हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 339 ⇒ संपादक मेहरबान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संपादक मेहरबान।)

?अभी अभी # 339 ⇒ संपादक मेहरबान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो लिखता है, वह लेखक नहीं कहलाता, जो छपता है, वही लेखक कहलाता है। अगर संपादक मेहरबान तो लेखक पहलवान। आप कहीं भी छपें, अखबार में अथवा किसी पत्रिका में, या फिर आपकी कोई किताब प्रकाशित हो, तब ही तो आप लेखक कहलाएंगे।

गए वे दिन, जब लेखक वही कहलाता था, जिसकी कोई किताब प्रकाशित होती थी। तब स्थिति यह थी, प्रकाशक मेहरबान, तो लेखक पहलवान। लेकिन आज समय ने लेखक को इतना आर्थिक और बौद्धिक रूप से संपन्न कर दिया है कि उसे किसी प्रकाशक की मिन्नत ही नहीं करनी पड़ती। किताब लिख, अमेजान पर डाल।।

कलयुग में जो छप जाए, वही साहित्य कहलाता है। अखबारों के संपादक लेखक के लिए भगवान होते हैं। अखबार का क्या है, वह तो विज्ञापन से ही चल जाएगा, लेकिन लेखक की कोई रचना, तब ही रचना कहलाएगी, जब वह कहीं छप जाएगी।

किसी अखबार के संपादक को पत्रकार कहा जाता है, साहित्यकार नहीं। होगा सबका मालिक एक, लेकिन संपादक का असली मालिक तो अखबार का मालिक ही होता है। मालिक खुश, तो संपादक खुश।।

कभी लेखन भी एक विधा थी, लोग लिख लिखकर ही लेखक बना करते थे। अगर प्यार किया, तो कविता लिखी, दिल टूटा तो ग़ज़ल लिखी। संपादक के नाम पत्र लिखे, जब छपने लगे, तो कॉन्फिडेंस बढ़ा। अखबारों और संपादकों से भी पहचान बढ़ी। प्रतिभा कुछ सीढ़ी और चढ़ी और उनकी भी अखबार में रचना छपी।

उधर अखबारों और पत्रिकाओं का भी अपना एक स्तर होता था। जो स्थापित मंजे हुए लेखक होते थे, उनसे तो रचना के लिए आग्रह किया जाता था, लेकिन किसी नए लेखक को कई पापड़ बेलने होते थे। रचना अस्वीकृत होना आम बात थी। जो नर निराश नहीं होते थे, उनकी किस्मत का ताला आखिर खुल ही जाता था।।

शुरू शुरू में एक लेखक के लिए हर संपादक भगवान होता है। अगर संपादक मेहरबान तो लेखक पहलवान, लेकिन अगर एक बार ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया, तो फिर लेखक भी संपादकी पर उतर आता है। याद कीजिए दिनमान के रघुवीर सहाय को, धर्मयुग के धर्मयुग भारती और साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी को।

जब लेखक ही संपादक हो, तो चर्चित लेखकों की तो पौ बारह।

साहित्यिक पत्रिकाओं की बात अलग है। ज्ञानोदय, सारिका, नई कहानियां, हंस और कथादेश तो लेखकों की अपनी ही जमीन रही है।।

इंदौर में एक अखबार ऐसा भी था, जो पत्रकारों और नवोदित लेखकों के लिए गुरुकुल और सांदीपनि आश्रम से कम नहीं था।

जहां राहुल बारपुते जैसे विद्वान और राजेंद्र माथुर जैसे जुझारू संपादक मौजूद हों, वह किसी नालंदा और तक्षशिला से कम नहीं।।

केवल एक पारखी को ही हीरे की पहचान होती है।

हर चमकती चीज सोना नहीं होती। एक कुशल संपादक ही किसी रचना की गुणवत्ता को परख सकता है। फिर भी कहीं कहीं ऊंची दुकान और फीके पकवान परोसे जा रहे हैं, और लोग चाव से खा भी रहे हैं। बस संपादक मेहरबान तो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 338 ⇒ \ पीठ पीछे /… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “\ पीठ पीछे /।)

?अभी अभी # 338 ⇒ \ पीठ पीछे /? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अपनी तो हर आह एक तूफान है।

ऊपर वाला, जानकर अनजान है ;

ऐसा हो ही नहीं सकता, कि वह सर्वज्ञ घट घट वासी, हमारी आह की आहट तक नहीं सुन पाए।

सब कुछ उसके नाक के नीचे ही तो हो रहा है, पीठ पीछे नहीं, इसीलिए कवि प्रदीप भी व्यथित होकर कहते हैं ;

देख तेरे इंसान की हालत

क्या हो गई भगवान।

कितना बदल गया इंसान।।

लेकिन हम तो भगवान नहीं, इंसान हैं। हम सर्वज्ञ नहीं, यहां तो हमारे पीठ पीछे क्या क्या हो जाता है, हमें कुछ पता ही नहीं चलता। आखिर जानकर भी क्या कर लेंगे। किसी ने सही कहा है, परदे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ।

घर में हमारे पीठ पीछे, दफ्तर में बॉस के नाक के नीचे, थाने में थानेदार के रहते और मन्दिर में भगवान की आंख के नीचे, बहुत कुछ चलता ही रहता है। कुछ बातें हमें पता रहती हैं, तो कुछ से हम अनजान रहते हैं।।

जब छोटे थे, तो पिताजी से बहुत डर लगता था। पिताजी अनुशासनप्रिय जो थे। उधर पिताजी घर से निकले, और इधर उनकी पीठ पीछे हम भाई बहनों की धींगामुश्ती शुरू। शाम को पिताजी के आने से। पहले ही हम अच्छे बच्चे बन जाते थे।

स्कूल कॉलेज की तो बात ही कुछ और थी। जब तक सर नहीं आते, क्लास हाट बाजार बनी रहती थी, और उनके आते ही पिन ड्रॉप साइलेंस। यानी आपस में खुसुर पुसुर चालू। सर ने आज काला चश्मा लगाया है, इंप्रेशन मार रहे हैं। उधर उन्होंने ब्लैक बोर्ड की ओर मुंह किया और इधर इशारेबाजी शुरू। लगता है, आज नहाकर नहीं आए, शर्ट भी कल का ही पहना हुआ है। वे पलटकर पूछते, क्या चल रहा है, सर कुछ नहीं, कोई जवाब देता। लेकिन वे सब जानते थे, पीठ पीछे क्या चल रहा है। आखिर सास भी कभी बहू थी।।

परीक्षा में नकल कभी खुले आम नहीं होती। एक निगाह परीक्षक पर, और एक निगाह नकल पर, आखिर सब काम पीठ पीछे ही तो करना होता है। कुछ शिक्षक दयालु किस्म के होते थे, कुर्सी पर आंख बंद करके बैठे रहते थे, राम की चिड़िया, राम का खेत। और पूरी क्लास भरपेट नकल कर लेती थी।

वह दादाओं का जमाना था। दादाओं को नकल की पूरी छूट रहती थी, क्योंकि वे ढंग से नकल भी नहीं कर सकते थे। वैसे उन्हें भी कहां पास होने की पड़ी रहती थी। सब बाद में नेता, मंत्री, वकील बन गए और बचे खुचे पुलिस में चले गए।।

किसी के पीठ पीछे बात करने में वही सुख मिलता है, जो निंदा में मिलता है। वैसे भी पीठ पीछे अक्सर बुराई ही होती है, खुलकर तारीफ तो आमने सामने ही होती है। मालूम है, मिसेज गुप्ता आपके बारे में क्या कह रही थी। क्या करें, बिना बताए खाना जो हजम नहीं होता।

कुछ हमारी मर्यादा है, कुछ लोकाचार है, इसलिए कुछ काम पीठ पीछे ही किए जाते हैं। खुले आम रिश्वत नहीं दी जा सकती। जमीन और मकानों के सौदे होते हैं, रजिस्ट्री भी होती है। कितना नम्बर एक, कितना नंबर दो।

रजिस्ट्रार महोदय सब जानते हैं, पीठ पीछे का खेल।।

हमने तो कुछ ऐसे सज्जन पुरुष भी देखे हैं, जो लोगों की पीठ पीछे तारीफ करते हैं। पीठ पीछे कई नेक काम भी होते हैं, जिनका हमें पता ही नहीं चलता।

कौन आजकल नेकी कर, दरिया में डालता है।

मुख में राम, बगल में छुरी, कहावत यूं ही नहीं बनी। अच्छाई का ढोंग, और पीठ पीछे काले कारनामे, शायद इसे ही आज की दुनिया में संभ्रांत समाज कहते हैं। अब कोई ऐसी काजल की कोठरी नहीं, जिसमें कोई काला हो, इधर शरणागति, उधर सर्फ की सफेदी। पीठ पीछे नहीं, सब कुछ खुला खेल फरुखाबादी।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #227 ☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 227 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं… ☆

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास से ही हृदय में इन भावों का पदार्पण होता है और संबंध तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहां ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे… एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएगा।

आज का युग कलयुग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं, तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले, चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप

मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी है और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात, पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा शस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 337 ⇒ लहरों के राजहंस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लहरों के राजहंस।)

?अभी अभी # 337 ⇒ लहरों के राजहंस? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जलाशय और हमारे मन में बहुत समानता है। जल मे भी तरंग उठती है, और हमारे मन में भी। तरंग कुछ नहीं एक तरह की मौज है, जो कभी भी लहर का रूप धारण कर लेती है। जयशंकर प्रसाद ने इसी तरंग में अपनी कृति “लहर” की रचना कर दी। हमारे मन में विचारों का प्रवाह भी लहरों के समान ही आता जाता रहता है।

समुद्र की लहर तो दिखाई भी दे जाती है, लेकिन कुछ लहरें ऐसी भी होती हैं, जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कब इस उदास मन में किस खबर से हर्ष की लहर दौड़ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।।

इस गर्मी में तो केवल दो ही लहर नजर आएगी, एक गर्म लहर जिसे हम लू कहते हैं, और दूसरी चुनावी लहर। लू लगना ठीक नहीं लेकिन अगर किसी की अच्छी तरह लू उतारना पड़े, तो वह नेक काम भी कर ही देना चाहिए। शीत लहर में लहर तो क्या, पानी भी बर्फ हो जाता है। ऐसे में केवल तरावट और गर्माहट की लहर ही काम आती है।

इस देश ने कांग्रेस की लहर भी देखी है, जनता लहर भी देखी है, और अब मोदी लहर भी देख रही है। लहर का क्या है, कब समंदर की कोई मासूम लहर सुनामी बन जाए। जो हमसे टकराएगा, उसका सूपड़ा साफ हो जाएगा।।

कुछ होते हैं लहरबाज, उन्हें लहरों पर खेलने में मजा आता है। लहरबाज़ी या लहरसवारी या तरंगक्रीडा (अंग्रेज़ी: surfing, सरफ़िंग) समुद्र की लहरों पर किया जाने वाला एक खेल है जिसमें लहरबाज़ (सरफ़र) एक फट्टे पर संतुलन बनाकर खड़े रहते हुए तट की तरफ़ आती किसी लहर पर सवारी करते हैं। लहरबाज़ों के फट्टों को ‘लहरतख़्ता’ या ‘सर्फ़बोर्ड’ (surfboard) कहा जाता है। लहरबाज़ी का आविष्कार हवाई द्वीपों के मूल आदिवासियों ने किया था और वहाँ से यह विश्वभर में फैल गया।

एक पक्षी होता है राजहंस जिसकी टांगें बहुत लंबी और पतली होती है, अपनी तीखी चोंच से वह शिकार करता है। हंसावर नहीं, खिले सरसी में पंकज”- पानी में खड़े राजहंस गुलाबी खिले हुए कमल के समान प्रतीत होते हैं। राजहंस (फ्लैमिंगो) एक शोभायमान पक्षी है।।

कोई राजहंस ही लहरों पर राज कर सकता है। छोटी बड़ी मछलियों की परवाह किए बगैर, साम, दाम, दंड, भेद ही उसका नीर, क्षीर, विवेक होता है।

केवल शीर्षक के लिए ही स्व. मोहन राकेश का आभार प्रकट किया जा सकता है। सच तो यह है कि राजनीति में सभी कौए हंस की ही चाल चलते हैं। आम आदमी बेचारा किनारे बैठा बैठा बड़ी उम्मीद से राह देख रहा है, कभी तो लहर आएगी, कभी तो लहर आएगी।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना छिन्न पात्र ले कंपित कर में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में

वैचारिक क्रांति के बहाने, मीठे सुर ताल में, कड़वे बोल, लयबद्ध तरीके से, लोकभाषा की आड़ में बोलने पर तकनीकी लाभ भले हो पर आत्म सम्मान नहीं मिलेगा। लोग देखेंगे, सुनेंगे पर मन ही मन ऐसी ओछी हरकत पर कोसेंगे। जिस डाल पर बैठें हों, उसे काटना कहाँ की समझदारी है।

जब बात अच्छी शिक्षा हो तो ऐसे लोगों के आसपास रहने वालों से भी दूर हो जाना चाहिए।ये पहले घर पर ही माचिस लगाते हैं उसके बाद दाना पानी, चूल्हा चौका सब बंद करवा कर रोजी रोटी पर हाथ साफ करते हैं। इनके शुभचिंतक बेरोजगारी का दामन थामें, पिछलग्गू बनकर इन्हें गाड़ी में बिठाकर इधर से उधर पहुँचाते हैं। भीड़तंत्र का मतलब ये नहीं है कि आप लोकतंत्र को चुनौती दे पाएंगे, आज भी सच्चाई, धर्म की शक्ति, आस्थावान लोग, न्यायप्रियता के साथ भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जोड़तोड़ के बल पर असत्य की राह पकड़कर, कमजोर के सहारे हार को ही वरण किया जा सकता है। जब तक श्रेष्ठ मार्गदर्शक न हो तब तक मंजिल नहीं मिलेगी। कभी कुछ कभी कुछ करते हुए बस टाइमपास हो सकता है। जैसी संगत वैसी रंगत,सब असहाय साथ होने से कोई सहाय नहीं होगा। एक दूसरे को डुबा -डुबा कर चलते रहिए, जो तैरना जानते हैं वे किनारे पकड़ कर मनपसंद तट पर जा पहुँचेगे बाकी तो हो हल्ला करते हुए दोषारोपण करेंगे और करवाने के लिए बिना दिमाग़ के कमजोर लोगों को इकट्ठा करके करवाएंगे।

आप की आस्था किसके साथ है ये तो आने वाला वक्त तय करेगा। अभी समय है, सत्य के साथ जुड़िए क्योंकि हर युग में जीत केवल धर्म की होती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 274 ☆ आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 274 ☆

? आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ?

उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य था. जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे.

13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.

बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.  

भरी सभा चलाई गई  इस गोली के पीछे अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर के बाजू में जलियांवाला बाग के बंद मैदान में किया गया गोलीकांड था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी.  ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और उसने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था. मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. इस गोलीकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी.

जलियांवाला बाग  एक बंद मैदान है  जहाँ से बाहर जाने का एक ही संकरा मार्ग  है, उस पर जनरल डायर की पोलिस जमी हुई थी. घिरे हुये लोगो का वह दिल दहला देने वाला हत्याकाण्ड उधमसिंह ने बेबस एक कोने में दुबके हुये स्वयं देखा था.   तभी उन्होंने ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. उधमसिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे.  भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं  हैं.  दोनों पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं मुझे जनरल डायर की जगह  ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा, क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह  अपना नाम  मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे . उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 336 ⇒ पंखों में हवा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंखों में हवा।)

?अभी अभी # 336 ⇒ पंखों में हवा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरे घर में पंखे हैं, वे मुझे हवा देते हैं। पक्षियों के पंख होते हैं, जिनके कारण वे हवा में उड़ते हैं। मेरे घर के पंखों और पंछियों के पंखों में हवा कौन भरता है, मैने कभी गौर नहीं किया। लेकिन जब अचानक रात के दो बजे के बाद मेरे घर के पंखों ने हवा देना कम कर दिया तो मुझे यही लगा, शायद पंखों की हवा की गारंटी खत्म हो गई है।

होता है, जब रसोई गैस की गैस खत्म हो जाती है, तो सिलेंडर खाली हो जाता है। वैसे भी भरे हुए की ही गारंटी होती है, खाली की क्या गारंटी।।

मेरे घर में एसी कूलर की सुविधा नहीं, बस कमरों में सीलिंग फैन लगे हैं। जब तक बिजली रहती है, घर में रोशनी भी रहती है, और टीवी, पंखा भी चलता रहता है। जहां बार बार बिजली जाती है, वहां लोग इन्वर्टर और जनरेटर की व्यवस्था कर लेते हैं। मैं तो पूरी तरह बिजली आपूर्ति पर ही आश्रित हूं।

लगता है, बिजली का दबाव कम है, लो वोल्टेज है, लाइट भी जल तो रही है, लेकिन रोशनी में दम नहीं है। पंखे इतने तेज चल रहे हैं, कि आप गिन लो, पंखों में कितनी ब्लेड है। ऐसा लगता है किसी ने उनकी हवा निकाल ली है।।

अब तक साइकिल, स्कूटर और कार के पहियों की हवा तो निकलते देखी थी, अब तो पंखों में भी हवा कम होने लग गई है। लगता है, पंखों में भी हवा भरवानी पड़ेगी। इतनी हवा से तो बदन का पसीना भी नहीं सूखता। जितना पसीना आता है, उतना गला सूखता है, और शरीर उतना ही पानी मांगता है और उतनी ही हवा भी।

उधर चुनाव की गर्मी और इधर पानी का अभाव शुरू। रात से ही हमारी मल्टी में पानी का टैंकर आना शुरू हो गया है। एकमात्र पंखा ही तो सहारा है, रात को चैन की नींद सोने का। एकाएक वही हुआ, जिसका अंदेशा था, लाइट पूरी चली गई। और अभी अभी अधूरा ही रह गया आज का।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 335 ⇒ समय और घड़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय और घड़ी।)

?अभी अभी # 335 ⇒ समय और घड़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दिन में हमें इतना भी समय नहीं होता, कि हम बार बार घड़ी देखें। हां, लेकिन रात में, नींद खुलते ही अपने आपसे प्रश्न किया जाता है, कितनी बजी? घड़ी की ओर निगाह की, और फिर चैन से सो गए। समय हमें चिंतित भी कर सकता है, और निश्चिंत भी। जो घोड़े बेचकर सोते हैं, उनका घड़ी कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

वैसे आज की घड़ियां बड़ी शांत होती है, बस टिक टिक किया करती है। उन्हें अपने आप से काम और आपको अपने काम से काम। आप जब चाहें, देख सकते हैं, कितनी बजी। आखिर घड़ी में ऐसा क्या है, जो बजता है।।

घड़ी का काम ही समय बताना है, लेकिन जिनका काम ही समय बिताना है, उनका घड़ी से क्या काम ! तीन कांटे, घड़ी ने आपस में बांटे, घंटा, मिनिट और सेकंड। हमने एक दिन रात को चौबीस घंटों में बांटा, बराबर बारह बारह घंटों में। एक समय था, जब एक दीवार घड़ी, हर घंटे में बजती रहती थी। जितनी बजी, उतने घंटे।

अंग्रेज तो समय के इतने पाबंद थे, कि उन्होंने जगह जगह घंटा घर बना रखे थे। घंटा घर में चार घड़ी, चारों में जंजीर पड़ी।

शासकीय कार्यालयों में, स्कूल कॉलेज में, और औद्योगिक संस्थानों में समय की पाबंदी होती थी। कहीं घंटी बजती थी, तो कहीं घंटा। एक समय था, जब रात में, कहीं दूर से, हमें हर घंटे में, घंटे की आवाज सुनाई देती थी, जितनी बजी, उतने घंटे। लेटे लेटे, बंद आंखों से ही पता चल जाता था, कितनी बजी।।

हमारा शहर तो कभी कपड़ा मिलों का शहर था। उधर मिल का सायरन बजा और इधर श्रमिक साइकिल पर अपना खाने का डिब्बा बांधे, मिल की ओर रवाना। पूरे शहर को जगाए रखते थे, ये मिल के सायरन। समय की पहचान बन गए थे ये सायरन, चलो सुबह के सात बज गए। हर पाली के वक्त सायरन बजा करते थे।

स्कूल की छुट्टी की घंटी पर हमारा बड़ा ध्यान रहता था। लेकिन जब सुबह अम्मा गहरी नींद से जगाती थी, चलो सात बज गए, तो बड़ा बुरा लगता था। आपको बुरा लगे अथवा भला, घड़ी को क्या, उसे तो बस बजना है।।

वह जमाने गए, जब घड़ी को भी चाबी भरनी पड़ती थी। आज समय हमारे जीवन में चाबी भर रहा है। घड़ी रुक सकती है, समय नहीं। घड़ी सिर्फ समय बताती है, आपका समय कैसा चल रहा है, यह नहीं।

कभी सुहाने पल, तो कभी मुसीबत की घड़ी।

अगर समय अच्छा तो आपके पौ बारह, और अगर समय खराब तो समझिए बारह बजी। प्रातः वेला अमृत वेला होती है, शुभ शुभ ही बोलना चाहिए। आपका आज का दिन शुभ हो। चलिए घड़ी में सुबह के पांच बज गए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 98 –  इंटरव्यू : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 2

☆ कथा-कहानी # 98 –  इंटरव्यू : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी.

चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ.

फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”.साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 334 ⇒ चलो सजना, जहां तक घटा चले… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चलो सजना, जहां तक घटा चले।)

?अभी अभी # 334 ⇒ चलो सजना, जहां तक घटा चले? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आप किसी के, सजन, साजन, प्रेमी अथवा साथी हैं, तो घटा, सावन, बहार और मौसम से सावधान रहें, क्योंकि क्या भरोसा कब, आपकी सजनी से आपको बुलावा आ जाए।

कोई समय, मुहूर्त, अथवा दिन रात नहीं, बस उठो और, “चलो सजना, जहां तक घटा चले “। अब यह आग्रह है अथवा आदेश, पैदल चलना है अथवा गाड़ी से। एक और स्पष्ट हिदायत है, लगाकर गले।

प्रेम में सब चलता है। गौर कीजिए ! ओ साथी चल, मुझे लेकर साथ चल तू, यूं ही दिन रात चल तू। अजीब परेशानी है अगर मौसम सुहाना है, उधर उसको आपकी बांहों में आना है। यानी पहले गला, फिर बांह।।

आपको दफ्तर जाना है, अथवा कोई जरूरी काम करना है, उससे उसे क्या। सुनो सजना … इस तरीके से बोलेगी कि पूरी दुनिया सुन ले। सुनो सजना, पपीहे ने कहा सबसे पुकार के। अब ये पपीहा कोई दूध वाला अथवा सब्जी वाला है क्या, जो सुबह सुबह आवाज लगा रहा है। मानो कोई मॉर्निंग अलार्म हो। संभल जाओ, चमन वालों, कि आए दिन बहार के। डरा तो ऐसा रहा है, मानो आपातकाल लग रहा हो।

वाह रे पपीहे और वाह रे बहार।

यही हाल सावन की घटा और बरखा बहार का है। सावन तो जब भी आता है, झूम कर ही आता है।

जब भी काली घटा छा ती है तो प्रेम ऋतु ही आती है, और हां, साथ में तेरी याद जरूर आती है। ओ सजना, बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई।

यानी अब अपना पेट बस फुहार और प्यार से ही भरना है। थोड़ा मुफ्त राशन भी ले आती, तो घर का चूल्हा तो जलता।।

यहां तो ऐसी हालत हो रही है कि पूछो ही मत ;

नैनों में बदरा छाए,

बिजली सी चमके हाए

ऐसे में बलम मोहे, गरवा लगा ले ….

अब आप साजन नहीं बलम हो गए हैं, बीमारी बढ़ती जा रही है। बदरा, बिजली और चमक अब शरीर में उतर आई है,

और वेद तो आप सांवरिया ही हो। आ गले लग जा।।

जिनको आटे दाल का भाव नहीं पता, उनके लिए होगा लाखों का सावन, और साजन की नौकरी दो टंकियां की, लेकिन उधर, प्यार, बहार, सावन और बरखा से दूर एक सरस्वतीचंद्र भी है, जिसका यह मानना है कि ;

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए

ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।

प्यार से जरूरी कई काम हैं

प्यार सब कुछ नहीं

आदमी के लिए।।

हमें तो इन सबकी काट शैलेंद्र में ही नजर आती है। सजनवा बैरी हो गए हमार और ;

सजन रे झूठ मत बोलो

खुदा के पास जाना है।

ना हाथी है, ना घोड़ा है

वहां पैदल ही जाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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