हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 234 – ताकि सनद रहे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 234 ☆ ताकि सनद रहे ?

अक्टूबर 2023 की बात है। झारखंड के देवघर में स्थित ज्योतिर्लिंग के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। देवघर ऐसा तीर्थस्थान है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ साथ-साथ हैं। देवघर से राँची की ओर लौटते समय परिजनों के साथ डुमरी में चाय पीने के लिए रुके। सड़क के दूसरी ओर कुछ छोटी-छोटी दुकानें थीं। सड़क पार कर मैं चाय की दुकान पर पहुँचा। बिस्किट, खाने-पीने का कुछ सामान, वेफर्स आदि दुकान में बिक्री के लिए थे। दुकान के सामने ही बड़ी-सी तंदूरनुमा अंगीठी थी, जिस पर दुकान का मालिक चाय बना रहा था। कुल मिलाकर ‘टू इन वन’ व्यवस्था थी। कुछ ग्राहक चाय तैयार होने की प्रतीक्षा में खड़े थे। कम चीनी की चाय का आर्डर देकर मैं भी प्रतीक्षासूची में सम्मिलित हो गया। तभी दुकान से सामान खरीदने के लिए एक ग्राहक आ गया। दुकानदार चाय छोड़कर दुकान में घुसा और ग्राहक को सामान देने लगा। इधर चाय उफनने पर आ गई। प्रतीक्षारत एक ग्राहक ने तपाक से चाय अंगीठी से उतार कर दूसरी ओर रख दी। दुकानदार आया और फिर चाय उबालने लगा।

बहुत सामान्य घटना थी किंतु यदि बड़े शहरों के परिप्रेक्ष्य में देखें, जहाँ होटल के दरवाज़े भी दरबान खोलते हों, वहाँ ग्राहक द्वारा उफनती चाय को चूल्हे से उतार कर रख देना, असामान्य ही कहा जाएगा।

स्मरण आता है कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद मिश्र जी ने किसी कार्यक्रम में एक क़िस्सा सुनाया था। वे एक बार सब्ज़ी खरीदने गए थे। खरीदारी के बाद संभवत: सौ का नोट सब्ज़ीवाले को दिया। इधर सब्ज़ीवाला सौ के नोट का छुट्टा लेने दूसरे सब्ज़ीवाले के पास गया, उधर एक ग्राहक ने आकर सब्ज़ी के दाम मिश्र जी से पूछे। मिश्र जी ने वही सब्ज़ी खरीदी थी। सो दाम बताए और ग्राहक ने जितनी सब्ज़ी मांगी, तराजू उठाकर तौल दी। मिश्र जी को जानने वाले कुछ लोगों ने इस घटना को देखा और उनकी यह सहजता  चर्चा का विषय भी बनी।

वस्तुत: सहजता हमारा मूलभूत है। विसंगति यह कि अब सहजता को कृत्रिमता में बदलने की होड़ है।  कहा जाता है कि आभिजात्य तो तुरंत आ जाता है पर गरिमा आने में समय लगता है। मनुष्य की गरिमा, मनुष्यता में है। आभिजात्य कितना ही सर चढ़कर बोले, स्मरण रखना कि मूलभूत में परिवर्तन नहीं होता, ‘बेसिक्स नेवर चेंज।’

सारा जीवन एयर कंडीशन में गुज़ारनेवाले का अंतिम संस्कार ‘एयरकंडीशंड’ नहीं हो सकता। दाह तो अग्नि में ही होगा। अग्नि मूलभूत है। छोटी से छोटी दूरी फ्लाइट से तय कर लो पर पैदल चलना सदा ‘बेसिक’ रहेगा। चेक-इन करते समय या हवाई अड्डे से बाहर आते हुए पदयात्रा तो करनी ही पड़ेगी।

सहजता अंतर्निहित है। अंतर्निहित को बदलने का प्रयास करोगे तो मनुष्य कैसे रह पाओगे? यह जो अहंकार ओढ़ते हो;  पद-प्रतिष्ठा, कथित नाम का, सब का सब धरा रह जाता है। मृत्यु सब लील जाती है। अपनी लघुत्तम कथा ‘नो एडमिशन’ याद हो आई है। कथा कुछ इस प्रकार है-

“…. ‘नो एडमिशन विदाउट परमिशन’, अनुमति के बिना प्रवेश मना है, उसके केबिन के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। निरक्षर है या धृष्ट, यह तो जाँच का विषय है पर पता नहीं मौत ने कैसे भीतर प्रवेश पा लिया। अपने केबिन में कुर्सी पर मृत पाया गया वह….।”

प्रकृति की दृष्टि में राजा या रंक किसी का अवशेष, विशेष नहीं होता। अपनी कविता ‘माप’ साझा करता हूँ-

काया का खेल सिमट गया है

अब होकर राख मुट्ठी भर..,

यह वही आदमी है,

जो खुद को माप की परिधि से

बड़ा समझना रहा जीवन भर …!

इसलिए कहता हूँ कि अभिजात्य से मुक्ति पाओ, अहंकार से मुक्ति पाओ। काया के साथ राख का समीकरण जीवन रहते समझ जाओ।

इस राख को याद रखोगे तो परिधि में रहना भी आ जाएगा। आगे चलकर यह राख भी नदी के पानी में समाकर विलुप्त हो जाती है। सनद रहे कि शाश्वत सत्य का स्मरण, मनुष्यता और मनुष्य की सहजता का विस्मरण नहीं होने देगा। इति।

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 4:51बजे, 30.03.2024)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 325 ⇒ अंधा और रेवड़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंधा और रेवड़ी।)

?अभी अभी # 325 ⇒ अंधा और रेवड़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रेवड़ी भी मेरी नजरों में एक तरह का प्रसाद ही है। वैसे भी प्रसाद का मतलब मीठा ही होता है। प्रसाद में हमने चने चिरौंजी और पंजेरी ही अधिक खाए हैं। मंदिरों में आरती के बाद प्रसाद का प्रावधान होता है। पहले भगवान को भोग लगता है और फिर वही प्रसाद के रूप में वितरित होता है। कभी कभी प्रसाद में मिठाई और फल भी खाने को मिल जाते थे। कभी ककड़ी और केले के कुछ टुकड़े तो कभी पूरा लड्डू। जैसा चढ़ावा, वैसा प्रसाद।

प्रसाद आम श्रद्धालु तो श्रद्धा से ग्रहण करते हैं, लेकिन बच्चों को प्रसाद के प्रति विशेष रुचि और उत्साह होता है। अपनी नन्हीं नन्हीं हथेली को कोसते हुए वे प्रसाद के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं, काश हमारा हथेली भी बड़ी होती तो हमें भी ज्यादा प्रसाद मिलता। एक बार प्रसाद में लाइन में लगकर प्रसाद ग्रहण किया, बाहर आए, जल्दी से खत्म किया, हाथ कमीज से पोंछा और पुनः प्रसाद की कतार में। प्रसाद से बच्चों का कभी मन नहीं भरता।।

प्रसाद बांटना भी एक कला है। जितना भी प्रसाद है, वह सभी श्रद्धालुओं को समान रूप से मिल जाए, कहीं कोई रह नहीं जाए। अगर प्रसाद मात्रा में ज्यादा है तो उदारता से दिया जाए और कम होने की स्थिति में हाथ रोककर।

रेवड़ी को आप मिठाई का जेबी संस्करण भी कह सकते हैं। लड्डू से भले ही यह उन्नीस हो, लेकिन फिर भी चिरौंजी पर यह भारी पड़ती है। जिस तरह हमारा बनारस का छोरा अमिताभ, दीपावली के त्यौहार पर, कैडबरीज का प्रचार करता हुआ कहता है, कुछ मीठा हो जाए, उस कैडबरी से हमारी देसी रेवड़ी क्या बुरी है।।

अंधे के हाथ अगर बटेर लग जाए तो भी ठीक, लेकिन किसी अंधे से रेवड़ी बंटवाने का औचित्य हमें समझ में नहीं आया। अगर वह वाकई में अंधा है तो अपने पराये का भेद कैसे कर सकेगा। वैसे भी रेवड़ी गिनकर नहीं दी जाती। ना तो वह मुट्ठी भर दी जाती है और न ही लड्डू की तरह कभी पूरी तो कभी तोड़कर। बेचारे अंधे का क्या है, आप जितनी बार हाथ फैलाओगे, वह देता रहेगा।

इस तरह तो रेवड़ियां सबको बंटने से रही। जिसको नहीं मिली, वही कहता फिरेगा, अंधा बांटे रेवड़ी, अपने अपनों को दे।

रेवड़ी बांटने और लेने वाले के बीच जरूर कुछ ना कुछ तो संबंध तो होगा ही। राजनीति में आंख मूंदकर रेवड़ियां नहीं बांटी जाती। जिनसे उनका इलेक्टोरल बॉन्ड होता है, वहीं रेवड़ियां बांटी जाती है। यह एक ऐसा चुनावी समझौता है जो हुंडी की तरह गारंटी के साथ किया जाता है। आपको रेवड़ियां अगले पांच साल तक इसी प्रकार मिलती रहेंगी। जब बेचारी जनता की ही आंखों पर पट्टी पड़ी हो, आचार संहिता भी क्या करे। रेवड़ियां तो बटेंगी ही, और वह भी खुले आम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘‘क्या अरब में महिलायें यहॉँ की तरह आटा गूँथ कर रोटी बनाती हैं? वे तो रोटी खरीद कर ले आती हैं।’’फिलिस्तीनिओं पर इजरायली अत्याचार पर लिखी मेरी कहानी को पढ़ कर पत्रिका लौटाते हुए डा0 श्री प्रसादजी ने कहा।और यही बात उन्होंने कहानी के अंतिम पृष्ठ पर पेंसिल से लिख भी दी थी। जिस कमरे में बैठ कर वे लिखने पढ़ने का काम किया करते थे उसकी खिड़की पर एक कलमदान में कई कलम और वह पेंसिल भी पड़ी रहती थीं।

थोड़ी देर मैं चुप रहा, फिर झेंपते हुए बोला ,‘अब तो मां बेटी रोटी खा चुकी हैं। ’यानी कहानी तो प्रकाशित  हो चुकी है।खैर, बात तो अपनी जगह सही थी। खालेद होशैनी का उपन्यास ‘ए थाउजैंड स्प्लेंडिड सनस्’ पढ़ते हुए पता चला कि काबुल में औरतें तंदूर से रोटी बनवा कर घर ले आती हैं।

उनसे मेरा नाता मेरी ‘गलतिओं के गलियारे’ से होकर ही गुजरता है। आज भी उनके सुपुत्र डा0 आनन्द वर्धन जब भी मेरी कोई रचना पढ़ते हैं तो मैं कहता हूँ,‘कहीं कोई गलती हो तो उसे पेंसिल से जरूर मार्क कर दीजिएगा।’सच वह पेंसिल तो हमारे लिए मशाल ही थी।

और इसी तरह डा0 श्रीप्रसाद जी के घर मेरा आना जाना होता रहा। घंटे दो घंटे की बैठक। सुनने सुनाने का कार्यक्रम। वे मेरी त्रुटिओं की ओर संकेत कर देते। मैं उन्हें ठीक कर लेता। या कोई बेहतर शब्द को ढूँढने में मेरी मदद कर देते ,कोश का पन्ना पलटते। जब भी वे फोन पर कहते, ‘आपकी कहानी अमुक पत्रिका में निकली है।’

मैं पूछ लिया करता,‘पढ़ते समय आपके हाथ में पेंसिल थी न?’

डाक्टर साहब हॅँस देते। वैसे वे अपने नाम के आगे डाक्टर लिखना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वे हर समय धोती कुर्ता ही पहनते थे। इसी लिबास में वे विदेश भी हो आये। उनकी किताबें प्रकाशित  होतीं, तो मुझे पहले से ही मालूम हो जाता।

वे और उनकी पत्नी (श्रीमती शांति शर्मा) मेरे क्लिनिक में दिखाने या ऐसे ही भेंट करने आते, और बैठते ही काले पोर्टफोलिओ बैग से वे अपनी सद्यः प्रकाशित  किताब मेरे हाथों में धर देते। पहले पृष्ठ पर उनके अपने हाथों से लिखा होता मेरे लिए सप्रेम भेंट!

उन दिनों हमारे ‘विहान’ नाट्य संस्था के लिए नाटक लिख कर मैं संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स कालोनी में उनके आवास पर मैं जाया करता था। वे सुनते और ठीक करते जाते। काशी के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक डा0 राजेन्द्र उपाध्याय ने मुझे उनका पता दिया था। सच, बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ……..

उन दिनों उन्हें सांस की तकलीफ होती रहती थी।उसी सिलसिले में शुरू शुरू में वे खुद को दिखाने मेरे पास आते थे। फिर तो आने जाने का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि जानकी नगर के नये मकान बनने के बाद मुझसे कहने लगे,‘आप भी इसी मुहल्ले में आ जाइये।’

बनारस में रहते तो करीब हर इतवार को दोपहर बारह के बाद उनका फोन आता, क्योंकि उस समय मैं भी कुछ खाली हो जाता। फिर काफी देर तक तरह तरह की बातें होती रहतीं।किस रचना को कहाँ भेजा जाए। उनकी कौन सी नयी किताब आनेवाली है।बाल पत्रिकाओं का स्वरूप कैसा हो रहा है। इससे बाल साहित्य के पाठक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वगैरह। अगर किसी रविवार को उनका फोन नहीं आता तो अगले दिन या बाद में मैं उनसे कहता, ‘डाक्टर साहब,रविवार के अटेंडेंस रजिस्टर में ‘ए’ लग गया है।’

उनके पारिवारिक रिश्ते – आपस में तालमेल – सास ससुर के साथ बहू का सम्पर्क – सभी अनुकरणीय थे। बात उनदिनों की है जब उनका सुयोग्य पुत्र आनन्द भोपाल में रहते थे। दो एक महीने उनके पास रह कर डाक्टर साहब सपत्नीक वापस आ रहे थे। सास ससुर को विदा करते समय ट्रेन में (डा0) ऊषा अपनी सास से लिपट कर ऐसे रो रही थी कि एक दूसरी महिला यात्री पूछने लगी,‘क्या तुम अपनी मां को विदा करने आयी हो ?’

ऊषा तो कहती ही है कि यहाँ तो मुझे मायके से भी ज्यादा प्यार व स्नेह मिला !

अपने गॉँव के बारे में श्री प्रसादजी ढेर सारी बातें किया करते थे। खूब किस्से सुनाया करते थे।उनका गॉँव जमुना के तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। किसी जमाने में वह डकैतों का इलाका रहा। एक बार जंगल के रास्ते आते हुए उनकी भेंट गांव के ही एक आदमी से हो गई जो बागी बन गया था। इन्होंने उससे पूछा था,‘तुमने आखिर इस रास्ते को क्यों अपना लिया? घर परिवार से दूर – इस तरह दर दर भटकना -’

उस डकैत ने जबाब दिया था,‘और क्या करता? वहॉँ दबंग लोगों का अत्याचार सह कर और कितने दिन गॉँव में रह सकता था?किससे शिकायत करता? पुलिस भी तो उन्ही की जी हुजूरी में लगी रहती है।’

इन सब बातों से उन्हें बहुत कष्ट होता। दीर्घश्वास छोड़कर कहते,‘इसी तरह सबकुछ बिखर जा रहा है। एक बसा बसाया संसार उजड़ता जा रहा है।’

गांव के बारे में और एक किंवदंती वे सुनाया करते थे। एकबार महात्मा तुलसीदास अपने अग्रज भक्तकवि सूरदास से भेंट करने जा रहे थे। रास्ते में इन्हीं के गांँव से उन्हें जमुना पार करना था। जमुना का अथाह जल देखते हुए कवि ने कहा था,‘पारना!’ यानी इसका तो पार नहीं है! इसीसे गॉँव का नाम भी पारना हो गया। चूँॅकि शाम ढल चुकी थी इसलिए कविवर ने रात वहीं बितायी। मगर किसी को भनक तक नहीं पड़ी कि उनके यहाँ कौन ठहरा हुआ है। कहते हैं सुबह कुछ सुगबुगाहट हुई और ढेर सारी हलचल,‘अरे जानते हो कल यहॉँ कौन ठहरा हुआ था ? और हम्में पता तक नहीं !’

इसी पर लिखी उनकी कहानी ‘पारना’ नंदन में प्रकाशित  हो चुकी है।

हम तीनों (श्रीप्रसादजी, शांति देवी और मैं) की साहित्यिक महफिल घंटे दो घंटे तो आराम से जम जाया करती थी। तीनों तरफ दीवारों पर किताबों के रैक। वहीं दीवारों पर से प्रेमचंद, पंत और निराला के साथ साथ काजी नजरूल इस्लाम और गोर्की भी हमारी ओर देखते रहते। चौकी पर भी ढेर सारी पत्रिकाएॅँ और किताबें। जब चाय पिलाना होता तो आनन्द की माँ कभी कभी हँॅसने लगतीं,‘अरे चाय की ट्रे कहॉँ रक्खूँॅ ?’ मैं झट से किताबों के बीच जगह बनाने लगता। जाड़े के दिनों में मैं तीन चार बजे तक ‘ब्रजभूमि’(उनके आवास का नाम) में पहुॅँच जाता और सात बजे तक बैक टू पैवेलियन। मगर एकबार लौटते समय रात हो गई और महमूरगंज के विवाह मंडपों के सामने बारातिओं के उफान के बीच मेरी ‘कश्ती’ बुरी तरह फॅँस गई। पेट में भूख -दिमाग में झुॅँझलाहट -परिणाम …..? बौड़ा गैल भइया, काशी का साँड़!  

जन्माष्टमी के मौसम में दो एक बार घर से ताड़ की खीर और उसका बड़ा ले गया था। दोनों को खूब पसन्द आये। अपने हाथ से गाजर का हलुआ बना कर ले गया तो वे हॅँसने लगे,‘आप तो रस शास्त्र में ही नहीं पाकशास्त्र में भी निपुण हैं।’

मैं ने कहा,‘मगर आप कोशिश मत कीजिएगा। याद है न एकबार कद्दूकश से गाजर काटते समय आपकी उँगली शहीद होते होते बच गई ?’

वे खूब हॅँसने लगे। शांति देवी कहने लगी,‘मैं तो इनसे कोई काम कहती ही नहीं। बस, अपना लिखना पढ़ना लेके रहें ,वही ठीक है।’  

वे तो बस जी जान से सरस्वती के उस मंदिर को सँभालने सॅँवारने में ही लगी रहती थीं। वे सचमुच साहित्य की पारखी थीं। किस सम्मेलन में कौन आया था और कौन नहीं – ये सारी बातें भले ही श्रीप्रसादजी कभी कभी भूल जाते थे, मगर उन्हे ठीक याद रहता था। गाय घाट के माहौल में पली बढ़ी होने के कारण बनारस की कई पारंपरिक बातें वे बखूबी से जानती थीं। नलीवाले लोटे को ‘सागर’ कहा जाता है यह बात उन्होंने ही मुझे बतायी थीं। कहानी के संप्रेश्य मर्म बिंदु को वह ठीक पकड़ लेती थीं। जिसे कहा जाय सेन्स ऑफ एप्रिसियेशन – अनुभूति एवं उपलब्धि की तीक्ष्णता उनमें कूट कूट कर भरी थी। उचित जगह पर ही दाद देतीं या पंक्ति को दोहराने लगतीं ……..

वैसे डाक्टर साहब रोटी तो बना नहीं पाते थे मगर कहते थे – ‘मैं पराठा अच्छा बना लेता हूँ।’ वे बिलकुल अल्पभोजी थे। खैर, फलों में आम उनको बहुत पसंद था।

‘ब्रजभूमि’ से लौटते समय मैं कहता था, ‘बनारसी विप्र की दक्षिणा मत भूलियेगा।’

डाक्टर साहब हॅँस कर करीपत्ते के पेड़ से कई डालियॉँ तोड़कर एक प्लास्टिक में भर कर मुझे थमा देते थे।

आनन्द की शादी के पहले जब वे ऊषा को देखने पौड़ी गये थे तो उसी समय केदारनाथ बद्रीनाथ भी हो आये थे। इधर तो बाहर कम ही जाते थे ,वरना बाल साहित्य सम्मेलनों में भाग लेने खूब जाया करते थे। आनन्द जब बुल्गारिया में थे तो वे दोनों बुल्गारिया, तुर्की और ग्रीस सभी जगह घूम आये थे। गांडीव में उनकी यात्रा की डायरी भी किस्तवार आ चुकी है। बुल्गारिया की जो बात उन्हें बहुत अच्छी लगती थी वह यह कि वहाँ की सड़कों या जगहों का नाम लेखक या कविओं के नाम से हुआ करता है। न कि राजनयिकों के नाम से।

सभी को मालूम है कि उनकी कविता ‘बिल्ली को जुकाम’ को स्वीडिश विश्व बाल काव्य संग्रह में स्थान मिला है। दो संग्रहों में संकलित इसकी पहली पंक्ति में कुछ अंतर है। एक में हैःःबिल्ली बोली, बड़ी जोर का मुझको हुआ जुकाम, तो दूसरे में है :ःबिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको …..। वे अपनी कविता ‘हाथी चल्लम चल्लम’ को बड़े चाव से सुनाते थे। जैसे फैज साहब तरन्नुम में षेर सुनाना पसंद नहीं करते थे (नया पथ, फैज जन्मशती विशेषांक,पृ.327),वे भी सीधे सपाट ठंग से कविता का पाठ करना ही पसंद करते थे। उन्होंने कहा था श्रद्धेय बच्चन सिंह भी इस कविता को इसी ठंग से सुनना चाहते थे। और मार्क्सवादी आलोचक चंद्रवली सिंह को उनकी कविता -‘रसगुल्ले की खेती होती/बड़ा मजा आता’ में ‘देश के अभावग्रस्त बालकों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति’ दिखाई दी।(जनपक्ष-12, पृ.190)

बाल साहित्यकारों के बीच चल रही गुटबाजी से वे दुखी रहते थे। कई ऐसे भी हैं जो उनके पास आते बनारस आने पर उनके यहॉँ ठहरते, मगर अवसर मिलने पर उनका पत्ता गोल करने से कभी न कतराते थे। किसी ने लिखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में बाल साहित्य की चर्चा क्यों नहीं की। उनका जबाब था – यह काम तो हम लोगों को करना चाहिए। आचार्य के समय बाल साहित्य की सामग्री ही कितनी थी ?

कविता में छंद की अशुद्धि उन्हें तकलीफ देती थी। वे हर महीने कई पत्रिकायें खरीदते थे। खास कर कविता ही पढ़ते और मात्रा आदि की गड़बड़ी के नीचे पेंसिल से लकीर खींच देते।

शांति देवी के देहावसान के बाद तो वे जैसे बिलकुल टूट गये थे। मानो उनका जीवन ही बिखर गया था। मैं वह दृश्य कैसे भूल सकता हूँ – जब हमलोग उनकी बैठक के दरवाजे के पास शांति देवी के पार्थिव शरीर को फर्श पर लेटाकर बैठे हुए थे। रो रोकर ऊषा का हाल बेहाल था। इधर सभी की ऑँखें छलक रही थीं। उसी समय डाक्टर साहब ने उनकी अधखुली पलकों को अपनी उॅँगलिओं से मूँॅद दिया। मैं उनकी बगल ही में बैठा था। मुझे लगा मेरी सांस ही गले में अटक गयी -!

उन्होंने ‘बाल साहित्य की अवधारणा’नामक आलोचना की पुस्तक को इसतरह अर्पण किया था – ‘सहधर्मिणी शांति को’……..

वे अखबार के किनारे या छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर ही कविता लिखना प्रारंभ कर देते थे। प्लैटफार्म पर बैठे बैठे या ट्रेन की सफर में इसी तरह उनका वक्त बीत जाता था। मैं ने कितनी बार कहा कि मेरे पास तो इतने सफेद पैड पड़े रहते हैं, डायरी मिल जाती हैं। आप इन पर लिखा करें।वे केवल हॅँस देते थे,‘अब यह मेरी आदत बन गयी है। उतने सफेद पन्नों पर शायद मैं लिख न सकूॅँ!’

दुर्गा पूजा के पहले बांग्ला में आनंदमेला शुकतारा आदि पत्रिकाओं के शारदीय विशेषांक निकलते है। वे उन्हें भी कभी कभी खरीद लेते थे। उन्हें तकलीफ होती थी कि उनमें भी आजकल उतनी कविता नहीं छपती है। ‘बाल साहित्य की अवधारणा’ में ‘बाल साहित्य का उद्देश्य’ में उन्होंने लिखा है -‘एक ओर समर्पित बाल साहित्यकारों को अवसर नहीं मिल पाता, दूसरी ओर बाल साहित्य के रूप में अबाल साहित्य चलता रहता है।’ (पृ.6)हिन्दी बाल साहित्य में हास्य कथा, भूत कथा, डिटेकटिव कहानी आदि के अभाव के बारे में कई बार उनसे बातें होती रही। यहॉँ तक कि अब तो दो पृष्ठों में ही कहानी को समेटना आवश्यक हो गया है,वरना लौटती डाक से आपकी रचना आपके द्वारे। मैं ने उनसे कहा था – आज अगर ईदगाह या दो बैलों की कथा जैसी कहानी लिखी जाती तो वह प्रकाशित  कहॉँ होती ?

सन् 2005 दिसंबर में मेरा पितृवियोग हुआ। उस समय वे दोनों अस्पताल में बाबूजी को देखने आये हुए थे। फिर अक्टूबर 2012 में मैं दोबारा अनाथ हो गया। उन्हें दिल्ली के मैक्स में हार्ट के ऑपरेशन के लिए भर्ती किया गया था। हालत में कुछ सुधार भी हुआ था। मगर तीसरे दिन रात के करीब आठ बजे आनंद का फोन आया। मैं सन्न रह गया। क्या कहता? सांत्वना के सारे शब्द मानो मूक हो गये थे……रोते रोते मैं पत्नी को यह खबर देने ऊपर जा पहुॅँचा….

कुछ दिनों के लिए मुझे लगा मेरी कलम की वाणी ही गूॅँगी हो गई है। मता (पूॅँजी)-ए-दर्द बहम है तो बेशो-कम क्या है /….बहुत सही गमे गेती (सांसारिक दुःख), शराब क्या कम है…….(फैज)

फिर एकदिन अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर नाम देख कर मैं चौंक उठता हूँ ….यह क्या! दिल की धड़कनें तेज हो गईं। स्क्रीन पर उनका नाम जगमगा रहा था। यद्यपि मुझे मालूम था कि श्रीप्रसादजी का फोन आजकल उनकी बहूरानी ऊषा के पास ही रहता है, फिर भी एक उम्मीद की लौ ….कहीं ….! मैं कॉँपती उॅँगली से हरा बटन दबाता हूँ… शायद फिर से वही आवाज सुनाई दे… ‘हैलो… मैं श्रीप्रसाद…!

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© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 324 ⇒ हाॅं मैंने भी प्यार किया… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हाॅं मैंने भी प्यार किया।)

?अभी अभी # 324 ⇒ हाॅं मैंने भी प्यार किया? श्री प्रदीप शर्मा  ?

प्यार की कोई उम्र नहीं होती। वैसे यह मेरा पहला प्यार तो नहीं है, लेकिन शायद प्यार का अहसास मुझे पहली बार हुआ है। प्यार एकांगी भी हो सकता है और दो तरफा भी। साधारण प्यार तो रिश्तों में भी होता है और यार दोस्तों में भी। अक्सर विज्ञापनों में इस तरह के प्यार को भुनाया भी जाता है। यथा;

जो अपनी बीवी से करे प्यार ;

वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार, अथवा

पापा पापा आए, हमारे लिए क्या लाए।

मुन्नी के लिए फ्रॉक और तुम्हारे लिए डोरा बनियान।

वैसे उम्र के साथ रिश्ते भी बूढ़े हो जाते हैं और प्यार भी। भला इस उम्र में कौन प्यार का इजहार करता है। अब तो बस प्रभु से प्रेम करने के दिन आ गए हैं हमारे। जिनका पूजा पाठ में मन नहीं लगता, वे पशु पक्षियों और बच्चों से प्रेम करने लगते हैं। प्रकृति प्रेमी और संगीत प्रेमियों की भी अपनी एक अलग ही दुनिया होती है।।

एक होता है साधारण प्रेम और एक होता है दिव्य प्रेम, जिसके लिए सांसारिक चक्षु किसी काम के नहीं होते, वहां प्रज्ञाचक्षु सूरदास जैसी दिव्य दृष्टि होती है जो कृष्ण की बाल लीलाओं का रसपान भी करती है और गुणगान भी। एक नन्हें से बच्चे की बाल लीलाओं में भी वही दिव्यता और आकर्षण होता है, जो ठुमक चलत रामचंद्र और यशोदा के बालकृष्ण में होता है।

एक समय था, जब हर आंगन में बच्चों की किलकारियां गूंजा करती थी। घर आंगन और बालोद्यान का स्थान अब झूलाघर और प्ले स्कूल ने ले लिया। माता पिता दफ्तर में और बच्चा नर्सरी और प्ले स्कूल में। एक नवजात शिशु 24 घंटे की देखरेख मांगता है। पालने से घुटने चलने तक का सफ़र इतना आसान भी नहीं होता।।

मेरे पास घर तो है, लेकिन आंगन नहीं। पड़ोस की एक वर्ष की बच्ची का कब मेरे घर में प्रवेश हुआ और कब वह मेरे मन में घर कर गई, कुछ याद नहीं। हमारी आंखें पहली बार कब मिली यह तो पता नहीं, लेकिन उनसे मिली नजर तो मेरे होश उड़ गए।

सिया राम मय सब जग जानी। संयोग से उस बच्ची का नाम भी सिया ही है। सिया सिया पुकारते ही वह मेरी ओर गर्दन मोड़ लेती है और उसकी मधुर चितवन से मैं निहाल हो जाता हूं। हम भले ही बच्चों की ओर आसक्त अथवा आकर्षित हों, उनके लिए यह एक सहज बाल लीला ही होती है। बस उन्हें पूरी छूट दीजिए और उनकी लीलाओं का रसास्वादन कीजिए।।

काग के भाग तो पढ़ा था, लेकिन जब सिया मेरे हाथ से, चाव से मीठा खाती है और प्यास लगने पर मममम यानी पानी मांगती है, तो मैं अपने ही भाग्य पर

इतराने लगता हूं। घुटनों के बल चलकर जब वह मेरे घर की वस्तुओं को अस्त व्यस्त और तहस नहस करती है, तो मेरे लिए वह जश्न का माहौल होता है। एक बच्चे की निगाह समग्र होती है। उसका बस चले तो वह अपनी दृष्टि से ही पूरा ब्रह्मांड नाप ले। आखिर वह सिया है कोई साधारण बालिका नहीं।

रोजाना मुझे सिया का इंतजार रहता है। वह आती है, अपनी नजरों से मुझे घायल कर जाती है, दिव्य और अलौकिक प्रेम का आनंद मुझे घर बैठे ही नसीब हो जाता है। आधे घंटे अथवा अधिक से अधिक एक घंटे में वह अपनी लीला समेट लेती है, और मुझे अलविदा, टाटा, बाय बाय कर देती है। जब सिया मन बसिया है तो मुझे कैसी शर्म, कैसी लाज ! हां, मैंने भी प्यार किया, प्यार से कब इंकार किया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #225 ☆ सोच व संस्कार… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोच व संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 225 ☆

☆ सोच व संस्कार… ☆

सोच भले ही नई रखो, लेकिन संस्कार पुराने ही अच्छे हैं और अच्छे संस्कार ही अपराध समाप्त कर सकते हैं। यह किसी दुकान में नहीं; परिवार के बुज़ुर्गों अर्थात् हमारे माता- पिता, गुरूजनों व संस्कृति से प्राप्त होते हैं। वास्तव में संस्कृति हमें संस्कार देती है, जो हमारी धरोहर हैं। सो!  अच्छी सोच व संस्कार हमें सादा जीवन व तनावमुक्त जीवन प्रदान करते हैं। इसलिए जीवन में कभी भी नकारात्मकता के भाव को पदार्पण न होने दें; यह हमें पतन की राह पर अग्रसर करता है।

संसार में सदैव अच्छी भूमिका, अच्छे लक्ष्य व अच्छे विचारों वाले लोगों को सदैव स्मरण किया जाता है– मन में भी, जीवन में भी और शब्दों में भी। शब्द हमारे सोच-विचार व मन के दर्पण हैं, क्योंकि जो हमारे हृदय में होता है; चेहरे पर अवश्य प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए कहा जाता है कि चेहरा मन का आईना है और आईने में वह सब दिखाई देता है; जो यथार्थ होता है। ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।’ दूसरी ओर अच्छे लोग सदैव हमारे ज़ेहन में रहते हैं और हम उनके साथ आजीवन संबंध क़ायम रखना चाहते हैं। हम सदैव उनके बारे में चिन्तन-मनन व चर्चा करना पसंद करते हैं।

‘रिश्ते कभी ज़िंदगी के साथ नहीं चलते। रिश्ते तो एक बार बनते हैं, फिर ज़िंदगी रिश्तों के साथ चलती है’ से तात्पर्य घनिष्ठ संबंधों से है। जब इनका बीजवपन हृदय में हो जाता है, तो यह कभी भी टूटते नहीं, बल्कि ज़िंदगी के साथ अनवरत चलते रहते हैं। इनमें स्नेह, सौहार्द, त्याग व दैन्य भाव रहता है। इतना ही नहीं, इंसान ‘पहले मैं, पहले मैं’ का गुलाम बन जाता है। दोनों पक्षों में अधिकाधिक दैन्य व कर्त्तव्यनिष्ठा का भाव रहता है। वैसे भी मानव से सदैव परहिताय कर्म ही अपेक्षित हैं।

इच्छाएं अनंत होती है, परंतु उनकी पूर्ति के साधन सीमित हैं। इसलिए सब इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! इच्छाओं की पूर्ति के अनुरूप जीने के लिए जुनून चाहिए, वरना परिस्थितियाँ तो सदैव मानव के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल रहती हैं और उनमें सामंजस्य बनाकर जीना ही मानव का लक्ष्य होना चाहिए। जो व्यक्ति इन पर अंकुश लगाकर जीवन जीता है, आत्म-संतोषी जीव कहलाता है तथा जीवन के हर क्षेत्र व पड़ाव पर सफलता प्राप्त करता है।

लोग ग़लत करने से पहले दाएँ-बाएँ तो देख लेते हैं, परंतु ऊपर देखना भूल जाते हैं। इसलिए उन्हें भ्रम हो जाता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है और वे निरंतर ग़लत कार्यों में लिप्त रहते हैं। उस स्थिति में उन्हें ध्यान नहीं रहता कि वह सृष्टि-नियंता परमात्मा सब कुछ देख रहा है और उसके पास सभी के कर्मों का बही-खाता सुरक्षित है। सो! मानव को सत्य अपने लिए तथा सबके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए – यही जीवन का व्याकरण है। मानव को सदैव सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए तथा उसका हृदय सदैव दया, करुणा, ममता, त्याग व सहानुभूति से आप्लावित होना चाहिए– यही जीने का सर्वोत्तम मार्ग है।

जो व्यक्ति जीवन में मस्त है; अपने कार्यों में तल्लीन रहता है;  वह कभी ग़लत कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पास किसी के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति इधर-उधर झाँकता है, दूसरों में दोष ढूंढता है, छिद्रान्वेषण करता है  और उन्हें अकारण कटघरे में खड़ा कर सुक़ून पाता है। वैसे भी आजकल अपने दु:खों से अधिक मानव दूसरों को सुखी देखकर परेशान रहता है तथा यह स्थिति लाइलाज है। इसलिए जिसकी सोच अच्छी व सकारात्मक होती है, वह दूसरों को सुखी देखकर न परेशान होगा और न ही उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखेगा। इसके लिए आवश्यक है प्रभु का नाम स्मरण– ‘जप ले हरि का नाम/ तेरे बन जाएंगे बिगड़े काम’ और ‘अंत काल यह ही तेरे साथ जाएगा’ अर्थात् मानव के कर्म ही उसके साथ जाते हैं।

‘प्रसन्नता की शक्ति बीमार व दुर्बल व्यक्ति के लिए बहुत मूल्यवान है’–स्वेट मार्टिन मानव मात्र को प्रसन्न रहने का संदेश देते हैं, जो दुर्बल का अमूल्य धन है, जिसे धारण कर वह सदैव सुखी रह सकता है। उसके बाद आपदाएं भी उसकी राह में अवरोधक नहीं बन सकती। कुछ लोग तो आपदा को अवसर बना लेते हैं और जीवन में मनचाहा प्राप्त कर लेते हैं। ‘जीवन में उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही बेवजह न ग़िला किया कीजिए’ अर्थात् जो व्यक्ति आपदाओं को सहर्ष स्वीकारता है, वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए बेवजह किसी से ग़िला-शिक़वा करना उचित नहीं है। ऐसा व्यवहार करने की प्रेरणा हमें अपनी संस्कृति से प्राप्त होती है और ऐसा व्यक्ति नकारात्मकता से कोसों दूर रहता है।

 

गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिए, जो बरसें और खत्म हो जाएं और अपनत्व भाव हवा की तरह से सदा आसपास रहना चाहिए। क्रोध और लोभ मानव के दो अजेय शत्रु हैं, जिन पर नियंत्रण कर पाना अत्यंत दुष्कर है। जीवन में मतभेद भले हो, परंतु मनभेद नहीं होने चाहिएं। यह मानव का सर्वनाश करने का सामर्थ्य रखते है। मानव में अपनत्व भाव होना चाहिए, जो हवा की भांति आसपास रहे। यदि आप दूसरों के प्रति स्नेह, प्रेम तथा स्वीकार्यता भाव रखते है, तो वे भी त्याग व समर्पण करने को सदैव तत्पर रहेंगे और आप सबके प्रिय हो जाएंगे।

 

ज़िंदगी में दो चीज़ें भूलना अत्यंत कठिन है; एक दिल का घाव तथा दूसरा किसी के प्रति दिल से लगाव। इंसान दोनों स्थितियों में सामान्य नहीं रह पाता। यदि किसी ने उसे आहत किया है, तो वह उस दिल के घाव को आजीवन भुला नहीं पाता। इससे विपरीत स्थिति में यदि वह किसी को मन से चाहता है, तो उसे भुलाना भी सर्वथा असंभव है। वैसे शब्दों के कई अर्थ निकलते हैं, परंतु भावनाओं का संबंध स्नेह,प्यार, परवाह व अपनत्व से होता है, जिसका मूल प्रेम व समर्पण है।

इनका संबंध हमारी संस्कृति से है, जो हमारे अंतर्मन को  आत्म-संतोष से पल्लवित करती है। कालिदास के मतानुसार ‘जो सुख देने में है, वह धनार्जन में नहीं।’ शायद इसीलिए महात्मा बुद्ध ने भी अपरिग्रह अर्थात् संग्रह ना करने का संदेश दिया है। हमें प्रकृति ने जो भी दिया है, उससे आवश्यकताओं की आपूर्ति सहज रूप में हो सकती है, परंतु इच्छाओं की नहीं और वे हमें ग़लत दिशा की ओर प्रवृत्त करती हैं। इच्छाएं, सपने, उम्मीद, नाखून हमें समय-समय पर काटते रहने का संदेश हमें दिया गया है अन्यथा वे दु:ख का कारण बनते हैं। उम्मीद हमें अनायास ग़लत कार्यों करने की ओर प्रवृत्त करती है। इसलिए उम्मीदों पर समय-समय पर अंकुश लगाते रहिए से तात्पर्य उन पर नियंत्रण लगाने से है। यदि आप उनकी पूर्ति में लीन हो जाते हैं, तो अनायास ग़लत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं और किसी अंधकूप में जाकर विश्राम पाते हैं।

ज्ञान धन से उत्पन्न होता है, क्योंकि धन की मानव को रक्षा करनी पड़ती है, परंतु ज्ञान उसकी रक्षा करता है। संस्कार हमें ज्ञान से प्राप्त होते हैं, जो हमें पथ-विचलित नहीं होने देते। ज्ञानवान मनुष्य सदैव मर्यादा का पालन करता है और अपनी हदों का अतिक्रमण नहीं करता। वह शब्दों का प्रयोग भी सोच-समझ कर सकता है। ‘मरहम जैसे होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है।’ उनमें वाणी  माधुर्य का गुण होता है। ‘खटखटाते रहिए दरवाज़ा, एक

दूसरे के मन का/ मुलाकातें ना सही आहटें आनी चाहिए’ द्वारा राग-द्वेष व स्व-पर का भाव तजने का संदेश प्रदत्त है। सो! हमें सदैव संवाद की स्थिति बनाए रखनी चाहिए,  अन्यथा दूरियाँ इस क़दर हृदय में घर बना लेती है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। हमारी संस्कृति एकात्मकता, त्याग, समर्पण, समता, समन्वय व सामंजस्यता का पाठ पढ़ाती है। ‘सर्वेभवंतु सुखिनाम्’ में विश्व में प्राणी मात्र के सुख की कामना की गयी है। सुख-दु:ख मेहमान है, आते-जाते रहते हैं। सो! हमें निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और निरंतर खुशी से जीवन-यापन करना चाहिए। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला’ के माध्यम से मानव को आत्मावलोकन करने व ‘एकला चलो रे’ का अनुसरण कर खुशी से जीने का संदेश दिया गया है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 325 ⇒ || मिलीभगत ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मिलीभगत ||।)

?अभी अभी # 325 ⇒ || मिलीभगत || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Connivance

कुछ शब्द बड़े मासूम नजर आते हैं। अब भगत शब्द को ही ले लीजिए। नरसिंह भगत से चेतन भगत तक की यात्रा कर चुका है यह शब्द। भगत के बस में हैं भगवान लेकिन जैसे ही इस शब्द का मेल मिलाप, मिली जैसे शब्द से होता है, हमें कोई सांठ गांठ अथवा साजिश नजर आने लगती है। शब्द, सत्संग से, क्या से क्या हो जाए।

मिलीभगत शब्द का प्रयोग भले ही अच्छे अर्थ में नहीं किया जाता हो, लेकिन फिर भी यह एक सामूहिक प्रयास का ही नतीजा है।

अकेला व्यक्ति तो सिर्फ भक्ति ही कर सकता है, मराठी में एक म्हण भी है, एकटा जीव सदाशिव।

एक अकेला जीव बगुला भी है, जो भक्ति नहीं ध्यान करता है। उसकी भी ख्याति बगुला भगत की तरह ही है। अर्जुन को मछली की सिर्फ आंख नजर आती थी, हमारे बगुला भगत के ध्यान में तो हमेशा पूरी मछली नजर आती है।।

अगर सभी बगुले एक ही जगह एकत्रित हो जाएं तो क्या यह उनकी मिलीभगत नहीं कहलाएगी। मिलीभगत के लिए व्यक्ति में बगुले के गुण कूट कूटकर भरे होना जरूरी है। मिलीभगत का परिणाम बड़ा कारगर होता है। अपराध और क़ानून की मिलीभगत आप अपराधी और पुलिस और वकील और अदालत के बीच आसानी से देख सकते हैं। तारीख पर तारीख और जमानत पर जमानत।

जीयो और जीने दो।

अफसर व्यापारी और नेता उद्योगपति के बीच का मधुर मेलजोल क्या मिलीभगत का परिणाम नहीं। संसार में सबसे अटूट रिश्ता स्वार्थ का होता है। पूरे देश को एक सूत्र में बांधने के लिए आपस में प्रेम और सौहार्द्र के अलावा एक बॉन्ड की भी आवश्यकता होती है।

भाषा की गरिमा को बनाए रखते हुए हमें सांठ गांठ, साज़िश अथवा मिलीभगत जैसे शब्दों से परहेज़ करना चाहिए। आज हमारे पास इसके विकल्प के रूप में इलेक्टोरल बॉन्ड हैं, जो देश को विकास की ओर ले जाते हुए सभी को आपस में जोड़ भी रहा है।।

हमें अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक और उदार बनाना होगा। हमारे रोजमर्रा के जीवन में एक और बड़ा प्यारा सा शब्द है, जो सनातन और शाश्वत है। मैं अतिथि देवो भव का जिक्र नहीं कर रहा, आवभगत शब्द का कर रहा हूं।

भक्ति भाव से किसी का स्वागत ही तो आवभगत है। शब्द वही है, लेकिन सब सत्संग का प्रभाव है। अच्छी आवभगत, आदर सत्कार और सम्मान भी आजकल व्यक्ति देखकर ही किया जाता है। जितने अच्छे तोहफे, उतनी ही शानदार आवभगत। और ऊपर से थैंक्यू थैंक्यू, इसकी क्या जरूरत थी। जामनगर जैसे आयोजन में तो आवभगत और मिलीभगत की सुंदर जुगलबंदी नजर आई। रिश्तों का मान रखते हुए खाना भी खाकर ही जाना पड़ेगा। आखिर बहुत पुराना याराना जो है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #208 ☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 206 ☆

☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हर व्यक्ति के अंदर जो परमात्मा के अंश स्वरूप आत्मा विद्यमान है, वह हमारे हर कार्य की साक्षी है और हमें अच्छे बुरे का आभास कराते हुए बुरे कार्य करने से रोकने के लिए प्रेरित भी करती है.! दूसरे शब्दों में हम इसे  विवेक भी कह सकते हैं जो बुरे- भले को कसौटी में कसते हुए,हमें सचेत करता है एवं अच्छाई का मार्ग प्रशस्त करता है.! कुछ लोग इसे वॉइस ऑफ गार्ड भी कहते हैं..!! परंतु यह विवेक या अंतरात्मा व्यक्ति के संस्कारों,पृष्ठभूमि,चरित्र,मानसिकता, एवं धर्म आदि पर निर्भर होती है.!

आजकल राजनीति में अंतरात्मा शब्द का इस्तेमाल बहुत आम हो गया है.! अब इन नेताओ का आए दिन अंतरात्मा की आवाज के नाम पर दल-बदल एवं सिद्धांतों से समझौता करना आम हो गया है.? और आधुनिकता एवं स्वार्थ के इस दौर में हो भी क्यों न.? अब व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करना एवं अपना फायदा पहले देखना क्या कोई बुरी बात है.? नेता ही क्यों किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को देख लो चाहे वह व्यापारी हो लोकसेवक हों संत हों साधु हों महात्मा हों कितने लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनते हैं.? यदि आसाराम बापू ने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी होती तो आज जेल में नहीं होते.! ना जाने ऐसे कितने बाबा हैं जो अपने तात्कालिक फायदे के लिए, अपनी अंतरात्मा की आवाज को कुचल देते हैं ! आम जिंदगी में यहां हर कोई लूट- खसोट और एक दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हुए.!  अब कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे लोगों की आत्मा मर गई है.? अब इन्हें कौन समझाए कि आत्मा कभी मरती नहीं है..! समाज में चोरी करने वाला भी जानता है कि वह गलत काम कर रहा है ऐसे ही हर गलत काम करने वाला व्यक्ति जानता है कि वह यह अनैतिक,अवैधानिक कार्य कर रहा है.! पर सभी जानते हुए भी यह सब किये जा रहे हैं.? अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर इनकी विबसता  क्या है.? इस प्रश्न के जवाब व्यक्ति के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं.! हालांकि अपने अंतरात्मा की आवाज को दबाने का सिलसिला नया नहीं है.यह प्राचीन काल से ही चला आ रहा है.त्रेता में  रावण,द्वापर में कंस जैसे हर युग में अनेकानेक व्यक्ति हैँ जो विशेष रूप से चर्चाओं के साथ इतिहास का हिस्सा रहे.! कलयुग में तो अब यह आम हो गया है.! स्वार्थ और लोभ इस कदर बढ़ गया है कि व्यक्ति पग पग पर आत्मा की आवाज की अनसुनी कर रहा है.! कहते हैं कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.!

राजनीति में तो अंतरात्मा की आवाज बहुत सुनाई देती है और नेता लोग अंतरात्मा की आवाज के नाम पर जब चाहे तब सिद्धांतों से समझौता दल बदल ग्रुप बाजी , आराम से अपनी सहूलियत एवं सुविधाओं के हिसाब से कर लेते हैं.? अभी विगत दिनों राज्यसभा चुनाव में हिमाचल,उत्तर प्रदेश एवं , कर्नाटक में अंतरात्मा की आवाज कहकर पाले बदल लिए.? राजनीति मैं तो अंतरात्मा की आवाज का अपना एक लंबा चौड़ा इतिहास है विभिन्न अवसरों पर संसद एवं विधान सभाओं में अंतरात्मा की आवाज का आव्हान भी किया जाता है और बहुतेरे नेता, इस लालच रूपी आव्हान में अपनी असल आवाज को भूल कर चक्कर में आ जाते हैं.! अब आएं भी क्यों ना उन्हें भी अपने भविष्य के बारे में चिंता करने का अधिकार जो है.? सब कुछ आम लोगों के हिसाब से थोड़ी चलेगा.!! लोग है कि बेवजह है नेताओं को बदनाम करते हैं..! कितने लोग हैं जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन रहे हैं..?  यह तो भला हो नेताओं का जो अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर कुछ तो फैसले कर रहे हैं.!! फिर यह सतयुग थोड़ी ही है जो हर कोई अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन ले.! यह कलयुग है भाई.! यहाँ तो बेटे बाप की नहीं सुनते .? पत्नी पति की नहीं सुनती.,भाई भाई का नहीं सुनता,हर कोई अपनी धुन में अपने हिसाब से जी रहा है.! फिर इस दौर में यदि नेता अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर अपना फायदा खोजते हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है.? अब कुछ विश्लेषक अंतरात्मा की आवाज का भी विश्लेषण करने उतारू हो जाते हैं.! हम तो बस यही कह सकते हैं कि किसी के कृत्यों से अंतरात्मा की आवाज का विश्लेषण करना क्या उचित है. ?

चुनाव के समय भी कई बार मतदाताओं से भी अपील की जाती है कि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें.! अनेकों बार ऐसा लगता है कि कैसे अपने लक्ष्य को साधने के लिए अंतरात्मा की आवाज के नाम का उपयोग किया जाता है.! पर यह क्या कुछ लोग तो अपनी इस आवाज को ही बेच देते हैं.? आखिर इससे भी तो उन्हें कुछ फायदा तो हुआ ना.!

हमारा तो बस यही कहना है की अंतरात्मा की आवाज की यह सुर्खियां हमेशा बनी रहें और लोग, अपनी अंतरात्मा की आवाज को सतत सुनते भी रहें.! क्योंकि एक यही आवाज है जो आपको अपने असल वजूद का एहसास कराती है.!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा

बहुत ही लोकप्रिय शब्द है प्रजातंत्र, कुछ भी करो सब जायज हो जाता है आखिर प्रजा की ताकत तो राजतंत्र से ही चली आ रही है। चुनाव के समय पर इसकी पूछ – परख कुछ ज्यादा ही होती है। एक साहित्यिक गोष्ठी चल रही थी उसमें परजा को लेकर एक से एक विचार आने लगे एक ने कहा पर जा अर्थात दूर हो जा तो दूसरे ने चौका मारते हुए कहा पर होते तो उड़ न जाते। तीसरे ने भी शब्दों का छक्का जड़ते हुए कहा, बिन पर जा राजा की भी कोई कीमत नहीं होती।

पर, किन्तु, परन्तु से लोग त्रस्त ही रहते हैं। पर इसकी शक्ति का कोई सानी नहीं होता तभी तो इनकी शक्ति का लोहा बड़े- बड़े वीरों को भी मानना पड़ा। पर जब भी उपसर्ग के रूप में आया तब उसने अपने से जुड़े हुए शब्द को महान बना दिया।

अब तो तीनों तरकश से परजा की तारीफ में तीर निकलने लगे किसी ने अपने गुरु को याद किया तो किसी ने गुरु घण्टाल को तो किसी ने एकता की शक्ति में भक्ति को समाहित करते हुए मुक्तक के तार छेड़ दिए। आस-पास बैठे लोग भी खुश हुए चलो कुछ तो हाथ लगा दिन भर से पर फड़फड़ा रहे थे अब जाकर दाना पानी हाथ लगा आखिर समय और निष्ठा की भी तो कोई ताकत होती है।

चुनावी जोड़तोड़ से कोई भी अछूता नहीं है जिसे जहाँ मन आ रहा है वहीं की राह पकड़ने लगा है। कोई भक्ति की शक्ति में डूबकर शक्ति प्रदर्शन करता है तो कोई कुर्सी की आशक्ति में बिना सिर पैर की कोशिश कर रहा है।कोशिशें वही कामयाब होंगी जिसमें सर्वजन हिताय का भाव हो। दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़िए विश्व आपकी अगुआई चाहता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह प्यार का मौसम होता है, उसी तरह हंसने का मौसम भी होता है। होली के मौसम को आप हंसी खुशी का मौसम कह सकते हैं, क्योंकि प्यार का सप्ताह, यानी वैलेंटाइन्स वीक तो, कब का गुजर चुका होता है। होली पर जो पानी बचाने की बात करते हैं, और दिन भर एसी में पड़े रहते हैं, वे परोक्ष रूप से हंसी खुशी और मस्ती घटाने की ही बात करते हैं।

हंसना सबकी फितरत में नहीं। जिन्हें कब्ज़ होती है, वे खुलकर हंस भी नहीं सकते। हंसने से भूख भी बढ़ती है, और पाचन शक्ति भी। चिकित्सा विज्ञान ने अनिद्रा का निदान तो नींद की गोलियों में तलाश लिया लेकिन अवसाद का उनके पास कोई इलाज नहीं। घुट घुटकर, घूंट घूंट पीना और यह गीत गुनगुनाना ;

हंसने की चाह ने

इतना मुझे रुलाया है।

कोई हमदर्द नहीं,

दर्द मेरा साया है।।

होली का मतलब है, ठंड गई, गर्मी आई। होली का एक मतलब और है, ठंडाई। ठंडाई पीसी जाती है, मिक्सर में नहीं, सिल बट्टे पर, और वह भी उकड़ू बैठकर। पिस्ता, बादाम, केसर, खसखस, इलायची, काली मिर्च, और मगज के बीजों को पीसकर जब दूध और शकर में मिलाया जाता है, तब जाकर बनती है ठंडाई। अगर ठंडाई पीसी जाती है, तो विजया घोटी जाती है। आयुर्वेदिक औषधि भांग को ही विजया कहते हैं। असली विजयादशमी तो कायदे से होली ही है।

भांग को शिव जी की बूटी भी कहा जाता है। ठंडाई और भांग के गुणगान का हंसने और खुलकर हंसने से बहुत गहरा संबंध है। विजया पाचक तो है ही, इससे खुलकर दस्त भले ही ना लगें, लेकिन हंसी ऐसी खुलती है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेती।।

जो लोग बिना बात के भी हंस लेते हैं, इसमें उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं, यह विजया का ही प्रभाव होता है। आश्चर्य होता है उन लोगों पर, जो हंसने के लिए लाफ्टर क्लब जॉइन करते हैं। अधिक व्यंग्य कसने वाले और कसैला व्यंग्य लिखने वाले न जाने क्यों हास्य रस से परहेज़ करते नजर आते हैं। इन्हें तो हंसने वालों पर भी हंसी नहीं, रोना आता है।

भांग यानी विजया आपको बिना बात के हंसने की गारंटी देती है। वैसे आज के राजनीतिक परिदृश्य में, जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो, तब हंसने के लिए, अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। रमजान की अजान की तरह और विष्णु सहस्त्रनाम की तरह जब आकाशवाणी की तरह पूरी कायनात में एक ही आवाज गूंजती है, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें गारंटी दूंगा, तो नर तो क्या, किसी खर को भी बरबस हंसी छूट जाती होगी।।

लोग पहले होली के इस मौसम में बुरा नहीं मानते थे, लेकिन अब मौसम न तो प्यार का है और न ही हंसने का। इंसान की नफरत और बदले की आग ने, मौसम को भी बेईमान कर दिया है।

प्रेम और हंसी खुशी बाज़ार से खरीदी नहीं जाती। रोते हुए बच्चे को हंसाने का फार्मूला बहुत पुराना हो गया। हंसी खुशी और मस्ती की पाठशाला का पहला पाठ खुद पर ही हंसना है, दूसरों पर हंसना नहीं, उन्हें भी हंसाना है।

नफरत के बीज की जगह अगर जरूरत पड़े तो प्रेम और हंसी खुशी का, विजया का पौधा लगाएं।

मित्रता हो अथवा दोस्ती हो, पहले घुटती है, और उसके बाद ही छनती है। मौका और दस्तूर बस हंसने और मस्ती छानने का है। अगर आप हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना और ठहाके लगाना भूल गए हैं, तो शिवजी की बूटी की शरण में आएं। आप नॉन स्टॉप हंसते रहेंगे, यह विजया की गारंटी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 233 – विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 233 ☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख  सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही।  सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने  दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर  तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर  अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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