(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “ड्राइंग रूम अप्रासंगिक होते जा रहे हैं… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 313 ☆
आलेख – ड्राइंग रूम अप्रासंगिक होते जा रहे हैं… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
त्यौहार पर संदेशे तो बहुत आ रहे हैं, लेकिन मेहमान कोई नहीं आया. ड्राइंग रूम का सोफा मेहमानों को तरस रहा है.
वाट्सएप और फेसबुक पर मैसेज खोलते, स्क्रॉल करते और फिर जवाब के लिए टाइप करते – करते हाथ की अंगुलियां दर्द दे रही है. संदेशें आते जा रहे हैं. बधाईयों का तांता है, लेकिन मेहमान नदारद हैं. काल बेल चुप है. मम्मी पापा अगर साथ रहते हैं तो भी कुछ ठीक है अन्यथा केवल घरवाली और बेटा या बेटी.
पहले की तरह यदि आपने आने वाले मेहमानों के लिये बहुत सारा नाश्ता बना रखा है तो वह रखा ही रह जाता है.
सगे संबंधियों, दोस्तों की तो छोड़ दें, आज के समय आसपास के खास सगे-संबंधी और पड़ोसी के यहां मिलने – जुलने का प्रचलन भी समाप्त हो गया है.
अमीर रिश्तेदार और अमीर दोस्त मिठाई या गिफ्ट तो भिजवाते हैं, लेकिन घर पर देने खुद नहीं आते बल्कि उनके यहां काम करने वाले कर्मचारी आते हैं.
दरअसल घर अब घर नहीं रहे हैं, ऑफिस की तरह हो गए हैं.
घर सिर्फ रात्रि में एक सोने के स्थान रह गए हैं, रिटायरिंग रूम ! आराम करिए, फ्रेश होईये और सुबह कोल्हू के बैल बनकर कम पर निकल जाईये. ड्राइंग रूम अब सिर्फ दिखावे के लिये बनाए जाते हैं, मेहमानों के अपनेपन के लिए नहीं. घर का समाज से कोई संबंध नहीं बचा है. मेट्रो युग में समाज और घर के बीच तार शायद टूट चुके हैं.
घर अब सिर्फ और सिर्फ बंगला हो गया है. शुभ मांगलिक कार्य और शादी-व्याह अब मेरिज हाल में होते हैं. बर्थ-डे मैकडोनाल्ड या पिज़्ज़ा हट में मनाया जाता है. बीमारी में सिर्फ हास्पिटल या नर्सिंग होम में ही खैरियत पूछी जाती है. और अंतिम यात्रा के लिए भी लोग सीधे श्मशान घाट पहुँच जाते हैं.
सच तो ये है कि जब से डेबिट-क्रेडिट कार्ड और एटीएम आ गये हैं, तब से मेहमान क्या. . चोर भी घर नहीं आते हैं. चोर भी आज सोचतें हैं कि, मैं ले भी क्या जाऊंगा. . फ्रिज, सोफा, पलंग, लैपटॉप, टीवी. कितने में बेचूंगा इन्हें ? री सेल तो OLX ने चौपट कर दी है.
वैसे भी अब नगद तो एटीएम में है इसीलिए घर पर होम डिलेवरी देनेवाला भी पिज़ा-बर्गर के साथ कार्ड स्वाइप मशीन भी लाता है.
क्या अब घर के नक़्शे से ड्राइंग रूम का कंसेप्ट ही खत्म कर देना चाहिये ?
विचार करियेगा. पुराने के समय की तरह ही अपने रिश्तेदारों, दोस्तों को घर पर बुलाईए और उनके यहां जाइयेगा. आईये भारत की इस महती संस्कृति को पुनः जीवित करे.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुबह सवेरे…“।)
अभी अभी # 522 ⇒ सुबह सवेरे श्री प्रदीप शर्मा
सुबह सवेरे को हम प्रातः काल भी कहते हैं। कुछ लोगों के लिए तो जब जागे तभी सवेरा होता है लेकिन जो नहीं जागा क्या उसकी सुबह नहीं होती। कुछ लोग जाग उठते हैं तो कुछ को जगाना पड़ता है ;
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहाँ जो तू सोवत है
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है..
पक्षियों को कौन जगाता है, मुर्गा क्यों दिन उगने के पहले ही बांग देकर सूर्यवंशियों की नींद में खलल डालता है। उधर एक मलूकदास ने अजगर के साथ पंछियों को भी लपेट लिया, पंछी करे ना काम। अगर सबके दाता राम ही हैं तो पंछी क्यों हमारे उठने के पहले ही आकाश मार्ग में मैराथन फ्लाई किया करते हैं।
यही प्रार्थना काल उषाकाल भी कहलाता है।
मैं किसी मुहूर्त को नहीं मानता सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त को मानता हूं। इसे अमृत वेला भी कहते हैं। यह योगियों के जागने का समय होता है। वैसे तो योगी जागा जगाया होता है, फिर भी रात्रि का समय विश्राम का होता है। पूरी प्रकृति भी रात में थम सी जाती है।
लेकिन प्रकृति के विश्राम में भी सृजन चलता रहता है। कोई कली, कहीं खिल रही होती है, तो उधर रात रानी महारानी तो रात में ही खिलने, महकने लगती है। ।
योगियों का ध्यान साधना कहलाता है और संगीत में साधना को रियाज भी कहा जाता है। आखिर सुर की साधना भी तो परमेश्वर की ही साधना होती है।
जिसे प्रार्थना, इबादत अथवा अरदास कहते हैं, उसका समय भी सुबह का ही होता है। सभी आराधना स्थलों में सुबह की आरती कीर्तन और प्रार्थना होती है। कहीं राम का गुणगान होता है, तो कहीं कृष्ण का कीर्तन।
रियाज तो पहलवान भी करते हैं, जिसे वर्जिश कहते हैं, आखिर उस्ताद, गुरु, और पहलवान कहां नहीं होते। सुबह का समय ही तो अभ्यास का होता है। सुबह का याद किया दिन भर ही नहीं, जीवन भर याद रहता हैं। वैसे ईश्वर को तो हर पल स्मरण किया जा सकता है ;
कलियुग केवल
नाम आधारा।
सिमर सिमर
नर उतरे पारा।।
संगीत में प्रात:कालीन राग भी होते हैं। सुबह सवेरे हम जितने भी भजन अथवा फिल्मी गीत सुनते हैं, वे सब किसी न किसी राग पर ही आधारित होते हैं। राग भैरव अगर जागो मोहन प्यारे है, तो मेरी वीणा तुम बिन सूनी, राग अहीर भैरव पर आधारित है। जब हम पूछो न कैसे मैने रैन बिताई गुनगुनाते हैं तो वह भी राग अहीर भैरव ही होता है।
इधर सुबह हमारा ध्यान चल रहा है और उधर कहीं रेडियो पर गीत बज रहा है, इक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, हमारा ध्यान भटकता है, लेकिन हम नहीं जानते, यह फिल्मी गीत भी राग ललित पर ही आधारित है। हो सकता है, धुन और ध्यान का आपस में कुछ संबंध हो। ।
मेरी सुबह आज भी ध्यान धारणा के पश्चात् रेडियो से ही शुरू होती है। आज भी देखिए, विविध भारती की प्रातःकालीन सभा भजनों से ही शुरू होती है, जिसके बाद भूले बिसरे गीत और संगीत सरिता प्रोग्राम। और तो और देखादेखी में रेडियो मिर्ची भी सुबह का रिचार्ज आराधना से ही करने लगा है। रेडियो सीलोन पर भी यही क्रम था, पहले भजन और उसके बाद पुरानी फिल्मों का संगीत। आप ही के गीत आते आते तो सुबह की आठ बज जाती थी।
हम जानें या ना जानें, हमारे पास संगीत सदा विराजमान रहता है, ईश्वर तत्व की तरह, हम उससे भले ही अनजान रहते हों, लेकिन हमारे कान कभी धोखा नहीं खाते। जो भी पुराना फिल्मी गीत अथवा भजन हम अवचेतन में गुनगुनाने लगते हैं, उसकी धुन किसी शास्त्रीय राग पर ही आधारित होती है। ।
संगीत और ईश्वरीय अनुभूति गूंगे का गुड़ है।
यह ज्ञान और विद्वत्ता का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। जो इसे जानता है, उसे जानने का अहंकार भी हो सकता है, लेकिन संगीत का रस और ईश्वरीय अनुभूति तो केवल डूबने से ही प्राप्त हो जाती है। करते रहें करने वाले शास्त्रार्थ और तत्व मीमांसा। जरा उधर देखिए ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 107 ☆ देश-परदेश – मंहगाई डायन खाय जात है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
दीवाली चली गई, हेल्थी सीजन का समय हो चुका है, परंतु देश का औसत तापमान है, कि कम हो ही नहीं रहा है। इसके चलते महंगाई अपने चरम पर है। पुराना समय याद आ गया जब छत के पंखों को दशहरे के दिन वस्त्र पहनकर ब्लॉक कर दिया जाता था। पंखों की पंखुड़ियों पर कपड़े का कवर चढ़ाने से उनका उपयोग रुक जाता था। इससे पंखे साफ रहते थे, और बिजली के बिल भी कम हो जाते थे।
आधा नवंबर माह बीतने को है, और गर्मी है, कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बाजार से कुछ भी खरीदे, महंगाई का ठीकरा यूक्रेन के साथ इजराइल को भी जोड़ दिया जाता हैं।
शहर के होटलों ने भोजन की थाली के भाव में बीस प्रतिशत महंगी कर दी है। ऊपर के पेपर में छपी खबर भाव कम करने की जानकारी दे रही हैं। कुछ आश्चर्य भी हुआ।
एयरपोर्ट तो क्या हमने तो कभी रेलवे स्टेशन पर दो रुपए में छह पूरी सब्जी सहित नहीं खाई थी। स्टेशन के खाने को लेकर पिताश्री बहुत सख्त थे। हमेशा से यात्रा में घर की रोटी के साथ आम का आचार ही खाते हैं। अभी भी हवाई यात्रा में भी ये ही सब करते हैं।
कुछ माह पूर्व देहरादून हवाई जहाज से जाना हुआ था। वहां के हवाई अड्डे पर वापसी के समय कट चाय पीने की तलब लगी, लेकिन दो सौ रुपए कप चाय का भाव सुनकर तो तोते ही उड़ गए थे। वो तो बाद में वहां लाउंज पर दृष्टि पड़ गई। एस बी आई के कार्ड धारक होने से मात्र दो रुपए लगे, और असीमित बुफे खाने पीने की सुविधाओं ने हवाई यात्रा की खुशी को दोगुना कर दिया। हमने तो तय कर लिया है, अब उसी हवाई अड्डे की यात्रा करेंगे जहां लाउंज की सुविधा उपलब्ध रहेगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंछी, काहे होत उदास…“।)
अभी अभी # 521 ⇒ पंछी, काहे होत उदास श्री प्रदीप शर्मा
जिनके पंख होते हैं, उनका घर खुला आकाश होता है ! जब पंछी थक जाता है, तो किसी डाल पर, किसी मुंडेर पर बैठ जाता है, प्रकृति उसके दाना-पानी की व्यवस्था करती है, और रात्रि विश्राम के लिए वह अपने नीड़ का निर्माण करता है।
क्या बचपन में कभी आप भीड़ में, अथवा मेले में खोए हो ? एक मुसाफ़िर वीरान जंगल में जब राह भटक जाता है, रास्ता भूल जाता है, दिशाहीन हो जाता है, तब खुले आकाश के नीचे होते हुए भी वह अपने आपको जकड़ा और असहाय सा महसूस करता है। वापस अपनी मंज़िल पाने के लिए, सही रास्ते पर आने के लिए, उसे किसी मार्गदर्शक की, रहबर की जरूरत होती है। जब तक भटके हुए राही को उसकी मंज़िल नहीं मिल जाती, वह अपने आपको एक बंधक सा महसूस करता है। और जब उसे उसकी मंज़िल मिल जाती है, उसे लगता है, उसे दुनिया की हर चीज मिल गई।।
खोना और खुद को खोने में यही फर्क है। जब हम खो जाते हैं, तो हमें मंज़िल की तलाश होती है और जब हम खुद को खो देते हैं, तो मंज़िल आसान हो जाती है।
हम पंछी की बात कर रहे हैं !
कबूतर शांति का प्रतीक माना जाता है। मैं जिस जगह निवास करता हूं, वहां न ज़मीन मेरी है, न आसमान। एक अदद 2 BHK फ्लैट मेरा आशियाना है। मेरे घर में खिड़कियां हैं, जिनसे मच्छर न आएं, इसलिए जालियां लगी हैं, हवा आने के लिए घर में पंखे जो हैं।।
घर का दरवाज़ा खुला देख, न जाने कहां से सुबह सुबह, एक कबूतर अचानक घर में प्रवेश कर गया। किसी अनचाहे व्यक्ति को तो आप बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं, लेकिन आकाश में उड़ने वाले आज़ाद परिंदे को, भटकने पर, रास्ता नहीं दिखा सकते। अभिमन्यु की तरह वह मेरे घर में प्रवेश कर तो गया था, लेकिन वहाँ से वापस निकलना, उसके बस में नहीं था।
मैं कोई बहेलिया नहीं था, मैंने कोई जाल नहीं बिछाया था। मैं चाहता था, कि वह वापस सुरक्षित खुले आकाश में विचरण करे। मैं उसकी मदद करना चाहता था, लेकिन हम दोनों न तो एक दूसरे की भाषा जानते थे, और न ही अपने भावों को प्रकट कर सकते थे। मुझे देख उसकी छटपटाहट और बढ़ जाती, मैं चाहता, उसे पकड़कर बाहर छोड़ दूँ, लेकिन वह घबराकर और कहीं उड़कर बैठ जाता। मुझे लगा, मैंने उसे बंधक बना लिया है। थक हारकर मैंने उसकी मुक्ति के सारे प्रयास छोड़ दिये और घर के सभी खिड़की दरवाज़े खोल दिए, और एक मूक दृष्टा बनकर, अपने आपको उसकी नज़र से छुपा लिया।।
वह करीब दो घंटे एक ही जगह बैठा रहा ! जब उसे पूरी तसल्ली हो गई, कि वह एकदम अकेला है, उसका डर कुछ कम हुआ और उसने बाहर जाने की कोशिशें शुरू कर दीं। मैं केवल प्रार्थना करता रहा और वह प्रयत्न। कभी खिड़की के पास तक जाता, फिर वापस आ जाता। मुझे आश्चर्य हुआ, जो
पक्षी दिन भर खुले आसमान में उड़कर शाम को अपने घर आसानी से पहुँच जाता है, वह एक नई जगह, बंद होने पर कितना असहाय हो जाता है।
उसे राह सूझ नहीं रही थी, और अपने आपको बुद्धिमान समझने वाला मैं मूर्ख प्राणी उसकी कोई मदद नहीं कर पा रहा था।
धैर्य का फल मीठा होता है। उसकी मेहनत रंग लाई, और पाँच घंटे की कशमकश के बाद उसे बाहर जाने का दरवाजा नज़र आया और पंछी ने मुक्त आकाश में उड़ान भर ही ली। ईश्वर ने मेरी प्राथना सुन ली। आखिर एक अभिमन्यु नियति के चक्रव्यूह से बाहर आने में सफल हुआ।।
मैं कितना, एक पंछी की व्यथा, बेबसी और मेरी लाचारगी को, आप तक पहुंचाने में सफल हुआ, नहीं जानता, लेकिन के एल सहगल कितनी आसानी से उस पंछी की बात कह गए देखिये ;
पंछी रे, काहे होत उदास !
तू छोड़ न मन की आस।
देख घटाएँ आई हैं
एक संदेसा लाई हैं
पिंजरा लेकर उड़ जा पंछी
जा साजन के पास
पंछी, काहे होत उदास।।
कवि प्रदीप भी कह गए हैं,
पिंजरे के पंछी रे, तेरा दर्द न जाने कोय !
हम अपने शौक और मनोरंजन के लिए इन मूक पशु-पक्षियों को बंधक बनाकर इनके पालक बन बैठते हैं। जो प्राणी अपनी इच्छा से हमारे पास आए, अथवा मज़बूरी में आपके पास आए, तो आप उसे पालकर उस पर अहसान कर सकते हैं। और अहसान तो तब ही होगा, जब उसे आप उसकी ही दुनिया में रहने दें। अगर आपने उसे शरण दी भी है, तो वापस उसे उसके परिवार में, उसकी दुनिया में छोड़ दें।
आपकी सहनशक्ति और सहिष्णुता के वैसे भी बहुत चर्चे हैं आजकल ! सुना है जब आप किसी इंसान से असहमत होते हैं, तो उसे अपने दुश्मन के पास भेज देते हैं। मुझे खुशी है, वह नन्हा सा प्राणी हमारी नफ़रत की दुनिया से वापस अपनी दुनिया में सुरक्षित चला गया।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 264 ☆ नर में नारायण…
कई वर्ष पुरानी घटना है। शहर में खाद्यपदार्थों की प्रसिद्ध दुकान से कुछ पदार्थ बड़ी मात्रा में खरीदने थे। संभवत: कोई आयोजन रहा होगा। सुबह जल्दी वहाँ पहुँचा। दुकान खुलने में अभी कुछ समय बाकी था। समय बिताने की दृष्टि से टहलते हुए मैं दुकान के पिछवाड़े की ओर निकल गया। देखता हूँ कि वहाँ फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की लंबी कतार लगी हुई है। लगभग 30-40 बच्चे होंगे। कुछ समय बाद दुकान का पिछला दरवाज़ा खुला। खुद सेठ जी दरवाज़े पर खड़े थे। हर बच्चे को उन्होंने खाद्य पदार्थ का एक पैकेट देना आरंभ किया। मुश्किल से 10 मिनट में सारी प्रक्रिया हो गई। पीछे का दरवाज़ा बंद हुआ और आगे का शटर ग्राहकों के लिए खुल गया।
मालूम हुआ कि वर्षों से इस दुकान की यही परंपरा है। दुकान खोलने से पहले सुबह बने ताज़ा पदार्थों के छोटे-छोटे पैक बनाकर निर्धन बच्चों के बीच वितरित किए जाते हैं।
सेठ जी की यह साक्षात पूजा भीतर तक प्रभावित कर गई।
अथर्ववेद कहता है,
।।ॐ।। यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।
– (अथर्ववेद 10-8-1)
अर्थात जो भूत, भविष्य और सब में व्याप्त है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।
योगेश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
– (श्रीमद्भगवद्गीता-6.30)
अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
वस्तुत: हरेक की श्वास में ठाकुर जी का वास है। इस वास को जिसने जान और समझ लिया, वह दुकान का सेठजी हो गया।
… नर में नारायण देखने, जानने-समझ सकने का सामर्थ्य ईश्वर हरेक को दें।…तथास्तु!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख आलेख – रिपोर्ताज –क्या है रिपोर्ताज?)
रिपोर्ताज अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये।
रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।य ह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।
रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।
रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।
रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।
रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।
रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:
‘लक्ष्मीपुरा’ हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली ‘रूपाभ’ पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।
‘भूमिदर्शन की भूमिका’ शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक ‘दिनमान’ पत्र में छपा है। हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे ‘तूफानों के बीच’ (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं
रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।
रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।
रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।
रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।
रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं। लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।
रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं। सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।
रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।
रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।
अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पाँव छू लेने दो…“।)
अभी अभी # 520 ⇒ पाँव छू लेने दो श्री प्रदीप शर्मा
पाँच छूना भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख लोक-व्यवहार है ! उम्र में बड़े लोगों को सम्मान देने की यह ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें उनके झुककर पाँव छूए जाते है, जिसके बदले में वे आशीर्वाद-स्वरूप जीते रहो, सुखी रहो अथवा दूधों नहाओ, पूतों फलो, जैसे उद्गार प्रकट करते रहते हैं।
पाँव छूना, अहंकार को गलाता है ! चूँकि झुकना, पाँव छूने की प्रमुख प्रकिया है, अतः ऐसा माना जाता है, कि झुकने से अहंकार गलित हो जाता है। जो बड़े बूढ़े होते हैं, उन्हें झुकने की मनाही होती है। अधिक न झुकने से घुटने की बीमारी हो जाती है। पहलवानों का सीना चौड़ा होता है, और घुटने कमज़ोर। डॉक्टर भी उन्हें कम ज़ोर लगाने की सलाह देता है, झुकने के लिए मना करता है, और वे कमोड पर आ जाते हैं।।
जिन पहाड़ों पर ज़्यादा धूप नहीं आती, वहाँ बारहों महीने बर्फ़ जमा रहती है। बर्फ़ पहाड़ का अहंकार है, जो धूप-रूपी प्रेम से ही पिघलता है। बर्फ़ के पिघलते ही, अहंकार नदी का रूप लेकर प्रेम-सागर में जा मिलता है, पहाड़ उसी तरह तनकर खड़ा रहता है। बर्फ पहाड़ का अहंकार है और प्रेम-रूपी धूप बर्फ का पिघलना।
प्रेम में सर कटाया जाता है, झुकाया जाता है। स्वाभिमान में सर ऊपर रखा जाता है, वह कभी झुकता नहीं। पहाड़ की चोटियों तक पहुंचने वालों का भले ही कुछ समय के लिए सर, गर्व से ऊँचा हो जाए, पहाड़ की ऊँचाई कभी कम नहीं होती। अहंकार गल सकता है, स्वाभिमान कभी टूटता नहीं। क्योंकि पहाड़ कभी झुकता नहीं।।
पाँव छू लेने को धोक देना भी कहते हैं। ग्लोबल युग में यह औपचारिकता वीडियो फ़ोन पर भी निभाई जा सकती है। दादाजी यहाँ मज़े में हैं, और बेटा, बहू और पोता सुदूर सिएटल गाँव से वीडियो पर धोक दे रहे हैं। आठ साल से बेटा स्वदेश नहीं आया। दादी गुजरी थी, तब आया था। दादाजी से यहाँ की दोस्ती-यारी नहीं छूटती। यहाँ पूछ-परख है, सम्मान है। कोई पाँव छूता है, अच्छा लगता है।
धोक से कभी-कभी इंसान धोखा भी खा जाता है। वैसे भी क और ख में ज़्यादा दूरी नहीं ! राजनीति में पाँव छूना, धोक देना, किसी धोखे देने से कम नहीं। चुनाव के वक्त घर में आना, अनजान बुजुगों के साथ पाँव छूकर आशीर्वाद लेते हुए फ़ोटो खिंचवाना, और बाद में कभी मुँह नहीं दिखाना, महज दिखावा और धोखा नहीं है तो और क्या है।।
ऐसा कहा जाता है, बुजुर्गों का साया, खुशनसीबों को ही मिलता है। जब तक मिलता है, उसकी कीमत नहीं समझ में आती। साया हटते ही आसमान टूट पड़ता है। मंदिर में भगवान, और घर में पूजा-पाठ के वक्त पंडित जी के पाँव छूए जाते हैं। इनके अलावा किसी के पाँव छूकर आशीर्वाद लेने का मौका तो अब मिलता ही कहाँ है।
अपने घर के बुज़ुर्गों के पाँव अगर श्रद्धा और समर्पण के साथ छूए जाते, तो क्या वे वृद्धाश्रम का मुँह कभी देख पाते ! आजकल सम्पन्न घरों में बच्चा गोद लेने का चलन चल रहा है। कुँआरी अभिनेत्रियां समाज-सेवा के नाम पर बच्चे गोद ले रही है और बच्चे पाल उनके नौकर-नौकरानी रहे हैं। लेकिन बेसहारा बुजुर्गों को कोई गोद नहीं लेता . They are not so cute!
अधिक उम्र, अधिक साल-संभाल, सावधानी और सेवा माँगती है। छोटे परिवार नौकरियों और उच्च-शिक्षा के कारण और भी छोटे होते जा रहे हैं। अकेले बुजुर्ग सुबह की सैर और पास के बगीचे में थोड़ा वार्म-अप तो कर लेते हैं, लेकिन दिन भर बातों के लिए तरस जाते हैं। किसे फुर्सत, उनके पास बैठे, वही किस्से-कहानियाँ बार बार सुने। जिस घर में बच्चों की किलकारी आज भी मौजूद है, बस वे घर ही स्वर्ग हैं। बच्चे दिखावे के लिए पाँव नहीं छूते, दादाजी के सर पर सवार हो जाते हैं।।
कभी किसी अनजान बुजुर्ग के पाँव छूकर देखें और फ़िल्म ताजमहल का यही गीत दोहराएँ –
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ आलेख ☆ सृष्टि की डायरी से – थोड़ी सी छांव☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
ये कैसा सच था ? यह मैं क्या पढ़ रहा था? यही सच था तो ऐसा क्यों था ? ये सृष्टि की डायरी के मात्र तीन पन्ने उसके जीवन का सच बयान कर रहे थे। सृष्टि एक प्राध्यापिका के साथ एक कवयित्री भी है और हम साहित्यिक गोष्ठियों में एकसाथ काव्य पाठ करते, मुलाकातें होतीं और सुनते सुनाते। इन्हीं गोष्ठियों में सृष्टि को लगा कि मैं उसकी कविताओं को रंग रूप दे सकता हूं और वह पहली बार घर आई और अपनी डायरी मुझे ऐसे सौंप गयी, जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु को सौंप रही हो और बोली-सर ! मेरी इन कच्ची पक्की कविताओं को थोड़ा देख लीजिए। यदि आप कहेंगे तो एक कविता संग्रह मैं भी प्रकाशित करवा लूंगी !
इस तरह सृष्टि मेरे लिखने पढ़ने की मेज़ पर अपनी डायरी रखकर चली गयी थी। कुछ दिन डायरी ऐसे ही पड़ी रही, फिर एक दिन जैसे उसकी कविताओं ने चिड़ियों की तरह चहचहा कर मुझे अपनी ओर बुला लिया। मैंने डायरी में से कवितायें पढ़नी शुरू कीं और एक जगह कवितायें न होकर उसकी अपनी ज़िंदगी का सच मेरे सामने था, पूरे तीन पन्नों में लिखा हुआ ! क्या सृष्टि इन्हें डायरी सौंपते समय भूल गयी थी या वह इन पन्नों को मुझ तक पहुंचाना चाहती थी ? मैं कुछ समझ नहीं पाया लेकिन ये पन्ने करवा चौथ जैसे नारी के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिन पर लिखे गये थे, इसलिए बहुत मायने रखते हैं ! वैसे तिथि को देखकर पता चला कि ये पन्ने पांच साल पहले लिखे गये थे यानी पांच साल से सरोज कितनी कशमकश में ज़िंदगी गुजार रही है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मैं आपके सामने सृष्टि की डायरी के पन्ने रखने जा रहा हूं-जस के तस !
……
आज इस करवाचौथ पर न मैं खुश हूं और न ही मेरे मन में कोई उमंग है ! न जीने को दिल करता है और न ही मरने को ! मैं अजीब सी स्थिति में जी रही हूं। मन में ढेरों सवाल उठ रहे हैं पर पूछूं तो किससे ? आज मेरी हालत ऐसी है कि किसी से भी अपने दिल की हालत बयान नहीं कर सकती ! बस, एक घुटन में जी रही हूं, जैसे किसी गैस चैम्बर में बंद कर दी गयी हूं। मैं सब बंधन तोड़कर आज़ाद होना चाहती हूं। पर पता नहीं ये परिवार, रीति रिवाज, समाज और मेरे संस्कार रास्ता रोके खड़े हैं मेरा ! सबके बीच बेबस हो जाती हूं। मेरे दो बेटे हैं, जिनसे मैं बहुत प्यार करती हूं। वे मेरे सबसे बड़े बंधन हैं। उनके लिए मैं अपनी जान भी दे सकती हूं। मैं उनसे कभी अलग नहीं हो सकती, वे मेरे अभिन्न अंग हैं।
आज करवाचौथ पर बहुत से बधाई के मैसेज भी आ रहे हैं, जो कह रहे हैं कि हर ब्याहता स्त्री अपने परिवार, कैरियर, खुशियों और अपनी आज़ादी को परिवार पर कुर्बान कर देती है, कर देनी चाहिए, ऐसे भी संकेत हैं। यदि स्त्री इन हदों के बाहर जाती है तो उसके अपने ही उसे लौटने व सही राह पर चलने की हिदायतें देने लगते हैं! यही नहीं उसे उसके इरादों को तोड़ने की कोशिश करते हैं।
क्या बताऊं, ईश्वर ने मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ पवित्र बंधन में बांधा, जो बिल्कुल मुझसे विपरीत है जैसे कालिदास व विलोम ! न मेरे जैसी परवरिश न ही मेरे जैसे विचार ! दो विपरीत ध्रुव हों जैसे हम दोनों ! मुझे कोई सुकून नहीं मिला आज तक ! मैं घुट घुट कर जी रही हूं, जीती जा रही हू़। बस समय काट रही हूं। काटे नहीं कटते दिन, ये रात जैसी हालत है मेरी।
देख रही हू़ं कि आज अखबार में भी स्त्री के लिए करवाचौथ के महत्त्व पर पन्ने भरे पड़े हैं। करवाचौथ पर स्त्री को सजने संवरने के टिप्स दे रखे हैं पर मुझे किस, सजना के लिए सजना है जो मैं इन पन्नों को पढ़कर समय क्यों खराब करूं? पुरुष तो इतना ही चाहता है कि उसकी पत्नी सजे संवरे और दिन भर भूखी रहकर उसके नाम की माला जपती रहे। हर काम पति की मर्ज़ी से करे। वही काम करे, जिसमें पति की खुशी हो। बस, उसके कदमों पर चले, ज़रा भी इधर उधर न हो ! स्त्री का प्रभुत्व पुरुष को कभी स्वीकार नहीं, सदियों से ! वह करवाचौथ जैसे संस्कार और परंपरा के नाम पर स्त्री को उलझाये रखना चाहता है। हम महिलायें खुद कमा रही हैं लेकिन पति के उपहार की राह देखतीं भूखी रहकर दिन काट देती हैं ! पुरुष समाज ने बचपन से ही ऐसी सोच बना दी है हमारी ! ये संस्कार हमारे बंधन बनते चले गये। कोई भी महिला इन संस्कारों से बाहर नहीं जा सकती और जाये तो परिवार टूट जाये ! स्त्री अपने पति के इशारों पर नाचती है, समाज में पतिव्रता दिखाने के लिए।
हे ईश्वर ! मुझे इन बंधनों से मुक्ति दे दो !!
……..
ये कौन सी सृष्टि मेरे सामने थी ? ये सृष्टि का कौन सा चेहरा था ? साहित्यिक गोष्ठियों में वह बहुत शांत सी, हल्की सी मुस्कान बिखेरती मिलती थी। फिर यह सृष्टि मन की किन गुफाओं में कहां छिपी बैठी थी और कब से ? सच में हर इंसान के अनेक चेहरे होते हैं। सृष्टि का यह चेहरा मुझे झकझोर कर रख गया ! वह गोष्ठियों में थोड़ा सकुचाती हुई आती थी भाग लेने, जैसे कोई चोरी कर रही हो और पकड़े जाने के डर से परेशान भी रहती हो। तभी वह बार बार कहती थी कि सर ! संडे को रखा करो गोष्ठियां ! छुट्टी वाले दिन रखी गोष्ठी में वह सहज रहती थी लेकिन उसके शांत से चेहरे के पीछे इतने तूफान उमड़ते रहते होंगे, यह भेद आज ही खुला। मन की गुफाओं में हर आदमी कितना कुछ छिपाये रखता है ! फिर मैंने सृष्टि की कविताओं के विषयों पर ध्यान दिया तो और भी हैरान हो गया ! सृष्टि की कविताओं में असल में यही तीन पन्नों वाली बात बार बार आ रही थी-किसी बच्ची के साथ जन्म के बाद से ही भेदभाव समाज में, परिवार में और फिर यह भेदभाव शादी ब्याह के बाद भी बढ़ते चले जाना ! चाहे मायका हो या ससुराल नारी के मन की बात कोई सुनने को, मानने को तैयार नहीं ! न उसकी रूचियों का सम्मान और न ही उसकी भावनाओं की कद्र ! करे तो क्या करे ? जाये तो जाये कहां ? सृष्टि सचमुच घुट घुट कर जी रही थी, पल पल मर रही थी लेकिन बेटों से प्यार उसे जीने के लिए एक रास्ता, एक खूबसूरत बहाना बना हुआ था ! ये कवितायें उसके करवाचौथ वाले दिन लिखे तीन पन्नों की देखा जाये तो काव्यमयी अभिव्यक्ति कही जा सकती हैं। एक नन्ही बच्ची प्यार का थोड़ा सा आंचल मांग रही है, एक नारी अपने मन का करने की आज़ादी मांग रही है और किसी ऐसे अनदेखे संसार की कल्पना में खोई हुई है, जहां उसे अपने मन का करने की आज़ादी होगी ! ये कवितायें सृष्टि की छिपी हुईं, आधी अधूरी चाहतें कही जा सकती हैं ! नारी संघर्ष करे तो कैसे ? जैसे जीने की एक राह तलाश रही थी सृष्टि !
…….
आखिर मैंने डायरी में लिखीं सभी कवितायें पढ़ लीं और सृष्टि को बता दिया कि कवितायें पढ़ ली हैं और फुटनोट दे दिये हैं, किसी भी दिन आकर ले जाओ अपनी डायरी! सृष्टि ने कहा कि सर, किसी छुट्टी वाले दिन आ जाऊंगी और वह एक दिन फोन करके आ भी गयी !
थोड़े से जलपान के बाद मैंने उसकी डायरी के वे पन्ने खोलकर सृष्टि के सामने रख दिये !
सृष्टि को पन्ने देखते ही जैसे कुछ याद आया, जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो और उसके चेहरे पर भी संकोच और लाज के रंग दिखने लगे ! कुछ देर बाद संयत होकर बोली-सर ! बस, उस दिन मैंने अपने मन का गुबार अपनी सखी डायरी को सुना दिया पर आपको डायरी देते इन पन्नों की ओर ध्यान न गया मेरा ! माफ कीजिये !
-पर ऐसा लिखना ही क्यों पड़ा सृष्टि?
मेरे अंदर का पत्रकार जाने कहां से निकल आया बाहर एकदम से !
-सर! ये बात मेरे बचपन से जुड़ी है।
-कैसे ?
-मैं नौवीं में पढ़ती थी और एक रात जब हम भाई बहन खा पीकर सो गये लेकिन मैं अधसोई सी थी, तब मेरे बाबा मां को कहने लगे कि बेटियां बड़ी हो गयी हैं, अब इनकी शादी करेंगे नहीं तो क्या पता क्या दिन दिखायें ! मैंने मन ही मन प्रण कर लिया कि मैं अपने बाबा का सिर कभी नीचा न होने दूंगी और फिर दसवीं पढ़ते पढ़ते मेरी और बड़ी बहन की एक ही घर में शादी हो गयी, ये दोनों सगे भाई थे। मैं पढ़ना चाहती थी लेकिन शादी कर एक तरह से मेरी राहें बंद करने की कोशिश की बाबा ने।
-फिर? बचपन की शादी कैसी लगी ?
-बिल्कुल वैसी ही जैसी महात्मा गांधी ने लिखा कस्तूरबा के बारे में कि अच्छे अच्छे कपड़े मिलेंगे और खेलने के लिए एक साथी !
-तो मिला फिर साथी ?
-नहीं न ! ये प्लस टू पढ़े थे और दिन भर दोस्तों के बीच बिताकर आते थके हारे ! नयी नवेली दुल्हन का चाव नहीं मन में ! फिर इनकी नौकरी लग गयी फौज में ! कभी लम्बी छुट्टी आते पर साथ आती मेरी सौतन शराब !
-फिर आगे कैसे पढ़ी सृष्टि?
-मैंने मना लिया ससुराल वालों को और काॅलेज में एडमिशन ले लिया। इससे मैं सासु की झिड़कियों से भी बच गयी। सासु यहां तक कहती कि इसे तो झाड़ू लगाना भी नहीं आता और घूंघट भी ढंग से नहीं निकालती ! ये आते तो काॅलेज थोड़ा मिस होता बाकी मैं ग्रेजुएशन ही नहीं बीएड भी कर गयी और प्राइवेट एम ए भी ! बीच में दो प्यारे प्यारे बेटे भी सौगात की तरह आये !
-कभी साथ नहीं गयी सृष्टि?
-गयी ! एकबार जिद्द करके गयी कि हमें भी अपने साथ ले चलो और कुछ समय रही पर बच्चों की पढ़ाई एक जगह टिक कर करवाने के लिए यहीं लौट आई और देखो बच्चे बन भी गये अच्छी जाॅब पर भी लग गये हैं !
-अब क्या फिक्र है सृष्टि?
-मेरी वही सौतन शराब इनके साथ लौट आई है रिटायरमेंट के बाद ! ये मेरे पास होते हुए भी जैसे मेरे पास नहीं होते ! ऊपर से शक का कीड़ा बढ़ता ही जा रहा है और बस, मैं तंग आ गयी इस, सबसे और लिख डाले ये पन्ने, कह डाला डायरी सखी को अपना सारा दुख दर्द ! एकबार तो मन हल्का कर लिया, सर पर आज…
-शक कैसा?
-बहुत शक्की हैं मेरे हसबैंड, सर! अब स्कूल में जाॅब कर रही हूं तो किसी क्लीग का दफ्तर के काम से फोन आयेगा और ये ढेरों सवाल करने लग जायेंगे ! अब गोष्ठियों में आऊं तो सवाल कौन हैं तेरे वहां? दूसरे दिन का अखबार दिखाती हूं कि ये थे मेरे वहां !
फिर सृष्टि की आवाज़ लड़खड़ाने लगी और फिर उसकी आंखें में आंसुओं की धारा बहने लगी ! मैंने उसे रोका नहीं लेकिन मेरा पत्रकार शर्मिंदा होकर रह गया, शायद वह लक्ष्मण रेखा लांघ गया था ! सृष्टि के जीवन में इस तरह झांकने का मेरा कोई अधिकार नहीं था। इसलिए भाग गया और मैं एक संवेदनशील व्यक्ति बन कर लौटा और सृष्टि के कंधे थपथपाते पूछा-अब क्या सृष्टि?
-बस, सर थोड़ी सी छांव चाहिए, पूरा जीवन धूप में नंगे पांव चलते चलते काट दिया ! पांवों पर तो नहीं मन पर न जाने कितने बोझ बढ़ते गये ! उफ्फ् !
मैं कुछ कह न सका और सृष्टि आंसुओं को समेटती, डायरी उठाकर चल दी !
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौन्दर्य बोध…रिश्वत और शराब“।)
अभी अभी # 519 ⇒ रिश्वत और शराब श्री प्रदीप शर्मा
रिश्वत और शराब समाज की आवश्यक बुराइयां हैं।
दोनों का अपना अपना इतिहास है। जो कभी तोहफ़ा था, वह अंग्रेजों के जमाने में बख्शीस हुआ और बाद में कांग्रेस के राज में वह रिश्वत कहलाने लगा। सनातन समय से मदिरा अगर असुरों से जुड़ी हुई है, तो देवता स्वर्ग में सोमरस का पान करते हुए अप्सराओं के नृत्य का आनंद लेते रहते थे। ग़ालिब ने शराब को बहुत मशहूर कर दिया और इसी शराब ने बाद में शरीफजादों को बदनाम कर दिया। मैं शायर बदनाम।
शराब और रिश्वत, खाते पीते लोगों की पहचान है क्योंकि रिश्वत खाई जाती है, और शराब पी जाती है। शरीफ लोग शराब और शराबी से तौबा करते हैं, जब कि रिश्वत लेना और देना दंडनीय अपराध है।
वैसेअगर आप रिश्वत लेते हुए पकड़े गए हो, तो रिश्वत देकर छूट भी सकते हो। ।
वैसे ईश्वर की निगाह में हर जीव बराबर है। वह तो पतित पावन है, पापियों को वह पहले तारता है। साहिर शराब को बुरा नहीं मानते। वे तो साफ साफ कहते हैं ;
मैंने पी शराब,
तुमने क्या पीया
आदमी का खू़न ?
शराब गरीब की मजबूरी है और अमीरों का शौक। शराब कड़वी जरूर है, लेकिन इसे मीठा जहर कहा गया है। वाइन और अल्कोहल में आम आदमी फ़र्क नहीं समझता। वैसे हर बीमार का इलाज दवा दारू से ही तो होता है क्योंकि अधिकांश दवाइयोंमें कुछ प्रतिशत अल्कोहल की मात्रा जरूर होती है।
एक बार तो पुदीनहरा में पांच प्रतिशत तक अल्कोहल पाया गया था। जिंजर टॉनिक में भी जबरदस्त अल्कोहल होता है।
देसी शराब गरीबों के लिए बनी है और विदेशी अमीरों के लिए। लेकिन सरकार का समाजवाद देखिए, आजकल दोनों एक ही जगह उपलब्ध हो रही है। मंदिर मस्जिद ही नहीं, अमीरों और गरीबों में भी तो मेल करा रही है आज की शासकीय मधुशाला। ।
जो शराब को छूते तक नहीं, उन्हें रिश्वत से कोई परहेज नहीं होता। क्योंकि भारतीय मुद्रा एक जैसी होती है। रिश्वत के लिए किसी विशेष मुद्रा की सरकार ने व्यवस्था नहीं की है। अगर कोई अधिकारी नकली नोटों की रिश्वत लेते पकड़ा जाएगा, तो उसका अपराध और अधिक संगीन हो जाएगा। वैसे इस धंधे में पूरी ईमानदारी होती है और नोट भी असली ही होते हैं।
एक शराबी के मुंह से तो फिर भी शराब की बू आ सकती है लेकिन आप जिन सज्जन से गले मिल रहे हैं, उन्होंने जीवन में कभी रिश्वत ली या नहीं ली, यह या तो वे स्वयं जानते हैं, अथवा भगवान।
वैसे दान पुण्य में अगर रिश्वत का कुछ प्रतिशत दे दिया जाए, तो पुण्य ही अर्जित होता है, पाप नहीं। ।
दुनिया में कुछ अच्छा बुरा नहीं। सबसे बुरा है, अपराध बोध। बस आपको अपराध का बोध ना हो, वर्ना बिना कुछ किए ही आप अवसादग्रस्त हो जाएंगे। जिन लोगों में व्यवहार कुशलता नहीं, होती वे महज ईमानदारी और आदर्शों का ढिंढोरा पीटा करते हैं। ऐसे ढोंगियों से बचिए। केवल अपनी अंतरात्मा की सुनिए ..!!
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घाव और लगाव। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 256 ☆
☆ घाव और लगाव… ☆
चंद फ़ासला ज़रूर रखिए/ हर रिश्ते के दरमियान/ क्योंकि नहीं भूलती दो चीज़ें/ चाहे जितना भुलाओ/ एक घाव और दूसरा लगाव– गुलज़ार का यह कथन सोचने को विवश करता है तथा अनुकरणीय है। मानव दो चीज़ों को जीवन में लाख भुलाने पर भी नहीं भूल सकता– चाहे वे वाणी द्वारा प्रदत ज़ख़्म हों या शारीरिक घाव। यह दोनों ही शारीरिक पीड़ा व मानसिक आघात पहुँचाते हैं। प्रथम कमान से निकला हुआ तीर बहुत घातक होता है, उसी प्रकार मुख से नि:सृत शब्द भी हृदय को ता-उम्र कचोटते व आहत करते हैं। शरीर के ज़ख़्म तो एक अंतराल के पश्चात् भर जाते हैं, परंतु हृदय के ज़ख़्म एक अंतराल के पश्चात् भी हृदय को निरंतर सालते रहते हैं।
शायद गुलज़ार ने इसीलिए रिश्तों में फ़ासला रखने का संदेश प्रेषित किया है। यदि हम किसी पर बहुत अधिक विश्वास करते हैं और उसे अपना अंतरंग साथी स्वीकार लेते हैं; उसके बिना पलभर के लिए रहना भी हमें ग़वारा नहीं होता और उससे दूर रहने की कल्पना भी मानव के लिए असंभव व असहनीय हो जाती है।
‘रिश्ते सदा चंदन की तरह रखने चाहिए/ चाहे टुकड़े हज़ार भी हो जाएं, पर सुगंध ना जाए।’ रिश्तों में भले ही कोई लाख सेंध लगाने का प्रयास करे, परंतु उसे सफलता न प्राप्त हो। उसकी ज़र्रे-ज़र्रे से चंदन की भांति महक आए। जैसे इत्र का प्रयोग करने पर अंगुलियाँ महक जाती हैं, वैसे ही उनकी महक स्वतः दूसरों तक पहुँच जाती है तथा सबका हृदय प्रफुल्लित करती है।
यदि कोई आपकी भावनाओं को समझ कर भी तकलीफ़ पहुंचाता है तो वह आपका हितैषी कभी हो नहीं सकता। इसलिए आजकल अपने व पराये में भेद करना व दूसरे के मनोभावों को समझना अत्यंत कठिन हो गया है। हर इंसान मुखौटा धारण करके जी रहा है। सो! उसके हृदय की बातों को समझना भी दुष्कर हो गया है। केवल आईना ही सत्य को दर्शाता है। यदि उस पर मैल चढ़ी हो, तो भी उसका वास्तविक रूप दिखाई नहीं पड़ता है। रिश्ते भी काँच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं। इसलिए उन्हें संभाल कर रखना अत्यंत आवश्यक होता है। परंतु आजकल तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो रिश्तों को ग्रहण लग गया है; कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा, क्योंकि हर रिश्ता स्वार्थ पर आधारित है।
‘अपेक्षाएं जहाँ खत्म होती है, सुक़ून वहीं से शुरू होता है। वैसे तो अपेक्षा व उपेक्षा दोनों ही रिश्तों में मलाल उत्पन्न करती हैं और मानव आजीवन मैं और तू के भँवर में फँसा रहता है। रिश्ते प्यार व त्याग पर आधारित होते हैं। जब हमारे हृदय में किसी के प्रति लगाव होगा, तो हम उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर होंगे। आसक्ति जिसके प्रति भी होती है, कारग़र होती है। प्रभु के प्रति आसक्ति भाव मानव को भवसागर से पार उतरने का सामर्थ्य प्रदान करता है। आसक्ति में मैं का भाव नहीं रहता अर्थात् अहं भाव तिरोहित हो जाता है, जो श्लाघनीय है। इसके परिणाम-स्वरूप रिश्तों में प्रगाढ़ता स्वत: आ जाती है और स्व-पर का भाव समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में हम उससे दूर रहने की कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते। वैसे संसार में श्रेष्ठ संबंध भक्त और भगवान का होता है, जिसमें कोई भी एक- दूसरे का मन दु:खाने की कल्पना नहीं कर सकता।
अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है, लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं होती है। वह साधारण मानव को भी फ़रिश्ता बना देती है। इसलिए जब बात रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जियो और जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जिओ। यदि मानव के स्वभाव में निपुणता व विनम्रता है, तो वह ग़ैरों को भी अपना बनाने का सामर्थ्य रखता है। यदि वह अहंनिष्ठ है; अपनों से भी गुरेज़ करता है, तो एक अंतराल के पश्चात् उसके आत्मज तक उससे किनारा कर लेते हैं तथा खून के रिश्ते भी पलभर में दरक़ जाते हैं।
इंसान का सबसे बड़ा गुरु वक्त होता है, क्योंकि जो हमें वक्त सिखा सकता है; कोई नहीं सिखा सकता। ‘वह शख्स जो झुक के तुमसे मिला होगा/ यक़ीनन उसका क़द तुमसे बड़ा होगा।’ सो! विनम्रता का गुण मानव को सब की नज़रों में ऊँचा उठा देता है। ‘अंधेरों की साज़िशें रोज़-रोज़ होती हैं/ फिर भी उजाले की जीत हर सुबह होती है।’ यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ है, आत्मविश्वास उसकी धरोहर है, तो वह सदैव विजयी रहता है अर्थात् मुक़द्दर का सिकंदर रहता है। परंतु घाव व लगाव एक ऐसा ज़हर है, जो मानव को उसके चंगुल से मुक्त नहीं होने देते। यदि वह एक सीमा में है, स्वार्थ के दायरे से बाहर है, तो हितकर है, अन्यथा हर वस्तु की अति खराब होती है; हानिकारक होती है। जैसे अधिक नमक रक्तचाप व चीनी मधुमेह को बढ़ा देती है। सो! जीवन में समन्वय व सामंजस्यता रखना आवश्यक है। वह जीवन में समरसता लाती है। स्थिति बदलना जब मुमक़िन न हो, तो स्वयं को बदल लीजिए; सब कुछ अपने आप बदल जाएगा।
एहसास के रिश्ते दस्तक के मोहताज नहीं होते। वे खुशबू की तरह होते हैं, जो बंद दरवाज़े से भी गुज़र जाते हैं। जीवन में किसी की खुशी का कारण बनो। यह ज़िंदगी का सबसे सुंदर एहसास है। इसलिए शिक़ायतें कम, शुक्रिया अधिक करने की आदत बनाइए; जीने की राह स्वत: बदल जाएगी। अपेक्षा और उपेक्षा के जंजाल से बचकर रहिए, जिंदगी सँवर जाएगी तथा समझ में आ जाएगी। रिश्तों में दूरी बनाए रखिए, क्योंकि घाव आजीवन नासूर-सम रिसते हैं और अतिरिक्त आसक्ति व लगाव पलभर में पेंतरा बदल लेते हैं और मानव को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो पीछे छूट गया है, उसका दु:ख मनाने की जगह जो आपके पास से उसका आनंद उठाना सीखें, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर/ बस भाव व लगाव ही है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता। अक्सर किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार सब कुछ अभिव्यक्त कर देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का परिचय देता है अर्थात् समावेश करता है, तो उसके आसपास का जगत् भी सुंदर हो जाता है।