(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दारू, शराब, ड्रिंक्स…“।)
अभी अभी # 374 ⇒ दारू, शराब, ड्रिंक्स… श्री प्रदीप शर्मा
माया तेरे तीन नाम, परसा, परशु, परसराम की तरह ही बच्चन की मधुशाला में ये तीनों नाम एक ही वस्तु के हैं। अच्छे को बुरा कहना, दुनिया की पुरानी आदत होगी, लेकिन बच्चन की मधुशाला तो मंदिर मस्जिद का मेल कराती है, फिर यह बुरी कैसे हो गई।
हम अच्छे बुरे के चक्कर में इसलिए नहीं पड़ते, क्योंकि सरकार खुद अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए देशी विदेशी दोनों सुविधाएं उपलब्ध करवाती हैं। इस देश में अमीर, गरीब, हर इंसान को खुश रहने का अधिकार है। अपनी हैसियत के अनुसार हर व्यक्ति कहीं ना कहीं, खुशी ढूंढ ही लेता है। ।
तो क्यों न श्रीगणेश दरिद्र नारायण से ही किया जाए। सरकार ने इन्हें नया नाम दे दिया है, इन्हें पहचान पत्र भी दे दिया है, अस्सी करोड़ मुफ्त राशन पाने वाले, ये लोग गरीबी रेखा से नीचे का जीवन स्तर गुजार रहे हैं। गरीबी नशा नहीं, अभिशाप है, यह भूलने के लिए इन्हें दारू का सहारा लेना पड़ता है। इनकी मधुशाला को शुद्ध हिंदी में कलाली कहते हैं। अगर उसमें भी मिलावट हुई, तो उसमें इनकी मुक्ति भी संभव है। लेकिन घरों को बर्बाद करने में इस दारू का बड़ा हाथ है। सरकार बड़ी समझदार है, पहले तो इनके पीने की व्यवस्था करती है, और बाद में नशा मुक्ति केंद्र भी खोलती है। तुम्हीं ने दर्द दिया, तुम ही दवा देना।
दारू को आम भाषा में शराब कहते हैं और जो इसे पीता है, उसे शराबी। आज की युवा पीढ़ी के लिए शहरों में जगह जगह बार और रेस्टारेंट खुले हुए हैं, सरकारी विदेशी शराब की दुकान का बोर्ड अलग ही दिख जाता है। यहां शराब का जश्न जन्मदिन से लगाकर रिटायरमेंट की पार्टी तक मनाया जाता है। पीढ़ियों के अंतर को कम करती, संकोच और लिहाज को बेपर्दा करती, जब आज और कल की पीढ़ी, साथ मिलकर चीयर्स करती है, तो राष्ट्रीय एकता का आभास होता है। ।
हमें माफ करें, हम इतने कल्चर्ड नहीं की ड्रिंक्स पार्टियों का गुणगान अपने मुंह से कर पाएं। यहां बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद कहकर बचने से काम नहीं चलता, एक तहजीब होती है, कल्चर होता है, इन पार्टियों का जिसे कॉकटेल पार्टी कहा जाता है।
यहां गरीब सिर्फ वेटर, ड्राइवर और मातहत कर्मचारी ही होते हैं, बाकी सभी मेहमानों में स्त्री पुरुष का भेद भी समाप्त हो जाता है। एक मित्र के परिवार में विवाह के अवसर पर प्रदेश की राजधानी में, एक ऐसा अवसर आया था, जहां सरकारी अफसरों और मंत्रियों की कॉकटेल पार्टी में मेरी संस्कारी पत्नी ने जाने से ना केवल साफ इंकार किया, मुझे भी नहीं जाने दिया। इस कारण इस महाभोज का सीधा वृतांत मैं आप तक नहीं पहुंचा पाया। इसका मुझे आजीवन खेद रहेगा। ।
कहते हैं सुरा असुरों के लिए बनी है, देवताओं के लिए स्वर्ग में इंद्रदेव ने मादक अप्सराओं और पृथ्वीलोक पर सर्वथा अनुपलब्ध अनोखी, अद्भुत मदिरा की व्यवस्था कर रखी है। ऐसे स्वर्ग की आस में ही हम इस धरती पर पूजा पाठ, यज्ञ हवन और दान दक्षिणा कर समुचित पुण्य कमा रहे हैं, ताकि इस लोक में कॉकटेल पार्टी ना सही, स्वर्गलोक में कोई हमें मदिरा और अप्सराओं से वंचित ना करे।
सोचो क्या साथ जाएगा। सब कुछ यहीं धरा रह जाएगा। स्वर्ग में केवल अच्छाई और दान पुण्य ही साथ जाएगा। ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 85 ☆ देश-परदेश – बॉम्बे शहर हादसों का शहर ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज प्रातः ये गीत गुनगुनाते हुए, स्नानगृह से बाहर आए, तो श्रीमती जी ने प्रश्न दाग दिया, आज प्रभु के भजन के स्थान पर ये घटिया गाना कैसे याद आ गया ?
ज्ञानी लोग सही कहते है, जैसा खाओगे या जैसा मन में विचार करेगें, वैसा ही आपका मन बन जायेगा।कुछ दिनों से हादसों की सुनामी आई हुई है।टीवी, सोशल मीडिया भी हादसों की चर्चा कर रहें हैं।तो हमारा मन भी तो प्रभावित होगा।
भयंकर गर्मी, ऊपर से चुनावों की गर्मी, सोने पर सुहागा।पुणे, राजकोट घटनाओं की आग अभी भी सुलग रही हैं। दिल वालों की दिल्ली भला क्यों पीछे रहेगी, वहां तो स्वास्थ्य प्रहरी ही मौत का कुआं बना कर खुला आमंत्रण दे रहें हैं। गर्मी के मौसम में आग लगने की घटनाएं बढ़ जाती है।
सड़क हादसे सदा बहार रहते है, कैसा भी मौसम हो, ये तो ऑल सीजन वाली श्रेणी में रहते हैं। वाहन चालक को हमारे यहां उचित ध्यान नहीं दिया जाता हैं। काम के घंटे हो या उनके विश्राम, भोजन आदि का स्तर निम्न श्रेणी में आता हैं।
वाणिज्यिक वाहन चालकों को अधिकतम आठ घंटे ही कार्य करना चाइए। प्रातः वो जब भी गाड़ी को स्टार्ट करें, उसी समय से आठ घंटे का काउंट डाउन आरंभ हो जाना चाहिए । जीपीएस मॉड्यूल, कार्यप्रणाली जैसा कि विदेशों में प्रचलित है, को लागू करना पड़ेगा।
ओवर लोडिंग का श्रीगणेश बाइक पर कम से कम तीन लोग और कार में सात से आठ व्यक्ति बैठ कर देश की विदेशी मुद्रा की बचत करने में वर्षों से अनवरत सहयोग दे रहे हैं। सुरक्षा पेटी, ट्रैफिक नियम का पालन आदि का रिवाज़ हमारे देश में है, ही नहीं।
एक खूबसूरत सी फिल्म है ” खूबसूरत” उसका एक गीत बला सी खूबसूरत अदाकारा सुश्री रेखा पर फिल्माया गया था, गीत के बोल ” सारे नियम तोड़ दो” को हमारे देश के अधिकतर लोग मान देते हैं।
हर हादसे के बाद एक जांच समिति बनेगी, कुछ छोटे लोग सस्पेंड होंगे, समिति की रिपोर्ट गुमनाम हो जाती हैं।ये ही अंतिम सत्य हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घूंट घूंट चिंतन…“।)
अभी अभी # 373 ⇒ घूंट घूंट चिंतन… श्री प्रदीप शर्मा
मन की कई अवस्थाएं होती हैं। एक शांत मन होता है, जिसमें विचारों की भीड़ जमा नहीं होती, वहीं दूसरी ओर एक उत्तेजित मन ऐसा भी होता है, जहां विचारों का जमघट लगा रहता है। कहीं लहर है, तो कहीं तूफान और कहीं प्रशांत महासागर।
उनके खयाल आए, तो आते चले गए। विचारों के सैलाब को थामने के लिए, कागज़ पर कलम चलाने के लिए मूड बनाया जाता है। खिड़की खोली जाती है, पंखा चलाया जाता है, मौसम के हिसाब से ठंडा गरम हुआ जाता है। सुबह सुबह तो चाय का प्याला कमाल कर जाता है, चुस्कियों के साथ चुटकियों में कलम सरपट दौड़ने लगती है।।
बच्चों का मन बड़ा चंचल होता है, खेलते वक्त उन्हें खाने पीने की कोई फिक्र नहीं होती। मां आवाज देती है, दूध पीकर खेलने जाओ। बच्चा, बचने का बहाना बनाता है, अभी गर्म है। मां उसकी चालाकी समझती है, तुरंत ठंडा कर देती है, फीका है, एक और बहाना। मां दूध में हॉर्लिक्स मिला देती है, चलो अब जल्दी गट गट पी जाओ, फिर चॉकलेट भी दूंगी। और बच्चा एक सांस में गट गट, पूरा ग्लास खाली कर देता है।
जो लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, वे चाय हो अथवा दूध, आराम से घूंट घूंट पीते हैं। हमने वह जमाना भी देखा है जहां कॉफी हाउस में एक कप कॉफी और सिगरेट के सहारे लोग घंटों समय काटा करते थे। एक एक चाय का घूंट और हर फिक्र को धुएं में उड़ाने का अंदाज़। सार्वजनिक स्थानों पर आज भले ही धूम्रपान वर्जित हो गया हो, लेकिन आज भी केसर के दाने दाने में दम है। चोर, चोरी से जाए, हेराफेरी से ना जाए।।
जो शायर कम्युनिस्ट होते हैं, वे बदनाम होते हैं। खुले आम शराब पीते हैं, और कहते हैं ;
मैने पी शराब !
तुमने क्या पीया ?
आदमी का खून ….
पीने पिलाने की भी तहजीब होती है। शराब की चुस्कियां नहीं ली जाती, पेग पीये, पिलाये जाते हैं, कहीं घूंट घूंट, तो कहीं बच्चों की तरह गटागट। कहीं शराब गम गलत करती है, तो कहीं खुशी बढ़ाती है।
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।।
एक आम आदमी की जिंदगी भी क्या है। वहां रोज संघर्ष है, मान अपमान है, राग द्वेष है, महत्वाकांक्षा है, हार जीत है, पेशेवर ईर्ष्या (professional jealousy) है। आए दिन कभी उसे अपमान का घूंट पीना पड़ता है, तो कभी जहर का। कभी उसका खून जल रहा है, तो कभी वह बेबस, लाचार सिर्फ खून का घूंट पीकर ही रह जाता है।
घुट घुटकर जीने से तो अच्छा है, दो घूंट ही लगा लें। हम पीने पिलाने से इत्तेफाक नहीं रखते, क्योंकि यह आपका जाती मामला है। फिर भी हम किसी को खून का घूंट पीने से नहीं रोक सकते। ऐसी परिस्थितियों में मुकेश का यह गीत हमारा शॉक ऑब्जर्वर का काम करता है ;
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 242☆ उल्टे पैरों की यात्रा
घर की बालकनी में रखें पौधों में नियमित रूप से पानी डालता हूँ। असीम धरती छुड़वाकर गमले की थोड़ी-सी मिट्टी में इन्हें हम लाए हैं। भरण-पोषण के लिए ये अब हम पर निर्भर हैं। ऐसे में इन्हें समुचित जल, खाद आदि उपलब्ध कराना हमारा धर्म हो जाता है।
गमलों के नीचे प्लेट रखी हुई हैं। गमले से बहकर पानी प्लेट में जमा हो जाता है। जब कभी पौधे को आवश्यकता नहीं होती, तब सीधे प्लेट में पानी भर देता हूँ। इसके चलते पक्षी पानी पी सकते हैं।
इस नियमितता के अनेक लाभ हुए हैं। जब कभी मैं पात्र में जल लेकर बालकनी में पहुँचता हूँ तो मुंडेर या सामने के पेड़ों पर बैठे कबूतरों को प्रतीक्षारत पाता हूँ। मुझे देखते ही कुछ यहाँ से वहाँ उड़ने लगते हैं तो कुछ फड़फड़ाने लगते हैं। पौधों में जल डालते समय कुछ निकट आकर देखते हैं कि जल नीचे प्लेट तक पहुँचा या नहीं। उल्लेखनीय संख्या में कबूतर पानी पीने आते हैं। उनमें से कुछ तो इतना हिल-मिल गए हैं कि साथ के पौधे में पानी डाला जा रहा हो, उनके पंख को हाथ छू जाए तो भी उड़ते नहीं। हमारा फ्लैट ऊँचाई पर होने, ग्रिल के चलते मिलती सुरक्षा और बागबान के इरादे समझ चुकने के बाद वे निश्चिंत होकर पानी पीने लगे हैं। उन्हें आकंठ तृप्त होते देखना सचमुच सुखद है।
एक नकचढ़ा कौआ भी है। मैं सामान्यतः सुबह साढ़े आठ बजे पौधों में पानी डालता हूँ। यदि पौने नौ बज गए तो वह ग्रिल पर बैठकर काँव-काँव मचा देता है। मानो याद दिला रहा हो या कर्कश स्वर में अपना नाराज़गी प्रकट कर रहा हो। जब मैं जल लेकर पहुँचता हूँ तो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे क्रोध से देखता है। पानी पीने के बाद भी वह दो-तीन बार काँव-काँव करता है। अलबत्ता दोनों काँव-काँव के स्वर और भाव में अंतर है। तृप्त होने हो जाने के बाद फिर से एक बार अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखता है और उड़ जाता है।
हाँ, ततैयों का एक समूह भी है। संभव है कि परिवार हो। चार या पाँच ततैया एक साथ आते हैं। कई बार चेहरे के आसपास मंडरा रहे होते हैं पर काटा कभी नहीं। पानी डालने के बाद अपने पसंदीदा पौधे की प्लेट के किनारे बैठते हैं। एक बार चारों ओर देखते हैं, फिर झुक कर पानी पीते हैं। पानी पीने के बाद एक बार फिर चारों ओर देखते हैं और उड़ जाते हैं।
इसी तरह भौंरों का पनघट भी यही है। लम्बी पूँछ वाले कुछ रंग-बिरंगे चीड़े-चिड़िया भी अपने प्रजनन काल में यहीं डेरा डालते हैं। कभी-कभार गौरैया भी दर्शन दे जाती है।
प्रकृति सामासिक है, प्रकृति समन्वय चाहती है। इस समन्वय को कोयल के अंडे सेनेवाली मादा कौआ जानती है, समझती है, निभाती है। अन्य अनेक प्राणियों के भी ऐसे उदाहरण हैं। सब मिलकर प्रकृति की सामासिक शृंखला में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
इस निर्वाह का सबसे बड़ा दायित्व मनुष्य पर है। दुखद है कि एक समय समन्वयक की भूमिका निभानेवाला मनुष्य, अब प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्य से दूर होता जा रहा है। उसकी यात्रा उल्टे पैरों से होने लगी है।
कुआँ, पेड़,
गाय, साँप,
सब की रक्षा को
अड़ जाता था,
प्रकृति को माँ-जाई
और धरती को
माँ कहता था..,
अब कुआँ, पेड़,
सब रौंद दिए,
प्रकृति का चीर हरता है,
धरती का सौदा करता है,
आदिमपन से आधुनिकता
उत्क्रांति कहलाती है,
जाने क्यों मुझे यह
उल्टे पैरों की यात्रा लगती है!
इस यात्रा को सही दिशा देना और अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन करना हर मनुष्य से वांछनीय है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गर्म हवा…“।)
अभी अभी # 372 ⇒ गर्म हवा… श्री प्रदीप शर्मा
होता है, ऐसा भी होता है। गर्मी के मौसम में लोग गर्मागर्म हलवे के साथ, गर्म हवा की भी बातें करने लगते हैं। कितनी भी गर्मी हो, चाय के शौकीन गर्म चाय को फूंक मार मारकर शौक से पीते हैं। गर्मी, गर्मी को मारती है।
कहते हैं, सूरज कहीं नहीं जाता, पृथ्वी ही घूमती रहती है। कहीं नहीं जाने वाले सूरज को हमने सुबह खिड़की से पूरब से उगते देखा है, और उसी सूरज को शाम को दूसरी खिड़की से पश्चिम में अस्त होते देखा है।।
जिस सूरज से हम ठंड में सुबह सुबह ठंड में आंख मिलाते थे, धूप सेंकते थे, वही सूरज अब हमें फूटी आंखों नहीं सुहा रहा। ठंड और बारिश के मौसम में इसी सूरज का हमने स्वागत किया है, लेकिन इस मई जून में इसके तेवर बिल्कुल बदल गए हैं।
यही हाल घर के पंखों का है। जब भी बाहर से घर आते थे, पंखा खोलते ही ठंडी हवा कितनी सुकून देती थी। वही आज्ञाकारी पंखा आजकल गर्म हवा फेंक रहा है। उसने बेचारे ने कौन से आपके घर पर पत्थर फेंक दिए, जो हवा आसपास थी, वही तो आप तक पहुंचाई।।
जिन्हें पंखों पर भरोसा नहीं, उन्होंने घर में कूलर और एसी लगवा लिए हैं, और साथ ही इन्वर्टर भी। वे जानते हैं, गर्मी में बिजली कभी भी जा सकती है। कूलर एसी की हवा में बैठकर आप घंटों गर्मी और राजनीतिक सरगर्मी पर बातें कर सकते हो।
ठंडी ठंडी हवा पर कितने गीत हैं, लेकिन गर्म हवा में तो कविता को भी पसीना आ जाता है। इस गर्मी के मौसम में गर्म हवा की तारीफ कौन करता है भाई। यही तो वह मौसम है, जिसमें अच्छे अच्छे लोगों की लू उतर जाती है, जब इन्हे लू लगती है।।
कितनी भी गर्मी हो, मालवा की रातें तो ठंडी ही होती थीं। पंछी भले ही शाम को घर आते हों, पंखों, कूलर और एसी में दिन भर कैद आम आदमी शाम को ही ठंडी हवा खाने घर से निकलता था। लेकिन यह क्या, सड़कें तप रही हैं, पेड़ पौधे बुत की तरह खड़े हुए हैं। ना हिलना डुलना, ना हवा में इतराना, लहराना।
शबे मालवा ऐसी तो नहीं थी कभी।
गर्मी तो गरीब को भी लगती है और अमीर को भी। सब अपने अपने तरीके से इस गर्मी का मुकाबला करते हैं। सभी को जिंदा रहना है, बारिश की बूंदों के इंतजार में।
सूखे से मौत की खबर अब अखबार की हेडलाइन नहीं बनती। जलसंकट है, लेकिन अन्य संकटों में दब सा गया है। गर्म हवा पर राजनीति के रोड शो हावी हैं। लगता है, सभी को चार जून का इंतजार है।।
इसको ही जीना है तो
यूं ही जी लेंगे।
एसी, कूलर में बैठे बैठे
कोल्ड ड्रिंक्स और ठंडा पानी पी लेंगे।
पारा भले ही 47 डिग्री पार चला जाए, खूब गर्म हवा चले। बस इस बार चार सौ पार हो, तो कलेजे को ठंडक मिले..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आभासी रिश्ते…“।)
अभी अभी # 371 ⇒ आभासी रिश्ते… श्री प्रदीप शर्मा
फेसबुक के रिश्ते कथित रूप से आभासी होते हैं, फिर भी उनमें कहीं ना कहीं असलियत अथवा वास्तविकता नजर आ ही जाती है।
मुझे याद आ रहे हैं, मेजर वर्मा, जिनसे मैं आज से ४५वर्ष पूर्व अपने बैंकिंग कार्यकाल के दौरान मिला था। आज मेजर वर्मा कहां हैं, हैं भी अथवा नहीं, मुझे कुछ पता नहीं।।
उनसे बहुत कम वक्त में ही इतना आत्मीय संबंध हो गया था कि शाम के फुर्सत के क्षणों में वे टहलते टहलते, हाथ में छड़ी लिए, मेरे निवास तक आ जाते थे। वे इतने वृद्ध नहीं थे, कि उन्हें लाठी का सहारा लेना पड़े, लेकिन कुत्तों से बचने के लिए छड़ी उनका एकमात्र विकल्प था।
आपसी बातचीत में अक्सर उनके परिवार का यदाकदा जिक्र आ ही जाता था। उनके एक सुपुत्र कैप्टन भरत वर्मा दिल्ली में पब्लिशर थे और दूसरे पुत्र श्री राज वर्मा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, भोपाल में तब कार्यरत थे।।
मैं उनके परिवार के किसी सदस्य से मिल नहीं पाया, इंदौर में वे अकेले ही एक किराए के मकान में निवास करते थे। कुछ समय के पश्चात् ही वे वापस हमेशा के लिए दिल्ली प्रस्थान कर गए। तब फोन की सुविधा इतनी आम नहीं थी, फिर भी कुछ समय तक हमारा आपस में पत्र व्यवहार चलता रहा।
कब हमारा यह संपर्क भी टूटा, कुछ याद नहीं, लेकिन वे स्मृति में आज भी हैं। फेसबुक पर अनायास एक नाम उभर कर आया, राज वर्मा, और मुझे उनके पुत्र का स्मरण हो आया। ये राज वर्मा भी भोपाल में ही स्टेट बैंक में कार्यरत अवश्य निकले, लेकिन इनका मेजर वर्मा के पुत्र राज वर्मा से कोई लेना देना नहीं था।।
एक अपरिचित, अनजान रिश्ते ने संयोगवश दूसरे आभासी रिश्ते को मुझसे जोड़ दिया। हमसे कब कौन मिलता है, और कब कौन बिछड़ता है, कुछ कहा नहीं जा सकता।
फेसबुक के राज वर्मा आज मेरे प्रिय फेसबुक मित्र हैं। इनकी साहित्यिक यात्रा बड़ी लंबी है और पुस्तकों से इन्हें विशेष प्रेम है। इनसे मिलने का कभी योग भले ही नहीं आया हो, लेकिन फेसबुक की एक और परिचित शख्सियत हेमा बिष्ट जी इनसे मिल चुकी हैं।।
हेमा बिष्ट जी से भी मैं कभी नहीं मिला, लेकिन बातचीत के दौरान उन्होंने जिक्र छेड़ा कि वे मेरे शहर इंदौर में कभी तीन वर्ष के लिए रह चुकी हैं। क्या आभासी खुशी भी होती है। आज वे आस्ट्रेलिया में हैं, लेकिन कभी वे मेरे शहर इंदौर में थी।
रिश्तों में करीबी का अहसास आभासी नहीं होता, हम कितने करीब आ जाते हैं, केवल आभास से। इसे आप स्वप्न भी नहीं कह सकते। जिस तरह हेमा जी लखनऊ जाकर राज जी से मिली, हमारी भी कभी ना कभी, कहीं ना कहीं भेंट संभव है, क्योंकि ;
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 233 ☆
☆ ख़ामोशी एवं आबरू… ☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम्, मैं तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।
घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है। वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है; असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। ख़ामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं; मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गली में जाकर खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं, जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगे, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की,
अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता। पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए; समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर ही मानव को उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – मोक्ष
उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।
मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए संन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।
देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।
अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।
संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना कल सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खून पसीना…“।)
अभी अभी # 369 ⇒ खून पसीना… श्री प्रदीप शर्मा
हमारे शरीर में खून भी है, और पानी भी। जो रगों में दौड़ता रहता है, वह खून कहलाता है। जरा सी चोट लगी, बहने लगता है। थोड़ी मेहनत की, पसीना बहने लगता है। जिनकी आंखें समंदर हैं, वहां समंदर जितने आंसू भी हैं। जितना पानी इस पृथ्वी पर है, उसी के अनुपात से, यानी हमारे इस शरीर में सत्तर प्रतिशत पानी है। हमारी इस पृथ्वी पर भी सत्तर प्रतिशत जल ही तो है।
स्वस्थ और तंदुरुस्त इंसान का खून बढ़ता है। जो हमेशा क्रोध करता है, जलता रहता है, क्या उसका खून नहीं जलता। खून पसीना बहाकर ही इंसान अपनी गृहस्थी चलाता है। खून की कमी और पानी की कमी से इंसान कमजोर हो जाता है। उधर होमोग्लोबिन घटा, इधर खून की बॉटल चढ़ी। शरीर के पानी की मात्रा घटने पर भी तो, सलाइन ही चढ़ाई जाती है।।
इन आंखों में कभी गुस्से में खून उतर आता है तो कभी जब दिल पसीजता है, तो पानी उतर आता है। समंदर ही खारा नहीं होता, हमारा पसीना भी खारा होता है।
कभी जब आपकी उंगली कटती है, तो हम उसे मुंह में ले लेते हैं, हमें हमारे खून का स्वाद भी पता चलता है, आंसू भी गर्म और नमकीन और हमारी रगों में दौड़ता खून भी गर्म और नमकीन। खून की गर्मी ही तो जोश है, जिंदगी है।
उधर जवान सरहद पर खून बहाता है और इधर किसान खेत में पसीना बहाता है। खून और पसीने का कर्ज उतारना हम देशवासियोंके लिए इतना आसान भी नहीं होता।।
जैसा मौसम, वैसी हमारी तासीर। बारिश के मौसम में इधर चाय पी, उधर तुरंत लघु शंका। पानी पीते ही टॉयलेट। ठंड में पसीना नहीं आता, शरीर को गर्मी और धूप चाहिए। भूख भी
गजब की लगती है। ठंड में हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है।।
अभी तो गर्मी का मौसम अपने शबाब पर है। जून की शायरी मई में ही गुल खिला रही है ;
आजा मेरी जान,
ये है जून का महीना।
गर्मी ही गर्मी,
पसीना ही पसीना।।
जितना पसीना हम बहाते हैं, उतनी ही अधिक हमें प्यास लगती है। जो मेहनत अधिक करते हैं, उन्हें भूख भी अच्छी ही लगती है। भोजन से ही हमारा शरीर पुष्ट होता है, खून बढ़ता है, हमारी कार्य शक्ति प्रबल होती है।
खून पसीने से बना हमारा यह शरीर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। जिस तरह कुदरत खाद, पानी और हवा से पेड़, पौधों को सींचती, पल्लवित करती, चंदन वन में परिवर्तित करती है, उसी तरह केवल खून पसीने से हमारा यह शरीर कुंदन सा महकता है। आरोग्य के मंत्र से बड़ा कोई महामृत्युंजय मंत्र नहीं, सोना चांदी च्यवनप्राश नहीं। सच्चा सुख, निरोगी काया। हमने व्यर्थ ही नहीं, खून पसीना बहाया।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आ पहुँचा था एक अकिंचन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
हमारे आचरण का निर्धारण कर्मों के द्वारा होता है । यदि उपयोगी कार्यशैली है तो हमेशा सबके चहेते बनकर लोकप्रिय बनें रहेंगे । रिश्तों में जब लाभ -हानि की घुसपैठ हो जाती है तो कटुता घर कर लेती है । अपने आप को सहज बना कर रखने की कला हो जिससे लोगों को असुविधा न हो और जीवन मूल्य सुरक्षित रह सकें । ये तो आदर्श स्थिति है किंतु जमीनी स्तर पर ऐसा व्यवहार अब कठिन होता जा रहा है । कहने को तो नारी शक्ति संवर्द्धन पर विचार – विमर्श के सैकड़ों सत्र किए जा चुके हैं पर सही समय पर सही निर्णय लेने में जिम्मेदार लोग चूक जाते हैं । कारण साफ है कि बहुत से ऐसे बिंदु होते हैं जहाँ पर घेर का पीड़ित को ही कसूरवार ठहरा दिया जाता है ।
एक तो बड़ी मुश्किल से कोई हिम्मत जुटा पाता है उस पर इतनी जिरह कि कुछ दिनों बाद उसे अहसास होता है कि ऐसा निर्णय करके उसने अपनी मुसीबतें और बढ़ा ली है । ये सच है कि जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाना कोई सहज बात नहीं है लेकिन किसी न किसी को तो हिम्मत दिखानी होगी जिससे समाज की सोच को बदला जा सके । लोग जब जागरूक होने लगेंगे तो निश्चित ही अपराधी को सही समय पर उचित दण्ड मिलेगा जिससे दूसरे भी इस तरह की गलती करने से पहले सौ बार सोचेंगे ।
भाव विभोरक हिय हर्षाती
मन भावन सी नार ।
पावन गंगा पावन यमुना
पावन सी जलधार ।।
जलधार में पत्थरों को चीर कर राह बनाने की शक्ति होती है । जहाँ जल जीवन देता है वहीं धरती को तृप्त कर अन्न से पूरित करता है ।बिजली की शक्ति को धार कर असम्भव को सम्भव करने वाली कभी असहाय नहीं हो सकती ।
अब समय है सामाजिक जनचेतना का जो सत्यम शिवम सुंदरम के अर्द्ध नारीश्वर रूप को जाग्रत कर सतत सत्य के मार्ग का वरण करे ।