हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 451 ⇒ || मलाल || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मलाल ||।)

?अभी अभी # 451 ⇒ || मलाल || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां आत्म संतुष्टि होती है, वहां अवसाद प्रवेश नहीं करता। अभाव, इच्छा और आवश्यकता हमें जीवन में सतत कार्यरत रहते हुए आगे बढ़ने में हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती है। सफलता का मार्ग प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा का मार्ग है।

उपलब्धियों और इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। संतुष्टि सफलता के मार्ग में रोड़े अटकाती है और जिद, जुनून तथा असंतुष्टि का भाव हमें अपने गंतव्य तक पहुंचने में मदद करता है।

जीवन के सफर में नीड़ के निर्माण से लगाकर आखरी पड़ाव तक पहुंचने के बीच एक अवस्था ऐसी भी होती है, जब वह कुछ पल रुककर, सुस्ताकर वह सोचता है, मैने जीवन में क्या खोया, क्या पाया। खोने को हम असफलता और पाने को सफलता कहते हैं। पैसा, धन दौलत, अच्छा स्वास्थ्य, मान सम्मान और सुखी परिवारिक और सामाजिक जीवन ही हमारी कसौटी। का मापदंड होता है। ।

जिसे हम विहंगावलोकन कहते हैं, वह एक तरह का आत्म निरीक्षण ही होता है, जीवन में जीत हार, सफलता असफलता और सुख दुख का लेखा जोखा। कहीं हमें अफसोस भी होता है और कहीं अपने आप पर अभिमान भी। आपके अफसोस और रंज के खाते में जो कुछ भी होता है, बस वही तो मलाल होता है।

जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि इल्म अथवा ज्ञान है। इल्म में शिक्षा के साथ साथ हुनर का भी समावेश होता है। जो काम मैं अपने जीवन में परिस्थितिवश नहीं कर पाया, उसमें भाषा प्रमुख है। मातृभाषा हिंदी होने के कारण, कामचलाऊ अंग्रेजी के अलावा मुझे संसार की किसी भाषा का ज्ञान नहीं। मैं ऐसा कैसे कुंए का मेंढक, जिसे हिंदी के अलावा एक भी भारतीय भाषा का ज्ञान नहीं।

काश मेरी मातृभाषा हिंदी के अलावा कुछ और होती। मराठी, गुजराती, उर्दू और संस्कृत का शौक जरूर, लेकिन कभी दो शब्द सीखे नहीं। मैं तो ठीक से मालवी, निमाड़ी अथवा राजस्थानी भी नहीं बोल सकता। ऐसा कैसा हिंदी भासा भासी, हमें सुन सुन आए हांसी। ।

विरासत में परिवार से कोई पेशा नहीं मिला इसलिए कोई हुनर भी हाथ नहीं लगा। ना तो हम डॉक्टर इंजिनियर अथवा शिक्षक ही बन पाए और ना ही कोई नेता, समाज सेवक अथवा एनजीओ। दर्जी, सुतार, व्यापारी अथवा अगर किसान भी होते तो कम से कम अन्नदाता तो कहलाते। मानस जीवन व्यर्थ ही गंवाया, और केवल एक पेंशनधारी करदाता कहलाया।

सीखने की कोई उम्र नहीं होती। हम इस उम्र में कुछ सीखना चाहते भी हैं, तो सुनना पड़ता है, यह भी कोई सीखने की उम्र है। स्मरण शक्ति और नेत्र दृष्टि भी अब क्षीण हो चुकी है, ठीक से सात सुरों की सरगम भी नहीं सीख पाए। जब भी इन कारणों से मन में अफ़सोस, रंज, पछतावा अथवा मलाल होता है, लता मंगेशकर का यह गीत हमारा दामन थाम लेता है ;

जब दिल को सताए गम

तू, छेड़ सखि सरगम

स रे ग म प ध नि स

नि ध प म ग रे स

बड़ा ज़ोर है सात सुरों में

बहते आँसू जाते हैं थम

तू छेड़ सखि सरगम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 450 ⇒ छोटी बहन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छोटी बहन।)

?अभी अभी # 450 ⇒ छोटी बहन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सन् १९५९ में निर्देशक एल.वी.प्रसाद ने एक फिल्म बनाई थी, छोटी बहन, जिसके मुख्य कलाकार थे, बलराज साहनी, नंदा, रहमान, महमूद और शुभा खोटे। इस फिल्म को पांच फिल्मफेयर पुरस्कार मिले थे ;

१)सर्वश्रेष्ठ फिल्म,

२) सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, प्रसाद,

३) सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता महमूद

४) सर्वश्रेष्ठ संगीतकार शंकर जयकिशन

और सबसे ऊपर,

५) सर्वश्रेष्ठ गायिका लता मंगेशकर ;

और वह गीत था, भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना। कहने की आवश्यकता नहीं, ऐसा गीत केवल शैलेंद्र ही लिख सकते थे, और लता से छोटी बहन उस समय शायद संगीत की दुनिया में कोई दूसरी मौजूद थी ही नहीं। लता जी को आज भी लता दीदी यूं ही नहीं कहते।

आज से ६५ वर्ष पुराना गीत अगर आप आज भी सुनें, तो लगता है, यह गीत किसी छोटी बहन द्वारा ही गाया गया है। मेरी छोटी बहनों की उम्र आज ६० वर्ष से ऊपर हो गई, लेकिन इस गीत की तरह, मेरे लिए आज भी वे उतनी ही छोटी और प्यारी भी हैं। ।

आज जब सभी पारिवारिक रिश्ते दम तोड़ते नजर आते हैं, भाई बहन का रिश्ता आज भी क्यों आंखों भिगो देता है, खास कर तब, जब रेडियो पर आज भी गीत बजता है। किसी को बहन का होना अगर खुशी के आंसू लाता है, तो किसी के आंखों में बहन के खोने के आंसू भी आज उमड़ पड़ते हैं। शैलेन्द्र के भाव देखिए ;

ये दिन ये त्यौहार ख़ुशी का

पावन जैसे नीर नदी का

भाई के उजले माथे पे

बहन लगाए मंगल टीका

झूमे ये सावन सुहाना, सुहाना।

बांध के हमने रेशम डोरी

तुम से वो उम्मीद है जोड़ी

नाज़ुक है जो साँस के जैसी

पर जीवन भर जाए ना तोड़ी

जाने ये सारा ज़माना ज़माना। ।

शायद वो सावन भी आए

जो बहना का रंग ना लाए

बहन पराए देश बसी हो

अगर वो तुम तक पहुँच ना पाए

याद का दीपक जलाना, जलाना। ।

भैया मेरे …

लेकिन समय कितना बदल गया है। बच्चे दो या तीन ही अच्छे, से हम दो हमारे दो, तक तो ठीक था, फिर सिंगल चाइल्ड का जमाना आ गया। भाई बहन को तरस रहा है, और बहन भाई को। माता पिता के जाने के बाद एक ही रिश्ता भाई बहन का तो होता है, जो रिश्ता कहला सकता है।

सुख और दुख का हिंडोला है यह जीवन। हवा के साथ पुरानी यादें भी आएंगी, रिश्ते याद आएंगे।

अगर किसी बहन के भाई नहीं है, तो वह सबके पालनहार कृष्ण को तो राखी बांध ही सकती है, लेकिन भाई को भी तो किसी बहन के कांधे की आस होती है। आज तो बस एक ही शब्द कानों में गूंज रहा है;

भैया मेरे…!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 449 ⇒ दास – बोध… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दास – बोध।)

?अभी अभी # 449 ⇒ दास – बोध? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर सबका मालिक एक हुआ, तो हम सब उसके दास हुए। जो अपनी मर्ज़ी का मालिक है, वह किसी का दास नहीं। जिसे अपने कदमों पर सबको झुकाने में मज़ा आता है, उसे मालिक नहीं तानाशाह कहते हैं। शाब्दिक अर्थ को लिया जाए तो दास एक तुच्छ सेवक है। हर भक्त ईश्वर का एक तुच्छ सेवक है, दास है।

ईश्वर के सभी भक्त दास हैं, कबीरदास, सूरदास, रैदास और भगवान राम के तुलसीदास। सभी भक्त समर्थ हैं, रामदास हैं।

दास में अहंकार नहीं, सात्विक अपराध-बोध है,

तभी वह कह पाता है –

प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो !

यही दासबोध है।।

सामंती युगमे दास दासियाँ हुआ करती थीं। कैकई की भी एक दासी थी, जिसके नाम से ही मन थर्रा जाता है। दासों के साथ अच्छा सलूक नहीं किया जाता था। देवदास अगर सिर्फ पारो का दास था तो एक देवदासी आराधना गृह की एक समर्पित दासी।

समय के साथ दास की कालिख घुलने लगी। सभी दास लोकतंत्र में सेवक हो गए। भगवानदास पढ़-लिखकर डॉ भगवानदास हो गए और श्यामसुन्दरदास डॉ श्यामसुंदर दास। अंग्रेजों ने सेवक को सर्वेंट कर दिया तो वे सभी सिविल सर्वेंट हो गए। सर्वेंट अफसर बन गए, तुच्छ-सेवक बाबू-चपरासी बन गए। जनता के सेवक मंत्री बन गए, उदास जनता फिर उनकी दास बन गई, चेरि बन गई।।

दास भक्ति का प्रतीक है, समर्पण की मिसाल है।

हम अगर आज भी अपने अवगुणों के दास हैं, तो ऐसी दास-प्रथा की जंजीरों को तत्काल तोड़ना होगा। हम केवल मात्र परम-पिता परमेश्वर के दास हैं। उनकी शरण मे जाते ही हम अतुलितबलधारी भक्त शिरोमणि दासों-के-दास हनुमान के समान हो सकते हैं। ईश्वर का दास न अन्याय सहता है, न किसी का अपमान करता है। वह सर्व-गुण-सम्पन्न है, समर्थ है, राम का दास है, और यही सच्चे अर्थों में “दास-बोध” है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 97 – देश-परदेश – निरीह प्राणी : गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 97 ☆ देश-परदेश – निरीह प्राणी : गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अभी हाल ही में रिजर्व बैंक ने अपने एक विज्ञापन में गधे जैसे प्राणी का चित्र लगाकर उपयोग किया, तो थोड़ा आश्चर्य भी हुआ कि बैंकों के बैंक (सरदार) रिजर्व बैंक ने गर्दभ का उपयोग किया है, तो अवश्य ही कोई कारण रहा होगा।

आने वाले समय में देश के अन्य बैंक भी गधे से कम ऊंचाई /लम्बाई के जानवर का उपयोग कर इसको एक नई परंपरा बना देंगे। भेड़, बकरी, कुत्ता, बिल्ली जैसे गधे से छोटे दिखने वाले जानवर अन्य बैंकों के विज्ञापन में जल्द दिखने लगेंगे।

अमिताभ बच्चन जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती जब रिजर्व बैंक की नीतियों का प्रचार और जानकारी जनता को देते है, उसी का अनुसरण करते हुए स्टेट बैंक ने भी एक और प्रसिद्ध युवा हस्ती महेंद्र धोनी को अपना प्रचारक बना दिया है। आमिर खान को भी ए यू बैंक ने मीडिया प्रचार के लिए अनुबंधित किया था, लेकिन आमिर खान अधिक दिन तक निजी वक्तव्यों के कारण टिक नहीं पाए।

आज गधे का चयन कर रिजर्व बैंक ने उन सब गधों का मान भी बढ़ा दिया है, जो मानव जाति से है, परंतु समाज उनको गधे की संज्ञा दे चुका हैं। अधिकतर वरिष्ठ अपने कनिष्ठ को पीठ पीछे या कभी कभी सामने भी क्रोध में गधा कह ही देते हैं।

इस विज्ञापन को देखकर हमारे पड़ोस के एक बुजर्ग बोले पहले सकरी गली वाले मोहल्ले में गधे गृह-निर्माण कार्य का सामान आदि ढोने का कार्य करते हुए दिख जाते थे, अब पता नहीं कहां चले गए? दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। हमने भी हंसते हुए कहा, आजकल गधे भी मोबाइल में व्यस्त रहते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रक्षा बंधन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – रक्षाबंधन ??

भाई-बहन के सम्बन्धों का उत्सव मनाने वाला रक्षाबंधन संभवत: विश्व का एकमात्र पर्व है। इस पर्व में बहन, भाई को राखी बांधती है। पुरुष भी परस्पर राखी बांधते हैं। पुरोहित द्वारा भी राखी बांधी जाती है। अनेक स्थानों पर वृक्षों को भी राखी बांधी जाती है। ‘भविष्यपुराण’ के अनुसार इंद्राणी द्वारा निर्मित रक्षा सूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र के हाथों बांधते हुए स्वस्तिवाचन किया था।  रक्षासूत्र का मंत्र है-

येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:

तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल:।

इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवीर महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,(धर्म में प्रयुक्त किए गये थे)  उसी से तुम्हें बांधता हूं। ( प्रतिबद्ध करता हूँ)।  हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। चलायमान न होने का अर्थ स्थिर अथवा अडिग रहने से है।

प्रकृति के विभिन्न घटकों, समाज के विभिन्न वर्गों को रक्षासूत्र बांधना/ उनसे बंधवाना राष्ट्रीय एकात्मता का प्रदीप्त और चैतन्य है। भारतीय समाज को खंडित भाव से खंड-खंड निहारने वाली आँखों के लिए यह अखंड भाव का अंजन है।

एक विचारप्रवाह है कि वैदिक काल से  रक्षाबंधन रक्षासूत्र एवं प्रतिबद्धता का उत्सव रहा। विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में प्रवेश के पश्चात स्थितियाँ बदलीं। आक्रांताओं से  अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए कन्याएँ, भाई को रक्षासूत्र बांधने लगीं। सहोदर की समृद्धि वह सुरक्षा के लिए कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाया जाने वाला भाईदूज या यमद्वितीया का त्योहार भी इसी शृंखला की एक कड़ी है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 448 ⇒ भाई बहन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाई बहन ।)

?अभी अभी # 448 ⇒ भाई बहन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भाई बहन का रिश्ता पति पत्नी के रिश्ते से अधिक पुराना और पवित्र होता है। एक का साथ अगर बचपन से होता है तो दूसरा साथ सात जनमों तक का होता है। आखिर रक्षाबंधन और गठबंधन में कुछ तो अंतर होना ही चाहिए। भाई बहन का रिश्ता एक ऐसा रिश्ता है जो समय की धूल और परिस्थिति के साथ कुछ धुंधला जरूर हो सकता है, लेकिन कभी आंख से ओझल नहीं हो सकता।

पति पत्नी का साथ अगर वर्तमान है तो भाई बहनों का साथ एक सुखद अतीत। कहीं भाई बड़ा तो कहीं बहन बड़ी। अगर बहन बड़ी हुई तो छोटे भाई का खयाल एक मां की तरह रखेगी और अगर भाई बड़ा हुआ तो छोटी बहन पर अधिकार जताएगा, बार बार टोका टोकी करेगा, उसे प्यार भी करेगा लेकिन गलती करने पर पिताजी की तरह डांटेगा भी।।

बड़ी बहन तो जहां भी जाती थी, अपने छोटे भाई को साथ ले जाती थी, उसके साथ खेलती भी थी और सहेलियों से भी गर्व से मिलवाती थी, मेरा छोटा भैया है, और छोटा भाई कितना शर्माता था, उन सहेलियों के बीच।

लेकिन अगर भाई बड़ा हुआ तो छोटी बहन को छोड़ यार दोस्तों के साथ बाहर निकल जाता यह कहकर, तुम लड़की हो, क्या करोगी हम लड़कों के बीच। घर में ही रहो अथवा अपनी सहेलियों के बीच खेलो। भाई कम, अभिवावक ज्यादा।।

जिन घरों में एक से अधिक बहन होती थी, वे आपस में बहन से अधिक मित्र और सहेली बन जाती थी। साथ साथ स्कूल जाना, सहेलियों के बीच उठना बैठना, खेलना कूदना।

और अगर गलती से घर में दो भाई हो गए तो, बड़ा छोटा, मेरा तेरा। मेरी पेन को क्यों हाथ लगाया, अभी छोटे हो, पेंसिल से लिखो, खबरदार मेरी चीजों को हाथ लगाया तो। जितना गुस्सा उतना ही दुलार भी। पिताजी भी निश्चिंत रहते थे, बड़ा भाई सब संभाल लेता था। छोटे भाई की गलतियां भी और नादानियां भी।।

हम दो हमारे दो, के बाद तो भाई बहन का रिश्ता और अधिक प्रगाढ़ और परिपक्व होता चला जा रहा है। लड़ाई झगड़ा और नोक झोंक ही तो सच्चे रिश्तों की पहचान है, चाहे भाई बहन हों अथवा पति पत्नी।

संयुक्त परिवार में भाई बहनों के बीच एक नया सदस्य आ जाता था, जो बहन की भाभी और भाई की पत्नी होती थी। एक और नया रिश्ता ननद भाभी का। भाई पर बहन का अधिकार कम होता जाता था, भाई पर पत्नी का अधिकार बढ़ता चला जाता था। ननद तो ससुराल में ही भली, कभी कभी मायके आओ, भाई से राखी बंधवाओ और चले जाओ।।

उम्र के आखरी पड़ाव में एक बार पत्नी मां का स्थान ले सकती है, लेकिन बहन का नहीं। जीवन के हर मोड़ पर अलग अलग रहते हुए भी, भाई बहन हमेशा साथ ही रहते चले आए हैं। माता पिता कहां जिंदगी भर साथ निभा पाते हैं।

मेरी मां पांच भाइयों के बीच इकलौती बहन थी। मां का प्यार अपने पांचों भाइयों के प्रति देख मुझे आश्चर्य होता था, एक बहन इतने भाइयों को एक जैसा प्यार कैसे दे लेती है। कभी मिलना जुलना नहीं, बस एक राखी का धागा लिफाफे में जाता था, बहन के प्रणाम और भाइयों और भाभियों की मंगल कामना के साथ।।

हम तो खैर चार भाई और चार बहन हैं, सबने अपनी अपनी पसंद के भाई बहन चुन लिए हैं। राखी पर प्रेम से मिलजुल लेते हैं, बस यही क्या कम है, आज की यूनिट फैमिली के जमाने में, जहां राखी के त्योहार पर भी अगर भाई अमरीका में है तो बहन कानपुर में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वराज्य का साम्राज्य में विस्तार- पेशवा बाजीराव प्रथम ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆

श्रीमती समीक्षा तैलंग

☆  स्वराज्य का साम्राज्य में विस्तार- पेशवा बाजीराव प्रथम ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग  ☆

(पेशवा बाजीराव विश्वनाथ प्रथम” जयंती विशेष – 18 अगस्त  1700)

बाजीराव प्रथम लगातार आगे बढ़ रहे थे, और यह जानना दिलचस्प है कि उन्होंने कई सामरिक विजय हासिल कीं। 1720 में पेशवा बनने के बाद उन्होंने ४१ से ज़्यादा युद्ध किए और एक भी नहीं हारे जिसके कारण उनके सैनिकों की गति और गतिशीलता हमेशा बनी रही। 1728 में पालखेड का युद्ध 18वीं सदी की महान घुड़सवार लड़ाइयों में से एक माना जाता है और सैन्य रणनीतिकारों द्वारा इसका बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है। निज़ाम के ख़िलाफ़ बाजीराव की तेज शतरंजी चालों की परिणीति पालखेड में गोदावरी के तट पर एक बड़ी विजय के रूप में निजाम सेना के फँसने और उनके आत्मसमर्पण के रूप में हुई। इस युद्ध में विजय ने बाजीराव की विरासत की नींव रखी।

बाजीराव ने उत्तर भारत में कई अभियान किये। 1737 का दिल्ली अभियान महत्वपूर्ण था। मुगलों की एक बड़ी सेना के साथ आगे बढ़ते हुए, बाजीराव ने अपनी एक और तेज चाल चली। दुश्मन को पछाडा और दिल्ली पहुंचकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। इस अभियान ने दिल्ली में मुगल सम्राट की कमजोरी को उजागर किया। निज़ाम सम्राट का समर्थन करने के लिए दिल्ली जा रहा था जबकि भोपाल की लड़ाई बाजीराव से हार चुका था।

कई इतिहासकारों ने बाजीराव को एक महान सेनापति और सैन्य रणनीतिकार (जो वह थे) के रूप में ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन डॉ. कुलकर्णी की पुस्तक में अनेक संदर्भ पढ़कर पाठक बाजीराव की ताकत को कूटनीतिकार के रूप में समझ पाएगा। वे लिखते हैं- “अंतर यह था कि बाजीराव जानते थे कि कब लड़ना है और कहाँ लड़ना है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि कब नहीं लड़ना है”।

“बाजीराव के पास योजना बनाने के लिए दिमाग और क्रियान्वयन के लिए हाथ थे”- ग्रांट डफ (डॉ. कुलकर्णी ब्रिटिश इतिहासकार डफ के एक लोकप्रिय उद्धरण का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मराठा इतिहास लिखा था)।

बाजीराव को मल्हारजी होलकर, राणोजी सिंधिया, पिलाजी जाधव आदि का भरपूर सहयोग मिला। बाजीराव के छोटे भाई चिमाजी अप्पा ने 1737-39 में पुर्तगालियों के विरुद्ध कोंकण अभियान चलाया था। पुर्तगाली स्थानीय आबादी पर अत्याचार कर रहे थे। अभियान की अंतिम लड़ाई वसई के किले पर हमला थी। एक लंबी और कठिन लड़ाई के बाद अंततः मई 1739 में किला ढहाया। इस लड़ाई और उसके बाद की संधि के परिणामस्वरूप, ‘सस्ती’ (साल्सेट) (वर्तमान उत्तर/मध्य मुंबई), ठाणे, उत्तरी कोंकण का पूरा द्वीप मराठों के नियंत्रण में आ गया। पुर्तगाली क्षेत्र गोवा और दमन तक ही सीमित रहा। अंग्रेजों के पास केवल मुंबई द्वीप रह गया था। इस लड़ाई में 7 शहरों, 4 बंदरगाहों, 2 युद्धक्षेत्रों और 340 पुर्तगाली गांवों को मराठों ने अपने क़ब्ज़े में लिया था। 1720 और 1740 के दशक में भारत के राजनीतिक शक्ति मानचित्र बहुत अलग दिखते हैं। उन्होंने शिवाजी द्वारा स्थापित ‘स्वराज्य’ को एक ‘साम्राज्य’ में विस्तारित किया और कई बार दिल्ली तक पहुँचे।

ब्रिटिश फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने बाजीराव की प्रशंसा करते हुए लिखा- “1727-28 का पालखेड अभियान में बाजीराव प्रथम ने निज़ाम-उल-मुल्क को मात दी। यह रणनीतिक गतिशीलता की उत्कृष्ट कृति है”।

छत्रसाल बुंदेला पर दिल्ली का वजीर “मोहम्मद खान बंगेश” आक्रमण करने पहुँचा तब छत्रसाल को आत्मसमर्पण करना पड़ा। तब उन्होंने बाजीराव को पत्र लिखा-

“जग द्वै उपजे ब्राह्मण, भृगु औ बाजीराव। उन ढाई रजपुतियाँ, इन ढाई तुरकाव”॥

“जो गति ग्राह गजेंद्र की सो गति भई जानहु आज॥ बाजी जात बुंदेल की रखो बाजी लाज”॥

पत्र मिलने के बाद ४०-५० हज़ार की सेना के साथ पेशवा ने बंगेश पर आक्रमण किया। उसे कुछ सोचने का मौक़ा तक नहीं दिया।

भारत के सर सेनापति कै जनरल अरुण कुमार वैद्य जी ने एक जगह कहा है कि (महाराष्ट्र टाइम्स ६ जनवरी १९८४) -“नेपोलियन ने मिट्टी से जिस तरह मार्शल पैदा किए वैसे ही बाजीराव१ ने बारगीर और शीलेदारों से लढैय्ये सरदार पैदा किए। उनका घोड़ा रोकने का सामर्थ्य किसी में नहीं था”।

ऐतिहासिक अभिलेख (बखर) में बाजीराव के अनुसार लिखा है और वे ऐसा ही करते थे- ‘याद रखें, रात सोने के लिए नहीं है, बल्कि बिना किसी चेतावनी के दुश्मन के शिविर पर हमला करने के लिए ईश्वर प्रदत्त अवसर है। नींद घोड़ा चलाते हुए पूरी करनी चाहिए”।

उस समय भारत का अस्सी प्रतिशत भू-भाग मराठा साम्राज्य में शामिल था। 27 फरवरी, 1740 को नासिरजंग के विरुद्ध युद्ध जीतने के बाद मुंगीपैठन में एक संधि पर हस्ताक्षर किये गये। संधि में नासिरजंग ने बाजीराव पेशवा को हंडिया और खरगोन के क्षेत्र दे दिये। उसी की व्यवस्था देखने बाजीराव 30 मार्च को खरगोन गये। बाजीराव पेशवा प्रथम की 28 अप्रैल 1740 (वैशाख शुद्ध शक 1662) को प्रातःकाल मात्र 40 वर्ष की आयु में स्वास्थ्य अचानक बिगड़ने के कारण नर्मदा तट पर रावेरखेड़ी गाँव में निधन हुआ।

प्रसिद्ध इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं- ‘अखंड हिंदुस्तान एक हो गया लगता है’।

बाजीराव१ के सैन्य इतिहास पर ब्रिगेडियर आर. डी. पालोस्कर की पुस्तक “बाजीराव-1 एन आउटस्टैंडिंग कैवर्ली जनरल” एक ऐतिहासिक सैन्य दस्तावेज है।

‘पहिला पेशवा बाजीराव’ प्रो श श्री पुराणिक लिखित पुस्तक के अनुसार बाजीराव प्रथम पर आज तक मराठी में कुल पाँच उपन्यास लिखे गये जो कि आश्चर्यजनक है। पहली पुस्तक 1879 में नागेश विनायक बापट की ‘बाजीराव चरित्र’ है। 1928 में ना के बेहेरे की पुस्तक ‘पहिले बाजीराव पेशवे’ प्रकाशित हुई। उसके बाद 1942 में सरदेसाई जी का मराठी रियासत का पाँचवा भाग ‘पुण्यश्लोक शाहू- पेशवा बाजीराव’ आयी। 1979 में म श्री दीक्षित की पुस्तक ‘प्रतापी बाजीराव’ प्रकाशित हुई।

इतिहासकार द ग गोडसे जी का ऐतिहासिक ग्रंथ ‘मस्तानी’ में वे लिखते हैं- “मस्तानी की कबर के दर्शन करना आसान है। परंतु बाजीराव की समाधि के दर्शन करना आसान नहीं है। निमाड़ ज़िले के किसी कोने में बाजीराव की समाधि पिछले ढाई सौ सालों से निर्वासित अवस्था में अकेले खड़ी है। जिस बाजीराव ने जीवंत रहते हुए पूरे हिंदुस्तान को हिलाकर रख दिया था वही बाजीराव यहाँ सोया हुआ है जिसका भान तक किसी को नहीं है”।

बाजीराव स्मारक संरक्षण समिति के श्री बालाराव इंगले जी ने अख़बार में लेख लिखकर एक आंदोलन खड़ा किया था। परिणामस्वरूप उस समय मध्यप्रदेश की तत्कालीन अर्जुन सिंह सरकार ने उस समाधि की पुनर्स्थापना का आश्वासन दिया था जो पूरा नहीं हुआ। इसका आक्रोश उनके एक लेख के शीर्षक को पढ़कर पता चलता है- “थोरल्या बाजीरावांची समाधी- महाराष्ट्राला खंत नाही मध्यप्रदेशाला गरज नाही!!” अर्थात् “बडे बाजीराव की समाधि- महाराष्ट्र को खेद नहीं मध्यप्रदेश को ज़रूरत नहीं!!” इसके बाद उन्होंने लोकसत्ता अख़बार में फिर एक लेख लिखा जो कि २२ मई १९८३ को प्रकाशित हुआ था। उस लेख को उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से मध्यप्रदेश सरकार को समझाने के उद्येश्य से लिखा था। आज जनमानस और सरकारें उनके प्रति कृतघ्नता का भाव रखती हैं। आज भी विकसित भारत के स्वप्न में उन्हें उनका उचित आदर और सम्मान प्राप्त होने की दरकार है।

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 253 – शिवोऽहम्*…(4) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 253 शिवोऽहम्*…(4) ?

आदिगुरु शंकराचार्य महाराज के आत्मषटकम् को निर्वाणषटकम् क्यों कहा गया, इसकी प्रतीति चौथे श्लोक में होती है। यह श्लोक कहता है,

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं

न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः।

अहम् भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।

मैं न पुण्य से बँधा हूँ और न ही पाप से। मैं सुख और दुख से भी विलग हूँ, इन सबसे मुक्त हूँ। अर्थ स्पष्ट है कि आत्मस्वरूप सद्कर्म या दुष्कर्म नहीं करता। इनसे उत्पन्न होनेवाले कर्मफल से भी कोई सम्बंध नहीं रखता।

मंत्रोच्चारण, तीर्थाटन, ज्ञानार्जन, यजन कर्म सभी को सामान्यतः आत्मस्वरूप का अधिष्ठान माना गया है। षटकम् की अगली पंक्ति  सीमाबद्ध को असीम करती है। यह असीम, सीमित शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्त होता है, ‘मैं न मंत्र हूँ, न तीर्थ, न ही ज्ञान या यज्ञ।’ भावार्थ है कि आत्मस्वरूप का प्रवास कर्म और कर्मानुभूति से आगे हो चुका है।

मंत्र, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञ, पाप, पुण्य, सुख, दुखादि कर्मों पर चिंतन करें तो पाएँगे कि वैदिक दर्शन हर कर्म के नाना प्रकारों का वर्णन करता है। तथापि तत्सम्बंधी विस्तार में जाना इस लघु आलेख में संभव नहीं।

आगे आदिगुरु का कथन विस्तार पाता है, ‘मैं न भोजन हूँ, न भोग का आनंद, न ही भोक्ता।’ अर्थात साधन, साध्य और सिद्धि से ऊँचे उठ जाना। विचार के पार, उर्ध्वाधार। कुछ न होना पर सब कुछ होना का साक्षात्कार है यह। एक अर्थ में देखें तो यही निर्वाण है, यही शून्य है।

वस्तुत: शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाना होगा।… अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। तत्पश्चात आकलन करें कि शून्य पाया या शून्य खोया?

शून्य अवगाहित करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख हाँफती सीमाएँ

अगाध शून्य की  अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही हाथ लगा?

साधक एक बार शून्यावस्था में पहुँच जाए तो स्वत: कह उठता है, ‘मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, शिवोऽहम्..!’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 447 ⇒ रहन-सहन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रहन-सहन।)

?अभी अभी # 447 ⇒ रहन-सहन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आदमी अमीर होता है, ग़रीब होता है, पढ़ा-लिखा अथवा अनपढ़ भी हो सकता है, शहरी-ग्रामीण, किसान-मजदूर, किसी भी धर्म, जाति, सम्प्रदाय का हो सकता है ! केवल रहन-सहन ही एक ऐसा जरिया है, जिससे उसकी सही पहचान हो सकती है। हम जिसे व्यक्तित्व कहते हैं, वह इंसान के कई दृष्टिकोणों का निचोड़ होता है।

क्या रहन-सहन का रहने और सहने से कोई संबंध है ? प्रकट रूप से नहीं ! क्या कहीं रहने के लिए सहन करना ज़रूरी है !

डार्विन पहले तो जीव के अस्तित्व के लिए संघर्ष की बात करते हैं, (struggle for existence) और फिर यह भी जोड़ देते हैं, जो जीता वही सिकंदर, यानी survival of the fittest . सहना और संघर्ष करना रहने और सहने के बराबर ही है।।

ज़िंदा रहना, अपने आप में रहना है। रहना है तो बहुत कुछ सहना भी पड़ता है। सन 1947 के पहले भी इस देश में लोग रहे।

मुगलों को सहा, अंग्रेजों को सहा ! आज के कथित भक्तों ने भी कांग्रेस का 60 वर्ष राज सहा। किसने खाना छोड़ दिया, काम धंधा छोड़ दिया, या साँस लेना छोड़ दिया। और जिन्होंने सहन नहीं किया, उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी, कुर्बान हुए, फाँसी पर चढ़े, अवज्ञा आंदोलन किया, आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हुए, सत्याग्रह किये, विदेशो कपड़ों की होली जलाई।

जब हम परिस्थितियों के अनुसार भली-भाँति ढल जाते हैं, सहन करते हुए रहना सीख जाते हैं, तब हमारा रहन सहन हमारी एक विशिष्ट पहचान बन जाता है।

हमारे कार्य करने की शैली, बोलचाल का लहज़ा, खान-पान और पहनावा, हमारी आदतें और शौक सभी इसमें शामिल हो जाते हैं।।

जो सह नहीं सकता, वह रह नहीं सकता। हम रह रहे हैं, और सब कुछ हँसते-हँसते सह रहे हैं।

क्योंकि जिस समस्या का कोई हल नहीं, उसे बर्दाश्त करना ही एकमात्र विकल्प है। What cannot be cured, must be endured. लेकिन कोई प्रश्न नहीं उठाता, कब तक।

सहना और रहना जीवन का गहना है। सब कुछ सहा नहीं जाता, बिना सहे रहा भी नहीं जाता। हमेशा हँसते रहना, मुस्कुराते हुए जो इनएविटेबल है, उसे स्वीकार करना भी रहन-सहन का ही अविभाज्य अंग है।

कुछ-कुछ इस तरह –

क़ैद में है बुलबुल, सैयाद मुस्कुराए

कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल-🇮🇳 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल- 🇮🇳 ? ?

(16 अगस्त 2018 को अटल जी के महाप्रयाण पर उद्भूत भावनाएँ आज पुन: साझा कर रहा हूँ। भारतरत्न को साष्टांग नमन। 🙏)

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और  तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व  अनुभव करने  का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था। अधिकांश परिवारों में माता,पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ  अपने प्रिय वक्ता  को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी  कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद  ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल  व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!

इस शख्सियत को समझी नहीं

चकरा गई हैं आप,

कौवों की राजनीति में

राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!

सौगंध है आपको

हमें छोड़ मत जाना,

अगर आप चले जायेंगे

तो वेश्या-सी राजनीति

गिद्धों से राजनेताओं

और अमावस सी व्यवस्था में

दीप जलाने

दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी अजर रहेंगे, अमर रहेंगे!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print