☆ आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆
‘‘क्या अरब में महिलायें यहॉँ की तरह आटा गूँथ कर रोटी बनाती हैं? वे तो रोटी खरीद कर ले आती हैं।’’फिलिस्तीनिओं पर इजरायली अत्याचार पर लिखी मेरी कहानी को पढ़ कर पत्रिका लौटाते हुए डा0 श्री प्रसादजी ने कहा।और यही बात उन्होंने कहानी के अंतिम पृष्ठ पर पेंसिल से लिख भी दी थी। जिस कमरे में बैठ कर वे लिखने पढ़ने का काम किया करते थे उसकी खिड़की पर एक कलमदान में कई कलम और वह पेंसिल भी पड़ी रहती थीं।
थोड़ी देर मैं चुप रहा, फिर झेंपते हुए बोला ,‘अब तो मां बेटी रोटी खा चुकी हैं। ’यानी कहानी तो प्रकाशित हो चुकी है।खैर, बात तो अपनी जगह सही थी। खालेद होशैनी का उपन्यास ‘ए थाउजैंड स्प्लेंडिड सनस्’ पढ़ते हुए पता चला कि काबुल में औरतें तंदूर से रोटी बनवा कर घर ले आती हैं।
उनसे मेरा नाता मेरी ‘गलतिओं के गलियारे’ से होकर ही गुजरता है। आज भी उनके सुपुत्र डा0 आनन्द वर्धन जब भी मेरी कोई रचना पढ़ते हैं तो मैं कहता हूँ,‘कहीं कोई गलती हो तो उसे पेंसिल से जरूर मार्क कर दीजिएगा।’सच वह पेंसिल तो हमारे लिए मशाल ही थी।
और इसी तरह डा0 श्रीप्रसाद जी के घर मेरा आना जाना होता रहा। घंटे दो घंटे की बैठक। सुनने सुनाने का कार्यक्रम। वे मेरी त्रुटिओं की ओर संकेत कर देते। मैं उन्हें ठीक कर लेता। या कोई बेहतर शब्द को ढूँढने में मेरी मदद कर देते ,कोश का पन्ना पलटते। जब भी वे फोन पर कहते, ‘आपकी कहानी अमुक पत्रिका में निकली है।’
मैं पूछ लिया करता,‘पढ़ते समय आपके हाथ में पेंसिल थी न?’
डाक्टर साहब हॅँस देते। वैसे वे अपने नाम के आगे डाक्टर लिखना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वे हर समय धोती कुर्ता ही पहनते थे। इसी लिबास में वे विदेश भी हो आये। उनकी किताबें प्रकाशित होतीं, तो मुझे पहले से ही मालूम हो जाता।
वे और उनकी पत्नी (श्रीमती शांति शर्मा) मेरे क्लिनिक में दिखाने या ऐसे ही भेंट करने आते, और बैठते ही काले पोर्टफोलिओ बैग से वे अपनी सद्यः प्रकाशित किताब मेरे हाथों में धर देते। पहले पृष्ठ पर उनके अपने हाथों से लिखा होता मेरे लिए सप्रेम भेंट!
उन दिनों हमारे ‘विहान’ नाट्य संस्था के लिए नाटक लिख कर मैं संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स कालोनी में उनके आवास पर मैं जाया करता था। वे सुनते और ठीक करते जाते। काशी के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक डा0 राजेन्द्र उपाध्याय ने मुझे उनका पता दिया था। सच, बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ……..
उन दिनों उन्हें सांस की तकलीफ होती रहती थी।उसी सिलसिले में शुरू शुरू में वे खुद को दिखाने मेरे पास आते थे। फिर तो आने जाने का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि जानकी नगर के नये मकान बनने के बाद मुझसे कहने लगे,‘आप भी इसी मुहल्ले में आ जाइये।’
बनारस में रहते तो करीब हर इतवार को दोपहर बारह के बाद उनका फोन आता, क्योंकि उस समय मैं भी कुछ खाली हो जाता। फिर काफी देर तक तरह तरह की बातें होती रहतीं।किस रचना को कहाँ भेजा जाए। उनकी कौन सी नयी किताब आनेवाली है।बाल पत्रिकाओं का स्वरूप कैसा हो रहा है। इससे बाल साहित्य के पाठक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वगैरह। अगर किसी रविवार को उनका फोन नहीं आता तो अगले दिन या बाद में मैं उनसे कहता, ‘डाक्टर साहब,रविवार के अटेंडेंस रजिस्टर में ‘ए’ लग गया है।’
उनके पारिवारिक रिश्ते – आपस में तालमेल – सास ससुर के साथ बहू का सम्पर्क – सभी अनुकरणीय थे। बात उनदिनों की है जब उनका सुयोग्य पुत्र आनन्द भोपाल में रहते थे। दो एक महीने उनके पास रह कर डाक्टर साहब सपत्नीक वापस आ रहे थे। सास ससुर को विदा करते समय ट्रेन में (डा0) ऊषा अपनी सास से लिपट कर ऐसे रो रही थी कि एक दूसरी महिला यात्री पूछने लगी,‘क्या तुम अपनी मां को विदा करने आयी हो ?’
ऊषा तो कहती ही है कि यहाँ तो मुझे मायके से भी ज्यादा प्यार व स्नेह मिला !
अपने गॉँव के बारे में श्री प्रसादजी ढेर सारी बातें किया करते थे। खूब किस्से सुनाया करते थे।उनका गॉँव जमुना के तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। किसी जमाने में वह डकैतों का इलाका रहा। एक बार जंगल के रास्ते आते हुए उनकी भेंट गांव के ही एक आदमी से हो गई जो बागी बन गया था। इन्होंने उससे पूछा था,‘तुमने आखिर इस रास्ते को क्यों अपना लिया? घर परिवार से दूर – इस तरह दर दर भटकना -’
उस डकैत ने जबाब दिया था,‘और क्या करता? वहॉँ दबंग लोगों का अत्याचार सह कर और कितने दिन गॉँव में रह सकता था?किससे शिकायत करता? पुलिस भी तो उन्ही की जी हुजूरी में लगी रहती है।’
इन सब बातों से उन्हें बहुत कष्ट होता। दीर्घश्वास छोड़कर कहते,‘इसी तरह सबकुछ बिखर जा रहा है। एक बसा बसाया संसार उजड़ता जा रहा है।’
गांव के बारे में और एक किंवदंती वे सुनाया करते थे। एकबार महात्मा तुलसीदास अपने अग्रज भक्तकवि सूरदास से भेंट करने जा रहे थे। रास्ते में इन्हीं के गांँव से उन्हें जमुना पार करना था। जमुना का अथाह जल देखते हुए कवि ने कहा था,‘पारना!’ यानी इसका तो पार नहीं है! इसीसे गॉँव का नाम भी पारना हो गया। चूँॅकि शाम ढल चुकी थी इसलिए कविवर ने रात वहीं बितायी। मगर किसी को भनक तक नहीं पड़ी कि उनके यहाँ कौन ठहरा हुआ है। कहते हैं सुबह कुछ सुगबुगाहट हुई और ढेर सारी हलचल,‘अरे जानते हो कल यहॉँ कौन ठहरा हुआ था ? और हम्में पता तक नहीं !’
इसी पर लिखी उनकी कहानी ‘पारना’ नंदन में प्रकाशित हो चुकी है।
हम तीनों (श्रीप्रसादजी, शांति देवी और मैं) की साहित्यिक महफिल घंटे दो घंटे तो आराम से जम जाया करती थी। तीनों तरफ दीवारों पर किताबों के रैक। वहीं दीवारों पर से प्रेमचंद, पंत और निराला के साथ साथ काजी नजरूल इस्लाम और गोर्की भी हमारी ओर देखते रहते। चौकी पर भी ढेर सारी पत्रिकाएॅँ और किताबें। जब चाय पिलाना होता तो आनन्द की माँ कभी कभी हँॅसने लगतीं,‘अरे चाय की ट्रे कहॉँ रक्खूँॅ ?’ मैं झट से किताबों के बीच जगह बनाने लगता। जाड़े के दिनों में मैं तीन चार बजे तक ‘ब्रजभूमि’(उनके आवास का नाम) में पहुॅँच जाता और सात बजे तक बैक टू पैवेलियन। मगर एकबार लौटते समय रात हो गई और महमूरगंज के विवाह मंडपों के सामने बारातिओं के उफान के बीच मेरी ‘कश्ती’ बुरी तरह फॅँस गई। पेट में भूख -दिमाग में झुॅँझलाहट -परिणाम …..? बौड़ा गैल भइया, काशी का साँड़!
जन्माष्टमी के मौसम में दो एक बार घर से ताड़ की खीर और उसका बड़ा ले गया था। दोनों को खूब पसन्द आये। अपने हाथ से गाजर का हलुआ बना कर ले गया तो वे हॅँसने लगे,‘आप तो रस शास्त्र में ही नहीं पाकशास्त्र में भी निपुण हैं।’
मैं ने कहा,‘मगर आप कोशिश मत कीजिएगा। याद है न एकबार कद्दूकश से गाजर काटते समय आपकी उँगली शहीद होते होते बच गई ?’
वे खूब हॅँसने लगे। शांति देवी कहने लगी,‘मैं तो इनसे कोई काम कहती ही नहीं। बस, अपना लिखना पढ़ना लेके रहें ,वही ठीक है।’
वे तो बस जी जान से सरस्वती के उस मंदिर को सँभालने सॅँवारने में ही लगी रहती थीं। वे सचमुच साहित्य की पारखी थीं। किस सम्मेलन में कौन आया था और कौन नहीं – ये सारी बातें भले ही श्रीप्रसादजी कभी कभी भूल जाते थे, मगर उन्हे ठीक याद रहता था। गाय घाट के माहौल में पली बढ़ी होने के कारण बनारस की कई पारंपरिक बातें वे बखूबी से जानती थीं। नलीवाले लोटे को ‘सागर’ कहा जाता है यह बात उन्होंने ही मुझे बतायी थीं। कहानी के संप्रेश्य मर्म बिंदु को वह ठीक पकड़ लेती थीं। जिसे कहा जाय सेन्स ऑफ एप्रिसियेशन – अनुभूति एवं उपलब्धि की तीक्ष्णता उनमें कूट कूट कर भरी थी। उचित जगह पर ही दाद देतीं या पंक्ति को दोहराने लगतीं ……..
वैसे डाक्टर साहब रोटी तो बना नहीं पाते थे मगर कहते थे – ‘मैं पराठा अच्छा बना लेता हूँ।’ वे बिलकुल अल्पभोजी थे। खैर, फलों में आम उनको बहुत पसंद था।
‘ब्रजभूमि’ से लौटते समय मैं कहता था, ‘बनारसी विप्र की दक्षिणा मत भूलियेगा।’
डाक्टर साहब हॅँस कर करीपत्ते के पेड़ से कई डालियॉँ तोड़कर एक प्लास्टिक में भर कर मुझे थमा देते थे।
आनन्द की शादी के पहले जब वे ऊषा को देखने पौड़ी गये थे तो उसी समय केदारनाथ बद्रीनाथ भी हो आये थे। इधर तो बाहर कम ही जाते थे ,वरना बाल साहित्य सम्मेलनों में भाग लेने खूब जाया करते थे। आनन्द जब बुल्गारिया में थे तो वे दोनों बुल्गारिया, तुर्की और ग्रीस सभी जगह घूम आये थे। गांडीव में उनकी यात्रा की डायरी भी किस्तवार आ चुकी है। बुल्गारिया की जो बात उन्हें बहुत अच्छी लगती थी वह यह कि वहाँ की सड़कों या जगहों का नाम लेखक या कविओं के नाम से हुआ करता है। न कि राजनयिकों के नाम से।
सभी को मालूम है कि उनकी कविता ‘बिल्ली को जुकाम’ को स्वीडिश विश्व बाल काव्य संग्रह में स्थान मिला है। दो संग्रहों में संकलित इसकी पहली पंक्ति में कुछ अंतर है। एक में हैःःबिल्ली बोली, बड़ी जोर का मुझको हुआ जुकाम, तो दूसरे में है :ःबिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको …..। वे अपनी कविता ‘हाथी चल्लम चल्लम’ को बड़े चाव से सुनाते थे। जैसे फैज साहब तरन्नुम में षेर सुनाना पसंद नहीं करते थे (नया पथ, फैज जन्मशती विशेषांक,पृ.327),वे भी सीधे सपाट ठंग से कविता का पाठ करना ही पसंद करते थे। उन्होंने कहा था श्रद्धेय बच्चन सिंह भी इस कविता को इसी ठंग से सुनना चाहते थे। और मार्क्सवादी आलोचक चंद्रवली सिंह को उनकी कविता -‘रसगुल्ले की खेती होती/बड़ा मजा आता’ में ‘देश के अभावग्रस्त बालकों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति’ दिखाई दी।(जनपक्ष-12, पृ.190)
बाल साहित्यकारों के बीच चल रही गुटबाजी से वे दुखी रहते थे। कई ऐसे भी हैं जो उनके पास आते बनारस आने पर उनके यहॉँ ठहरते, मगर अवसर मिलने पर उनका पत्ता गोल करने से कभी न कतराते थे। किसी ने लिखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में बाल साहित्य की चर्चा क्यों नहीं की। उनका जबाब था – यह काम तो हम लोगों को करना चाहिए। आचार्य के समय बाल साहित्य की सामग्री ही कितनी थी ?
कविता में छंद की अशुद्धि उन्हें तकलीफ देती थी। वे हर महीने कई पत्रिकायें खरीदते थे। खास कर कविता ही पढ़ते और मात्रा आदि की गड़बड़ी के नीचे पेंसिल से लकीर खींच देते।
शांति देवी के देहावसान के बाद तो वे जैसे बिलकुल टूट गये थे। मानो उनका जीवन ही बिखर गया था। मैं वह दृश्य कैसे भूल सकता हूँ – जब हमलोग उनकी बैठक के दरवाजे के पास शांति देवी के पार्थिव शरीर को फर्श पर लेटाकर बैठे हुए थे। रो रोकर ऊषा का हाल बेहाल था। इधर सभी की ऑँखें छलक रही थीं। उसी समय डाक्टर साहब ने उनकी अधखुली पलकों को अपनी उॅँगलिओं से मूँॅद दिया। मैं उनकी बगल ही में बैठा था। मुझे लगा मेरी सांस ही गले में अटक गयी -!
उन्होंने ‘बाल साहित्य की अवधारणा’नामक आलोचना की पुस्तक को इसतरह अर्पण किया था – ‘सहधर्मिणी शांति को’……..
वे अखबार के किनारे या छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर ही कविता लिखना प्रारंभ कर देते थे। प्लैटफार्म पर बैठे बैठे या ट्रेन की सफर में इसी तरह उनका वक्त बीत जाता था। मैं ने कितनी बार कहा कि मेरे पास तो इतने सफेद पैड पड़े रहते हैं, डायरी मिल जाती हैं। आप इन पर लिखा करें।वे केवल हॅँस देते थे,‘अब यह मेरी आदत बन गयी है। उतने सफेद पन्नों पर शायद मैं लिख न सकूॅँ!’
दुर्गा पूजा के पहले बांग्ला में आनंदमेला शुकतारा आदि पत्रिकाओं के शारदीय विशेषांक निकलते है। वे उन्हें भी कभी कभी खरीद लेते थे। उन्हें तकलीफ होती थी कि उनमें भी आजकल उतनी कविता नहीं छपती है। ‘बाल साहित्य की अवधारणा’ में ‘बाल साहित्य का उद्देश्य’ में उन्होंने लिखा है -‘एक ओर समर्पित बाल साहित्यकारों को अवसर नहीं मिल पाता, दूसरी ओर बाल साहित्य के रूप में अबाल साहित्य चलता रहता है।’ (पृ.6)हिन्दी बाल साहित्य में हास्य कथा, भूत कथा, डिटेकटिव कहानी आदि के अभाव के बारे में कई बार उनसे बातें होती रही। यहॉँ तक कि अब तो दो पृष्ठों में ही कहानी को समेटना आवश्यक हो गया है,वरना लौटती डाक से आपकी रचना आपके द्वारे। मैं ने उनसे कहा था – आज अगर ईदगाह या दो बैलों की कथा जैसी कहानी लिखी जाती तो वह प्रकाशित कहॉँ होती ?
सन् 2005 दिसंबर में मेरा पितृवियोग हुआ। उस समय वे दोनों अस्पताल में बाबूजी को देखने आये हुए थे। फिर अक्टूबर 2012 में मैं दोबारा अनाथ हो गया। उन्हें दिल्ली के मैक्स में हार्ट के ऑपरेशन के लिए भर्ती किया गया था। हालत में कुछ सुधार भी हुआ था। मगर तीसरे दिन रात के करीब आठ बजे आनंद का फोन आया। मैं सन्न रह गया। क्या कहता? सांत्वना के सारे शब्द मानो मूक हो गये थे……रोते रोते मैं पत्नी को यह खबर देने ऊपर जा पहुॅँचा….
कुछ दिनों के लिए मुझे लगा मेरी कलम की वाणी ही गूॅँगी हो गई है। मता (पूॅँजी)-ए-दर्द बहम है तो बेशो-कम क्या है /….बहुत सही गमे गेती (सांसारिक दुःख), शराब क्या कम है…….(फैज)
फिर एकदिन अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर नाम देख कर मैं चौंक उठता हूँ ….यह क्या! दिल की धड़कनें तेज हो गईं। स्क्रीन पर उनका नाम जगमगा रहा था। यद्यपि मुझे मालूम था कि श्रीप्रसादजी का फोन आजकल उनकी बहूरानी ऊषा के पास ही रहता है, फिर भी एक उम्मीद की लौ ….कहीं ….! मैं कॉँपती उॅँगली से हरा बटन दबाता हूँ… शायद फिर से वही आवाज सुनाई दे… ‘हैलो… मैं श्रीप्रसाद…!
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