हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज से प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश स्मृतियाँ/Memories।  आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी  जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆

 

बचपन वाला विज्ञान का Box

कक्षा 10 में मेरे पास एक box हुआ करता था।जिसमे मैं विज्ञानं से सम्बंधित वस्तुएँ रखा करता था।

स्कूल में पढ़ता और प्रयोग करने के लिए विज्ञान की उन वस्तुओ को एक box मे रख लेता।

एक दिशा सूचक यंत्र (compass) था जिसकी सुईया नाचती तो थी पर रूकती हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में ही थी ।

एक उत्तल लेंस था जो वस्तुओ का प्रतिबिम्ब एक खास दूरी पर ही बनता था।

कभी कभी जाड़ो की गुठली मारती धूप में उसे कागज के ऊपर फोकस (focus) करके सूरज की ऊर्जा से उस कागज़ को जलाया करता था।

उस box में मैंने दो लिटमस पेपरो की छोटी छोटी गड्डिया भी रख रखीं थी एक नीले लिटमस की और दूसरी लाल लिटमस की, जो अम्ल और क्षार से क्रिया करके रंग बदलते थे।

चुपके से एक फौजी वाली ताश की गड्डी भी मैंने उस box में छिपा रखीं थी और राजा, रानी, इक्का सब मेरे कब्ज़े में थे।

और कई सारी चीजों के साथ एक वो पेन्सिल भी थी जिसमे एक पारदर्शी खांचे में छोटे छोटे कई सारे तीले होते है और अगर एक तीला घिस का ठूठ हो जाये तो उसे निकल कर सबसे पीछे लगा दो और नया नुकीला तीला आगे आ जाता था।

बरसो बाद पता नहीं आज क्यों उस box की याद आ गयी।

अब मैं घर से दूर हूँ इस बार जब घर जाऊँगा तो ढूंढूंगा उस box को स्टोर मे कही खोल कर देखूँगा फिर से वही बचपन वाला विज्ञानं।

जीवन जो अब दिशाहीन सा हो गया है कोशिश करूँगा उसे उस compass से एक दिशा में ही रोकने की।

इस बार जाकर देखूँगा की क्या वो उत्तल लेंस मेरे बचपन की यादो के प्रतिबिम्ब अभी भी बना पायेगा?

जुबाँ में अम्ल घुल चुका है सोचता हूँ  उस box से निकाल कर नीले लिटमस पेपर की पूरी गड्डी ही मुँह में रख लूँगा मुझे यक़ीन है मेरा मुँह भी हनुमान जी की तरह लाल हो जायेगा।

इस दफा वर्षो के बाद जब वो box खोलूँगा तो राजा, रानी, गुलाम सब को आज़ाद कर दूँगा।

और वो कई तीलो वाली पेन्सिल, उसे अपने साथ ले आऊंगा क्योकि गलतियाँ तो मैं अब भी करता हूँ पर अब उन्हें मानने भी लगा हूँ। पेन्सिल से लिखीं गलतियों को सही करने मैं शायद ज्यादा कठनाई ना हो?

कुछ दिनों की बाद मैं गया था घर अपने बचपन वाले विज्ञानं का वो box फिर से खोलने पर दीमक ने अब उसके कुछ अवशेष ही छोड़े है।

वो कंपास (compass) तो मेरे से भी ज्यादा दिशाहीन हो गया है। मैं कोशिश करता हूँ उसकी सूइयों को उत्तर दक्षिण में रोकने की पर वो तो पश्चिम की ओर ही जाती प्रतीत होती है।

वो उत्तल लेंस अब किसी को जलता नहीं है उसके बीच में पड़ी एक दरार ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है शायद।

Box खोला तो पहचान ही नहीं पाया की लाल लिटमस की गड्डी कौन सी है ओर नीले की कौन सी? शायद दोनों लिटमसो की गड्डियाँ ज्यादा ही पुरानी हो गयी है या फिर मैं?

फौजी वाली ताश की गड्डी के फौजियों की बंदूकों पर जंग लग गया है अब उनसे निकली गोलिया फौजियों के हाथो में ही फट जाती है।
राजा, रानी गुलाम जैसे लगने लगे है।

वो कई तीलो वाली पेन्सिल के सारे तीले इतने ठूठ हो गए है की उसके पारदर्शी भाग से देखने पर उनके बीच में दूरिया नजर आती है। कुछ के बीच की दूरिया तो इतनी बढ़ गयी है की पीछे वाले तीले का हाथ अब उससे आगे वाले तीले के कंधो तक नहीं पहुँचता है।

वो मेरे बचपन का जादू भरा विज्ञान वाला box कबाड़ी 5 रूपये में ले गया।

मैं गया था बाजार में वो 5 रूपये लेकर कंपास (compass) ख़रीदने …………

पर शायद सही दिशा बताने वाले कंपास (compass) अब 5 रुपये में नहीं आते ………………

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

☆ भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व ☆

भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

आपको और आपके परिवार को परशुराम जयंती और अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

 

वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ।
निशाया: प्रथमे यामें रामाख्य: समये हरि:।।

स्वोच्चगै:षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते।
रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयं।।

 

भगवान *परशुराम* स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। वैशाखमास के  शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को *पुनर्वसु* नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छः ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता *रेणुका* के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ।

दिग्भ्रमित समाज में अपने तपोबल और पराक्रम से समता और न्याय की स्थापना करने वाले भगवान परशुराम का जीवन अत्यंत प्रेरणादायी और अनुकरणीय है।

उनके आदर्शों पर चलने का हम सबको संकल्प लेना चाहिये।

© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

आचार्य भगवत दुबे

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(e-abhivyakti.com  में आज संस्कारधानी जबलपुर के आचार्य भगवत दुबे जी का स्वागत है एवं उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित इस आलेख को प्रस्तुत करते  हुए हम गौरवान्वित अनुभव करते हैं। अंतरराष्ट्रीय खातिलब्ध आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षिप्त में लिखना असंभव है। आपकी गिनती हिन्दी साहित्य में अंतरराष्ट्रीय स्तर के साहित्य मनीषियों में होती है। आचार्य भगवत दुबे जी से दूरभाष इंटरव्यू एवं सोशल मीडिया पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित आलेख।) 

आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 3 पी एच डी (4थी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा 2 एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवंआपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए।

बचपन से ही प्रतिभावन आचार्य जी अपने गुरुओं के प्रिय रहे हैं। वे आज भी अपनी उपलब्धियों का श्रेय अपने गुरुवर सनातन कुमार बाजपेयी जी को देते हैं  जिन्होने न सिर्फ उन्हें प्रोत्साहित किया अपितु, उन्हें हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी की शिक्षा भी दी और आर्थिक सहायता भी। आज ऐसे गुरुवर मिलना अत्यंत सौभाग्य की बात है। हम हमेशा ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि ऐसी  गुरु-शिष्य परंपरा सदैव जीवित रहे।

संयोगवश आज “पृथ्वी दिवस” पर यह उल्लिखित करन मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि – आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं। साथ ही मौखिक अभ्यास प्रश्नावली भी दी गई है।

आपके महाकाव्य ‘दधीचि’ का उल्लेख के बिना यह आलेख अधूरा होगा। दधीचि महाकाव्य नौ सर्गों में विभक्त है जिनके नाम क्रमशः -‘दधीचि, सुरक्षा, गुरू, वृत्तासुर, मंत्रणा, सुषमा, आश्रम, बलिदान तथा युद्ध है । प्रारम्भ में मंगलाचरण और अन्त में दधीचि वंदना भी दी गयी है । दधीचि की कथा श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, महाभारत, स्कन्द पुराण उपनिषद तैत्तिरीय संहिता तथा विभिन्न चरित कोषों में वर्णित है। दधीचि मंत्रवृष्टा ऋषि थे। आपने अपनी मौलिक कल्पना से इस चिर पुरातन कथा को एक नवीन स्वरूप प्रदान कर दिया है। आपने दधीचि को पहले राजा स्वीकार किया है । फिर उनकी आदर्श राज्य व्यवस्था का वर्णन किया है।

आपके ही शब्दों में  ‘‘मैने निश्चय कर लिया कि राजा दधीचि से ऋषि दधीचि तक का वर्णन कर मैं अपनी बात कहूंगा । इस महाकाव्य में दधीचि सर्ग का आधार मेरी यही मौलिक कल्पना शीलता है, जो पुराण प्रसिद्ध दधीचि के आख्यान से प्र्याप्त भिन्न होने हुए भी मूल कथानक से सामंजस्य बनाकर ही सुविकसित हुई है ।

इन्द्र और वृत्तासुर के युद्ध वर्णन पर वे लिखते हैं –

इक ओर वनुज कज्जल गिरि सा, तो लगते मेरू परंदर थे ।
दोनों पहाड़ करके दहाड़ टकाराकर गिरे भयंकर थे ।।
विक पाल डरे दिग्गज डोले, घबड़ाकर चतुर्दिशाओं के ।
जब वाण परंदर के छोड़े जाज्वल्यमान उल्काओं के ।।

Sanso ke Santoor by Acharya Bhagwat Dubey by [Dubey, Acharya Bhagwat] Aakad Bakad by Acharya Bhagwat Dubey: अक्कड़ - बक्कड़

आपके कई ईबुक के स्वरूप में अमेज़न पर उपलब्ध है। इनमें से प्रमुख  साँसों के संतूर एवं अक्कड़-बक्कड़ प्रमुख हैं। साँसों के संतूर काव्य संग्रह  में समाहित दार्शनिक जीवन दृष्टि एवं सत्यम, शिवम, सुंदरम की आराधना हैं,  चिंतन दर्शन सृजन का पाथेय हैं । सासों के संतूर में एक हजार से ज्यादा दोहे हैं इन में श्रंगार सौंदर्य के साथ अन्याय, अनीति,मूल्यों के संकट, शोषण पर प्रहार किया हैं। किन्तु आपकी अधिकतम पुस्तकें प्रिंट स्वरूप में ही हैं।

 

संस्कारधानी के ही वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी ने अभी हाल ही में आचार्य जी से एक संक्षिप्त चर्चा की एवं उनके अनुरोध पर आचार्य भगवत दुबे जी ने लोकतन्त्र के महापर्व पर चुनाव-चकल्लस के अंतर्गत “घोषणा पत्र” शीर्षक से अपनी व्यंग्य रचना का पाठ किया।

इस विशेष विडियो के लिए हम श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के हृदय से आभारी हैं।

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी द्वारा प्रेषित  विडियो जिसमें आचार्य भगवत दुबे जी ने अपनी  व्यंग्य कविता “घोषणा पत्र” का काव्य पाठ किया है उसे आप यूट्यूब चैनल e-abhivyakti Pune पर भी देख सकते हैं। इसके लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक करें।)

विडियो लिंक   ->>>> आचार्य भगवत दुबे जी की व्यंग्य कविता “घोषणा पत्र” का काव्य पाठ

विस्तृत परिचय

नाम   – आचार्य भगवत दुबे
पिता  – स्व. ओंकार प्रसाद जी दुबे
माता-  – श्रीमती रामकली दुबे
पत्नी  – स्व.श्रीमती विमला दुबे (आदर्श शिक्षिका)
जन्म  – 18.08.43
जन्म स्थान – डगडगा हिनौता चरगवां रोड, जबलपुर (म.प्र.)
शिक्षा  – एम.ए. एल.एल.बी. कोविद (संस्कृत)
व्यावसायिक विवरण-
(1) कृषि (2) रत्नावली महिला महाविद्यालय गढा, जबलपुर में पाच वर्ष तक आचार्य पद पर कार्य किया । (3) मेडिको सोशल वर्कर, मेडीकल कालेज जबलपुर से सेवा निवृत्त  ।

43 प्रकाशित कृतियां: (कुछ प्रमुख)

(1) स्मृतिगंधा  वियोग श्रंगार प्रधान गीत संग्रह 1990 प्रकाशक हिन्दी मंच भारती, जबलपुर.
(2) अक्षर मंत्र  साक्षरता से संबंधित गीत संग्रह 1996 जिला साक्षरता साहित्य समिति, जबलपुर.
(3) शब्दों के संवाद  एक हजार दोहों का संग्रह  1996 मेघ प्रकाशन दिल्ली.
(4) हरीतिमा  पर्यावरण विषयक दोहा संग्रह 1996 विकास एवं पर्यावरण संस्था.
(5) रक्षा कवच  विभिन्न रोगों के लक्षण, कारण, दुष्परिणाम एवं निदान विषयक गीत संग्रह(स्वास्थ्य शिक्षा हेतु) 1997 पलाश प्रकाशन.
(6) संकल्परथी  वनवासियों की जीवन पद्धति, संस्कृति और पंचायती राज की परिकल्पना पर केन्द्रित काव्य कृति 1997 एन आई डब्ल्यू, सी वाई डी, जबलपुर.
(7) बजे नगाडे काल के  जबलपुर की भूकम्प त्रासदी पर केन्द्रित दोहा संग्रह 1997 महापौर जबलपुर.
(8) वनपांखी (गीत)   जल, जंगल, जमीन, विस्थापन एवं लोक संस्कृति पर केन्द्रित गीत संग्रह 1998 आदिवासी स्वशासन के लिए राष्ट्रीय मोर्चा.
(9) दधीचि (महाकाव्य)   विश्वशांति के लिए समकालीन प्रासंगिकता के परिपे्रक्ष्य में महर्षि दधीचि के आत्मोत्सर्ग पर केन्द्रित बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का सर्वाधिक चर्चित महाकाव्य 1998 समय प्रकाशन दिल्ली.
(10) जियो और जीने दो (गीत)       मानवाधिकारों पर केन्द्रित काव्य कृति 1990 मानव अधिकार कानून नेटवर्क की ओर से
(11) विषकन्या (मद्यनिषेध)  मद्य निषेध विषयक गीत-लोकगीत संग्रह 1999 एन आई डब्ल्यू, सी वाई डी, जबलपुर.
(12) शंखनाद (राष्ट्रीय गीत)    राष्ट्रीय पृष्ठभूमि पर केन्द्रित ओज गीत संग्रह 1999 समय प्रकाशन दिल्ली
(13) चुभन (गजलें)   गजल संग्रह 2000 प्रकाशन मंचदीप जबलपुर
(14) दूल्हा देव  कहानी संग्रह (अधिकांश आंचलिक कहानियां) 2000 समय प्रकाशन दिल्ली
(15) शब्द विहंग (दोहे)   एक हजार दोहों का संग्रह 2001 पाथेय प्रकाशन जबलपुर
(16) प्रणय ऋचाएं (गीत)  श्रंगार गीत संग्रह 2000 पाथेय प्रकाशन जबलपुर
(17) कांटे हुए किरीट (काव्य)  व्यंग्य गीत संग्रह 2001 कांटे हुए किरीट म.प्र.आंचलिक साहित्यकार परिषद.
(18) करूणा यज्ञ पशु-पक्षी, जीव-जन्तु पर्यावरण एवं गोरक्षा पर केन्द्रित काव्यकृति 2001 श्री कृष्ण गोपाला जीव रक्षा केन्द्र दुर्ग, छत्तीसगढ.
(19) हिन्दी तुझे प्रणाम  हिन्दी भाषा की दशा-दिशा एवं संवर्धन की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित काव्य संग्रह 2003 अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद.
(20) कसक (गजलें)  गजल संग्रह 2003 अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद.
(21) शिकन (गजलें)   गजल संग्रह 2004 अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद.
(22) हिरण सु्रगंधों के (नवगीत)   नवगीत संग्रह
(23) घुटन  गजल संग्रह
(24) हम जंगल के अमलतास नवगीत संग्रह
(25) अक्कड बक्कड  बाल गीत
(26) मां ममता की मूर्ति          गीत संग्रह
(27) सांई की लीला अपार       गीत संग्रह
(28) अटकन चटकन  बाल गीत
(29)  यादों के लाक्षागृह  नवगीत संग्रह
(30)  चहकते चितचोर  बालगीत संग्रह
(31)  गीत ये पीरी पही के  जनगीत संग्रह
(32)  गरजते शिला खण्ड  व्यंग्य संग्रह
(33)  मृग तृष्णा   लघुकथा संग्रह
(34)  संशय के संग्राम  खण्ड काव्य
(35)  गागर में सागर  हाकु काव्य
(36)  भक्ति की भागीरथी   भक्ति गीत संग्रह
(37)  सृजन सोपान  गद्य आलेख
(38) संस्कृतियों के सेतु   चिन्तन आलेख संग्रह
(39) अटकन चटकन  बाल गीत संग्रह
(40)  अक्कड़ बक्कड़  बाल गीत संग्रह
इसके अतिरिक्त पाँच हजार दोहे अभी भी अप्रकाशित हैं ।

संपादन –
(1)  मधुसंचय    जबलपुर के कवियों की रचनाओं का संकलन
(2)  मानस मंदाकिनी  गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व पर केन्द्रित स्मारिका
(3)  गौरवान्विता   कादम्बिनी क्लब जबलपुर की स्मारिका
(4)  यशस्विनी कादम्बरी के साहित्यकार/पत्रकार सम्मान समारोह की स्मारिका
(5)  धरोहर    काव्य संकलन
(6)  विरासत   काव्य संकलन
(7)  अमानत   काव्य संकलन
(8)  सौगात    काव्य संकलन
(9)  दीपशिखा    त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका

विशेष
शताधिक पुस्तकों की समीक्षा तथा अनेक पुस्तकों की भूमिका लेखन ।

कैसिट्स –
(1)  ह्यूमन वेलफेयर एण्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन इन्दौर द्वारा रक्षा कवच के गीतों का कैसिट ।
(2)  श्री अजय पाण्डेय राष्ट्रीय अध्यक्ष मानवाधिकार समिति द्वारा बनवाया गया राष्ट्रीय रचनाओं का कैसिट ‘दुर्गावती‘    श्रीमती सोनिया गांधी अ.भा.राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा लोकार्पित ।
(3)  लगभग एक दर्जन लोक गायकों के कैसिटों में लोकगीत सम्मिलित ।
(4)  श्री आशोक गीते खण्डवा द्वारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक ‘अभिव्यक्ति‘ का प्रकाशन ।
(5)  परिक्रमा संस्था जबलपुर द्वारा सन् 2003 के लिए कराये गये एक गुप्त सर्वेक्षण में जबलपुर के दस चर्चित व्यक्तित्वों में सम्मानित।
(6)  क्राइस्ट चर्च व्यापस सीनियर सेकेन्डरी स्कूल के तीन छात्रों द्वारा लघु शोध पत्र ।
(7)  कुसुम महाविद्यालय सिवनी मालवा एम.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा द्वारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोध कार्य संपन्न
(8)  पी.एच.डी. के अनेक शोध प्रबन्धों में संदर्भ ।
(9)  कुरूक्षेत्र विश्व विद्यालय से दोहों पर एम.फिल. (हिसार से राजकुमार द्वारा)
(10) कामराज युनिवर्सिटि से नवगीत पर एम.फिल. प्रारंभ (छात्रा निर्मला मलिक द्वारा, निदेशक ्रडाॅ. राधेश्याम शुक्ल)
(11) डॉ ओंकार नाथ द्विवेदी के निर्देशन में, प्रियंका श्रीवास्तव द्वारा सुल्तानपुर से महाकाव्य दधीचि पर पी..एच.डी. प्रारंभ

शताधिक सम्मान – अलंकरण (कुछ प्रमुख) 

1)  कहानी ‘दूल्हादेव‘ के लिये म.प्र.आंचलिक साहित्यकार परिषद की ओर से स्व. श्री रामेश्वर शुक्ला अंचल की अध्यक्ष्ता में मुख्य  अतिथि कादम्बिनी के पूर्व संपादक श्री राजेन्द्र अवस्थी द्वारा स्व. नर्मदा प्रसाद खरे स्मृति सम्मान 1000 रू. नगद।
(2)  दोहा संग्रह ‘शब्दों के संवाद‘  पर अखिल भरतीय संस्था अभियान द्वारा ‘भाषा भूषण‘ अलंकरण एक हजार रूपये के पुरस्कार।
(3)  दधीचि महाकाव्य पर स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट‘ बिलहरवी की स्मृति में ‘महाकवि निराला सम्मान‘ मुख्य अतिथि डॉ राममूति त्रिपाठी द्वारा।
(4) दधीचि महाकाव्य पर ‘गुजरात हिन्दी विद्यापीठ‘ की ओर से मुख्य अतिथि महामहिम राज्यपाल श्री सुन्दर सिंह भण्डारी द्वारा ‘हिन्दी गरिमा सम्मान‘ (ताम्रपत्र)
(5) 1999 की सर्वश्रेष्ठ पद्यकृति ‘दधीचि‘ के लिए अ.भा. अभियान संस्था जबलपुर द्वारा ‘दिव्य‘ अलंकरण ‘हिन्दी रत्न‘ एवं पाँच हजार रूपये ।
(6)  ‘मंचदीप‘ जबलपुर की ओर से ‘दधीचि‘ महाकाव्य पर पद्म श्री गोपाल दास नीरज सम्मान 11000 रूपये एवं भव्य अलंकरण स्वयं नीरज जी के कर कमलों से ।
(7) अखिल भारतीय साहित्यकार कल्याण मंच रायबरेली द्वारा कहानी संग्रह ‘दूल्हा देव‘ पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान मुख्य अतिथि डॉ गिरिजाशंकर त्रिवेदी संपादक नवनीत (मुम्बई) द्वारा ।
(8) डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय अस्मिता दर्शी साहित्य अकादमी उज्जैन (म.प्र.) द्वारा दधीचि महाकाव्य पर ‘डॉ. अम्बेडकर सम्मान‘ अध्यक्ष डॉ. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी एवं मुख्य अतिथि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा ।
(9) म.प्र.आंचलिक साहित्यकार परिषद के सप्तम अधिवेशन हर्रई जागीर में दधीचि महाकाव्य पर श्रीमती राधा सिंह संस्कृति सम्मान 1100 रू. मुख्य अतिथि डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी द्वारा ।
(10) अ.भा. साहित्य कला मंच मुरादाबाद द्वारा समग्र लेखन पर स्व. सतीश चन्द्र अग्रवाल स्मृति सम्मान साहित्य श्री 2100 रू. डॉ. विश्वनाथ शुक्ल द्वारा ।
(11) अ.भा. सृष्टि समाकलन समिति जालौन (उ.प्र.)द्वारा महाकाव्य दधीचि पर ‘काव्य किरीट‘ सम्मान ।
(12) शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदा पुरम (म.प्र.) द्वारा महाकाव्य दधीचि पर ‘पं. राधेलाल शर्मा हिामंशु‘ सम्मान ।
(13) 4 मई, 2003 को साहित्य, संस्कृति कला संगम अकादमी परियावा प्रताप गढ द्वारा समग्र लेखन पर ‘विद्यावाचस्पति‘ मानदोपाधि ।
(14) हिन्दी प्रचारिणी समिति छिन्दवाडा द्वारा सारस्वत सम्मान ।
(15) साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था छिन्दवाडा द्वारा महाकाव्य दधीचि के लिए सम्मानित ।
(16) यू.एस.एम. पत्रिका तथा युवा साहित्य मंडल गाजियाबाद के वार्षिकोत्सव पर त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल डाॅ माता प्रसाद एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल बी सत्यनारायण रेड्डी द्वारा वरिष्ठ साहित्य सेवी सम्मान ।
(17) श्री ऋषिकेश सेवाश्रम (धर्माधिष्ठान) अलीगढ द्वारा धर्मनिष्ठ सम्मानोपाधि ।
(18) आपदा प्रबंधन संस्थान भोपाल एवं संवाद सोसायटी फार एडवोकेसी एण्ड डेवलपमेंट जबलपुर द्वारा भूकम्प त्रासदी पर लिखित काव्यकृति ‘बजे नगाडे काल के‘ पर प्रशस्ति पत्र ।
(19) 1999 में ध्रुव प्रकाशन अहमदाबाद द्वारा श्रेष्ठ सृजन हेतु सारस्वत सम्मान ।
(20) म.प्र.लेखक संघ बैतूल (म.प्र.) द्वारा 16.4.2001 को ‘काव्याचार्य‘ सम्मानोपाधि ।
(21) नव सप्तक साहित्य श्रंखला के अंतर्गत प्रथम काव्यसप्तक के लिए चयनित एवं उसमें प्रकाशन के लिए उद्योग नगर गाजियाबाद द्वारा गौरवशाली रचनाकार के रूप् में सम्मानित ।
(22) माण्डवी प्रकाशन गाजियाबाद द्वारा काव्यकृति ‘कांटे हुए किरीट‘ के लिए ‘निर्मला देवी साहित्य स्मृति‘ सम्मान ।
(23) अ.भा.कवि सम्मेलन संयोजन समिति हाथरस द्वारा ‘काव्य प्रसून‘ सम्मान ।
(24) इंडियन फिजिकल सोसायटी सेन्ट्रल जोन द्वारा मनोरोग एवं चिकित्सा शिक्षा विषयक काव्यकृति ‘रक्षा कवच‘ के लिए सम्मानित ।
(25) सन् 2002 में ऋतंभरा साहित्यिक मंच कुम्हारी (छत्तीसगढ) द्वारा उत्कृष्ट काव्य धर्मिता के लिए सम्मानित ।
(26) कला साहित्य एवं उल्लेखनीय समाज सेवा के लिए साहित्यिक  संस्था खजुरी कला (भोपाल) द्वारा ‘दर्पण सृजन श्री‘ सम्मान ।
(27) अ.भा.साहित्यकार कल्याण मंच रायबरेली द्वारा वर्ष 2001 में दधीचि महाकाव्य पर ‘‘सूफी संत कवि जायसी सम्मान‘‘।
(28) साहित्यिक सांस्कृतिक क्रीडा एवं समाज सेवी संस्था जबलपुर द्वारा साहित्य सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवा के लिए ‘हरिशंकर परसाई‘ सम्मान ।
(29) मानव सेवा संस्थान, भोपाल द्वारा 1998 में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए ‘साहित्य श्री‘ सम्मान एवं 252 रू. नगद।
(30) अमेरिकन बायोगाफिकल संस्था द्वारा राशि भुगतान करने की शर्त का विरोध करने के बाद भी रिसर्च बोर्ड की मानद सदस्यता प्रदत्त ।
(31) अ.भा. साहित्य परिषद बालाघाट द्वारा प्रशस्ति पत्र प्रदत्त ।
(32) संस्कार भारती राष्ट्रीय संगोष्ठी मेरठ प्रान्त द्वारा ‘संस्कार भारती सम्मान 2001.
(33) महावीर सेवा संस्थान कादीपुर, प्रतापगढ द्वारा दोहा संग्रह शब्दों के संवाद के लिए हिन्दी दिवस 1999 को ‘‘साहित्य शिरोमणि‘‘ सम्मान।
(34) 10 नवम्बर 2002 को भारती परिषद प्रयाग द्वारा उ.प्र. के विधान सभाध्यक्ष पं. केशरी नाथ त्रिपाठी के जन्मोत्सव पर श्रेष्ठ साहित्य सृजन के लिए सम्मानित ।
(35) संस्कार भारती शिक्षण संस्थान विक्रमपुर सुल्तानापुर द्वारा सुदीर्घ, उत्कृष्ठ सृजन साधना के लिए ‘बाबा पुरूषोत्तम दास स्मृति हस्त्राब्दि प्रतिभा सम्मान 2001.
(36) श्री राज राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी मंदिर पवई, अमरपुर की ओर से माननीय श्री विश्वनाथ दुबे नगर निगम जबलपुर एवं गृह मंत्री श्री रघुवंशी द्वारा ‘सप्तर्षि सम्मान‘.
(37) पाथेय प्रकाशन जबलपुर द्वारा पाथेय श्री अलंकरण ।
(38) 24 दिसम्बर, 2001 को म.प्र. लेखक संघ जबलपुर द्वारा पत्रकार ‘स्व. हीरालाल गुप्त स्मृति समारोह में सम्मानित ।
(39) उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दैनिक सी. टाइम्स जबलपुर की ओर से परम पूज्य शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी द्वारा प्रशस्ति पत्र ।
(40) विमल स्मृति संस्था एवं आदर्श महिला मण्डल सीहोर द्वारा 6 जून, 2001 को उत्कृष्ट एवं प्रचुर साहित्य सृजन के लिए सम्मानित ।
(41) कहानी सग्रह दूल्हादेव पर नर्मदा अभियान द्वारा श्रीनाथ द्वारा राजथान से ‘‘हिन्दी भूषण‘‘ सम्मान ।
(42) सरिता साहित्य परिषद सहिनवां सुलनपुर द्वारा ‘कीर्ति भारती‘ (सर्वोच्च) सम्मान ।
(43) साहित्य साधना परिषद मैनपुरी द्वारा समग्र लेखन पर 20.02.05 को ‘‘कौशलो देवी अग्रवाल सम्मान‘‘ ।
(44) अखिल भारतीय साहित्य संस्कृति कला संगम अकादमी परियावा (प्रतापगढ) द्वारा समग्र लेखन पर ‘विद्यावारिधि‘ मानद उपाधि 2005.
(45) जन पत्रकार संघ नई दिल्ली द्वारा अभिनन्दन 2005.
(46) खानकाह सूफी दीदार शाह चिश्ती संस्था द्वाराा मध्यप्रदेश काव्य रत्न सम्मान 2005.
(47) डॉ. राम निवास ‘मानव‘ अभिनन्दन समिति हिसार (हरियाणा) द्वारा साहित्य शिरोमणि सम्मान.
(48) कांटे हुए किरीट पर ‘दुष्यंतसम्मान‘ खानकाह सूफी दीदार शाह चिश्ती हाजी मलंग शाह बाडी बी ओ बाडी पो. कल्याण 42130 ठाणे द्वारा 2.10.2005 को ।
(49) अखिल भारतीय साहित्य परिषद (कोटा इकाई) राजस्थान द्वारा डाॅ महेन्द्र सम्मान 2005.
(50) भारत भारती संस्थान गुना द्वारा स्वर्ण जयन्ती सृजनधर्मी सम्मान 2005.
(51) हिन्दी भाषा कुंभ दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा बैंगलोर द्वारा सम्मनित 2006.
(52) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा मथुरा अधिवेश में ‘वाग्विदांवर‘ सम्मान 6 अगस्त 2006 को ।
(53) मध्यप्रदेश हिन्दी  लेखक संघ भोपाल द्वारा वर्ष 2006 का ‘अक्षर आदित्य‘ सम्मान 2100 रूपये ।
(54) म.प्र. तुलसी साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा वर्ष 2005 के लिए ‘तुलसी सम्मान‘ 1100 रूपये ।
(55) डॉ. चित्रा चतुर्वेदी द्वारा अपने पिता न्यायमूर्ति स्व. ब्रज किशोर चतुर्वेदी की स्मृति में स्थापित तुलसी सम्मान वर्ष 2006.
(56) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा विधावागीश सम्मान 2006.
(57) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान 2007.
(58) कवि ‘‘रत्न‘‘ सम्मान भारती परिषद प्रयाग 2007.
(59) विद्यावारिधि (मानद) साहित्य प्रभा शिखर सम्मान 2007 देहरादून ।
(60) हिन्दी साहित्य सम्मेलन  कटक (उडीसा) 24 जून, 2007 ‘‘सारस्वत संस्तन‘‘ सम्मान ।
(61)  हिन्दी भाशा सम्मेलन पटियाला द्वारा 18 अपे्रल, 2010 को ‘‘साहित्य भूशण अलंकरण ।
(62)  14 सितंबर, 2010 को प्रतिभा सम्मेलन समारोह समिति गढा जबलपुर द्वारा गढा गौरव सम्मान ।
(63)  विक्रमशिला विश्वविद्यालय गांधीनगर ईशुपुर (भागलपुर) द्वारा ‘विद्यासागर‘ मानद उपाधि ।

आचार्य भगवत दुबे
प्रकाशन – बहुचर्चित दधीचि (महाकाव्य) एवं दूल्हादेव (कहानी संग्रह)
सहित काव्य विधा की तेईस कृतियां प्रकाशित । देश की शताधिक पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
संपादन – मधुसंचय, धरोहर,अमानत, विरासत, सौगात एवं उपलब्धि काव्य संग्रह तथा त्रैमासिक  दीपशिखा के साथ ही मानस मंदाकिनी एवं कादम्बरी (स्मारिका) का प्रतिवर्ष संपादन ।
विशेष  – तीन लघु शोध पत्र, दो एम फिल संपन्न एवं पी.एच.डी., संपन्नता की ओर ।
सम्मान – देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान एवं उपाधियां/ अलंकार ।

  • अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के प्रोत्साहन पर रचित आलेख – हेमन्त बावनकर 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ असम की आहोम जनजाति ☆ – सुश्री निशा नंदिनी 

सुश्री निशा नंदिनी 

☆ असम की आहोम जनजाति ☆

(आज प्रस्तुत है सुदूर पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी का आलेख। यह आलेख असम की आहोम जनजाति जो कि मूल रूप से ताई जाति से संबद्ध हैं के बारे में बेहद रोचक  जानकारी  प्रदान करता है । )  

अहोम लोग मूल रूप से ताई जाति के लोग हैं। असम में आने के बाद से ही उन्हें आहोम नाम से संबोधित किया गया। इन लोगों का मूल निवास स्थान चीन के दक्षिण पश्चिम अंचल, वर्तमान में  यूनान प्रांत के मूंगमाउ राज्य में था। इन लोगों को ताई लोगों के बीच बड़े गुट के तौर पर जाना जाता है। इन लोगों के पूर्वज 13वीं शताब्दी में चुकाफा राजा के नेतृत्व में पाटकाई पर्वत पार कर पूर्वी असम या तत्कालीन सौमार में आए और राज्य की स्थापना की। बाद में धीरे धीरे पश्चिम की तरफ मनाह तक राज्य का विस्तार कर 600 वर्षों से अधिक समय तक राज्य का शासन किया। इन लोगों की भाषा ताई या शान थी। लेकिन कालक्रम में विभिन्न वजहों से खास तौर पर राज्य विस्तार के साथ देश की जनसंख्या में वृद्धि होने पर प्रजा की सुविधा के बारे में सोच कर उन लोगों ने अपनी भाषा की जगह असमीया भाषा को स्वीकार कर लिया। लेकिन प्राचीन पूजा पाठ, रीति नीति संबंधी समस्त कार्य उनके पंडित पुरोहित ताई भाषा में ही करते रहे और आज भी कर रहे हैं। इसी तरह राज्य के कार्य में भी 18 वीं शताब्दी तक आहोम भाषा का प्रचलन था। वर्तमान समय में ताई भाषा बोलने वाले लोगों कीसंख्या

पूर्वोत्तर भारत के असम से लेकर म्यांमार, दक्षिण चीन, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम तक फैल गई है। आहोम के अलावा असम में खामती, फाके, खामयांग, आइतन और तुकंग नामक पांच ताई जनगोष्ठीयों के लोग रहते हैं। सन 2012-14 के सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान समय में आहोम लोगों की जनसंख्या लगभग 25 लाख है।

वर्तमान समय में उनका निवास स्थान चराईदेव, शिवसागर, डिब्रूगढ़, जोरहाट, गोलाघाट, लखीमपुर, धेमाजी और तिनसुकिया जिले में है। इसके अलावा गुवाहाटी सहित अन्य शहरों में भी काफी मात्रा में आहोम  लोग रहते हैं। इनकी मुख्य जीविका शालि धान की खेती थी। इसके साथ ही वे गाय, भैंस, सूअर, बकरी, मुर्गी का पालन भी करते थे। आजकल काफी लोगों ने जीव जंतु पालना छोड़ दिया है। पुरुष रेशम के कीट का पालन करते हैं और महिलाएं एंडी, मुगा, रेशम कीट का पालन करती हैं। सूत कातकर घर में ही वे जरुरी कपड़े का इंतजाम करती हैं। साग सब्जी की बाड़ी, केले सुपारी का बगीचा, एक लकड़ी की बाड़ी (घर) आहोम लोगों के निवास स्थान का स्वाभाविक मंजर होता है। जिनके पास जमीन है वे घर के परिसर में ही खेती करते हैं। वर्तमान समय में चाय की खेती भी कर रहे हैं।

पहले ये लोग मचान घर में रहते थे। जिनके खंभे लकड़ी के और दीवारें बांस की होती थीं और फूस का छप्पर होता था। घर के दो हिस्से होते थे। एक बड़ा घर और एक अतिथि घर। बड़े घर में एक रसोई होती थी और बाकी कमरों का उपयोग स्त्रियों के शयनकक्ष के रूप में किया जाता था। अतिथि घर का उपयोग अतिथियों के बैठने और रहने के लिए किया जाता था। प्रत्येक घर के साथ एक मवेशी घर भी अवश्य होता था। लेकिन आजकल सबके पास पक्के मकान हैं। आहोम लोगों का मुख्य भोजन भात है। भात के साथ स्वादिष्ट व्यंजन पकाना उनकी एक संस्कृति है। अक्सर वे लोग एक खट्टा साग या किसी दाल का व्यंजन विभिन्न सब्जियों, मछली या मांस आदि को भूनकर या उबालकर खाना पसंद करते हैं।

आहोम लोग दैनिक जीवन में जिन पेय पदार्थों का उपयोग करते हैं। उसका नाम है लाउ या साज। अक्सर लाही और बड़ा चावल को मिश्रित कर उबाल कर उसके साथ हूरपीठा को मिलाकर लाउ तैयार किया जाता है। काली चाय भी मुख्य पेय पदार्थ है।

आहोम लोग पूर्वजों की अवस्थिति पर विश्वास करते हैं। पूर्वजों की पूजा आराधना करना उनका प्रधान धर्म है। मृत माता पिता सहित 14 पुरखों को डाम के तौर पर मानकर विभिन्न अवसरों पर पूजा करते हैं। इन सभी पूजा में जीव का उत्सर्ग किया जाता है और ताई भाषा में स्तुति की जाती है। वैष्णव धर्म ग्रहण करने के बाद से यह पूजा आराधना सिर्फ पंडितों के बीच ही रह गई है।

आहोम लोगों के लिए विवाह वंश रक्षा के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण मांगलिक अनुष्ठान है। ये लोग सकलंग और देऊबान पद्धति से विवाह संपादित करते हैं। इन लोगों का शब्दकोश, इतिहास, आख्यान, नीतिशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, पूजा विधि आदि आहोम भाषा में रचित कई भोजपत्र ग्रंथ मौजूद हैं।

आहोम लोगों की संस्कृति अनूठी है। कृषि, स्थापत्य, शिल्पकला, रेशम और बुनाई शिल्प, पोशाक, अलंकार, खाद्य प्रस्तुति, विश्वास अविश्वास आदि का असमीया संस्कृति के सभी पहलुओं पर आहोम लोगों का सांस्कृतिक प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर शालि खेती का प्रचलन, पौद की सहायता से धान रोपना, गोटिया भैंस की मदद से हल जोतना, पगडंडी बनाकर खेत में सिंचाई की व्यवस्था करना, डिब्बे में बीज भरकर रखना इत्यादि। कई पहलुओं पर उनकी संस्कृति का प्रभाव असमीया संस्कृति में मौजूद है।

धन जन सहित असम को एक शक्तिशाली देश के हिसाब से निर्मित करने और यहां रहने वाले सभी लोगों को एक शासन के अधीन लाने में एक असमीया जाति के हिसाब से निर्मित करने के अलावा असम में रहने वाली विभिन्न जातियों और जनजातियों के बीच संपर्क भाषा के तौर पर असमीया भाषा का प्रचलन करने में आहोम लोगों का योगदान अतुलनीय है।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 
तिनसुकिया,असम

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ बिन पानी सब सून ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

☆ बिन पानी सब सून ☆ 

(श्री संजय भारद्वाज जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।   जल से संबन्धित शायद ही ऐसा कोई तथ्य शेष हो जिसकी व्याख्या  श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा इस लेख में न की गई हो। e-abhivyakti आपसे भविष्य में ऐसी और भी रचनाओं की अपेक्षा करता है।)

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही  सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है।  कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है।  यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।

पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है।  पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष  सारा जल  अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती  शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है।  सुभाषितकारों ने भी जल को  पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।’

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है।  वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते  कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु  के साथ माँ या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’  की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज  पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी  प्यास  बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों में होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह  का विराट दर्शन था।  कालांतर में  सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने  की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं।  बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहाँ से दूर का न देख पाने की बीमारी-‘मायोपिआ’ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि  सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।

पर्यावरणविद  मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।  प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि  से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि  सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को माँ कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है।  गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियाँ अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।

आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर  नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गाँवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे  हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै। ऐसेे प्रयासों को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।

रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत्‌ में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है।  पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा!  महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू)  खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी।

इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता कहती है-

 

आदमी की आँख का

जब मर जाता है पानी,

खतरे का निशान

चढ़ जाता है पानी।

आदमी की आँख में

जब भर आता है पानी,

खतरे के निशान से

उतर जाता है पानी।

 

बेहतर होगा कि हम समय रहते आसन्न खतरे से चेत जाएँ।

 

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे

मोबाइल 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा

(हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदापर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

 

*हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा पर आपको एवम् आपके परिवार को ढेर  सारी हार्दिक शुभकामनाएं*

*चैत्र शुक्ल प्रतिपदा,*
*विक्रमी संवत् २०७६*
*सृष्टि संवत् १९६०८५३१२० वर्ष*
*दिनांक – ६ अप्रैल शनिवार २०१९ ई.
*सनातन महत्व-*
  1. सृष्टि संवत्
  2. मनुष्य उत्पत्ति संवत्
  3. वेद संवत्
  4. देववाणी भाषा संवत्
  5. सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति संवत्
*ऐतिहासिक महत्व -*
  1.    विक्रम संवत्
  2.    शक संवत्
  3.    आर्य सम्राट विक्रमादित्य जन्मदिवस
  4.    युधिष्ठिर राज्याभिषेक दिवस
  5.    आर्यसमाज स्थापना दिवस

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष प्रारंभ होता है। इसी दिन सूर्योदय के साथ सृष्टि का प्रारंभ परमात्मा ने किया था। अर्थात् इस दिन सृष्टि प्रारंभ हुई थी तब से यह गणना चली आ रही है।

यह नववर्ष किसी जाति, वर्ग, देश, संप्रदाय का नहीं है अपितु यह मानव मात्र का नववर्ष है। यह पर्व विशुद्ध रुप से भौगोलिक पर्व है। क्योकि प्राकृतिक दृष्टि से भी वृक्ष वनस्पति फूल पत्तियों में भी नयापन दिखाई देता है। वृक्षों में नई-नई कोपलें आती हैं। वसंत ऋतु का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। मनुष्य के शरीर में नया रक्त बनता है। हर जगह परिवर्तन एवं नयापन दिखाई पडता है। रवि की नई फसल घर में आने से कृषक के साथ संपूर्ण समाज प्रसन्नचित होता है। वैश्य व्यापारी वर्ग का भी आर्थिक दृष्टि से यह महीना महत्वपूर्ण माना जाता है। इससे यह पता चलता है कि जनवरी साल का पहला महीना नहीं है पहला महीना तो चैत्र है, जो लगभग मार्च-अप्रैल में पड़ता है। १ जनवरी में नया जैसा कुछ नहीं होता किंतु अभी चैत्र माह में देखिए नई ऋतु, नई फसल, नई पवन, नई खुशबू, नई चेतना, नया रक्त, नई उमंग, नया खाता, नया संवत्सर, नया माह, नया दिन हर जगह नवीनता है। यह नवीनता हमें नई ऊर्जा प्रदान करती है।
नव वर्ष को शास्त्रीय भाषा में नवसंवत्सर (संवत्सरेष्टि) कहते हैं। इस समय सूर्य मेष राशि से गुजरता है इसलिए इसे *”मेष संक्रांति”* भी कहते हैं।
प्राचीन काल में नव-वर्ष को वर्ष के सबसे बड़े उत्सव के रूप में मनाते थे। यह रीत आजकल भी दिखाई देती है जैसे महाराष्ट्र में गुडीपाडवा के रुप में मनाया जाता है तथा बंगाल में पइला पहला वैशाख और गुजरात आदि अनेक प्रांतों में इसके विभिन्न रूप हैं।
नववर्ष का प्राचीन एवं ऐतिहासिक महत्व-
  1. आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही परम पिता परमात्मा ने १९६०८५३१२० वर्ष पूर्व यौवनावस्था प्राप्त मानव की प्रथम पीढ़ी को इस पृथ्वी माता के गर्भ से जन्म दिया था। इस कारण यह “मानव सृष्टि संवत्” है।
  2. इसी दिन परमात्मा ने अग्नि वायु आदित्य अंगिरा चार ऋषियों को समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल रूप में संदेश क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में दिया था। इस कारण इस वर्ष को ही वेद संवत् भी कहते हैं।
  3. आज के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त कर वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई थी। (ज्ञातव्य है कि भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक चैत्र शुक्ल षष्ठी को हुआ था ना की प्रतिपदा अथवा दीपावली पर) (विजयादशमी व दीपावली का श्रीराम से कोई संबंध नहीं है देखे श्रीमद् वाल्मीकि रामायण)।प0
  4. आज ही से कली संवत् तथा भारतीय विक्रम संवत् युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ होता है।
  5. आज ही के शुभ दिन विश्व वंद्य अद्वितीय वेद द्रष्टा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संसार में वेद धर्म के माध्यम से सब के कल्याणार्थ “आर्य समाज” की स्थापना की थी। इसी भावना को ऋषि ने आर्य समाज के छठे नियम में अभिव्यक्त करते हुए लिखा *”संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना”*
         महानुभावों! इन सब कारणों से यह संवत् केवल भारतीय या किसी पंथ विशेष के मानने वालों का नहीं अपितु संपूर्ण विश्व मानवों के लिए है।
आइए! हम सार्वभौम संवत् को निम्न प्रकार से उत्साह पूर्वक  मनाएं -*
  1. यह संवत् मानव संवत् है इस कारण  हम सब स्वयं को एक परमात्मा की संतान समझकर मानव मात्र से प्रेम करना सीखें। जन्मना ऊंच-नीच की भावना, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता, संकीर्णता आदि भेदभाव को पाप मानकर विश्वबंधुत्व एवं प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव जगाएं। अमानवीयता व दानवता का नाश तथा मानवता की रक्षा का व्रत लें।
  2. आज वेद संवत् भी प्रारंभ है। इस कारण हम सब अनेक मत पंथों के जाल से निकलकर संपूर्ण भूमंडल पर एक वेद धर्म को अपनाकर प्रभु कार्य के ही पथिक बनें। हम भिन्न-भिन्न समयों पर मानवों से चलाए पंथों के जाल में न फसकर मानव को मानव से दूर न करें। जिस वेद धर्म का लगभग २ अरब वर्ष से सुराज्य इस भूमंडल पर रहा उस समय (महाभारत से पूर्व तक) संपूर्ण विश्व त्रिविध तापों से मुक्त होकर मानव सुखी समृद्धि व आनंदित था। किसी मजहब का नाम मात्र तक ना था। इसलिए उस वैदिक युग को वापस लाने हेतु सर्वात्मना समर्पण का व्रत लें। स्मरण रहे धर्म मानव मात्र का एक ही है, वह है वैदिक धर्म।
  3. वैदिक धर्म के प्रतिपालक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की विजय दिवस पर हम आज उस महापुरुष की स्मृति में उनके आदर्शों को अपनाकर ईश्वर भक्त, आर्य संस्कृति के रक्षक, वेद भक्त, सच्चे वेदज्ञ गुरु भक्त, मित्र व भातृवत्सल, दुष्ट संहारक, वीर, साहसी, आर्य पुरुष व प्राणी मात्र के प्रिय बने। रावण की भोगवादी सभ्यता के पोषक ना बनें।
  4. आज राष्ट्रीय संवत् पर महाराज युधिष्ठिर विक्रमादित्य आदि की स्मृति में अपने प्यारे आर्यावर्त भारत देश की एकता अखंडता एवं समृद्धि की रक्षा का व्रत लें। राष्ट्रीय स्वाभिमान का संचार करते हुए देश की संपत्ति की सुरक्षा संरक्षा के व्रति बनें। जर्जरीभूत होते एवं जलते उजड़ते देश में इमानदारी, प्राचीन सांस्कृतिक गौरव, सत्यनिष्ठा, देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता व वीरता का संचार करें।
  5. आज आर्य समाज स्थापना दिवस होने के कारण *”कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”* वेद के आदेशानुसार सच्चे अर्थों में आर्य बनें एवं संसार को आर्य बनाए न की नामधारी आर्य। आर्य शब्द का अर्थ है- सत्य विज्ञान  न्याय से युक्त वैदिक अर्थात ईश्वरीय मर्यादाओं का पूर्ण पालक, सत्याग्रही, न्यायकारी, दयालु, निश्छल, परोपकारी, मानवतावादी व्यक्ति। इस दिवस पर हम ऐसा ही बनने का व्रत लें तभी सच्चे अर्थों में आर्य (श्रेष्ठ मानव) कहलाने योग्य होंगे। आर्यत्व आत्मा व अंतःकरण का विषय है। न कि कथन मात्र का।

 

© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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हिन्दी साहित्य-आलेख *होली पर विशेष – सामाजिक समरसता* डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

होली पर विशेष – सामाजिक समरसता 
प्राचीन काल में आदमी का जीवन पूरी तरह प्रकृति से जुड़ा था ।यही वह समय था , जब उसने  ऋतुओं का धूमधाम से स्वागत करने की परम्परा कायम की ओर इसकी एक पुरातन कड़ी है होली । यह संधि  ऋतु यानी सर्दी के जाने और गर्मी के आने का पर्व है । नये धान्य की आगवानी का उल्लास पर्व है होली । इसकी आहट तो वसंत के आगमन से होने लगती है । आज के युग में मनुष्य दिनों दिन प्रकृति से दूर होता जा रहा है तथा पर्यावरण के रक्षक जंगलों को मनुष्य अपने स्वार्थ की खातिर काटकर जगह जगह कांक्रीट के जंगल बढ़ाता जा रहा है जिससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है ।
प्रकृति से दूर होने पर होली के मायने भी बदल गये हैं । कभी होली कृष्ण के समान ललित मानी जाती थी , परन्तु बदलते हालात के साथ अश्लीलता , अशिष्टता और घिनोनापन जुड़ गया है । पारम्परिक रंग गुलाल , अबीर से होली खेलने के स्थान पर ग्रीस , तारकोल , आइल ,सिल्वरपेन्ट के साथ ही नाली के कीचड़ से होली खेलने वाले बढ़ते जा रहे हैं ।युवतियों के दुपट्टे खींचने और बुजुर्गों की टोपियां उछालकर मजा लेने वाले भी कम नहीं हैं ।
होली जो सामाजिक समरसता का प्रतीक हुआ करती थी, अब बदला लेने के पर्व में तब्दील होती जा रही है । एक दूसरे से दुश्मनी के फलस्वरूप होली की आड़ में  इस दिन किसी पर तेजाब फेंकना या छुरा चाकू के वार से खून की होली खेलने का पर्व होता जा रहा है होली ।सच कहा जाये तो ये तत्व होलिहार हैं ही नहीं, ये हुड़दंगिए हैं, जिनमें वसंत का रस लेने की क्षमता नहीं है । होलिहार तो अपनी शालीन ठिठोली, मस्ती और उल्लास से प्रकृति की मादक अंगड़ाई की मिठास बांटते हैं । प्रेम और सामाजिक मिलन के इस पर्व की महत्वता को बचाने और आगे आने वाली पीढ़ी को इसके वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए  हमारा कर्तव्य है कि हम वैमनस्यता को त्यागकर भाईचारे के साथ होली मनायें ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य – आलेख – * परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई * –श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

हिन्दी आलेख – परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई

(प्रस्तुत है श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी का स्व. हरीशंकर परसाईं  जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक खोजपरख आलेख।)
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 
‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही’ कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की उपरोक्त पंक्तियां हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं । हरिशंकर परसाई अगर चौदहवीं शताब्दी में पैदा होते तो कबीर होते और कबीर यदि बीसवीं शताब्दी में पैदा होते तो हरिशंकर परसाई होते । आजादी के पहले के भारत को जानना हो तो प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए और आजादी के बाद के भारत को जानना हो तो हमें परसाई को पढ़ना होगा । इन मशहूर कथनों से हमें पता चलता है कि परसाई किस परंपरा में आते हैं ?
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ इनके पिता का नाम श्री झूमक लाल परसाई था। माता का नाम श्रीमती चंपाबाई था । पांच भाई बहनों में परसाई जी सबसे बड़े थे ।उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव की प्रायमरी शाला में हुई और मिडिल एवं हाई स्कूल की पढ़ाई टिमरनी हाई स्कूल में  ।1940 में मैट्रिक परीक्षा पास कर कुछ दिन वन विभाग में नौकरी की जहां से जबलपुर आ गये और जुलाई 1943 में मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में शिक्षक हो गये । होशंगाबाद से लेकर जबलपुर तक नर्मदा उनके साथ रहीं । ‘नर्मदा तीरे’ नामक कालम में से ही उनका लेखन प्रारंभ हुआ ।  सुदीप बनर्जी की कविता की पंक्ति है -मैं जहां जहां गया, नदियां मेरे बहुत काम आईं । यही हाल परसाई जी का था । नर्मदा को कुंवारी नदी कहा जाता है परसाई जी भी आजीवन कुंवारे रहे ।
आजादी से मोह भंग की प्रक्रिया हिंदी के रचनाकारों को छठे दशक में शुरू हुई जबकि परसाई जी का मोहभंग आज़ादी के 3 माह बाद ही हो गया था इसी से हम उनकी पैनी दृष्टि का अंदाजा लगा सकते हैं उनकी पहली रचना प्रहरी में 23 नवंबर 1947 को ‘पैसे का खेल ‘शीर्षक से प्रकाशित हुई ।आजाद भारत में जो  पैसे का खेल शुरू हुआ उसे उन्होंने देख लिया था । प्रेमचंद जी ने ‘महाजनी सभ्यता’ लिखी बहुत बाद में किंतु महाजनी सभ्यता के विस्तार से परसाई लिखना प्रारंभ करते हैं ।
आजादी के बाद पनपते पाखंड, अनीति, अनाचार, अत्याचार, शोषण, संप्रदायवाद एवं साम्राज्यवाद के ख़तरों से परसाई जी आजीवन  लड़ते रहे तथा देशवासियों को सतर्क करते रहे । मुक्तिबोध जैसे युग प्रवर्तक कवि से उनकी मित्रता उनके जीवनकाल की अमूल्य निधि थी । खतरा उठा कर भी अभिव्यक्ति देने का संस्कार उन्होंने कबीर और मुक्ति बोध से पाया । मुक्तिबोध के अलावा ग़ालिब ,निराला एवं फ़ैज़ को अत्यधिक पसंद करते थे ।
परसाई जी व्यंग को विधा नहीं मानते थे उनके लेखन को किस खाने में रखा जाए यह बात हमेशा समीक्षकों के लिए समस्या रही है ।इसी तरफ इशारा करते हुये उन्होंने लिखा था- ‘मैं लेखक छोटा हूँ किन्तु संकट बड़ा  हूँ ‘। ‘मैं ‘ को आधार बनाकर जिस तरह उन्होंने अपने ऊपर निर्मम प्रहार किए हैं वैसा साहित्य में दुर्लभ है ।जो व्यंग्य लेखक अपनी आलोचना नहीं कर सकता सिर्फ दूसरों की आलोचना करता है उन पर व्यंग करता है वह सफल व्यंग्यकार नहीं हो सकता । परसाई की रचनाओं में गंभीर चिंतन है । रचना पूरी तरह व्यंग्य  के माहौल में डूबी रहती है पर दैनिक जीवन की वास्तविकतायें  हमारे सामने आती रहती हैं । उदाहरणत: एक स्थान पर भी लिखते हैं –‘हमारे जीवन में नारी को जो मुक्ति मिली है क्यों मिली है ।कैसे मिली आंदोलन से ,आधुनिक दृष्टि से ,उसके व्यक्तित्व की स्वीकृति से -नहीं उसकी मुक्ति का कारण महंगाई है। नारी मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा एक कमाई से पूरा नहीं पड़ता ।’
अपनी खुद की मुफलिसी पर उन्होंने बहुत लिखा है:- ‘वे नेता पर गर्व करते हैं ‘दुख का ताज में लिखते हैं-‘ जिसके पास कुछ नहीं होता, अनंत दुख होता है वह धीरे धीरे शहादत के गर्व के साथ कष्ट भोगता है ।जीने के लिए आधार चाहिए और तब अभाव में यह दुख ही जीवन का आधार हो जाता है ।’
बाबा नागार्जुन ने वाणी ने पाये प्राणदान नामक कविता में उनके व्यंग्य बाणों के बारे में लिखा है –
छूटने लगे अविरल गति से
जब परसाई के व्यंग बाण
सरपट भागे तब धर्मध्वजी
दुष्टों के कम्पित हुए प्राण ।
आईये उनके कुछ व्यंग्य बाणों को भी देख लें—
इज्ज़तदार ऊंची झाड़ की ऊंची टहनी पर दूसरों के बनाए घोसले में अंडे देता है।
दानशीलता, सीधापन, भोलापन असल में इस तरह का इन्वेस्टमेंट है।
सड़ा विद्रोह एक रुपए में चार आने किलो के हिसाब से बिक जाता है ।
धर्म धंधे से जुड़ जाए इसी को योग कहते हैं। अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चाहे बैठता है तब गौ रक्षा आंदोलन के नेता पंडित जूतों की दुकान खोल लेते हैं।
परसाई जी जन जीवन से  जुड़े रचनाकार थे । मेरे समकालीन शीर्षक से लिखते हुए साहित्यकार अपने समय के साहित्यकारों पर लिखते हैं किंतु परसाई ने रिक्शा वाले, पान वाले, चाय वाले को समकालीन लिखा । हजारों हजार छात्रों और नौजवानों ने उनके लेखक एवं सानिध्य से प्रेरणा ली उनके ऊपर जब किसी संस्था वालों ने हमला किया तो बरसते पानी में जबलपुर के 5000 मजदूरों ने जुलूस निकाला और उनके निवास पर उनके प्रति समर्थन व्यक्त करने गए। ऐसी घटना दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र हुई हो ।
उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ मध्य प्रदेश में अग्रणी बनाए रखा और ‘वसुधा’ जैसी पत्रिका का संपादन किया । आवश्यक लिखना, निरंतर लिखना परसाई जी से सीखने की चीज़ है । वे ऐसी विचारधारा को जरूरी मानते हैं  जिसमें जीवन का ठीक विश्लेषण हो सके और निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। इसके बिना लेखक गलत निष्कर्ष का शिकार हो जाता है । वे मानते हैं ,प्रतिबद्धता एक गहरी चीज है जो इस बात से तय होती है इस समाज में जो द्वंद है उनमें लेखक किस तरफ खड़ा है? पीड़ितों के साथ या पीड़कों के साथ । वे मानते हैं जीवन जैसा है उसे बेहतर होना चाहिए ।जो गलत मूल्य हैं उन्हें नष्ट होना चाहिए क्योंकि साहित्य के मूल्य जीवन मूल्यों से बनते हैं ।निश्चित है परसाई के व्यंग शिष्टता का संबंध उच्च वर्गीय मनोरंजन से ना होकर समाज में सर्वहारा की लड़ाई से अधिक है जो आगे जाकर मनुष्य की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है ।वे प्रगतिकामी होने के साथ-साथ मानवता के लिए समर्पित रहे।
© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार 
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- आलेख – * डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार * – श्री अभिषेक वर्धन

डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार – दो काव्य संग्रह लोकार्पित

विद्यालक्ष्मी चैरिटेबल ट्रस्ट तथा एच डी चैरिटेबल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में एस डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, मुजफ्फरनगर के सभागार में विगत 22 दिसंबर 2018 को आयोजित अविस्मरणीय समारोह में डॉ अ कीर्तिवर्धन की दो पुस्तकों “मानवता की ओर” तथा “द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री” (The World of Poetry)  का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ कीर्ति वर्धन जी द्वारा हाइकु शैली में लिखी तथा भारती विश्वनाथन जी द्वारा स्वरबद्ध की गयी सरस्वती वंदना से किया गया।

पुस्तक के विषय में अपनी बात रखते हुये कीर्तिवर्धन जी ने समाज में घटते संस्कारों व सामाजिक मूल्यों के प्रति चिन्ता जाहिर की और बताया कि उनकी कविता भूतकाल से सीखकर वर्तमान के धरातल पर खड़ी होकर भविष्य की चुनौतियों के लिये समाज को तैयार करने का प्रयास है। मानवीय दृष्टिकोण तथा मानवता भारतीय जीवन शैली है, उसके बिना विश्व कल्याण सम्भव नही है। अपनी चार पंक्तियों के माध्यम से उन्होने कहा –

टूटकर   भी   किसी   के   काम   आ जाऊँगा,
मैं पत्ता हूँ,  गल गया तो खाद बन जाऊँगा।
हो सका तो मुझको जलाना ईंधन के वास्ते,
किसी के काम आ सकूँ, खुशी से जल जाऊँगा।

डॉ अ कीर्तिवर्धन की चुनिंदा कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद ‘द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री’ के अनुवादक डॉ राम शर्मा (विभागाध्यक्ष अंग्रेजी जे वी कॉलेज बडौत) के अनुसार कीर्ति जी की कविताएँ सरल, सहज व मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं। आज कीर्ति जी की अंग्रेजी में अनुदित कविताएँ विश्व पटल पर पढी और सराही जाती हैं। श्री रोहित कौशिक जी के अनुसार डॉ कीर्ति वर्धन जी की कविताओं में समाज बदलने की ताकत है। वह आदमी को इन्सान बनने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आशा जताई कि कीर्ति जी समाज को कुछ और भी बेहतर देने में सक्षम होंगे। श्री राजेश्वर त्यागी जी, मेरठ के अनुसार ‘मानवता की ओर’ मानवीय संवेदनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पुस्तक की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते हुये उन्होने कहा कि अपने 52 वर्ष के लेखनकाल में उन्होने मानवीय संवेदनाओं की ऐसी सृजना नही की।

संस्कृत के प्रख्यात विद्वान डॉ उमाकांत शुक्ल जी ने कीर्तिजी की सहृदयता तथा मानवीय दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुये उनकी पूर्व पुस्तकों मुझे इन्सान बना दो, सुबह सवेरे, सच्चाई का परिचय पत्र  में भी उनके मानवतावादी दृष्टिकोण की चर्चा की और आशीर्वाद देते हुये कहा कि कीर्तिवर्धन जी अपनी रचनाओं से समाज में मानवता का परचम फहराते रहेंगे और बच्चों में संस्कारों का रोपण करने में संलग्न रहेंगे। प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉ एस एन चौहान के अनुसार  कीर्तिवर्धन जी अच्छे साहित्यकार के साथ बेहतरीन इंसान भी हैं। उनकी कविताएं इंसानी मूल्यों के प्रति संवेदना, प्रेरणा व स्फूर्ति पैदा करने वाली हैं। उनके अनुसार “मानवता की ओर” एक ऐसी कृति है जो आज के आपाधापी के युग में कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकेंगी।  कीर्तिजी की बुजुर्गों पर केन्द्रित पुस्तक “जतन से ओढी चदरिया” को सराहते हुए उन्होने कहा कि यदि इसको पढा और समझा जाये तो समाज में वृद्धाश्रम की समस्या समाप्त हो जायेगी। डॉ चौहान ने कीर्तिवर्धन जी की रचनाओं के कन्नड, तमिल, मैथिली, नेपाली, अंगिका, तमिल व उर्दू अनुवादों की भी चर्चा की।

साभार श्री अभिषेक वर्धन, मुजफ्फरनगर

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हिन्दी साहित्य- आलेख – * आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी

(प्रख्यात साहित्यकार श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  ‘सेल्फी ‘को  किस दृष्टि से देखते हैं, जरा आप भी देखिये।)  

“स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले  कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.

अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम  फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूँ, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े  और पिताजी के इकलौते बेटे का  बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.

यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल , कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मॉनिटर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.

कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे  कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.

डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है.  ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं . हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये . शायद इस भावना से भी कि सामने वाला  भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.

सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.

जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ  सेल्फी लोड करने  पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं . कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से, तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये  किसी पहाड़ की चोटी,  बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फी लेते किसी की जान न जावें.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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