(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सीने में जलन…“।)
अभी अभी # 322 ⇒ सीने में जलन… श्री प्रदीप शर्मा
हर इंसान में एक शायर होता है, जो अकेलापन देख बाहर निकल आता है।कुछ बोल गुनगुना लेने से थोड़ी तसल्ली और सुकून मिल जाता है। बस इसी स्थिति में हम भी कुछ इस तरह मन बहला रहे थे ;
सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है।
इस शहर में, हर शख्स
परेशान सा क्यूं है।।
अचानक कहीं से धर्मपत्नी प्रकट हो गईं। वे धार्मिक हैं, शेरो शायरी से उनका कोई वास्ता नहीं। आते से ही चिंतित स्वर में बोली, क्या हो गया है आपको, शहर की छोड़ो, आप अपनी बात करो। पूरे शहर में वायरल फैल रहा है, मेरा हाथ थामकर बोली, अरे आपका तो हाथ भी गर्म है, अभी डॉक्टर के पास चलो। अब पत्नी की चिंता को आप त्रियाहठ तो नहीं कह सकते। आखिर तूफान आ ही गया।
डॉक्टर के पास केवल मरीज ही जाता है। हम भी कतार में ही थे। अपना नंबर आया, डॉक्टर पहले आंख देखता है, फिर जबान बाहर करवाता है। पहले कलाई थामता है और फिर कान में यंत्र लगा लेता है।सांस भरने और छोड़ने की औपचारिकता के बाद दिल की धड़कन नापता है। बीपी भी चेक करता है। हमें भी सीने में जलन और अपनी परेशानी का कारण पता चल जाता है।।
वह दिन है और आज का दिन, हमने उस गीत को फिर कभी नहीं गुनगुनाया।लेकिन चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से नहीं जाए, एक बार फिर हम तलत साहब को दोहराते पकड़े गए ;
सीने में सुलगते हैं अरमां
आँखों में उदासी छाई है
ये आज तेरी दुनिया से हमें
तक़दीर कहाँ ले आई है
सीने में सुलगते हैं अरमां ..
पत्नी का ध्यान कहीं भी हो, उनके कान हमेशा हमारी ओर ही लगे रहते हैं। हमारी बहुत चिंता करती है वह। दौड़कर आई, क्या कह रहे थे आप ? इतनी उदासी, सीने का सुलगना तो ठीक, इस उम्र में तो आप तकदीर को भी कोसने लगे, हाय मेरी तो किस्मत ही खराब है। और वे अपनी किस्मत को मेरी खराब तबीयत से जोड़ लेती हैं। वे बहुत पजेसिव हैं, थोड़ी भी रिस्क नहीं लेना चाहती। मुंह पर नहीं बोली, लेकिन समझ गई, यह डिप्रेशन का मामला है।
लेकिन इस बार किसी न्यूरोलॉजिस्ट के पास जाने की नौबत नहीं आई क्योंकि उन्होंने गलती से यू ट्यूब पर तलत महमूद को सुन लिया।बस तब से ही भजन के अलावा उनकी भी शेरो शायरी में रुचि जाग्रत हो गई है। जब घर में दिल के दो बीमार हों, तो अच्छी दिल्लगी होती है।।
कुछ लोग इसे सीना कहते हैं तो कुछ छाती। यहीं कहीं बेचारा दिल भी है।सुना है, सीना फुलाने से छाती चौड़ी हो जाती है।सीने में सिर्फ जलन ही नहीं होती, कभी कभी यहां सांप भी लोटता है। हमें तो वैसे ही सांप से डर लगता है, ऐसी स्थिति में अगर कहीं सीने पर सांप लोट गया तो समझो हम भी हमेशा के लिए ही लेट गए।
कुछ लोग सीने पर पत्थर रख लेते हैं तो हमारे कुछ भाई लोग छाती पर मूंग दलने बैठ जाते हैं। हमारा तो यह सब सुन सुनकर दिल ही बैठ जाता है।।
वैसे हमारे दिल की बात हम सीने में ही छुपाकर रखना चाहते हैं, लेकिन बता दें, यह बात हमें फिर भी हजम नहीं हुई ;
कोई सीने के दिलवाला, कोई चाँदी के दिलवाला
शीशे का है मतवाले मेरा दिल
महफ़िल ये नहीं तेरी दीवाने कहीं चल ..
लेकिन आप कहीं भी चले जाएं, सीने का दर्द और छाती की जलन कम नहीं होने वाली। तलत साहब कितना सही कह गए हैं ;
☆ आलेख ☆ ‘सावधान! शांति कोर्ट में चली गई है!’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
वर्तमान समय की परिस्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि ‘सुबह के रमणीय और शांत समय में…’ जैसे वाक्य अधिकतर कहानियों तथा उपन्यासों में ही पढ़े जा सकते हैं। भोर या सुबह के शांत और सुखद होने की छवि अब दुर्लभ ही समझिये। तरह-तरह की ध्वनियों ने सुबह की खूबसूरत और शांत बेला को प्रदूषित कर रक्खा है। प्रभात समय के मात्र पाँच बजते ही वाहनों की कर्कश आवाजें आरम्भ हो जाती हैं। चूँकि कुछ गाड़ियाँ जल्दी स्टार्ट नहीं होती इसलिए उनके मालिक इसपर अक्सीर इलाज ढूंढने की बजाय गाड़ी का एक्सीलेटर बढ़ाकर उसे काफी देर तक सक्रिय रखे रहते हैं| आसपास के कुछ मंदिरों और मस्जिदों के भोंगे, आरती, प्रार्थना और अज़ान आदि जोरशोर से शुरू हो जाते हैं। आपके पास ये तेज तर्रार आवाजें सुनने के अलावा कोई विकल्प बचता है क्या? ऐसा माना जाता है कि, प्रभात की परम पवन घड़ियाँ तन्मयता से ध्यान और अध्ययन के लिए सबसे अनुकूल होती हैं। अब इस शोरगुल में ध्यान और पढ़ाई करें तो कैसे करें? सुबह करीबन ६ बजे से स्कूल जाने वाले बच्चों के रिक्शा और बसें कोलाहल मिश्रित हॉर्न बजाना शुरू कर देती हैं। निश्चित जगह से काफी लंबी दूरी से हॉर्न बजाते हुए उनका आगमन होता है, इसलिए कि बच्चे सावधान हो कर लाइन में खड़े रहें| अक्सर बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार होकर खड़े रहते ही हैं, लेकिन इन बस वालों की हॉर्न बजाने की आदत छूटे नहीं छूटती! इस ध्वनि प्रदूषण पर ना तो कोई टैक्स अथवा जुरमाना है, न ही कोई रोकटोक| बिल्ली के गले में भला कौन घंटी बांधे? कोई पहल कर बोल भी दे, तो उसे ही बुरा भला सुनना पड़ता है|
श्री विश्वास देशपांडे
बच्चों के स्कूल जाने पर जरासी राहत की साँस ली नहीं कि, सब्जियां एवं फल बेचने वाले और A to Z कबाड़ खरीदने वाले चिल्लाने को तैयार ही रहते हैं। आप चाहें या न चाहें उनकी गुहार आप को सुननी तो पड़ेगी! यहीं नहीं, अब तो रिकॉर्ड की हुई उन्नत स्वरावली में उनके गाने या कथन गाड़ियों पर लगाए गए स्पीकर्स पर सारे मोहल्ले में गुंजायमान होते रहते हैं| इस कारनामे से भले ही उनके चिल्लाने का तनाव कम होता है, लेकिन जनता के पास इन स्वघोषित वक्ताओं की आवाज सहने के अलावा कोई चारा नहीं बचता| फिर नगर निगम जैसी कार्यक्षम सरकारी संस्था पीछे क्यों रहे? स्वच्छता दूतों के कचरे के ट्रक के आगमन की सुमधुर (?) सूचना देती घंटी बजती है| बीच में उसके स्पीकर से विभिन्न सामाजिक सन्देश, निर्देश एवं उपदेशात्मक गीत अनायास ही बजते रहते हैं| हमारे कर्णरन्ध्रों पर यह अत्याचार शायद सुफल सम्पूर्ण नहीं हुआ, इसलिए कोई पडोसी जोरदार ध्वनि के साथ टीव्ही और/ या रेडिओ लगाने पर उतारू हो जाता है| अब मोबाईल से भिड़े जन कहाँ पीछे हटने वाले हैं? वे गाने सुनने में मशगूल होते हैं, या किसी के साथ बड़ी आवाज में बातचीत करते हुए घर के बाहर आ जाते हैं (पता नहीं उनके मोबाईल की रेंज घर के बाहर ही क्यों प्रतीक्षा करती है)! कुत्तों की ईमानदारी के गुन गाते गाते हमारी उम्र ढल गई, पर अपनी इसी ईमानदारी का सुबूत पेश करने के लिए उनके लावारिस प्रतिनिधि गहन रात्रि के प्रहर क्यों चुनते हैं, यह संशोधन करने का विषय है| इससे मानवजाति की रात की मीठी नींद और प्रभात बेला के गुलाबी स्वप्न में खलल पड़ने का इन मनुष्य जाति के बड़े ही करीबी दोस्तों को रत्तीभर भी अंदाजा क्यों नहीं होता भला? (सोचना उन्हें है, हमें नहीं!) क्या अब भी हम कहें कि, सुबह की सुन्दर घडी शांति से समृद्ध होती है? मुझे विश्वास है कि, पुरातन काल में कहीं न कहीं यह ‘भोर की बेला सुहानी’ रही होंगी तथा उसके सानिध्य से अभिभूत हो कर ही हमारे ऋषिमुनियों एवं लेखक मंडली को इतनी सौंदर्यशाली साहित्यरचनाऐं रचने की प्रेरणा मिली होगी|
अब परसों की ही बात है, एक विवाह के स्वागत समारोह (रिसेप्शन) में जाने का निमंत्रण मिला| उस दिन कई रिश्तेदार और मित्रगण काफी अन्तराल के बाद एक दूसरे से मिल रहे थे| चूंकि यह भेंट काफी दिनों बाद हो रही थी, इसलिए हर एक को बहुतसी बातें करनी थीं| लेकिन कार्यक्रम के आयोजकों ने उसी वक्त संगीत के कार्यक्रम का भी आयोजन किया था| एक ही सभागृह में स्टेज पर दूल्हा-दुल्हन और वहीं एक कोने में भोजन की भी व्यवस्था थी | पार्श्वभूमि में ऑर्केस्ट्रासहित गाने बजाने की आयोजकों की मंशा अच्छी हो, लेकिन गानों की आवाज़ें इतनी तेज़ थीं कि, लंबे समय बाद वहाँ मिले अभिजनों के लिए एक-दूसरे से बातचीत करना मुश्किल हो रहा था| अधिकतर लोग गाने सुनने के मूड में नहीं लग रहे थे| इस कोलाहल में अगर आपको किसी से बात करनी हो तो, अपना मुँह दूसरे के कान से सटाकर ही बोलना जरुरी था। उसी माहौल में उपस्थित लोगों का भोजन संपन्न हुआ और वर-वधू को बधाई एवं शुभाशीर्वाद दिए गए| अगर उन कर्कश गीतों की जगह वातावरण को प्रसन्नता से भर देने वाली शहनाई की मंगलमय मद्धम धुन बजती रहती, तो सोचिये क्या ही अच्छा होता!
एक और प्रसंग! मेरे घर के निकट ही एक विवाह समारोह था| विवाह की पूर्व संध्या पर हल्दी का कार्यक्रम हुआ| घर के सामने ही मंडप लगा था| कार्यक्रम स्थल पर शाम पांच बजे से डीजे प्रारम्भ हो गया। हल्दी का सम्पूर्ण कार्यक्रम खत्म होने तक डीजे बजता रहा। उसके ख़त्म होने पर मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई| परन्तु मित्रों, यह सुख अल्पजीवी साबित हुआ (वैसे भी प्राचीन ग्रन्थ-सन्दर्भों के अनुसार सुख के क्षण थोड़े ही होते हैं)| भोजन अवकाश के ख़त्म होते ही नयी ऊर्जा के साथ डीजे फिर कार्यान्वित हुआ| देर रात तक वहाँ उपस्थित सभी लोग डीजे की धुन पर थिरकते रहे। यह आम बात है कि, सार्वजनिक स्थानों पर, सड़क पर मंडप खड़े होते हैं, कर्णकटु डी.जे. चिल्लाते हैं| इस बात का किसी के मन में जरासा भी ख़याल नहीं आता कि, आसपास रहने वाले या वहाँ से गुजरने वाले किसी अन्य व्यक्ति को तकलीफ़ हो सकती है| इसके बजाय क्या ऐसे कार्यक्रम इस तरह आयोजित नहीं किये जा सकते, जिससे दूसरों को परेशानी न हो? इस पर सामाजिक विचारमंथन क्या जरुरी नहीं? या ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप’ वाला अनकहा नियम है यहाँ? लगता है इस कर्ण-कठोर ध्वनि के कारण हमारे कानों के परदों को पक्षाघात का सदमा पहुँच चुका है| नतीजन हमारी सामाजिक चेतना भी लुप्त होती जा रही है। ऐसे अवसरों पर कृपया आयोजकों के कुछ ‘उच्चकोटि’ के विचार जान लीजिये| “दूसरों को क्या लेना देना? कार्यक्रम मेरा, पैसा मेरा! अगर किसी को कष्ट हो रहा है तो मुझे क्या! जब दूसरों के ऐसे प्रोग्राम चलते रहते हैं, तब ये लोग कहाँ होते हैं?” इस प्रकार हर कोई अपने दायरे में सहजता से और बिना किसी अपराधबोध के इन गतिविधियों को दुगनी ऊर्जा से जारी रखता है|
एक कल का जमाना था, जब सिर्फ दीपावली के पर्व पर ही पटाखे फोड़े जाते थे| आज का जमाना यह है कि, सम्पूर्ण साल भर बस मौका मिल जाए, जब भी हो, जहाँ भी हो, पटाखों को फूटना ही है| शादी, जुलूस, जन्मदिन, नए साल का आरम्भ, पार्टी, क्रिकेट मैच, छोटी मोटी जीत या उपलब्धि हों तो जश्न होना ही है, जो आतिशबाजी और डीजे के बिना अधूरा है| कई लोग अपनी बहादुरी दर्शाने के लिए आधी रात के बाद का मुहूर्त खोजते हैं पटाखे फोड़ने के लिए, शायद लोगों की नींद उड़ाने से उनकी ख़ुशी दुगुनी हो जाती है| यह राहत की बात है कि, फ़िलहाल किसी व्यक्ति के स्वर्ग सिधारने पर यह सिलसिला शुरू नहीं हुआ है|
मित्रों, एक मजेदार किस्सा याद आया| कुछ दिन पहले एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां विभिन्न राज्यों से लोग दर्शन के लिए आये थे| मंदिर में दर्शन के लिए जाते समय खुली जीप में एक जुलूस रास्ते से गुजर रहा था| उसमें ‘उत्सवमूर्ति’ सेना से एक सेवानिवृत्त सैनिक के स्वागत का माहौल था| जगह जगह उनके स्वागत और अभिनन्दन के पोस्टर भी लगे थे| जीप के सामने कर्कश डीजे चल रहा था| उसके सामने जुलूस में शामिल कई महिला-पुरुष बेसुध हो कर नृत्य कर रहे थे| हैरानी की बात यह थी कि, वह रिटायर फौजी और उसकी पत्नी भी उनमें शामिल थे| शायद यह उन सभी के लिए खुशी और गर्व का अवसर हो, लेकिन जुलूस मंदिर के सामने की छोटी गली से गुजर रहा था, जिससे भक्तों को काफी असुविधा हो रही थी। परन्तु, इससे किसीको क्या लेना देना? यहाँ आवाज उठाने वाला कौन था? देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान और गर्व है। ये जवान देश में शांति बनाए रखने के लिए सीमा पर अपनी जान की बाजी लगाकर लड़ते हैं, लेकिन यह दृश्य देखकर मुझे बहुत हैरानी हो रही थी और दुःख भी!
अहम प्रश्न यह है कि, क्या हम सचमुच शांति से ऊब चुके हैं? क्या ‘शोर’ ही हमारा पसन्दीदा उम्मीदवार बन चुका है? अंग्रेजी में कहते हैं “स्पीच इज सिल्वर एंड साइलेंस इज गोल्ड।” यानि, बेकार की बातचीत से मौन बेहतर है। शांति एक अमूल्य विरासत है| मनुष्य सहित सभी प्राणियों के स्वस्थ और सुन्दर जीवन के लिए शांति बहुत महत्वपूर्ण है। आजकल स्कूलों में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाया जाता हैं। इसमें वायु, ध्वनि, जल आदि सम्मिलित हैं। हम प्रदूषण के अनेकानेक प्रकारों के बारे में सीखते हैं, उनपर चर्चा करते हैं। लेकिन क्या हम सम्बंधित नियमों को आचरण में लाते हैं? यह तो तोते की तरह रटने जैसा हुआ| देर रात डीजे बजाना और आतिशबाजी करना कानून के खिलाफ है। लेकिन जब तक ये कानून सख्ती से लागू नहीं किये जाते, तब तक इनका कोई फायदा नहीं है। निःसंदेह, कानून के परे सामाजिक जागरूकता का होना जरूरी है। वह दिन सौभाग्यशाली होगा जब हम महसूस करने लगेंगे कि, हमारा व्यवहार दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन सकता है।
प्रसिद्ध साहित्यकार विजय तेंडुलकर का एक मराठी नाटक ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ बेहद लोकप्रिय हुआ था| अदालत की कार्यवाही के समय जिस निश्चल शांति की अपेक्षा की जाती है, वहीं शांति हम वास्तविक जीवन में भी चाहते हैं। अगर हम उसे प्राप्त न कर पाए तो वहीं शांति हमसे रूठ कर अदालत में ही अपना घर बसा ले तो?
मूल लेख (मराठी) – सावधान ! शांतता कोर्टात गेली आहे. ..! – श्री विश्वास विष्णु देशपांडे
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “इंटरव्यू : 2“।)
अपेक्षा अक्सर घातक ही होती है अगर वह गलत वक्त पर गलत व्यक्तियों से की जाय और न तो न्याय संगत हो न ही तर्कसंगत. जहाँ तक साहब जी की मैडमकी बात है तो पुत्र का चयन भी राष्ट्रीय स्तर की प्रशासनिक परीक्षा में होने से उनके आत्मविश्वास, रौब और रुआब में कोई कमी नहीं आई थी.
नारी जहां अपनी सोच और अपने रूखे व्यवहार का स्त्रोत बदलने में देर नहीं लगातीं वहीं पुरुष का आत्मविश्वास और ये सभी दुर्गुण उसके पदासीन होने तक ही रह पाते हैं पर हां आंच ठंडी होने में समय लगता है जो व्यक्ति के अनुसार ही अलग अलग होता है. तो साहब को सरकारी बंगले से सरकारी वाहन , सरकारी ड्राईवर, माली और प्यून के बिना खुद के घर में रहने के शॉक से गुजरना पड़ा. वो सारे रीढ़विहीन जी हुजूरे अब कट मारने लगे और मोबाइल भी इस तरह खामोश हो गया जैसे उनकी पदविहीनता को मौन श्रद्धांजलि दिये जा रहा हो. ये समय उनके लिये बहुत घातक होता है जो उत्तम स्वास्थ्य, तनावरहित जीवन, सामाजिक सरोकार और अपनी कलात्मक रुचियों के लिये प्राप्त इस अवसर को नज़रअंदाज कर उसी मानसिक स्थिति में रहने की मृगतृष्णा में उलझे रहते हैं और वास्तविकता को अंगीकार करना ही नहीं चाहते.
अगर रचनात्मकता और पॉजीटिव सोच न हो तो फिर निराशा, उपेक्षा से जनित फ्रस्ट्रेशन की दीवार व्यक्ति को मानसिक अवसाद की ओर ले जाती है. तो साहब के साथ भी वही हुआ और वो गये या जाना पड़ा डॉक्टर की शरण में.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रीच बिच ऊँच नीच…“।)
अभी अभी # 321 ⇒ रीच बिच ऊँच नीच… श्री प्रदीप शर्मा
अमीरी गरीबी के बीच तो ऊँच नीच हमने सुनी है, जातियों की ऊँच नीच भी कहां इतनी आसानी से जाती है, लेकिन आज फेसबुक की सबसे ज्वलंत समस्या रीच की है। अमीर को अगर अंग्रेजी में रिच कहते हैं तो पहुंच को रीच। जिनकी रीच पहुंचे हुओं तक होती है, वे जीवन में कहां से कहां पहुंच जाते हैं। ऊपर तक पहुंचने के लिए आज इंसान, जितना चाहो उतना, नीचे गिरने को तैयार है।
महंगाई हो या बेरोज़गारी, अशिक्षा हो अथवा अंधविश्वास, इनके घटने बढ़ने का भी एक ग्राफ होता है। जीवन में वैसे भी ऊंच नीच कहां नहीं होती। उतार चढ़ाव ही तो जीवन है। सुख दुख, हानि लाभ, यश अपयश तो जिंदगी में लगे ही रहते हैं।।
व्यक्तित्व की ऊंचाई ही इंसान को महान बनाती है और उसका घटिया आचरण ही उसे नीच बनाता है। वैसे घटिया शब्द उतना घटिया नहीं, जितना घटिया नीच शब्द है। वैसे भी नीच शब्द मेरी नजरों से इतना गिरा हुआ है कि मैं इसका प्रयोग कम ही करता हूं, लिखने में तो यदा कदा चलता है, लेकिन बोलने में, मैं कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं करता। इस विषय में संत मेरे आदर्श हैं। संत अपने इष्ट के सामने स्वयं को ही दीन हीन, पतित और हीन ही मानते हैं, किसी और को नहीं। प्रभु मोरे अवगुण चित ना धरो।
आप भोजन कितना भी खराब हो, उसे घटिया तो कह सकते हैं, लेकिन नीच नहीं। शब्द में भी भाव होता है, छलिया, चितचोर और बैरी शब्द में जो प्रेम भरी उलाहना है, वह नीच शब्द में कहां। ऐसा प्रतीत होता है, इस शब्द का प्रयोग करते वक्त, व्यक्ति के मन में घृणा और क्रोध के भावों का संचार हो रहा हो।।
लेकिन जब इसी शब्द को ऊंच शब्द का संग मिल जाता है, तो वाक्य कितना सहज हो जाता है। ऊंच नीच कहां नहीं होती। शब्दों का भी आपस में सत्संग होता है। नीच से ही नीचे शब्द बना है। लेकिन एक मात्रा ने देखिए शब्द के भाव को कितना उठा दिया है। नीची नज़र कितनी शालीन होती है।
उठेगी तुम्हारी नजर धीरे धीरे।
बात फेसबुक पर पोस्ट की रीच की हो रही थी, और हम कहां पहुंच गए। रीच में तो खैर ऊंच नीच होती ही रहती है। अच्छी और रोचक पोस्ट को जब रीच नहीं मिलती, तो उसका भी मन उदास हो जाता है। सुबह पांच बजे की पोस्ट की ओर अगर कोई आठ बजे तक झांके ही नहीं, तो इससे तो बोरिया बिस्तर उठाना ही भला।।
बड़ा कलेजा लगता है साहब दिन भर आठ दस लाइक के साथ पूरा दिन काटने में। फेसबुक के बाज़ार में इतनी मंदी कभी नहीं हुई। जिनके पास दूसरा काम धंधा है वे तो तत्काल दुकान उठा जाते हैं, लेकिन कुछ लोग बेचारे आस लगाए बैठे रहते हैं ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 76 ☆ देश-परदेश – निबंध : होली का त्यौहार ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे पड़ोसी शर्मा जी के पुत्र ने होली त्यौहार पर आज निबंध लिख कर हमें जांच के लिए दिया, जो निम्नानुसार हैं।
हमारे घर पर होली त्यौहार की चर्चा दीपावली के बाद से ही आरंभ हो जाती हैं। पिता और मां बात बात पर “होली के बाद या होली के समय” जैसे शब्दों का प्रयोग इस प्रकार से करते है, जैसे इतिहास में “ईसा पूर्व या ईसा के बाद” का हवाला दिया जाता हैं।
मां तो होली को ही भला बुरा बताती रहती हैं। गृह कार्य सेविका होली से पहले ही अपने गांव चली जाती है, और उसकी वापसी में भी कुछ अधिक समय ही लगाती है, इस काल में अधिकतर गृह कार्य पिता जी सम्पन करते हैं।
होली के दिन खाने पीने का सारा सामान खाद्य दूत स्विगी तुरंत लाकर दे जाता हैं। पिता जी प्रातः से ही अपने चहते फिल्मी हीरो अनिल कपूर के बताने पर मोबाईल पर “जंगली पोकर” खेलते रहते हैं।
हमारे पिताजी बहुत दूरदर्शी व्यक्ति हैं, होली के दिन मदिरा की दुकान बंद रहने के कारण पिताजी मदिरा और उसकी एसेसरीज की व्यवस्था समय से पूर्व कर लेते हैं।
मां प्रातःकाल से मोबाईल पर प्राप्त होली त्यौहार के मैसेज को “बिजली की गति” से भी तीव्र गति द्वारा इधर उधर कर त्यौहार की खुशियां मनाती हैं।
मैं और मेरी बहन भी अपने अपने मोबाईल से वीडियो गेम खेलकर त्यौहार का आनंद लेते हैं। घर पर होली की बख्शीश लेने जब भी कोई घंटी बजाता है, तो पिता जी हमको दरवाज़े पर ये कह देने के लिए भेज देते है, कि घर में कोई बड़ा नहीं हैं। इसकी एवज में हमें प्रति झूठ बोलने पर पचास का पत्ता मिल जाता हैं।
होली त्यौहार की समाप्ति पर दूसरे दिन से ही दीपावली त्यौहार की चर्चा आरंभ हो जाती हैं।
प्रकाशन/प्रसारण – मूलतः व्यंग्यकार, आकाशवाणी से कभी कभी प्रसारण, फीचर एजेन्सी से पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
पुरस्कार/सम्मान – अनेक संस्थाओं से पुरस्कार, सम्मान
सम्प्रति – सेल्स टैक्स विभाग से रिटायर होकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क – 955/2, समता कालोनी, राइट टाउन जबलपुर
☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆
☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆
तुम में कैसा सम्मोहन है, या है कोई जादू टोना,
जो दर्श तुम्हारे कर जाता नहीं चाहे कभी विलग होना.
जी हाँ, गुरुवर, संत शिरोमणि 108 आचार्य विद्यासागरजी महामुनिराज का आकर्षण चुम्बकीय रहा. आचार्यश्री के ह्रदय में वैराग्यभाव का बीजारोपण बाल्यावस्था में ही आरम्भ हो गया था, मात्र 20वर्ष की अवस्था में आजीवन ब्रह्म चर व्रत तथा 30जून 1968 को 22 वर्ष की युवावस्था में मुनि दीक्षा हुई. आचार्यश्री के विराट व्यक्तित्व को कुछ शब्दों या पन्नों में समेटना, समुद्र के जल को अंजुली में समेटने जैसी कोशिश होगी.
गुरुवर का व्यक्तित्व अथाह, अपार, असीम, अलोकिक, अप्रितिम,, अद्वितीय रहा. महाराजश्री की वाणी और चर्या से प्रेरणा लेकर अनगिनत भव्य श्रावक धन्य हुए. आचार्य श्री ने मूकमाटी जैसे महाकाव्य का सृजन करके साहित्य परम्परा को समृद्ध किया है. विहार के दौरान महाराजश्री के पाद प्रक्षा लन जल को श्रावक सिर माथे धारण करते. इस जल को, खारे जल के कुंवें में डाला तो जल मीठा हो गया, सूखे कुंवें में डाला तो जल से भर गया, बीमार पशुओं को पिलाया तो, निरोगी हो गया. आचार्यश्री एक, घर के बाहर पड़े पत्थर पर क्या बैठे, पत्थर अनमोल हो गया. उसे खरीदने वाले लाखों रूपया देने तैयार हो गये, पर गरीब ने सब ठुकरा दिया. महाराज जी को मूक पशुओं विशेषकर गौवंश से बहुत लगाव था, उनका जहां जहां चातुर्मास हुआ, वहाँ वहाँ गौशाला की स्थापना कराई. आचार्यश्री को नर्मदाजी से विशेष लगाव था. नर्मदा किनारे अमरकंटक,/ जबलपुर /नेमावर आदि स्थानों पर उनके द्वारा गौशाला एवं जिना लयों का निर्माण कराया गया, उनके द्वारा 500 से अधिक दीक्षा दी गईंउनका सोच, धर्म – अध्यात्म को जीवन से जोड़ने का था. उनके द्वारा चल चरखा के माध्यम से हज़ारों युवाओं को रोजगार मुहैया कराया. इंडिया नहीं भारत बोलो, का नारा देकर अपनी बोली, अपनी भाषा को बढ़ावा दिया.
महाराजश्री विनोदप्रिय भी थे, प्रवचनों के दौरान कहते, ” काये सुन रहे हो न ” तो पुरे पंडाल में एक स्वर में आवाज गूंजती “हओ”.
प्रतिभा स्थली के माध्यम से बालिकाओं के शिक्षण मार्ग को सरल बनाया. पूर्णायु आयुर्वेद संस्थान से प्राकृतिक उपचार और जड़ी बूटीयों के महत्वपूर्ण को पुनरस्थापित करने के प्रयास हो रहे हैँ. संत सबके, अवधारणा को आचार्यश्री के महाप्रयाण ने प्रमाणित किया है. उनकी ख्याति और कीर्ति जैन समाज तक सीमित न होकर जन जन तक व्याप्त है. उनके समाधिस्ट होने से हर मन व्याकुल और व्यथित है. हर आँख नम होकर यही कह रही है -:
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बेसिरपैर की बात…“।)
अभी अभी # 320 ⇒ बेसिरपैर की बात… श्री प्रदीप शर्मा
हास्य में गंभीर नहीं हुआ जाता। कोई भी बात ना तो सिर से शुरू होती है, और ना ही पैर से। उसे मुंह से ही शुरू होना होता है। बात वही समझ में आती है, जो सिर के ऊपर से ना निकल जाए, और आसानी से हजम भी हो जाए। कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो हम ना तो समझ सकते हैं और ना ही समझा सकते हैं।
बात पुरुष और स्त्री अस्मिता की हो रही है। आप अस्मिता को पहचान, गौरव अथवा वजूद भी कह सकते हैं। आसान शब्दों में आप इसे प्रकृति और पुरुष भी कह सकते हैं। मेरी अपनी पहचान एक पुरुष के रूप में स्थापित हो चुकी है, वही मेरी अस्मिता है, उपाधि है। अब मैं सहज रूप में लिखूंगा, पढ़ूंगा, सोचूंगा।
मैं सपने में भी कुछ सोच नहीं सकती, देख नहीं सकती, सुन नहीं सकती। इतना ही नहीं, वर्जना ना होते हुए भी मैं सामान्य परिस्थिति में साड़ी नहीं पहन सकता, चूड़ी नहीं पहन सकता।।
यही बात सामान्य रूप से एक स्त्री पर भी लागू होती है। बचपन की बात कुछ और है। भाई बहन के बीच, देखा देखी में कुछ छोटी छोटी बालिकाएं कह सकती हैं, मैं भी खाऊंगा, हम भी जाऊंगा, लेकिन परिवेश और परिस्थिति के साथ उसका परिधान और रहन सहन एक स्त्री के रूप में ही विकसित और मान्य होता है।
अभिनय और अभिनेताओं की बात अलग है। अभिनय और नृत्य एक ऐसी विधा है, जहां कला अस्मिता पर भारी है। नृत्य सम्राट गोपीकृष्ण तो गोपी भी थे और कृष्ण भी।।
शिव का एक अर्धनारीश्वर स्वरूप भी है। यानी अगर भेद बुद्धि को ताक में रख दिया जाए, तो स्त्री पुरुष का भेद भी सांसारिक ही है। यह सृष्टि चलती रहे, बस उसी व्यवस्था का एक अंग है, यह स्त्री पुरुष भेद।
राधा और कृष्ण में तो यह भेद भी समाप्त होता नजर आता है। कृष्ण को पाना है तो राधा की आराधना करो। राधा बिना कृष्ण अधूरे हैं, पार्वती बिन शिव और सिया बिन पुरुषोत्तम राम। धर्मपत्नी को वैसे भी अर्धांगिनी अर्थात् अंग्रेजी में better half माना गया है। पति परमेश्वर को मिर्ची लगे तो लगे।।
एक मीरा लल्लेश्वरी कश्मीर में भी हुई है। आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर पहुंच जाने के पश्चात स्त्री पुरुष का भेद वैसे भी मिट जाता है। रस और रंग जहां हो वहां ही रास होता है, और जहां रास होता है, फिर वहां स्त्री पुरुष का भेद भी समाप्त हो जाता है।
उधर आत्मा का परमात्मा से मिलन और इधर शोला और शबनम ;
तू तू ना रहे, मैं ना रहूं
इक दूजे में खो जाएं ..
अपनी विसंगतियों, असमानताओं और भेद बुद्धि का त्याग ही जीवन में वास्तविक प्रेम और रस की निष्पत्ति कर सकता है। किसी का होना ही होली है। अस्मिता, उपाधि, अहंकार का दहन ही तो होलिका दहन है। उसके बिना भी क्या कभी कृष्ण की बांसुरी बजी है, राधा नाची है। असली रंग तो तब ही बरसेगा।।
टीवी पर ‘आज गोकुळात रंग खेळतो हरी, राधिके जरा जपून जा तुझ्या घरी’ (आज गोकुल में हरी होरी खेल रहे हैं, राधे, थोड़ा सम्हाल कर अपने घर जइयो!) या ‘होली आई रे कन्हाई, रंग छलके सुना दे जरा बांसुरी’ जैसे कर्णमधुर गाने देखकर एहसास होता है कि, रंगपंचमी बहुत पहले शुरू हो गई थी। गुलाबी और केसरिया रंग के सुगंधित जल में रंगे कृष्ण, राधा और गोपियों के सप्तरंगी होलिकोत्सव के वर्णन से हम भली भाँति परिचित हैं। राधा और गोपियों के साथ कृष्ण की प्रेम से सरोबार रंगलीला को ब्रजभूमि में ‘फाग लीला’ के नाम से जाना जाता है। ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि रसखान ने कृष्ण द्वारा राधा और गोपियों के संग खेले गए रंगोत्सव का अत्यंत रसीले काव्य प्रकार (सवैयों) में ‘फाग’ (फाल्गुन माह की होली) में वर्णन किया है। उदाहरण के तौर पर दो सवैयों का वर्णन देखिये|
रसखान कहते हैं-
खेलिये फाग निसंक व्है आज मयंकमुखी कहै भाग हमारौ।
तेहु गुलाल छुओ कर में पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ।
भावे सुमोहि करो रसखानजू पांव परौ जनि घूंघट टारौ।
वीर की सौंह हो देखि हौ कैसे अबीर तो आंख बचाय के डारो।
(अर्थ: चन्द्रमुखी सी ब्रजवनिता कृष्ण से कहती है, “निश्शंक होकर आज इस फाग को खेलो। तुम्हारे साथ फाग खेल कर हमारे भाग जाग गये हैं। गुलाल लेकर मुझे रंग दो, हाथ में पिचकारी लेकर मेरा मन रंग डालो, वह सब करो जिसमें तुम्हारा सुख निहित हो। लेकिन तुम्हारे पैर पडती हूं, यह घूंघट तो मत हटाओ और तुम्हें कसम है, ये अबीर तो आंख बचा कर डालो अन्यथा, तुम्हारी सुन्दर छवि देखने से मैं वंचित रह जाऊंगी!”)
रसखान कहते हैं-
खेलतु फाग लख्यी पिय प्यारी को ता सुख की उपमा किहिं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो वारि न कीजै॥
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छवि छाक सो हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै॥
(अर्थ: एक गोपी अपनी सखी से फाग लीला का वर्णन करती हुई कहती है, “हे सखि! मैंने कृष्ण और उनकी प्यारी राधा को फाग खेलते हुए देखा। उस समय की जो शोभा थी, उसे किस प्रकार उपमा दी जा सकती है! उस समय की शोभा तो देखते ही बनती है और कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो उस शोभा पर न्यौछावर न की जा सके। ज्यों-ज्यों वह सुंदरी राधा चुनौती देकर एक के बाद दूसरी पिचकारी कृष्ण के ऊपर चलाती है, त्यों-त्यों वे उसके रूप के नशे में मस्त होते जाते हैं। राधारानी की पिचकारी को देखकर वे हँसते तो हैं, पर वहाँ से भागते नहीं और खड़े-खड़े भीगते रहते हैं|”)
फागुन के इस महीने में पलाश के पेड़ों पर फूलों की बहार छाई रहती है| ऐसा प्रतीत होता है मानों पलाश वृक्ष केसरिया अग्निपुष्पों का वस्त्र पहने हों| (सुंदर प्राकृतिक नारंगी रंग बनाने के लिए इन्हीं फूलों को पानी में भिगोया जाता है)। होली मथुरा, गोकुल और वृन्दावन का विशेष आकर्षण है जो गुलाल और अन्य प्राकृतिक रंगों से खेली जाती है| यहीं फ़ाग इस दिव्य और पवित्र परंपरा को कायम रखे हुए है। वहाँ यह त्योहार अलग-अलग दिनों में सार्वजनिक रूप से गलियारों और चौक पर खेला जाता है, इसलिए यह होली फाल्गुन पूर्णिमा से एक महीने या पंद्रह दिन पहले ही शुरू हो जाती है।
मथुरा के निकट एक मेडिकल कॉलेज में नौकरी करने का मेरा अनुभव अविस्मरणीय था। फ़ाग का उत्सव जोरों पर था ही, लेकिन चूँकि होलिकादहन के दूसरे दिन कॉलेज में छुट्टी थी, इसलिए होली पूर्णिमा की सुबह ही कॉलेज के सभी गलियारे गुलाल से रंग गये। दोपहर १२ बजे कॉलेज में ऐसी जबरदस्त होरी खेलकर पूरा स्टाफ नौ दो ग्यारह हो गया| इस होली पूर्णिमा पर ही अग्रिम ‘फ़ाग’ के बाद अगले दिन संबंधित इलाकों में सार्वजनिक फ़ाग तो मनाया जाना आवश्यक ही था! हालाँकि, मुझे बरसाना (राधा का पैतृक गाँव) की लट्ठमार होली देखने का पूर्ण अवसर प्राप्त था, परन्तु मैंने वह अवसर खो दिया, इसका मुझे मलाल जरूर है| लट्ठमार होली का यह अद्भुत आकर्षक दृश्य बरसाना की खासियत है| मथुरा, गोकुल, वृन्दावन के और स्थानीय पुरुषों को बरसाना की महिलाओं की लाठियों का प्रतिकार करते हुए देखने में बहुत मज़ा आता है| वैसे भी उस क्षेत्र में राधारानी के प्रति अगाध भक्ति देखने को मिलती है। अक्सर वहाँ के लोग एक-दूसरे का अभिवादन करते समय ‘राधे-राधे’ कहते हैं।
हमारे बचपन में हर घर में बड़ा आंगन होता था और घर-घर होली जलती थी। होली के लिए पुरानी लकड़ियाँ, पुराने पेड़ों की सूखी शाखाएँ, जीर्ण-शीर्ण लकड़ी के सामान आदि एकत्रित किए जाते थे। गोबर इकट्ठा करते हुए उसे छोटे-छोटे उपलों में थापकर प्रत्येक उपले के बीच में एक छेद कर दिया जाता था| उनमें मोटे धागे से गूंदकर मालाएँ बनी जातीं और होली को अर्पण कीं जातीं थीं| अब ऐसी मालाएँ खरीदी जा सकती हैं। इस होलिकोत्सव की प्रसिद्ध कहानी यह है कि, हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को मिले वरदान के कारण आग से भय नहीं था। इस कारण वह हिरण्यकश्यप के पुत्र यानि, विष्णु-भक्त प्रह्लाद को मारने के लिए उसे अपनी गोद में लेकर जलते हुए अग्निकुंड में बैठ गई। लेकिन वास्तविक विष्णु की कृपा के कारण, प्रह्लाद बच गया और होलिका राक्षसी जलकर मर गई। इसके प्रतीक स्वरूप प्रत्येक फाल्गुन पूर्णिमा को अग्नि जलाकर अपने घर और समाज में फैली बुरी चीजों को जलाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन स्वस्थ वृक्षों को मारकर और वनों की कटाई द्वारा लकड़ियाँ इकट्ठा करके होली जलाना उचित नहीं है। पेड़ों का विनाश यानि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाना! है। पहले से ही पेड़ों की अन्दाधुन्द कटाई के कारण प्रदूषित पर्यावरण की समस्या गंभीर होती जा रही है। ऐसे में इस प्रकार होली जलाने के लिए पेड़ों को नुकसान पहुँचाना अनुचित है। आजकल हर बड़े परिसर में होली जलाई जाती है| मेरा मानना है कि, इसके बजाय दो-तीन या आस-पास के परिसर के लोगों को एक साथ आकर एक छोटी सी प्रतीकात्मक होली जलाकर इस त्योहार को मनाना चाहिए।
रंगोत्सव से जुड़ी मेरी बचपन की सबसे प्यारी यादें पानी से जुड़ी हुई हैं। नागपुर में हमारे माता-पिता के घर के सामने बहुत बडा आँगन हुआ करता था| उसमें एक बहुत बड़ी कड़ाही थी| इतनी बड़ी कि, लगभग 3 साल के बच्चे के खड़े होने के लिए वह पर्याप्त थी। उसका उपयोग हमारे १०० से भी अधिक पेड़ों को पानी देने के लिए किया जाता था। यह मेरा पसंदीदा कार्य था| कढ़ाई में पानी भरने के लिए एक नल था और उससे जुडे लंबेसे पाइप से पेड़ों को पानी देना, खासकर गर्मियों में, मेरे लिए ‘अति शीतल’ कार्य होता था। लेकिन रंगीली होरी के दिन उसी पानी में रंग मिलाकर एक-दूसरे को पानी में अच्छी तरह डुबकियाँ लगवाना हमारी पसंदीदा मनोरंजक क्रीड़ा होती थी| ऐसी सीमेंट की टंकी हर किसी के घर में होती थी, उनमें बारी-बारी से स्नान करना और जो भी, जहाँ भी मिल जाए उसे बेझिझक खाकर होरी का जश्न मनाया जाता था।
कराड, कोल्हापुर और सांगली से लगभग ४० किमी दूर इस्लामपुर में २०१६ को नौकरी के सिलसिले में मेरा जाना हुआ। वहाँ रंगोत्सव यानि होली का दूसरा दिन अन्य दिनों की तरह बिल्कुल सामान्य नजर आ रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी, ‘ये क्या हो रहा है?’ पूछ ताछ करने के उपरांत मालूम हुआ कि, यहां ‘रंगपंचमी’ मनाई जाती है (होली पूर्णिमा के बाद का पाँचवा दिन)! लेकिन मैंने यह बात पहली बार सुनी और देखी| छुट्टी मिले या न मिले, यहाँ रंगपंचमी के दिन हर कोई छुट्टी लेता ही है। हमारे मेडिकल कॉलेज के छात्र और छात्राएं भारत के विविध भागों से होने के कारण उन्होंने अपनी डबल व्यवस्था कर ली, मतलब, लगे हाथों होली के दूसरे दिन और पाँचवे दिन ऐसे दोनों दिन मस्ती!
अब रंगोत्सव बड़े-बड़े आवासीय परिसरों में मनाया जाता है। यह सच है कि, जश्न की ख़ुशी में सराबोर होने का कोई निर्धारित मूल्य नहीं| संभवतः पृष्ठभूमि में बजते डिस्को गाने और उस पर एक साथ तल्लीन होकर नाचते सभी उम्र के लोग, यह होरी का अभिन्न अंग बन गया है! इसके अलावा कहीं कहीं (पानी की उपलब्धि कम होने पर भी) कृत्रिम फव्वारों की और उनमें भीगने की व्यवस्था की जाती है| इस प्रकार पानी की बर्बादी वाकई परेशान करने वाली है| इसके साथ ही रंगोत्सव में माँस -मदिरा की पार्टियाँ भी होती हैं। वास्तविक इस त्यौहार की मूल संकल्पना एक-दूसरे के रंग में रंगकर एकात्मकता को वृद्धिंगत करने की है। लेकिन जब इसका विकृत रूप सामने आता है तो क्लेश होता है| त्वचा पर बुरा प्रभाव डालते वाले और जो लगातार धोने पर भी नहीं धुलते, ऐसे केमिकल युक्त भड़कीले रंग, साथ ही कीचड़ में खेलना, अनाप-शनाप बातें, स्त्रियों के साथ छेड़छाड़, अश्लील गालियाँ देना, शराब के नशे में धुत होकर झगड़ा फसाद करना, एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाना, कभी-कभी तो चाकू से वार करना और हत्या तक कर देना, इस हद तक अपराध होते हैं| इस दिन माहौल ऐसा होता है कि, कुछ जगहों पर महिलाएं घर से बाहर निकलने से भी डरती हैं। होली का यह अकथनीय और बीभत्स रूप हमारी संस्कृति के विरूद्ध है। उपरोक्त सभी असामाजिक गतिविधियाँ बंद होनीं चाहिए| पुलिस अपना कर्तव्य निभाएगी ही, परन्तु सामाजिक चेतना नाम की कोई चीज़ तो है ना! हमें अपना त्योहार मनाते समय यह स्मरण रहे कि, कहीं हम दूसरों की खुशी को जलाकर राख़ तो नहीं कर रहे हैं!
मेरे प्रिय स्वजनों, होली सामाजिक एकता का प्रतीक है, इसलिए राष्ट्रीय एकता के प्रतीक होलिकोत्सव को सुंदर पर्यावरण-अनुकूल सूखे रंगों की विविधता के साथ, पेड़ों को काटे बिना और नशे में लिप्त हुए बिना ख़ुशी ख़ुशी मनाना चाहिये, ऐसा मुझे प्रतीत होता है| आपका क्या विचार है?
टिप्पणी – होली के दो गाने शेअर कर रही हूँ| (लिंक के न खुलनेपर कृपया ऊपर दिए हुए शब्द डालकर YouTube पर खोजें|)
गीत – ‘नको रे कृष्ण रंग फेकू चुनडी भिजते’गीतप्रकार-हे शामसुंदर (गवळण) गायिका- सुशीला टेंबे, गीत– संगीत-जी एन पुरोहित
‘होली आई रे कन्हाई’- फिल्म- मदर इंडिया (१९५७) गायिका- शमशाद बेगम, गीत- शकील बदायुनी, संगीत-नौशाद अली
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जिंदगी के बाद भी…“।)
अभी अभी # 319 ⇒ जिंदगी के बाद भी… श्री प्रदीप शर्मा
क्या जिंदगी के साथ, सब कुछ खत्म हो जाता है, कुछ नहीं बचता ? माना कि जान है तो जहान है, जान गई तो जहान गया, तो क्या वाकई जिंदगी के बाद कुछ नहीं बचता। चलिए, मान लिया हम आए थे, तो कुछ नहीं साथ लाए थे, और जब जा रहे हैं, तब भी खाली हाथ ही जा रहे हैं, ले लो तलाशी, अब तो जान छोड़ो, अब तो जाने दो। बहुत बचा है अभी जिंदगी के बाद भी।
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया। आपने हमें हमेशा इतना उलझाए रखा जिंदगी के फलसफे में, हम पल पल को जीते रहे, आपके दर्शन को मानते रहे ;
आगे भी जाने न तू
पीछे भी जाने न तू।
जो भी है, बस यही पल ….
पल पल करते, सांसें खत्म हो गईं, जो पलक सदा झपकती रहती थी, वह भी थम गई। ये जिंदगी के मेले तो कम नहीं हुए, वक्त की सुई भी चलती रही, बस सांसें ही तो थमी है।।
क्या जिंदगी के थमने से यात्रा भी खत्म हो जाती है, वह यात्रा जो अनंत है, किसने कहा जिंदगी का आखरी पड़ाव मौत है। आखिर जिंदगी ही तो थमी है, बंदगी तो चल रही है। बंदगी ना तो सांसों की मोहताज है और ना ही किसी हाड़ मांस के चोले की।
जिंदगी भर हम मंजिले मकसूद में ही उलझे रहे।
कभी साहिल, तो कभी किनारा ढूंढते रहे, और जब आखरी मंजिल सामने है, तो यह तो एक नए सफर की शुरूआत ही हुई न। अगर राही हमेशा चलता रहे, तो सफ़र कभी पूरा नहीं होता।।
सफर से थकना ही बुढ़ापा है, उम्मीद की लाठी टेक देना ही जिंदगी का आखरी मुकाम है। अगर लाठी और इरादा मजबूत है, तो फिर नया सफर शुरू। सही मंजिल और असली महबूब को अगर पाना है, तो सब कुछ जिंदगी के बाद भी है। मंजिलें अभी और हैं, जिंदगी के बाद भी।
इस लोक में जब तक रहे, अपने पराए में ही उलझे रहे। इस शरीर को ही अपना मानते रहे। बात भी सही है। न कभी आत्म दर्शन किया, न परमात्म दर्शन, तो बस फिर केवल दर्शन और प्रदर्शन ही तो बच रहा। जीवन का दर्शन जिंदगी के साथ खत्म नहीं होता, जीवात्मा का असली दर्शन तब प्रारंभ होता है जब वह परमात्मा से जुड़ता है।।
जब एक से जुड़ेंगे, तो दूसरे को तो छोड़ना ही पड़ेगा। जीव भ्रम में उलझा था, जीवन मृत्यु मायावी संसार से जुड़े हैं, पर ब्रह्म से नहीं। अपने असली लोक को परलोक कहने वाले और इस लोक को अपना कहने वाले न घर के रहेंगे न घाट के।
जो अनासक्त जीव शुरू से ही इस लोक को पराया अर्थात् परलोक मानता आया है, वही उसके असली लोक में जाने का अधिकारी है। सितारों से आगे जहान और भी हैं, बहुत कुछ है, जिंदगी के बाद भी।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उखड़े हुए लोग…“।)
अभी अभी # 318 ⇒ उखड़े हुए लोग… श्री प्रदीप शर्मा
कभी मैं भी इसी जमीन से जुड़ा था, इसी मिट्टी में पला बढ़ा था। आज जहां चिकने टाइल्स का फर्श है, कल वहां गोबर से लिपा हुआ आंगन था। एक नहीं, तीन तीन दरख़्त थे। कल कहां यहां सोफ़ा, कुर्सी, कूलर और ए सी थे, बस फकत एक कुआं और ओटला था।
सर्दी में धूप और गर्मी में नीम की ठंडी ठंडी छांव थी, बारिश में पतरे की छत टपकती थी, आसमान में बादल गरजते थे, बिजली चमकती थी। तब दीपक राग से चिमनी, कंदील नहीं जलती थी, केरोसीन के तेल से ही स्टोव्ह भी जलता था।।
घरों में लकड़ी का चूल्हा तो था, पर गैस नहीं थी। सिगड़ी भी कच्चे पक्के कोयले की होती थी, सीटी वाले कुकर की जगह तपेली और देगची में दाल चावल पकते थे। बिना घी के ही चूल्हे पर फूले हुए फुल्कों की खुशबू भूख को और बढ़ा देती थी। तब कहां नमक में आयोडीन और टूथपेस्ट में नमक होता था।
मौसम के आंधी तूफ़ान को तो हमने आसानी से झेल लिया लेकिन वक्त के तूफ़ान से कौन बच पाया है। पहले मिट्टी के खिलौने हमसे दूर हुए, फिर धीरे धीरे मिट्टी भी हमसे जुदा होती चली गई। वक्त की आंधी में सबसे पहले घर के बड़े बूढ़े हमसे बिछड़े और उनके साथ ही पुराने दरख़्त भी धराशाई होते चले गए। ।
इच्छाएं बढ़ती चली गई, भूख मरती चली गई।
सब्जियों ने स्वाद छोड़ा, हवा ने खुशबू। रिश्तों की महक को स्वार्थ और खुदगर्जी खा गई, अतिथि भी फोन करके, रिटर्न टिकट के साथ ही आने लगे। दूर दराज के रिश्तेदारों के पढ़ने आए बच्चे घरों में नहीं, हॉस्टल और किराए के कमरों में रहने लगे।
सब पुराने कुएं बावड़ी और ट्यूबवेल सूख गए, घर घर, बाथरूम में कमोड, शॉवर और वॉश बेसिन लग गए। पानी का पता नहीं, गर्मी में चारों तरफ टैंकर दौड़ने लग गए। सौंदर्यीकरण और विकास की राह में कितने पेड़ उखाड़े, कितने गरीबों के घर उजाड़े, कोई हिसाब नहीं।।
पहले जड़ से उखड़े, फिर मिट्टी से दूर हुए, पुराने घर नेस्तनाबूद हुए, बहुमंजिला अपार्टमेंट की तादाद बढ़ने लगी। अपनी जड़ें जमाने के लिए हमें अपनी मिट्टी से
जुदा होना पड़ा, संस्कार, विरासत और परिवेश, सभी से तो समझौता करना पड़ा। कितने घर उजड़े होंगे तब जाकर कुछ लोगों को मंजिलें मिली होंगी। अपनी मंजिल तक अब आपको लिफ्ट ले जाएगी। इसी धरा पर, फिर भी अधर में, क्या कहें, उजड़े हुए, उखड़े हुए अथवा लटके हुए ;