(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुबह का तारा…“।)
अभी अभी # 511 ⇒ सुबह का तारा श्री प्रदीप शर्मा
गया अंधेरा, हुआ उजारा
चमका चमका, सुबह का तारा
अंधेरे को रात का मेहमां कहा गया है। किसी के रोके भी क्या कभी सवेरा रुका है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जीवन में, जब ज़िन्दगी की सुबह ही नहीं होती। ग़म की अंधेरी रात बहुत लंबी हो जाती है। ऐसे में मन को तसल्ली कुछ इस तरह दी जाती है ;
ग़म की अंधेरी रात में
दिल को न बेकरार कर।
सुबह ज़रूर आएगी
सुबह का इंतज़ार कर।।
तारा उम्मीद का आकाश है। एक तारे के सहारे तम का मातम नष्ट किया जा सकता है। उम्मीद की एक किरण ही काफी है, एक खुशहाल जिंदगी जीने के लिए।
दीपावली की रात यूं तो अमावस्या की काली रात होती है, लेकिन जब अरमान अंगड़ाइयां लेते हैं, मन में अनार और फुलझडियां फूटने लगती है, तो मन का आकाश भी सितारों सा टिमटिमाता आकाश बन जाता है और कह उठता है ;
टिम टिम टिम
तारों के दीप जले।
नीले आकाश तले
हम दोनों की प्रीत पले।।
एक सूरज हमारे दिन को दिन बना देता है लेकिन रात में हमें दीया और बाती, आसमां के चांद और तारों के साथ ही काटनी पड़ती है। सुख और दुख को दिन और रात की तरह परिभाषित किया गया है। लेकिन जहां चिराग है, वहां रोशनी है, और जहां रोशनी है, वहां ज़िन्दगी है, ज़िंदादिली है।
कभी कभी परिस्थितियां हमारे जीवन में अंधेरा ला देती हैं, जिजीविषा क्षीण हो जाती है। मन के आसमां में गम के बादल छा जाते हैं, हम अवसाद में बुरी तरह डूब जाते हैं। ऐसे में सुबह का तारा उम्मीद की एक नई किरण लेकर हमारे जीवन में सुबह का आग़ाज़ करता है।।
शुक्र को सुबह का तारा कहा गया है। यह पृथ्वी के सबसे करीब है। सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के पश्चात यह कुछ समय के लिए अपनी रोशनी अधिकतम बढ़ाता है। आज का सुबह का तारा एक नई सुबह लेकर आया है।
इस दीपावली के पर्व पर हमने तारे ज़मीन पर भी देखे। जब आसमां में तारे और ज़मीन पर भी तारे हों तो मन के तार भी छिड़ ही जाते हैं। ज़िन्दगी करवट लेने लगती है। एक बच्चे की किलकारी किसी सुबह के तारे से कम नहीं।
सुबह का तारा शुक्र है। हम शुक्रगुजार हैं इस सुबह के तारे के, जो हमारी सुबह को भी चमकाता है और शाम को भी। खुशियों का यह पर्व हमारे जीवन में उत्साह और उमंग की सौगात लेकर आवे। दीपावली पर्व की बधाई एवं शुभकामनाएं।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जगमग ज्योति जले…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
संस्कार भारतीयता में समाहित हैं, जितने भी त्योहार हम मनाते हैं सभी में दान की परम्परा को ही महत्व दिया जाता है। हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसके हाथ माँगने के लिए नहीं, देने के लिए उठें, शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जब दायाँ हाथ किसी को कुछ दे तो बाएँ हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए।
हमारी जरूरतें तो कभी कम नहीं होंगी पर हमें अपने खर्चों में कमीं करते हुए स्वविवेक से कुछ न कुछ जरूरतमंदों को अवश्य देना चाहिए जिससे आपमें उत्साह व सकारात्मकता का भाव विकसित होगा और यही संस्कार आप अगली पीढ़ी को देंगे जो उनकी उन्नति का मार्ग निर्धारित करेगा।
कोशिश कीजिए कि जन्म सार्थक हो, किसी का भला कर सकें इससे बड़ी बात कुछ हो ही नहीं सकती।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर बैठे कामकाज …“।)
अभी अभी # 511 ⇒ घर बैठे कामकाज श्री प्रदीप शर्मा
(Work from home)
कोरोना काल के पहले घर बैठे कामकाज वे लोग ही करते थे जिनके पास कोई स्थायी नौकरी अथवा काम धंधा नहीं होता था । अगर आपको कोई स्थायी नौकरी अथवा काम धंधा करना है,तो आपको घर से बाहर तो जाना ही होगा । अब आप अपने घर में सरकारी दफ्तर खोलने से तो रहे । प्रायवेट नौकरी धंधों में तो घर बार छोड़ बाहर गांव क्या, अपना देश प्रदेश छोड़, सात समन्दर पार तक जाना पड़ सकता है, आखिर पापी पेट का सवाल जो है ।
बचपन में बड़े बूढ़ों से महामारी के बारे में सुना था और 70 वसंत पर करने के बाद कोरोना वायरस का तांडव हमने आंखों से देख भी लिया । क्या कोई हड़ताल करवाएगा, चक्का जाम करेगा, और कर्फ्यू लगाएगा, एक मौत का डर इंसान से सब कुछ करवा लेता है । स्कूल, दफ्तर, और बाजारों की रौनक को मानो सांप सूंघ गया । फूंक फूंक कर कदम रखते हुए, ऑनलाइन बिजनेस शुरू हुआ, हर घर स्कूल और दफ्तर में तब्दील होता चला गया ।।
बड़े बड़े शहरों की आईटी कंपनीज़ में ताले लग गए,बच्चों के हॉस्टल खाली करवा लिए गए और मजबूरी में जो जहां था,वह वहीं स्टेच्यू बनकर रह गया । बड़ी बड़ी आइटी कंपनीज ने भी सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से यही निर्णय लिया कि अधिकांश कर्मचारी घर बैठकर ऑनलाइन ही ड्यूटी देते रहे । घाटे में चल रही कंपनीज ने भी अपने रख रखाव और स्थापना (एस्टेब्लिशमेंट) के खर्चे में कटौती शुरू कर दी ।
आज बच्चे छुट्टियों में भी घर आते हैं,तो उनका ऑफिस भी साथ ही रहता है । अगर बेटे बहू/बेटी दामाद दोनों आईटी वाले हैं ,तो छुट्टियों में भी उनका दफ्तर घर से ही चलता रहता है । कुछ बच्चे तो कोरोना के बाद से ही वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं । बस बीच बीच में कुछ समय के लिए कंपनी उन्हें बुला लेती है ।।
बच्चे जब बड़े,समझदार और जिम्मेदार हो जाते हैं,तो उनके रहते हुए भी घर में शांति और अनुशासन कायम रहता है । वर्क फ्रॉम होम में शैतानी और मक्कारी नहीं चलती । यह कोई सरकारी दफ्तर नहीं है ।
शादियों की फिजूलखर्ची इन्हें रास नहीं आती । घर से दूर रहने के कारण खाना भी ऑनलाइन ही आ जाता है । शादी भी अपनी पसंद से ही होती है, इसलिए दोनों पति पत्नी काम काजी होने के कारण एक दूसरे की समस्या अधिक अच्छी तरह से समझते हैं ।।
अगर आज की पीढ़ी का वर्क फ्रॉम होम आगे भी इसी तरह जारी रहा, तो वह दिन दूर नहीं, जब शादी के बाद हनीमून की छुट्टियों में भी इनका वर्क फ्रॉम होम जारी रहेगा । क्यों महीने भर की छुट्टी बिगाड़ें । दिन भर वर्क फ्रॉम होटेल और रात में होम वर्क । वैसे वीक एंड है ही घूमने फिरने और सैर सपाटे के लिए ..!!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “घृणा से निपटना ही होगा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 310 ☆
आलेख – स्त्री के प्रति अपराध रोकने में धार्मिक आस्थाओ का महत्व… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भारत की पहचान एक धर्म प्रधान, अहिंसा व आध्यात्मिकता के प्रेमी और नारी गौरव-गरिमा का देश होने की रही है, फिर क्या कारण है कि इस शिक्षित युग में भी बेटियो की यह स्थिति हुई है कि कन्या भ्रूण बचाने के लिये सरकारी अभियान चलाने पड रहे हैं. कानून का सहारा लेना पड़ रहा है.
एक ओर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी बेटियां अंतरिक्ष में भी नाम रोशन कर रही हैं, महिलायें राजनीति के सर्वोच्च पदो पर हैं, पर्वतारोहण, खेल, कला,संस्कृति, व्यापार,जीवन के हर क्षेत्र में लड़कियो ने सफलता की कहानियां गढ़कर सिद्ध कर दिखाया है कि “का नहिं अबला करि सकै का नहि समुद्र समाय” तो दूसरी ओर बलात्कार, दहेज हत्या, कार्यस्थलों में स्त्री असुरक्षा, जन्म से पहले ही भ्रूण हत्या बंदनहीं हो रही. ये विरोधाभासी स्थिति मौलिक मानवाधिकारो का हनन तथा समाज की मानसिक विकृति की सूचक है.
पुरुषो की तुलना में निरंतर गिरते स्त्री अनुपात के चलते इन दिनो देश में “बेटी बचाओ अभियान” की आवश्यकता आन पड़ी है. नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से समाज ग्रस्त है. तमाम स्त्री विमर्श के बाद भी नारी से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमें आत्ममंथन व चिंतन के लिये विवश कर रही है. एक ओर नारी स्वातंत्र्य की लहर चल रही है तो दूसरी ओर स्त्री के प्रति निरंतर बढ़ते अपराध दुखद हैं. “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है”,वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है”, जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है. “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष, हिन्दू समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही, नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है, जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो. नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन, हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है, आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है.
भारतीय सनातनी संस्कृति में प्रत्येक दिवस की एक विशेष महता होती है। यहां हर दिन विशेष होता है। किसी न किसी पर्व को लेकर लोगों द्वारा हरसोल्लास का वातावरण विद्यमान होता है। हिंदू सभ्यता और संस्कृति में व्रत और त्योहार का विशेष महत्व होता है। हम 33 करोड़(कोटि) देवी_देवता के अस्तित्व को स्वीकारते और उनको पूजते हैं। 33 कोटि देवी-देवताओं में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। कुछ शास्त्रों में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनी कुमारों को 33 कोटि देवताओं में शामिल किया गया है।
आस्था की इसी कड़ी में नरक चतुर्दशी एक मात्र ऐसा दिवस है जिस दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा अर्चना पुरे विधि_विधान से की जाती है। इसे यम दिवाली,छोटी दिवाली,रूप चौदस,नरक चतुर्दशी आदि नामों से भी जानते हैं। कार्तिक मास कृष्ण पक्ष के पंचदिवसीय पर्व की चतुर्दशी तिथि पुरे वर्ष में एक मात्र यही ऐसा दिन होता है, जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है। मान्यताओं के अनुसार यम का दीपक दक्षिण दिशा में जलाना चाहिए। दरअसल दक्षिण दिशा को यमराज की दिशा माना जाता है। नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली जब पर घर के मुख्य द्वार पर सरसों के तेल का दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें। दिए को सतंजा यानी सात प्रकार के अनाज के ऊपर रखा जाता है। खाने में प्याज-लहसुन न खाएं और देर तक सोने से बचें। कथाओं के अनुसार जो जातक दक्षिण दिशा में यम का दीपक जलाते हैं उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। दीप जलाए समय निम्न मंत्र पढ़ा जाता है_
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन श्यामया सह |
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम
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छोटी दिवाली पर यमराज की पूजा करने से घर का वातावरण शुद्ध और सकारात्मक बना रहता है। दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन लोग प्रदोष काल के दौरान चार मुखी दीया सरसो के तेल में जलाते हैं जो यम देव को समर्पित होता है। घर में गंगाजल का छिड़काव करते हैं। कुछ लोग दिए को घर से बाहर दक्षिम दिशा में नाली के पास भी जलाते हैं। दीपक जलाने के बाद पूरे समर्पण, विश्वास और भाव के साथ भगवान से प्रार्थना करते और अपने परिवार की खुशहाली के लिए आशीर्वाद मांगते हैं।
इस दिन किसी भी शुभ कार्य को करना वर्जित होता है। दक्षिण दिशा को यमराज की दिशा मानी जाती है। कथाओं के अनुसार जो जातक दक्षिण दिशा में यम का दीपक जलाते हैं उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। यमराज की कृपा दृष्टि प्राप्त करने हेतु छोटी दिवाली उन्हें समर्पित है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका बालसाहित्य के अंतर्गत एक ज्ञानवर्धक आलेख – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 192 ☆
☆ बाल साहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।
मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।
17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।
मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।
मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।
लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।
मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।
सुदूर पूर्व में बसा दक्षिण कोरिया एक खूबसूरत देश है, जिसने गत 25 वर्षों में आर्थिक दृष्टी से समृद्धी के चमत्कारपूर्ण शिखर छू लिए है। लगभग भारत के साथ साथ ही आजा़द हुआ यह देश भारतीय आर्थिक तंत्र से ही नहीं बल्कि अन्य कितने ही देशों से किस हद तक आगे बढा़ है इसका पता इस बात से चलता है कि आज कोरिया की प्रति व्यक्ति आय 18000 अमेरिकी डालर है। यूँ तो भौगोलिक दृष्टी से दक्षिण कोरिया एक छोटासा देश है, पर इसका अपना एक गौरवशाली इतिहास और संस्कृति है। कोरिया में भारत की पहचान गांधी, बौद्ध और टैगोर के कारण रही है। जब मैं दक्षिण कोरिया में सरकार की ओर से अतिथि आचार्य के रूप में गई थी तो कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक के घर गयी थी। वे टेगोर के नाम से कई साहित्यिक गतिविधियाँ चलाती है। वहाँ मैंने टैगोर की प्रतिमा देखी थी। एशिया के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अपने साहित्यकार की प्रतिमा को देखकर मैं गर्व से भर गयी थी। आज इस दक्षिण कोरिया का नाम साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेताओं में दर्ज हो गया है, यह बात भी मेरे लिए उतनी ही गर्व की है।
‘गहन काव्यात्मक गद्य’ के लिए ख्यात 53 वर्षीय कोरियाई लेखिका हान कांग का 2024 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नाम जब सामने आया तो लेखिका के साथ साथ सभी चकित हुए थे। यह कोरियाई भाषा के लिए भी ऐतिहासिक क्षण है। साहित्य के लिए उनका यह पहला नोबेल पुरस्कार है। 10 अक्टूबर को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल विजेता के नाम की घोषणा के पहले किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि कोरिया की चौवन साल की महिला साहित्यकार बड़े-बड़े महारथियों को पीछे छोड़कर वैश्विक स्वीकृति-सूचक इस सम्मान का हकदार होंगी। 10 अक्टूबर 2024 को नोबेल समिति ने हान कांग को ‘गहन काव्यात्मक गद्य में इतिहास के ज़ख्म, सामूहिक स्मृति की पीड़ा और मानव जीवन की अनिश्चितता और नश्वरता को पिरोने’ के कौशल के लिये पुरस्कृत किया गया। यह सम्मान कोरियाई जनता के लिये गर्व का विषय है, लेकिन हान कांग के पिता जो स्वयं सुप्रसिद्ध उपन्यासकार हैं उनको यह समाचार पहले तो झूठ ही लगा था। क्योंकि उन्हें लगा था कि कई सारे बड़े बड़े साहित्यकार इस रेस में हैं, मेरी बेटी को कैसे इतना बडा पुरस्कार मिल सकता है। जब लेखिका को यह पूछा गया कि आप इस क्षण का उत्सव कैसे मनाएंगी? तो उन्होंने कहा कि, ‘ऐसे तो मैं चाय नहीं पीती हूँ, लेकिन आज इस खुशी के मौके पर बेटे के साथ चाय पी लूंगी।’ कोरिया में क्योबो नाम से एक बहुत बडी दुकान है जिसमें लाखों किताबें हैं। हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार खाली थी। उस दीवार पर लिखा था ‘नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित’ आज उस दीवार का खालीपन दूर हुआ।
हान कांग का जन्म 27.11.1970 को दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू में हुआ था बाद में लगभग दस की उम्र में वे सिओल चली आयी थी। उनके घर में साहित्यिक वातावरण है। पिता स्वयं लेखक हैं और दोनों भाई भी कथा साहित्य और बाल साहित्य सृजन करने में रत हैं। हान कांग को बचपन से पुस्तकों से लगाव रहा है। दोस्तों से पहले पुस्तकों से वे दोस्ती करती थी। उनके माता-पिता चाहते थे कि वह विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करे, लेकिन बेटी ने कोरियाई भाषा लेखक होना चाहा। माता-पिता ने बेटी पर अपनी इच्छा थोपी नहीं। कोरियाई साहित्य की छात्रा होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया। बाद में यूरोप और अमेरिका में कुछ महीने बिताने के बाद उन्होंने समकालीन विश्व साहित्य की ऊर्जा और उष्मा को अच्छी तरह जाना और समझा।
आरम्भ में हान कांग कविता लिखती थीं। उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ तेईस साल की अवस्था में हुआ जब ‘साहित्य और समाज’ नामक पत्रिका में उनकी पाँच कविताएं छपीं। हान कांग का साहित्यिक जीवन तब शुरू हुआ जब उन्होंने 1993 में लिटरेचर एंड सोसायटी के शीतकालीन अंक में ‘विंटर इन सियोल’ सहित पांच कविताएं प्रकाशित कीं। उनके उपन्यास लेखन की शुरुआत 1994 में हुई, जब उन्होंने अपनी रचना ‘रेड एंकर’ के लिए सियोल शिनमुन स्प्रिंग लिटरेरी कॉन्टेस्ट जीता। उनका पहला संग्रह, ‘लव ऑफ योसु’ 1995 में प्रकाशित हुआ था। कोरिया में प्रकाशित उनकी रचनाओं में ‘फ्रूट्स ऑफ माई वूमन’ (2000) शामिल हैं, उपन्यास जिनमें द ब्लैक डियर (1998), योर कोल्ड हैड (2002), द वेजिटेरियन (2007), बीथ फाइटिंग (2010), ग्रीक लेसन (2011), ह्युमन एक्ट आदि शामिल हैं। हान कांग एक कवयित्री, कथाकार और उपन्यासकार हैं। हान एक संगीतकार भी हैं। ‘द वेजिटेरियन’ हान कांग की पहली कृति थी जिस पर फीचर फिल्म बनाई गई थी और कुछ साल पहले जिसे बुकर अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
यह उपन्यास उन्होंने 2007 में लिखा था, जो तीन भागों में विभाजित है और यह बहुचर्चित रहा। यह उपन्यास योंग व्हे नामक लडकी की कहानी पर आधारित है। जो एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी है, जिसका मांस न खाने का फैसला उसके सारे व्यक्तित्व को तहस नहस कर देता है। 1997 में हाग कांग ने एक कहानी लिखी थी जिसका नाम था ‘एक महिला जो वास्तव में फल में बदल जाती है’ इस पर यह आधारित है। हान कांग ने कहा था कि वह बीस की उम्र तक शाकाहारी थी, किंतु बाद में उन्हें शारीरिक कारणों से मांस खाना पडा, पर मन में कहीं अपराध बोध रहता था। उन्होंने इसका जवाब बौद्ध धर्म में देखना चाहा। पर तीस की उम्र में आते आते उनको जोडों में दर्द शुरु हुआ। हाथ में अत्यधिक दर्द होने के कारण वे पेन से लिख नहीं पाती थी तो वे की-बोर्ड पर पेन से टाइप करती थी।
हान कांग ने अपने समाज के जटिल यथार्थ की अन्तर्दृष्टि प्राप्त की, अपने उपन्यासों में ऐसे पात्र गढ़े जिन्हें राष्ट्रीय आख्यान का प्रतीक माना जा सकता है, और उस यथार्थ को इतनी सहजता और संवेदना के साथ चित्रित किया कि पाठकों में मन में यथार्थ का बोध उत्पन्न हो पाया। वे कहती है कि जिस तरह द वेजिटेरियन लोगों ने पढ़ा वैसे ही ‘वी डु नॉट पार्ट’ भी पढ़ें।
हान कांग निश्चित ही अद्वितीय है। समाज और व्यक्ति चेतना के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमें उनके साहित्य में निश्चित ही मिलती है।
वैसे टैगोर कभी कोरिया नहीं गए लेकिन उन्होंने उसे पूर्व का दीप कहा था। आज वह दीप साहित्य में भी प्रज्वलित हो रहा है। कोरिया के पॉप संगित, के ड्रामा, बीटीएस की लोकप्रियता सो तो सभी परिचित हैं, हान कांग के माध्यम से कोरियाई साहित्य भी विश्वपटल पर आ गया है। आज सचमुच दक्षिण कोरिया सांता क्लॉज बन गया है।
(गुगल पर आधारित सामग्री से उक्त लेख तैयार किया है।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जलना और जंग लड़ना…“।)
अभी अभी # 510 ⇒ जलना और जंग लड़ना श्री प्रदीप शर्मा
हमारे जीवन का भौतिक विज्ञान का पहला पाठ पदार्थ के जलने और जंग लगने, अर्थात् rusting and burning से हुआ था। प्रश्न भी कुछ इस तरह का रहता था, जलने और जंग लगने में अंतर बताओ। बही खाते में आय व्यय की तरह, पुस्तक में बायीं ओर जलना और दांयीं ओर जंग लगना, लिखा रहता था। जो आगे चलकर भौतिक जगत के व्यवहार में जलने और जंग लड़ने में अंतर करते करते गुजर गया।
जो जीवन कभी चलने का नाम था, वह कब जलने का नाम हो गया, कुछ पता ही नहीं चला। एकाएक जंग लगी इस जिंदगी में उबाल आया और जिंदगी की जंग शुरू हो गई। जीवन की इस प्रतिस्पर्था में यह जलन बहुत काम आई। महत्वाकांक्षा और आगे निकलने की इस दौड़ में, चलना और जलना साथ साथ चले, जिसके कारण अपने से आगे निकलने वाले को टांग मारकर गिराना, अथवा धक्का देकर आगे बढ़ना आम था। खास बनने के लिए आम से जलना भी पड़ता है। जलने और जंग लड़ने में सब जायज़ होता है। Everything is fair in jealousy and war.
बिना दीया जलाए भी कहीं रोशनी हुई है। सीने में जलन और आँखों में इतने समय से तूफान क्यूं था, और उस वक्त, हर शख्स परेशान सा क्यूं था, यह अब पता चला। जिंदगी के तूफान और दीये की यह जंग बहुत पुरानी है। जंग अभी जारी है, यह आग कब बुझेगी, कोई जाने ना ;
तेरा काम है परवाने जलने का।
चाहे शमा जले, या ना जले।।
जीवन में जंग लग जाने से बेहतर है, कुछ किया जाए ! क्यों न व्यर्थ जलने के बजाए उंगली कटाकर ही शहीद हुआ जाए। जब से इस इंसान ने आग का आविष्कार किया है, उसे जलने, जलाने में बड़ा आनंद आता है। उसके अंदर भी एक आग है, और बाहर भी एक आग। गुलजार बड़ी खूबसूरती से अपने जिगर की आग को पड़ोसी के चूल्हे की राख से, बीड़ी जलाकर और अधिक प्रज्वलित कर देते हैं और राखी को राखी सावंत बनते देर नहीं लगती।
प्रेम और इश्क में अगर ढाई अक्षर होते हैं तो जंग में भी ढाई आखर ही होते हैं। इसीलिए हम प्यार में जलने वालों को, चैन कहां, आराम कहां। हम भी अजीब हैं, कभी प्यार में जलते हैं, तो कभी किसी के प्यार से जलते हैं। और कई बार ऐसा मौका आया है जिंदगी में, कि दर्द छुपाए नहीं छुपता। आखिर जुबां पर आ ही जाता है ;
गुज़रे हैं आज इश्क के
हम उस मुकाम से।
नफ़रत सी हो गई है,
मोहब्बत के नाम से।।
ये नफरत मोहब्बत, ये प्यार मोहब्बत, ये जलना और जंग लड़ना लगता है, अब जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया है, और जीवन का काफिया कुछ यूं बयां हो गया है ;
जीवन जलने का नाम
जलते रहो सुबहो शाम।
जिंदगी एक जंग है कर दो ये ऐलान। ये आग तब ही बुझेगी। ।
वैसे आज जलने का नहीं, केवल एक प्रेम का दीप जलाने का अवसर है। जब दीप जले आना, जब सांझ ढले आना। शुभ दीपावली। ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौन्दर्य बोध…“।)
अभी अभी # 509 ⇒ सौन्दर्य बोध श्री प्रदीप शर्मा
(ASTHETIC SENSE)
जब भी सुंदरता की बात होती है, चंदन सा बदन, चंचल चितवन, से आगे बात ही नहीं बढ़ती। नारी सौंदर्य की मूरत है, बस यही बोध पर्याप्त है। सारे कवि और शायर भी घूम फिरकर यही कहना चाहते हैं लेकिन सौंदर्य का एक कला पक्ष भी होता है, जो कहीं ना कहीं उसे व्यक्ति परक नहीं, वस्तुपरक बनाता है। वस्तु के इस कलात्मक पक्ष को ही asthetic sense, यानी सौंदर्य बोध का नाम दिया गया है।
कला, सौंदर्य और सुरुचि का नाम ही सौंदर्य बोध है। जब हम किसी ऐसे घर में प्रवेश करते हैं, जहाँ सब कुछ व्यवस्थित, ठिकाने पर हो, घर की हर वस्तु आपको आकर्षित करती हो, जिसमें घर में रहने वाले का व्यवहार और पहनावा भी शामिल हो, चलने का तरीका, बोलने का तरीका, हँसने से लेकर खाते समय मुंह चलाने तक का तरीका आकर्षित करता हो, तो आप कह सकते हैं कि उस व्यक्ति में एस्थेटिक सेंस यानी सौंदर्य बोध है।।
आप सौंदर्य को सभ्यता और संस्कृति से अलग नहीं कर सकते। जिसे हम तहज़ीब, manner अथवा एटिकेट कहते हैं, उसकी तह में बोलने अथवा बात करने का लहजा भी मायने रखता है। किसी का सुरुचिपूर्ण व्यवहार यानी polished behaviour आपको कभी कभी कृत्रिम भी लगे, लेकिन जो लोग इसमें ढल जाते हैं, उनकी सहजता और सरलता उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देती है।
आप मुझे अच्छे लगने लगे ! सौंदर्य बोध का इससे अच्छा उदाहरण और कोई नहीं हो सकता। यहाँ अनुभूति का स्तर, देह से बहुत ऊपर उठ गया है, जिसमें अगर एक अबोध बच्चे की खुशी भी शामिल है तो एक आत्मा का दूसरी आत्मा के प्रति अपनापन, जो कहीं कहीं परमात्मा के करीब है। क्योंकि जो वाकई अच्छा है, वही सत्य है, शिव है और सुंदर है।।
आपको भगवान मंदिर में नहीं मिलेंगे, इंसानों में ही मिलेंगे। खेत, खलिहानों, बाग बगीचों, हरी भरी वादियों, पहाड़ों और झरनों में ही उस विराट की प्रतीति ही सौंदर्य बोध है। संगीत, ध्यान, कला, नृत्य और अध्यात्म उसके विभिन्न अवयव हैं। यह गीता का वह ज्ञान है, कर्म की कुशलता जिसका पहला अध्याय है, तो निष्काम कर्म अंतिम।
अमीरी गरीबी से ऊपर, सुख दुःख के बीच, सरलता, सहजता, निष्पाप मन, निर्विकार चेष्टा, मानव मात्र के प्रति शुभ संकल्प का भाव, प्राणी मात्र के कल्याण की भावना और प्रकृति और पर्यावरण से प्रतीति ही सौंदर्य बोध है। अंदर और बाहर से व्यवस्थित होना ही व्यवस्था है। प्रकृति में जहाँ भी सौंदर्य है, वह व्यवस्थित और अनुशासित है। पक्षियों का उड़ना, शाम को अपने घर लौटना, फूल का खिलना, भौंरों का गुनगुनाना, नदियों का बहना, सभी इस व्यवस्था के अंग हैं, इसीलिए उनमें सौंदर्य बोध है। हमें कोई दूसरी दुनिया नहीं बसानी। इसी को व्यवस्थित करना है। हमारी दृष्टि बदलने से समष्टि बदल जाती है। दृष्टि में ही सौंदर्य बोध है। जब सृष्टि इतनी सुंदर है, तो इसका रचयिता कितना सुंदर होगा।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 105 ☆ देश-परदेश – Who Ratan Tata? ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज 11 अक्टूबर प्रातः काल के समय निकट के उद्यान में कुछ बच्चे खेलते हुए दिखे, तो अच्छा लगा कि प्रातः के समय बच्चे बिना किसी मोबाइल के सहारे खेल रहे हैं। उनकी आयु 13-14 वर्ष लग रही थी।
हम तीन साथी उनके पास जा कर प्रोहत्सहित करते हुए उनका मनोबल बढ़ाने लगे, बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं, वो बोले आज स्कूल में अचानक अष्टमी का हॉलीडे हो गया, इसलिए सुबह उठ गए वर्ना छुट्टी के दिन तो दस बजे ही उठते हैं।
हमारे एक साथी ने पूछा रतन टाटा को जानते हो क्या? एक बच्चा जो आठवीं का छात्र था, तुरंत बोला who Ratan Tata? दूसरे बच्चे ने कहा हां, कल टीवी पर दिन भर कुछ ऐसा ही बोल रहे थे। तीसरा बच्चा बोला, क्या वो पुराने जमाने के हीरो थे? जैसे वो भुजिया का एड करने वाले अभिताभ बच्चन हैं। आज उनका जन्मदिन भी है, बहुत मज़ा आयेगा। एक अन्य बच्चा बोला उनका नाम तो कभी बिग बॉस के लोगों में भी नही सुना हैं, जैसे सिद्धू अंकल तो क्रिकेट भी खेलते थे, और बिग बॉस में भी खेले थे।
हमने बच्चों को बोला वो तो “रियल हीरो” हैं। एक बच्चा बोला क्या वो इंडिया के लिए क्रिकेट खेलते थे? जैसे सारा अली खान के दादा अपने जमाने में खेलते थे। दूसरा बच्चा बोला उनको टीवी या किसी विज्ञापन में भी कभी नहीं देखा है। यादि वो बड़े उद्योगपति थे, तो अंबानी अंकल के बेटे की शादी में भी नहीं दिखे, क्रूज की लिस्ट में भी उनका नाम नहीं था।
बच्चों को पास में रखी हुई बेंच पर बैठा कर उनको समझाया की वो बहुत बड़े दानवीर थे, समाज के जरूरतमंद लोगों की बहुत सहायता भी करते थे। उन्होंने देश को बहुत सारे उद्योग धंधे भी दिए हैं। उनमें से एक बच्चा बोला, वो सब तो ठीक है, आप लोगों ने किस किस जरूरतमंद की हेल्प करी है, कौन कौन से उद्योग धंधे लगाए है?
धूप में तेज़ी आने का बहाना कर हम तीनों साथी रूमाल से पसीना पोंछते हुए उद्यान से बाहर आ गए।