीजें निर्माणियों में बनने लगी हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में मजदूर बेरोजगारी की कगार पर खड़े हो गये हैं। क्या समाज के इस दीन-हीन वर्ग के हितार्थ ये धनाढ्य आगे नहीं आ सकते? आखिर आएँगे भी कैसे। बड़े से और बड़े होने की महत्वाकांक्षा जो इनके आड़े आ जाती है। इन पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोगों को समाज के प्रति इनके दायित्वों को भला कौन समझाने की जुर्रत करेगा?

आज की राजनीति बिना पैसों के असंभव है। एक साधारण व्यक्ति सारी जिंदगी छुटभैया नेता बनकर रह जाता है। एक ईमानदार, चरित्रवान, सामाजिक सरोकार में रुचि रखने वाले नेता का वर्तमान में कोई भविष्य नहीं है। धनाढ्यों की संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी देशप्रेम और देशहित की दुहाई दे देकर राजनीति करते रहते हैं। देश के प्रति समर्पण की भावना या समाज के प्रति अपने दायित्व निर्वहन का तो इनके पास समय ही नहीं रहता। अरबों-खरबों की धन दौलत वाले भी दिखावे के लिए ही समाज सेवा का ढोंग रचते देखे गए हैं। ऐसे देशहितैषी और समाजहितैषी धनाढ्यों को बहुत कम ही देखा गया है जो निश्छल भाव से अपनी कमाई का कुछ अंश देश और समाज हित में लगाते हैं।

आज की पीढ़ी को व्यवसाय आधारित शिक्षा ग्रहण करने हेतु जोर दिया जाता है। इसमें न रिश्ते होते हैं, न मान-मर्यादा का पाठ, न व्यावहारिक ज्ञान और न ही कर्त्तव्य बोध। जब शिक्षा ही केवल व्यवसाय और नौकरी के लिए होगी तब शेष व्यावहारिक संस्कार और कर्त्तव्यों को कौन सिखाएगा। उद्योग, व्यवसाय अथवा नौकरी पेशा माता-पिता तो सिखाएँगे नहीं, क्योंकि उनके पास अपनी संतानों के लिए भी इतना वक्त नहीं होता कि वे उनको स्नेह, लाड़-प्यार व अच्छी सीख दे सकें। रही सही अच्छी बातें जो आजा-आजी व नाना-नानी सिखाया करते थे तो उन लोगों से इन बच्चों का वर्तमान समय में मिलना-जुलना ही बहुत कम होता है। सही कहा जाए तो इन बच्चों के माँ-बाप स्वयं उनके आजा-आजी या नाना-नानी के पुराने विचारों व संस्कारों को सिखाने उनके पास रहने का अवसर ही नहीं देते। अब आप ही सोचें, जब बच्चों को कोई बड़े बुजुर्ग उन्हें धर्म, संस्कृति और संस्कारों की बात नहीं सिखाएगा, विद्यालयीन और महाविद्यालयीन अध्ययन के पश्चात बच्चे जब सीधे उद्योग-धंधों अथवा नौकरियों में चले जायेंगे तब वे हमारे इतिहास, हमारी समृद्ध संस्कृति, सामाजिक उत्तरदायित्व व देशप्रेम को कैसे समझेंगे।

इसे हम आज की एक बड़ी भूल या कमी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यथार्थता के धरातल पर देखा जाए तो निश्चित रूप से यह हमारे समाज व हमारे देश के लिए एक घातक बीमारी से कम नहीं है। हमारे पास सुखी व शांतिपूर्ण जीवन यापन हेतु साधन उपलब्ध हों। हमारी संताने भविष्य में सुखी-संपन्न जीवन यापन कर सकें, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन इससे भी आगे हम लालसा करें तो क्या यह उचित होगा? हमें परोपकार, समाज सेवा, तथा देशहित में कर्त्तव्य परायणता अन्तस में जगाना होगी। उक्त बातें कड़वी जरूर है लेकिन शांतचित्त और निश्चल भाव से सोचने पर सच ही लगेंगी। हम सबको खासतौर पर आजादी के बाद जन्म लेने वालों को स्वयं तथा अपनी संतानों में ऐसे भाव जाग्रत करने की आवश्यकता है, जिससे हम व हमारी संतानों में समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्व निर्वहन की रुचि प्रमुखता से दिखाई दे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 72 ☆ राजभाषा विशेष – भाषायें  अनुपूरक होती हैंं  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  राजभाषा माह के अंतर्गत एक विशेष आलेख  भाषायें  अनुपूरक होती हैंं ।  इस विचारणीय समसामयिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 72 ☆

☆ राजभाषा विशेष – भाषायें  अनुपूरक होती हैंं ☆

चरित्र प्रमाण पत्र का अपना महत्व होता है, स्कूल से निकलते समय हमारे  मा

 

 

 

संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया  आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी  केन्‍द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय  संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्‍गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो.  यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना  भी थी.  इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है.  इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.

आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे,  आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है.  इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.

हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा  है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित  महत्वपूर्ण आयोजन है.  यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की  परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.

सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से  संपन्न हुआ था,  जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था. उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए।  इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.

यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के ‍लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि ‍भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं.  स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास  समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व  स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.

शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु  व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य  है.

प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 44 – बापू के संस्मरण-17- मैं फरिश्ता नहीं, छोटा सा सेवक हूँ ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 17 – मैं फरिश्ता नहीं, छोटा सा सेवक हूँ ☆ 

नोआखली-यात्रा के समय की बात है । गांधीजी चलते-चलते एक गांव में पहुंचे ।

वहां किसी परिवार में नौ-दस वर्ष की एक लड़की बहुत बीमार थी । उसके मोतीझरा निकला था । उसी के साथ निमोनिया भी हो गया था । बेचारी बहुत दुर्बल हो गई थी । मनु को साथ लेकर गांधीजी उसे देखने गये । लड़की के पास घर की और स्त्रियां भी बैठी हुई थीं । गांधीजी को आता देखकर वे अंदर चली गईं । वे परदा करती थीं ।

बेचारी बीमार लड़की अकेली रह गई । झोंपड़ी के बाहरी भाग में उसकी चारपाई थी । गांव में रोगी मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटे गंदी-से-गंदी जगह में पड़े रहते । वही हालत उस लड़की की थी ।

मनु उन स्त्रियों को समझाने के लिए घर के भीतर गई।  कहा, ” तुम्हारे आंगन में एक महान संत-पुरुष पधारे हैं । बाहर आकर उनके दर्शन तो करो ।” लेकिन मनु की दृष्टि में जो महान पुरुष थे, वही उनकी दृष्टि में दुश्मन थे । उनके मन में गांधीजी के लिए रंचमात्र भी आदर नहीं था । स्त्रियों को समझाने के बाद जब मनु बाहर आई तो देखा, गांधीजी ने लड़की के बिस्तर की मैली चादर हटाकर उस पर अपनी ओढ़ी हुई चादर बिछा दी है । अपने छोटे से रूमाल से उसकी नाक साफ करदी है । पानी से उसका मुंह धो दिया है । अपना शाल उसे उढ़ा दिया है और कड़ाके की सर्दी में खुले बदन खड़े-खड़े रोगी के सिर पर प्रेम से हाथ फेर रहे हैं । इतना ही नहीं बाद में दोपहर को दो तीन बार उस लड़की को शहद और पानी पिलाने के लिए उन्होंने मनु को वहां भेजा । उसके पेट और सिर पर मिट्टी की पट्टी रखने के लिए भी कहा. मनु ने ऐसा ही किया । उसी रात को उस बच्ची का बुखार उतर गया ।

अब उस घर के व्यक्ति, जो गांधीजी को अपना दुश्मन समझ रहे थे, अत्यंत भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करने आये  बोले,”आप सचमुच खुदा के फरिश्ते हैं । हमारी बेटी के लिए आपने जो कुछ किया, उसके बदले में हम आपकी क्या खिदमत कर सकते हैं?” गांधीजी ने उत्तर दिया, “मैं न फरिश्ता हूं और न पैगम्बर , मैं तो एक छोटा-सा सेवक हूं। इस बच्ची का बुखार उतर गया, इसका श्रेय मुझे नहीं है । मैंने इसकी सफाई की । इसके पेट में ताकत देने वाली थोड़ी सी खुराक गई, इसीलिए शायद बुखार उतरा है ।

अगर आप बदला चुकाना चाहते हैं तो निडर बनिये और दूसरों को भी निडर बनाइये. यह दुनिया खुदा की है । हम सब उसके बच्चे हैं । मेरी यही विनती है कि अपने मन में तुम यही भाव पैदा करो कि इस दुनिया में सभी को जीने-मरने का समान अधिकार है ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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