हिंदी साहित्य – आलेख ☆ साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है।

आपका साहित्यिक परिचय आपके ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय आलेख साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”!

☆ साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”! ☆ श्री आशीष गौड़

साहित्य क्या है? साहित्य लैटिन शब्द साहित्य से बना जिसका अर्थ है ‘अक्षर’| इसका शब्दिक अर्थ है अक्षरो का उपयोग।साहित्य, पश्चिम में, सुमेर के दक्षिणी मेसोपोटामिया क्षेत्र (लगभग 3200 BC) में उरुक शहर में उत्पन्न हुआ और मिस्र में, बाद में ग्रीस में (लिखित शब्द फिलीशियनों से शुरू हुआ था) और वहां से रोम में फला-फूला। .दुनिया में साहित्य की पहली कृति, जिसे इसी नाम से जाना जाता है, उर के उच्च-पुरोहित एनहेदुआना (2285-2250 ईसा पूर्व) जहां, सुमेरियन देवी इन्ना की स्तुति में भजन लिखे गए थे।

मध्यकाल में, कन्नड़ और शास्त्रीय में साहित्य क्रमशः 9वीं और 10वीं शताब्दी में सामने आया। बाद में मराठी, गुजराती, बंगाली, असमिया, उड़िया और मैथिली में साहित्य सामने आया। इसके बाद हिंदी, फ़ारसी और उर्दू की विभिन्न बोलियों में भी साहित्य छपने लगा।

हिंदी भाषा का पहला साहित्य था पृथ्वीराज रासो जो 1170 ई. में आया |हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन का गंभीर एवं उल्लेखनीय प्रयास पं. रामचन्द्र शुक्ल ने किया था। उनके द्वारा लिखित—हिन्दी साहित्य का इतिहास, यह विषय एक शास्त्रीय पुस्तक है। इसकी शुरुआत में उनकी एक और महत्वपूर्ण कृति-हिंदी शब्द सागर की भूमिका लिखी गई थी।

पहले साहित्य लिखने वाले लोग भाषा के और व्याकरण के प्रकांड पंडित थे |साहित्यकार अनेक लेख और कथा कहानियां लिखते थे जो पुराणिक भारत की, इतिहास से जुड़े या धर्म से मेल खाती कहानी लिखते थे | ये साहित्य सर्व व्यापी नहीं था | साहित्य उस समय सिर्फ उन्ही लोगों ने ही पढ़ा था जो या तो साहित्य से जुड़े थे, साहित्य पढ़ते थे फिर साहित्य पढाते थे | जन साधारण में साहित्य इतना सर्वव्यापी नहीं रहा | जन साधारण सिर्फ धर्म और पौराणिक रीतियों से जुड़ी कहानियाँ ही पढ़ता रहा |इसका एक पहलू यह भी हो सकता है कि पुराण बहिरवर्ती थे और वेद अंतरवर्ती थे | जब सामाजिक सोच बहिर्वर्ती से अंतरवर्ती हुई तभी साहित्य ने भी नई राह पकड़ी |

भारत में साहित्य का इतिहास अत्यंत समृद्ध और विविध है। साहित्य इतिहास , भारतीय संस्कृति, साध्य, लोक कथाएँ और रीति रिवाज़ के साथ गहरा जुड़ा हुआ है। यह अनेक वर्णमाला में लिखी गई है, जैसे कि संस्कृत, हिंदी, अरबी, तमिल, जनजाति, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, आदि।

साहित्य एक ऐसा साधन है जो समय के साथ बदलता रहता है, और इसमें समाज, संस्कृति और व्यक्तित्व के मानक आयाम हैं। हिंदी के भाषा साहित्य समाज  इसी दिशा में साहित्य को नए आयामों तक ले गए हैं। प्राचीन काल की उत्पत्ति से लेकर आधुनिकता और विज्ञान के युग तक, हिंदी साहित्य में समाज के लोकतंत्र का चित्रण किया गया है।

जैसी जैसी भाषा बदली और भाषा में नए प्रयोग किए गए वैसे वैसे साहित्य भी बदलता गया|साहित्य धार्मिक और इतिहास कथाओं से बदल कर अब सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखा जाने लगा | बदलते समाज की नई तस्वीर साहित्य का हिस्सा बानी और कथाकारो ने अपने हिसाब से नवीन समय के समाज को सार्थक दिशा की तरफ मोड़ने के लिए जो प्रयोग किया वह भी साहित्य का हिस्सा बन गया |

धीरे धीरे साहित्य बदल रहा था |

प्राचीन काल के साहित्यकार जैसे कबीर, सूर दास और तुलसीदास जी ने जहां भक्ति काल का साहित्य रचा | वही उनके आगे आए रहीम जिन्होंने सत्य, प्रेम और मानवता के मुद्दे को अपने साहित्य में उकेरा | प्रेमचंद के लेखन ने गाव , देहात और समाज के गरीब और पिछड़े वर्ग की रोज़ मर्रा की जीवन गाथा को कहानियों में पिरोया। तो वही निराला, बच्चन, और मुक्ति बोध ने नई धारा को प्रवाह दिया |

आज के युग का साहित्य |

आज के समय के अनुभव, सामाजिक समीक्षा, तकनीकी बदलाव और तरक्की आज के साहित्य के बदलते चेहरे की वजह है |आज की राजनीतिक हवा और क्षेत्रीय समीक्षा भी आज के साहित्य का बड़ा हिस्सा है |आज का साहित्य सर्वव्यापी है | आज के साहित्य और काव्य की लिपि निजी है, और उसका मुख्य कारण कला का विकेंद्रीकरण और कैनवास का लोकतंत्रीकरण है |कविता की लोकप्रियता, लेख में तिरोहित विचारधारा और साहित्य में राजनीति और सामाजिक जागरूकता की खिचड़ी सबके घर परोसी जाए और सबका स्वाद वापस फिर रसोई घर और रसोईये को पता लगे इसका पूरा श्रेय है हैशटैग # की ताकत |

कला का विकेंद्रीकरण और कैनवास का लोकतंत्रीकरण

आज का साहित्य और कला दोनों ही समाज के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करने का एक माध्यम हैं। कला के विकेंद्रीकरण ने आधुनिक कला और साहित्य को नए और अनूठे रूपों में प्रस्तुत किया है, जो समाज में गैहरा परिवर्तन और प्रभाव लाया है।लेखन, फोटोग्राफी, चित्रकला, फिल्म, और ऑडियो-विजुअल मीडिया का एक संगम साहित्य को और भी रोचक और बौद्धिक बना रहा है।

डिजिटल साहित्य इंटरनेट का उपयोग करते हुए, लेखकों और कलाकारों को अपनी रचनाओं और कला को आसानी से व्यक्त करने का अवसर मिलता है। इलेक्ट्रॉनिक साहित्य या डिजिटल साहित्य एक ऐसी शैली है जहां डिजिटल क्षमताएँ जैसे अन्तरक्रियाशीलता, बहु-तौर-तरीके और अलोगोरिदम पाठ का सौंदर्यपूर्ण उपयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक साहित्य के कार्यों को आमतौर पर कंप्यूटर, टैबलेट और मोबाइल फोन जैसे डिजिटल उपकरणों पर पढ़ा जाता है।

ब्लॉग, सोशल मीडिया, और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के माध्यम से, साहित्य और कला विभिन्न लोगों तक पहुंच रही हैं।आज के युग में, साहित्यिक आदान-प्रदान भी नए और विविध रूपों में हो रहा है। लेखकों, कवियों, और कलाकारों के बीच विचारों और विचारों का दिमागी तूफान , उन्हें साझा करना और उनके संदेश को बढ़ावा देना आम हो गया है।इस प्रकार, कला के विकेंद्रीकरण और आज का साहित्य एक साथ काम करके, समाज को नए और अनूठे रूपों में सोचने और अनुभव करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। यह उत्कृष्ट साधन है जो विभिन्न पहलुओं को समाहित करता है और समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करता है।

हैशटैग # की ताकत

आज के युग में हैशटैग की शक्ति ने साहित्य को फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। हैशटैग सोशल मीडिया का एक महत्वपूर्ण तत्व है जो किसी भी विषय को वायरल करने और उसे बढ़ाने में मदद करता है। साहित्य के क्षेत्र में भी, हैशटैग एक प्रभावशाली और शक्तिशाली उपकरण है।हैशटैग का प्रयोग करके लेखक और कवि अपने ब्लॉग को सार्वजनिक रूप से साझा कर सकते हैं। यह उन्हें अपने वैज्ञानिक कार्यों को बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाने का एक अच्छा माध्यम प्रदान करता है।

इसके अलावा, हैशटैग के माध्यम से लेखक और कवि अपने विचार और दृष्टिकोण को दुनिया के साथ साझा कर सकते हैं, जो शास्त्र समुदाय में वाद-विवाद और साझा दृष्टिकोण को दार्शनिक कर सकते हैं।सोशल मीडिया के दिग्गज जैसे कि ट्विटर, सोशल मीडिया और फेसबुक पर हैशटैग का प्रयोग साहित्य के प्रचार और इसके प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेखक, विचारक और कवि अपनी रचनाओ और दृष्टिकोण को हैशटैग के ज़रिये जन साधारण तक पहूचा सकता है ।इस प्रकार, हैशटैग आज के युग में साहित्य को नए आयामों तक पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है। यह आर्टिस्ट और पेंटिंग को अपने थिएटर के साथ साझा करने का एक उत्कृष्ट माध्यम प्रदान करता है।

साहित्य का बदलता आयाम और जन-जन तक पहुंचति कलम का आधार है कला का विकेंद्रीकरण, कैनवास का लोकतंत्रीकरण और हैशटैग की ताकत | इन्ही तीन करणों के साथ आज के लेखक की नई अस्थिर निज्जी लिपि और व्याकरणहिंता के बावजुद साहित्य सर्व व्याप्त है |

©  श्री आशीष गौड़

वर्डप्रेसब्लॉग : https://ashishinkblog.wordpress.com

पॉडकास्ट हैंडल :  https://open.spotify.com/show/6lgLeVQ995MoLPbvT8SvCE

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जी और जान।)

?अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या जी और जान एक ही ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसमें जान है,वह ही तो जीव है। जान से ही तो प्राणियों का जीवन है।

जी और जान को जानने,समझने के लिए,आप चाहें तो जी को मन और जान को प्राण

भी कह सकते हैं।

जी का दायरा बड़ा विस्तृत है,जब कि बेचारी जान तो नन्हीं सी है,लेकिन इसी जान से तो यह जहान है। जी का विस्तार जिजीविषा तक है और अगर इस दुनिया से जी भर जाए तो ,अब जी के क्या करेंगे,जब दिल ही टूट गया।।

उधर दूसरी ओर यह हालत है,वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। साफ साफ क्यों नहीं कहते कि किसी ने आपका जी चुरा लिया है। यह जी ही कभी जिया बन जाता है,तो कभी हिया। लागे ना मोरा जीया।

ये कवि और शायर लोग शब्दों से खेलते हैं,अथवा इंसान के जज़्बातों से,कुछ पता ही नहीं चलता। जरा इन महाशय को देखिए ;

जान चली जाए

जिया नहीं जाए।

जिया जाए तो फिर

जिया नहीं जाए।।

जीवन की कड़वी सच्चाई तो यही है कि जी जान एक करके ही जीवन में आगे बढ़ा जाता है। सफलता यूं ही किसी के पांव नहीं चूम लेती। लेकिन यह भी सच है कि निराशा और अवसाद के क्षणों में यही जी इतना भारी हो जाता है, कि इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।

यही जी कभी खास बन जाता है,तो कभी आम। जब जी करता है,मन की जगह विराजमान हो जाता है। कभी राग द्वेष में उलझ जाता है,तो कभी मौज मस्ती में डूबा रहता है।।

यही जी कभी मन है तो कभी दिल और जब मूड में आ जाए तो फिर यह किसी के वश में नहीं। कभी किसी को जी भर के गालियां दे दी तो कभी किसी को जी भर के आशीर्वाद। फिलहाल तो राजनीति में एक दूसरे को,जी भर के कोसने का चलन जोरों पर है।

कौन नहीं चाहता,जी भर के जिंदगी जीना। क्या चाहत से कभी किसी का जी भरा है। जी लो,जी भर के जिंदगी,कल किसने देखा है। इस जान के रहते ही आप कुछ जान सकते हो। इसलिए अगर जी को लगाना ही है तो कुछ जानने में लगाएं,जान सके तो जान। और कुछ तो हमारे बस में नहीं जानना,जी और जान के बारे में,बस ;

जी चाहता है,

खींच लूं तस्वीर आपकी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 83 ☆ देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में किसी वस्तु या अन्य पदार्थ के विज्ञापन की टैग लाइन जब प्रसिद्धि के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है,तो लोग लंबे समय तक जनमानस के दिलों में अपना स्थान बना लेती हैं। “दाग अच्छे है” टैग लाइन भी उन प्रसिद्धि पा चुके में से एक हैं।

हमारे देश की सी एस आई आर जोकि एक वैज्ञानिक संस्था है,ने अपने कर्मचारियों का अव्वाहन किया है, कि प्रत्येक सोमवार के दिन वो बिना स्त्री(प्रेस) किए हुए वस्त्र पहनकर कार्बन की खपत में कटौती कर जन मानस को एक उदहारण प्रस्तुत कर जुगरूकता पैदा करें। हमारा देश विश्व के सबसे अधिक कार्बन खपत करने वाले देशों में अग्रणी हैं।

बचपन में हम पाठशाला गणवेश को सोते समय तकिए के नीचे या लोहे के संदूक के नीचे रखकर उसके रिंकल्स दूर कर लिया करते थे। धन के अपव्यय के साथ ही साथ कार्बन की खपत कम होती थी। बिजली से चलने वाली प्रेस सभी घरों में उपलब्ध है। आजकल एक नए प्रकार की स्टीम प्रेस भी आ गई है, जिसमें हैंगर पर टंगे हुए कपड़े भी प्रेस किए जा सकते हैं। प्रेस के कार्य में संलग्न धोबी आजकल जुगाड द्वारा एल पी जी गैस से भी कपड़े प्रेस करते हैं। कच्चे कोयले के उपगोग कर प्रेस का चलन कम हो गया हैं।

कपड़ो की सलवटे तो प्रेस से दूर हो जाती हैं। बिस्तर पर पड़ी हुई सलवटें, रात्रि नींद न आने पर करवट बदलने की गवाह बन जाती हैं। हमारे फिल्म वाले इस बात को अनेक गीतों के माध्यम से भुना चुके हैं।

कुछ समय पूर्व हमारे एक मित्र ने एक महंगी कमीज़ खरीदी थी, जिसकी वकालत विक्रेता ने ये कहकर की थी, ये “रिंकल फ्री” कमीज़ हैं। इसको प्रेस करने की आवश्यकता नहीं है, वो तो बाद में ज्ञात हुआ कि कमीज़ के साथ रिंकल्स फ्री में दिए जा रहे हैं।

कपड़े, बिस्तर आदि के रिंकल्स तो आप ठीक कर लेते हैं। हमारे जीवन के अंतिम पायदान के समय शरीर पर विकसित हो गई झुर्रियां शायद ये बयां करती हैं,” समय जिन  राजपथों से होकर गुजरता है, बोलचाल की भाषा में उन्हें ही झुर्रियां कहते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 359 ⇒ तिल धरने की जगह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तिल धरने की जगह।)

?अभी अभी # 359 ⇒ तिल धरने की जगह? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी भाषा इतनी संपन्न है कि हम इसके साथ कलाबाजियां भी कर सकते हैं, और खिलवाड़ भी। अलंकारों, मुहावरों, लोकोक्तियों की तो छोड़िए, अतिशयोक्ति तो इतनी कि, बस पूछिए मत।

पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था, कहीं तिल धरने की भी जगह नहीं थी। वैसे तो श्रोता खचाखच के प्रयोग से ही निहाल हो गया था, बेचारा एक तिल, यानी तिल्ली का दाना, अब उसके रखने की जगह भी हॉल में नहीं बची। हुई न यह, तिल से ताड़ बनाने वाली बात।।

अब सबसे पहले तो हॉल में आपको तिल लाने की आवश्यकता ही क्या थी। चलो अगर आप एक तिल का दाना ले भी आए, तो उसे कहां रखकर लाए थे, किसी माचिस की डिबिया में अथवा भानुमति के पिटारे में। अगर लाते तो पर्स में तिल गुड़ के दो तीन लड्डू ही ले आते आराम से खा तो सकते थे। खुद भी खाते और पड़ोसी श्रोता को भी ऑफर कर देते।

वह तो गनीमत है कि वहां कोई सिक्योरिटी चेक अथवा हाय अलर्ट नहीं था वर्ना एक तिल हॉल में लाना आपको बहुत भारी पड़ जाता। कहीं मेटल डिटेक्टर आपकी तिल में कोई खुफिया माइक्रो चिप अथवा सेल्यूलर बम, ना ढूंढ निकालता। ऐसे गैर जिम्मेदाराना, बेवकूफी भरे बयानों से बचकर रहा कीजिए, साइबर और डिजिटल क्राइम का जमाना है।।

हो सकता है, दुश्मनों ने टाइम बम की तरह कोई विस्फोटक तिल बम ईजाद कर लिया हो, और आतंकवाद निरोधक दस्ता, खुफिया रिपोर्ट के आधार पर, वहां पहले से ही मौजूद हो। और आपकी यह तिल तक रखने की जगह नहीं, वाली बात उन्होंने सुन ली हो। पहले तो आप अंदर, आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के आरोप में। तिल को तिल बम बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। पहले पूरा हॉल खाली कराया जाता, आपकी तिल तिल की तलाशी ली जाती, हॉल का चप्पा चप्पा छान मारा जाता, और अगर कहीं गलती से, तिल गुड़ वाला तिल का टुकड़ा किसी कुर्सी के नीचे से बरामद हो जाता तो क्या उसे हाथ कोई लगाता।

उसे सुरक्षित तरीके से कब्जे में ले लिया जाता, प्रेस, पत्रकार और इलेक्ट्रिक मीडिया के सौजन्य से आपकी तस्वीर भी सनसनीखेज तरीके से कैद कर ली जाती। उधर कोई भी आतंकवादी संगठन अपनी पब्लिसिटी के लिए आपको उस गिरोह का सदस्य घोषित कर देता।।

क्या यह सब बेसिर पैर की बातें हैं अथवा अतिशयोक्ति की पराकाष्ठा ! तो बताइए, तिल की बात शुरू किसने की थी। खुद को आसानी से बैठने की जगह मिल गई थी, लेकिन नहीं, इन्हें अपने तिल को रखने की भी जगह चाहिए थी। अब तिल तिल पुलिस कस्टडी में सड़ो।

ऐसी बददुआ सुबह सुबह हम अपने दुश्मन को भी नहीं देते। बस एक तिल की बात को लेकर दिमाग का दही हो गया था, तो हमने अनजाने में ही रायता फैला दिया।।

सुबह सुबह इस गुस्ताखी के लिए हम आपसे करबद्ध माफी मांगते हैं, लेकिन आपसे गुजारिश है, तिल देखो, तिल की साइज देखो, पहले अपने मुंह में तिल धरने की जगह तो तलाशो, फिर उसके बाद मुंह खोलो। अतिशयोक्ति सदा बुरी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 240 – छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 240 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आए, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

*

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आइए डोरे डालें।)

?अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी पर डोरे डाले हैं, अथवा आप पर किसी ने डोरे डाले हैं ? आखिर क्या होता है यह डोरा! डोरा सूत के धागे अथवा तागे को कहते हैं। धागे में सुई से मोतियों अथवा फूलों को पिरोकर माला बनाई जाती है। याद है, फिल्म कच्चे धागे ;

कच्चे धागे के साथ जिसे बांध लिया जाये।

वो बंदी क्या छूटे वहीं पे जिये वहीं मर जाये।।

कहीं वह भाई बहन के बीच की प्रेम की डोर है तो कहीं उसी धागे में मंगलसूत्र के रूप में किसी पतिव्रता का सुहाग सुरक्षित है ;

जीवन डोर तुम्हीं संग बाँधी क्या तोड़ेंगे इस बन्धन को जग के तूफ़ाँ आँधी …

किसी को एक तरह से धागे में उलझाना अथवा बांधना ही डोरे डालना कहलाता है। हमने बचपन में , स्वेटर बुनते वक्त, फंदे डालना सीखा था, लेकिन खुद ही फंदे में उलझकर रह गए। धागा कमजोर होता है, जबकि डोर मजबूत। एक डोर प्रेम की भी होती है, जिसके आकर्षण में इंसान तो क्या भगवान भी खिंचे चले आते हैं।।

डोरे डालना भी एक कला है, जिस पार्टी अथवा व्यक्ति ने आप पर डोरे डाले होंगे, आपका वोट उधर ही तो होगा। कितनी बार विवाहित महिलाओं की आम शिकायत रहती है, कि फलाना औरत हमारे पति पर डोरे डालती है।

वह डोरे कहां से लाती है, और कब चोरी छुपे इनके पति पर डाल देती है कुछ पता ही नहीं चलता।

क्या ये डोरे अदृश्य होते हैं, और क्या इनको किसी जादू अथवा टोने टोटके से हटाया अथवा डिफ्यूज नहीं किया जा सकता। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई आप पर डोरे डालता है, तब आपकी मति मारी जाती है। यह डोरा क्या कोई नजर है, नजर लागी राजा तोरे बंगले पर। ऐसे कई बंगलों पर इन डोरे डालने वालियों ने कब्जा कर रखा है।।

एक डोर होती है, जो पतंग को आसमान में उड़ाती है।

पतंग यूं ही डोर के सहारे आसमान में नहीं उड़ती, पतंग में पहले सूराख कर कन्नी डाली जाती है, जिसे जोते बांधना भी कहते हैं।

एक बार आसमान में उड़ने के बाद आप जितनी डोर खींचेंगे, पतंग उतनी ही आसमान में ऊंची उड़ती जाएगी।

ऊंचे उड़ने वालों को जमाने की बहुत जल्द नज़र लगती है। कोई दूसरी पतंग आसमान में आई, तो पेंच लड़ाने शुरू। खेल तो पूरा डोर का होता है, लेकिन किसी ना किसी की पतंग तो कट ही जाती है। होते हैं, कुछ लालची लुटेरे, जो कटी पतंग पर भी झपट पड़ते हैं।।

केवल चिकनी चुपड़ी बातों से ही नहीं, अदाओं और लटके झटकों से भी सामने वाले पर डोरे डाले जाते हैं। फिल्म नमूना(1949) का शमशाद बेगम द्वारा गाए इस खूबसूरत गीत को सुनकर आप अंदाज नहीं लगा सकते, रानी जी किसी पर डोरे डाल रही हैं, अथवा डाका ;

टमटम से झांको न रानी जी।

गाड़ी से गाड़ी लड़ जाएगी।।

तिरछी नज़र जो पड़ जाएगी।

बिजली सी दिल पे गिर जाएगी।।

अगर डोरे डालने की खुली प्रतियोगिता हो, तो उसमें इस तरह के गीत (फिल्म समाधि 1950) मोटिवेशन का काम कर सकते हैं ;

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 357 ⇒ पसंद अपनी अपनी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पसंद अपनी अपनी।)

?अभी अभी # 357 ⇒ पसंद अपनी अपनी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

तेरी पसंद क्या है,

ये मुझको खबर नहीं।

मेरी पसंद ये है कि

मुझको है तू पसंद।।

हमने कब किसी की पसंद की परवाह की है, बस जो खुद को पसंद आया, उसी की चिंता की है। जब भी रिश्ते तय होते थे, पहले लड़की देखी जाती थी, वह भी ठोक बजाकर, अगर बुजुर्गों को पसंद आई, तो फिर आपकी बारी आती थी। पति के पहले आप सिर्फ राष्ट्रपति होते थे, आपको तो सिर्फ मोहर लगानी होती थी।

यह तो हुई लड़कों की बात। लड़कियों पर तो बड़े बूढ़ों की बचपन से ही निगाह होती थी। खुद उनकी शादी बचपन में इसी तरह तय जो हुई थी, तेरह, पंद्रह और सत्रह वर्ष बहुत हुए। गुड्डे गुड़ियाओं से खेलने की उम्र में, उनके हाथ भी को पीले कर दिए गए थे।।

समय बदला, युग बदला, परिस्थिति बदली। नौकरी वाले लड़कों की मांग बढ़ने लगी। मास्टरों की तो लॉटरी लग गई। गांव में एक मास्टर की बहुत इज्जत होती थी। उसकी पत्नी भी मास्टरानी कहलाती थी। उधर शहरों में दफ्तर के बाबू तक दहेज मांगने लग गए। लड़की सुखी रहेगी। बाबू की ऊपरी कमाई भी बहुत है। अब तुझे कलेट्टर मिलने से तो रहा। राज करेगी। तब लड़कियों की पसंद कौन पूछता था।

फिर आया सह शिक्षा यानी कोएजूकेशन और कॉन्वेंट/पब्लिक स्कूल का जमाना। लड़कियां भी अंग्रेजी में गिटर पिटर करने लगी। कॉलेज में पांव रखते ही उनके भी पर लग गए। उनकी भी पसंद और नापसंद का खयाल रखा जाने लगा। अच्छे संस्कारी लड़कों की तलाश की जाने लगी। पढ़ लिखकर वे भी अपने पांवों पर खड़ी होने लगी।।

चार युग हमने नहीं देखे, सिर्फ कलयुग देखा है। यहां हर २५ वर्ष में युग बदलता है। पसंद के रिश्ते हों, अथवा तय किए हुए, हमारे समय के रिश्ते आज तक टिके हुए हैं। आर्थिक अभाव, पारिवारिक संघर्ष, आपसी मनमुटाव और लड़ाई झगड़े भी, अगर विवाह की बुनियाद को हिला नहीं पाए तो कैसी पसंद, नापसंद और गिला शिकवा।

७५ वर्ष की उम्र में हमने मानो तीनों युग देख लिए, लेकिन इस कलयुग में सिर्फ मियां बीवी का राजी होना जरूरी है, काहे का काजी और काहे के फेरे, बिन फेरे हम तेरे वाला लिव इन रिलेशन अगर दोनों की पसंद हों, तो फिर आप किसको दोष देंगे।।

हम कौन होते हैं किसी पर अपनी पसंद थौंपने वाले, फिर भी सामाजिक और नैतिक मूल्यों का महत्व ना कभी घटा है और ना कभी घटेगा। विवाह एक पवित्र सामाजिक संस्था है एवं पति पत्नी का संबंध एक आत्मिक और धार्मिक गठबंधन। समय की नाजुकता के मद्दे नजर एक दूसरे की पसंद नापसंद इसमें बहुत माने रखती है ;

जो तुमको हो पसंद

वही बात कहेंगे।

तुम दिन को अगर

रात कहो, रात कहेंगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #231 ☆ ज़िन्दगी समझौता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ज़िन्दगी समझौता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 231 ☆

ज़िन्दगी समझौता है… ☆

‘ज़िन्दगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में मानव को अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का एहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी जीवन का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।

यहाँ हम आधी आबादी की बात न करके सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन-मनन कर के समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसा कि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वहन करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक- दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। उस विषम परिस्थिति में वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर- गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं?’ ये प्रश्न उनके मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियाँ–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।

प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणाम-स्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुँच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।

‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव-स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं। जहाँ तक चुनावों का संबंध है…हमारे नुमांइदे उनके आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं; मस्तिष्क से होता है।

मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियाँ हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उनके सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन: उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं–उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा; वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। उस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।

‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।

सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 356 ⇒ साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे …।)

?अभी अभी # 356 ⇒ साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, हमारे १४० करोड़ की आबादी के देश में लोग अनपढ़ भी हो सकते हैं, और शिक्षित भी।

जो निरक्षर है, उसे आप काला अक्षर भी कह सकते हैं, जो साक्षर है, हो सकता है, वह सिर्फ ढाई अक्षर ही पढ़ा हो, लेकिन हमें सबसे अधिक उम्मीद देश के पढ़े लिखे लोगों से होती है।

फिलहाल हमारी साक्षरता दर ७७ प्रतिशत है, अगर इसे अस्सी भी मान लिया जाए तो बीस प्रतिशत आबादी अभी भी अंगूठा छाप है। निरक्षरता के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन अस्सी प्रतिशत साक्षर आबादी में ही सभी शिक्षित भी शामिल हैं। जनगणना (census) के वक्त ही यह पता चल सकता है कि देश में कितने शिक्षित हैं और कितने साक्षर। हर परिवार में कौन कितना पढ़ा लिखा है, यह जानकारी भी जनगणना के वक्त ही एकत्रित कर ली जाती है।।

फिल्म, टीवी, मोबाइल और अखबारों ने लोगों को पढ़ना, लिखना, बोलना सिखाया है, व्यावहारिक कुशलता का और काम धंधे का वैसे तो पढ़ने लिखने से कोई संबंध नहीं है, फिर भी नौकरियों के लिए हर आदमी को पढ़ना लिखना और डिग्री हासिल करना ही पड़ता है।

हमारे देश में शिक्षा से अधिक कार्य कुशलता पर जोर दिया गया। घर की महिलाएं हों, अथवा कामकाजी पुरुष, लड़कियां गृह कार्य में कुशल होती थीं और लड़के पिताजी के काम धंधे में हाथ बंटाते थे। वैसे भी कभी हमारा देश कृषि प्रधान देश था, और गांवों में ही बसता था।।

आजादी के बाद से ही हमें अपनी वास्तविक स्थिति का पता चल पाया। आज हम चलते चलते यहां पहुंचे हैं। उपयोगिता के आधार अगर देखा जाए, तो शिक्षा की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता।

एक साधारण पुराना पांचवीं अथवा आठवीं पास व्यक्ति आज भी आराम से अपना काम धंधा कुशलता से चला लेता है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी उसे अधिक अधिक शिक्षित होने के लिए बाध्य कर देती है।

सन् ६० और ७० के दशक में, जब हमारी पीढ़ी कॉलेज में पढ़ रही थी, तब देश में बाबुओं की फौज (Clerk generation) खड़ी हो रही थी। कोई  बी.ए., बी.एससी. करके बैंक और एलआइसी ज्वाइन कर रहा था, तो कोई शासकीय सेवक अथवा शिक्षक। लेकिन रिटायर होते होते वे पदोन्नत भी होते गए, और आज अच्छी पेंशन पा रहे हैं। यही नहीं, उन्होंने अपनी मेहनत और पुरुषार्थ से अपनी पीढ़ी को इतना शिक्षित और सक्षम बनाया कि आज वह दुनिया के हर कोने में अपने माता पिता का नाम रोशन कर रही है।।

लेकिन वही बात, पांचों उंगलियां कहां बराबर होती हैं। शहर और महानगरों की चकाचौंध हमेशा सिक्के का एक ही पहलू ही दर्शाती है। एक और तस्वीर भी है देश की बड़ी आबादी की, जिसकी हालत बहुत चिंताजनक है। अशिक्षा, अंधविश्वास, बेरोजगारी, और पिछड़ेपन के शिकार, इन लोगों की बदहाली तक केवल चुनाव प्रचार ही पहुंच पाता है।

इनके ही बहुमत से तो सरकारें चुनी जाती हैं।

एक व्यापारी अथवा दुकानदार जो कम लिखा पढ़ा है, अपने यहां अधिक पढ़े लिखे शिक्षित कर्मचारी को सेवा में रख उसकी योग्यता का दोहन कर सकता है। देश की उत्पादकता वृद्धि में हर मजदूर, किसान, व्यापारी और शिक्षित वर्ग का अपना अपना योगदान है। क्या फर्क पड़ता है, कौन कितना पढ़ा लिखा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “इन सम यह उपमा उर आनी…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी

एक शब्द दो लोग पर अर्थ अलग निकलता है। हमारा व्यक्तित्व उसके साथ जुड़कर उसे  शक्तिशाली बनाता है। जिनकी कथनी और करनी में भेद हो, केवल एक पक्ष को साधते हुए बयानबाजी  की जा रही हो तो शक होना जायज है। जल्दबाजी में दूसरे के शब्दों को कापी कर  स्वयं बढ़चढ़ कर बोलना और हँसी का पात्र बनना। सच तो ये है कि जब दोहरा चरित्र हो तो हास्य के साथ शर्मनाक स्थिति बन जाती है, जिसे सुधारने की नाकाम कोशिश, अनजाने ही उलझन उतपन्न कर देती है। वर्षों से एक ही पदचिन्ह पर चलना और नए युग से तारतम्यता न रख पाना आपको गर्त में धकेल रहा है। जिसे सब कुछ पहले ही मुक्त हस्त से सौंप दिया हो और अब फिर देने की घोषणा करना कहाँ तक उचित है। बंदरबाट की विचार धारा से उन्नति नहीं हो सकती है। जो जिसके योग्य है उसे वो मिलना चाहिए अन्यथा आप के साथ वो भी डूबेगा जिसकी चिंता में आप दिन- रात  एक करते जा रहे हैं।

सत्यराज से सत्यधर्म तक सबको समान अवसर मिलना चाहिए। गुणीजन जब बड़े पदों में बैठेंगे तभी सही निर्णय होंगे। रणनीति बनाने की कला सबको नहीं आती। सही विचारधारा के साथ सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का चिंतन जनकल्याण की दिशा को गति प्रदान करेगा।

आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।

अब पछताए होत क्या? चिड़िया चुग गय खेत।।

हैरानी तो तब होती है जब सलाहकार विदेशी धरती पर बैठकर देश को राह दिखाने की नीतियाँ निर्धारित करता हो। समझदारी को ताक पर रख कुछ भी बोलते जाना क्योंकि जो बोल रहे हैं उसका अर्थ तो सीखा ही नहीं। जिसका जमीनी जुड़ाव नहीं होगा उसे न तो कहावतों  न ही मुहावरों का पता होगा। वो बस लिखा हुआ पढ़ेगा। अरे भई कम से कम ऐसा लिखने वाला तो ढूंढिए जो चने के झाड़ में बैठ कर न लिखता हो, उसे हिंदी और हिन्द के निवासियों के मन की जानकारी हो।

अभी भी समय है जागिए अन्यथा- जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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