हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ युग पुरुष परसाई ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

✍ परसाई जी के जन्मदिन पर विशेष – युग पुरुष परसाई  ✍

 

तब परसाई जी उस जमाने में मेट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुए, उस जमाने में प्रथम श्रेणी में पास होना बड़ी बात होती थी। अभावग्रस्त पिता झुमक्क लाल कोयले की दलाली करते थे, जंगल विभाग के एक डी एफ ओ से थोड़ा सा परिचय था, सो झुमक्क लाल अपने बेटे हरिशंकर को डीएफओ से मिलाने ले गए। हरिशंकर परसाई की पर्सनालिटी शुरू से प्रभावित करने वाली रही, अच्छी नाक -नक्श, गोरे और ऊपर से मेट्रिक में प्रथम श्रेणी…… सो उन परिचित डीएफओ ने परसाई को ‘केसला’ के जंगल में वन विभाग की छोटी सी नौकरी दे दी।

परसाई ‘केसला’ के जंगल में गए तो उनके अंडर में दो कर्मचारी मिले  दोनों शुद्ध मुसलमान। जब ये बात परसाई के रिश्तेदारों को पता चली तो रिश्तेदारों को चिंता हुई कि परसाई तो शुद्ध ब्राम्हण और दोनों कर्मचारी मुसलमान,   जंगल में बेचारे अकेले कैसे रहेंगे।  कुछ ने कुछ कहा….. कुछ ने अलग तरह की बात कही तो कुछ डरे डरे संकेत की भाषा में बोले। कुछ दिन बाद चिंताग्रस्त रिश्तेदारों को परसाई ने बताया कि वे मुसलमान हैं तो क्या हुआ…. वे अच्छे मानव तो हैं, रही बात मांसाहारी की…. तो वे दोनों शुद्ध शाकाहारी हैं जब वे दोनों शाकाहारी हैं तो मैं मांसाहारी कैसे बनूंगा ?

परसाई को जंगल में रहते हुए आगे न पढ़ पाने की पीड़ा परेशान किए हुए थी सो एक दिन उन परचित डीएफओ से मिलकर अनुनय विनय किया कि उनका ट्रांसफर पास के कोई छोटे शहर तरफ कर दिया जाय ताकि आगे की पढ़ाई भी कर सकें। डीएफओ ने एक न सुनी कहा – ‘जंगल की नौकरी जंगल में ही हो सकती है और कहीं नहीं’…… परसाई निराश हुए और आगे पढ़ने के चक्कर में उन्होंने जंगल की नौकरी को ‘ जै राम जी  ‘कह दी।

आगे की पढ़ाई के लिए वे खण्डवा आ गए, उन्हें खण्डवा के एक स्कूल में नौकरी मिल गई, प्रतिभाशाली होने के नाते कुछ दिन बाद उनका जबलपुर के नार्मल स्कूल में ट्रेनिंग हेतु सिलेक्शन हो गया, इस तरह नार्मल स्कूल की ट्रेनिंग हेतु वे जबलपुर आ गए। नार्मल स्कूल ट्रेनिंग में टाॅप करने पर उनकी पोस्टिंग स्थानीय माडल हाईस्कूल में हो गई, तब परसाई ने मालवीय चौक की श्याम टाकीज के पास एक छोटा सा कमरा किराए में लिया जो बरसात में टपका मारता था, साथ में भाई भी रहने आ गए।

कुछ दिन बाद परसाई जी ने अपनी पहली रचना “पहला पुल” लिखी। सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखी इस रचना ने परसाई की सरकारी नौकरी खा ली।  परसाई जी गरीबी के साथ भूखे पेट उसी कमरे में रहे आये, उनकी लिखी छुट-पुट रचनाएँ छपतीं तो कभी एक आना तो कभी दो आना मिल जाते, परसाई और उनके भाई भूखे पेट सो जाते, कभी-कभी चना-फूटा चबाकर संतोष कर लेते। कुछ दिनों बाद साहित्यिक मित्रों के प्रयास से उन्हें डी एन जैन स्कूल में नौकरी मिली। उस समय स्कूल वाले  ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत करवाते और  ‘चालीस रूपये’ देते। परसाई ने विरोध किया, उनका कहना था कि  ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत होते हैं तो  ‘साठ रूपये ‘ ही मिलने चाहिए, सो उन्होंने एक  ‘टीचर यूनियन ‘ बना ली, ये मध्यप्रदेश प्रदेश की पहली  टीचर्स यूनियन थी। उन्हें फिर नौकरी से निकाल दिया गया। उनके दोस्तों ने समझाया कि परसाई यदि नौकरी करना है तो लिखने के काम को छोड़ना पड़ेगा.. क्योंकि लिखने के काम के साथ पेट भूखा रहेगा तो पेट के साथ काहे को अन्याय कर रहे हो, भूखे पेट कब तक लिखते रहोगे पर परसाई ने संघर्ष करते हुए लिखने का रास्ता पकड़ लिया।

विधवा बहन और उसके चार बच्चों के साथ  जबलपुर के नेपियर टाऊन के पास एक किराए का मकान लेकर रहने लगे……अभावों में रहते हुए आज तक परसाई के अपने नाम पर उनका अपना घर नहीं बना, न कभी बैंक बेलेंस रहा। गरीबी के साथ अक्खड़ और फक्कड़ जीवन जीते रहे और लगातार लिखते रहे…… संघर्ष करते रहे…….. कोई टांग तोड़ गया…… कोई दिल तोड़ गया…… कोई गाली-गलौज करके आगे बढ़ गया पर वे लिखते रहे……… लगातार लिखते रहे। लिखने से उनके पास धीरे-धीरे थोड़ा पैसा आने लगा, बहन और उसके बच्चों की मदद करते रहे और लगातार लिखते रहे……. फिर एक दिन दस अगस्त उन्नीस सौ पन्चानबे में चुपचाप शरीर छोड़कर इस धरती से न जाने कहाँ चले गए…….. ।

परसाई जी कभी-कभी कहते थे कि मेरे पास जब पैसा नहीं था तब मैं ज्यादा सुखी था। लिखने से थोड़ा बहुत पैसा आने पर सुखों में कमी सी आ गई। पैसा आने से हर कोई मुझसे पैसा ऐंठने के चक्कर में रहता। मैं था संवेदनशील…. मुझे दुख होता कि इतना पैसा मेरे पास नहीं आता था कि मैं उनकी वैसी मदद कर पाता जैसा वे चाहते थे।

अपने बारे में स्वयं परसाई जी ने लिखा है कि “कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलांचे मारता, टहलता मिलूंगा और उनके मिलते ही जो मजाक शुरू करूंगा तो हम सारा दिन  हँसते और दाँत निकालते ही गुजार देंगे”   पर नितान्त गम्भीर, छै फुटे और रोबीले परसाई से मिलने पर यह भ्रम टूट जाता था। उनके रोबीले व्यक्तित्व को लेकर किसी ने परसाई जी से कहा था कि आपने साहित्य में आकर एक पुलिस अफसर की पर्सनेल्टी का नुकसान किया है आपको तो कहीं थानेदार होना था। तब परसाई जी ने कहा था – “यहां भी मैं थानेदारी कर रहा हूं” व्यंग्य लेखन शरीफ किस्म का लाठी ही तो है। जनता में विजेता का आत्मविश्वास पैदा करने के लिए उन्होंने व्यंग्य का सहारा लिया, वे व्यंग्य को गहरा, ट्रेजिक और करुणामय मानते थे यही वजह है कि उनकी रचनाओं में आवेश या क्रोध करुणा के सहारे उभरता है।

प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक परसाई जी हैं। वे छठवें दशक से अभी तक सबसे बड़े जन-लेखक माने जाते हैं, परसाई ने जन जन के बीच सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की समझ और तमीज पैदा की । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि परसाई जी ने व्यंग्य के माध्यम से जितना विशाल लोक शिक्षण किया है वह हमारे समकालीन रचना जगत में आश्चर्यजनक घटना है, परसाई के जीवन की पाठशाला में उनके अनुभव की विविधता और वैज्ञानिक सोच ने इस लोक शिक्षण में बड़ा काम किया है, अपनी कलम से दुनिया को बदलने के संघर्ष में वे जीवनपर्यंत लगे रहे। उन्होंने व्यंग्य को नई दिशा दी उसमें ताजगी के साथ और लीक से हटकर लेखन किया जिससे पाठक बड़ी व्यग्रता से उनकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हुआ हर जगह पाया गया। गांव का मामूली किसान हो चाहे गांव के स्कूल से लौटता हुआ विद्यार्थी हो चाहे फैक्ट्री या मिल से लौटता हुआ मजदूर हो या युनिवर्सिटी की क्लास में परसाई की रचना पर चलती बहस हो सब जगह परसाई जी की रचनाओं ने जीवन मूल्यों के प्रति सचेत किया, समाज – राजनीति में भिदे हुए पाखंड को उद्घाटित किया। इसलिए हम कह सकते हैं कि परसाई, प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाने वालों की पंक्ति में सबसे आगे खड़े दिखते हैं। आज उनका जन्मदिन है उन्हें शत शत नमन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने परसाई   स्मृति पर अपना विशेष आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा कर हमें प्रोत्साहित किया।)

 

✍ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई  ✍

 

पिछली अर्धशती में हास्य और व्यंग एक नयी साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित हुआ है. हास्य और व्यंग में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग हमें सोचने पर विवश करता है. व्यंग के कटाक्ष हमें तिलमिलाकर रख देते हैं. व्यंग्य लेखक के, संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है. शायद व्यंग, उन्ही तानो और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है , जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं. कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है.

प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है, पर उनका यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने के लिए ही होता है. कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता तो केवल उसकी ढाल है.

बात उन दिनो की है जब मैं किशोरावस्था में था, शायद हाई स्कूल के प्रारंभिक दिनो में. हम मण्डला में रहते थे.घर पर कई सारे अखबार और पत्रिकायें खरीदी जाती थी. साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, नंदन आदि पढ़ना मेरा शौक बन चुका था. नवीन दुनिया अखबार के संपादकीय पृष्ठ का एक कालम सुनो भाई साधो और नवभारत टाइम्स का स्तंभ प्रतिदिन मैं रोज बड़े चाव से पढ़ता था. पहला परसाई जी का और दूसरा शरद जी का कालम था यह बात मुझे बहुत बाद में ध्यान में आई. छात्र जीवन में जब मैं इस तरह का साहित्य पढ़ रहा था और इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर का नाट्यरूपांतरण देख रहा था शायद तभी मेरे भीतर अवचेतन में एक व्यंगकार का भ्रूण आकार ले रहा था. बाद में संभवतः इसी प्रेरणा से मैने डा देवेन्द्र वर्मा जो मण्डला में पदस्थ एक अच्छे व्यंगकार थे व वहां संयुक्त कलेक्टर भी रहे, की व्यंग संग्रह  का नाम “जीप पर सवार सुख” रखा जो स्कूल के दिनो में पढ़ी शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां से अभिप्रेरित रहा होगा. मण्डला से छपने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र मेकलवाणी में मैने ” दूरंदेशी चश्मा ”  नाम से एक व्यंग कालम भी कई अंको में निरंतर लिखा. फिर मेरी किताबें रामभरोसे, कौआ कान ले गया तथा मेरे प्रिय व्यंग लेख पुस्तकें छपीं, तथा पुरस्कृत हुईं.

हरिशंकर परसाई और शरद जोशी दो सुस्थापित लगभग समानान्तर व्यंगकार हुये. दोनो ही मूलतः मध्यप्रदेश के थे. जहां जबलपुर को परसाई जी ने अपनी कर्मभूमि बनाया वही शरद जी मुम्बई चले गये. उनके समय तक साहित्य में व्यंग को विधा के रूप में स्वीकार करने का संघर्ष था. व्यंग्य संवेदनशील एवं सत्यनिष्ठ मन द्वारा विसंगतियों पर की गई प्रतिक्रिया है,  एक ऐसी प्रतिक्रिया जिसमें ऊपर से कटुता और हास्य की झलक मिलती है, पर उसके मूल में करुणा और मित्रता का भाव  होता है।  व्यंग्य यथार्थ के अनुभव से ही पैदा होता है, यदि  कल्पनाशीलता से जबरदस्ती व्यंग्य पैदा करने की कोशिश की जावे तो  रचना खुद ही हास्यास्पद हो जाती है.इशारे से गलती करने वाले को उसकी गलती का अहसास दिलाकर  सच को सच कहने का साहस ही व्यंगकार की ताकत है. व्यंगकार बोलता है तो लोग कहते हैं “बहुत बोलता है “, पर यदि उसके बोलने पर चिंतन करें तो हम समझ सकते हैं कि वह तो हमारे ही दीर्घकालिक हित के लिये बोल रहा था.

हरिशंकर परसाई (२२ अगस्त, १९२४ – १० अगस्त, १९९५) का जन्म जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरीशुरू की.  खंडवा में ६ महीने अध्यापन का कार्य किया. दो वर्ष (१९४१-४३) जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण की उपाधि ली, 1942 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापन भी किया . तब के समय में अभिव्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता का वह स्तर नही रहा होगा शायद तभी १९५२ में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी। १९५३ से १९५७ तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की .१९५७ में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत उन्होने की, तत्कालीन परिस्थितियों में साहित्य को जीवकोपार्जन के लिये चुनना एक दुस्साहसिक कदम ही था. जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली, नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’, नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’ और ‘उलझी-उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि कहानियाँ, उपन्यास एवं निबन्ध-लेखन के बावजूद वे मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हुये. उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की  कमजोरियों और विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया. परसाई जी जबलपुर व रायपुर से प्रकाशित अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले पहल हल्के, इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाई जी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया, दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया मेरे जैसे लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार करते थे.

सरकारे और साहित्य अकादमीयां उनके नाम पर पुरस्कार स्थापित किये हुये हैं पर स्वयं अपने जीवन काल में उन्होने संघर्ष किया जीवन यापन के लिये भी और वैचारिक स्तर पर भी. उन पर प्रहार हुये, विकलांग श्रद्धा का दौर तो इसी से जन्मी कृति है.उन पर अनेकानेक शोधार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयो में डाक्टरेट कर रहे हैं. आज भी परसाई जी की कृतियो के नाट्य रूपांतरण मंचित हो रहे हैं, उन पर चित्रांकन, पोस्टर प्रदर्शनियां, लगाई जाती हैं,  और इस तरह साहित्य जगत उन्हें जीवंत बनाये हुये है. वे अपने साहित्य के जरिये और व्यंग को साहित्य में विधा के रूप मे स्वीकार करवाने के लिये सदा जाने जाते रहेंगे.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – इस पल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

???⌚ संजय दृष्टि  – इस पल ⌚???

काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…! समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही  पुराना घर, टूटी खपरैल,  टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।
काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह!…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।
बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।
आपके जीवन में इस पल का आनंद सर्वदा बना रहे।
✍????

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #13 – कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  तेरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 13 ☆

 

☆ कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला☆

 

जीवन अमूल्य है! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है. किस तरह जिया जावे कि एक सुखद,शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड सकें ? यह सतत अन्वेषण का रोचक विषय रहा है.अनेकानेक आध्यात्मिक गुरु यही आर्ट आफ लिविग सिखाने में लगे हुये हैं. आज हमारे परिवेश में यत्र तत्र हमें कम्प्यूटर दिखता है. यद्यपि कम्प्यूटर का विकास हमने ही किया है किन्तु लाजिकल गणना में कम्प्यूटर हमसे बहुत आगे निकल चुका है. समय के साथ बने रहने के लिये बुजुर्ग लोग भी आज कम्प्यूटर सीखत दिखते हैं. मनुष्य में एक अच्छा गुण है कि हम सीखने के लिये पशु पक्षियों तक से प्रेरणा लेने में नहीं हिचकते विद्यार्थियों के लिये काक चेष्टा, श्वान निद्रा, व बको ध्यानी बनने के प्रेरक श्लोक हमारे पुरातन ग्रंथों में हैं. समय से तादात्म्य स्थापित किया जावे तो हम अब कम्प्यूटर से भी जीवन जीने की कला सीख सकते हैं. हमारा मन,शरीर, दिमाग भी तो ईश्वरीय सुपर कम्प्यूटर से जुडा हुआ एक पर्सनल कम्प्यूटर जैसा संस्करण ही तो है. शरीर को हार्डवेयर व आत्मा को  सिस्टम साफ्टवेयर एवं मन को एप्लीकेशन साफ्टवेयर की संज्ञा दी जा सकती है. उस परम शक्ति के सम्मुख इंसानी लघुता की तुलना की जावे तो हम सुपर कम्प्यूटर के सामने एक बिट से अधिक भला क्या हैं ? अपना जीवन लक्ष्य पा सकें तो शायद एक बाइट बन सकें.आज की व्यस्त जिंदगी ने हमें आत्म केंद्रित बना रखा है पर इसके विपरीत “इंटरनेट” वसुधैव कुटुम्बकम् के शाश्वत भाव की अविरल भारतीय आध्यात्मिक धारा का ही वर्तमान स्वरूप है. यह पारदर्शिता का श्रेष्ठतम उदाहरण है.

स्व को समाज में समाहित कर पारस्परिक हित हेतु सदैव तत्पर रखने का परिचायक है. जिस तरह हम कम्प्यूटर का उपयोग प्रारंभ करते समय रिफ्रेश का बटन दबाते हैं, जीवन के दैननंदिनी व्यवहार में भी हमें एक नव स्फूर्ति के साथ ही प्रत्येक  कार्य करने की शैली बनाना चाहिये.

कम्प्यूटर हमारी किसी कमांड की अनसुनी नहीं करता किंतु हम पत्नी, बच्चों, अपने अधिकारी की कितनी ही बातें टाल जाने की कोशिश में लगे रहते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष, खिन्नता,कटुता पैदा होती है व हम अशांति को न्योता देते हैं.

क्या हमें कम्प्यूटर से प्रत्येक को समुचित रिस्पांस देना नहीं सीखना चाहिये ? समय समय पर हम अपने पी.सी. की डिस्क क्लीन करना व्यर्थ की फाइलें व आइकन डिलीट करना नहीं भूलते, उसे डिफ्रिगमेंट भी करते हैं.  यदि हम रोजमर्रा के जीवन में भी यह साधारण सी बात अपना लें और अपने मानस पटल से व्यर्थ की घटनायें हटाते रहें तो हम सदैव सबके प्रति सदाशयी व्यवहार कर पायेंगे, इसका प्रतिबिम्ब हमारे चेहरे के कोमल भावों के रूप में परिलक्षित होगा,जैसे हमारे पी.सी. का मनोहर वालपेपर. कम्प्यूटर पर ढ़ेर सारी फाइलें खोल दें तो वे परस्पर उलझ जाती हैं, इसी तरह हमें जीवन में भी रिशतो की घालमेल नहीं करना चाहिये, घर की समस्यायें घर में एवं कार्यालय की उलझने कार्यालय में ही निपटाने की आदत डालकर देखिये, आपकी लोकप्रियता में निश्चित ही वृद्धि होगी. हाँ एक बात है जिसे हमें जीवन में कभी नहीं अपनाना चाहिये, वह है किसी भी उपलब्धि को पाने का शार्ट कट. कापी,कट पेस्ट जैसी  सुविधायें कम्प्यूटर की अपनी विशेषतायें हैं. जीवन में ये शार्ट कट भले ही  त्वरित क्षुद्र सफलतायें दिला दें पर स्थाई उपलब्धियां सच्ची मेहनत से ही मिलती हैं.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों?? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का विचारोत्तेजक आलेख  “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों ?”।)

 

??‍♀️नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों? ??‍♀️

 

यह तो सर्वविदित है कि सृष्टि निर्माण के लिए नियंता ने आदम और हव्वा की कल्पना की तथा दोनों को इसका उत्तरदायित्व सौंपा। हव्वा को उसने प्रजनन क्षमता प्रदान की तथा दैवीय गुणों से संपन्न किया। शायद!इसलिये ही मां बच्चे की प्रथम गुरु कहलायी।  जन्म के पश्चात् उसका अधिक समय मां के सान्निध्य में गुज़रा। सो! मां के संस्कारों का प्रभाव उस पर सर्वाधिक पड़ा। वैसे तो पिता की अवधारणा के बिना बच्चे के जन्म की कल्पना निर्रथक थी। पिता पर परिवार के पालन-पोषण तथा सुरक्षा का दायित्व  था। इसलिए सांस्कृतिक परिवेश उसे विरासत में मिला, जो सदैव पथ-प्रदर्शक के रूप में साथ रहा।

प्राचीन काल से स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। परन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ पितृ सत्तात्मक परिवार अस्तित्व में आये। वैसे कानून- निर्माता तो सदैव पुरुष ही रहे हैं। सो! स्त्री व पुरुष के लिए सदैव अलग-अलग कानून बनाये गये। सभी कर्त्तव्य नारी के दामन में डाल दिए गए और अधिकार पुरुष को प्राप्त हुए। औरत को चूल्हे-चौंके में झोंक दिया गया और घर की चारदीवारी ने उसके लिए लक्ष्मण रेखा का कार्य किया। जन्म के पश्चात् वह पिता के साए में अजनबी बनकर रही तथा उसे हर पल यह अहसास दिलाया गया कि ‘यह घर तेरा नहीं है। तू यहां के लिए पराई है, अजनबी है। तुझे तो पति के घर-आंगन की शोभा बनना है। सो! वहां जाने के पश्चात् तुम्हें उस घर की चौखट को नहीं लांघना है। हर विकट परिस्थिति का सामना अकेले ही करना है। तुम्हारे लिये यह समझ लेना आवश्यक है कि जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से कभी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें यहां अकेले लौट कर कभी नहीं आना है’।

वह मासूम लड़की पिता के घर में इसी अहसास से जीती है कि वह घर उसका नहीं है। सो! वहां उस पर अनेक अंकुश लगाए जाते हैं। पहले दिन से ही बेटी- बेटे का फ़र्क उसे समझ आ जाता है। माता-पिता का व्यवहार दोनों से अलग-अलग किस्म का होता है।

बचपन से खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में भी भेदभाव किया जाता है, पढ़ाई जारी रखने के लिए भी उनकी सोच व मापदंड अलग-अलग होते हैं। उसे आरंभ से ही घर के कामों में झोंक दिया जाता है कि उसे तो ससुराल जाकर नया घर संभालना है। उसके लिए सारे कायदे-कानून भाई से अलग होते हैं। उसके रोम-रोम में परिवार की इज़्ज़त व मान-मर्यादा इस क़दर घर कर जाती है… रच-बस जाती है, जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। अनेक बार उसका हृदय चीत्कार कर उठता है, परन्तु पिता व भाई के क्रूर व्यवहार को स्मरण कर वह सहम जाती है। उस के मन में विचारों के बवंडर उठते हैं कि नारी अस्मिता ही प्रश्नों के दायरे में क्यों?

क्या बेटे द्वारा दुष्कर्म के हादसों से परिवार की मान- मर्यादा पर आंच नहीं आती…उनकी भावनाएं आहत नहीं होती? जब उसे हर प्रकार की स्वतंत्रता प्रदत्त है, तो वह उससे वंचित क्यों? हर कसूर के लिए वह ही दोषी क्यों? ऐसे अनगिनत प्रश्न उसके  मन को सालते हैं तथा उसके गले की फांस बन जाते हैं। परन्तु वह लाख प्रयत्न करने पर भी उनका विरोध कहां कर पाती है।

हां! नए घर की सुंदर कल्पना कर, रंगीन स्वप्न संजोए वह मासूम ससुराल में कदम रखती है। परन्तु वहां भी, उस माहौल में वह अकेली पड़ जाती है। उसकी नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरे की मानिंद उस नादान की हर गतिविधि पर लगी रहती हैं। पहले दिन से ही शुरू हो जाती है— उसकी अग्नि-परीक्षा। ससुराल के लोग उसे प्रताड़ित करने का एक भी स्वर्णिम अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। वह कठपुतली की भांति उनके आदेशों की अनुपालना करती है…अपनी आकांक्षाओं का गला घोंट नत- मस्तक रहती है। परन्तु फिर भी वह कभी कम दहेज लाने के कारण, तो कभी परिवार को वंशज न दे पाने के कारण, केवल तिरस्कृत ही नहीं होती..उसके लिए  तैयार होता है, मिट्टी के तेल का डिब्बा,गैस का खुला स्टोव व दियासलाई, तंदूर की दहकती अग्नि, छत या नदी की फिसलन,बिजली  की नंगी तारों का करंट। सो! उसे सहन करनी पड़ती हैं,जीवन भर अमानवीय  यातनाएं, जिसे नियति स्वीकार उसे ढोना पड़ता है। वह जीवन भर इसी उहापोह में पल-पल जीती,पल- पल मरती है, परन्तु कभी उफ़् नहीं करती। प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी बेटी के साथ क्यों घटित नहीं होते? इसका मुख्य कारण है, माता-पिता का अपनी पुत्रवधु में बेटी का अक्स न देखना। वास्तव  में वे भूल जाते हैं कि उनकी बेटी को भी  किसी के घर-आंगन की शोभा बनना है।

इस तथ्य से तो आप भली-भांति परिचित होंगे कि औरत को उपभोक्तावादी युग में, बढ़ते बाज़ारवाद के कारण वस्तु-मात्र समझा जाता है। जब तक उसकी उपयोगिता रहती है, उसे सहेज कर रखा जाता है, सिर आंखों पर बैठाकर, सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। परन्तु उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।

हां! पति परमेश्वर है, जो कभी गलती कर ही नहीं सकता। उसका हर वचन, हर कर्म सत्य व अनु- करणीय समझा जाता है। वह अपनी पत्नी के रहते किसी दूसरी औरत से संबंध स्थापित कर, उसे अपने घर में स्थान दे सकता है और अपनी पत्नी को घर  से बेदखल करने में सक्षम है।आश्चर्य होता है यह देखकर, कि पत्नी की अर्थी उठने से पहले ही पति के लिए नये रिश्ते आने प्रारंभ हो जाते हैं और वह श्मशान तक की यात्रा में भी पत्नी का साथ नहीं देता…उसे अग्नि देने की बात तो बहुत दूर की है। वह तो उसी पल नई नवेली जीवन-संगिनी के सपनों- कल्पनाओं में खो जाता है।

परन्तु यथा स्थिति में पति के देहांत के बाद औरत को जीवन भर वैधव्य की त्रासदी को झेलना पड़ता है। इतना ही नहीं ससुराल वालों के दंश ‘यह मनहूस है, डायन है… हमारे बेटे को खा गई’ आदि झेलने पड़ते हैं । वे भूल जाते हैं कि उनका बेटा उसका पति भी था, जिसने उसे हमसफ़र बनाया था। वह उसका भाग्य-विधाता था, जो उसे बीच भंवर अकेला छोड़ चल दिया उन राहों पर, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

ज़रा! सोचिए, क्या उस निरीह पर विपत्तियों का पहाड़ नहीं टूटा होगा ? क्या उसे पति का अभाव नहीं खलता होगा ? वह अकेली अब जिंदगी के बोझ को कैसे ढोएगी? काश! वे उस मासूम की पीड़ा को अनुभव कर पाते और उसे परिवार का हिस्सा स्वीकार उसका मनोबल बढ़ाते, उसे आश्रय प्रदान करते और अहसास दिलाते कि वे हर असामान्य- विषम परिस्थिति में ढाल बनकर सदैव उसके साथ खड़े हैं। उसे अब किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं।

परन्तु होता उससे उलट है… परिवार के लोग उस पर बुरी नज़र डालना प्रारंभ कर देते हैं तथा उसे नरक में धकेल देते हैं। वह प्रतिदिन नये हादसे का शिकार बनती है। कई बार तो उनकी नज़रों में जायदाद हड़पने के लिए, उसे रास्ते से हटाना अवश्यंभावी हो जाता है। वे उस पर गलत इल्ज़ाम लगा, घर से बेघर कर अपनी शेखी बघारते नहीं थकते। फिर प्रारम्भ हो जाती है… उस पर ज़ुल्मों की बरसात।

यदि वह पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखवाने जाती है, तो वहां उसका शोषण किया जाता है। कानून के कटघरे में उसके चरित्र पर ऐसी छींटाकशी की जाती है कि वह न्याय पाने का विचार त्याग, वहां से भाग जाने में ही अपनी बेहतरी समझती है। यहां भी लाभ प्रतिपक्ष को ही मिलता है। उनके हौंसले और बुलंद हो जाते हैं तथा वह मासूम ज़ुल्मों को नियति स्वीकार अकेली निकल पड़ती है… ज़िन्दगी की उन राहों पर,बढ़ जाती है, जो उसके लिए अनजान हैं। प्रश्न उठता है, नारी ही कटघरे में क्यों? पुरुष पर कभी कोई आक्षेप आरोप-प्रत्यारोप क्यों नहीं? क्या वह सदैव दूध का धुला होता है? जब किसी मासूम की इज़्ज़त लुटती है तो लोग उसे अकारण दुत्कारते हैं, लांछित करते हैं, दोषारोपण करते हैं और उस दुष्कर्मी को शक़ की बिनाह पर छोड़ दिया जाता है। वह दुष्ट सिर उठाकर जीता है, परन्तु वह निर्दोष समाज में सिर झुकाकर अपना जीवन ढोती है और उसके माता-पिता आजीवन ज़लालत भरी ज़िन्दगी ढोने को विवश होते हैं।

क्या अस्मिता केवल औरत की होती है, शील-भंग भी उसी का होता है। हां!पुरुष की तो इज़्ज़त होती ही नहीं… शायद!इसीलिये उस पर तो कभी, किसी प्रकार की तनिक आंच भी नहीं आती। हां! यदि औरत इन यातनाओं-यंत्रणाओं को सहन करते-करते अपना दृष्टिकोण व जीने की राह बदल लेती है, तो वह कुलटा, कुलक्षिणी, कुलनाशिनी व पापिनी कहलाती है।

जब से नारी ने समानाधिकारों की मांग की है,महिला  सशक्तीकरण के नारों की गूंज तो चारों ओर सुनाई पड़ती है, परन्तु उसके सुरक्षा के दायरे में सेंध लग गई है। आज नारी न घर के बाहर सुरक्षित है, न ही घर के प्रांगण व पिता व पति के सुरक्षा-दायरे में,और  लोग उसकी ओर गिद्ध नज़रें लगाए बैठे हैं।

यह बतलाते हुए मस्तिष्क शर्म से झुक जाता है कि आज तो कन्या भ्रूण रूप में भी सुरक्षित नहीं है। उससे तो जन्म लेने का अधिकार भी छिन गया है..अन्य सम्बन्धों की सार्थकता की तो बात करना ही व्यर्थ है। पति-पत्नी के सात जन्मों का पुनीत संबंध आज कल  लिव-इन रिलेशन में परिवर्तित हो गया है।’ तू नहीं और सही’ व ‘खाओ-पियो, मौज उड़ाओ’ की संस्कृति का हम पर आधिपत्य हो गया है। संयुक्त परिवार ही नहीं, अब तो एकल परिवार भी निरंतर टूट रहे हैं। एक छत के नीचे पति-पत्नी अजनबी बनकर अपना जीवन बसर कर रहे हैं। सामाजिक सरोकार समाप्त हो रहे हैं। इसकी सबसे अधिक हानि हो रही है…हमारी नई पीढ़ी को, जो स्वयं को सबसे अधिक असुरक्षित अनुभव कर रही है। पिता की अवधारणा का कोई महत्व शेष रहा ही नहीं, पति-पत्नी जब तक मन चाहता है, साथ रहते हैं और असंतुष्ट होने की स्थिति में, जब मन में आता है, एक-दूसरे से संबंध-विच्छेद कर लेते हैं। पश्चिमी समाज विशेष रूप से अमेरिका में पितृविहीन परिवारों के आंकड़े इस प्रकार हैं…1960 में 80% से अधिक बच्चे माता-पिता के साथ, उनकी सुरक्षा में रहते थे। 1990 में यह आंकड़ा 58% और और अब यह 50% से भी नीचे पहुंच गया है। इनमें से 25% बच्चे अनब्याही माताओं के साथ रहते हैं और करोड़ों बच्चे मां और सौतेले पिता के साथ, जिससे उनकी माता ने संबंध-विच्छेद के पश्चात् पुनर्विवाह कर लिया है या उसके साथ बिना विवाह के लिव-इन में रह रही हैं।

आज हमारा देश पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट का  लिव-इन को मान्यता प्रदान करना, तलाक़ की प्रक्रिया को सुगम बनाना और विवाहेत्तर संबंधों को हरी झंडी दिखलाना, समाज के लिये घातक ही नहीं, उसे बढ़ावा देने के लिए काफी है। वैसे भी आजकल तो इसे मान्यता प्रदान कर दी गई है। विवाह के मायने बदल गए हैं और विवाह संस्था दिन-प्रतिदिन ध्वस्त होती जा रही है। इसमें दोष केवल पुरुष का नहीं, स्त्री का भी पूरा योगदान है। एक लंबे अंतराल के पश्चात् औरत गुलामी  की ज़ंजीरें तोड़कर बाहर निकली है… सो! की मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण होना तो स्वाभाविक है।

उसने भी जींस कल्चर को अपना लिया है और वह पुरुष की राहों को श्रेष्ठ मान उनका अनुकरण करना चाहती है। वह प्राचीन मान्यताओं को रूढ़ि स्वीकार, केंचुली सम त्याग देना श्रेयस्कर समझती है, भले ही इसमें उसका अहित ही क्यों ना हो। घर से बाहर निकल कर नौकरी करने से, जहां वह असुरक्षा के घेरे में आ गई है, वहीं उसे दायित्वों का दोहरा बोझ ढोना पड़ रहा है। घर-परिवार में उस से पूर्व अपेक्षा की जाती है। हर स्थिति में पुरुष अहं आड़े आ जाता है और वह उस पर व्यंग्यबाण चलाने  में एक भी अवसर नहीं चूकता। हरपल ज़लील करने  का हक़ तो उसे विरासत में मिला है, जिससे स्त्री के आत्मसम्मान पर चोट लगती है और उसे  मुखौटा धारण कर दोहरा जीवन  जीना पड़ता है। परन्तु कभी-कभी तो वह घर की चौखट लांघ स्वतंत्र जीवन जीने की राह पर निकल पड़ती है, जहां उसे कदम- कदम पर ऐसे वहशी दरिंदों का सामना करना पड़ता है, जो उसे आहत करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। प्रश्न उठता है आखिर कब तक उसे माटी की गुड़िया समझ, उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाएगा…आखिर कब तक?

आश्चर्य होता है यह देखकर कि पश्चिमी देशों में भारतीय संस्कृति को हृदय से स्वीकारा जा रहा है, मान्यता प्रदान की जा रही है, जिसका स्पष्ट उदाहरण है भगवत्-गीता को मैनेजमेंट कोर्स में लगाना… निष्काम कर्म की महत्ता को स्वीकारना तथा जीवन संबंधित प्रश्नों का समाधान गीता में तलाशना, उनके हृदय की उदारता व सकारात्मक सोच का परिणाम है। परन्तु हम भगवत् गीता को इस रूप में मान्यता प्रदान नहीं कर पाए…यह हमारा दुर्भाग्य है। हमारी परिवार-व्यवस्था में गृहस्थ-जीवन को यज्ञ के रूप में स्वीकारा गया है। परिवार के बुज़ुर्गों को देवी-देवता सम स्वीकार उन्हें मान-सम्मान प्रदान करना, वट वृक्ष की छाया में संतोष व सुरक्षित अनुभव कर सुख- संतोष की सांस लेना… विदेशी लोगों को बहुत भाया है तथा उनकी आस्था घर-परिवार व संबंधों  में बढ़ी है। वे हमारे रीति-रिवाज़, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं। परन्तु हम उन द्वारा परोसी गयी ‘लिव इन’ और ‘ओल्ड होम’ की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं।

आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन करने का परिणाम घातक होता है। यदि नमक का प्रयोग अधिक किया जाए, तो वह शरीर में अनेक रोगों को जन्म देता है। तनाव के भयंकर परिणामों से कौन परिचित नहीं है…वह सभी जानलेवा रोगों का जनक  है। अहं इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है तथा संघर्ष का मूल है। यह सभी जानलेवा रोगों का जनक है। सो! हमें उससे कोसों दूरी बनाए रखनी चाहिए और सोच को सकारात्मक रखना चाहिए। काश! हर इंसान इस भावना, इस मंतव्य को समझ पाता, तो स्त्री अस्मिता का प्रश्न ही नहीं उठता। छोटे-बड़े मिल-जुलकर बुज़ुर्गों के साए में खुशी से रहते व स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते…एक-दूसरे के सुख-दु:ख सांझे करते भावनाओं को समझने का प्रयास करते हैंदं, हंसते-हंसाते, मस्ती में झूमते आनंद से उनका जीवन गुज़र जाता। मलय वायु के शीतल, मंद, सुगंधित वायु के झोंके मन को आंदोलित-आनंदित कर  उल्लासित कर, प्रसन्नता व प्रफुल्लता से आप्लावित करते।

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #10 – # No Abusing ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 10 ☆

 

☆ # No Abusing ☆

रात चढ़ रही है, पास के मकान में हमेशा की तरह घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। उनका स्कूल जानेवाला लड़का जन्म से यह सब देख, सुन रहा है। उसका कोई स्वर नहीं है। अनुमान लगाता हूँ कि वह घर के किसी कोने में सुन्न खड़ा होगा। छोटी नादान बिटिया जोर-जोर से रो रही है। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह सरलता से जटिलता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी।  अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें।

मित्रो, मैं आज से # No Abusing शुरू कर रहा हूँ। इसमें मेरा साथ दें, शामिल हों।

# No Abusing

(इस पोस्ट का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करने का आप सबसे निवेदन है। इसे विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर जन-आंदोलन बनाने का भी अनुरोध है। )
Read my thoughts on YourQuote app at: Sanjay Bhardwaj

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि –  ‘अ’ से अटल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

? संजय दृष्टि  – ‘अ’ से अटल ?

(अटल जी की प्रथम पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि। गतवर्ष उनके महाप्रयाण पर उद्भूत भावनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

 

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और  तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व  अनुभव करने  का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था। अधिकांश परिवारों में माता,पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ  अपने प्रिय वक्ता  को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी  कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद  ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल  व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!

इस शख्सियत को समझी नहीं

चकरा गई हैं आप,

कौवों की राजनीति में

राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!

सौगंध है आपको

हमें छोड़ मत जाना,

अगर आप चले जायेंगे

तो वेश्या-सी राजनीति

गिद्धों से राजनेताओं

और अमावस सी व्यवस्था में

दीप जलाने

दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी अजर रहेंगे, अमर रहेंगे! 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 – शक्ति का मद ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “शक्ति का मद।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 ☆

 

☆ शक्ति का मद 

 

राम, नाम अग्नि बीज मंत्र (रा) और अमृत बीज मंत्र (मा) के साथ संयुक्त है, अग्नि बीज आत्मा, मन और शरीर को ऊर्जा देता है एवं अमृत बीज पूरे शरीर में प्राण शक्ति (जीवन शक्ति) को पुन: उत्पन्न करता है । राम दुनिया का सबसे सरल, और अभी तक का सबसे शक्तिशाली नाम है । भगवान राम कोसला साम्राज्य (अब उत्तर प्रदेश में) के शासक दशरथ और कौशल्या के यहाँ सबसे बड़े पुत्र के रूप में पैदा हुए, भगवान राम को हिंदू धर्म के ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पूर्ण पुरुष’ या ‘स्व-नियंत्रण भगवान’ या ‘पुण्य के भगवान’ । उनकी पत्नी देवी सीता को पृथ्वी पर अवतारित एक महान स्त्री माना जाता हैं जो वास्तव में किसी के लिए भी आदर्श की परिभाषा है उन्हें हिंदु देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं ।

भगवान राम अपने पिता दशरथ द्वारा अपनी सौतेली माँ कैकेयी (अर्थ : भाग्य, स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता की चरम सीमा) को दिए वचनों के पालन हेतु 14 सालोंतक के लिए वन  में रहने आये थे ।

दशरथ – दश का अर्थ नंबर दस तक की गिनती है और रथ का अर्थ युद्ध में प्रयोग करने वाला वहान, इसलिए दशरथ का शाब्दिक अर्थ है दस रथ। दशरथ को यह नाम मिला क्योंकि उनके पास दस दिशाओं में रथ चलाने की अनूठी क्षमता थी। परंपरागत रूप से हम केवल आठ दिशाओं को जानते हैं- उत्तर (उत्तर), दक्षिणी (दक्षिण), पूरव (पूर्व), पश्चिम (पश्चिम), ईशान (उत्तर पूर्व), आग्नेय (दक्षिण पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम), वायव्य (उत्तर पश्चिम), और इन पारंपरिक आठ दिशाओं के अतिरिक्त, दशरथ ऊर्ध्व (आकाश की ओर ऊपर को) और अदास्था(पाताल की ओर नीचे को) में रथ चला सकते थे ।

भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीताऔर छोटे भाई लक्ष्मण (अर्थ : भाग्यशाली अंग, अन्य अर्थ ‘लक्ष’ का अर्थ है लक्ष्य और ‘मन’ का अर्थ ‘मन’ है, इसलिए लक्ष्मणअर्थात जिसका मस्तिष्क हमेशा लक्ष्य पर रहता है) के साथ वन में रह रहे थे ।

सीता – जनकपुर के राजा जनक ( अर्थ : निर्माता) और उनकी पत्नी रानी सुनैना (अर्थ : सुंदर आँखें) की पुत्री, एवं उर्मिला (अर्थ : मोहिनी) और चचेरी बहन मंडवी (अर्थ : पारदर्शी ह्रदय वाली) और श्रुतकीर्ति (अर्थ : चरम प्रसिद्धि) की बड़ी बहन थीं। वह देवी लक्ष्मी (भगवान विष्णु की आदिशक्ति), धन की देवी और विष्णु की पत्नी का अवतार थीं। उन्हें सभी हिंदू स्त्रियों के लिए पारिवारिक और स्त्री गुणों के एक आदर्श स्त्री माना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – आलेख ☆ रक्षा बंधन ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

रक्षा बंधन विशेष 

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा  रक्षा बंधन पर्व पर रचित  विशेष आलेख “रक्षा बंधन”।)

 

? रक्षा बंधन ?

रक्षा बंधन का त्यौहार युगों पुराना है। जिसके स्वरूप का वर्णन  पौराणिक कथाओं एवं घटनाओं के रुप में यत्र तत्र मिलता है। यह त्यौहार श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है। इसीलिए इसे रक्षा बंधन श्रावणी आदि नामों से जाना जाता है। इसके मूल में रिश्तों की मधुर मिठास घुली हुई है। इस दिन बहनें अपने हृदय में भाई के लम्बी उम्र एवं दीर्घायु जीवन की मंगल कामना ले व्रत रखती है, तथा भाई कलाई में  रक्षा सूत्र बांधती है।

इतिहास की गहराई में जाये तो रानी कर्मावती ने रक्षासूत्र  भेज कर ही चित्तौड़ गढ़ की रक्षा की गुहार लगाई थी, और जौहर कर लिया था, तथा हुमायूँ ने चित्तौड़ की रक्षा की थी। इस प्रकार यह त्यौहार जाति धर्म से परे भावुक रिश्तों पर आधारित है।

यह भी ऐतिहासिक उल्लेख है कि पहले राजा महाराजा ब्राह्मणों द्वारा रक्षासूत्र बंधवाकर रक्षा का दायित्व निभाते थे। पौराणिक घटनाओं में  भी रक्षा सूत्रात्मक बंधन का उल्लेख मिलता है। जब इंद्र की पत्नी शची ने अपने तपोबल से रक्षा सूत्र उत्पन्न कर देव गुरु वृहस्पति से इंद्र के हाथों पर बंधवाया था।

शिशुपाल वध के पश्चात सुदर्शन चक्र द्वारा श्रीकृष्ण की उंगली कटने पर द्रौपदी ने अपने आँचल का पल्लू फाड़ कर कृष्ण की उँगली में बाँधा था और कृष्ण ने चीरहरण के समय साड़ी का विस्तार कर द्रौपदी की मर्यादा की रक्षा की। आजकल रक्षा बंधन का त्यौहार प्रतीकात्मक हो गया है। धागों के त्यौहार पर आधुनिकता  हावी हो गई है जिससे उसका मूल स्वरूप नष्ट हो रहा है और दिखावा  प्रधान हो रहा है।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – आलेख ☆ मध्यभारत  बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

रक्षा बंधन विशेष 

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  द्वारा रचित  एक ज्ञानवर्धक आलेख जिसके माध्यम से आप मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के त्यौहार “कजलियाँ” से अवगत होंगे जो रक्षाबंधन के आसपास मनाया जाता है। इस ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की  लघुकथाएं  का विशेष आभार।)

 

?  मध्यभारत  बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ ?

 

भारतवर्ष त्योहारों का देश है। सभी जगह अलग-अलग प्रकार से त्यौहार मनाया जाता है। भारत का हृदय स्थल कहने पर मध्य प्रदेश आता है और मध्य प्रदेश में सभी त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है चैत्र माह की रामनवमी से लेकर फागुन की होली तक अनेक त्यौहार हैं। वैसे ही बुंदेलखंड के मुख्य त्योहारों में से एक कजलियां हैं।  कजलियां सदियों से चली आ रही है वर्षा ऋतु के आगमन और सावन की हरी-भरी वादियों के बीच इस त्यौहार का आना होता है।

जहां पर आगे पीछे रक्षाबंधन राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त भी साथ साथ होता है। सावन में ही भगवान शिव की आराधना भी की जाती है। इस प्रकार सावन का महीना भक्ति, शक्ति और उल्लास से भरा होता है और  हो भी क्यों ना प्रकृति की सुंदरता मानव की सुंदरता से अधिक होती है। यह त्योहार विशेष रूप से खेती किसानी से भी जुड़ा हुआ है। सावन में कृष्ण पक्ष के बाद शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी मनाया जाता है। उसके दूसरे दिन षष्ठी को गेहूं के दानों को मिट्टी के बर्तनों सकोरे या फिर बड़े किसी चौड़े मुंह वाले बर्तनों पर मिट्टी डालकर गेहूं के बीज बो दिए जाते हैं। और ढक कर रख दिया जाता है रोज शाम संध्या आरती के साथ गाना बजाना होता है। महिलाएं बड़े उत्साह के साथ इसे पूजन करती हैं। धीरे-धीरे कजलियां अपने आप बढ़ने लग जाती हैं जिसे समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है और रक्षाबंधन के दूसरे दिन टोली बना बना कर जिसमें बाजे गाजे के साथ सभी महिलाएं बालिकाएं सिर पर कजलियां लिए झूमती गाती नदियों की ओर जाती हैं नदी या तालाब में कजलियां को साफ धोकर मिट्टी बहा दी जाती है। और ऊपर से कजलियां तोड़ कर ले आती हैं। सभी बड़े बुजुर्गों को कजलियां भेंटकर आशीर्वाद लिया जाता है महिलाएं आपस में पक्की दोस्ती का वादा भी करती हैं जिसे आपस में एक दूसरे को हमेशा भोजली कहना पड़ता है।

” भोजली गंगा भोजली गंगा लहर तुरंगा

हमरो भोजली रानी के बाढे आठो अंगा

ह. ओ देवी गंगा ह. ओ देवी गंगा”

गांव में किसान आज भी एक दूसरे की कजलीयां देखने जाते हैं। और अपने अपने पैदावार खेतों का पता लगा लेते हैं। नदी से आने के बाद  कजलीयां कान में लगाया जाता हैं और मीठा खिलाया जाता है।

मध्य प्रदेश में आज भी यह त्यौहार जीवित है। कलियों की एक पुरानी कथा है महोबा के सिंह राजपूतों आल्हा- ऊदल को कौन नहीं जानता इनके वीरता की बखान को आल्हा – ऊदल के दोहे के रूप में गाया जाता है। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा के राजा की सुपुत्री राजकुमारी चंद्रावलि का अपहरण करना चाहा, और चढ़ाई कर दिया उस समय चंद्रावलि तालाब में कजलीयां सिराने  गई थी। आल्हा उदल, मलखान और चेहरे भाइयों के कारण सभी सेना को खदेड़ दिया गया और तभी से कलियों का त्योहार विजय उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा।

एक अन्य कथा है आल्हा – ऊदल दो भाई मां शारदा जो कि सतना के पास ऊंची पहाड़ी पर विराजी है, परम भक्त थे।  कहते हैं, वह कब पूजा करते थे आज तक किसी ने नहीं देखा परंतु मंदिर का पट जब भी खुलता है। मां शारदा के चरणों पर कमल का पुष्प और पूजा का सामान मिलता है। कहते हैं दोनों भाइयों में बहुत गहरा प्यार था एक दिन माता राणी प्रसन्न हो गयी और साक्षात दर्शन देने आ गई। आल्हा उस समय पूजा कर रहा था और ऊदल कुछ सामान लेने गया था मां आल्हा से कहा बोलो तुम्हें क्या चाहिए। आल्हा ने बिना देर किए भाई के प्यार से बंधा कहा हम दोनों हमेशा जीवित रहे, परंतु विधि का विधान तो देखिए हम दोनों का मतलब उस समय उनकी धर्मपत्नी से माना गया क्योंकि धर्म है। भाई ऊदल की मोक्ष की कामना लिए आल्हा बहुत उदास हो गया परंतु मां ने वरदान दे चुकी थी। आज भी गांव में  आल्हा देव की पूजा की जाती है। जब बारिश नहीं होती तो आल्हा- ऊदल पढा जाता है। और कहते हैं इसको गाने से बारिश का होना अनिवार्य है। आज भी शारदा मंदिर में पूजन होता है पट खुलता है। पूजा में कमल के पुष्प चढ़े हुए मिलते हैं। गांव वाले बताते हैं, आज भी आल्हा देव जीवित है। मध्यप्रदेश में कजलियाँ का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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