हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 542 ⇒ हार और उपहार ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हार और उपहार।)

?अभी अभी # 542 ⇒ हार और उपहार ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

इस बार शादी की सालगिरह पर पत्नी ने मुझसे उपहार स्वरूप सोने का हार मांगा है। मेरी गिरह में इतना पैसा नहीं है, वह भी जानती है, लेकिन सोना एक ऐसी चीज है, जिससे किसी का पेट नहीं भरता। जितना सोना, उतनी अधिक भूख।

देव उठ गए हैं ! शादियों का मौसम है। ज्वैलर्स की चांदी है। जितनी कभी शहर में पान की दुकानें होती थीं, उतनी आज ज्वैलर्स की दुकानें हो गई हैं।।

मेरा शहर भी अजीब है ! लोग यहां सराफा आभूषण खरीदने नहीं, चाट और पकवान खाने जाते हैं। सही भी है ! सोना चांदी भूख बढ़ा भी देते हैं। जो भला आदमी, आभूषण नहीं खरीद सकता, वह सराफा की चाट तो खा ही सकता है।

मंदी और तेजी दो विरोधाभासी शब्द है। मंदी में कीमतें कम नहीं होती, व्यापारी की ग्राहकी कम हो जाती है। जैसे जैसे बाज़ार में मंदी बढ़ती जाती है, भावों में तेजी और ग्राहकी एक साथ बढ़ने लगती है। जितनी भीड़ कभी पान की दुकान पर लगती थी, उतनी आज एक ज्वैलर की दुकान पर देखी जा सकती है।।

उपहार में पत्नी को हार देने की समस्या का समाधान भी पत्नी ने ही कर दिया। उसके एक कान का भारी भरकम बाला कहीं गुम गया। मैं उस वक्त शहर में नहीं था, इसलिए ढूंढो ढूंढो रे साजना, मेरे कान का बाला, जैसी परिस्थिति से बच गया।

महिलाओं के बारे में एक भ्रम है कि उनके पेट में कोई बात नहीं पचती। मैं इससे असहमत हूं। कई बार ऐसे मौके आए हैं, जब अप्रिय प्रसंगों को पत्नी ने मुझसे छुपाया है। आप इसके दो अर्थ लगा सकते हैं ! एक, वह मुझे दुखी नहीं देखना चाहती। दो, वह मुझसे डरती है। मुझे कान के बाले के गुमने की कानों कान खबर भी नहीं होती, अगर मैं उसे यह नहीं कहता, वे कान के बालेे कहां हैं, जो मैंने तुम्हें 25 वीं सालगिरह पर दिलवाए थे।।

कुछ बहाने बनाए गए, काम की अधिकता का बखान किया गया, लेकिन जब बात न बनी, तब राज़ खुला, कि अब दो नहीं, एक ही कान का बाला अस्तित्व में है। उसे लगा, अब सर पर पहाड़ टूटने वाला है। मुझे उल्टे खुश देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ। क्यों न, इस एक बाले के बदले में एक गले का हार ले लिया जाए इस सालगिरह पर, मैंने सुझाव दिया।

नेकी और पूछ पूछ ! उसके चेहरे के भावों को मैंने पढ़ लिया। तुरंत ज्वेलर से संपर्क साधा गया। बीस प्रतिशत के नुक़सान पर वह बाला बेचा गया, और एक अच्छी रकम और मिलाने पर उपहार-स्वरूप एक हार क्रय कर लिया गया।।

उपहार में दिए हार को हम गले में धारण कर सकते हैं, जीवन में मिली हार को हम गले लगाने से कतराते हैं। हमें हमेशा जीत ही उपहार में चाहिए, हार नहीं। ऐसा क्यों है, जीत को सम्मान, हारे को हरि नाम।

सुख दुख, सफलता असफलता को गले लगाना ही हारे को हरि नाम है। शादी की सालगिरह पर उपहार का हार भी एक सकारात्मक संदेश दे सकता है, कभी सोचा न था।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 222 ☆ विचार मंथन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विचार मंथन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 22२ ☆ विचार मंथन

कभी – कभी हम सब अनजाने ही नादानी कर  बैठते हैं और फिर जोर- जोर से उसके प्राश्चित हेतु प्रयास करने लगते हैं। ऐसा ही एक बार  अनोखेलाल जी के साथ हुआ। जब ये अपने दोस्त के घर में चाय पी रहे थे तभी   हैंडल इनके हाथ में आ गया और कप नीचे, जिससे चाय कालीन में फैल गयी अब तो इन्होंने आदत के अनुरूप  जेब से फेवीक्विक निकाला और हैंडल को  कप से लगाते हुए बोले, भाभी जी फीस दीजिये  आपके इस टूटे हुए कप को सुधार दिया। तभी उनकी छोटी बिटिया तपाक से बोल पड़ी, “अंकल ये कारपेट कौन साफ करेगा …? वैसे भी मम्मी कहतीं हैं कि आप तो जब देखो  सिर खाने चले आतें हैं, अपने न सही तो दूसरे के समय की कद्र करनी चाहिए।”

अब तो वहाँ एक अनचाहा सन्नाटा छा गया, अनोखेलाल जी उठे और चुप चाप  जाते हुए सोच रहे थे कि शायद कोई उन्हें रुकने के लिए कहे।

***

वातावरण शुद्धता

व्यक्ति मन प्रबुद्धता

हवन करेंगे मिल

अग्नि को जलाइए ।

*

आहुति के साथ- साथ

हवि रखें  हाथ- हाथ

मंत्र मुख बोलकर

ईश को मनाइए ।।

*

कामनाएँ पूर्ण सारी

शुभ कार्यों की बारी

स्वाहा – स्वाहा कहकर

देव को बुलाइए ।।

*

यजेश्वर विष्णु देव

समिधायें खूब लेव

घी गुड़ खीर पूड़ी

भोग को लगाइए ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 541 ⇒ एक लोटा जल ! ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक लोटा जल ! ।)

?अभी अभी # 541 ⇒ एक लोटा जल ! ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम यहां किसी जलोटा का जिक्र नहीं कर रहे, सिर्फ एक लोटा जल का गुणगान कर रहे हैं। एक हुए हैं गिरधर कविराय, जिन्हें लाठी में तो गुण ही गुण नजर आते हैं, लेकिन एक लोटे जल के बारे में वे चुप्पी साध लेते हैं, जब कि लाठी और लोटे का चोली दामन का साथ है। लाठी के अन्य दो ब्रांड एंबेसेडर गांधी और संघ ने भी लाठी का सहारा तो लिया है, लेकिन लोटे और जल को अनदेखा ही किया है।

लोटा हमारी भारतीय संस्कृति का अंग है। वैसे तो खुले में शौच भी कभी हमारी संस्कृति का ही अंग था, लेकिन जब जल और जंगल ही नहीं रहेंगे तो हमें घर में ही शौचालय की ओर रुख करना पड़ेगा।।

वैसे जहां लोटा है, वहीं ग्लास भी है। कौन मांगता है आजकल एक लोटा जल, पीने के लिए एक ग्लास पानी से ही काम चलाना पड़ता है। जब कि सभी जानते हैं कि ग्लास कांच को कहते हैं, और जिसका अपभ्रंश गिलास है। एक लोटा जल ही सनातन है, जब कि एक ग्लास पानी, आज की कड़वी हकीकत।

आइए, अब हम एक लोटा जल की ओर रुख करते हैं। कहने को कवि गिरधर की तरह हम भी कह सकते हैं, लोटे में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग। कुआं, नदी, तालाब, सभी जगह एक लोटा ही काम आता है। एक रस्सी लोटे के मुंह में बांधी, और कुएं से जल निकाल लिया और ॐ नमः शिवाय।

आज भले ही घरों के बाथरूम में लोटे का स्थान प्लास्टिक के मग ने ले लिया हो, सुबह सुबह उठते ही एक लोटा जल का सेवन हम तांबे के पात्र से ही करते हैं।।

हम सूर्य देवता के साथ ही जाग जाते हैं, और स्नान ध्यान के पश्चात् सबसे पहले एक लोटा जल ॐ आदित्याय नम: कहते हुए पूर्व दिशा में सूरज को अर्पित कर देते हैं। जो शिव भक्त होते हैं, वे उसके बाद एक लोटा जल से शिवजी का भी अभिषेक करते हैं।

जो प्रकृति प्रेमी होते हैं और जिन्हें प्रकृति में ही ईश्वर नजर आता है, वे भी घर के तुलसी के पौधे में ही एक लोटा जल से अपनी आस्था को पुष्ट कर लेते हैं। उनके लिए प्रकृति का हर पौधा उतना ही पवित्र है, जितनी एक आस्तिक के लिए तुलसी माता। वैसे भी औषधि ही आस्था की जननी है। आरोग्य से बड़ा कोई धर्म नहीं, कोई आस्था नहीं।।

सूर्य नमस्कार, सूर्य और अपने अन्य आराध्य इष्ट का एक लोटे जल से अभिषेक कभी आस्था का विषय था, आज के कलयुग में जब आस्था से चमत्कार होने लग जाएं, किसी का कैंसर और किसी की गंभीर समस्या भी हल होने लग जाए, तो आस्था और चमत्कार दोनों को नमस्कार है।

चमत्कार ही चमत्कार है, सिर्फ आस्था का सवाल है, एक लोटा जल पीजिए, सूर्य देवता को भी अर्घ्य दीजिए और शिव जी का अभिषेक कीजिए। श्री शिवाय नमस्तुभ्यं का जाप करें अथवा किसी धाम के दरबार में अर्जी लगाएं, आपकी म..र..जी..।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 540 ⇒ क्रोध और अपमान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “क्रोध और अपमान।)

?अभी अभी # 540 ⇒ क्रोध और अपमान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्रोध और अपमान एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने आपका सम्मान किया हो, और आपको क्रोध आया हो। क्रोध को पीकर किसी का सम्मान भी नहीं किया जा सकता। इंसान और पशु पक्षियों की तरह, शब्द भी अपनी जोड़ी बना लेते हैं। खुदा जब हुस्न देता है, तो नज़ाकत आ ही जाती है। बांसुरी कृष्ण के मुंह लग जाती है और गांडीव अर्जुन के कंधे पर ही शोभायमान होता है। हुस्नलाल के साथ भगतराम ही क्यों ! शंकर प्यारेलाल की जोड़ी नहीं बनी, लक्ष्मीकांत जयकिशन के लिए नहीं बने। जहां कल्याणजी हैं, वहां आनंदजी ही होंगे, नंदाजी अथवा भेरा जी नहीं। धर्मेंद्र हेमा की जोड़ी भी रब ने क्या बनाई है। शब्दों की ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे।

करेला और नीम चढ़ा ! भाई तुम आम के पेड़ पर भी चढ़ सकते थे। अगर आपका सार्वजनिक सम्मान हो रहा हो तो आपके मन में लड्डू ही फूटेंगे, आप अपमान के घूंट थोड़े ही पिएंगे। हंसी के साथ खुशी है, वार के साथ त्योहार, आदर के साथ अगर सत्कार है तो नौकरी के साथ धंधा। आसमान में अगर खुदा है तो ज़मीन पर बंदा है। धंदा जो कभी तेज रहा करता था, आजकल मंदा है। सूरज है तो किरन है, चंदा है तो चांदनी है।।

शब्दों में आपस में दोस्ती भी है और दुश्मनी भी। जब दुश्मनी की बात आएगी तो सांप – नेवले, भारत – पाकिस्तान और भारत – चीन का जिक्र होगा। कांग्रेस मोदीजी को फूटी आंखों नहीं सुहाएगी और कंगना कभी शिव सेना को माफ नहीं कर पाएगी। देव – असुर कभी एक थाली में बैठकर खाना नहीं खाएंगे, मोदीजी अब कभी चाय पीने लाहौर नहीं जाएंगे। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।

जिस तरह बर्फ कभी जमती और कभी पिघलती है, शब्द भी कभी कभी जमते और पिघलते रहते है। ये ही शब्द कभी शोले बन जाते हैं तो कभी शब्दों को सांप सूंघ जाता है। शब्दों की मार से ही कभी किसी को सदमा होता है तो किसी को दमा। शब्द कानों में शहद भी घोल सकते हैं और ज़हर भी। कभी शब्द आंसू बनकर बह निकलते हैं तो कभी आग उगलने लगते हैं।।

शब्द ही भ्रम भी है और ब्रह्म भी। शब्दों का भ्रम जाल ही माया जाल है। शब्द ही जीव है, शब्द ही ब्रह्म। कभी नाम है तो कभी बदनाम। सस्ता शब्द अगर मूंगफली है तो महंगा शब्द बादाम। राम तेरे कितने नाम।

क्या कोई ऐसी रामबाण दवा है इस संसार में कि दुर्वासा को कभी क्रोध न आवे, चित्त की ऐसी स्थिति बन जावे कि मान अपमान दोनों उसमें जगह न पावे। शब्द मार करने के पहले ही पिघल जावे, तो शायद हमें क्रोध ही न आवे। शकर आसानी से पानी में घुल जाती है, सभी रंग मिलकर एक हो जाते। हमारा चित्त बड़ा विचित्र। यहां शब्द ही नहीं पिघल पाते। काश क्रोध और अपमान भी आसानी से द्रवित हो जावे। कितना अच्छा हो यह चित्त, बाल मन हो जावे, सब कुछ अच्छा बुरा, बहुत जल्द भूल जावे। लाख डांटे – डपटे, मारे मां, बच्चा मां से ही बार बार जाकर लिपट जावे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सृजन ? ?

प्रश्न: चिंतित हूँ कि कुछ नया उपज नहीं रहा।

उत्तर: साधना के लिए अपनी सारी ऊर्जा को बीजरूप में केंद्रित करना होता है। केंद्र को धरती के गर्भ में प्रवेश करना होता है। अँधेरा सहना होता है। बाहर उजाला देने के लिए भीतर प्रज्ज्वलित होना होता है। तब जाकर प्रस्फुटित होती है अपने विखंडन और नई सृष्टि के गठन की प्रक्रिया।…हम बीज होना नहीं चाहते, हम अँधेरा सहना नहीं चाहते, खाद-पानी जुटाने का श्रम करना नहीं चाहते, हम केवल हरा होना चाहते हैं।…अपना सुख-चैन तजे बिना पूरी नहीं होती हरा होने और हरा बने रहने की प्रक्रिया।

…स्मरण रहे, यों ही नहीं होता सृजन!

# मानस प्रश्नोत्तरी

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 5.27 बजे,19.9.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 539 ⇒ सबसे ऊंची, प्रेम सगाई ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सबसे ऊंची, प्रेम सगाई ।)

?अभी अभी # 539 ⇒ सबसे ऊंची, प्रेम सगाई ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मानते हैं, प्रेम अमर होता है, लेकिन जहां सगाई है, वहां आगे चलकर शहनाई भी तो बजनी चाहिए। जो विवाह की मर्यादा में विश्वास रखते हैं, वे पहले विवाह करते हैं और उसके पश्चात् प्रेम करते हैं। होता हैं, प्रेम विवाह भी होता हैं, लेकिन वहां भी चट मंगनी पट ब्याह होता है। जहां सिर्फ प्रेम सगाई है, और विवाह लापता है, माफ कीजिए वह प्रेम सगाई नहीं, लिव इन रिलेशन है।

आप अगर उधो से प्रेम की बातें करेंगे तो हम मर्यादा पुरुषोत्तम की बातें करेंगे। जिससे प्रेम सगाई, उससे केवल विवाह ही नहीं, एक पत्नीव्रत भी, फिर भले ही इसके लिए लक्ष्मण को दर्जनों शूर्पणखाओं की नाक ही क्यों ना काटनी पड़े।।

हम संसारी, संस्कारी जीव लोक लाज और मान मर्यादाओं से जकड़े हुए हैं। हमारे लिए विवाह एक अटूट बंधन है। हमारा प्रेम भी लौकिक ही होता है, आखिर देहधारी हैं, देहासक्त तो होंगे ही। हमारे जीवन में राम लीला के लिए तो स्थान है, रास लीला के लिए नहीं। मीरा और राधा की तरह हम अलौकिक प्रेम की बातें नहीं कर सकते।

हमारे संसार में सगाई को आजकल प्री – वेडिंग सेरेमनी कहते हैं, जी हां, वही राधिका – अनंत अंबानी वाली। कलयुग में कुछ लोग उसे अलौकिक भी मानते हैं, क्योंकि उसमें भव्यता भी थी और दिव्यता भी। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह वहां भी अंततः शादी ही संपन्न हुई थी जिसमें मानो स्वर्ग की अप्सराएं और देवी देवता के साथ साधु संतों, महात्माओं, महामण्डलेश्वरों और शंकराचार्यों का आशीर्वाद भी शामिल था।।

हमारे आज के इस जगत में ना तो दुर्योधन का मेवा त्यागा जाता है और ना ही विदुर के साग से परहेज किया जाता है। कृष्ण ने अपने विपन्न मित्र सुदामा के पांव धोकर कोई तीर नहीं मार लिया, वह भी आज के नेताओं की तरह दलित के घर भोजन और लाडली बहना जैसी कोई टीआरपी बढ़ाने वाली लीला ही होगी। असली भक्त वही जो खंडन नहीं, अपने आराध्य का महिमामंडन करे।

जो छलिया, रसिया, माखनचोर कृष्ण कन्हैया है, वही समय आने पर कुरुक्षेत्र में अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन करवाता है, शंख, चक्र, गदाधारी जिसके हाथों में कभी सुदर्शन चक्र है तो कभी तीर कमान। प्रेम हमारी कमजोरी नहीं ताकत है।

भक्तों के लिए अगर प्रेम की गंगा है तो दुष्टों के लिए महाकाल।

प्रेम के अलौकिक स्वरूप को पहचानना इतना आसान नहीं। प्रेम से ही प्रेम की उत्पत्ति होती है।

निश्छल, अनासक्त प्रेम जब परवान चढ़ता है तब ही प्रेम सगाई की स्थिति आती है। राग द्वेष अस्मिता और अहंकारमुक्त होता है शुद्ध असली अलौकिक प्रेम। नित्य शुद्ध और मुक्त होती है प्रेमवस्था। जहां बिना शर्त समर्पण है, बस वही है शायद सबसे ऊंची प्रेम सगाई।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 110 – देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 110 ☆ देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र को देखकर कई मित्र तो माचिस ढूंढने लग गए होंगे। साठ से नब्बे के दशक तक सिगरेट के भी खूब ठाठ हुआ करते थे। खैनी से बीड़ी पर पहुंचे लोग, सिगरेट की तरफ बढ़ चुके थे।

फिल्मी हीरो, फिल्मों और पत्र पत्रिकाओं के विज्ञापन में सिगरेट का सेवन करते हुए अतिरिक्त राशि भी अर्जित करते थे। सस्ते ब्रांड में पनामा और चारमीनार प्रचलित हुआ करते थे।

सिगार का चलन बड़े वाले अमीर परिवार या अंग्रेजी फिल्मों में होता था। हमने भी फिल्मों में ही इसके दर्शन किए थे, क्योंकि अमीर लोग हमारे परिचय में नहीं थे।

सिगरेट के असली शौकीन तो पाउच वाली सिगरेट बना कर पीते थे। इसका लाभ ये होता था, कि सिगरेट कम पी जाती थी। स्वयं पाउच से कागज में तंबाकू भरने के बाद चिपका कर सिगरेट का सेवन, समय और पेशेंस मांगता है, जो बहुत कम लोगों के पास होता था। साधारण पान की दुकानों में पाउच मिलता भी नहीं था।

इंडियन टोबैको और गोल्डन टोबैको बहुत बड़े विख्यात नाम हुआ करते थे, सिगरेट उद्योग के लिए। केंद्रीय बजट में हर वर्ष सिगरेट महंगी होती थी। सिगरेट की लंबाई भी इसकी कीमत तय करने का पैमाना हुआ करता था।

कॉलेज के दिनों में हम भी जेब में माचिस रखा करते थे, ताकि किसी शौकीन को आवश्यकता पड़े, तो काम आ सकें। हमारी माचिस के एवज में कुछ सुट्टे या एक आध सिगरेट का सेजा हो ही जाता था। ऐसे मौके यात्रा के समय बस और ट्रेन में अधिक मिलते थे।

सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाकर हवा में उड़ाने से लड़कियां भी आकर्षित हो जाया करती थी, ऐसा हमने बॉलीवुड की फिल्मों में खूब देखा था। हमने भी प्रयास किया था, लेकिन असफल रहे थे।

टाइम पास के लिए भी सिगरेट एक अच्छा साधन हुआ करता था, जैसे आजकल मोबाइल भी हैं। सिगरेट आपके फेफड़ों को छलनी कर देता है, तो मोबाइल आपके दिमाग को छलनी कर रहा है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “यह घर मेरा नहीं।)

?अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं यहां हरि ओम शरण की बात नहीं कर रहा, जो कह गए हैं, ना ये तेरा, ना ये मेरा, मंदिर है भगवान का। मै जिक्र कर रहा हूं, राग दरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल का, जिनकी एक कृति है, यह घर मेरा नहीं। जिस इंसान ने पहले मकान जैसे उपन्यास की रचना कर दी हो, वह अगर कहे कि यह घर मेरा नहीं, तो बात कुछ गले नहीं उतरती।

घर बनाए ही जाते हैं, रहने के लिए, और किराए से उठाने के लिए ! जो किराए के मकान में रहता है, वह भी अक्सर यही कहता है, यह घर मेरा है। लेकिन जब पहली तारीख को किराया देना पड़ता है, तब वह भी सोचता है, काश मेरा भी खुद का घर होता।।

कुछ लोग घर बनाते हैं, कुछ खरीदते हैं, और कुछ बांधते हैं ! जो खरीदते हैं, उन्हें सिर्फ पैसे का या लोन का इंतजाम करना पड़ता है, लेकिन जो बनाते हैं, वे ही जानते हैं, मकान बनाना, लड़की की शादी निपटाने जैसा काम है। आज जैसी सुविधाएं पहले नहीं थी। न मकान बनाने में, न लड़की की शादी करने में।

एक ज़माना था, खुद के मकान को तो छोड़िए, पड़ोसी और दोस्तों, रिश्तेदारों के मकानों की भी तरी करनी पड़ती थी। कहीं की ईंट, कहीं का पत्थर, पैसा पैसा बचाकर मकान बनाया जाता था। तब न मल्टी बनती थी, न बिल्डर होते थे। किसी पहचान के ठेकेदार को लिया, और मकान शुरू।।

कुछ लोग घर बांधते थे। कैसे बांधते थे, मैं कभी समझ नहीं पाया। फिर किसी ने समझाया, कुछ नहीं, जिस बैंक से लोन लेते हैं, वह इसे बंधक रख लेता है, जब तक आखरी किस्त अदा नहीं हो जाती।

घर को ही मकान कहते हैं ! मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, और एक घर का मकान। धर्मवीर भारती ने जिस बंद गली के आखरी मकान का जिक्र किया है, मैं उसमें 35 वर्ष रह चुका हूं। लेकिन वह मेरा घर नहीं था, किराए का मकान था।।

इंसान चाहे झोपड़ी में रह ले, वह उसका घर होता है ! जिस घर में चैन है, और चैन की नींद है, वही घर है। ईंट पत्थरों के भी कहीं घर होते हैं। बच्चा स्कूल से घर आता है, आदमी दफ्तर, दुकान से शाम को घर आता है। जब भी हम घर से दूर होते हैं, घर बहुत याद आता है।

घर- परिवार को आप अलग नहीं कर सकते। पहले इंसान घर बनाता है, फिर घर चलाता है। महिलाएं घर गृहस्थी साथ लेकर चलती हैं। लड़कियां बचपन से ही घर घर खेलती हैं। हर लड़की के दो घर होते हैं, एक पीहर, एक ससुराल। आदमी की तो बस, पूछिए ही मत ! कभी घर का, तो कभी घाट का।।

महल हो या झोपड़ी, घर घर होता है। कहीं महल में कैकई होती है, क्लेश होता है, तो कहीं किसी कुटिया मे महात्मा विदुर का स्थान होता है, जहां वासुदेव कृष्ण और साग होता है। घर में मां, बहन, बेटी, बहू हो, चैन हो, सुकून हो ! ईश्वर करे, ऐसा कभी ना हो, कि किसी को कहना पड़े, यह घर मेरा नहीं।

कहने को तो शैलेन्द्र भी कह गए हैं, तुम्हारे महल चौवारे, यहीं रह जाएंगे प्यारे ! कुंदनलाल भी कहते कहते थक गए, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए। साहिर भी तो कहते हैं, ये दुनिया मेरे बाबुल का घर, वो दुनिया ससुराल। क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही घर अपने है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ठंड और रजाई।)

?अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब मौसम करवट लेता है, और ठंड दस्तक देती है, तो सबसे पहले रजाई बाहर आती है। अचानक चादर छोटी पड़ने लग जाती है, और इंसान सोचता है, चादर अचानक इतनी ठंडी क्यों हो गई है।

वैसे चादर दो होती है, एक ओढ़ने की और एक बिछाने की। लेकिन जहां गरीबी में आटा गीला हो, वहां इंसान क्या तो ओढ़े और क्या बिछाए। कई बार तो अचानक ठंड पड़ने पर, हमने बिछाई हुई चादर भी ऊपर से ओढ़ी है।।

वैसे कबीर ने सारा ज्ञान चादर पर ही बांटा है, रजाई पर कभी उसका ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे, जुलाहा होते हुए भी हमेशा बाबा बनकर ही तो घूमते रहते थे ;

दास कबीर जतन से ओढ़ी

ज्यों की त्यों

धर दीनी रे चदरिया।।

ठंड में हम भी कबीर बन जाते हैं। चादर को ज्यों की त्यों रख देते हैं और रजाई में घुस जाते हैं। ठंड में रजाई का विकल्प सिर्फ कंबल है। पहले खादी भंडार वाले कम्बल आते थे, जो शरीर को चुभते थे। उधर ठंड चुभ रही और इधर ठंड से बचने जाओ तो कम्बल चुभे। साथ में एक चादर भी ओढ़ना ही पड़ती थी।

समय के साथ गुदगुदे इंपोर्टेड कंबल भी आ गए और मोटी मोटी रजाई की जगह जयपुरी रजाई ने ले ली। जब हमारे घरों में पलंग नहीं थे तो हम सभी भाई बहन जमीन पर ही लाइन से सोते थे। जमीन पर गद्दे बिछते थे और चादर, कंबल, रजाई, जो जिसके हाथ आई। अधिक ठंड होने पर कौन किसकी रजाई खींच रहा है, कौन किसके कंबल में घुस रहा है, कुछ पता नहीं चलता था।।

आजकल कौन जमीन पर सोता है। गद्दे भी कैसे कैसे आ गए हैं, kurl on और sleep well. वैसे तो well का अर्थ कुंआ भी होता है, लेकिन कुंए में ठंड में कौन सोता है।

हमारा तो आज भी बीस किलो रूई वाला गद्दा है और भरी पूरी गदराई हुई रजाई। हम ना तो लग्ज़री सोफे के आदी हैं और ना ही स्लीप वैल वाले गद्दों के। जब कभी घर से बाहर, मजबूरी में, होटलों में ठहरते हैं, तो घर के गद्दे रजाई बहुत याद आते हैं। एक वह भी जमाना था, जब बाहर घूमने जाते थे, तो बिस्तरबंद यानी होलडॉल साथ ले जाते थे।

आज तो सुविधा ही सुविधा है।।

पूरी ठंड हमारी रजाई से यारी रहेगी। लेकिन यह हरजाई भी घुसने से पहले बहुत ठंडी रहती है। यकीन मानिए, रजाई को भी गर्म हम ही करते हैं, हमारे बिना कैसी ठिठुरती रहती है।

रजाई में घुसते ही पहले हम उसे गर्म करते हैं, फिर वह हमें रात भर गर्म रखती है। सुबह उसे छोड़ने का मन नहीं करता। लेकिन वह भी जानती है इंसान की फितरत, इधर सर्दी हवा हुई, उधर हमने दल बदला। रजाई को अलविदा कहा और चादर ओढ़कर सो गए। किसी ने कहा भी तो है ;

पल दो पल का साथ हमारा।

पल दो पल के याराने हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अतीत की स्मृतियों से… ☆ संकलन – सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

सुश्री सुनीला वैशंपायन 

☆ अतीत की स्मृतियों से… ☆ संकलन – सुश्री सुनीला वैशंपायन

 सोशल मीडिया में कई बार अज्ञात लोगों की अज्ञात लोगों द्वारा ऐसी पोस्ट साझा की जाती है जो सहज ही हमें अतीत की स्मृतियों में खोने के लिए विवश कर देती हैं। और उन्हें सहेजने की इच्छा से हम भी सोशल मीडिया पर ही अपने जाने अनजाने मित्रों से साझा कर लेते हैं। प्रस्तुत है ऐसी ही एक पोस्ट –

हमारी यादें कभी भूल नहीं सकेगी। क्योंकि वो अच्छी ही नहीं थी बहुत अच्छी थी।

पहले भटूरे को फुलाने के लिये

उसमें ENO डालिये

 *

फिर भटूरे से फूले पेट को

पिचकाने के लिये ENO पीजिये

☆ जीवन के कुछ गूढ़ रहस्य – आप कभी नहीं समझ पायेंगे ☆

पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को

जीभ से चाटकर कैल्शियम की

कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी

लेकिन

इसमें पापबोध भी था कि कहीं

विद्यामाता नाराज न हो जायें …!!!☺️

पढ़ाई का तनाव हमने

पेन्सिल का पिछला हिस्सा

चबाकर मिटाया था …!!!😀

☆ 

पुस्तक के बीच पौधे की पत्ती

और मोरपंख रखने से हम

होशियार हो जाएंगे …

ऐसा हमारा दृढ विश्वास था. 😀

कपड़े के थैले में किताब-कॉपियां

जमाने का विन्यास हमारा

रचनात्मक कौशल था …!!!☺️🙏🏻

हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते

तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना

अपने जीवन का वार्षिक उत्सव मानते थे …!!!☺️

माता – पिता को हमारी पढ़ाई की

कोई फ़िक्र नहीं थी, न हमारी पढ़ाई

उनकी जेब पर बोझा थी …☺️💕

सालों साल बीत जाते पर माता – पिता के

कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे …!!!😀

एक दोस्त को साईकिल के

बीच वाले डंडे पर और दूसरे को

पीछे कैरियर पर बिठा कर

हमने कितने रास्ते नापें हैं,

यह अब याद नहीं बस कुछ

धुंधली सी स्मृतियां हैं …!!!💕

स्कूल में पिटते हुए और

मुर्गा बनते हमारा ईगो

हमें कभी परेशान नहीं करता था

दरअसल हम जानते ही नहीं थे

कि, ईगो होता क्या है❓️💕

पिटाई हमारे दैनिक जीवन की

सहज सामान्य प्रक्रिया थी😰😀

पीटने वाला और पिटने वाला दोनों खुश थे,

पिटने वाला इसलिए कि हम कम पिटे

पीटने वाला इसलिए खुश होता था

कि हाथ साफ़ हुआ …!!!😀

हम अपने माता – पिता को कभी नहीं बता पाए

कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि

हमें “आई लव यू” कहना आता ही नहीं था …!!!

😰😀💕

आज हम गिरते- सम्भलते, संघर्ष

करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं,

कुछ मंजिल पा गये हैं तो

कुछ न जाने कहां खो गए हैं …!!!😰

हम दुनिया में कहीं भी हों

लेकिन यह सच है,

हमें हकीकतों ने पाला है,

हम सच की दुनियां में थे …!!!

😰

कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना

और रिश्तों को औपचारिकता से

बनाए रखना हमें कभी आया ही नहीं …

इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे …!!!

😰

अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए

हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं,

शायद ख्वाब बुनना ही

हमें जिन्दा रखे है वरना

जो जीवन हम जीकर आये हैं

उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं …!!!

😰

हम अच्छे थे या बुरे थे

पर हम सब साथ थे काश

वो समय फिर लौट आए …!!!

😰😰

“एक बार फिर अपने बचपन के पन्नों

को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे”…💕

और अंत में …

 हमारे पिताजी के समय में दादाजी गाते थे …

 मेरा नाम करेगा रोशन

जग में मेरा राज दुलारा💕

 *

हमारे ज़माने में हमने गाया …

 पापा कहते है बड़ा नाम करेगा💕

 *

अब हमारे बच्चे गा रहे हैं …

 बापू सेहत के लिए …

तू तो हानिकारक है। 😰😰

 *

सही में हम

कहाँ से कहाँ आ गए …???😰

 *

एक बार मुड़ कर  देखिये …

और

मुस्करा दीजिए

क्यों कि

 Change Is Part Of Life.

 Accept It Gracefully 💓😌💓

लेखक – सोशल मीडिया से – अज्ञात 

संकलन : सुश्री सुनीला वैशंपायन

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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