(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – अयोध्या का राम मन्दिर : निर्माण की तकनीकी विशेषतायें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 255 ☆
आलेख – अयोध्या का राम मन्दिर : निर्माण की तकनीकी विशेषतायें
करोड़ों हिन्दुओ की आस्था के प्रतीक अयोध्या के राम जन्म भूमि मन्दिर के लिये सदियों के संघर्ष के बाद अंततोगत्वा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से परिसर का आधिपत्य हिन्दुओ को मिला। स्वाभाविक रूप से मंदिर निर्माण के लिये अपार धन संग्रह सहज ही हो गया। अब एक ऐसे मंदिर का निर्माण होना था जो युगों युगों तक जन जन के लिये भावनात्मक ऊर्जा का केंद्र बना रहे। विशिष्ट हो और समय के अनुरूप वैश्विक स्तर का हो। मुख्य वास्तुविद चंद्रकांत बी. सोमपुरा ने न्यूनतम समय में श्रेष्ठ डिजाइन तैयार की। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर के निर्माण में रुचि ले रहे थे। मोदी जी की एक विशेषता स्वीकार करने योग्य है कि वे शिलान्यास ही नही करते न्यूनतम तय समय में उस योजना का उद्घाटन भी करते हैं। अर्थात प्राण पन से योजना को पूरा करने में वांछित कार्यवाही समय से करते रहते हैं। मंदिर निर्माण के लिये सुप्रसिद्ध कंपनी लार्सन एंड टुब्रो को कार्य सौंपा गया। राष्ट्रीयता से ओत प्रोत प्रतिष्ठित कंपनी टाटा कंसल्टिंग इंजीनियर्स लिमिटेड को परियोजना प्रबंधन का काम दिया गया। राम मंदिर निर्माण का कार्य रामजन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट के द्वारा करवाया जा रहा है। आई आई टी चेन्नई, आई आई टी बॉम्बे, आई आई टी गुवाहाटी, सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट रुड़की, एन आई टी सूरत, एन जी आर आई हैदराबाद जैसे संस्थान परियोजना के डिजाईन सलाहकार हैं। इन सबको समवेत स्वरूप में जोड़कर न्यूनतम समय में निर्माण कार्य पुरा करना बड़ी चुनौती थी। दिन रात आस्था और विश्वास के साथ समर्पित भाव से जुटे रहने का ही परिणाम है कि तय समय में मंदिर मूर्त रूप ले सका है। यह सिविल इंजीियरिंग का करिश्मा है , क्योंकि पत्थरों को आपस में जोड़ने के लिये सीमेंट का उपयोग नहीं किया गया है , बल्कि लाक एड की आधार पर ग्रूव कटिंग से पत्थरों को जोड़ा गया है। कुल 70 एकड़ क्षेत्रफल की जमीन ट्रस्ट के पास है। मंदिर का क्षेत्रफल 2.77 एकड़ है। भारतीय नागर शैली में निर्माण हो रहे इस मंदिर की लंबाई 380 फीट , चौड़ाई 250 फीट तथा ऊँचाई 161 फीट है। मंदिर में स्थापित की जा रही राम लला की नई मूर्ति मैसूर के प्रसिद्ध मूर्तिकार अरुण योगीराज द्वारा बनाई गई है। मंदिर में नृत्य मंडप, रंग मंडप, सभा मंडप, प्रार्थना मंडप और कीर्तन मंडप इस तरह कुल 5 मंडप हैं। मंदिर की परिधि (परिकोटा) के चारों कोनों पर सूर्यदेव, माँ भगवती, भगवान गणेश और भगवान शिव को समर्पित चार मंदिरों का निर्माण किया जाएगा। उत्तरी दिशा में देवी अन्नपूर्णा का मंदिर होगा और दक्षिणी दिशा में भगवान हनुमान का मंदिर होगा। मंदिर परिसर के भीतर, अन्य मंदिर महर्षि वाल्मिकी, महर्षि वशिष्ठ, महर्षि विश्वामित्र, महर्षि अगस्त्य, राजा निशाद, माता शबरी और देवी अहिल्या के होंगे। मंदिर परिसर में सीता कुंड नामक एक पवित्र कुंड भी होगा। परियोजना के अंतर्गत दक्षिण-पश्चिम दिशा में नवरत्न कुबेर पहाड़ी पर भगवान शिव के प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाएगा और जटायु की एक प्रतिमा स्थापित की जाएगी। धार्मिक आस्था का प्रतीक होने के साथ-साथ, श्री राम मंदिर एक अद्भुत वास्तुशिल्प कृति है। भारत की आध्यात्मिक विरासत और भगवान राम की अमर प्रसिद्धि के जीवित प्रमाण के रूप में, यह मंदिर अयोध्या को भारत की आध्यात्मिक राजधानी बनाने में अहम भूमिका निभाएगा।
राम मंदिर की नींव के डिजाइन में 14 मीटर मोटे रोल्ड कॉम्पैक्ट कंक्रीट को परतदार बनाकर कृत्रिम पत्थर का आकार दिया गया है। फ्लाई ऐश और रसायनों से बने कॉम्पैक्ट कंक्रीट की 56 परतों का उपयोग किया गया है।
नमी से बचाव के लिए राम मंदिर के आधार पर 21 फुट मोटा ग्रेनाइट का चबूतरा प्लिंथ) बनाया गया है। मंदिर की नींव के डिजाइन में कर्नाटक और तेलंगाना के ग्रेनाइट पत्थर और बांस पहाड़पुर (भरतपुर, राजस्थान) के गुलाबी बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है। मंदिर परियोजना में दो सीवेज शोधन संयंत्र, एक जल शोधन संयंत्र , विद्युत आपूर्ति की व्यवस्था , की गई है। यह तीन मंजिला मंदिर भूकंपरोधी है। इसमें 392 स्तंभ और 44 दरवाजे हैं। दरवाजे सागौन की लकड़ी से बने हैं और उन पर सोने की परत चढ़ायी गई है। मंदिर संरचना की अनुमानित आयु 2500 वर्ष आकलित की गई है। मूर्तियाँ 6 करोड़ वर्ष पुरानी शालिग्राम शिलाओं से बनी हैं, जो गंडकी नदी , नेपाल से लाई गई हैं। मंदिर में लगाया गया घंटा अष्टधातु सोना, चांदी, तांबा, जस्ता, सीसा, टिन, लोहा और पारे से बनाया गया है। घंटे का वजन 2100 किलोग्राम है। घंटी की आवाज 15 किलोमीटर दूर तक सुनी जा सकेगी ऐसा अनुमान है। इस मंदिर में बहुत कुछ विशिष्ट और विश्व में प्रथम तथा रिकार्ड है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रतिष्ठित प्राण प्रतिष्ठा…“।)
अभी अभी # 260 ⇒ प्रतिष्ठित प्राण प्रतिष्ठा… श्री प्रदीप शर्मा
आओ सखी,
हे री सखी, मंगल गाओ रे ..
इंतजार अब नहीं, इंतजार अब और नहीं, आखिर वो शुभ घड़ी आ ही गई, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के इतिहास में हमेशा के लिए स्वर्णाक्षरों में दर्ज होने जा रही है। जन्म जन्म के वे प्यासे भक्त जो त्रेता युग में अपने आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का राज्याभिषेक नहीं देख पाए, आज वे उसी अयोध्या में अपने आराध्य रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने जा रहे हैं।
अंबानी, अडानी, टाटा, सिंघानिया, कंगना, हेमा, जया, मोदी, योगी, बिग भी, सूची बहुत लंबी है, जिनमें मैं जाहिर रूप से शामिल नहीं हूं, लेकिन मेरे जैसे करोड़ों ऐसे भक्त हैं, जो अपने घर आंगन, दफ्तर और दुकान में समर्पित भाव से टीवी के माध्यम से ही इस ऐतिहासिक क्षण के भागी बन गए हैं। यह प्रतिष्ठा का नहीं, प्राण प्रतिष्ठा का अवसर है।।
बड़े भाग, मानुस तन पायो, कितना सार्थक सिद्ध हुआ है आज यह कथन। इतने भाग्यशाली तो तुलसीदास जी भी नहीं होंगे। लेकिन उनकी स्थिति हमने कई गुना ऊंची और अच्छी थी, क्योंकि केसरीनंदन हनुमान की तरह ही प्रभु राम, सीता और लक्ष्मण उनके हृदय में हर पल विराजमान थे।
उनका कवि हृदय कितना विशाल होगा, जो जन जन को रामचरितमानस जैसा अद्भुत ग्रंथ समर्पित कर गया। यह होती है एक भक्त की अपने आराध्य की हृदय में प्राण प्रतिष्ठा, जो जब मथुरा और वृन्दावन जाते हैं तो यह प्रण लेकर जाते हैं, कि अगर सांवरा कृष्ण कन्हैया मुझे दरस देना चाहता है, तो उसे मेरे आराध्य के समान धनुष धारण करना पड़ेगा। और भगत के वश में भगवान को उसकी हर मांग पूरी करनी ही पड़ती है। भक्त तुलसीदास की भेद बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। राम, कृष्ण में कोई अंतर नहीं, कोई भेद नहीं।
मंदिर मंदिर मूरत तेरी, फिर भी ना दीखे सूरत तेरी, यह केवल वही नरसिंह भगत कह सकता है, जिसके प्राण में अपने इष्ट घनश्याम प्रतिष्ठित हो गए हैं, विराजमान हो गए हैं। इसीलिए भक्त उसे घट घट वासी मानता है। वह दयानिधान, कृपासिंधु, सबका पालनहार आपको खेत में, खलिहान में और हर मजदूर किसान की झोपड़ी में मिलेगा।।
मुझे मेरे आराध्य प्रभु श्रीराम को अपने प्राणों में प्रतिष्ठित करना है, मेरा रामलला और कृष्ण कन्हैया एक ही है। बस मुझे उनकी लीलाओं में अपने आपको डुबोए रखना है।
बहुत आसान है कहना,
तेरा नाम तेरे मन में है,
मेरा नाम मेरे मन में है।
कलयुग नाम अधारा तो है ही, राममय होने का अवसर है, मत चूके चौहान ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “पालतू पालक” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 67 ☆ देश-परदेश – पालतू पालक ☆ श्री राकेश कुमार ☆
उपरोक्त फोटो घर के निकट की एक दुकान का है। दुकानदार से बातचीत हुई की आपने पालतू और बच्चों से संबंधित दोनों के लिए कैसे जुगल बंदी कर दी। उसने बताया कि जिन परिवारों में बच्चे नहीं है, वे श्वान या बिल्ली पाल लेते हैं। पालतू पालक और बच्चे वाले दोनों ही हमारे ग्राहक हैं। पूर्व में सिर्फ श्वान का चलन था, लेकिन उसका क्रय मूल्य अधिक होने से बिल्ली पालन के चलन में तेज़ी आ गई हैं।
कुछ दशक पूर्व तक बिल्लियां दीवार फांद कर लोगों के घर में रखे हुए दूध में मुंह मार लिया करती थी। जब से ये फ्रिज चल पड़े है, उनको पेट भरना कठिन हो गया और था। इसलिए बिल्लियां कम हो गई हैं। अब कुछ वर्षों से इनको पालतू बना कर घर में पाला जाता हैं। श्वान तो सदियों से स्वामी भक्त के टाइटल से भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
जोधपुर शहर में कल ही दो बच्चों का ट्रेन के नीचे आ जाने से दुखद निधन हो गया, क्योंकि चार पालतू जर्मन शेफर्ड नामक प्रजाति के श्वान बच्चों को काटने लगे तो बच्चे रेल लाइन की तरफ बच कर भाग गए जिससे ये दुर्घटना हो गई। श्वान मालिक का कहना है, इसमें श्वानो की कोई गलती नहीं हैं। बच्चों को रेल पटरी पार करते समय ट्रेन को देखना चाहिए था। दिल्ली शहर में भी खूंखार प्रजाति पिट बुल के श्वान ने एक बुजर्ग से उसके छोटे से पोते को छीन कर गंभीर रूप से जख्मी कर दिया है।
ऐसा व्यवहार श्वान क्यों कर रहे है, कुछ विशेषज्ञों का मत है, उनकी मूलभूत सुविधाओं जैसे की बिजली के खंभों में कमी होना भी हो सकता है। आजकल बिजली की लाइन भूमिगत हो रही हैं।
कुछ पालक अपने पालतू के लालन पालन और तीमारदारी के लिए तन मन और धन से लग जाते हैं। प्राणी सेवा एक अच्छा कार्य हैं। परंतु कभी-कभी तो ये पालक अपने परिजनों का उतना ख्याल नहीं रखते हैं, जितना वे अपने पालतू का रखते हैं। ये भी हो सकता है, वे पालतू के पूर्व जन्म के कर्म होंगे, जिनकी वजह से पालतू योनि में जन्म लेकर भी इतनी सुख सुविधा प्राप्त हुई।
२०२२ के राम नवमी के शुभ दिन पर ठाणे के ‘राम गणेश गडकरी सभागार’ में ‘गीत रामायण’ का आवर्तन जारी था। ‘आधुनिक वाल्मिकी’ के नाम से नवाजे जाने वाले ग. दि. माडगूळकर अर्थात ग दि मा के कालजयी शब्द, स्वरतीर्थ सुधीर फडके अर्थात बाबूजी का स्वर्गीय संगीत और उनकी गीत-संगीत की सुरीली विरासत को आगे बढ़ाने वाले उनके सुपुत्र श्रीधर फडके के स्वर! हम सभी के कंठ और हृदय में समाहित यहीं गीत था, ‘सरयू तीरावरी अयोध्या, मनूनिर्मित नगरी’! अर्थात ‘सरयू तट पर बसी अयोध्या, मनु निर्मित नगरी” (प्रिय पाठकों, मराठी के प्रसिद्ध गीतकाव्य गीत रामायण के समस्त ५६ गीतों का शब्द-अर्थ और भाव समेत सुन्दर अनुवाद किया है गीत रामायण के हिंदी संस्करण में श्री दत्तप्रसाद द जोग ने! इस हिंदी संस्करण की मैं जितनी भी तारीफ करूँ कम है क्योंकि, सारे गीतों के बोल ऐसे रचे गए हैं कि, बाबूजी द्वारा संगीतबद्ध किये हुए मराठी गानों की तरह ये हिंदी गीत भी वैसे ही हूबहू गाये जा सकते हैं! कवी जोगजी के इस महनीय कार्य को मेरा विनम्र अभिवादन) मित्रों, यह पहली बार नहीं था कि, मैंने इस गीत को तन्मयता से सुनकर मैंने अपने हृदय में समाहित कर लिया!
‘सामवेदसे बाळ बोलती,
सर्गामागुन सर्ग चालती
सचीव, मुनिजन, स्त्रिया डोलती,
आंसवे गाली ओघळती’
कुश लव रामायण गाती’
(‘साम-वेद-से बोले बालक, सर्ग-सर्ग से कहें कथानक सचीव, मुनिजन, श्रोता भावुक, समूचे बिसरे हैं भवभान कुश लव रामायण गीत-गान)
हर बार दर्शकों की जैसे यह अवस्था होती है, वैसे ही उस दिन भी थी| लेकिन तभी (जब ऐसा लग रहा था कि, यह ना हो) मध्यांतर हो गया| इसी अंतराल में श्रीधरजी के भावुक शब्द अचानक किसी ‘दिव्य वाणी’ की तरह कानों में गूंजने लगे, “मैं जुलाई २०२२ में अयोध्या में गीत रामायण प्रस्तुत करूंगा! सरयू तट पर आप लोग आइये और मेरा साथ दीजिये कोरस में!” यह सुनकर मैं तो अंतर्बाह्य रोमांचित हो उठी| स्वप्न में, गीतों में और पुस्तकों में मैंने कल्पना की हुई अयोध्या, जिसका कण-कण राम के वास्तव्य से पुनीत हुआ है, सरयू नामक सरिता के तट पर मनु (प्रथम मानव) द्वारा बनाई गई वह भव्य दिव्य नगरी अयोध्या, जहां राम का आदर्श ‘रामराज्य’ वास्तव में साकार हुआ था! तन मन और ह्रदय में यह छबि संजोकर रखने का अनोखा अवसर मिलेगा, आंखों में सम्पूर्ण प्राणज्योति को प्रज्वलित कर इस नगरी का दर्शन करुँगी और श्रीधरजी के मुख से कानों में अमृत रस घोलने वाला ‘गीत रामायण’ सुनूंगी। इसे तो मणि कंचन योग ही कहना चाहिए! लेकिन मित्रों, इस अमृतमय संयोग में और भी मिठास घुलने वाली थी। इसी अवधि के दौरान, वरिष्ठ गायक और कीर्तनकार श्री चारुदत्त आफळे अपने रामकीर्तन से अयोध्या के अवकाश को भक्तिमय करने वाले थे। अब और क्या चाहिए था! जब सब कुछ मन माफिक चल रहा था, तब अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई, मेरा कोरोना टेस्ट पॉजिटिव आया! अब तो मेरे होश उड़ गए| लेकिन डॉक्टर से सलाह लेने के बाद मुझे एहसास हुआ कि, ट्रेन छूटने के एक दिन पहले ही मेरा कोरोना का ‘एकान्तवास’ ख़त्म होने वाला था| मन ही मन में मैं रामनाम का जाप कर रही थी| कोरोना ने भेंट की हुई कमजोरी के लिए यहीं एक ‘रामबाण’ औषधि थी।
पाठकों, यात्रा के निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नैमिषारण्य, प्रयागराज और काशी की हमारी यात्रा सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई, रात करीबन १२ बजे हमने अयोध्या में कदम रखा। तीर्थ स्थल के अनुरूप एक काफी बडी संरचना ‘जानकी महल’ में हमें हमारे आरक्षित कमरों में प्रवेश दिया गया| सुबह-सुबह वहाँ की भित्तिचित्रों पर चित्रित राम के जीवन के विभिन्न दृश्यों तथा राम सीता, लक्ष्मण और हनुमान के नयनाभिराम मंदिरों को देखकर रात की थकान कहीं दूर भाग गई। धीरे-धीरे यात्रा का टाइम टेबल समझ में आने लगा । सुबह सात्विक अल्पाहार, उसके तुरन्त बाद, चारुदत्तजी द्वारा कीर्तन और संध्या समय को श्रीधरजी द्वारा गीत रामायण जैसे बहुआयामी रामसंकीर्तन, भजन, नाम स्मरण और गायन ऐसा कसा हुआ भव्य सत्संग कार्यक्रम था।
जय रघुनंदन जय सियाराम, हे दुखभंजन तुम्हें प्रणाम ||
भ्रात भ्रात को हे परमेश्वर, स्नेह तुन्ही सिखलाते |
नर नारी के प्रेम की ज्योति, जग मे तुम्ही जलाते |
ओ नैया के खेवन हारे, जपूं मै तुम्हरो नाम |१ |
मोहम्मद रफ़ी एवं आशा भोसले के भक्तिरस में डूबे हुए ये शब्द मन में गुंजायमान हो रहे थे! राम नाम संकीर्तन के सुबह और शाम के घंटों को छोड़कर, मैंने और मेरी सहेली ने जितना संभव हो, उतना अयोध्या दर्शन का लाभ उठाने का फैसला किया। इधर जानकी महल के प्रवेश द्वार पर तैनात सुरक्षा गार्ड प्रभु की तरह मददगार सिद्ध हुआ उसके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर मंदिरों और सरयू की यात्रा का दौर प्रारम्भ हुआ। आयोजकों ने कुछ स्थानों के निःशुल्क दर्शन भी करवाए। पाठकों, लगभग छह दिनों तक वहाँ रहकर कुछ देखा और कुछ रह गया (मुख्यतः नंदीग्राम)। लेकिन संतुष्टि इस बात की थी कि, हम अयोध्या में थे ! सर्वप्रथम तो श्रीराम जन्मभूमि देखने का आकर्षण बना हुआ था, लेकिन जब मैं वहाँ पर गई तो, भक्तों के लिए एक अस्थायी छोटा राम मंदिर देखने को मिला। उसी मंदिर के सकल भक्तिभाव से दर्शन करते समय मुझे राम जन्मभूमि का विस्तीर्ण क्षेत्र दिखाई दिया। लोहे की मजबूत जालियों के पीछे से तेज गति से चलता हुआ मंदिर का निर्माण कार्य देखा जा सकता था। उसके निकट ही एक फैक्ट्री में हो रहे निर्माण कार्य को देखने की अनुमति दी गई थी| सैकड़ों कारीगर अनवरत हस्तशिल्प बनाने में लगे थे| दोस्तों, आज के सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में, अयोध्या में क्या चीजें कहां से आईं, राम की मूर्ति किसने बनाई और तत्सम सभी चीजें हमारे लिए बड़े और छोटे पर्दे पर उपलब्ध होतीं रहीं हैं। परन्तु अगर हम ‘स्थानमहात्म्य’ पर विचार करें, तो जिन भूमिकणों को राम के चरणों ने छुआ है, वहीं धूलिकण हमारे लिए श्रद्धासुमन हैं!
हमें हनुमानगढ़ी, दशरथ महल, कौशल्या महल आदि मंदिरों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ‘हनुमान गढ़ी’ नामक पहाड़ी पर १० वीं शताब्दी में बना हुआ एक प्राचीन हनुमान मंदिर है। सुघड रूप से निर्मित सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरान्त, हनुमान मंदिर दिखाई देता है।
जानकी महल, अर्थात हमारा आवास सरयू नदी से लगभग 3 किमी दूर था। हममें से कई यात्री रोज बड़े सवेरे पैदल जाकर सरयू नदी में स्नान करने जाते थे| वहाँ ‘राम की पौडी’ नामक घाट है| पुरुषों और महिलाओं के लिए कपडे बदलने की (अलग-अलग) सुविधा उपलब्ध है। इन घाटों पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं की सदैव भीड़ लगी रहती है। जब हम जुलाई २०२२ के पहले सप्ताह में गए, तब भी गर्मी का मौसम जारी था। शायद ही कभी कभार दो बार बारिश हुई हो| ऐसे तपिश भरे वातावरण में भोर के समय सरयू के तट पर चलते हुए, हलके से स्पर्श करने वाली प्रसन्न वायु की लहरें बहुत सुखद एवं शीतल प्रतीत हो रही थीं। सरयू तट का संपूर्ण क्षेत्र श्री रामचन्द्र के निवास से पुण्यशील होने के कारण भक्तिमय हो उठा था| सरयू के तट पर लक्ष्मण मंदिर (लक्ष्मण घाट यहीं स्थित है,राम के द्वारा त्यागे जाने पर दुःख के सागर में डूबे लक्ष्मण ने अपना नश्वर शरीर यहीं सरयू नदी में प्रवाहित किया था) तथा वहाँ से निकट ही रामचन्द्र घाट है। यहां राम ने अपने शरीर को सरयू के जल में विसर्जित किया था । उनके बाद उनके बंधु-बांधव और प्रजाजनों ने भी जल समाधि ले ली| मित्रों, शरयू नदी में नौकायन (बोटिंग) की सुविधा उपलब्ध है, इस दौरान ही हमने ये दो घाट देखे!
सरयू नदी के पवित्र जल में नौकायन करते समय किनारे के मंदिर अत्यंत रमणीय लगते हैं। नौका में बैठने के बाद ‘धीर समीरे सरयू तीरे’ का अनुभव अमृतसम था। मन श्री राम प्रभु के चिंतन में लीन था| उस तरंगिणी की हर लहर मानों राम नाम की धुन के साथ नौका से टकरा रही थी। उस प्रभात बेला में सुबह सरयू के पवित्र स्पर्श से धन्य हो गई। प्रिय पाठकों, नदी के तट पर हूबहू नासिक के काळाराम मंदिर की तरह राम, सीता और रामबंधुओं का, एक अखंड काली शिला में निर्मित एक बहुत सुंदर बारीकी से तराशा हुआ काळाराम मंदिर देखने को मिला! वहाँ नासिक से आकर यहाँ सरयू के किनारे (श्रीरामप्रभु द्वारा स्वप्न में दिए गए आदेश के अनुसार) यहाँ राम मंदिर का निर्माण करने वाले मराठी पुजारियों के वंशज, दीवारों पर मराठी भाषा में लिखी जानकारी, आदि देखकर मेरा मन गर्व से अभिभूत हो उठा।
इन प्राचीन मंदिरों के जमघट में बिलकुल अलग प्रकार का एक मंदिर बहुत ही भाया| यह अयोध्या में निर्मित आकर्षक वाल्मिकी मंदिर है, जिसे मन की गहराई में मैंने बड़ी ही सावधानी से समाहित कर रखा है| यहां न केवल आद्य कवि वाल्मिकी और उनके शिष्य कुश लव की सुंदर, मनमोहक शुभ्र धवल मूर्तियाँ हैं, बल्कि विशाल मंदिर की सफेद संगमरमर की दीवारों पर उकेरी गई सकल वाल्मिकी रामायण और उस उस वर्णित प्रसंग के अनुरूप भित्तिचित्रों का मनमोहक शिल्प कौशल देखते ही बनता है| मित्रों, यह मंदिर देखकर अति प्रसन्नता का अनुभव हुआ| अयोध्या में गुरु-शिष्यों का यह अलौकिक स्मारक भव्य और अविस्मरणीय है, भले ही यह प्राचीन मंदिर न हो! मंदिर परिसर में देखने लायक अन्य छोटे मंदिर भी हैं।
और कितने ही मंदिर और अयोध्या के परम पवित्र तीर्थ स्थल की कितनी यादें सँजोकर रखूं! सप्तपुरी में एक पुरी, अयोध्या में बिताए वे मंत्रमुग्ध करने वाले दिन! उनके एक एक क्षण ने जीवन को समृद्ध किया। वहाँ के ऑटो चलाने वाले मुझे बहुत निराले और भले लगे| चाहे यात्री कोई भी हो और वह कहीं भी जा रहा हो, एकाध अपवाद को छोड़कर, उनका शुल्क मात्र प्रति व्यक्ति १० रुपये बताया जाता| उसमें अधिकतम इजाफा होता तो बस १५ रुपये तक!
जानकी महल परिसर में स्थित शामियाने में राम संकीर्तन का आयोजन किया गया था। सुबह चारुदत्त आफळेजी के कीर्तन में रामकथा की मुख्य कथा सुनकर और उनके मुख से भक्ति गीत और अभंगों का श्रवण कर असीम आनंद का अनुभव हुआ। शास्त्रीय संगीत से सजे सँवरे उनके स्वरों में वे गीत किसी उत्कृष्ट संगीत महोत्सव में उपस्थित रहने की अनुभूति देते थे| कीर्तन में भक्तिरस के साथ ही हास्यरंग का अद्भुत मिलाप करते हुए चारुदत्तजी ने अपने कीर्तन में अनेक सुंदर कथाएँ साझा कीं और उनका गहन अर्थ भी समझाया। साथ ही उपस्थित संपूर्ण भक्त मंडली द्वारा भक्ति भाव से गाए गए ‘नादातुनि या नाद निर्मितो, श्रीराम जय राम जय जय राम’ इस मधुरतम राम संकीर्तन और ताल मृदुंग के साथ गाए जाने वाली सामूहिक आरती भक्ति की पराकाष्ठा का अहसास देती थीं।
संध्या की बेला में श्रीधरजी का गीत रामायण प्रस्तुत होता था! कुछ दिन श्रीधरजी ने रामचन्द्र के भक्ति गीत भी प्रस्तुत किये। साथ ही अपनी संगीत यात्रा के कुछ दिलचस्प किस्से भी साझा किए। अयोध्या के सुरम्य परिवेश में, अयोध्या का चित्रवत वर्णन करने वाला गीत ‘सरयू तीरावरी अयोध्या’ (‘सरयू तट पर बसी अयोध्या),और राम जन्म का अमर गीत ‘राम जन्मला ग सखी’ (ठाठ देख सखी राम जन्म का) को सुनकर मेरी यात्रा अक्षरशः सम्पूर्ण रूप से सफल हो गई| (आयोजकों ने रचनात्मक अनूठेपन का दर्शन करते हुए इस गीत के साथ प्रशिक्षित कथक नर्तकों द्वारा एक उपयुक्त नृत्य भी प्रस्तुत किया।) श्रीधरजी के साथ कोरस में गाने से तन मन में एक अलग ही ऊर्जा प्रविष्ट हो जाती थी| मन को लुभाने वाली सबसे सुंदर बात थी, दोनों का सुरीला सामंजस्य, जिससे हम भक्तगण रामकथा के कीर्तनरंग और गीतरंग दोनों का पूर्ण आनंद ले सके। कुल मिलाकर इस कार्यक्रम में मुझे जो अनुभूति हुई वह दुर्लभ ही थी। उसके लिए आफळे गुरुजी और श्रीधरजी को सादर प्रणाम और उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद! इस उत्कृष्ट स्वर-तीर्थ-यात्रा के आयोजक, नैमिषारण्य के कालीपीठ के संस्थापक एवं कालीपीठाधीश गोपालजी शास्त्री को मेरा व्यक्तिगत धन्यवाद देती हूँ एवं उनका अभिनंदन करती हूँ! दुर्भाग्यवश कार्यक्रम के दौरान उनकी माताजी का निधन हो गया। परन्तु मातृत्व पीड़ा को स्वयं तक सीमित रख गोपालजी ने इस भव्य कार्यक्रम का सफल संचालन किया।
हे रघुकुलभूषण श्रीराघवेन्द्र! इन शब्दांकुरों के अंत में, अब आपकी प्रार्थना करनी रह गई है! हे कृपासिंधु रामप्रभु, मैं एक बार फिर अयोध्या में आपकी सेवा में शामिल होना चाहती हूँ| सम्पूर्ण रूप से तैयार राम मंदिर और वहाँ प्रस्थापित आपकी सांवली सलोनी मूर्ति को नजर में समा लेना चाहती हूँ! संपूर्ण मंदिर को क्रमशः आंखों की ज्योति में और हृदय के गर्भगृह में उतारना है। तब तक तुलसीदासजी के अमृत से भी मधुर भक्तिमय शब्दों का बारम्बार स्मरण करती हूँ|
“श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्।
नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम्।।
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।
मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम्।।“
अयोध्यापति श्री राम के चरणों के दर्शन की अदम्य इच्छा समेत यह शब्दकुसुमांजलि उन्हींके चरणकमलों पर अर्पण करती हूँ| जय श्रीराम!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| तिजारत ||…“।)
अभी अभी # 259 ⇒ || तिजारत || श्री प्रदीप शर्मा
कल रेडियो पर एक गीत सुना, बस इतना ही याद रहा, मोहब्बत अब तिजारत बन गई है, तिजारत अब मोहब्बत बन गई है। हिंदी तो खैर हमारी ठीकठाक है, लेकिन उर्दू और इंग्लिश में हमारा हाथ बहुत तंग है। एक भारतीय होकर हम ग्रीक और लेटिन की बात क्यूं करें, लेकिन उर्दू और इंग्लिश हमारे लिए तमिळ और मळयालम से कम भी नहीं। जिसमें उर्दू तो बिल्कुल काला अक्षर भैंस बराबर है। आखिर मातृभाषा, mother tongue और मादरे जुबां में अंतर तो होता ही है। यह अलग बात है कि हमारी मातृ और इनकी मदर एक ही है।
कई ऐसे उर्दू शब्द हैं, जिनका हम अर्थ नहीं जानते। तिजारत भी उनमें से ही एक है। हमें पहले लगा, इबादत को ही तिजारत कहते होंगे, लेकिन हम गलत निकले। इनकी तिजारत तो हमारा व्यापार, व्यवसाय निकली। यानी राजनीति और धर्म की तरह आजकल मोहब्बत भी व्यवसाय हो चली है।।
लेकिन मन ही मन हम खुश भी हुए। आखिर क्या अंतर है, मोहब्बत, इबादत, राजनीति और धर्म में ! सभी तो प्रेम के सौदे हैं।
आपने सुना नहीं ;
ये तो प्रेम की बात है उधो
बंदगी तेरे बस की नहीं है।
यहां सर दे के होते हैं सौदे
आशिकी इतनी सस्ती नहीं है।।
और उधर हमारे दिलीप साहब, जिंदाबाद जिंदाबाद, ऐ मोहब्बत जिन्दाबाद के नारे लगा रहे हैं। और गीता में हमारे श्रीकृष्ण कह रहे हैं, सभी धर्मों को त्याग, अर्जुन, मेरी शरण में आ।
उधर मोहब्बत तिजारत की बात हो रही है, और इधर विविध भारती पर भजन चल रहा है ;
राम नाम अति मीठा है
कोई गा के देख ले।
आ जाते हैं राम,
बुला के देख ले।।
आजकल मार्केटिंग का जमाना है। बिना प्रचार के तो कछुआ छाप अगरबत्ती भी नहीं बिकती। यह भी सच है कि हर सौदा सच्चा नहीं होता लेकिन हमें भी ललिता जी की तरह सर्फ वाली समझदारी से ही काम लेना चाहिए।।
प्रचार प्रसार के सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। यह सच है कि मोहब्बत की तरह अब इबादत भी तिजारत हो गई है। सोचिए, अगर आज इतना सोशल मीडिया, डिजिटल नेटवर्क, संचार के अत्याधुनिक साधन नहीं होते, तो क्या रामकाज इतना आसान होता।
आज घर बैठे हम नेटवर्क के जरिए अयोध्या पहुंच रहे हैं, यह सब भी रामजी की ही कृपा है। आज हमारे रामदूतों का नेटवर्क भी इस रामकाज में पीछे नहीं। जब घर घर पीले चावल पहुंच चुके हैं, तो हर घर और मंदिर में दीप भी प्रज्वलित किए जाएंगे। राम आएंगे, आएंगे, आएंगे।।
ना तिजारत बुरी, ना मोहब्बत बुरी। जब सियासत और इबादत एक हो जाती है, तब ही रामराज्य की स्थापना होती है। कामकाज और रामराज जब साथ साथ चलते हैं, तब ही धर्म की स्थापना होती है, और ग्लोबल नेटवर्क के जरिए, रोम रोम में रामलला विराजमान होते हैं।
जोत से जोत जलाना ही तिजारत है, इबादत है, अपने इष्ट प्रभु राम के प्रति सच्चा प्रेम और समर्पण है। रामजी की निकली सवारी,
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी झोपड़ी के भाग…“।)
अभी अभी # 258 ⇒ मेरी झोपड़ी के भाग… श्री प्रदीप शर्मा
आज सभी ओर केवल एक ही स्वर गूंज रहा है, राम आएंगे, राम आएंगे, राम आएंगे, मेरी झोपड़ी के भाग खुल जाएंगे। यह एक भक्त का भाव है, अनन्य भक्ति की पराकाष्ठा है।
अनन्य भक्ति उसे कहते हैं, जहां कोई दूसरा बीच में होता ही नहीं, भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।
शाब्दिक रूप से झोपड़ी एक गरीब की होती है और महल एक राजा अथवा किसी अमीर रईस का। जब कभी हममें भी यह अनन्य भाव जाग उठता है तो हम भी अपने आलीशान बंगले को कुटिया कह उठते हैं।।
हमने तो ऐसी आलीशान कोठी भी देखी है, जिसका नाम संतोष कुटी है। पहले संत कुटिया में रहते थे, आजकल कॉटेज का जमाना है। असली भक्त भी वही, जिसे अपना विशाल भवन भी गरीबखाना ही लगे।
हमारे इष्ट मर्यादा पुरुषोत्तम अगर अयोध्या के राम हैं, तो केवट, निषाद, वानर और शबरी के लिए वे एक वनवासी राम हैं, राम, लखन, और सीता का अगर वनवास नहीं होता, तो ना तो रावण का वध होता और ना ही भक्त यह कह पाते ;
राम, लछमन, जानकी
जय बोलो हनुमान की।
राम की अनन्य भक्ति के केवल दो ही प्रतीक हैं, जो हर भक्त के लिए आदर्श हैं। एक शबरी और दूसरे रामभक्त हनुमान। अपने इष्ट की प्राप्ति एक जन्म में नहीं होती। अपने आराध्य के दर्शन के लिए शबरी ने कितने जन्मों तक इंतजार किया होगा। पत्थर की अहिल्या में प्रभु श्रीराम के केवल पाद स्पर्श से ही प्राणों का संचार हो गया।।
भक्ति का पहला सोपान है, भक्त की अस्मिता और अहंकार का नष्ट होना।
लेकिन यह भी केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। राम क्या इतने पक्षपाती हैं कि वे केवल शबरी की झोपड़ी में ही आएंगे और मेरे दो बेडरूम किचन के फ्लैट में नहीं आएंगे। प्रभु तो प्रेम के भूखे हैं और शायद इसीलिए शबरी के जूठे बेर में उन्हें वही रस आता है जो द्वापर के श्रीकृष्ण को विदुर के साग में आया होगा।
यह एक भक्त का अनन्य भाव ही है कि वह अपनी भौतिक उपलब्धियों को तुच्छ मानकर अपने विशाल निवास को एक झोपड़ी के रूप में ही प्रस्तुत करता है। वह यह भी जानता है एक भक्त सुदामा जब अपनी कुटिया से एक मुट्ठी चावल लेकर अपने अनन्य मित्र द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने जाता है, तो केवल एक मुट्ठी चावल से उसके भाग जाग जाते हैं।।
वह तो घट घट व्यापक अंतर्यामी निर्गुण और निराकार होते हुए भी एक भक्त की भावना के अनुरूप सगुण साकार हो उठता है ;
जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ;
अगर आपकी भावना प्रबल है तो आप जैसे भी हैं, जहां भी हैं, झोपड़ी, कुटिया, कॉटेज, सरकारी क्वार्टर, बंगला अथवा केवल चित्त शुद्ध, तो अयोध्या के राम, आएंगे, आएंगे, जरूर आएंगे।
काश हमारा भाव भी राम भक्त हनुमान समान ही होता जहां ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकांगी रिश्ते…“।)
अभी अभी # 257 ⇒ एकांगी रिश्ते… श्री प्रदीप शर्मा
रास्ता एकांगी होता है, रिश्ता नहीं। रास्ता आवागमन के लिए बना होता है और रास्तों पर लगातार चलते चलते रिश्ते भी बन ही जाते हैं। पहले मेरे शहर का कोई रास्ता एकांगी नहीं था, आप एक ही रास्ते से आसानी से आ जा सकते थे। अचानक मुख्य मार्ग बहुत व्यस्त होता चला गया, वाहनों की संख्या भी बढ़ने लगी और राहगीरों की भी। इसका असर यह हुआ कि सबसे पहले शहर के महात्मा गांधी मार्ग को एकांगी किया गया। हमने एकांकी नाटक देखे और पढ़े जरूर थे, लेकिन एकांगी शब्द हमारे लिए नया था। वन वे से हमें एकांगी का मतलब समझ में आया। कुछ लोग तो आज भी हिंदी में उसे एकांकी ही कहते हैं।
रास्ता बना ही चलने के लिए होता है, बांए दायें भी केवल वाहनों के लिए ही होता है, कोई किसी पैदल यात्री को वन वे का ज्ञान नहीं बांट सकता। परेशानी तब खड़ी हुई, जब वन वे में चालान कटने शुरू हो गए।
एकांगी मार्ग में हाथी महावत के साथ निकल रहा है, उसका चालान नहीं, लेकिन एक सायकल सवार पर कानून का डंडा।।
रास्तों की तरह शनै: शनै: रिश्तों के एकांगी होने के लिए हम प्रशासन को तो दोष नहीं दे सकते। ताली दो हाथ से बजती है। लेकिन तब सभी रिश्ते करीबी लगते थे। शहर था ही कितना छोटा। छावनी, मिल एरिया, मल्हारगंज और बड़ा गणपति, हो गई चारों दिशाएं। किसी की याद आई, उठाई साइकल और पहुंच गए दस पंद्रह मिनिट में।
तब कहां किसी के घर में फोन था। मिलना जुलना ही तो रिश्ता कहलाता था।
अगर वार त्योहार में भी आपस में नहीं मिले, तो कैसा रिश्ता। तब कहां कोई आज की तरह बड़े शहरों में नौकरी धंधा करने जाता था। परिवार के तकरीबन सभी सदस्य एक ही छत के नीचे रहते थे।
ना रिश्तों की कमी, ना रिश्तेदारों की।।
रिश्तों से अधिक शिक्षा और रोजगार को प्राथमिकता दी जाने लगे। बच्चे पहले पढ़ने और बाद में नौकरी धंधे के लिए बड़े शहरों में जाने लगे। आवागमन के साधन, सुलभ होते चले गए, फोन, टीवी, कंप्यूटर और स्मार्ट फोन ने शहर को बड़ा और दुनिया को छोटा कर दिया।
आना जाना तो छोड़िए, चिट्ठी पत्री भी गायब होती चली गई। पहले लैंडलाइन और बाद में मोबाइल ने सभी मिलने जुलने वाले रास्तों को एकांगी बना दिया। अब कोई यार दोस्त अथवा रिश्तेदार, पहले की तरह चाहे जब मुंह उठाए, घर नहीं आ सकता। वह पहले फोन करेगा, अन्यथा उसे ताला भी मिल सकता है। आप भी किसी से मिलने जाएं, तो सुविधा के लिए पहले सूचित अवश्य करें।।
आज भी मेरे घर के चार पांच किलोमीटर के दायरे में कई मित्र, परिचित और रिश्तेदार हैं लेकिन हमारे बीच इस स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर में इतने एकांगी मार्ग, डिवाइडर और मार्ग अवरोधक हैं कि, वाकई लगने लगा है, बहुत कठिन है डगर पनघट की। अब रिश्तों की प्यास बस कभी कभी मोबाइल पर ही पूरी हो जाती है। फिल्म सरगम (१९७९) में एक बड़ा भावुक गीत था, हम तो चले परदेस, परदेसी हो गए। आज तो जिसे देखो, वह प्रवासी होता जा रहा है।
रिश्ते और रास्ते भले ही एकांगी हुए हों, देश आज उन्नति की राह पर है। कहीं कहीं रिश्तों में दरार आई है तो कहीं रास्तों में भी। रास्ते तो सुधर जाएंगे, और चौड़े हो जाएंगे, बस हमारे रिश्तों का दायरा ना सिमटे। एकांगी रिश्तों की दास्तान जगजीत सिंह ने कुछ इस तरह बयां की है ;
डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी उत्सव है…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 215 ☆
☆ ज़िंदगी उत्सव है… ☆
‘कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं / कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं / कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है’… इस तथ्य को उजागर करता है कि इंसान अकेला नहीं रह सकता; उसे चंद लोगों के साथ की सदैव आवश्यकता होती है और उनके सानिध्य से ज़िंदगी हसीन हो जाती है। वास्तव में वे जीने का मक़सद होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि दोस्त, किताब, रास्ता और सोच सही व अच्छे हों, तो जीवन उत्सव बन जाता है और ग़लत हों, तो मानव को गुमराह कर देते हैं। सो! दोस्त सदा अच्छे, सुसंस्कारित, चरित्रवान् व सकारात्मक सोच के होने चाहिएं। परंतु यह तभी संभव है, यदि वे अच्छे साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो सामान्यतः वे सत्य पथ के अनुगामी होंगे और उनकी सोच सकारात्मक होगी। यदि मानव को इन चारों का साथ मिलता है, तो जीवन उत्सव बन जाता है, अन्यथा वे आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां का हर रास्ता अंधी गलियों में जाकर खुलता है और लाख चाहने पर भी इंसान वहां से लौट नहीं सकता। इसलिए अच्छे लोगों की जीवन में बहुत अहमियत होती है। वे हमारे प्रेरक व पथ-प्रदर्शक होते हैं और उनसे स्थापित संबंध शाश्वत् होते हैं।
यह भी अकाट्य सत्य है कि रिश्ते कभी क़ुदरती मौत नहीं मरते, इनका कत्ल इंसान कभी नफ़रत, कभी नज़रांदाज़ी, तो कभी ग़लतफ़हमी से करता है, क्योंकि घृणा में इंसान को दूसरे के गुण और अच्छाइयां दिखाई नहीं देते। कई बार इंसान अच्छे लोगों के गुणों की ओर ध्यान ही नहीं देता; उनकी उपेक्षा करता है और ग़लत लोगों की संगति में फंस जाता है। इस प्रकार दूसरे के प्रति ग़लतफ़हमी हो जाती है। अक्सर वह अन्य लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है और कई बार हम किसी के प्रति ग़लत धारणा बना लेते हैं। इस प्रकार इंसान अच्छे लोगों को नज़रांदाज़ करने लग जाता है और उनकी सत्संगति व साहचर्य से वंचित हो जाता है।
परंतु संसार में यदि मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करने वाला कोई है, तो वह प्रेम है और इसका सबसे बड़ा साथी है आत्मविश्वास। सो! प्रेम ही पूजा है। प्रेम द्वारा ही हम प्रभु को भी अपने वश में कर सकते हैं और आत्मविश्वास रूपी पतवार से कठिन से कठिन आपदा का सामना कर, सुनामी की लहरों से भी पार उतर कर अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। इस प्रकार प्रेम व आत्मविश्वास की जीवन में अहम् भूमिका है… उन्हें कभी ख़ुद से अलग न होने दें। इसलिए किसी के प्रति घृणा व मोह का भाव मत रखें, क्योंकि वे दोनों हृदय में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव उत्पन्न करते हैं। मोह में हमारी स्थिति उस अंधे की भांति हो जाती है; जो सब कुछ अपनों को दे देना चाहता है। मोह के भ्रम में इंसान सत्य से अवगत नहीं हो पाता और ग़लत काम करता है। वह राग-द्वेष का जनक है और उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। हम सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे के बिना अधूरे व अस्तित्वहीन हैं… यही रिश्तों की गरिमा है; खूबसूरती है। इसीलिए कहा जाता है ‘दिल पर न लो उनकी बातें /जो दिल में रहते हैं’ अर्थात् जिन्हें आप अपना स्वीकारते हैं, उनकी बातों का बुरा कभी मत मानें। वे सदैव आपके हित मंगल कामना करते हैं; ग़लत राहों पर चलने से आपको रोकते हैं; विपत्ति व विषम परिस्थिति में ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जब हम यह समझ लेते हैं कि ‘वे ग़लत नहीं हैं; भिन्न हैं। उस स्थिति में सभी शंकाओं व समस्याओं का अंत हो जाता है, क्योंकि हर इंसान का सोचने का ढंग अलग-अलग होता है।’
‘ज़िंदगी लम्हों की किताब है /सांसों व ख्यालों का हिसाब है / कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी / बस इन्हीं सवालों का जवाब है ज़िंदगी।’ सांसों का आना-जाना हमारे जीवन का दस्तावेज़ है। जीवन में कभी भी सभी ख्वाहिशें पूरी नहीं होती, परंतु ज़रूरतें आसानी से पूरी हो जाती हैं। वास्तव में ज़िंदगी इन्हीं प्रश्नों का उत्तर है और बड़ी लाजवाब है। इसलिए मानव को हर क्षण जीने का संदेश दिया गया है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि ख्वाहिशें तभी मुकम्मल अर्थात् पूरी होती हैं/ जब शिद्दत से भरी हों और उन्हें पूरा करने की/ मन में इच्छा व तलब हो। तलब से तात्पर्य है, यदि आपकी इच्छा-शक्ति प्रबल है, तो दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं। आप आसानी से अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकते हैं और हर परिस्थिति में सफलता आपके कदम चूमेगी।
सो! कुछ बातें, कुछ यादें, कुछ लोग और उनसे बने रिश्ते लाख चाहने पर भी भुलाए नहीं जा सकते, क्योंकि उनकी स्मृतियां सदैव ज़हन में बनी रहती हैं। जैसे इंसान अच्छी स्मृतियों में सुक़ून पाता है और बुरी स्मृतियां उसके जीवन को जहन्नुम बना देती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लो; अपना लो, क्योंकि यही सबसे उत्तम विकल्प होता है। जो मानव दोष-दर्शन की प्रवृत्ति से निज़ात नहीं पाता, सदैव दु:खी रहता है। अच्छे लोगों का साथ कभी मत छोड़ें, क्योंकि वे तक़दीर से मिलते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके शुभ कर्मों का फल होते हैं। ऐसे लोग दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं जो आपकी तक़दीर बदल देते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘रिश्ते वे होते हैं, जहां शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो। यही है रिश्तों की खूबसूरती।’ जब इंसान बिना कहे दूसरे के मनोभावों को समझ जाए; वह सबसे सुंदर भाषा है। मौन विश्व की सर्वोत्तम भाषा है, जहां तक़रार अर्थात् विवाद कम, संवाद ज़्यादा होता है। संवाद के माध्यम से मानव अपनी प्रेम की भावनाओं का इज़हार कर सकता है। इतना ही नहीं, दूसरे पर विश्वास होना कारग़र है, परंतु उससे उम्मीद रखना दु:खों की जनक है। इसलिए आत्मविश्वास संजोकर रखें, क्योंकि इसके माध्यम से आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।
सुख मानव के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है। सो! मानव को सुख में अहंकार से न फूलने की शिक्षा दी गई है और दु:ख में धैर्यवान बने रहने को सफलता की कसौटी स्वीकारा गया है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु व सभी रोगों की जड़ है। वह वर्षों पुरानी मित्रता में पल-भर में सेंध लगा सकता है; पति-पत्नी में अलगाव का कारण बन सकता है। वह हमें एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देता। इसलिए अच्छे लोगों की संगति कीजिए; उनसे संबंध बनाइए; कानों-सुनी बात पर नहीं, आंखों देखी पर विश्वास कीजिए। स्व-पर व राग-द्वेष को त्याग ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ को जीवन का मूलमंत्र बना लीजिए, क्योंकि इंसान का सबसे बड़ा शत्रु स्वयं उसका अहम् है। सो! उससे सदैव कोसों दूर रहिए। सारा संसार आपको अपना लगेगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चोली दामन का साथ…“।)
अभी अभी # 256 ⇒ चोली दामन का साथ… श्री प्रदीप शर्मा
चोली दामन का साथ एक मुहावरा है, जिसका प्रयोग बोलचाल की भाषा में बहुतायत से किया जाता है। अच्छी मित्रता हो, घनिष्ठ संबंध हो, एक के बिना दूसरे की उपयोगिता ना हो, वहां चोली दामन उदाहरण स्वरूप चले आते हैं।
कुछ उदाहरण तो आदर्श होते हैं, मसलन राम और सीता, राम और लक्ष्मण, राधा और श्याम और कृष्ण के अधरों पर बांसुरी। जुम्मन शेख और अलगू चौधरी हों, अथवा ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे वाले शोले के जय और वीरू। लोग तो शोले, दीवार और त्रिशूल वाली सलीम जावेद की जोड़ी को भी याद करते हैं। लेकिन दोनों में कौन चोली और कौन दामन, समझना मुश्किल ! आज देखिए कहां चोली और कहां दामन। जावेद के दामन में आज शबाना और सलीम भाई के आंचल में भाई सलमान।
चोली दामन नहीं हुए, बदलते हुए सितारे हो गए।।
क्या पांव की जूते की जोड़ी में चोली दामन का साथ नहीं, एक से काम भी नहीं चलता, और दूसरे पांव में जोड़ी की जगह चप्पल भी नहीं चलती। एक समय था जब लेखक बिना कलम के और हज्जाम बिना उस्तरे के किसी काम का नहीं था। झूठ क्यूं बोलूं, मेरी आंखों का और मेरे चश्मे का भी चोली दामन का बचपन से ही साथ है।
हमारे शरीर का सांसों के साथ कितना गहरा संबंध है, हम नहीं जानते। वैसे देखा जाए तो एक मां और उसकी संतान का तो साथ चोली दामन से भी कई गुना अधिक होता है, जिसकी व्याख्या करना इतनी आसान भी नहीं। लेकिन हां चोली दामन के साथ पर हम जरूर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं।।
चोली को आप चाहें तो स्त्रियों का अंग वस्त्र कह सकते हैं। जिस तरह फिल्म शोले में ठाकुर यानी संजीव कुमार हमेशा एक शॉल ओढ़े रहता था, उसी तरह चोली को दामन अर्थात् आंचल अथवा पल्लू से हमेशा ढंका रखा जाता है। पुरुष का क्या है, वह तो बड़ी आसानी से कह उठता है ;
चुनरी संभाल गोरी
उड़ी चली जाए रे ….
क्योंकि उसको तो उड़ती पतंग को काटने और लूटने में बड़ा मजा आता है। पतंग और डोर का ही तो साथ है, चोली और दामन का।
लेकिन पुरुष में कहां हया और शरम ! ईश्वर ने उसे ना तो आंचल ही दिया और ना ही दामन। वह तो कमीज के बटन खोलकर, सीना तानकर चलता है। वह क्या जाने एक चोली का दर्द। दामन में दाग भी स्त्री को ही लगता है और आंचल भी उसे ही फैलाना पड़ता है।।
केवल एक मासूम सा, नन्हा सा बालक ही समझ सकता है, चोली दामन का उसके लिए क्या महत्व है। क्योंकि मेरी दुनिया है मां, तेरे आंचल में। उसी आंचल में, उस नन्हीं सी जान के लिए दूध है, और रात भर जागी हुई आंखों में ममता भरा पानी। वहां मां के दामन में उसके लिए खुशियां ही खुशियां हैं। यह होता है, चोली दामन का साथ।।
फिल्म मॉडर्न गर्ल (1961) का एक खूबसूरत सा गीत रफी साहब की आवाज में ;
☆ “१८ जनवरी – स्व. हरिवंशराय बच्चन जी के पुण्यस्मरण अवसर पर ….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆
स्व. हरिवंशराय बच्चन
(जन्म, 27 नवम्बर 1907. निधन, 18 जनवरी 2003)
☆
स्व. हरिवंशराय बच्चनजी के असंख्य चाहने वालों में से मैं एक हूं। उनकी कवितासे मैं बेहद प्यार करता हूं और जाहिर है कि उनकी मधुशाला का मैं बहुत बड़ा भक्त हूं। प्रकृति के हर अंगों में, जीवन के हर पहलू में, सभी जगह जिधर देखें उधर उन्हें मधुशाला नजर आती हैं। उनकी नजर तो मुझमें नहीं है और ना मैं उनके जैसा शब्दप्रभू हूँ फिर भी एक भक्त के नाते जो कुछ मन में आता है, वह शायद उनकी ही प्रेरणा है, मैं सादर कर रहा हूं। आपके आशिर्वाद और प्रशंसा के सिवा भी आपके सुझावों को भी जरूर चाहता हूं जिसके जरिए मुझे ज्यादा से ज्यादा सुधरने का मौका मिल सकेगा और शब्दों में ज्यादा से ज्यादा नशीलापन मैं भर सकूंगा।
——– सुनील देशपांडे
लॉकडाउन के काल में जब दुकानें बंद थी उसी माहौल के लिए यह चंद पंक्तियाँ बनाई थी आपके सामने रखता हूँ –