(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 225☆ देह से हूँ
समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?
इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।
मंथन और विवेचन यहीं से आरंभ होते हैं। स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है। विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।
मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु (संन्यासी के अर्थ में) होना अपवाद है, असाधु रहना परंपरा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।
एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।
समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।
जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।
इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।
प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर स्वयं को देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जाति और राजनीति…“।)
अभी अभी # 265 ⇒ जाति और राजनीति… श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो जाति कहीं आती जाती नहीं, लेकिन यह जहां भी होती है, इसके आसपास राजनीति को आसानी से देखा जा सकता है। जो राज करने की नीति को प्रभावित करे, उसे जाति कहते हैं।
अगर जाति का मूल वर्ण में है, तो राजनीति का मूल जाति में।
जात न पूछो साधु की, हरि को भजे सो हरि का होय।
यही हाल राजनीति का भी है। राजनीति में भी किसी की जाति नहीं पूछी जाती। राजनीति में एक वर्ग कार्यकर्ता का होता है, जिसकी उपयोगिता ही उसकी जाति होती है। जब भी सामाजिक एकता और वर्ग चेतना का जिक्र होगा, राजनीति में उसके योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता।।
लोकतंत्र में मूल रूप से एक आम आदमी को दो ही वर्गों में बांटा जा सकता है, अमीर और गरीब। कोई कितना अमीर है और कौन कितना गरीब, यह उसकी आमदनी पर निर्भर करता है। ईश्वर ने भी शायद दो ही जात बनाई होगी, अमीर जात और गरीब जात। लेकिन आखिर वर्ण व्यवस्था भी तो कोई चीज है। बताओ तुम कौन जात।
राजा अपनी प्रजा में भेदभाव नहीं कर सकता। ईश्वर भी पहले गरीब और दुखी की ही सुनता है। जो जितना वंचित और शोषित है, वह उतना ही अधिक सुविधा का पात्र है। जब अगलों, पिछड़ों से बात नहीं बनती, तो उन्हें भी विशेष वर्ग में बांटा जाता है। जरा देश की जनसंख्या और वंचित और शोषित का अनुपात देखिए।।
अगर पिछड़ों में भी सिर्फ ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्ग की चर्चा करें, तो भारत की जनसंख्या में इनका अनुपात 40 % से कम नहीं। इनके उत्थान के लिए सरकारें सदा प्रयासरत रही हैं। वास्तव में इनका ऊपर उठना ही देश का ऊपर उठना है।
जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर, जब तक यह वर्ग समाज के अन्य वर्ग से कंधे से कंधा मिलाकर आगे नहीं बढ़ेगा, हमारा विकास अधूरा ही रहेगा। अमीर गरीब और गांव और शहर के बीच बढ़ती खाई को आखिर कभी ना कभी तो कम से कमतर करते हुए पाटना पड़ेगा।।
अब तो अयोध्या में प्रभु श्री राम भी बिराज गए। तुलसी के राम तो वही धनुष बाण वाले वनवासी राम हैं, और उनकी अयोध्या में तो राम जी की पादुका ही सिंहासन पर विराजमान है और सेवक भ्राता भरत महाराज अपनी कुटिया से ही रामकाज और राजकाज को समर्पित है। जाति की राजनीति तो प्रजा ने देख की, अब त्याग और समर्पण की राजनीति भी राम जी की कृपा से देखने को मिलेगी। केवट, निषाद सहित सभी वनवासी बड़े हर्षित हैं। आखिर शबरी के प्रभु श्री राम जो अयोध्या पधारे हैं ..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश…“।)
अभी अभी # 264 ⇒ गुमशुदा की तलाश… श्री प्रदीप शर्मा
एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय विनोद, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।
लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।
तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।
तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।
गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।
हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।
कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।
होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।
सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं। चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।
और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।
डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 216 ☆
☆ यह भी गुज़र जाएगा… ☆
‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।
‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।
समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।
ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।
आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चांदी जैसे बाल…“।)
अभी अभी # 263 ⇒ चांदी जैसे बाल… श्री प्रदीप शर्मा
पहले पंकज उधास की इस ग़ज़ल पर गौर कीजिए ;
चांदी जैसा रूप है तेरा
सोने जैसे बाल।
एक तू ही धनवान है गौरी
बाकी सब कंगाल।।
यह कोई शायर है या बनिया, जो केवल अपनी प्रेयसी में सिर्फ सोना चांदी ही ढूंढता फिर रहा है। अरे भाई चांदी जैसा रूप तो फिर भी ठीक है, लेकिन सोने जैसे बाल, यह कौन सी उपमा है। रेशमी जुल्फ तो फिर भी ठीक है। वैसे आम पुरुषोचित पसंद तो काले लंबे लहराते बाल ही होती है। ऐसी चांदी सोने वाली धनवान टकसाल किसी पेशेवर जौहरी की ही हो सकती है, हम आप जैसे सादगी पसंद पारखी निगाहों की नहीं।
रूप की छोड़िए, लेकिन बाल तो काले और सफेद ही होते हैं। वैसे तो सफेद बाल में भी कोई बुराई नहीं, लेकिन न जाने क्यों, लोगों को काले बालों में जवानी नजर आती है। केश श्रृंगार पर केवल महिलाओं का ही नहीं, पुरुषों का भी बराबरी का अधिकार है। क्या कोई बताएगा, पहले ब्यूटी पार्लर आए अथवा पहले केश कर्तनालय।।
मैं बालों में सिर्फ तेल लगाता हूं, नवरत्न तेल को छोड़कर कोई सा भी, क्योंकि वह बहुत ठंडा और महंगा होता है। शैंपू, मेंहदी और हेयर डाई से मैं कोसों दूर हूं। अतः मेरे सर में जितने भी बाल हैं, वे गोरे अधिक और काले कम हैं। एक समय था, जब मैं सर में सफेद बाल ढूंढा करता था, आजकल मुझे काले बालों की तलाश है।
आज भी जब मैं चांदी जैसे सफेद घने बालों वाले सीनियर सिटीजन्स को देखता हूं, तो मुझे उनके व्यक्तित्व में वह आभा नजर आती है, जो जवानी में नदारद थी। सफेद बाल नियति है, इससे आप कब तक बच सकते हैं। लेकिन हां, अगर आपके सर पर ही चांद है, वहां फिर चांदनी को कौन पूछेगा।।
यानी कहीं चांदी तो कहीं चांद ! चांद की भी सभी कलाएं आप पुरुष के सर पर देख सकते हैं। कहीं यह मस्तक से शुरू होती है तो कहीं ठीक सहस्रार से।
सहस्रार को बोलचाल की भाषा में टक्कल भी कहते हैं। इसी टक्कल से टकला शब्द भी बना है। अफसोस, टकले और गंजे के अलावा इन चांद से मुखड़ों वालों के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं। फिर भी लोग इन्हें भाग्यशाली मानते हैं। चिंतक, विचारक, संत महात्मा और साहित्यकारों की तो छोड़िए, आजकल गंजा रहना भी युवाओं का फैशन हो गया है। जब फसल ही कम हो, तो उससे तो सफाचट मैदान ही क्या बुरा है।
सेमि लिटरेट की तरह मैं आधा गंजा और आधा सफेद बालों वाला हूं, यानी आज भी मेरे सर में सफेद और काले बालों की खेती
होती है। कुछ जमीन यकीनन बंजर है, लेकिन वह दूर से नजर नहीं आती। वैसे मुझे बालों से कोई विशेष प्रेम नहीं है, फिर भी मेरी यही मंशा है कि मेरे सभी बाल चांदी जैसे हो जाएं। खिचड़ी बाल अथवा उड़ते बाल को आखिर कोई तो मंजिल मिले।।
जितने बाल हैं, उन्हें ही संवारना है, रोज सुबह आईने में बाल बनाते वक्त निहारना है। जब तक बाल हैं, केश कर्तनालय भी जाना है। सोचता हूं, कोई ऐसा हेयर डाई तलाश लूं, जो जल्द सभी बाल सफेद कर दे, इसके पहले कि सर में कैंची चलाने लायक बाल भी ना बचे।
कुछ पुरानी प्रसिद्ध अभिनेत्रियों को आज देखता हूं, तो बड़ी तसल्ली होती है। इश्क और उम्र, छुपाए नहीं छुपती, फिर इन उड़ते और सफेद बालों की इतनी चिंता क्यूं। सुना है, अधिक चिंता से बाल ही नहीं उड़ते, उम्र से पहले ही बुढ़ापा भी आ धमकता है। पचहत्तर प्लस के बाद वैसे भी माइनस कुछ नहीं बचता। या तो चांदी जैसे बाल, या पूरा चांद, सब कुछ कुबूल।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शोभा सिंधु न अंत रही री…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 180 ☆ शोभा सिंधु न अंत रही री… ☆
वर्तमान कब भूत में बदल जाता है, पता नहीं चलता पर अभी भी बहुत से लोग पुराना राग अलाप रहे हैं, आज के तकनीकी युग में जब हर पल स्टेटस व डी पी बदली जा रही है तब व्यवहार कैसे न बदले पर कुछ भी हो नेकी व सच्चाई नहीं छोड़नी चाहिए हम सबको अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक रहना चाहिए।
तेजी से बदलती दुनिया में कुछ भी तय नहीं रह सकता ….
कल के ही अखबार आज नहीं चलते ये बात सुविचार की दृष्टि से, प्रतियोगी परीक्षार्थी की दृष्टि से तो सही है परन्तु व्यवहार यदि पल- पल बदले तो उचित नहीं कहा जा सकता है।
खैर जिसको जो राह सही लगती है, वो उसी पर चल पड़ता है। कुछ ठोकर खा कर संभल जाते हैं; कुछ दोषारोपण करके अलग राह पर चल पड़ते हैं। वक्त रेत के ढेर की तरह फिसलता जा रहा है, कर्मयोगी तो इसे अपने वश में कर लेते हैं परन्तु जो कुछ नहीं करते वे दूसरों के ऊपर आरोप- प्रत्यारोप करने में समय व्यतीत करते रह जाते हैं। इस दुनिया में सबसे मूल्यवान समय है, उसका सदुपयोग आपको रंक से राजा व दुरुपयोग राजा से रंक बनाने की क्षमता रखता है।
आप जिस भी क्षेत्र में कार्य करते हों वहाँ पर ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वाहन करें यदि वो भी न बनें तो कम से कम आलोचक न बनें क्योंकि निंदक नियरे राखिए आज भी प्रासंगिक है पर वो सार्थक तभी होगा जब निंदक ज्ञानी हो, उसमें निःस्वार्थ का भाव हो, सच्ची निंदा ही पथप्रदर्शन का कार्य कर सकती है और निंदक मार्गदर्शक का।
जब आप किसी के लिए उपयोगी हों तो विरोधी होने पर भी लोग आपका सम्मान करेंगे, मीठे वचनों की शक्ति से तो सभी परिचित हैं। कहावत भी है बातन हाथी पाइए बातन हाथी पाँव अर्थात आप अपनी अच्छी वाणी के बल पर उपहार में हाथी, धन संपदा, वैभव सब प्राप्त कर सकते हैं जबकि कड़वे वचनों से सजा स्वरूप हाथी के पाँव के नीचे भी पहुँच सकते हैं।
लोगों का लगाव हमेशा ही अच्छे गुणों से होता है ये ही आपकी सच्ची पूँजी है जो आपके बाद भी लोगों के साथ बनी रहती है। नेकी कभी व्यर्थ नहीं जाती इसका फल मिलता ही है कई गुना वापस होकर तो क्यों न इस पूँजी का संचयन करे अपने व अपनों के लिए।
एक तरफ जहाँ किसी के भी कार्यों का मूल्यांकन बहुत सहज होता वहीं स्वमूल्यांकन अत्यन्त कठिन क्योंकि दूसरों से कार्य करवाने में तो हम सभी माहिर होते हैं, जबकि खुद से कार्य नहीं करवा पाते जो भी लक्ष्य निर्धारित करते हैं उसमें आने वाली बाधाओं से डर कर रास्ता बदल देते हैं।
जो कुछ करना चाहता है, उसकी राहें स्वयं बनने लगतीं हैं। हर व्यक्ति अपने अनुसार चलना और चलाना चाहता है पर मजे की बात सामंजस्य नहीं चाहता। ये सब तो चलता रहेगा। अब समय है मर्यादा पुरुषोत्तम के पदचिन्हों पर चलने का। रामलला के विग्रह को देखकर ये पंक्ति जीवंत हो उठती है…
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – अयोध्या… त्रेता से भविष्य तक…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 256 ☆
आलेख – अयोध्या… त्रेता से भविष्य तक…
भारतीय मनीषा में मान्यता है कि देवों के देव महादेव अनादि हैं। उन्हीं भगवान् सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं। भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे पहले शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये, जिसे सृष्टि संचालन का भार सौंपा जा सके। ऐसा निश्चय करके शक्ति अम्बिका और परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भाग पर अमृत स्पर्श कर एक दिव्य पुरुष का प्रादुर्भाव किया।
पीताम्बर से शोभित चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित उस दिव्य शक्ति पुरुष ने भगवान् शिव को प्रणाम किया। भगवान् शिव ने उनसे कहा- ‘ हे वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्य होगा। भगवान् शिव की इच्छानुसार श्री विष्णु कठोर तप में निमग्न हो गये। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगो से जल धाराएँ निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने उसी जल में शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही श्री विष्णु का एक नाम ‘नारायण’ हुआ। तदनन्तर नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। भगवान् शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर उन्हें स्थापित कर दिया। महेश्वर की माया से मोहित ब्रह्मा जी कमल नाल में भ्रमण करते रहे, पर उन्हें अपने उत्पत्तिकर्ता का पता नहीं लग रहा था। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने पर ब्रह्माजी ने बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। आदि शिव ने प्रकट हो भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा जी से कहा -‘ हे सुर श्रेष्ठ ! आप पर जगत् की सृष्टि का भार रहेगा तथा हे प्रभु विष्णु ! आप इस चराचर जगत् के पालन व्यवस्था हेतु सारे विधान करें। इस प्रकार भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार की भूमिका के निर्वाह में कर्ताधर्ता हैं। भागवत के अनुसार भगवान विष्णु को जग की व्यवस्था बनाये रखने के लिये दशावतार की पौराणिक मान्यता है। भगवान विष्णु अपने सातवें अवतार में त्रेता युग में स्वयं मर्यादा पुरोषत्तम श्री राम के रूप में इस धरती पर मनुष्य रूप में आये। इसके उपरांत द्वापर में श्री कृष्ण के और फिर बुद्ध के रूप में भगवान का अवतरण हो चुका है। ग्रंथों के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु अपने दसवें अवतार में कल्कि रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग का पुनः संधिकाल होगा। कल्कि देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर संसार से पापियों का विनाश करेंगे और धर्म की पुन:स्थापना करेंगे। सृष्टि का यह अनंत क्रम निरंतर क्रमबद्ध चलते रहने की अवधारणा भारतीय मनीषा में की गई है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम अवतारी परमेश्वर थे पर उन्होंने सामान्य बच्चे की तरह माता के गर्भ से जन्म लिया। श्रीराम का जन्म चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को माना जाता है।
महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के बाल काण्ड में श्री राम के जन्म का उल्लेख इस तरह किया गया है। जन्म सर्ग 18 वें श्लोक 18-8-10 में महर्षि वाल्मीक जी ने उल्लेख किया है कि श्री राम जी का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अभिजीत महूर्त में हुआ। आधुनिक वैज्ञानिक युग में कंप्यूटर द्वारा गणना करने पर यह तिथि 21 फरवरी, 5115 ईस्वी पूर्व निकलती है।
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस के बाल काण्ड के 190 वें दोहे के बाद पहली चौपाई में तुलसीदास ने भी इसी तिथि और ग्रह नक्षत्रों का वर्णन किया है। वाल्मीकि रामायण की पुष्टि दिल्ली स्थित संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदा ने भी की है। वेदा ने खगौलीय स्थितियों की गणना के आधार पर ये थ्योरी बनाई है। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार जिस समय राम का जन्म हुआ उस समय पांच ग्रह अपनी उच्चतम स्थिति में थे। यूनीक एग्जीबिशन ऑन कल्चरल कॉन्टिन्यूटी फ्रॉम ऋग्वेद टू रोबॉटिक्स नाम की एग्जीबिशन में प्रस्तुत रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार भगवान राम का जन्म 10 जनवरी, 5114 ईसा पूर्व सुबह बारह बजकर पांच मिनट पर हुआ (12:05 ए.एम.) पर हुआ था। यह तिथि इतनी अर्वाचीन है कि उसकी गणना में छोटी सी भी मानवीय त्रुटि बड़ा परिवर्तन कर सकती है अतः इस सबके ज्ञान मार्गी तर्क से परे भगवान राम के जन्म के रसमय भक्ति मार्गी आनन्द का अवगाहन ही सर्वथा उपयुक्त है।
संस्कृत के अमर ग्रंथ महाकवि कालिदास ने रघुवंश की कथा को १९ सर्गों में बाँटा है जिनमें अयोध्या के सूर्यवंश के राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि तथा बाद के 29 रघुवंशी राजाओं की कथा कही गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ को चौथेपन तक संतान प्राप्ति नहीं हुई, “एक बार दशरथ मन माही, भई गलानि मोरे सुत नाही”। ईश्वरीय शक्तियों के मानवीकरण का इससे सहज उदाहरण और क्या हो सकता है ? राजा दशरथ और माता कौशल्या पुत्र कामना से अयोध्या के राजभवन में यज्ञ करते हैं। फिर राजा दशरथ को माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी रानियों से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न पुत्रों का जन्म होता है। अयोध्या में खुशहाली छा जाती है।
भगवान राम सारी बाल लीलायें करते हैं ” ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां ” …। गुरु गृह गये पढ़न रघुराई, अल्प काल विद्या सब पाई ! … फिर दुष्टों के संहार के जिस मूल प्रयोजन से भगवान ने अवतार लिया था, उसके लिये भगवान श्री राम अनुकूल स्थितियां रचते जाते हैं पर मानवीय स्वरूप और क्षमताओ में स्वयं को बांधकर ही मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर दुष्ट राक्षसों का अंत कर समाज में आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पुरुष, आदर्श राजा के चरित्रों की स्थापना करते हैं। राम कथा से भारत ही नहीं दुनियां भर सुपरिचित है। विभिन्न देशों, अनेको भाषाओ में राम लीलाओ में निरंतर रामकथा कही, सुनी जाती है और जन मानस आनंद के भाव सागर में डूबता उतराता, राम सिया हनुमान की भक्ति से अपनी कठिनाईयों से मुक्ति के मार्ग बनाता जीवन दृष्टि पा रहा है।
स्वाभाविक है कि अयोध्या में भगवान श्रीराम के जन्म स्थल पर एक भव्य मंदिर सदियों से विद्यमान था। जब मुगल आक्रांताओ ने भारत में आधिपत्य के लिये आक्रमण किये तब सांसकृतिक हमले के लिये १५२८ में राम जन्म भूमि के मंदिर को तोड़कर वहां पर मस्जिद बनाई गई। हिन्दुओ को अस्तित्व के लिये बड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा। ऐसे दुष्कर समय में साहित्य ही सहारा बना और भक्ति कालीन कवियों ने हिंदुत्व को पीढ़ीयों में जीवंत बनाये रखा। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास कृत अवधी भाषा में लिखि गई राम चरित मानस हिन्दुओ की प्राण वायु बनी। गिरमिटिया मजदूर के रुप में विदेशों में ले जाये गये हिन्दूओ के साथ उनके मन भाव में मानस और राम कथा अनेक देशों तक जा पहुंची और रामकथा का वैश्विक विस्तार होता चला गया।
१८५३ में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस राम जन्म भूमि को लेकर संघर्ष हुआ। १८५९ में अंग्रेजों ने विवाद को ध्यान में रखते हुए पूजा व नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा। देश की अंग्रेजों से आजादी के बाद १९४९ में अन्दर के हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई। तनाव को बढ़ता देख सरकार ने इसके गेट में ताला लगा दिया। सन् १९८६ में जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया। मुस्लिम समुदाय ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।
सन् १९८९ में विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर की मुहिम शुरू की। ६ दिसम्बर १९९२ को अयोध्या में कथित अतिक्रमित बाबरी मस्जिद ढ़हा दी गई। आस्था के सतत सैलाब से कालांतर में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार वर्तमान स्वरूप विकसित हो सका और अब वह शुभ समय आ पहुंचा है जब पांच सौ वर्षो के बाद राम लला पुनः भव्य स्वरूप में जन्म स्थल पर सुशोभित हो रहे हैं।
अयोध्या का भविष्य अत्यंत उज्जवल है, विश्व में भारतीय संस्कृति की स्वीकार्यता बढ़ रही है। भारत महाशक्ति के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। “दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहीं काहुहि व्यापा ” की अवधारणा राम राज्य की आधारभूत संकल्पना है और अयोध्या इसकी प्रेरणा के स्वरूप में विकसित की जा रही है। वर्तमान समय आर्थिक समृद्धि का समय है, जैसे सरोवर को पता ही नहीं चलता और उससे वाष्पीकृत होकर जल बादलों के रूप में संचित हो जाता है प्रकृति वर्षा करके पुनः सबको बराबरी से अभिसिंचित कर देती है, राम राज्य में कर प्रणाली इसी तरह की थी कि टैक्स देने वाले को देने का कष्ट नहीं होता था। वर्तमान सरकार से ऐसी ही कर प्रणाली की अपेक्षा जनमानस कर रहा है, अयोध्या का राम जन्म भूमि मंदिर ऐसे शासन की याद दिलाने की प्रेरणा बने।
अयोध्या जिसे पहले साकेत नगर के रूप में भी जाना जाता था सरयू नदी के तट पर बसी एक धार्मिक एवं ऐतिहासिक नगरी है|यह उत्तर प्रदेश राज्य में है तथा अयोध्या नगर निगम के अंतर्गत इस जनपद का नगरीय क्षेत्र समाहित है| यह प्रभु श्री राम की पावन जन्मस्थली के रूप में हिन्दू धर्मावलम्बियों के आस्था का केंद्र है|अयोध्या प्राचीन समय में कोसल राज्य की राजधानी एवं प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण की पृष्ठभूमि का केंद्र थी। प्रभु श्री राम की जन्मस्थली होने के कारण अयोध्या को मोक्षदायिनी एवं हिन्दुओं की प्रमुख तीर्थस्थली के रूप में माना जाता है | राम जन्म स्थल पर नये मंदिर के निर्माण के बाद अब अयोध्या वैश्विक पर्यटन मानचित्र पर अंकित हो चली है और यहां जो विश्वस्तरीय जन सुविधा विकसित हो रही है उससे यह हिन्दुओ की आस्था का सुविकसित केंद्र बनकर सदा सदा हमें नई उर्जा प्रदान करती रहेगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मान न मान…“।)
अभी अभी # 262 ⇒ मान न मान… श्री प्रदीप शर्मा
अतिथि को हम मेहमान भी कहते हैं। जो बिना किसी तिथि के अनायास आ धमके, तो प्रकट रूप से भले भी वह आपके लिए देवता हो, लेकिन क्या वह, मान न मान, मैं तेरा मेहमान नहीं हुआ। मजबूरी में ही सही, अगर आपने उसे अपना मेहमान मान लिया, तो क्या आप उसके मेजबान यानी होस्ट (host) नहीं हुए। मैं तेरा होस्ट, तू मेरा गेस्ट।
यही होस्ट कभी कभी होस्टाइल हो उठता है, जब मेहमान guest नहीं ghost निकल जाता है। अतिथि वह भला, जिसके जाने की तिथि पहले से ही मुकर्रर हो। इस स्थिति में अतिथि तुम कब जाओगे, जैसी परिस्थिति कभी निर्मित ही नहीं होती। जो आप पर इतना मेहरबान हो कि अपने आने की, कहां ठहरने की, और वापसी की भी पुख्ता, समय और तारीख से आपको अवगत कराए, वह इस कलयुग में किसी भगवान से कम नहीं।।
लेकिन आतिथ्य कला में आजकल मनुष्य बहुत एडवांस हो चला है। यह कुछ हमारे सनातन धर्म का प्रभाव भी है और कुछ संचित पुण्य के संस्कार भी कि वह खुशी खुशी किसी भी संत, महात्मा, अथवा कथा, कीर्तन, सत्संग और पाठ का यजमान बनने में अपने आपको धन्य मानता है।
आप अपने घर में जब भी कथा, कीर्तन, जगराता अथवा भजन संध्या का आयोजन करते हैं, तो आप स्वाभाविक रूप से ही उस पुनीत कार्य के यजमान बन जाते हैं। घरों में जब भी किसी मंगल कार्य हेतु यज्ञ अथवा हवन होता है, तो घर का प्रमुख सदस्य ही तो जोड़े सहित यजमान का आसन ग्रहण करता है। एक यजमान कितने क्विंटल पुण्य अर्जित करता है, यह उसके द्वारा तन, मन और धन से संपन्न हुए कार्य पर निर्भर करता है। किसी व्रत का उद्यापन भी इसी श्रेणी में शामिल होता है। सुहागन जोड़े को आदर सत्कारपूर्वक भोजन करवाना भी यजमान के संचित पुण्य में अतिशय वृद्धि करता है।।
कलयुग नाम अधारा! नारद भक्ति सूत्र के अनुसार भी श्रवण, कीर्तन और नाम स्मरण ही आज के युग में मुक्ति के साधन हैं। राम नाम की लूट का तो हम हाल ही में प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं। लेकिन किसी पहुंचे हुए संत द्वारा राम कथा अथवा भागवत कथा का आयोजन इतना आसान भी नहीं। मेहनत पसीने से अर्जित धन और संचित पुण्य ही किसी विरले, अति भाग्यशाली व्यक्ति को यह स्वर्णिम अवसर प्राप्त होता है, जब वह इस आयोजन का साक्षी भाव से यजमानत्व का भार ग्रहण करे। जन्मों जन्मों के संचित संस्कारों के पुण्य फल के पश्चात् ही किसी यजमान के जीवन में यह घटना घटित होती है।
आपने कभी सुना है, मान न मान मैं तेरा यजमान। जी हां, जिनका राजयोग प्रबल होता है, वे तो केवल अपने पुरुषार्थ एवं जन जन के आग्रह और अनुनय के फलस्वरूप ही यह दुर्लभ दायित्व हंसते हंसते स्वीकार कर लेते हैं लेकिन शेष सात्विक, संस्कारी धनाढ्य धर्मावलंबियों को ऐसे भव्य और दिव्य आयोजनों में यजमान बनने हेतु जमीन आसमान एक करना पड़ता है, बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं।।
लेकिन ईश कृपा और संचित धन के अलावा संचित पुण्य के आधार पर ही बिल्ली के भाग से छींका टूटता है और धर्म के ऐसे कल्याणकारी आयोजन में कोई विरला ही यजमान के इस दायित्व को ग्रहण कर पाता है।
बिना मेहमान के एक बार आपका जीवन सुखी हो सकता है, लेकिन बिना यजमान के कोई यज्ञ नहीं हो सकता, कोई कथा भागवत, कीर्तन सत्संग नहीं हो सकता। मनुष्य के जीवन की सुख शांति का आधार ही धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान है। सभी सिद्ध पुरुष, प्रकांड कर्मकांडी पंडित और रामकथा और भावगत कथा के आचार्य सुन लें,
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गम्मत…“।)
अभी अभी # 261 ⇒ गम्मत… श्री प्रदीप शर्मा
ज्यादा दिमाग पर जोर मत डालिए, यह शब्द हिंदी और उर्दू का नहीं, मराठी भाषा का है। आम तौर पर हमारी बोलचाल की भाषा में हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, गुजराती और संस्कृत शब्दों का समावेश हो ही जाता है। मौसम की तरह ही हमारा मूड अच्छा और बुरा होता रहता है। ढाई आखर का अगर प्रेम होता है, तो हुस्न और इश्क भी होता है। सुबह सुबह ठंडे पानी से स्नान करते ही, मुंह से अनायास ही ॐ नमः शिवाय निकलने लगता है।
हमें पता ही नहीं चलता बाजार, अफसर और जंगल किस भाषा के शब्द हैं।
वैसे तो मुख्य रूप से हमारे देश की आधिकारिक भाषाएं तो केवल २२ ही हैं, लेकिन १३० करोड़ लोगों की जनसंख्या में कम से कम १२१ भाषाएं बोली जाती हैं। यहां तो हर एक सौ किलोमीटर में भाषा बदलती रहती है।
केम छे कब शेम छे हो जाता है, पता ही नहीं चलता।।
आप अगर हरियाणा के हैं तो आपकी हरियाणवी भाषा अलवर तक आते आते राजस्थानी हो जाती है, और मथुरा में प्रवेश करते ही आप बृजवासी हो जाते हो। पंजाब का भांगड़ा गुजरात में डांडिया हो जाता है तो घरों में सुबह इडली डोसा और शाम को छोले भटूरे बनने लग जाते हैं। बस तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम की दाल इतनी आसानी से नहीं गल पाती। प्रेम करूं छूं और आमी तोमाके भालोमाशी तो हमें फिल्मी गाने ही सिखला देते हैं।
बचपन मराठी भाषी मोहल्ले में गुजरने के कारण कुछ पुरानी यादें समय समय पर उभर आती हैं। हम मोहल्ले के बच्चों में गम्मत शब्द बहुत अधिक प्रचलित था। पंजाबी के गल की ही तरह मराठी में एक शब्द है गोष्ट ! मैं तुम्हें एक मज़ेदार बात बताता हूं। मी तुम्हाला एक चांगळी गोष्ट सांगते। यहां यह सांग अंग्रेजी वाला सॉन्ग नहीं है। हां यह गोष्ट जरूर कुछ कुछ हमारी गोष्ठी से मिलता जुलता है, लेकिन केवल शाब्दिक रूप से, लेकिन अर्थ थोड़ा अलग है। बस यही तो गम्मत है।
यानी कोई भी मजेदार बात गम्मत कहला सकती है।।
मुंबई और पुणे में वैसे कई ऐसे मराठी शब्द प्रचलित हैं, जिन्हें हम बोलचाल में भी अक्सर प्रयोग करते रहते हैं। हमारा संदेश, उनके लिए अगर निरोप है तो हमारा पाहुना उनका भी पाहुणा ही है।
मराठी की टीवी न्यूज़ बातम्या कहलाती है।
हमारा मानस, गुजराती का मानुस और मराठी का माणुस आसानी से बन जाता है। हमारा द्वार मराठी का दार हो जाता है। गुजराती में गांडा छे, बेवकूफ और नासमझ माणस को कहते हैं। एक भाषा के शब्द को दूसरी भाषा में बड़ा संभलकर प्रयोग में लाना पड़ता है।
एक पुराना टेलीग्राम का किस्सा, आज भी इसका एक जीता जागता उदाहरण है ;
तब टेलीग्राम में हिंदी का प्रयोग नहीं होता था। दादा आज मर गए, जब तार बनकर उस ओर सुदूर गांव पहुंचा तब तक तो DADA AAJ MER GAYE हो गया था। पढ़ने वाला अंग्रेजी का काला अक्षर था। उसने किसी तरह पढ़ ही लिया, दादा आज मेर गए, यानी मर गए। गम का फसाना बन गया अच्छा। काय गम्मत झाली।।
मराठी की बोलचाल में आज भी यह शब्द प्रयोग में लाया ही जाता होगा।
अफसोस, ऐसे शब्द हिंदी जैसी समृद्ध भाषा के आज तक अंग नहीं बन सके। विद्वतजन आगे आएं, ऐसे मजेदार शब्दों को हमारी बोलचाल की भाषा का हिस्सा बनाएं।
हिंदी में इसका दिलचस्प तरीके से वाक्य में प्रयोग कैसे हो सकता है, शांतता, चिंतन चालू आहे। आप मराठी नहीं जानते, फिर भी प्रत्युत्तर में इतना तो कह ही सकते हैं, खरी गोष्ट।।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “देशभक्ति और राष्ट्रहित…“।)
☆ आलेख # 91 – देशभक्ति और राष्ट्रहित…☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
एक देशभक्ति वो होती है जिसके जज्बे में खुद की परवाह न कर जवान देश के लिये रणभूमि में शहीद होते हैं.
एक देशभक्ति वह भी होती है जंहा आप अपने परिवार का महत्वपूर्ण सदस्य और अपने कलेजे का टुकड़ा देश को समर्पित करते हैं और जिसके शहीद होने पर असीमित दुख और तकलीफों के बावजूद हमेशा गर्वित ही होते हैं, कभी पछतावा नहीं होता.
एक देशभक्ति वह भी है जंहा आपको लगता है कि ईमानदारी और समर्पण की भावना से जहां हैं जैसे हैं, अगर देश के लिये कुछ कर सकें तो ये खुद का सौभाग्य ही है.
पर देशभक्ति वो तो नहीं है और हो भी नहीं सकती जहां ये खुद को लगने लगे कि राजनीति से जुड़े किसी व्यक्ति या किसी दल का समर्थन कर आप खुद को देशभक्त समझने लगें और बाकी अन्य विचार रखने वालों की देशभक्ति पर सवाल उठाने लगें, लांछन लगाने लगें.
कम से कम अभी तक ऐसा नहीं हुआ है कि देश के सर्वोच्च और अतिमहत्वपूर्ण व जिम्मेदार पदों पर बैठे राजनयिकों की निष्ठा पर सवाल खड़े किये गये हों. देश की नीतियों में जरूर समयानुसार परिवर्तन हुये हैं पर राष्ट्र के प्रति निष्ठा और समर्पण सदा अखंड ही रहा है. नेतृत्व की क्षमता विभिन्न मापदंडों पर अलग अलग हो सकती है पर हर नेतृत्व, राष्ट्रहित और राष्ट्रभक्ति की कसौटी पर खरा उतरा है.
इसलिये मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से टारगेटेड दुष्प्रचार कुल मिलाकर ओछेपन और असुरक्षा की भावना ही दर्शाता है. मात्र चुनाव के नाम पर अगर राजनीति का स्तर इसी तरह गिरता रहा तो आम नागरिक की बात तो छोड़ दीजिये, सीमा पर युद्ध के लिये प्राणोत्सर्ग तक करने को तैयार सैनिक इनसे क्या प्रेरणा पायेगा. बेहतर यही है कि राजनैतिक शुचिता इतनी तो रहे कि लोग राजनेताओं से कुछ तो प्रेरणा पा सकें, उन की निष्पक्ष प्रशंसा कर सकें.