हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 309 ⇒ आए गए का घर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आए गए का घर।)

?अभी अभी # 309 ⇒ आए गए का घर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

किसी भी घर की रौनक ही इसी में है, कि वहां मिलने जुलने वाले और रिश्तेदारों का आना जाना बना रहे। किसी घर की घंटी बजना, अथवा घर के सामने जूते चप्पलों का ढेर यह दर्शाता है कि इस घर में काफी चहल पहल है।

वैसे भी घर में खामोशी किसे पसंद है, दीवारें तक कान लगाए सुनती रहती हैं, जिस घर में हमेशा महफिल जमी रहती है।

ऐसे घर को हमारी मां, आए गए का घर कहती थी। जब तक हमारे घर में मां और पिताजी मौजूद रहे, ना तो घर कभी खाली अथवा खामोश रहा और ना ही घर में कभी ताला लगा।।

तब कहां घरों में फोन अथवा मोबाइल थे। कभी कभी तो चिट्ठी के आने के पहले ही मेहमान टपक पड़ते थे लेकिन अधिकतर अतिथि शब्द का मान रखते हुए समय और तारीख बताए बिना ही पधार जाते थे।

पिताजी रात को जब घर आते तो भोजन के वक्त, कोई ना कोई परिचित अवश्य उनके साथ होता। बहन स्कूल से घर आती, तो एक दो सहेलियों को साथ लेकर आती। तब ना तो इतनी मोहल्लों में दूरी थी और ना ही दिलों में। तब शायद सबको प्यास भी बहुत लगती थी, वॉटर बॉटल का तब शायद आविष्कार ही नहीं हुआ था।।

हर तरह की परिस्थिति से घर में तब मां को ही जूझना पड़ता था। अनाज, मसाले और दाल चावल का साल भर का संग्रह जरूरी होता था। मौसम के हिसाब से घरों में एक्सट्रा बिस्तर और रजाई गद्दों की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी। टेंट हाउस की याद तो बस शादी ब्याह के वक्त ही आती थी। किराने और दूध का हिसाब महीने में एक बार करना पड़ता था।

इस तरह की सभी युद्ध स्तर की तैयारियों से सुसज्जित घर ही आए गए का घर कहलाता था। मेहमानों की पसंद का भी पूरा खयाल रखा जाता था। फूफा जी को चावल में घी और शक्कर प्रचुर मात्रा में लगता था और वे पूड़ी ही पसंद करते थे, रोटी नहीं।।

लेकिन यह सब कल की बात है। आज तो मेहमानों के लिए नाश्ता भी बाहर से ही आता है और भोजन भी बाहर होटल में ही किया जाता है। फोन और मोबाइल की सुविधा के बावजूद ना किसी को आने की फुर्सत है और ना ही किसी को बुलाने की।

परिवार छोटे होते जा रहे हैं, घर बड़े होते जा रहे हैं।

छोटे घर में तब कितने सदस्य समा जाते थे, आज आश्चर्य होता है। तब कहां किसी का अटैच बेडरूम और बाथरूम था। घर की महिलाएं अपने कपड़े ताक में रखती थी। आज घरों में सोफ़ा, अलमारी, अपनी अपनी वॉर्डरोब और मॉड्यूलर किचन है, बस खाने वाला कोई नहीं है।।

हंसी आती है, जब धर्मपत्नी पुराने बर्तनों और एक्सट्रा बिस्तरों को आज भी सहेजकर रखती है। वह कहती है, आप नहीं समझते, आए गए के घर में घर घृहस्थी का सभी सामान जरूरी होता है।

बड़ी भोली और घरेलू टाइप की गृहिणी है वह।

अनायास कोई मेहमान आता है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। घर में दावत हो जाती है। लेकिन ऐसे अवसर आजकल कम ही आते हैं। लगता है अपने परिचित कहीं बहुत दूर चले गए हैं, यह दूरी दिलों की है अथवा मजबूरी की, समझ नहीं पाते। कोई आए, जाए, कितना अच्छा लगता है।।

होते हैं कुछ ऐसे खामोश घर, जहां कोई ज्यादा आता जाता नहीं। किसी आहट पर उम्मीद सी बंधती है लेकिन फिर खयाल आता है ;

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा।

मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #162 – आलेख- लिपि की कहानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “लिपि की कहानी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 162 ☆

☆ आलेख – लिपि की कहानी  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  

मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।

क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।

देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।

इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?” 

तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।

मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।

इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।

आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।

चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।

तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।

हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।

इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।

ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।

इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।

इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।

अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।

इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियाँ प्रचलित हैं।

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 308 ⇒ || मुंहफट ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मुंहफट ||”।)

?अभी अभी # 308 ⇒ || मुंहफट ||? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Blunt

बोलचाल की भाषा में मुंह पर जवाब देने वाले को मुंहफट कहते हैं। तो क्या मुंह पर जवाब देना गलत है, मुंह फेरकर जवाब दिया जाए ! हमें जिस जवाब की उम्मीद ही नहीं हो, वे शब्द जब अचानक किसी के मुंह से फट पड़े, तो उसे आप मुंहफट कह सकते हैं। आप किसी की जबान को तो नहीं रोक सकते, लेकिन मुंहफट का तो आप मुंह भी बंद नहीं कर सकते, क्योंकि वह तो खुलते ही फट पड़ता है।

जिसके शब्दों में ही विस्फोट हो, उसे आप मुंहफट कह सकते हैं।

जहां बोलने वाले का मुंह फटता नहीं, सिर्फ खुलता है, लेकिन जब शब्द फूटते हैं, तो सामने वाला अवाक् हो जाता है, उसकी आंखें विस्मय से फटी की फटी रह जाती हैं। आम परिस्थिति में तो पहले फुग्गा पहले फूलता है, लेकिन ज्यादा फुलाने पर फूट जाता है, लेकिन मुंहफट का मुंह तो बिना फूले ही फट पड़ता है।।

ईश्वर ने मुंह बोलने के लिए दिया है, संवाद के लिए दिया है। तर्क वितर्क, वाद विवाद और बहस के लिए दिया है। लेकिन मुंहफट तो आपको बोलने का ही अवसर नहीं देता। यहां सामने वाला अंखियों से गोली नहीं मारता, बिना सोचे विचारे, सीधे मुंह से ही फायरिंग शुरू हो जाती है।

यूं तो मुंहफट के लिए अंग्रेजी में outspoken और blunt जैसे शालीन शब्द हैं, हिन्दी उर्दू में भी बेबाक, बदजुबान, लड़ाका और ढीट जैसे शब्द हैं, लेकिन जो सहज ध्वनि मुंहफट में है, वह किसी और शब्द में नहीं। ऐसा लगता है, मुंह में शब्द रूपी दूध भरा हुआ हो, जो कड़वाहट के कारण फट गया हो और बाहर निकलते वक्त शब्द फटे हुए निकल रहे हों। याद रखिए, शब्द फटेंगे तो आवाज भी करेंगे।।

जो लोग मुंहफट नहीं होते, वे कपड़े फाड़ते हैं।

कपड़ा भी अगर फटेगा तो थोड़ी बहुत आवाज तो होगी ही। कपड़े भी अक्सर खुद के ही फाड़े जाते हैं, दूसरे के नहीं। लेकिन यह कहां की समझदारी है।

इससे तो मुंहफट रहना ही ठीक, क्योंकि मुंहफट के कोई मुंह नहीं लगता।

मुंहफट बनने के लिए हिम्मत लगती है, सारी तमीज और शालीनता को ताक में रखना पड़ता है।

जिनमें इतनी हिम्मत नहीं होती वे मुंहजोरी पर उतर आते हैं। मुंहजोरी में हाथ पांव नहीं चलते, केवल शब्दों के माध्यम से ही शक्ति प्रदर्शन हो जाता है।।

किसी भी मुंहफट का मुंहतोड़ जवाब देना संभव नहीं। और अगर आप अपना संयम त्याग क्रोध में उसका मुंह तोड़ने की बात करते हैं तो आप जैसा नादान कोई नहीं। लोग आप पर ही हंसेंगे क्योंकि मुंहफट का मुंह तो पहले से ही फटा हुआ है..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 307 ⇒ असली चाय वाला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असली चाय वाला।)

?अभी अभी # 307 ⇒ असली चाय वाला? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कॉपीराइट और पेटेंट के इस युग में भी किसी के नाम से उसके पेशे का पता लग पाना इतना आसान नहीं। पान वाला और चाय वाला तो इतना आम है कि उसका कॉपीराइट भी संभव नहीं। हां चाय के पेटेंट ब्रुक बॉन्ड, लिप्टन और वाघ बकरी तो हो सकते हैं, लेकिन डॉ पोहा वाला, पोहा नहीं बेच सकते और डॉ जंगलवाला, शहर में भी रह सकते हैं। हमारे साथ एक मिस बुहारी वाला थी, जिन्हें हम कभी मिस बुहारी वाली कहने की धृष्टता नहीं कर सकते थे।

किसी का नाम बड़ा छोटा हो सकता है, लेकिन कोई पेशा छोटा नहीं होता। बचपन से हम चाय पीते आ रहे हैं और कई चाय वालों से हम सबका वास्ता भी पड़ा है। जिस देश में भिखारी भी पैसे वाले होते हैं, वहां कोई भी पेशा छोटा हो ही नहीं सकता।।

उधर पूरी दुनिया अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट की प्री वेडिंग सेरेमनी में उलझी हुई थी और उधर माइक्रोसॉफ्ट के मालिक बिल गेट्स नागपुर के डॉली के टपरे पर खड़े खड़े चाय की चुस्कियां ले रहे थे। यह ना तो कोई विज्ञापन ही था और ना ही कोई फोटो शूट। सुनील पाटिल उर्फ डॉली चाय (जन्म 1998), वाला क्या इतना प्रसिद्ध हो गया कि बिल गेट्स उसके यहां अचानक चाय पीने चले आए और हमारे डॉली चाय वाले अपने उसी साधारण अंदाज में उसे कांच के ग्लास में चाय पेश करते नजर आएं।

भले ही यह बात इतनी आसानी से हजम नहीं हो, और सीआईडी के दया को इसमें कुछ गड़बड़ भी नजर आए, लेकिन बिल गेट्स के चेहरे पर वही सहज मुस्कान नजर आ रही है, जो हम आम चाय की चुस्कियां लेने वालों के चेहरे पर होती है। और हमारे डॉली महाराज का भी वही अंदाज जो एक आम आदमी के लिए होता है।।

यह तो तय है कि इस हैरतअंगेज तस्वीर से बिल गेट्स का कारोबार कोई छोटा तो नहीं हो जाएगा, लेकिन हां, डॉली चाय वाला, जो पहले से ही लोकप्रिय था, उसकी तो चांदी ही चांदी। एक बेचारे डॉली जैसे चाय वाले की क्या औकात कि वह बिल गेट्स जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती को अपने यहां, डॉली के टपरे पर चाय पर बुलाए।

चुनाव के दिनों में राजनीतिक नेता ऐसे स्टंट करते रहते हैं। लेकिन बिल गेट्स तो मोदी जी के मित्र ट्रम्प भी नहीं, जो यहां आकर इस तरह एक चाय वाले का प्रचार करेंगे। हमें तो बिल गेट्स की चाय में कोई काला नजर नहीं आता। लेकिन हां, वह चाय की पत्ती जरूर हो सकती है।।

सियासत की राजनीतिक पैनी नजर भले ही अभी तक इस डॉली चाय वाले पर नहीं गई हो, लेकिन हमारा चाय वाला दिमाग ऐसा है जो ऐसे मौकों को कभी हाथ से नहीं जाने दे सकता ;

शायद आगामी लोकसभा चुनाव का खयाल

दिल में आया है।

इसीलिए बिल गेट्स को प्रचार के लिए

डॉली के टपरे पे

बुलाया है ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 74 – देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 ☆ देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विविधता वाले हमारे देश में जब हर आठ कोस पर बोली बदल जाती है, तो हर क्षेत्र और प्रदेश की परंपरा भी भिन्न भिन्न होना स्वाभाविक है।

राजस्थान में मरुस्थल बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है। इसलिए खान पान भी वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही होता है।

जयपुर में हनुमान जी का एक प्रसिद्ध स्थान ” खोले के बाला जी” है। यहां वर्षों से लोग अपनी मुरीद पूरी हो जाने पर भगवान को भोग लगा कर प्रसादी वितरण कर पुण्य अर्जित करते आ रहें हैं।

शहर के करीब हो जानें से भीड़ अधिक होना स्वाभाविक है। कुछ माह पूर्व राज्य सरकार ने मंदिर परिसर में “रोप वे” की व्यवस्था करवा दी है। आज हम जब वहां गए तो उसके किराए में सत्तर वर्ष की आयु पर छूट की जानकारी थी। हमने भी मानस बना लिया दो वर्ष बाद आकर इस सुविधा का लाभ अवश्य लेंगे।

यहां पर 24 रसोइयां हैं, और एक समय में पांच हज़ार भक्त प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

आज रविवार का दिन होने पर भी भीड़ कम दिखी, तब दिमाग के घोड़े दौड़ाए तो ज्ञात हुआ कि पेट्रोल पंप वाले हड़ताल पर हैं। हम मित्र तो कार में बैठने की शत प्रतिशत सुविधा का उपयोग कर शहर की आबो हवा को दुरस्त रखने में तो विश्वास करते ही है,साथ ही साथ अपने लाभ के हित भी साध लेते हैं।

आज के कार्यक्रम में अकेले ही जाना पड़ा क्योंकि श्रीमती जी अस्वस्थ है, हमने भी मौके का लाभ लिया और पेट भर कर दाल बाटी और तीन प्रकार के चूरमा का दबा कर सेवन किया, श्रीमती जी साथ रहती है, तो शुगर रोग के नाम से मीठे और मोटापे में वृद्धि को नियंत्रण में रखने के बहाने प्रतिबंध लगा देती हैं।

परिवर्तन पारंपरिक भोजन में भी हुआ हैं। धार्मिक आयोजनों में चावल भी परोसे जाना लगा है। कुछ दिन पूर्व एक गुरुद्वारे में लंगर प्रसाद ग्रहण किया वहां भी चावल परोसे जा रहे थे। पूर्व में सिर्फ गेंहू की रोटी ही होती थी। वहां एक बजुर्ग सिक्ख से इस बाबत बातचीत हुई तो उन्होंने बताया की पांच दशक से पंजाब में भी चावल की खेती बहुत बड़े स्तर पर होने से चावल अब दैनिक भोजन का हिस्सा बन गया हैं।

आप जब भी कभी “खोले के हनुमान” में प्रसादी करवाएं,तो हमें अवश्य याद रखियेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # 4 ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

सुश्री बसन्ती पवांर

परिचय

नाम:- सुश्री बसन्ती पवांर

जन्म:- 5 फरवरी, 1953 (बसन्त पंचमी), बीकानेर

शिक्षा:- एम. ए. (राजस्थानी भाषा),  बी. एड. 

व्यवसाय:-’निरामय जीवन’’ एवं ’’केन्द्र भारती’’ मासिक पत्रिका जोधपुर के प्रकाशन विभाग कार्यालय में (अवैतनिक) कार्यरत, रिटायर्ड वरिष्ठ अध्यापिका ।

जुड़ाव:- महिलाओं की साहित्यिक संस्था ’’सम्भावना’’ की उपाध्यक्ष, ’’खुशदिलान-ए-जोधपुर’’, व अन्य संस्थाओं की सक्रिय सदस्य ।

राजस्थानी भाषा में प्रकाशित कृतियां

1.’‘सौगन‘’-1997, (दूसरा संस्करण-2022)  2. ’’अैड़ौ क्यू?’’-2012 (दो उपन्यास) 3 .’’जोऊं एक विस्वास’’-2018 (कविता संग्रह) 4. ’’नुवौ सूरज’’-2017 (कहानी संग्रह) 5. ’’खुशपरी’’-2022 (बाल कहानी संग्रह) 6. ’’धरणी माथै लुगायां’’-2022 (हिन्दी से राजस्थानी में अनूदित काव्य संग्रह) 7. ’’इंदरधनख’’ (संपादित गद्य संग्रह)-2022 8. ’’हूंस सूं आभै तांई’’ (अनुवाद हिन्दी से राजस्थानी में-संस्मरणात्मक निंबध)-2023 9. ’’राधा रौ सुपनौ’’ (कहानी संग्रह)-2023 10 ’’चूंटिया भरुं ?’’ (व्यंग्य संग्रह)-2023 11. ’’कमाल रौनक रौ’’ (बाल कहानी संग्रह)-2023

राजस्थानी भाषा में प्रकाशनाधीन कृतियां

1. एक कविता संग्रह उपनिषद का राजस्थानी भाषा में अनुवाद 3. हिन्दी से राजस्थानी शब्दकोष 4. मोनोग्राफ  

हिन्दी भाषा में प्रकाशित कृतियां

1. ’’कब आया बसंत’’-2016 (कविता संग्रह) 2. ’’नाक का सवाल’’-2019 (व्यंग्य संग्रह) 3. ’’नन्हे अहसास’’-2019 (काव्य संग्रह) 4. ’’तलाश ढाई आखर की’’-2023 (कहानी संग्रह) 5. ’’फाॅर द सेक आॅफ नोज’’ ’’नाक का सवाल’’ का अंग्रेजी में अनुवाद-2022, ’’अपना अपना भाग्य’’ (राजस्थानी आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद) – 2023. 7. ’’संस्कारों की सौरभ’’ (पत्र शैली में बाल निबंध । पं. जवाहरलाला नेहरु, बाल साहित्य  अकादमी, राजस्थान द्वारा प्रकाशित)

हिन्दी में प्रकाशनाधीन कृतियां

1. ’’प्यार की तलाश में प्यार’’ (उपन्यास) 2. एक व्यंग्य संग्रह, ’’अहसासों की दुनिया’’ (काव्य संग्रह) 4. एक काव्य संग्रह

राजस्थानी और हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं / साझा संकलनों में कहानियां, कविताएं, लेख, व्यंग्य, लघुकथाएं, संस्मरण, पुस्तक समीक्षा आदि का लगातार प्रकाशन ।

आकाशवाणी जोधपुर, जयपुर दूरदर्शन से वार्ता, कहानी, कविता, व्यंग्य आदि का प्रसारण । राजस्थानी भाषा के ’’आखर’’ कार्यक्रम (जयपुर) में और जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर, राजस्थानी विभाग के ’गुमेज’ कार्यक्रम में भागीदारी  ।

विशेषः-राजस्थानी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार एवं दूसरी व्ंयग्यकार ।

यूट्यूब पर ’’मैं बसंत’’ नाम से चेनल ।

पुरस्कार और सम्मान – 50 से अधिक प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार एवं सम्मान से सम्मानित।

☆ कहाँ गए वे लोग # 4 ☆

☆ गुरुभक्त : कालीबाई सुश्री बसन्ती पवांर  

राजस्थान के इतिहास में देश सेवा के विभिन्न कार्यों में सिर्फ पुरुष और महिलाओं ने ही अपने नाम दर्ज नहीं करवाए हैं बल्कि बालिकाएं भी किसी क्षेत्र में पीछे नहीं रही हैं, उन्हीं में से एक नाम कालीबाई का है ।

गांव रास्तापाल, जिला डूंगरपुर राजस्थान की पहचान ’अमर शहीद वीर बाला कालीबाई’ के नाम से की जाती है । आदिवासी समुदाय के भील सोमा के घर इसका जन्म जून 1935 ई. में माता नवली की कोख से हुआ जिसने मात्र 12 वर्ष की आयु में 19 जून 1947 को जागीरदारों व अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध बहादुरी की एक शानदार मिसाल कायम कर आदिवासी समाज में शिक्षा की अलख जगाई ।

बलिदान की इस घटना के समय डंूगरपुर रियासत के शासक महारावल लक्ष्मण सिंह थे और वे अंग्रेजों की हुकूमत की सहायता से अपना राज्य चलाते थे । उस समय के महान समाजसेवी श्री भोगी लाला पंड्या के तत्वावधान में एक जन आंदोलन चलाया गया जो समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने तथा शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य करने लगा । डूंगरपुर रियासत के गांव-गांव में क्षेत्रियस्तर पर स्कूल खोले गए उनमें भील, मीणा, डामोर और किसान वर्ग के बालकों को शिक्षा दी जाती थी ।

जब महारावल को पता चला तो उन्होंने तथा उनके सलाहकारों ने सोचा कि यदि ये बालक शिक्षित हो गए तो बड़ी परेशानी हो जाएगी क्योंकि ये अपना अधिकार मांगने लगेंगे । इस सोच के चलते लक्ष्मण सिंह ने स्कूल बंद करवाने के लिए सन् 1942 में कानून बनवाया और मजिस्ट्रेट नियुक्त किये । वे जहां-जहां भील, मीणाओं के बालक पढ़ते थे, उन स्कूलों को बंद करवाने लगे इसके लिए पुलिस और सेना की मदद भी ली गई । इसी के तहत रास्तापाल की स्कूल बंद करवाने के लिए एक मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक तथा ट्रक भर कर पुलिस व सैनिकों को उस गांव में भेजा गया ।

रास्तापाल में नानाभाई खांट, गांव के बालकों को अपने घर बुलाकर शिक्षा देते थे। स्कूल में इनका सहयोग देने के लिए गांव के बेड़ा मारगिया के सेंगाभाई भी अपनी सेवा देते थे । स्कूल के सभी खर्च नानाभाई वहन करते थे । राजकीय आदेश के बावजूद भी यहां पढ़ाई जारी थी । 19 जून 1947 को जब पुलिस यहां पहुंची तब दोनों वहां मौजूद थे । पुलिस नै उन्हें मारना शुरु कर दिया । नानाभाई को स्कूल में ताला लगाने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया । चाबी नहीं देने पर सैनिकों उनको ट्रक के पीछे रस्सी से बांध कर घसीटने लगे । रस्सी का एक सिरा सेंगाभाई की कमर से बंधा था और दूसरा ट्रक से । पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई । सेंगाभाई अपने लोगों को आवाज लगाते रहे मगर सभी को डर के मारे सांप सूंघ गया ।

तभी अचानक सिर पर घास की गठरी और हाथ में दांतली लिए बिजली की तरह एक 12 वर्ष की बालिका ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया, उस भीड़ को चीरते हुए हुए उसने पूछा कि ये सब किसके आदेश पर हो रहा है ? जब बालिका को सभी बातों का पता चला तो उसने कहा कि सबसे पहले मुझे गोली मारो । और साथ ही वह गाड़ी के पीछे दोड़ पड़ी, उसका खून खौल उठा । पुलिस ने उसे बहुत डराया धमकाया मगर उसने उनकी एक सुनी, अपनी दांतली से उसने रस्सी को एक ही झटके में काट दिया, पुलिस वाले अपनी बंदूकें तानें खड़े थे मगर कालीबाई को गोलियों की कोई परवाह नहीं थी ।

यह तेज और हट देखकर पुलिस को बहुत क्रोध आया । सैनिकों ने उस नन्ही बालिका पर गोलियों की बौछार कर दी । कालीबाई ने अपना जीवन गुरुजी के लिए बलिदान कर दिया । हमेंशा के लिए अमर हो गई । अपने गुरु को बचाकर, उसने गुरु-शिष्य की इस दुनिया में एक अलग पहचान कायम की । 

गुरु-शिष्य के ऐसे अनूठे उदाहरण इतिहास में बहुत कम ही मिलेंगे । नन्ही कालीबाई को शत-शत नमन ।

© सुश्री बसन्ती पंवार

संपर्क –  90, महावीरपुरम, चौपासनी फनवल्र्ड के पीछे, जोधपुर (राज.) – 342008 मो-9950538579

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 306 ⇒ बुढापे की लाठी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बुढापे की लाठी।)

?अभी अभी # 306 ⇒ बुढापे की लाठी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

walking stick

गिरधर कविराय ने लाठी में जितने गुण बताए हैं, उसमें उन्होंने न तो बुढ़ापे का जिक्र किया है और न ही किसी दृष्टिहीन व्यक्ति का।

यानी कविवर शायद लठैत किस्म के व्यक्ति रहे हों, अधिकतर प्रवास पर रहे हों और उन्हें कुत्तों से अधिक डर लगता हो। बैलगाड़ी के जमाने में कवियों की दृष्टि भी नदी नालों के आगे नहीं जा पाती थी। लाठी उनके लिए कभी एक हथियार था तो कभी मात्र एक सहारा।

भले ही युग बदल जाए, लेकिन इंसान कुत्ते के पीछे लठ लेकर दौड़ना नहीं छोड़ेगा।

आजकल लाठी का नहीं, छड़ी का युग है। बुढापे की लाठी का उपयोग अब उम्र के हर पड़ाव पर होने लग गया है। लाठी को अगर सहारा कहें तो मन को अधिक सुकून मिलता है। बूढ़े आजकल सीनियर सिटीजन कहलाते हैं और अंधे को तो आप दृष्टिहीन भी नहीं कह सकते, क्योंकि आजकल वे भी दिव्यांग परिवार के सदस्य हो गए हैं। अब इस दुनिया में कोई असहाय, वृद्ध, अपाहिज, मूक बधिर, अथवा सूरदास नहीं।।

कोई व्यक्ति नहीं चाहता, उसे कभी लाठी का सहारा लेना पड़े। पहले घर परिवार ही इतने बड़े होते थे कि बच्चे ही बुढ़ापे की लाठी हुआ करते थे। यह एक ब्रह्म सत्य है, जब बच्चे छोटे होते हैं, तो बड़े ही उनका सहारा होते हैं। बड़ों की उंगली पकड़कर ही तो पहले चलना सीखते हैं और बाद में अपने पांवों पर खड़े हो जाते हैं।

जिस तरह बचपन के बाद जवानी आती है, जवानी के बाद तो बुढ़ापा ही आना है। उंगली वही रहती है, लेकिन कंधे और कमर अब वैसी नहीं रहती। अगर किसी इंसान का सहारा नहीं, तो छड़ी मुबारक। हमें तो लाठी उठाए बरसों बीत गए।

राजनीति में कल जिसके पास सिर्फ लाठी थी, उसने आज भैंस भी पाल ली है।।

जिस तरह दिन और हालात बदलते हैं, उसी तरह बुढ़ापे और लाठी की परिभाषा भी बदल चुकी है। आखिर लाठी क्या है, आलंबन, विकल्प अथवा सहारा ही न ! और बुढ़ापा क्या है, बाल सफेद होना, दांत गिरना और आंखों से कम दिखाई देना। मुझे कम दिखाई देता है तो मैं लाठी नहीं ढूंढता, अपना चश्मा ढूंढता हूं। मेरा चश्मा ही मेरे लिए लाठी है।

बस इसी तरह सफ़ेद बाल की मुझे चिंता नहीं, रोज डाय करता हूं, बत्तीसी बाहर हुई नहीं कि, डेंचर मौजूद है। पेंशन क्या किसी लाठी से कम है। ये सब ही तो मेरे बुढ़ापे की असली लाठी हैं। जिसका पांव नहीं, वहां जयपुर फुट ही बुढ़ापे की लाठी का काम करता है। नाच मयूरी।।

लेकिन इतना सब होने के बावजूद मेरी असली बुढ़ापे की लाठी तो आज भी मेरी धर्मपत्नी ही है। वह कभी मेरा सहारा है तो कभी मैं उसका आलंबन।

कहीं कोई बेटा अपनी मां की लाठी है तो कहीं कोई पोता अपने दादा जी की लाठी।

जीवन के किस मोड़ पर हमें किस लाठी की आवश्यकता पड़ जाए, कुछ कहा नहीं जाता। सहारा लें, तो किसी को सहारा दें भी। लाठी में कर्ता भाव नहीं होता सिर्फ सेवा भाव होता है। लाठी ही सहारा है, सहारा ही ईश्वर है। एक सहारा तेरा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वर्ग और नरक…. ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख ‘स्वर्ग और नरक….’।)

☆ आलेख – स्वर्ग और नरक…. ☆

मेरे विचार….

जिन्दगी जिंदा दिली का नाम है, 

मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं,,

सच है, जब तक जिंदगी है, इसे सुख से जियो, मुस्करा कर जियो, हंसते खेलते जिओ, स्वर्ग नर्क मात्र कल्पना है, ऐसा कुछ नहीं है, मृत्यु के बाद की दुनिया किसी ने नहीं देखी है,  ना ऊपर कोई स्वर्ग है, ना कोई नर्क है, जिंदगी में अगर सुख है, दुख है,  तो वह आपके कर्म की ही देन है, इसलिए जब तक जीवन जीते हो,  इसका पूरा आनंद लो, जीवन को, आरामदायक बनाने के लिए, सुख सुविधा एकत्रित करो, और उसके लिए, मेहनत कर अपनी आमदनी बढ़ाओ,  जो कुछ कमाओ,  उसे अपने लिए और अपने परिवार के लिए खर्च कर दो, अगली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखने का कोई औचित्य नहीं है, अगली पीढ़ी आपकी संपत्ति को खर्च करेगी, या नष्ट करेंगी, कोई भरोसा नहीं, ना आप देखने आओगे, इसलिए खुशी में तो खुश रहो, और दुख में भी खुश रहो, आपका  अस्तित्व तब तक ही है जब तक आप जिंदा है,, मृत्यु के बाद तो सब मिट्टी है।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 230 – पुनर्पाठ- विश्वास से विष-वास तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 230 ☆ पुनर्पाठ- विश्वास से विष-वास तक ?

एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया-  कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?

चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।

अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था।  महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप  नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था।  कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।

एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।

कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी,  अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत:  गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद  फिर जमा करा दीजिएगा।”  उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!

सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।

आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 306 ⇒ भाषा और व्याकरण… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाषा और व्याकरण।)

?अभी अभी # 306 ⇒ भाषा और व्याकरण? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना जरूरी है, कार चलाना सीखने के लिए स्टीयरिंग पर बैठना जरूरी है, उसी तरह किसी भी भाषा को सीखने के लिए उस भाषा के व्याकरण का ज्ञान होना जरूरी है। केवल एक मातृभाषा ही ऐसी है, जो बिना व्याकरण के भी आसानी से बोली और समझी जा सकती है। लेकिन अक्षर ज्ञान के लिए तो उसका भी अध्ययन आवश्यक हो जाता है।

हिंदी भाषी प्रदेशों में एक समय आठवीं कक्षा तक चार विषय अनिवार्य थे, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और गणित। गणित तो अक्षर ज्ञान से ही शुरू हो जाता था, गिनती पहाड़ा, गणित नहीं तो और क्या है। जोड़, बाकी, गुणा, भाग से वैसे भी जीवन में कौन बच पाया है। अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित। गणित से हमारा जबरन का प्रेम केवल आठवीं कक्षा तक ही कायम रह पाया। पतली गली से निकलने के लिए हमने गणित की जगह बायोलॉजी का दामन थाम लिया, लेकिन फिजिक्स और केमिस्ट्री से फिर भी पीछा नहीं छुड़ा सके।।

उधर संस्कृत भी हमारा ज्यादा साथ नहीं दे पाई। ले देकर अब केवल हिंदी और अंग्रेजी ही बची। हिंदी व्याकरण की किसी भी किताब का नाम आज हमें याद नहीं, लेकिन अंग्रेजी में wren की ग्रामर हमारे लिए किसी बाइबल से कम नहीं थी। Walk, talk और chalk के उच्चारण में एल साइलेंट रहता था। वही हालत should, would और could की थी। उधर जिस शब्द का पहला अक्षर a, e, io, अथवा u से शुरु होता था, वहां a की जगह an लग जाता था।

an ass, an enemy, an ink pot, an ox और an umbrella का विशेष ख़्याल रखना पड़ता था।

इतना ही नहीं बहुवचन के लिए कहीं क्रिया में S लग जाता था तो कहीं SS.

Chair अगर chairs होती थी तो dress, dresses हो जाती थी। निमोनिया, और सायकोलॉजी में silent P की प्राण प्रतिष्ठा पहले ही हो जाती थी।

अच्छे भले पड़ोसी को अंग्रेजी में neighbour कहते थे और मजदूर को labour. हमें अधिक परिश्रम तो नेबर लिखने में होता था बनिस्बत लेबर के।।

एक बार तो हद हो गई। अंग्रेजी में तब हाथ बहुत तंग था। एक रिश्तेदार शिक्षक हमें आगे साइकिल के डंडे पर बिठाकर ले जा रहे थे(तब हम इतने छोटे थे) और हमें कुछ समझा रहे थे। अचानक उन्होंने एक अंग्रेजी शब्द का प्रयोग कर दिया, understood ? हम कुछ समझ नहीं पाए। चलती गाड़ी में नीचे उतरने की बात हमारे गले नहीं उतरी, क्योंकि आसपास नीचे कोई खड़ा हुआ भी नहीं था। हमने स्पष्ट कह दिया, हम understood का मतलब ही नहीं समझे।

आज इच्छा होती है, कहीं से संस्कृत की अभिनवा पाठावली: और wren की ग्रामर मिल जाए, अंग्रेजी कविताओं की The Golden Treasury मिल जाए तो तब जो नहीं पढ़ पाए, आज वह फुरसत में पढ़ पाएं, क्योंकि आज गणित के अलावा किसी अन्य विषय से कोई डर नहीं लगता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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