हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ – थोड़ा और… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  थोड़ा और…।)

☆ आलेख – थोड़ा और… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

पेरिस ओलंपिक, अब समापन की ओर है। करीब करीब सभी खेल हो चुके हैं और ओलंपिक क्लोजिंग सेरेमनी करीब आ गई है।  देश के 140 करोड़ लोगों में से 117 लोगों का दल, 16 स्पर्धा में, 70 पुरुष और 46 महिलाएं ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए पेरिस गया था।

हम अभी तक केवल एक सिल्वर और पांच ब्रांज मेडल प्राप्त कर सके हैं। क्या हम इसी से खुश हैं, या हमें थोड़े और मेडल मिलना चाहिए थे? हम आकलन करें, हमसे कहां भूल हुई कि जिन खेलों में हम चौथे स्थान पर रहे, हम तीसरे स्थान पर आ सकते थे। जिनमें तीसरे पर रहे उससे और आगे जा सकते थे। हम एक दूसरे को शाबाशी दे रहे हैं, एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं कि हम एक सिल्वर और चार पांच मेडल लेकर लौटे हैं।

 इसको लेकर भी बातें हो रही हैं, कि हम कहां पर पिछड़ गए?  क्या कमी रह गई हमारे खिलाड़ियों की ट्रेनिंग में? क्या हम और बेहतर सुविधा अपने देश में खिलाड़ियों को दे सकते थे? क्या हम उनके लिए और अच्छी परिस्थितियों का निर्माण कर सकते थे? अगर 28 राज्यों से हम खिलाड़ी देखें तो क्यों नहीं? राज्यों की प्रतिस्पर्धा में जिन राज्यों के खिलाड़ी नहीं पहुंच पाए, उनमें क्या कमी है क्या वह राज्य इस बात का आकलन करेंगे कि वह अपने खिलाड़ियों को और अधिक सुविधा देकर उन्हें अच्छे ग्राउंड, अच्छी ट्रेनिंग, अच्छी डाइट, अच्छे उपकरण देकर तैयार करेंगे ताकि देश की टीम में उनका भी प्रतिनिधित्व हो सके। जो अभी बहुत कम है, छोटे-छोटे देश हमसे आगे निकल गए, छोटे-छोटे देशों में, खेलों पर अधिक राशि खर्च की जाती है, खिलाड़ियों को शुरू से ही बेहतर तकनीक और बेहतर साधन मुहैया कराए जाते हैं।  अच्छे विदेशी कोच उन्हें ट्रेनिंग देते हैं, जो हमारे यहां नहीं है हमारे यहां खेल संघो पर उनका कब्जा है जो कभी खेले ही नहीं। जो कभी खेल नहीं खेला, वह खिलाड़ियों की मनोदशा को नहीं समझ सकता। वह खेलों में नए-नए किस्म की टेक्नोलॉजी के बारे में बात नहीं कर सकता। आजकल खेल केवल शारीरिक क्षमता से नहीं बल्कि तकनीकि और मनोवैज्ञानिक ढंग से खेले जाते हैं, परंतु जो कभी खेला ही नहीं, वह यह सब बातें जान ही नहीं पाता। इस तरह हम खेलों में पिछड़ते जाते हैं। फिर आती है बात खेलों में राजनीति की, भाई भतीजावाद की, यह सब खेल का ही हिस्सा है। खैर हम तो यह कहेंगे कि थोड़ी मेहनत और, थोड़ा और…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 252 – शिवोऽहम्…(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 252 शिवोऽहम्…(3) ?

निर्वाण षटकम् का हर शब्द मनुष्य के अस्तित्व पर हुए सारे अनुसंधानों से आगे की यात्रा कराता है। इसका सार मनुष्य को स्थूल और सूक्ष्म की अवधारणा के परे ले जाकर ऐसे स्थान पर खड़ा कर देता है जहाँ ओर से छोर तक केवल शुद्ध चैतन्य है। वस्तुत: लौकिक अनुभूति की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से निर्वाण षटकम् जन्म लेता है।

तृतीय श्लोक के रूप में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का परिचय और विस्तृत होता है,

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ

मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।3।।

अर्थात न मुझे द्वेष है, न ही अनुराग। न मुझे लोभ है, न ही मोह। न मुझे अहंकार है, न ही मत्सर या ईर्ष्या की भावना। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से परे हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

राग मनुष्य को बाँधता है जबकि द्वेष दूरियाँ उत्पन्न करता है। राग-द्वेष चुंबक के दो विपरीत ध्रुव हैं। चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र है। अनेक लोग, समान और विपरीत ध्रुवों के निकट आने से उपजने वाले क्रमश: विकर्षण और आकर्षण तक ही अपना जीवन सीमित कर लेते हैं। यह मनुष्य की क्षमताओं की शोकांतिका है।

इसी तरह मोह ऐसा खूँटा होता है जिससे मनुष्य पहले स्वयं को बाँधता है और फिर मोह मनुष्य को बाँध लेता है। लोभ मनुष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी मनुष्यता से नीचे उतारता जाता है। इनसे मुक्त हो पाना लौकिक से अलौकिक होने, तमो गुण से वाया रजो गुण, वाया सतो गुण, गुणातीत होने की यात्रा है।

एक दृष्टांत स्मरण हो आ रहा है। संन्यासी गुरुजी का एक नया-नया शिष्य बना। गुरुजी दैनिक भ्रमण पर निकलते तो उसे भी साथ रखते। कोई न कोई शिक्षा भी देते। आज भी मार्ग में गुरुजी शिष्य को अपरिग्रह की शिक्षा देते चल रहे थे। संन्यास और संचय का विरोधाभास समझा रहे थे। तभी शिष्य ने देखा कि गुरुजी एक छोटे-से गड्ढे के पास रुक गये, मानो गड्ढे में कुछ देख लिया हो। अब गुरुजी ने हाथ से मिट्टी उठा-उठाकर उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया। शिष्य ने झाँककर देखा तो पाया कि गड्ढे में कुछ स्वर्णमुद्राएँ पड़ी हैं और गुरुजी उन्हें मिट्टी से दबा रहे हैं। शिष्य के मन में विचार उठा कि अपरिग्रह की शिक्षा देनेवाले गुरुजी के मन में स्वर्णमुद्राओं को सुरक्षित रखने का विचार क्यों उठा? शिष्य का प्रश्न गुरुजी पढ़ चुके थे। हँसकर बोले, “पीछे आनेवाले किसी पथिक का मन न डोल जाए, इसलिए मैं मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”  

मिट्टी पर मिट्टी डालने की लौकिक गतिविधि में निहितार्थ गुणातीत होने की अलौकिकता है।

गतिविधि के संदर्भ में देखें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से हर पुरुषार्थ की विवेचना अनेक खंडों के कम से कम एक ग्रंथ की मांग करती है। यदि इनके प्रचलित सामान्य अर्थ तक ही सीमित रहकर भी विचार करें तो धर्म, अर्थ,  काम या मोक्ष की लालसा न करना याने इन सब से ऊपर उठकर भीतर विशुद्ध भाव जगना। ‘विशुद्ध’, शब्द  लिखना क्षण भर का काम है, विशुद्ध होना जन्म-जन्मांतर की तपस्या का परिणाम है।

परिणाम कहता है कि तुम अनादि हो पर आदि होकर रह जाते हो। तुम अनंत हो पर अपने अंत का साधन स्वयं जुटाते हो। तुम असीम हो पर तन और मन की सीमाओं में बँधे रहना चाहते हो। तुम असंतोष और क्षोभ ओढ़ते हो जबकि तुम परम आनंद हो।

राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सब से हटकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करो। तुम अनुभव करोगे अपना अनादि रूप, अनुभूति होगी अंतर्निहित ईश्वरीय अंश की, अपने भीतर के चेतन तत्व की। तब शव होने की आशंका समाप्त होने लगेगी, बचेगी केवल संभावना, जो प्रति पल कहेगी ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 442 ⇒ बेटी बेटे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बेटी बेटे।)

?अभी अभी # 442 ⇒ बेटी बेटे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कल रात एक पुराने मित्र को फोन लगाया, बहुत दिनों से बातचीत नहीं हुई थी। फेसबुक और व्हाट्सएप ने जब से फोन का स्थान लिया है, केवल गुड मॉर्निंग और फाॅरवर्डेड मैसेज से ही काम चल जाता है। फोन पर घंटी गई, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। हम ज्यादा किसी को फोन पर परेशान नहीं करते। अचानक उधर से घंटी आई, फोन किसी महिला ने किया था। पता चला पापा की बिटिया है।

मित्र की सभी बेटियां हैं, और फिलहाल वह एक बेटी के साथ इसी शहर में रह रहा है।

रात के नौ ही बजे थे, बिटिया ने बताया पापा सो गए हैं। इतनी जल्दी ? नहीं उन्हें सर्दी, खांसी, जुकाम था, अभी दवा देकर सुलाया है। मेरा मित्र मुझसे भी पांच साल बड़ा है। कभी संयुक्त परिवार था, आज बेटी का परिवार ही उसका परिवार है। हाल चाल पूछकर मैने यह कहकर फोन रख दिया, पापा से बाद में बात कर लूंगा।।

बचपन के दोस्त, स्कूल कॉलेज के सहपाठी और बैंक के अधिकांश हम उम्र मित्रों का आज यही हाल है। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी सबसे बड़ी पूंजी उनके बेटी बेटे ही हैं। जब खुद बेटे थे, तो मां बाप की सेवा की। जब खुद मां बाप बने तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी, लिखाया पढ़ाया। आज भगवान की दया से बेटी बेटे, सभी अपनी गृहस्थी में सुखी हैं। कोई पुणे में है तो कोई हैदराबाद अथवा बेंगलुरु में। कई के बच्चे तो विदेशों में जॉब कर रहे हैं। उनमें से कई तो ग्रीन कार्ड होल्डर भी हो गए हैं।

बेटी बेटे और बहू दामाद में अब ज्यादा फर्क नहीं रहा। कभी वे मां बाप/सास ससुर के पास आ जाते हैं तो कभी ये लोग उनके पास चले जाते हैं। अब परिवार वैसे भी छोटे हो चले हैं, जितने सदस्य मिल जुलकर रहें, उतना ही बेहतर है। कोरोना काल की कुछ कड़वी यादें भी हैं, सबको एक दूसरे की सुरक्षा की सतत चिंता बनी रहती है।।

समय और परिस्थिति सब कुछ बदल देता है। यार दोस्त भी और खानपान और रहन सहन भी। कभी दादाजी हमारी उंगली पकड़कर घुमाने ले जाते थे और आज नाती पोते हमारा हाथ पकड़कर हमें फीनिक्स मॉल घुमाते हैं।

हमें मोबाइल और कंप्यूटर चलाना सिखाते हैं। बड़े होकर बच्चा बनने का भी एक अपना ही सुख है।

हम जो अपने आसपास देखते हैं, वही हमारी दुनिया होती है, और उसे ही हम सच मान लेते हैं। आज की पीढ़ी बदनाम भी है और स्वार्थी खुदगर्ज भी। घर घर में तलाक आम है और वृद्धाश्रम आज भी गुलजार हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 441 ⇒ महमूद और किशोर कुमार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महमूद और किशोर कुमार।)

?अभी अभी # 441 ⇒ महमूद और किशोर कुमार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

फिल्मों में हास्य, संगीत और मनोरंजन का जब भी जिक्र होगा, महमूद और किशोर कुमार को अवश्य याद किया जाएगा। केवल भाव भंगिमा के बल पर दुनिया को हंसाने वाला अगर चार्ली चैपलिन था तो थॉमस हार्डी जैसी बेजोड़ जोड़ी शायद ही दुनिया में दूसरी पैदा हुई हो।

किशोर कुमार के तो व्यक्तित्व में ही मस्ती, हास्य और चुलबुलापन था। जो लोग दुनिया में खुशियां बिखेरते हैं, उनके अंदर भी एक संजीदा इंसान होता है, चाहे वह जॉनी वॉकर, महमूद अथवा किशोर ही क्यों ना हो। ढलती उम्र में आनंद में जॉनी वॉकर का आंसू भिगो देने वाला मार्मिक अभिनय, किशोर कुमार की दो फिल्में दूर का राही और दूर गगन की छांव में तथा महमूद का कुंवारा बाप जैसी फिल्में तो यही साबित करती हैं।।

महमूद और किशोर कुमार के पहले दो शब्द जॉनी वॉकर के बारे में। हम पीते नहीं, लेकिन जॉनी वॉकर की कॉमेडी का नशा हमारे सर चढ़कर बोलता था। जॉनी वॉकर गुरुदत्त की खोज थे और गुरुदत्त की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पारी उन्हें एक उत्कृष्ट अभिनेता और महान निर्माता साबित करने के लिए काफी थी। उनकी अधिकांश फिल्मों में जॉनी भाई को भी अपने विशिष्ट अंदाज में देखा जा सकता था। लेकिन अफसोस गुरुदत्त के असमय जाते ही

जॉनी वॉकर भी गुमनामी के अंधेरे में ना जाने कहां खो गए।

किशोर कुमार एक हरफनमौला कलाकार थे, कभी गायक तो कभी निर्माता और अभिनेता। उनकी बनाई हास्य फिल्मों में चलती का नाम गाड़ी और बढ़ती का नाम दाढ़ी प्रमुख है, जिनमें अशोक, किशोर और अनूप, तीनों कुमार एक साथ देखे जा सकते हैं।

एक अभिनेता के रूप में उनकी गंगा की लहरें, हम सब उस्ताद हैं और मि. एक्स इन बॉम्बे प्रमुख हैं।

इन सभी फिल्मों में एक खासियत है, इनमें आपको महमूद कहीं नजर नहीं आएंगे।।

किशोर कुमार का अपना अलग ही अंदाज है। उन्हीं की कहानी उन्हीं की जबानी संक्षेप में ;

चलचित्रम् की कथा सुनाए किशोरकुमारम्

जय गोविन्दं जय गोपालं !

उछलम् कूदम जय महमूदम्, बम बम नाचे किशोर कुमारम् …

एक बड़ा फिल्म निर्माता चार चार हीरो और हीरोइन लेकर फिल्म तो बना सकता है, लेकिन महमूद, जॉनी वॉकर और किशोर कुमार को एक साथ लेकर फिल्म नहीं बना सकता।

बहुत कम ऐसी फिल्में हैं, जिनमें महमूद और जॉनी वॉकर ने एक साथ काम किया हो। वैसे किशोर कुमार को एक कॉमेडियन के रूप में भी अधिक फिल्में नहीं मिल पाई हैं, क्योंकि किशोर कुमार शुरू से ही भारतीय फिल्मों के एक सफल गायक बन चुके थे।

महमूद एक हास्य कलाकार के अलावा अभिनेता एवं प्रोड्यूसर डायरेक्टर भी थे। छोटे नवाब, भूत बंगला, साधु और शैतान, बॉम्बे टू गोवा, पड़ोसन और कुंवारा बाप उनकी कुछ प्रमुख फिल्में मानी जाती हैं। फिल्म प्यार किए जा एकमात्र ऐसी फिल्म थी, जिसमें किशोर कुमार, महमूद और ओमप्रकाश साथ साथ थे।

इनमें से तीन फिल्मों में आपको महमूद के साथ किशोर कुमार भी नजर आएंगे। किशोर तो किशोर हैं, जहां भी जाएंगे छा जाएंगे, फिर भले ही वह फिल्म बॉम्बे टू गोवा हो अथवा साधु और शैतान।

फिल्म पड़ोसन ने तो इतिहास ही रच दिया।।

महमूद ने कॉमेडी में कई जोड़ियां बनाई। किशोर के अलावा आई एस जौहर के साथ भी फिल्म जौहर महमूद इन गोवा में दर्शकों ने इन्हें खूब पसंद किया। जौहर महमूद इन हांगकांग उतनी नहीं चली और जौहर महमूद इन काश्मीर शायद चल ही नहीं आई।

महमूद ने अभिनेत्रियों शशिकला और मुमताज के अलावा शुभा खोटे, अरुणा ईरानी और साउथ की अभिनेत्री भारती के साथ भी जोड़ियां जमाकर दर्शकों को गुदगुदाया।

दिलीप, देव और राजकपूर अपनी फिल्मों से महमूद को दूर ही रखते थे।।

महमूद ने किशोर कुमार के प्लेबैक का भी अपनी फिल्मों में भरपूर उपयोग किया, जब कि मन्ना डे उनके पसंदीदा गायक थे।

फिल्म भूत बंगला का किशोर कुमार का गीत, जागो सोने वालों, सुनो मेरी कहानी महमूद पर ही फिल्माया गया है।

फिल्म मस्ताना का एक गीत चंदा ओ चंदा, किसने चुराई, तेरी मेरी निंदिया में किशोर का साथ लता ने भी दिया है। कुंवारा बाप की महमूद की मर्मस्पर्शी लोरी भी तो किशोर कुमार और लता ही ने गाई है ;

आ री आ जा निंदिया

तू ले चल कहीं

उड़न खटोले में दूर,

दूर, दूर, यहाँ से दूर

आ री आजा निंदिया

तू ले चल कहीं ….

कॉमेडी फॉर कॉमेडी सेक और आर्ट फॉर आर्ट्स सेक ! महमूद की फिल्म पड़ोसन के गीत एक चतुर नार बड़ी होशियार में बड़ा धर्मसंकट आन पड़ा। संगीत में कौन गायक महान, मन्ना डे अथवा किशोर कुमार। उधर मन्ना डे महमूद को अपना स्वर दे रहे हैं और इधर किशोर अपना स्वर सुनील दत्त को। कला की जीत हुई और संगीत हार गया। कभी कभी ऐसा भी होता है, जब किशोर, महमूद और मन्ना डे की जुगलबंदी होती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #244 ☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम उसूल… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 244 ☆

☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆

बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका के जीओ और जब बात उसूलों की हो, तो सिर उठा कर जियो, क्योंकि अभिमान की बात फरिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है; वह साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है। इससे सिद्ध होता है कि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव हृदय में वैमनस्य व ईर्ष्या-द्वेष के भाव जाग्रत करता है तथा स्व-पर को पोषित करता है। दूसरी ओर वह फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देता है कि उनके पाटने का कोई अवसर शेष नहीं रहता। इसीलिए कहा जाता है कि मतभेद भले ही रखो; मनभेद नहीं, क्योंकि विचारधारा की भिन्नता तो समाप्त हो सकती है, परंतु मन में पनपी वैमनस्य की दीवारें सामीप्य भाव को लील जाती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दुश्मनी उतनी करो कि दोस्ती व सामीप्यता की संभावना बनी रहे।

‘रिश्ते कंचन व चंदन की तरह होने चाहिए; चाहे टुकड़े हज़ार हो जाएं; चमक व सुगंध अवश्य बनी रहनी चाहिए।’ परंतु यह उस स्थिति में संभव है, जब मानव अपेक्षा व उपेक्षा के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में उसे किसी से अपेक्षा, आशा व उम्मीद की आवश्यकता नहीं रहती। वैसे मानव की इच्छा पूर्ति न होने पर उसे निराशा का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत उपेक्षा करने की स्थिति में मन में क्रोध, शंका व संशय की स्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक है, जो उसे अवसाद के भंवर में पहुंचा सकती हैं। यह दोनों स्थितियाँ मानव के पथ में अवरोध उत्पन्न करती हैं तथा उनके अभाव में सहज जीवन की कल्पना करना बेमानी है।

सो! जहां अपेक्षाएं समाप्त होती हैं, सुक़ून वहीं से प्रारंभ होता है। मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि वह आपको ऊर्जस्वित करती है तथा आप में साहस व धैर्य को पोषित करती है। मानव सफलता प्राप्ति के लिए संघर्ष की राह को अपनाता है, भले ही हर कोशिश में उसे सफलता नहीं मिल पाती। लेकिन हर सफलता का कारण कोशिश ही होती है। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती’ और ‘करत-करत अभ्यास के,जड़मति होत सुजान’ से भी यह सीख मिलती है कि मानव को सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। बीच राह से लौटना श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उससे पूर्व तो आप मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

आइंस्टीन भी परिश्रम को व्यर्थ नहीं मानते थे बल्कि उसे अनुभव की संज्ञा देते थे। नेपोलियन तो आपदा को अवसर स्वीकारते थे और जिसके जीवन में मुसीबत दस्तक देती थी, उसे दिल से बधाई देते हुए कहते थे कि ‘अब तुम्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ है।’ इसका प्रत्यक्ष  प्रमाण है आइंस्टीन का बल्ब का आविष्कार करना और नैपोलियन का विश्व विजय का स्वप्न साकार होना और अनेक प्रतिभाओं का जीवन में ‘तुम कर सकते हो’ सिद्धांत को मूलमंत्र स्वीकार कर धारण करना और विश्व में अनेक कीर्तिमान स्थापित करना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियाँ ‘आपदा को अवसर बना लिया कीजिए/ व्यर्थ ही ना दूसरों से ग़िला किया कीजिए।’ जी हाँ! यही संदेश था नेपोलियन का–जो मनुष्य आपदा को वरदान के रूप में स्वीकारता है, वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आकाश की बुलंदियों को छू लेता है। उसे जीवन में कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। यही उक्ति  चरितार्थ होती है रिश्तों के संबंध में–शायद इसीलिए ही मानव को स्नेह, त्याग व समर्पण का संदेश दिया गया है, क्योंकि इससे हृदय में अहम् का लेशमात्र भी स्थान नहीं रहता, जबकि अहंनिष्ठ मानव जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर ग़लत राहों पर चल पड़ता है, जो विनाश रूपी बंद गलियों में जाकर खुलता है।

सो! रिश्तों को स्थायित्व प्रदान करने के निमित्त मानव के लिए पराजय स्वीकारना बेहतर विकल्प है, क्योंकि रिश्तों में भावनाओं, संवेदनाओं, एहसासों व जज़्बातों की अहमियत होती है। दूसरी और उसूलों को बनाए रखने की प्रथम शर्त है– सिर उठाकर जीना अर्थात् अपनी शर्तों पर जीना; ग़लत बात पर झुकना व समझौता न करना, जो विनम्रता का प्रतीक है। विनम्रता में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। यह स्थिति हमें शक्तिशाली व मज़बूत ही नहीं बनाती, फ़रिश्ता बना देती है। सो! रिश्ते व उसूल यदि सम दिशा में अग्रसर होते हैं, तो रिश्तों की महक जहाँ जीवन को सुवासित करती है, वहीं उसूल उसे चरम शिखर तक पहुंचा देते हैं। परंतु मानव को अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए, बल्कि ‘सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर झुका सकते नहीं’ उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मानव को एक सैनिक की भांति अपनी राह पर चलते हुए अडिग व अटल रहना चाहिए और युद्धक्षेत्र से पराजय स्वीकार लौटना नहीं चाहिए। उसे गोली पीठ पर नहीं, सीने पर खानी चाहिए। जो व्यक्ति अपने सिद्धांतों चलता है, सीमाओं का अतिक्रमण व मर्यादा का तिरस्कार नहीं करता–एक अंतराल के पश्चात् अनुकरणीय हो जाता है और सब उसका सम्मान करने लगते हैं। वह जीवन के अर्थ समझने लगता है तथा निष्काम कर्म की राहों पर अग्रसर हो जाता है। वह अपनी राह का निर्माण स्वयं करता है, क्योंकि लीक पर चलना उसे पसंद नहीं होता। निजी स्वार्थ के निमित्त झुकना उसकी फ़ितरत नहीं होती। ‘ऐ मन! तू जी ज़माने के लिए’ अर्थात् अपने लिए जीना उसे प्रयोजनहीन व निष्फल भासता है। वास्तव में सिद्धांतों व उसूलों पर चलना रिश्तों को निभाने की प्रथम शर्त है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 440 ⇒ बा बू… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बा बू।)

?अभी अभी # 440 ⇒ बा बू? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे बचपन के दोस्तों को अगर हम आज याद करें, तो उनके घरेलू नाम अनायास याद आ जाते हैं, आदमी कितना भी बड़ा हो जाए, उसकी बचपन की

पहचान कभी खत्म नहीं होती। आज जिन्हें लोग सम्मान से बाबूजी कहते हैं, वह बचपन में सिर्फ बाबू था। बचपन का गुड्डू आजकल गुड्डू भैया कहलाता है और कल का सरजू आज सरजू भैया हो गया है।

कहीं कहीं तो बचपन के लाड़ प्यार वाले नाम समय के साथ गुम हो जाते हैं, अब डॉक्टर गुप्ता को फूलचंद कहने वाला कोई नहीं बचा। मां बाप द्वारा बचपन में प्यार से दिया गया नाम, कुछ लोग बुढ़ापे तक अपने दिल में सहेजकर रखते हैं तो कहीं कुछ ऐसे भी बदनसीब होते हैं, जिन्हें बचपन का संबोधन अब नहीं सुहाता।

हाई सोसायटी में ऐसे बचकाने नाम शोभा नहीं देते। कॉल मी नाऊ ओनली प्रो. रस्तोगी। यह क्या रमेश रमेश लगा रखा है।।

उसे घर में बाबू कहते थे, बहुत कम लोग जानते थे। कॉलेज की नई नई दोस्ती थी। कुल इने गिने चार पांच तो सरदार दोस्त थे हमारे बचपन के। एक को हम मिनी कहते थे और एक था सलूजा। किसी को हम खनूजा कहते थे तो किसी को मनजीत। हमें बड़ा आश्चर्य होता था, इतनी कम उम्र में इन सबकी दाढ़ी मूंछ देखकर। हमने भी कभी बढ़ाई थी, लेकिन इतनी भद्दी लगी कि रातों रात साफ कर दी। आज यह हाल है, जिसकी दाढ़ी नहीं, वह मर्द नहीं।

भरे हुए बदन और घनी दाढ़ी मूंछ और साफे में एक लंबा चौड़ा सरदार कहीं से कहीं तक हमारा दोस्त नहीं लगता था, लेकिन हमारी बाबू से बहुत घुटती थी। मोहब्बत किसे कहते हैं, हम भले ही कभी ना जान सके हों, लेकिन एक नज़र में बाबू से हमें कब दोस्ती हो गई, कुछ पता नहीं चला।।

वह बड़ा मिलनसार और अच्छे पैसे वाले घर का था। उसके पिताजी का लकड़ी का व्यवसाय था।

कॉलेज की सभी गतिविधियों में वह सक्रिय भाग लेता था और एक सफल कॉलेज नेता के सभी गुण उसमें विद्यमान थे। दिन भर कॉलेज और शाम को एम.जी.रोड पर एवरफ्रेश के पास हम दोस्तों की शाम की सभा प्रारंभ होती थी। कॉलेज की राजनीति और क्लास की लड़कियों के किस्से कभी खत्म ही होने का नाम नहीं लेते थे।

अन्तरंगता शब्द आत्मीयता का करीबी लगता है। बाबू बहुत अच्छा गाता था। कॉलेज के सोशल गैदरिंग में इसी कारण उसके जलवे थे। फुर्सत के समय में, फिल्म आया सावन झूम के, का रफी का गीत, मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे, इतना तल्लीन होकर गाता था, कि समां बंध जाता था। तब हमने जगजीत सिंह का नाम नहीं सुना था। फिर भी हमारा बाबू किसी जगजीत से कम नहीं था।।

कॉलेज की एक लड़की से उसे एकांगी प्यार हो गया।

उससे मिलने के लिए उसने कॉलेज की ही एक अन्य लड़की को दीदी तक बनाया, लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। प्यार में पागल कैसे हुआ जाता है, बाबू को देखकर पता चला। फिल्में देखना और फिल्मी गाने गुनगुनाना हमारा आम शौक था। कॉलेज पढ़ने कौन जाता था, और कौन पढ़ाना चाहता था। वह दौर कॉलेज में जी. टी. (जनरल तड़ी) हड़ताल और कर्फ्यू का था। ले देकर तीन चार कॉलेज तो थे शहर में। मेडिकल कॉलेज, आज का जीएसआयटीएस, क्रिश्चियन कॉलेज और गुजराती कॉलेज के छात्रों में लड़कियों की छेड़छाड़ को लेकर अक्सर मुठभेड़ हुआ करती थी। तब, हम किसी से कम नहीं, जैसी फिल्मों का, कहीं से कहीं तक कोई पता नहीं था।

हो सकता है, हम जैसों से ही प्रेरणा पाकर ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ हो।

बाबू के बड़े भाई बड़े अंतर्यामी थे। बाबू ने कल रात को कौन से फिल्म देखी, वह आसानी से जान जाते थे। हमारे बाबू की एक गंदी आदत थी, जो फिल्म रात को देखी, उसी का गाना सुबह सुबह गुनगुनाने लगते। चोरी के बाद अब कैसे करें सीना जोरी। हा पहा चोर सापड़ला ! आखिर चोर पकड़ा गया।।

हमारी दोस्ती खाने पीने से ही बढ़ती थी। बाबू का बढ़ता शरीर था, जो खाता, नजर आ जाता था। इधर आज एक कचोरी समोसा खाया, उधर दूसरे ही दिन मुंह पर दो मुंहासे नज़र आ गए। जितनी कचोरी समोसे, उतने मुंहासे ! आप आसानी से गिन सकते थे, बाबू ने कल कितनी कचोरी खाई थी।

बाबू का कॉलेज का हमारा सिर्फ एक साल का साथ रहा, फिर हम कहां तुम कहां ! वह कहीं नहीं गया, लेकिन जिन्दगी का ढर्रा ही बदल गया। किबे कंपाउंड पर बाबू ने ऑटो पार्ट्स की दुकान डाल ली। शादी और घर गृहस्थी के बाद किसे यार दोस्त नजर आते हैं। मिलना हो तो दुकान पर आ जा। दोस्त दोस्त होता है, लेकिन ग्राहक भगवान होता है।

एक रविवार मिलता था, वह भी उस त्यागी पुरुष ने मैकेनिक समुदाय को समर्पित कर दिया। बाबू एक पक्का व्यवसायी बन गया।।

एक दिन फुर्सत निकालकर, छुट्टी के दिन, अपॉइंटमेंट लेकर, बाबू के घर पहुंच ही गया कलयुग का यह सुदामा।

घंटी बजाने पर किसी बालिका ने द्वार खोला, किससे मिलना है आपको ? बेटा आपके पापाजी से ! उसने मुझे देखा और भांप लिया, अच्छा आपको बड़े पापाजी से मिलना है। आपके बारे में बता रहे थे। आप बैठिए, अभी आते हैं।

और कुछ ही देर में बड़े पापाजी तशरीफ़ ले आए।

बड़ा परिपक्व और गंभीर हो गया था बाबू। ऑटो पार्ट्स की दुकान बच्चों ने संभाल ली थी। घर नाती पोतों से हरा भरा लग रहा था। आजकल ज्यादा समय गुरुद्वारे में ही दे रहा हूं, बाबू बता रहा था।

दोस्ती के दर से गुरु का द्वार इस उम्र में एक अच्छा विकल्प है, मैं सोच रहा था। हरि का द्वार ही हरद्वार है। वही गुरुद्वारा है और वही तो है हरमंदर। चाय की आखरी चुस्की के साथ ही बाबू के गुरुद्वारे जाने का वक्त हो गया था। दोस्त से विदा तो लेनी ही थी। बचपन तो खैर लौटकर नहीं आता, कुछ दोस्त भी वक्त की तरह हाथ से छूटते चले जाते हैं। दोस्ती भी बहते पानी की तरह ही तो है। बहता पानी निर्मला।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 208 ☆ मौन वाणी ने लिया… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मौन वाणी ने लिया। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 208 ☆ मौन वाणी ने लिया

बिना बोले सब कुछ कह देने की कला तो नयनों के पास है । किसी का चेहरा, किसी के कर्म, किसी की उम्मीद, किसी का विश्वास ये सब बोलते हैं। पर कभी- कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व वो सब बता देता है जो हम दुनिया से छुपाना चाहते हैं। अक्सर रियलिटी शो में दो- तीन दिन तो व्यक्ति शराफत की चादर ओढ़े अपने आप को प्रस्तुत करते हैं किंतु जल्दी ही असलियत सामने आ जाती है। हमारा लोगों के साथ व्यवहार, बोल-चाल, कार्यशैली, सहयोग की भावना, क्रोध, घबराहट सब कुछ वो कह देता है जो हम अभी तक समाज से छुपा रहे होते हैं।

ये बात सही है कि सकारात्मक विचारों से धनी व्यक्ति हर परिस्थिति में अपना आपा नहीं खोता है। मेल- जोल की भावना के साथ ऐसी परिस्थितियों में नए रिश्ते बना लेता है जो शो से निकलने के बाद भी चलते हैं, क्योंकि उनका आधार ईमानदारी व नेकनीयती पर टिका हुआ होता है। दूसरी ओर तत्काल लाभ के आधार पर काम चलाऊ रिश्ते शो के दौरान ही बदलते रहते हैं। मर्यादित व्यवहार के साथ यदि ऐसे व्यक्तिगत प्रयोग होते रहें तो बहुत कुछ सीखने को मिलता है। सबके साथ सामंजस्य बिठाने की कला जिसको आ गयी वो सच्चा विजेता बनकर जनमानस में लोकप्रिय हो जाता है।

जब हम समाज कल्याण को ध्यान में रखकर अपने कार्यों को करते हैं तो एक लंबी शृंखला अपने आप बनने लगती है जो दूरगामी प्रभाव देती है। तो आइए सच्चे मन के साथ अपने अवलोकन की क्षमता को जाग्रत करें। मौन साधक बनकर इस प्रकृति से वो सब पा सकते हैं जिसकी कल्पना आपने कभी नहीं की होगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 439 ⇒ चूने/टपकने की समस्या… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चूने/टपकने की समस्या।)

?अभी अभी # 439 ⇒ चूने/टपकने की समस्या? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Leakage problem. 

बरसात में चूने की, टपकने की, अथवा लीकेज की समस्या आम है। ऊपर वाला किसी को छत देता है तो किसी को छप्पर। गांव में तो पहले कवेलू के ही मकान होते थे। कल का खपरैल ही आपका आज का टाइल्स है। गरीबों के घर तो आज भी टीन टापरे के ही होते हैं। हमारे देश में एक आबादी झुग्गी झोपड़ी की भी है।

कभी कच्ची छत लोहे की नालीदार चद्दरों से बनी होती थी, जिनकी दरारों में से बरसात में अक्सर पानी टपकता था। बाहर बरसात और अंदर घर बैठे अभिषेक। जगह जगह लोटा, बाल्टी, परात टपकने की जगह लगाया जाता था। जिन घरों में कवेलू लगे होते थे, उनकी भी बरसात में देखरेख जरूरी होती थी।।

आज गांव और शहर, सभी जगह ईंट सीमेंट और लोहे के पक्के मकान बन रहे हैं, बाकायदा छत की भराई होती है, बड़े बड़े पिलर्स पर बहुमंजिला इमारतें, मॉल्स और ट्रेड सेंटर आकार ले रहे हैं। डॉक्टर्स और इंजीनियर्स की फौज खड़ी है आज इस देश में। फिर भी जहां देखो वहां चूना ही चूना और लीकेज ही लीकेज।

बिना ईंट, चूना सीमेंट के भी कभी कोई पुल अथवा इमारत बनी है। लेकिन जब ठेकेदार और इंजीनियर की नीयत ही चूना लगाने की हो, तो पुल तो ढहेगा ही, इमारत की छत भी टपकेगी ही। उधर शिक्षा के ठेकेदार चूना लगा रहे हैं तो इधर संसद से सड़क तक पानी ही पानी भरा हुआ है।।

लीकेज का मुख्य कारण है, चूना लगाना। पहले चूना सिर्फ पान में लगाया जाता था। आम घरों में पुताई भी चूने से ही होती थी। एशियन पेंट्स सिर्फ नवाबों के बंगलों में लगाया जाता था। लेकिन हाय रे नवाबों के नसीब, नवाब पटौदी हमें एशियन पेंट्स का विज्ञापन करते नजर आए और आज उनकी औलादें भी अभिनय के नाम पर, आज सिर्फ चूना ही लगा रही हैं।

आज भी छतों के चूने, और टपकने के अलावा भी समाज के हर क्षेत्र में हमें लीकेज नजर आ रहा है।

नैतिकता और सामाजिक मूल्यों में जब रिसाव शुरू हो जाता है, तो लोकतंत्र अंदर से खोखला हो जाता है। चूने अथवा रिसाव का इलाज चूना लगाना नहीं होता। आज जिसे देखो वही एक दूसरे को चूना लगा रहा है। छल, कपट, बेईमानी और स्वार्थ का चूना सबसे बड़ा देशद्रोह है। राष्ट्रीयता की बात करना और राष्ट्रीय हितों की परवाह करने में जमीन आसमान का अंतर है। कुंए में भांग कहावत पुरानी हो चली है, आज हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही सबको चूना लगाना है। बचा सकते हैं तो बचा लीजिए लोकतंत्र को इस चूने से। बहुत जल्द यह इंसानियत को गला देता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ऐसी भी सिखलाई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  ऐसी भी सिखलाई ? ?

बाल्यावस्था से ही शिक्षा-दीक्षा में माँ सरस्वती की अनुकम्पा रही। संभवत: स्वभाव कुछ शांत रहा होगा। परिणामस्वरूप घर-परिवार और विद्यालय में प्रेम ही प्रेम मिला। पिता जी स्नेह, तार्किकता, स्वाभिमान, अध्ययन और विशाल हृदय की मूर्ति थे। क्रोधित होते थे पर उनका क्रोध क्षणिक था। अपवादात्मक स्थिति में ही हाथ उठाते थे। अत: पिटाई या कुटाई द्वारा सिखलाई की नौबत कभी नहीं आई। उनका जीवन ही मेरे लिए सिखलाई रहा।

एक घटना का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। इस घटना में न डाँट है, न फटकार, न पिटाई न कुटाई पर सिखलाई अवश्य है।

वर्ष 1986 की बात है। बड़े भाई का विवाह निश्चित हो गया था। विवाह जयपुर से करना तय हुआ। जयपुर में हमारा मकान है जो सामान्यत: बंद रहता है। पुणे से वहाँ जाकर पहले छोटी-मोटी टूट-फूट ठीक करानी थी, रंग-रोगन कराना था। पिता जी ने यह मिशन मुझे सौंपा। मिशन पूरा हुआ।

4 दिसम्बर का विवाह था। कड़ाके की ठंड का समय था। हमारे मकान के साथ ही बगीची (मंगल कार्यालय) है। मेहमानों के लिए वहाँ बुकिंग थी पर कुटुम्ब और ननिहाल के सभी  सभी परिजन स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुके। मकान लगभग 2700 स्क्वेअर फीट है, सो जगह की कमी नहीं थी पर इतने रज़ाई, गद्दे तो घर में हो नहीं सकते थे। अत: लगभग एक किलोमीटर दूर स्थित सुभाष चौक से मैंने 20 गद्दे, 20 चादरें और 20 रज़ाइयाँ किराये पर लीं।

उन दिनों साइकिल-रिक्शा का चलन था। एक साइकिल-रिक्शा  पर सब कुछ लादकर बांध दिया गया। कुछ नीचे की ओर ‘लेग-स्पेस’ पर रखे गए जहाँ सवारी पैर रखती है। दो फुट ऊँचा रिक्शा, उस पर लदे गद्दे-रज़ाई, लगभग दस फीट का पहाड़ खड़ा हो गया। जीवन का अधिक समय पुणे में व्यतीत होने के कारण इतनी ऊँचाई तक सामान बांधना मेरे लिए कुछ असामान्य था।

…पर असली असामान्य तो अभी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।  रिक्शेवाला साइकिल पर सवार हुआ और मेरी ओर देखकर कहा, ‘भाईसाब बेठो!” मेरी मंथन चल रहा था कि इतना वज़न यह अकेली जान केसे हाँकेगा! वैसे भी रिक्शा में तो तिल रखने की भी जगह नहीं थी सो मैं रिक्शा के साथ-साथ पैदल चलूँगा। दोबारा आवाज़ आई, “भाईसाब बेठो।” इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं आश्चर्यचकित हो गया। ” कहाँ बैठूँ?” मैंने पूछा। “ऊपरली बेठ जाओ”, वह ठेठ मारवाड़ी में बोला। फिर उसने बताया कि वह इससे भी ऊँचे सामान पर ग्राहक को बैठाकर दस-दस किलोमीटर गया है। यह तो एक किलोमीटर है। “भाईसाब डरपो मनि। कोन पड्स्यो। बेठो तो सही।” मैंने उसी वर्ष बी.एस्सी. की थी। उस आयु में कोई चुनौती दे, यह तो मान्य था ही नहीं। एक दृष्टि डाली और उस झूलते महामेरु पर विराजमान हो गया। ऊपर बैठते ही एक बात समझ में आ गई कि चढ़ने के लिए तो मार्ग मिल गया, उतरने के लिए कूदना ही एकमात्र विकल्प है।

रिक्शावाले ने पहला पैडल लगाया और मेरे ज्ञान में इस बात की वृद्धि हुई कि जिस रज़ाई को पकड़कर मैं बैठा था, उसका अपना आधार ही कच्चा है। अगले पैडल में उस कच्ची रस्सी को थामकर बैठा जिससे सारा जख़ीरा बंधा हुआ था। जल्दी ही आभास हो गया कि यह रस्सी जितनी  दिख रही है, वास्तव में अंदर से है उससे अधिक कच्ची। उधर गड्ढों में धंसी जिस सड़क पर रिक्शा किसी तरह डगमग चल रहा था, उस पर भी समाजवाद  छाया हुआ था। फलत: गड्ढे से उपजते झटकों से समरस होता मैं अनन्य यात्रा का अद्भुत आनंद अनुभव कर रहा था।

यात्रा में बाधाएँ आती ही हैं। कुछ लोगों का तो जन्म ही बाधाएँ उत्पन्न करने के लिए हुआ होता है। ये वे विघ्नसंतोषी हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर ने मनुष्य को टांग  दूसरों के काम में अड़ाने के लिए ही दी है। साइकिल-रिक्शा  मुख्य सड़क से हमारे मकानवाली गली में मुड़ने ही वाला था कि गली से बिना ब्रेक की साइकिल पर सवार एक विघ्नसंतोषी प्रकट हुआ। संभवत: पिछले जन्म में भागते घोड़े से गिरकर सिधारा था। इस जन्म में घोड़े का स्थान साइकिल ने ले लिया था। हमें बायीं ओर मुड़ना था। वह गली से निकलकर दायीं ओर मुड़ा और सीधे हमारे साइकिल-रिक्शा के सामने। अनुभवी रिक्शाचालक के सामने उसे बचाने के लिए एकसाथ दोनों ब्रेक लगाने के सिवा कोई विकल्प नहीं था।

मैंने बी.एस्सी. की थी। जड़त्व का नियम पढ़ा था, समझा भी था पर साक्षात अनुभव आज किया। नियम कहता है कि प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में  एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। ब्रेक लगते ही मैंने शरीर की गति में परिवर्तन अनुभव किया। बैठी मुद्रा में ही शरीर विद्युत गति से ऊपर से नीचे आ रहा था। कुछ समझ पाता, उससे पहले चमत्कार घट चुका था। मैंने अपने आपको साइकिल-रिक्शा  की सीट पर पाया। सीट पर विराजमान रिक्शाचालक, हैंडल पर औंधे मुँह गिरा था। उसकी देह बीच के डंडे पर झूल रही थी।

साइकिल-रिक्शा  आसन्न संकट की गंभीरता समझकर  बिना ब्रेक की गति से ही निकल लिया। मैं उतरकर सड़क पर खड़ा हो गया। यह भी चमत्कार था कि मुझे खरोंच भी नहीं आई थी…पर आज तो चमत्कार जैसे सपरिवार ही आया था। औंधे मुँह गिरा चालक दमखम से खड़ा हुआ। साइकिल-रिक्शा और लदे सामान का जायज़ा लिया। रस्सियाँ फिर से कसीं। अपनी सीट पर बैठा। फिर ऐसे भाव से कि कुछ घटा ही न हो, उसी ऊँची जगह को इंगित करते हुए मुझसे बोला,” बेठो भाईसाब।”

भाईसाहब ने उसकी हिम्मत की मन ही मन दाद दी लेकिन स्पष्ट कर दिया कि आगे की यात्रा में सवारी पैदल ही चलेगी। कुछ समय बाद हम घर के दरवाज़े पर थे। सामान उतारकर किराया चुकाया। चालक विदा हुआ और भीतर विचार चलने लगे।

जिस रज़ाई पर बैठकर मैं ऊँचाई अनुभव कर रहा था, उसका अपना कोई ठोस आधार नहीं था। जीवन में एक पाठ पढ़ा कि क्षेत्र कोई भी हो, अपना आधार ठोस बनाओ। दिखावटी आधार औंधे मुँह पटकते हैं और जगहँसाई का कारण बनते हैं।

आज जब हर क्षेत्र विशेषकर साहित्य में बिना परिश्रम, बिना कर्म का आधार बनाए रातों-रात प्रसिद्ध होने या पुरस्कार कूटने की इच्छा रखनेवालों से मिलता हूँ तो यह सिखलाई और बलवत्तर होती जाती है।

अखंडित निष्ठा, संकल्प, साधना का आधार सुदृढ़ रहे तो मनुष्य सदा ऊँचाई पर बना रह सकता है। शव से शिव हो सकता है।

© संजय भारद्वाज  

संध्या 7:28 बजे, 12.5.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 438 ⇒ मैने लखनऊ नहीं देखा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैने लखनऊ नहीं देखा ।)

?अभी अभी # 438 ⇒ मैने लखनऊ नहीं देखा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निभायी अपनी आन भी

बढ़ायी दिल की शान भी

हैं ऐसे महरबान भी

ये लख़नौउ की सर-ज़मीं …

ये लख़नौउ की सर-ज़मीं ..

मैने लखनऊ नहीं देखा, मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि मुंबई की तरह लखनऊ में भी मरीन ड्राइव और ताज़ होटल है। यूं होने को तो आगरा में ताजमहल भी है, लेकिन हमने तो वह भी नहीं देखा।

लेकिन हमारे देखने, ना देखने से क्या फर्क पड़ता है। लखनऊ की जुबां और तहजीब के किस्से आम हैं। फिर पहले आप, पहले आप में, भले ही ट्रेन छूट जाए और यहां की तहज़ीब जिसे हम बोलचाल की भाषा में तमीज अथवा मैनर्स कहते हैं, उसका तो यह हाल है, मानो जीभ पर तहज़ीब की तह जमा दी हो। मजाल है कोई आपकी शान में गुस्ताखी कर दे।।

लखनऊ को अंग्रेजी में Lucknow लिखा जाता है। लखनऊ से केवल १५० km दूर ही तो है अवध, यानी राम जी की अयोध्या। हमने कुछ वर्ष पूर्व अयोध्या में रामलला के दर्शन तो कर लिए, लेकिन उनके भाई लखन की नगरी लखनऊ को देखने की हमारी आस मन में ही रह गई। Hard luck now, good luck next time. और तब तक, राम जी करे, शायद लखनऊ का नाम भी लखनपुर अथवा लक्ष्मणपुर हो जाए।

गोमती नगर में गोमती नदी से सटी सड़क की एक खूबसूरत पट्टी है। तहजीब और शान शौकत के इस शहर में, हाल ही में बरसते पानी में मरीन ड्राइव पर कुछ मनचलों द्वारा जो उपद्रव मचाया गया, उसने पूरे लखनऊ शहर की सभ्यता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। कलंक की कालिख प्रशासन की त्वरित सख्त कार्यवाही से कितनी कम होगी, कहा नहीं जा सकता। क्या इस घटना को सिर्फ भीड़ का मनोविज्ञान कहकर भुलाया जा सकता है।।

गुंडों को पहचाना जाएगा, पकड़ा जाएगा, दोषी अधिकारियों पर तो गाज गिर ही चुकी है। बारिश थम चुकी है, मरीन ड्राइव फिर से संयत हो, खुद को झाड़ पोंछकर सब कुछ भूल जाने की कोशिश करेगा। आह ताज फिर से वाह ताज बन चुका होगा। शुक्र है, मैने लखनऊ नहीं देखा..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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