(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रीगल से वोल्गा तक…“।)
अभी अभी # 408 ⇒ रीगल से वोल्गा तक… श्री प्रदीप शर्मा
आज जिसे मेरे शहर का रीगल चौराहा कहा जाता है। वहां कभी वास्तव में एक जीता जागता रीगल थियेटर था। और उसके पास एक मिल्की वे टाकीज़ भी। और इन दोनों के बीच। रीगल थियेटर के परिसर में ही एक शाकाहारी वोल्गा रेस्टोरेंट था।
जो लोग काम से काम रखते हैं। वे व्यर्थ में नाम के अर्थ में अपना समय नष्ट नहीं करते। रीगल टेलर्स भी हो सकता है और रीगल इंडस्ट्रीज भी। कई बड़े शहरों में होता था कभी रीगल सिनेमा। इसमें कौन सी बड़ी बात है। वैसे रीगल का मतलब शाही होता है।।
हमारे घर में मैं बचपन से गर्म पानी की एक बॉटल देखता आ रहा हूं। जिसे ईगल फ्लास्क कहते थे।और उस पर एक पक्षी की तस्वीर होती थी।
मां जब अस्पताल जाती थी। तो उसमें बीमार सदस्य के लिए गर्म चाय ले जाती थी। और पिताजी के लिए उसमें रात में।पीने के लिए। गर्म पानी भरा जाता था। बाद में पता चला ईगल तो बाज पक्षी को कहते हैं।
वोल्गा नया रेस्टोरेंट खुला था। इतना तो जानते थे कि गंगा की तरह वोल्गा भी कोई नदी है। जो भारत में नहीं। रूस यानी रशिया में कहीं बहती है। लेकिन इसके लिए राहुल सांकृत्यायन की गंगा से वोल्गा पढ़ना मैं जरूरी नहीं मानता।।
वोल्गा रेस्टोरेंट में हमने पहली बार छोले भटूरे का स्वाद चखा। हम मालवी और इंदौरी कभी चाय। पोहे। जलेबी और दाल बाफले से आगे ही नहीं बढ़े। रेस्टोरेंट के मालिक भी एक ठेठ पंजाबी सरदार थे। गर्मागर्म छोले और फूले फूले भटूरे और साथ में मिक्स अचार। सन् १९८० में कितने का था। आज याददाश्त भले ही काम नहीं कर रही हो। लेकिन एक आम आदमी के बजट में था। फिल्म की फिल्म देखो और छोले भटूरे भी खाओ।
यादों का झरोखा हमें कहां कहां ले जाता है। जयपुर में एक लक्ष्मीनारायण मिष्ठान्न नामक प्रतिष्ठान है। जिसे एलएमबी (LMB) भी कहा जाता था। उसी तर्ज पर इंदौर में भी एक जैन मिठाई भंडार था। जिसे आजकल JMB जेएमबी भी कहा जाने लगा है।
सराफे में इनकी पहली दुकान थी और मूंग के हलवे का पहला स्वाद इंदौर वासियों ने यहीं चखा था।।
आज इनकी इंदौर में कई शाखाएं हैं। लेकिन स्मृति में भी आज इनकी वही शाखा है। जो कभी रीगल थीएटर से कुछ कदम आगे। आज जहां स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एम जी रोड ब्रांच है। वहीं कभी JMB ने भी अपनी ओपन एयर शाखा भी खोली थी। जहां खुले में संगीत की मधुर धुनों में आप मुंबई की पांव भाजी का स्वाद ले सकते थे। जी हां इंदौर में पाव भाजी भी पहली बार JMB ही लाए थे। शायद यह बात उनकी आज की पीढ़ी को भी पता न हो।
आज शहर में छोटे भटूरे। पाव भाजी और मूंग का हलवा कहां नहीं मिलता। लेकिन रीगल चौराहे पर ना तो आज रीगल और मिल्की वे टाकीज मौजूद है। और ना ही वॉल्गा रेस्टोरेंट। लेकिन समय ने JMB को आज इतना बलवान बना दिया है। कि इंदौर में उनकी कई शाखाएं भी हैं और अच्छी गुडविल भी। जो चला गया। उसे भूलने में ही समझदारी है। अलविदा रीगल। अलविदा वोल्गा।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर…“।)
अभी अभी # 407 ⇒ स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे बचपन से संगीत सुनने का शौक रहा है, क्लासिकल नहीं, सेमी क्लासिकल फिल्मी, जिसमें गैर फिल्मी गीत, गज़ल, और भजन सभी शामिल हैं। जो संगीत से करे प्यार, वो रेडियो से कैसे करे इंकार। वह लैंडलाइन
टेलीफोन और मोबाइल का जमाना भले ही ना रहा हो, लेकिन बिजली के रेडियो और ट्रांजिस्टर तक एक आम आदमी की पहुंच जरूर हो चुकी थी।
घर में रेडियो कभी हमारी संपन्नता की निशानी कहलाता था। ट्रांजिस्टर को आप आज की भाषा में मोबाइल रेडियो कह सकते हैं, जो कहीं आसानी से ले जाया जा सके और जिसे आप बैटरी सेल अथवा बिजली से भी चला सकें।।
नौकरी में जब मेरा ट्रांसफर हुआ तब मैं सिंगल यानी कुंआरा ही था और तब यार दोस्तों की तरह रेडियो भी मेरा चौबीस घंटे का साथी था। जापान मेड, चार बैंड वाला, एक पुराना स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर मेरा अकेलेपन का साथी सिद्ध हुआ, जिसमें दो दो स्पीकर थे और जो पॉवर से भी चलता था।
वह रेडियो सीलोन का जमाना था और रेडियो में शॉर्ट वेव होना बहुत जरूरी था, तब के रेडियो और ट्रांजिस्टर सेट्स में FM नहीं था। मीडियम वेव पर आकाशवाणी इंदौर और विविध भारती आसानी से सुना जा सकता था। अधिक दूरी के कारण आकाशवाणी इंदौर भले ही नहीं सुन पाएं, विविध भारती आसानी से सुना जा सकता था।।
डुअल स्पीकर याने दो दो स्पीकर होने के कारण मेरा स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर आवाज में किसी भी बड़े रेडिओ सेट से कम नहीं था। जिस रेडियो पर रेडिओ सीलोन साफ सुनाई दे जाए, उसकी तब बड़ी इज्जत होती थी, क्योंकि सभी रेडिओ सेट्स में शॉर्ट वेव की फ्रीक्वेंसी इतनी साफ नहीं होती थी। एक साथ दो तीन स्टेशन गुड़मुड़ करते रहते थे। बुधवार की 8 बजे रात तो मानो रेडियो के लिए जश्न की रात हो। बिनाका गीत माला और अमीन भाई का दिन होता था वह।
मेरा ट्रांजिस्टर पुराना था, और उसके अस्थि पंजर ढीले हो चुके थे, डॉक्टर की सलाह पर मुझे उसे दुखी मन से अलविदा कहना पड़ा, और कालांतर में मैने एक बुश बैटन ट्रांजिस्टर खरीद लिया, जो आराम से एक कबूतर की तरह हाथों में समा जाता था। तब 300 रुपए बहुत बड़ी बात थी। लेकिन इस काले बुश बैटन को कभी किसी की नजर नहीं लगती थी।।
तब कहां हमारे घरों में फिलिप्स का साउंड सिस्टम था। आवाज में स्टीरियोफोनिक इफेक्ट लाने के लिए घरेलू प्रयोग किया करते थे। हम अक्सर हमारे नन्हें से बुश बैटन को पानी की मटकी पर बैठा दिया करते थे। आवाज मटके के अंदर जाकर गूंजती और सलामे इश्क मेरी जान कुबूल कर लो, और वादा तेरा वादा जैसे गीत में हमें एक विशेष ही आनंद आता।
ऐसा प्रतीत होता गाना अलग चल रहा है और तबला अलग बज रहा है।
एक दिन एक फड़कते गीत को मटका बर्दाश्त नहीं कर पाया और हमारा बुश बैटन खिसककर पानी में ऐसा डूबा, कि हमेशा के लिए उसकी बोलती ही बंद हो गई, स्पीकर में पानी भर गया। कई उपचार किए, लेकिन पानी शायद ट्रांजिस्टर के सर से ऊपर निकल चुका था। मानो उसने जल समाधि ले ली हो।।
उसके बाद टू इन वन का जमाना आया, यानी रेडियो कम टेपरिकॉर्डर, जिसने रेकॉर्ड प्लेयर और रेडियोग्राम को बाहर का रास्ता दिखा दिया। आज भले ही पूरा संगीत जगत आपके मुट्ठी भर मोबाइल में कैद हो, लेकिन उस आनंद की तुलना आज भरे पेट आनंद से नहीं की जा सकती।
संगीत का शौक आज भी जारी है और एक फिलिप्स पॉवर वाला टेबल ट्रांजिटर आज हमारा साथ शिद्दत से निभा रहा है, लेकिन रह रहकर दो दो स्पीकर वाले स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर और नन्हें से, काले बुश बैटन की सेवाओं को भुलाना इतना आसान भी नहीं।
क्या मांगते थे बेचारे, थोड़ा सा बिजली का करेंट, यानी पॉवर अथवा दो अदद बैटरी सेल, और बदले में हमारे जीवन को संगीतमय बना देते थे। और उनके साथ ही भूली बिसरी यादें रेडिओ सीलोन और अमीन भाई की। आमीन.. !!
☆ चौदा हजार चारशे सदुसष्ट ललाटरेखा ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके☆
त्याच्या कलेवरासोबत आलेल्या ज्येष्ठ सैनिकाने तिच्या हातात राष्ट्रध्वज सोपवला, तिला सल्यूट बजावला आणि तो बाजूला झाला. तो ध्वज घेऊन ती शवपेटीनजीक आली…तिने शवपेटीवर आपलं रिकामं कपाळ टेकवलं आणि शवपेटीवर पांघरलेल्या राष्ट्रध्वजावर आसवांचा शेवटचा अभिषेक घातला. तिला तिथून हलायचं नव्हतं…पण व्यवहाराला थांबून चालणार नव्हतं. शवपेटी वाहून आणणा-या एका सैनिकानं हातानंच इशाला केला….या ताईला आवरा कुणीतरी! एक ज्येष्ठ सैनिक पुढे झाला…. तिने त्याच्याकडे म्लान वदनाने पाहिलं….तिने आपलं उजव्या हाताचं मनगट आभाळाच्या दिशेनं वळवलं, हाताचा तळवा उघडला….तोंडही उघडं होतं…पण आता त्यातून ध्वनि उमटत नव्हता…माझं कसं होणार? हा तिने न विचारलेला प्रश्न मात्र त्या ज्येष्ठ सैनिकाला मोठ्याने ऐकू गेला त्या गदारोळात….त्याने तिच्या डोक्यावर आपले दोन्ही हात क्षणभर ठेवले आणि मागे घेऊन नमस्कर मुद्रेत जोडले!…जाऊ दे, बेटी आता तुझ्या मालकाला शेवटच्या प्रवासाला! आम्ही असू तुझ्यासोबत!
अंत्ययात्रेत तीन हुंदके उमटत होते…एक त्याच्या आईचा, एक वडिलांचा आणि एक त्याच्या पत्नीचा. तिच्या गर्भातल्या बाळाच्या हुंदक्याला त्याचा स्वत:चा असा आवाज नव्हता!
सैनिकाच्या जाण्यानंतर निर्माण होणारं दु:ख कुणाचं धाकलं आणि कुणाचं थोरलं? आयुष्याच्या मध्यावर असलेल्या किंवा त्याच्याही पुढे गेलेल्या आई-वडिलांचं? की जिचं उभं आयुष्य पुढं आ वासून तिच्याच समोर उभं ठाकलं आहे त्या तरूण विधवा पोरीचं?
गळ्यात मंगळसूत्र पडतं तेंव्हाच माहेर बुडतं लेकींचं आपल्याकडच्या. कुंकू नावाच्या गोलाकार समिंदरात बाई उडी घेते ती याच मंगळसूत्राच्या भरवशावर. यातील दोन वाट्या म्हणजे एकमेकांना जोडलेली दोन गलबतं. वल्हवणारा भक्कम असला आणि त्यानं किना-यापोत साथ दिली तर किनारा काही दूर नसतो फारसा…फक्त वेळ लागतो एवढंच. पण श्वासांचं हे वल्हं वल्हवणरा हात सैनिकाचा असला आणि तोच स्वत: आपल्या गलबतासह मरणाच्या खोलात अकाली गर्तेस मिळाला तर? त्याच्यासोबतचं गलबत भरकटणारच! वरवर सालस,शांत,समंजस भासणारा व्यवहाराचा समुद्र मग आपले खोलातले रंग पृष्ठभागावर आणायला लागतो….वादळापूर्वीची शांतता म्हणजे स्वप्नात अनुभवलेली खोटी गोष्ट वाटू लागते! गलबत आधीच इवलंसं….लाटांना फार प्रयास पडत नाहीत त्याला तडाखे द्यायला!
मृत्यू अपरिहार्य आहेच. आणि त्यामुळे विवाहीत बाईच्या कपाळी येणारं वैधव्यही! हा मृत्यू एखाद्या सैनिकाला लढता-लढता आलेला असेल तर या वैधव्याची दाहकता आणखीनच गडद होत जाते भारतात! धारातीर्थी पडलेल्या सैनिकाच्या पत्नीने कोणत्याही रंगाची साडी परिधान केलेली असली तरी केवळ एक वाक्याने त्या साडीचा रंग पांढरा होऊन जातो….”कुंकू पुसून टाक,सूनबाई!”
पतीचे निधन झालेली स्त्री विधवाच असते. पण कर्तव्यासाठी प्राणापर्ण केलेल्या सैनिकांच्या पत्नींना आताशा व्यवस्था वीरनारी म्हणू लागली आहे, आणि हेही नसे थोडके! अन्यथा पूर्वी सर्व ओसाड कपाळांची किंमत एकच असायची! खरं तर सैनिकाशी लग्न करणं हेच मोठं धाडसाचं काम आहे…या अर्थाने प्रत्येक सैनिक-पत्नी वीरनारीच मानली गेली पाहिजे. या महिला करीत असलेला शारीरिक,मानसिक त्याग प्रचंड आहे. असो.
अविवाहीत हुतात्मा सैनिकाच्या आई-वडिलांचं दु:ख थोरलंच. पण विवाहीत हुतात्मा सैनिकाच्या घरात आणखी एक मोठं दु:ख मान खाली घालून बसलेलं असतं! ते दु:ख वेगानं धावत असतं अंध:कारमय भविष्याच्या दिशेनं!
तिला हे माहीत आहे….तिने इतरांच्या बाबतीत हे होताना पाहिलं,ऐकलं आहे! किंबहुना सैनिकाशी लग्नगाठ बांधून घेताना तिला याची कल्पना कुणी स्पष्टपणे दिली नसली तरी तिला हे का ठाऊक नव्हतं? पण तरीही तिने कुठल्याही कारणाने का होईना..हे धाडस केलंच होतं! परिणामांची जबाबदारी सर्वस्वी तिचीच! अमर रहे….च्या घोषणा अल्पावधीतच हवेत विरून जातात, राजकीय,सामाजिक नेत्यांच्या भाषणांतील,मदतीच्या आश्वासनांतील काही शब्द,आकडेही बहुतांशवेळा पुसट होत जातात
आपल्या देशात सैन्यसेवेत असलेले सुमारे १६०० जण विविध कारणांनी मरण पावतात दरवर्षी. यात अतिरेक्यांशी लढताना,सीमेच्या पलीकडून होणा-या गोळीबारात धारातीर्थी पडणा-यांचे संख्याही दुर्दैवाने बरीच असते….यातून वीरनारींची संख्याही वाढत राहते. प्रत्यक्ष सशस्त्र संघर्षात मृत्यू पावलेल्या सैनिकांच्या, हयात असलेल्या वीरनारींची संख्या मार्च २०२३ पर्यंत होती….चौदा हजार चारशे सदुसष्ट! आणि या आकड्यांत दुर्दैवानं या वर्षीही भरच पडलेली आहे!
सैनिकाच्या अकाली मृत्यूमुळे कुटुंबाची,विशेषत: पालक आणि पत्नी यांची होणारी हानी प्रचंड असते. हौतात्म्याची भरपाई करणं शक्य नसलं तरी ज्या समाजाचं हा सैनिक वर्ग जीवाची बाजी लावून रक्षण करत असतो, त्या समाजाचं प्रथम कर्तव्य हेच असावं की त्यानं या नुकसानीची मानवीय दृष्टीकोनातून भरपाई करण्याचा प्रयत्न करणे!
कामी आलेल्या सैनिकाच्या परिवाराला गेल्या काही वर्षांपासून सुमारे एक कोटी रुपये दिले जातात. पण हा पैसा स्वत:सोबत अनेक समस्याही घेऊन त्या कुटुंबात प्रवेश करतो. हयात असणा-या माजी सैनिकांना निवृत्तीवेतन दिले जातेच. त्याच्या पश्चात त्याच्या आई-वडीलांना,पत्नीला आणि काही नियमांना अधीन राहून अपत्यानांही निवृत्तीवेतन दिले जाते. पाल्यांचे शिक्षण,नोक-या इत्यादी अनेक बाबतीतही शासकीय धोरणं कल्याणकारी आहेत.
तरूण तडफदार असेलेले सैनिक सैनिकी कारवायांमध्ये ब-याचशा मोठ्या संख्येने अग्रभागी असतात. यात हौतात्म्य प्राप्त झालेले सैनिक जर विवाहीत असतील तर त्यांच्या पत्नीही वयाने तरूणच असतात, हे ओघाने आलेच.
विधवेने पुनर्विवाह करणे या बाबीकडे समाजाकडून अक्षम्य दुर्लक्ष आणि अमानवीय विचारांमुळे विरोध झाल्याचे कालपरवापर्यंत दिसून येत होते. नुकसानभरपाईपोटी आलेला पैसा,कुटुंबाची संपत्ती कुटुंबातच रहावी, या अंतर्गत उद्देशाने स्त्रियांचे पुनर्विवाह लावून देताना वधूवरांच्या वयातील अंतरांचा किती विचार केला गेला असेल, हाही प्रश्नच होता.
समाजाचा स्त्रियांना केवळ उपयुक्त साधन मानणे हाही विचार सर्वत्र होता आणि आहेच. हुतात्मा सैनिकाच्या कुटुंबियांना मिळणा-या निवृत्तीवेतनात आणि इतर आर्थिक लाभांत पत्नीचाही तेव्हढाच वाटा असतो. तीच जर पुनर्विवाह करून गेली तर घरातील पैसा इतरत्र जातो किंवा जाईल, हे समाजाने हुशारीने ताडले आहे. त्यामुळे आदर्श पत्नी म्हणून तिने अविवाहीत रहावे, सासु-सास-यांची सेवा करीत उर्वरीत आयुष्य रेटावे, असा प्रयत्न होतो. त्यातून पुढे आलेली आणि माणुसकीचे फसवे कातडे पांघरून रूढ झालेली प्रथा म्हणजे चुडा प्रथा. सैनिकाच्या विधवेने किंवा कोणत्याही विधवेने त्या दीराशी लग्न करणे! हे प्रमाण राजस्थानात सर्वाधिक आहे. यात बाईच्या पसंती-नापसंतीला कितपत वाव असेल? पण यात संबंधित दीर अविवाहीत असला पाहिजे ही अट मात्र सुदैवाने आहे. पण हा गुंता किती मोठा आणि महिलांसाठी किती अडचणींचा असेल याचा विचार केला तरी अवघडल्यासारखे होते.
पंजाब,हरियाना,हिमाचल प्रदेश, बिहार सारख्या राज्यांत हाच कित्ता थोड्या अधिक फरकाने गिरवला जातो. पंजाब-हरियाणात करेवा प्रथा आहे. यातही दिवंगत सैनिकाच्या/व्यक्तीच्या विधवा पत्नीचा अविवाहीत दीराशी लग्नाचा रिवाज आहे. आणि पहिल्या पतीच्या अंत्यसंस्कारानंतर केवळ दोन आठवड्यानंतरही असे विवाह लावले जातात. आणि यात कोणताही समारंभ केला जात नाही…
वर वर पाहता या प्रथा विधवांना आधार देणा-या वाटत असल्या तरी यांत विधवेविषयी सहानुभूती वाटणे किती आणि आर्थिक विचार किती हा प्रश्न आहेच. राजस्थानात या प्रश्नाने तर मोठे स्वरूप धारण केले आहे. कारण राजस्थानातील वीरनारींची संख्या मार्च २०२३ पर्यंत १३१७ एवढी होती. अशा प्रकारे आपल्या दीराशी वैवाहिक संबंध प्रस्थापित करण्याची मनापासून किती विधवांची इच्छा असावी? आपली भावनिकतेच्या जाळ्यात ओढून सोयीस्कर अर्थ लावणारी, पुरुषप्रधान सामाजिक मानसिकता लक्षात घेता याचं उत्तर काय असेल, हे सूज्ञ समजू शकतात.
पंजाबात दोन हजारांपेक्षा अधिक तर हरियाना,उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेशात सुमारे अकराशेच्या वर वीरनारी आहेत. अपत्य नसलेल्या वीरनारीने पुनर्विवाह केला तरी तिचे निवृत्तीवेतन सुरु राहते. पण तिचे इतर मार्गांने होणारे उत्पन्न निवृत्तीवेतनाएवढे किंवा जास्त झाले की ही रक्कम देणे बंद केले जाते. अपत्य असेल आणि नात्याबाहेर पुनर्विवाह केला तरी वेगळे नियम लागू होतात.
सैनिक विधवेशी तिला मिळत असलेल्या पैशांवर डोळा ठेवून विवाह करणा-यांची संख्याही असेलच. परंतू यात किमान त्या स्त्रीची स्वसंमती तरी असते. वीरनारींना त्यांच्या पतींनी गाजवलेल्या शौर्याचे पारितोषिक म्हणून काही विशेष रक्कमही दरमहा देण्याची पद्धत आहे. मात्र ही रक्कम त्या स्त्रीने फक्त तिच्या दीराशीच लग्न केले असल्यासच देय असे २००६ पूर्वी. २०१७ मध्ये या नियमात बदल करण्यात आला!
सरकार,नेते,संघटना,व्यक्ती यांनी दिलेली आश्वासने प्रत्यक्षात येतातच असे दुर्दैवाने होत नाही, हेही वास्तव आहे. हुतात्मा वीर सैन्याधिका-यांच्या कुटुंबियांना कित्येक वेळा शासन पेट्रोल पंप, गॅस एजन्सी इत्यादी बहाल करीत असते. यासाठीही मोठा कागदोपत्री कारभार कुटुंबियांना करावा लागतो. सैनिक कोणत्या परिस्थितीत मृत्यू पावला याही गोष्टीला नुकसानभरपाईबाबत मोठे महत्त्व आहे.
भारताच्या ग्रामीण,आदिवासी भागातील वीरनारींच्या कपाळी तर काहीवेळा भयावह संकटे आल्याची उदाहरणे आहेत. त्यापैकीच एक म्हणजे एन.एस.जी.कमांडो लान्स नायक राजकुमार महतो यांची पत्नी जया महतो! राजकुमार महतो कश्मिरात अतिरेक्यांविरुद्ध प्राणपणाने लढताना धारातीर्थी पडले. त्यांच्या कुटुंबातील तीन व्यक्ती या नजीकच्या कालावधीत काही कारणांनी मृत्यू पावलेल्या होत्या. त्यात राजकुमारही गेल्यामुळे गावक-यांनी या घटनांसाठी थेट जया यांना जबाबदार धरले आणि चेटकीण म्हणून त्यांना ठार मारण्याची तयारीही केली होती. भारतीय सैन्य जया महतो यांच्या मदतीला वेळेवर पोहोचू शकले म्हणून त्या बचावल्या! पण आपला समाजाचा काही भाग अजूनही किती मागासलेला आहे, याचे हे भयानक उदाहरण मानले जावे!
नव्या घरात सैनिकाची पत्नी म्हणून काहीच काळापूर्वी प्रवेश केलेल्या सामान्य मुलीला तिचा पतीच जर जगातून निघून गेला तर तिच्या वाट्याला येणारी परिस्थिती किमान महिलावर्ग तरी समजावून घेऊ शकेल. अर्थात, विधवा सून आणि तिचे सासू-सासरे यांच्यातील भावनिक आणि आर्थिक परिस्थितीला काही अन्य बाजूही असतीलच. पण तरीही सर्वाधिक नुकसान सोसावे लागलेल्या सर्वच तरूण वीरनारींची स्थिती फारशी बरी नसण्याचीच शक्यता अधिक आहे. समाजातील सर्व विचारवंतांच्या स्तरावर या समस्यांची यथायोग्य आणि वास्तवदर्शी माहिती पोहोचणे गरजेचे आहे!
(या लेखाच्या पहिल्या परिच्छेदात वर्णन केलेली घटना एका विडीओ मध्ये पाहण्यात आल्यानंतर मी यावर गांभिर्याने विचार करून ही अल्प माहिती घेतली आहे. छायाचित्रातील ही वीरनारी भगिनी आणि लेखात उल्लेखिलेल्या बाबी याचा संबंध असेलच असे नाही. केवळ प्रतिपाद्य विषयाला परिमाण लाभावे म्हणून हे छायाचित्र वापरले आहे. यात काही त्रुटी असतीलच. पण समस्या मात्र ख-या आहेत, यात शंका नाही. विशेषत: सुशिक्षित महिलांनी यावर विचार करून याबाबतीत काही करता आले तर जरुर करावे.!)
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 247☆ दो ध्रुवों के बीच
इसी सप्ताह की घटना है। मैं दोपहिया वाहन से घर लौट रहा था। बाज़ार से दूर स्थित बैंक के पास एक वृद्ध सज्जन खड़े दिखाई दिए। जाने क्यों लगा कि लिफ्ट चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे हैं। कुछ आगे जाकर मैं रुका और पूछा कि उन्हें कहाँ जाना है? उन्होंने बताया कि लम्बे समय से ऑटोरिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे हैं पर कोई रिक्शा आया ही नहीं। फिर जानना चाहा कि क्या मैं उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ सकता हूँ? मैंने उन्हें बिठाया और उनके गंतव्य पर छोड़ दिया।
वे धीरे से उतरे। बोले,”रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा-खड़ा मैं बहत थक गया था। आपने बड़ी सेवा की।” फिर एकाएक उन्होंने मेरे पैर छू लिए।
इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं संकोच से गड़ गया। कुछ कह पाता, उससे पूर्व अप्रत्याशित का कल्पनातीत अगला संस्करण भी सामने आ गया। उन्होंने जेब से रुपये दस का नोट निकाला और फिर बोले,” इतना ही दे सकता हूँ। कृपया इस बूढ़े के पैसे से एक कप चाय पी लीजिएगा।” अपमान और क्रोध से माथा भन्ना उठा। मैंने उन्हें हाथ जोड़े। नोट हाथ में लिए वे खड़े रहे और मैं वहाँ से एक तरह से रफूचक्कर हो गया।
गाड़ी की बढ़ी हुई गति के साथ विचारों को भी हवा मिली। अपने अपमान के भाव से आरम्भ हुआ विचार, वृद्ध के स्वाभिमान तक जा पहुँचा।
निष्कर्ष निकला कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो किसीका एक नए पैसे का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ऋण अपने ऊपर नहीं चाहते। बैंक से उनके गंतव्य तक संभवत: शेयर रिक्शा दस रूपये ही लेता होगा। फलत: उन्होंने मुझे दस रुपये देने का प्रयास किया था।
अनुभव हुआ कि ध्रुवीय अंतर है आदमी और आदमी के बीच। एक ओर किसीका किसी भी तरह का ऋण अपने माथे पर ना रखनेवाला यह निर्धन है तो दूसरी ओर वित्तीय संस्थानों के हज़ारों करोड़ डकार जाने वाले कथित धनिक।
अनुभव कहता है कि संस्कार से विचार उद्भूत होता है। विचार, कृति का जनक होता है। कृति, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी
इस साधना में – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे
ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| ढंग की बात ||“।)
अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || श्री प्रदीप शर्मा
कौन नहीं चाहता, अपने मन की बात कहना, कोई कह पाता है, और कोई मन में ही रख लेता है। मन की बात कही तो बहुत जाती है, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई बिरला(ओम बिरला नहीं) ही होता है।
एक होती है मन की बात, और एक होती है ढंग की बात। कहीं कहीं बात करने का ढंग ही इतना प्रभावशाली होता है कि, बात भले ही ढंग की ना हो, श्रोताओं पर अपना प्रभाव जमा लेती है। वैसे मन की बात का वास्तविक उद्देश्य शायद आम आदमी की नब्ज टटोलना ही रहा होगा। देश का प्रधानमंत्री जब आपको संबोधित करता है, तो उसकी कुछ बातें तो अवश्य मन को छू जाती होंगी।।
हम पिछले ११० महीनों से मन की बात कार्यक्रम नियमित रूप से, हर महीने के अंतिम रविवार को सुबह 11:00 बजे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सुनते आ रहे हैं। आम चुनाव के तीन महीने के अंतराल के बाद शायद यह सिलसिला पुनः प्रारंभ हो।
अगर मन की बात कुछ ढंग की हो, तो श्रोता का भी सुनने का आकर्षण बढ़ जाता है। मन की बात के नाम पर केवल अपनी ही तारीफ करना, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना और केवल अपनी सफलताओं का डंका बजाना कुछ समय तक तो कारगर रहता है, लेकिन बाद में वह नीरस और उबाऊ होता चला जाता है। फिर वह मन की बात नहीं रह जाती ;
फिर तेरी कहानी याद आई
फिर तेरा फसाना याद आया ;
हां अगर मन की बात, साथ साथ में ढंग की बात भी हो, तो क्या कहने। लेकिन ढंग की बात कहना जितना आसान है, लिखना उतना आसान नहीं। अब ढंग को ही ले लीजिए, इसमें ढ के ऊपर तो बिंदी है, लेकिन नीचे नहीं। ढोर, ढोल, ढाल और ढक्कन में भी ढ के नीचे बिंदी नहीं लगती।
लेकिन यही ढ जब शब्द के अंत में आ जाता है, तो आषाढ़, दाढ़ और बाढ़ बन जाता है, यानी ढ के नीचे बिंदी लग जाती है। बढ़िया, सिलाई – कढ़ाई, और पढ़ाई में ढ बीच में है, फिर भी ढ के नीचे बिंदी है।
लेकिन फिर भी ढ के रंग ढंग हमें समझ में नहीं आते। बेढब बनारसी में नीचे बिंदी गायब है। बड़ा बेढंगा है यह ढ। इसकी बढाई की जाए अथवा इसे बधाई दी जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।।
जब ढ के ही ऐसे रंगढंग हैं, तो ढंग की बात कितनी ढंग की हो सकती है यह विचारणीय है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस बार मन की बात सुनना चाहते हैं, अथवा ढंग की बात।
हमारे मन की बात तो यही है कि बहुत हो गई मन की बात, अब कुछ ढंग की बात भी हो जाए। संसद में केवल तालियां ही नहीं बजें, किसी की शान में केवल कसीदे ही नहीं कढ़े जाएं, कुछ तर्क वितर्क, सवाल जवाब हो, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता की समस्याओं पर बात करें, केवल अपने नेता की जय जयकार ही नहीं करते बैठें। गहमा गहमी हो, दोनों ओर से संयम और सौहार्दपूर्ण वातावरण का नज़ारा हो।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कड़वाहट (Bitterness)…“।)
अभी अभी # 404 ⇒ कड़वाहट (Bitterness)… श्री प्रदीप शर्मा
हमारा भारतीय दर्शन जीवन में मिठास घोलता है, कड़वाहट नहीं। दो मीठे शब्द, कुछ मीठा हो जाए। यहां अगर जन्म उत्सव है है, तो मृत्यु भी उत्सव।
जन्म पर बधाई गीत तो विवाह के अवसर पर बैंड बाजा बारात और अंतिम विदाई भी गाजे बाजे के साथ। जन्मदिन पर केक तो तेरहवें पर भी नुक्ति सेंव, लड्डू।
परीक्षा के दिनों में मां घर से दही शक्कर खिलाकर पाठशाला भेजती थी। गर्मी के मौसम में जगह जगह मधुशालाओं में गन्ने का रस नजर आता था।
एकाएक बच्चन जी एक और ही मधुशाला लेकर आ गए, जहां हिन्दू मुस्लिम आपस में बैठकर प्यालों में कड़वा पेय का सेवन करने लगे। बस तब से ही खुशी के पल हों, या गम गलत करना हो, यह कड़वी चीज हमारे मुंह लग ही गई।।
आज जगह जगह गन्ने के रस की नहीं, शासकीय देशी और विदेशी मदिरा की मधुशालाएं लोगों के जीवन में जहर घोल रही हैं। जिस तरह लोहा लोहा को काटता है, कुछ लोगों का यह भ्रम है कि आत्मा की कड़वाहट इस कड़वी चीज से कुछ कम हो जाती है।
जैसे जैसे यह कड़वा जहर शरीर में फैलने लगा, इंसान की कड़वाहट भी बढ़ने लगी ;
कोई सागर दिल को बहलाता नहीं।
बेखुदी में भी करार आता नहीं।।
कौन सा जहर ज्यादा खतरनाक है, कड़वे नशे का जहर अथवा नफरत का जहर, इसका फैसला करना इतना आसान नहीं। उनकी जुबां तो पहले ही कड़वी थी, बेचारा करेला मुफ्त ही बदनाम हो गया।
मीठे बोलने से कोई बीमारी नहीं होती, लेकिन हां मीठा खाने से जरूर होती है, और वह भी मधुमेह ही है। कड़वी शराब से मधुमेह बढ़ता है और कड़वे पदार्थ नीम, करेला, मैथीदाना मधुमेह को कंट्रोल करते हैं।।
कौन है जो हमारे रिश्तों में कड़वाहट घोल रहा है, भाई और भाई के बीच दीवारें खड़ी हो रही हैं। जिस जुबां से कभी शहद टपकता था आज वही जबान अभद्र, अश्लील और बुरी तरह कड़वी हो गई है। बात बात पर तैश खाना और आपा खोना क्या हमारा नैतिक पतन है अथवा तामसी जीवन का असर। कहीं इसके लिए हमारी शिक्षा दीक्षा अथवा आसपास का वातावरण तो जिम्मेदार नहीं।
भौतिकता की अंधी दौड़, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में प्रेम और सद्भाव का अभाव शायद कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेदार हो। सद्बुद्धि, आचरण की शुद्धता, संयम, विवेक और परस्पर प्रेम ही इस बढ़ती कड़वाहट को दूर कर सकता है। काश ऐसी कोई मधुशाला हो जहां ;
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख लालसा ज़हर है… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 238 ☆
☆ लालसा ज़हर है… ☆
‘आवश्यकता से अधिक हर वस्तु का संचय व सेवन ज़हर है…सत्ता, संपत्ति, भूख, लालच, सुस्ती, प्यार, इच्छा, प्रेम, घृणा और आशा से अधिक पाने की हवस हो या जिह्वा के स्वाद के लिए अधिक खाने की इच्छा…दोनों ज़हर हैं, घातक हैं, जो इंसान के पतन का कारण बनती हैं।’ परंतु बावरा मन सब कुछ जानने के पश्चात् भी अनजान बना रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु- पर्यंत इच्छाओं-आकांक्षाओं के मायाजाल में उलझा रहता है तथा और… और…और पाने की हवस उसे पल-भर के लिए भी चैन की सांस नहीं लेने देती। वैसे एक पथिक के लिए निरंतर चलना तो उपयोगी है, परंतु उसमें जिज्ञासा भाव सदैव बना रहना चाहिए। उसे बीच राह थककर नहीं बैठना चाहिए; न ही वापिस लौटना चाहिए, क्योंकि रास्ते तो स्थिर रहते हैं; अपने स्थान पर बने रहते हैं और चलता तो मनुष्य है।
इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ का संदेश देकर मानव को प्रेरित व ऊर्जस्वित किया था, जिसके अनुसार मानव को कभी भी दूसरों से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मानव को भ्रम में उलझाती है…पथ-विचलित करती है और उस स्थिति में उसका ध्यान अपने लक्ष्य से भटक जाता है। अक्सर वह बीच राह थक कर बैठ जाता है और उसे पथ में निविड़ अंधकार-सा भासता है। परंतु यदि वह अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग है; अपने लक्ष्य पर उसका ध्यान केंद्रित है, तो वह निरंतर कर्मशील रहता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच कर ही सुक़ून पाता है।
आवश्यकता से अधिक हर वस्तु की उपलब्धि व सेवन ज़हर है। यह मानव के लिए हानिकारक ही नहीं; घातक है, जानलेवा है। जैसे नमक शरीर की ज़रूरत है, परंतु स्वाद के लिए उसका आधिक्य रक्तचाप अथवा ब्लड-प्रैशर को आह्वान देता है। उसी प्रकार चीनी भी मीठा ज़हर है; असंख्य रोगों की जन्मदाता है। परंतु सत्ता व संपत्ति की भूख व हवस मानव को अंधा व अमानुष बना देती है। उसकी लालसाओं का कभी अंत नहीं होता तथा अधिक …और अधिक पाने की उत्कट लालसा उसे एक दिन अर्श से फ़र्श पर ला पटकती है, क्योंकि आवश्यकताएं तो सबकी पूर्ण हो सकती हैं, परंतु निरंकुश आकांक्षाओं व लालसाओं का अंत संभव नहीं है।
आवश्यकता से अधिक मानव जो भी प्राप्त करता है, वह किसी दूसरे के हिस्से का होता है तथा लालच में अंधा मानव उसके अधिकारों का हनन करते हुए तनिक भी संकोच नहीं करता। अंततः वह एक दिन अपनी सल्तनत क़ायम करने में सफलता प्राप्त कर लेता है। उस स्थिति में उसका लक्ष्य अर्जुन की भांति निश्चित होता है, जिसे केवल मछली की आंख ही दिखाई पड़ती है… क्योंकि उसे उसकी आंख पर निशाना साधना होता है। उसी प्रकार मानव की भटकन कभी समाप्त नहीं होती और न ही उसे सुक़ून की प्राप्ति होती है। वास्तव में लालसाएं पेट की क्षुधा के समान हैं, जो कभी शांत नहीं होतीं और मानव आजीवन उदर-पूर्ति हेतु संसाधन जुटाने में व्यस्त रहता है।
परंतु यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि नियमित रूप से मल-विसर्जन के पश्चात् ही मानव स्वयं को भोजन ग्रहण करने के योग्य पाता है। उसी प्रकार एक सांस को त्यागने के पश्चात् ही वह दूसरी सांस ले पाने में स्वयं को सक्षम पाता है। वास्तव में कुछ पाने के लिए कुछ खोना अर्थात् त्याग करना आवश्यक है। यदि मानव इस सिद्धांत को जीवन में अपनाता है, तो वह अपरिग्रह की वृत्ति को तरज़ीह देता है। वह हमारे पुरातन संत-महात्माओं की भांति परिग्रह अर्थात् संग्रह में विश्वास नहीं रखता, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य अनिश्चित है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। सो! आने वाले कल की चिंता व प्रतीक्षा करना व्यर्थ है और जो मिला है, उसे खोने का दु:ख व शोक मानव को कभी नहीं मानना चाहिए। गीता का संदेश भी यही है कि मानव जब जन्म लेता है तो उसके हाथ खाली होते हैं। वह जो कुछ भी ग्रहण करता है, इसी संसार से लेता है और अंतिम समय में सब कुछ यहीं छोड़ कर, उसे अगली यात्रा के लिए अकेले निकलना पड़ता है। यह चिंतनीय विषय है कि इस संसार में रहते हुए ‘पाने की खुशी व खोने का ग़म क्यों?’ मानव का यहां कुछ भी तो अपना नहीं…जो कुछ भी उसे मिला है– परिश्रम व भाग्य से मिला है। सो! वह उस संपत्ति का मालिक कैसे हुआ? कौन जानता है, हमसे पहले कितने लोग इस धरा पर आए और अपनी तथाकथित मिल्क़ियत को छोड़ कर रुख़्सत हो गए। कौन जानता है आज उन्हें? इसलिए कहा जाता है कि जिस स्थान की दो गज़ ज़मीन मानव को लेनी होती है; वह स्वयं वहां चलकर जाता है। यह सत्य कथन है कि जब सांसो का सिलसिला थम जाता है, तो हाथ में पकड़ा हुआ प्याला भी ओंठों तक नहीं पहुंच पाता है। सो! समस्त जगत्-व्यवहार सृष्टि-नियंता के हाथ में है और मानव उसके हाथों की कठपुतली है।
परंतु आवश्यकता से अधिक प्यार-दुलार, प्रेम-घृणा, राग-द्वेष आदि के भाव भी हमारे पथ की बाधा व अवरोधक हैं। प्यार में इंसान को अपने प्रिय के अतिरिक्त संसार में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। परंतु उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा व प्रेम मानव को उस चिरंतन से मिला देता है; आत्म-साक्षात्कार करा देता है। इसके विपरीत किसी के प्रति घृणा भाव उसे दुनिया से अलग-थलग कर देता है। वह केवल उसी का चिंतन करता है और उसके प्रति प्रतिशोध की बलवती भावना उसके हृदय में इस क़दर घर जाती है कि वह उस स्थिति से उबरने में स्वयं को असमर्थ पाता है।
इसी प्रकार ‘लालच बुरी बला है’ यह मुहावरा हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं। लालच वस्तु का हो या सत्ता व धन-संपत्ति का; प्रसिद्धि पाने का हो या समाज में दबदबा कायम करने का जुनून– मानव के लिए हानिकारक है, क्योंकि ये सब उसमें अहं भाव जाग्रत करते हैं। अहं संघर्ष का जन्मदाता है, जो द्वन्द्व का परिणाम है अर्थात् स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का भाव मानव को नीचे गिरा देता है। वह अहंनिष्ठ मानव औचित्य- अनौचित्य व विश्वास-अविश्वास के भंवर में डूबता-उतराता रहता है और सही राह का अनुसरण नहीं कर पाता, क्योंकि वह भूल जाता है कि इन इच्छाओं-वासनाओं का अंत नहीं। परिणामत: एक दिन वह अपनों से दूर हो जाता है और रह जाता है नितांत अकेला; एकांत की त्रासदी को झेलता हुआ…और वह उन अपनों को कोसता रहता है कि यदि वे अहं का त्याग कर उसका साथ देते, तो उसकी यह मन:स्थिति न होती। एक लंबे अंतराल के पश्चात् वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जो संभव नहीं होता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् सब कुछ लुट जाने के पश्चात् हाथ मलने अथवा प्रायश्चित करने का क्या लाभ व प्रयोजन अर्थात् उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जीवन की अंतिम वेला में उसे समझ आता है कि वे महल-चौबारे, ज़मीन-जायदाद, गाड़ियां व सुख-सुविधाओं के उपादान मानव को सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते, बल्कि उसके दु:खों का कारण बनते हैं। वास्तविक सुख तो संतोष में है; परमात्मा से तादात्म्य में है; अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाकर संग्रह की प्रवृत्ति त्यागने में है; जो आपके पास है, उसे दूसरों को देने में है; जिसकी सुधबुध उसे जीवन-भर नहीं रही। वह सदैव संशय के ताने-बाने में उलझा मृग- तृष्णाओं के पीछे दौड़ता रहा और खाली हाथ रहा। जीवन की अंतिम बेला में उसके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त खोने के लिए शेष कुछ नहीं रहता। सो! मानव को स्वयं को माया- जाल से मुक्त कर सृष्टि-नियंता का हर पल ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वह प्रकृति के कण-कण में वह समाया हुआ है और उसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का अभीष्ठ है।
आलस्य समस्त रोगों का जनक है और जीवन- पथ में अवरोधक है, जो मानव को अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंचने देता। इसके कारण न तो वह अपने जीवन में मनचाहा प्राप्त कर सकता है; न ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति का स्वप्न संजो सकता है। इसके कारण मानव को सबके सम्मुख नीचा देखना पड़ता है। वह सिर उठाकर नहीं जी सकता और उसे सदैव असफलता का सामना करना पड़ता है, जो उसे भविष्य में निराशा-रूपी गहन अंधकार में भटकने को छोड़ देती है। चिंता व अवसाद की स्थिति से मानव लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो सकता। इस स्थिति से निज़ात पाने के लिए जीवन में सजग व सचेत रहना आवश्यक है। वैसे भी अज्ञानता जीवन को जड़ता प्रदान करती है और वह चाहकर भी स्वयं को उसके आधिपत्य, नियंत्रण अथवा चक्रव्यूह से मुक्त नहीं कर पाता। सो! जीवन में सजग रहते हुए अच्छे-बुरे की पहचान करने व लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त अनथक प्रयास करने की आवश्यकता है। आत्मविश्वास रूपी डोर को थाम कर इच्छाओं व आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना संभव है। इस माध्यम से हम अपने श्रेय-प्रेय को प्राप्त कर सकते हैं तथा वह हमें उस मुक़ाम तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् केवल ब्रह्म ही सत्य है और भौतिक संसार व जीव-जगत् हमें माया के कारण सत्य भासता है, परंतु वह मिथ्या है। सो! उस परमात्मा के अतिरिक्त, जो भी सुख-ऐश्वर्य आदि मानव को आकर्षित करते हैं; मिथ्या हैं, क्षणिक हैं, अस्तित्वहीन हैं और पानी के बुलबुले की मानिंद पल-भर में नष्ट हो जाने वाले हैं। इसलिए मानव को इच्छाओं का दास नहीं; मन का मालिक बन उन पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता से अधिक हर वस्तु रोगों की जननी है। सो! शारीरिक स्वस्थता के लिए जिह्वा के स्वाद पर नियंत्रण रखना श्रेयस्कर है। स्वाद का सुख मानव के लिए घातक है; सर्वांगीण विकास में अवरोधक है और हमें ग़लत कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। अहंतुष्टि के लिए कृत-कर्म मानव को पथ- विचलित ही नहीं करते; अमानुष व राक्षस बनाते हैं और उन पर विजय प्राप्त कर मानव अपने जीवन को सफल व अनुकरणीय बना सकता है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “थप्पड़ और पत्थर…“।)
अभी अभी # 403 ⇒ थप्पड़ और पत्थर… श्री प्रदीप शर्मा
थप्पड़ और पत्थर दोनों शब्दों में बहुत समानता है। पत्थर न केवल आकार में ठोस होता है, इस शब्द का उच्चारण भी कोमल नहीं होता। इस शब्द की तो चोट ही बहुत भारी पड़ती है। पत्थर के सनम, तुझे हमने मोहब्बत का खुदा समझा। इतना ही नहीं, किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है। इन दोनों गीतों में लगता है, शायर शायद पत्थर शब्द फेंककर मार रहा है। जरूर किसी पत्थर दिल से वास्ता पड़ा होगा।
अक्षरों का समूह ही तो शब्द है। कुछ शब्द कोमल होते हैं, तो कुछ कठोर। सरिता और कविता तो बहती ही है, जब कि थप्पड़ तो जड़ा जाता है, और पत्थर फेंका जाता है। थप्पड़ से थोबड़ा सूज जाता है और पत्थर कभी किसी का लिहाज नहीं करता।
पत्थर से सेतु भी बनाए जाते हैं, बुलंद इमारतें भी खड़ी की जाती हैं, और पत्थर को पूजा भी जाता है। अगर इरादे बुलंद हों तो एक पत्थर तबीयत से उछलकर आसमान में सूराख भी किया जा सकता है, लेकिन जिनकी अक्ल में ही पत्थर पड़े हों, वे ही हाथों में पत्थर उठाते हैं। फिर कोई कितनी भी अनुनय विनय करे, गिड़गिड़ाए, कोई पत्थर से ना मारे, मेरे दीवाने को।।
जब पत्थर, एक फेंककर चलाए जाने वाले हथियार की शक्ल ले लेता है, तो यह एक अस्त्र हो जाता है। जब कि तलवार, गदा, भाला, शस्त्र की श्रेणी में आते हैं। बेलन अस्त्र भी है और शस्त्र भी। इससे प्रहार भी किया जा सकता है, और इसे फेंककर भी मारा जा सकता है। जो काम एक कलम कर सकती हैं, उसके लिये तलवार चलाना कहां की समझदारी है।
“थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। “
धन्य है, आज की दबंग पीढ़ी। हमारी पीढ़ी को तो हमेशा डर लगा रहता था, कब किस बात पर पिताजी का थप्पड़ पड़ जाए। हमें याद नहीं, कभी मां ने हमें थप्पड़ मारा हो। हां गुस्सा जरूर होती थी, लेकिन मारूं एक थप्पड़ कहने के साथ ही मुस्कुरा भी देती थी।।
थप्पड़ तो इंसान का बांए हाथ का खेल है। एक पड़ेगी उल्टे हाथ की ! ईंट का जवाब तो पत्थर से दिया जा सकता है, थप्पड़ का जवाब इस पर निर्भर करता है, कि थप्पड़ मारा किसने है। बड़ों का थप्पड़ अकारण ही नहीं होता। अगर हमारी गलती पर तब हमें थप्पड़ नहीं पड़ा होता, तो शायद आज हम गलत रास्ते पर ही होते।।
जिस दबंग कन्या को कभी थप्पड़ से डर नहीं लगा, उसके माता पिता अगर समय रहते ही उसे एक थप्पड़ रसीद कर देते, तो आज वह इस तरह सभ्यता, समाज और संस्कृति का मजाक नहीं उड़ाती।
जिस पीढ़ी को समय पर थप्पड़ नहीं पड़ा, वही आगे चलकर हाथों में पत्थर उठा लेती है। थप्पड़ एक सीख है, सबक है, बच्चों को सुधारने की मनोवैज्ञानिक क्रिया है। जिस तरह समझदार को इशारा काफी होता है, बच्चों को थप्पड़ मारना जरूरी नहीं, केवल थप्पड़ का डर ही काफी है।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “नित नूतन नवल विहान…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
वेदना के स्वर मुखरित होकर सम वेदना को जन्म देते हैं। हमारी सोचने समझने की क्षमता अचानक से कम हो जाती है। हम दर्द को महसूस कर परिस्थितियों के वशीभूत असहाय होकर मौन का दामन थाम लेते हैं।
संवेदना का गुण हर सजीव की विशेषता है ये बात अलग है कि परिस्थितियों वश कभी – कभी लोग कठोर व भाव शून्य हो जाते हैं। साहित्यकार विशेष कर कवि मूलतः भावुक हृदय के होते हैं। बिना भाव किसी भी विषय व विधा पर लिखा ही नहीं जा सकता। सभी रसों का मूल बिंदु करुण रस पर ही आधारित होता है। करुणा से ही संवेदना का अस्तित्व है और यही मुखर होकर शृंगार, वीर, हास्य, रौद्र, वीभत्स, वात्सल्य में परिवर्तित हो जाता है। ईश्वर प्रदत्त इस गुण को अपने मनोमस्तिष्क से कभी कम न होने दें तभी आपके इंसान होने की सार्थकता है।
जीत और हार का सिलसिला कदम- कदम पर सामने आकर परीक्षा लेता है। सच्चे लोग हर परिस्थिति में हौंसला नहीं छोड़ते एक बिंदु पर दोनों दल औपचारिकता वश एक साथ चल पड़ते हैं। अब प्रश्न ये है कि क्या व्यक्तित्व का तेज कम प्रभावी व्यक्ति झेल पायेगा। या कदम – कदम पर बस बहानेबाजी होगी कि मुझे कोई सम्मान नहीं दे रहा। कर्तव्य पथ को छोड़कर जाना कमजोर व्यक्तित्व की निशानी है। योग्यता विकसित करें, भगवान सभी को मौका देते हैं पर पद की गरिमा का निर्वाह वही करेगा जो त्याग की भावना के साथ सबको लेकर चलने की क्षमता रखता हो।
अब समय है नए सूर्योदय का, देखते हैं क्या- क्या निर्णय जनता की तरक्की हेतु एकमत से लिए जाते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “निन्यानवे का फेर…“।)
अभी अभी # 402 ⇒ निन्यानवे का फेर … श्री प्रदीप शर्मा
जिस तरह एक और एक ग्यारह होते हैं, दो नौ मिलकर निन्यानवे होते हैं। इकाई की सबसे बड़ी संख्या अगर ९ है, तो दहाई की ९९ . किशोर उम्र को अंग्रेजी में teen age कहा जाता है, जो तेरह से उन्नीस बरस की होती है। क्रिकेट के बल्लेबाज की भी एक स्थिति होती है, जिसे नर्वस नाइंटीज कहते है। चौके छक्के लगाकर नब्बे तक तो शान से पहुंच गए, इक्यानवे से शुरू होकर यह निन्यानवे पर ही खत्म होती है। कई अच्छे अच्छे बल्लेबाज इस संख्या के बीच अपनी विकेट गंवा बैठते हैं, कुछ तो निन्यानवे के फेर में केवल एक रन से शतक चूक जाते हैं। वीर और शतकवीर के बीच केवल एक रन की ही तो दूरी रहती है।
यह निन्यानवे का फेर भी अजीब है। हम तो खैर अपने समय में इतने प्रतिभाशाली छात्र थे, कि आय नेवर स्टुड सेकंड। हमने हमेशा गांधी डिविजन से ही काम चलाया। लेकिन एक आज की पीढ़ी है, डिविजन से नहीं परसेंटेज से चलती है और वह भी ९०-९५ प्रतिशत से इनका काम नहीं चलता। प्रतिस्पर्धा की दौड़ ही ९९ प्रतिशत से शुरू होती है। ९९.१ से ९९.९ तक प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा।
यहां निन्यानवे के फेर में कोई नहीं, शत प्रतिशत में उनका विश्वास होता है। वाकई यह नालंदा की पीढ़ी है, इसमें कोई शक नहीं। ।
बड़ा अजीब है यह अंक ९९, जब अथ श्री महाभारत कथा में योगेश्वर श्री कृष्ण शिशुपाल को निन्यानवे गालियों तक अभयदान का आश्वासन देते हैं, लेकिन जब शिशुपाल यह ९९ की लक्ष्मण रेखा भी पार कर जाता है, तो शिशुपाल का खेल खत्म हो जाता है।
राजनीति में भी एक मुक्त और विलुप्त होने के कगार पर खड़ी पार्टी जब इस बार के लोकसभा चुनाव में ९९ सीट ले आती है, तो हमारे जैसा आम व्यक्ति अनायास ही ध्यानस्थ हो जाता है। क्या ध्यान से सांसारिक अथवा राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। उधर एक ईश्वर का अवतार चुनाव के बीचोबीच ४५ घंटे का ध्यान करता है, और इधर उसकी घोर विरोधी पार्टी की सीट ५५ से ९९ हो जाती है। अजीब चमत्कार है ध्यान का। ध्यान कोई करे और लाभ किसी और को ही मिले। ।
आजकल सभी निन्यानवे के फेर में लगे हैं। योग से रोग भगाया जा रहा है और पैसा कमाया जा रहा है। ईश्वर से जोड़ने वाले योग को भी टुकड़ों टुकड़ों में बांट दिया है। यम नियम को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और काक चेष्टा बको ध्यानं, के मंत्र को व्यवहार में लाते हुए, मोटिवेशनल स्पीच और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के सहारे सफलता के सोपान तय किए जा रहे हैं।
मैं भी आजकल निन्यानवे के फेर में हूं। संगीत सुनने और धारणा ध्यान में व्यर्थ समय ना गंवाते हुए संगीत और योग से बीमारियां कैसे दूर हों, इस पर पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा हूं। अपने ज्ञान ध्यान का अगर दुनिया को लाभ ना हो, और दो पैसे अगर हम भी नहीं कमाएं, तो समझिए ;