हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 372 ⇒ गर्म हवा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गर्म हवा)

?अभी अभी # 372 ⇒ गर्म हवा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

होता है, ऐसा भी होता है। गर्मी के मौसम में लोग गर्मागर्म हलवे के साथ, गर्म हवा की भी बातें करने लगते हैं। कितनी भी गर्मी हो, चाय के शौकीन गर्म चाय को फूंक मार मारकर शौक से पीते हैं। गर्मी, गर्मी को मारती है।

कहते हैं, सूरज कहीं नहीं जाता, पृथ्वी ही घूमती रहती है। कहीं नहीं जाने वाले सूरज को हमने सुबह खिड़की से पूरब से उगते देखा है, और उसी सूरज को शाम को दूसरी खिड़की से पश्चिम में अस्त होते देखा है।।

जिस सूरज से हम ठंड में सुबह सुबह ठंड में आंख मिलाते थे, धूप सेंकते थे, वही सूरज अब हमें फूटी आंखों नहीं सुहा रहा। ठंड और बारिश के मौसम में इसी सूरज का हमने स्वागत किया है, लेकिन इस मई जून में इसके तेवर बिल्कुल बदल गए हैं।

यही हाल घर के पंखों का है। जब भी बाहर से घर आते थे, पंखा खोलते ही ठंडी हवा कितनी सुकून देती थी। वही आज्ञाकारी पंखा आजकल गर्म हवा फेंक रहा है। उसने बेचारे ने कौन से आपके घर पर पत्थर फेंक दिए, जो हवा आसपास थी, वही तो आप तक पहुंचाई।।

जिन्हें पंखों पर भरोसा नहीं, उन्होंने घर में कूलर और एसी लगवा लिए हैं, और साथ ही इन्वर्टर भी। वे जानते हैं, गर्मी में बिजली कभी भी जा सकती है। कूलर एसी की हवा में बैठकर आप घंटों गर्मी और राजनीतिक सरगर्मी पर बातें कर सकते हो।

ठंडी ठंडी हवा पर कितने गीत हैं, लेकिन गर्म हवा में तो कविता को भी पसीना आ जाता है। इस गर्मी के मौसम में गर्म हवा की तारीफ कौन करता है भाई। यही तो वह मौसम है, जिसमें अच्छे अच्छे लोगों की लू उतर जाती है, जब इन्हे लू लगती है।।

कितनी भी गर्मी हो, मालवा की रातें तो ठंडी ही होती थीं। पंछी भले ही शाम को घर आते हों, पंखों, कूलर और एसी में दिन भर कैद आम आदमी शाम को ही ठंडी हवा खाने घर से निकलता था। लेकिन यह क्या, सड़कें तप रही हैं, पेड़ पौधे बुत की तरह खड़े हुए हैं। ना हिलना डुलना, ना हवा में इतराना, लहराना।

शबे मालवा ऐसी तो नहीं थी कभी।

गर्मी तो गरीब को भी लगती है और अमीर को भी। सब अपने अपने तरीके से इस गर्मी का मुकाबला करते हैं। सभी को जिंदा रहना है, बारिश की बूंदों के इंतजार में।

सूखे से मौत की खबर अब अखबार की हेडलाइन नहीं बनती। जलसंकट है, लेकिन अन्य संकटों में दब सा गया है। गर्म हवा पर राजनीति के रोड शो हावी हैं। लगता है, सभी को चार जून का इंतजार है।।

इसको ही जीना है तो

यूं ही जी लेंगे।

एसी, कूलर में बैठे बैठे

कोल्ड ड्रिंक्स और ठंडा पानी पी लेंगे।

पारा भले ही 47 डिग्री पार चला जाए, खूब गर्म हवा चले। बस इस बार चार सौ पार हो, तो कलेजे को ठंडक मिले..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 371 ⇒ आभासी रिश्ते… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आभासी रिश्ते।)

?अभी अभी # 371 ⇒ आभासी रिश्ते? श्री प्रदीप शर्मा  ?

फेसबुक के रिश्ते कथित रूप से आभासी होते हैं, फिर भी उनमें कहीं ना कहीं असलियत अथवा वास्तविकता नजर आ ही जाती है।

मुझे याद आ रहे हैं, मेजर वर्मा, जिनसे मैं आज से ४५वर्ष पूर्व अपने बैंकिंग कार्यकाल के दौरान मिला था। आज मेजर वर्मा कहां हैं, हैं भी अथवा नहीं, मुझे कुछ पता नहीं।।

उनसे बहुत कम वक्त में ही इतना आत्मीय संबंध हो गया था कि शाम के फुर्सत के क्षणों में वे टहलते टहलते, हाथ में छड़ी लिए, मेरे निवास तक आ जाते थे। वे इतने वृद्ध नहीं थे, कि उन्हें लाठी का सहारा लेना पड़े, लेकिन कुत्तों से बचने के लिए छड़ी उनका एकमात्र विकल्प था।

आपसी बातचीत में अक्सर उनके परिवार का यदाकदा जिक्र आ ही जाता था। उनके एक सुपुत्र कैप्टन भरत वर्मा दिल्ली में पब्लिशर थे और दूसरे पुत्र श्री राज वर्मा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, भोपाल में तब कार्यरत थे।।

मैं उनके परिवार के किसी सदस्य से मिल नहीं पाया, इंदौर में वे अकेले ही एक किराए के मकान में निवास करते थे। कुछ समय के पश्चात् ही वे वापस हमेशा के लिए दिल्ली प्रस्थान कर गए। तब फोन की सुविधा इतनी आम नहीं थी, फिर भी कुछ समय तक हमारा आपस में पत्र व्यवहार चलता रहा।

कब हमारा यह संपर्क भी टूटा, कुछ याद नहीं, लेकिन वे स्मृति में आज भी हैं। फेसबुक पर अनायास एक नाम उभर कर आया, राज वर्मा, और मुझे उनके पुत्र का स्मरण हो आया। ये राज वर्मा भी भोपाल में ही स्टेट बैंक में कार्यरत अवश्य निकले, लेकिन इनका मेजर वर्मा के पुत्र राज वर्मा से कोई लेना देना नहीं था।।

एक अपरिचित, अनजान रिश्ते ने संयोगवश दूसरे आभासी रिश्ते को मुझसे जोड़ दिया। हमसे कब कौन मिलता है, और कब कौन बिछड़ता है, कुछ कहा नहीं जा सकता।

फेसबुक के राज वर्मा आज मेरे प्रिय फेसबुक मित्र हैं। इनकी साहित्यिक यात्रा बड़ी लंबी है और पुस्तकों से इन्हें विशेष प्रेम है। इनसे मिलने का कभी योग भले ही नहीं आया हो, लेकिन फेसबुक की एक और परिचित शख्सियत हेमा बिष्ट जी इनसे मिल चुकी हैं।।

हेमा बिष्ट जी से भी मैं कभी नहीं मिला, लेकिन बातचीत के दौरान उन्होंने जिक्र छेड़ा कि वे मेरे शहर इंदौर में कभी तीन वर्ष के लिए रह चुकी हैं। क्या आभासी खुशी भी होती है। आज वे आस्ट्रेलिया में हैं, लेकिन कभी वे मेरे शहर इंदौर में थी।

रिश्तों में करीबी का अहसास आभासी नहीं होता, हम कितने करीब आ जाते हैं, केवल आभास से। इसे आप स्वप्न भी नहीं कह सकते। जिस तरह हेमा जी लखनऊ जाकर राज जी से मिली, हमारी भी कभी ना कभी, कहीं ना कहीं भेंट संभव है, क्योंकि ;

छोटी सी ये दुनिया

पहचाने रास्ते हैं।

हम कभी तो मिलेंगे

कहीं तो मिलेंगे

तो पूछेंगे हाल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #233 ☆ ख़ामोशी एवं आबरू… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 233 ☆

☆ ख़ामोशी एवं आबरू… ☆

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम्, मैं तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।

घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है। वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है; असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। ख़ामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं;  मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गली में जाकर खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं, जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगे, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की,

अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।

इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता। पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए; समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर ही मानव को उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  मोक्ष ? ?

उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।

मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए संन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।

देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी‌।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना कल सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 370 ⇒ खून पसीना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खून पसीना।)

?अभी अभी # 369 ⇒ खून पसीना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे शरीर में खून भी है, और पानी भी। जो रगों में दौड़ता रहता है, वह खून कहलाता है। जरा सी चोट लगी, बहने लगता है। थोड़ी मेहनत की, पसीना बहने लगता है। जिनकी आंखें समंदर हैं, वहां समंदर जितने आंसू भी हैं। जितना पानी इस पृथ्वी पर है, उसी के अनुपात से, यानी हमारे इस शरीर में सत्तर प्रतिशत पानी है। हमारी इस पृथ्वी पर भी सत्तर प्रतिशत जल ही तो है।

स्वस्थ और तंदुरुस्त इंसान का खून बढ़ता है। जो हमेशा क्रोध करता है, जलता रहता है, क्या उसका खून नहीं जलता। खून पसीना बहाकर ही इंसान अपनी गृहस्थी चलाता है। खून की कमी और पानी की कमी से इंसान कमजोर हो जाता है। उधर होमोग्लोबिन घटा, इधर खून की बॉटल चढ़ी। शरीर के पानी की मात्रा घटने पर भी तो, सलाइन ही चढ़ाई जाती है।।

इन आंखों में कभी गुस्से में खून उतर आता है तो कभी जब दिल पसीजता है, तो पानी उतर आता है। समंदर ही खारा नहीं होता, हमारा पसीना भी खारा होता है।

कभी जब आपकी उंगली कटती है, तो हम उसे मुंह में ले लेते हैं, हमें हमारे खून का स्वाद भी पता चलता है, आंसू भी गर्म और नमकीन और हमारी रगों में दौड़ता खून भी गर्म और नमकीन। खून की गर्मी ही तो जोश है, जिंदगी है।

उधर जवान सरहद पर खून बहाता है और इधर किसान खेत में पसीना बहाता है। खून और पसीने का कर्ज उतारना हम देशवासियोंके लिए इतना आसान भी नहीं होता।।

जैसा मौसम, वैसी हमारी तासीर। बारिश के मौसम में इधर चाय पी, उधर तुरंत लघु शंका। पानी पीते ही टॉयलेट। ठंड में पसीना नहीं आता, शरीर को गर्मी और धूप चाहिए। भूख भी

गजब की लगती है। ठंड में हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है।।

अभी तो गर्मी का मौसम अपने शबाब पर है। जून की शायरी मई में ही गुल खिला रही है ;

आजा मेरी जान,

ये है जून का महीना।

गर्मी ही गर्मी,

पसीना ही पसीना।।

जितना पसीना हम बहाते हैं, उतनी ही अधिक हमें प्यास लगती है। जो मेहनत अधिक करते हैं, उन्हें भूख भी अच्छी ही लगती है। भोजन से ही हमारा शरीर पुष्ट होता है, खून बढ़ता है, हमारी कार्य शक्ति प्रबल होती है।

खून पसीने से बना हमारा यह शरीर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। जिस तरह कुदरत खाद, पानी और हवा से पेड़, पौधों को सींचती, पल्लवित करती, चंदन वन में परिवर्तित करती है, उसी तरह केवल खून पसीने से हमारा यह शरीर कुंदन सा महकता है। आरोग्य के मंत्र से बड़ा कोई महामृत्युंजय मंत्र नहीं, सोना चांदी च्यवनप्राश नहीं। सच्चा सुख, निरोगी काया। हमने व्यर्थ ही नहीं, खून पसीना बहाया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 197 ☆ लाज भरी अँखियाँ बिहसी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आ पहुँचा था एक अकिंचन…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 197 ☆ लाज भरी अँखियाँ बिहसी

हमारे आचरण का निर्धारण कर्मों के द्वारा होता है । यदि उपयोगी कार्यशैली है तो हमेशा सबके चहेते बनकर लोकप्रिय बनें रहेंगे । रिश्तों में जब लाभ -हानि  की घुसपैठ हो जाती है तो कटुता घर कर लेती है । अपने आप को सहज बना कर रखने की कला हो जिससे लोगों को असुविधा न हो और जीवन मूल्य सुरक्षित रह सकें । ये तो आदर्श स्थिति है किंतु जमीनी स्तर पर ऐसा व्यवहार अब कठिन होता जा रहा है । कहने को तो नारी शक्ति संवर्द्धन पर विचार – विमर्श के सैकड़ों सत्र किए जा चुके हैं पर सही समय पर सही निर्णय लेने में जिम्मेदार लोग चूक जाते हैं । कारण साफ है कि  बहुत से ऐसे बिंदु होते हैं जहाँ पर घेर का पीड़ित को ही कसूरवार ठहरा दिया जाता है ।

एक तो बड़ी मुश्किल से कोई हिम्मत जुटा पाता है उस पर इतनी जिरह कि कुछ दिनों बाद उसे अहसास होता है कि ऐसा निर्णय करके उसने अपनी मुसीबतें और बढ़ा ली है । ये सच है कि जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाना कोई सहज बात नहीं है लेकिन किसी न किसी को तो हिम्मत दिखानी होगी जिससे समाज की सोच को बदला जा सके । लोग जब जागरूक होने लगेंगे तो निश्चित ही अपराधी को सही समय पर उचित  दण्ड मिलेगा जिससे दूसरे भी इस तरह की गलती करने से पहले सौ बार सोचेंगे ।

भाव विभोरक हिय हर्षाती

मन भावन सी नार ।

पावन गंगा पावन यमुना

पावन सी  जलधार ।।

जलधार में पत्थरों को चीर कर राह बनाने की शक्ति होती है । जहाँ जल जीवन देता है वहीं धरती को तृप्त कर अन्न से  पूरित करता है ।बिजली की शक्ति को धार कर असम्भव को सम्भव करने वाली कभी असहाय नहीं हो सकती ।

अब समय है सामाजिक जनचेतना का जो  सत्यम शिवम सुंदरम के अर्द्ध नारीश्वर रूप को जाग्रत कर सतत सत्य के मार्ग का वरण करे ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 284 ☆ आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 284 ☆

? आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां ?

व्यंग्य व्यंजनात्मक भाषा का प्रयोग करता है. व्यंग्य में प्रत्यक्षत: जो कहा गया है, वही उसका सीधा अर्थ नहीं होता. वह कुछ अन्य बात व्यंजित कर लक्ष्य भेदन करता है. समझदार के लिये इशारा पर्याप्त होता है. प्रायः कूटनीति में कानून के दायरे में रहते हुये भी इसी प्रकार प्रहार किये जाते हैं. विदेश मंत्रालय की विज्ञप्तियां इसी प्रकार से रची जाती हैं। व्यंग्य के अंदाज ए बयां में भी प्रत्यक्षतः तो मान मर्यादा की दृष्टि से एक परदा बनाये रखा जाता है किन्तु संदर्भो के आधार पर, मिथको का सहारा लेकर, व्यंजना में बहुत कुछ कह दिया जाता है.

कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम बात कह डालती है जिसमें पाठक के सम्मुख एक कल्पना लोक रचा जाता है. कहानी शब्द चित्र गढ़ती है. निबंध या ललित लेख अमिधा में अपना कथ्य कहते हैं. संस्मरण जिये हुये दृश्यों को रोचक शब्दों में पुनर्प्रस्तुत करते हैं. किन्तु व्यंग्य सामर्थ्य सर्वथा भिन्न होता है. व्यंग्य बिना कहे भी सब कह देता है. इसलिये निश्चित ही व्यंग्य की भाषा और अभिव्यक्ति शैली अन्य विधाओं से अलग होती ही है. अपनी बात पाठक को रोचक तरीके से समझाने के लिये  विषय के अनुरूप फ्रेम पर कथानक गढ़कर उसके गूढ़ार्थ पाठक तक पहुंचाने पर काम करना होता है. व्यंग्य लेखन एक कौशल है, जो शनैः शनैः विकसित होता है. इसके लिये रचनाकार को सामयिक संदर्भों से तादात्म्य बनाये रखना होता है. लेखक का अध्ययन उसे व्यंग्य लिखने में परिपक्वता प्रदान करता है. व्यंग्य लेखन में सीधा नाम लेकर प्रहार अशिष्ट माना जाता है. इसलिये अर्जुन की तरह प्रतिबिंब के सहारे सही निशाने पर लक्ष्य कर तीर चलाने की भाषाई सामर्थ्य व्यंग्य लेखन की बुनियादी मांग होती है. मानहानि के कानूनी दांव पेंचों के साथ ही लोगों की भावना आहत होने के खतरो से बचते हुये लेखन शैली व्यंग्य की विशेषता है .

अंदाजे बयां ऐसा हो कि बयान को नोटिस में लिया जाए ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 369 ⇒ ककहरा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ककहरा।)

?अभी अभी # 369 ⇒ ककहरा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क) कभी कुछ किया

ख) खुद खिलाफ खड़े

ग) गाँधी गाय गायक गाँधी

घ) घड़ी घर घटना घंटे घोषित

च) चलो चाय चाहिए

छ) छाप छोड़ी छाछ

ज) जितना जिसने जिसका जिन्हें

झ) झूठ झील झोला

ट) टीवी ट्वीट टेस्ट टी

ठ) ठीक ठोस ठाकुर

ड) डर डिफेंड डुप्लीकेट डुबकी

ढ) ढंग ढेर ढूँढता ढाई

त) ताऊ तारीफ़ ताली

थ) थाना थोड़ा थंक्स थाली

द).दिल दिया दिन देश

ध) धर्म ध्यान धन धन्यवाद

न) नज़र नमस्कार नारायण

प) पहले पानी प्यार

फ) फिर फोन फैसला फाड़

ब) बधाई बहुत बार

भ) भक्त भले भाव

म) मोदीजी मुझे मिले मुकेश

य) यह यात्रा यादगार

र)राजनीति रीत रुचिकर रुपया

ल) लोग लेकिन लायक लोकतंत्र

व) वही वाकई वास्तविक

श) शुक्रिया शुभचिन्तकों

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 368 ⇒ चुप्पी और मौन … ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चुप्पी और मौन ।)

?अभी अभी # 368 ⇒ चुप्पी और मौन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

चुप्पी और मौन (silence & taciturnity)

“होठों को सी चुके तो जमाने ने ये कहा,

ये चुप सी क्यूं लगी है, अजी कुछ तो बोलिए “

जहां कहने को तो बहुत हो, लेकिन होठों पर ताला लगा हो, ऐसी चुप्पी बड़ी जानलेवा होती है। जहां बोलने से मना कर दिया जाए, चुप रहने की हिदायत दी जाए, वहां अक्सर खुसुर फुसुर अवश्य चला करती है।

चुप्पी और शांति का अनुभव हम सबने कक्षा में लिया है। जब तक कक्षा में सर नहीं आते, बातचीत शोर और कोलाहल का रूप धारण कर लेती है और जैसे ही मास्टर जी ने प्रवेश किया, सबके बोलने पर एकदम ब्रेक लग जाता है। कक्षा में एकदम पिन ड्रॉप सायलेंस।।

लेकिन यह भी स्थायी नहीं होता। आपस में बातचीत कौन नहीं करता। वह उम्र ही बोलने की होती है। उधर खिसक, पूरी जगह घेरकर बैठी है। लगता है, आज नहाकर नहीं आई। देख, चोटी कैसे बिखर रही है। वह कुछ जवाब दे, उसके पहले ही पकड़े जाते हैं। एक चॉक फेंककर उन्हें आगाह किया जाता है। तेरे को तो बाद में देख लूंगी।

मौन हमारे स्वभाव में नहीं। आखिर क्या है मौन। क्या सिर्फ चुप रहना ही मौन है। चुप्पी को साधना पड़ता है, और मौन धारण करना पड़ता है। चुप रहने का स्वभाव ही मौन है।।

मौन का संबंध हमारे भीतर से होता है, जबकि चुप्पी बाहर घटित होती है। मौन का अर्थ अन्दर और बाहर से चुप रहना है। चुप्पी में बहुत कुछ कहने को रह जाता है। जब कि मौन में मन में केवल शांति होती है। शायद विचार गहरी नींद में सोये रहते हों।

हम भाई बहन स्टेच्यू का खेल खेला करते थे। बिना सूचना दिए और बिना आगाह किए, एकदम स्टेच्यू ! जैसे हो, वैसे एकदम बुत बन जाओ।

न हिलना, न डुलना, न बोलना न चालना। खेल खेल में अनुशासन, चंचलता में अस्थाई विराम।।

ध्यान भी एक तरह से मौन का अभ्यास ही है। एकांत में आप किससे बोलोगे। चित्त तो फिर भी भटकता है, चलिए आंखें मूंदकर देखते हैं। क्या आंख मूंदकर भी कुछ दिखता है, अजी बहुत कुछ दिखता है। सपने अक्सर आंख मूंदकर ही देखे जाते हैं।

स्वप्न दिवा भी होते हैं, जो खुली आंखों से भी देखे जाते हैं ;

तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे।

मिलाए छल बल से नजरिया रे।।

साहिर इसीलिए कहते हैं, मन रे, तू काहे ना धीर धरे। चुप्पी से मौन भला होता है, और मौन से भी दिव्य मौन श्रेष्ठ होता है। ऐसा मौन किस काम का, जहां स्लेट पर लिख लिखकर और उंगलियों के इशारों और हाव भाव से मन के उद्गार प्रकट किए जाएं।

मौन, एकांत और ध्यान की ही एक पद्धति का नाम विपश्यना है। जहां आपस में बोलने चलाने की भी मनाही होती है। बिना चुप्पी साधे भी कभी मौन सधा है। कहीं भी साधें, जहां बोलना आवश्यक हो, वहीं बोलें, अन्यथा चुप्पी साधें।

साधना ही मौन है, मौन एक अनुशासन है, अपने मन पर अपना शासन है।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 367 ⇒ संतन को कहां सीकरी से काम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संतन को कहां सीकरी से काम।)

?अभी अभी # 367 ⇒ संतन को कहां सीकरी से काम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक राजकीय सत्ता होती है जिसके अधीन जनता रहती है। एक परम सत्ता होती है जिसके अधीन उसका दास संत रहता है।

संत वह होता है, जिसकी ना तो किसी से दोस्ती होती है, और ना ही किसी से बैर।

सत्ता तो फिर भी सत्ता ही होती है। राजा होता है, उसकी प्रजा होती है, राजा के मंत्री संतरी होते हैं, दरबारी होते हैं, राज ज्योतिषी होते हैं, राजवैद्य होते हैं, आचार्य होते हैं, पुरोहित और राज पुरोहित होते हैं। राजा के यश और कीर्ति की पताका चारों दिशाओं में फहराती रहती है।।

राजा कितना भी धर्मप्राण हो, उसे सत्ता का मद तो रहता ही है, किसी संत की कीर्ति जब उसके कानों तक पहुंचती है, तो वह उनका सम्मान करना चाहता है, उन्हें अपने दरबार का रत्न बनाना चाहता है। संत कुम्भनदास को जब फतेहपुर सीकरी से दरबार में हाजिर होने का हुक्म होता है, तो बेचारे संत चले तो आते हैं, लेकिन वहां भरे दरबार में यह कहने से नहीं चूकते ;

संतन को कहा सीकरी सों काम।

आवत जात पनहियाँ टूटी,

बिसरि गयो हरि नाम।।

जिनको मुख देखे दुख उपजत।

तिनको करिबे परी सलाम।।

कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम …

सिर्फ कुम्भनदास ही नहीं, कबीरदास, तुलसीदास, और सूरदास का भी यही हाल था। उधर मेवाड़ की महारानी मीरा को भी ऐसा वैराग्य चढ़ा कि वह कुल की लाज मर्यादा छोड़ संतों के बीच उठने बैठने लगी।

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।।

संत महात्मा आज भी हैं, भक्त और भगवान भी हैं। आज संत ईश्वर से अधिक जन जन से जुड़े हुए हैं, उनमें जन कल्याण की भावना इतनी प्रबल है कि वे जंगल, कंदरा, और अपनी पर्ण कुटीर छोड़ ज्ञान और भक्ति की धारा को गृहस्थों की ओर मोड़ रहे हैं, उनके लिए बड़े बड़े आश्रम, मंदिर और गौ शालाओं का निर्माण कर रहे हैं। आज उन्हीं की बदौलत इस देश में धर्म ध्वजा फहरा रही है।

इस युग के कुंभ के आयोजन में भी आपको एक नहीं, असंख्य कुम्भनदास डुबकी लगाते नजर आएंगे। कोई जगतगुरु तो कोई महामंडलेश्वर। आज के संत पहले अमृतपान करते हैं, और फिर अपने अमृत वचनों से भक्तों को रसपान करवाते भी हैं।।

परम सत्ता के ही निर्देश से ऐसे परम संत कभी स्वाभिमान यात्राओं से धर्म का बिगुल बजाते हैं तो कभी रथ यात्रा निकालते हैं, भ्रष्ट सत्ता तंत्र का अंत करते हैं, और देश को सनातन धर्म की ओर अग्रसर करते हैं।।

विदेशी कारों और हवाई जहाजों में अब उनके पांवों को कोई कष्ट नहीं होता। पहले प्यासा कुंए के पास आता था, आजकल कुंआ ही चलकर प्यासे के पास आ रहा है। संतों की आजकल अपनी राजधानी है, उनकी अपनी सत्ता है। कोई संत मुख्यमंत्री है तो कोई संत राज्यपाल।

संत और सीकरी के बीच आज सीधी हॉटलाइन है। आज का संत अन्याय सहन करता हुआ, भक्ति भाव में डूब भजन नहीं लिखा करता, कभी उसके अंदर का परशुराम जाग उठता है, तो कभी महर्षि दुर्वासा। दो जून की रोटी के लिए वह चार जून का इंतजार भी नहीं करता। आज वह सत्ता बनाने और बदलने में सक्षम है। संत के हाथों में आज सत्ता और देश सुरक्षित है। बोलो आज के आनंद की जय ! बोलो सब संतन की जय।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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