हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 337 ⇒ लहरों के राजहंस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लहरों के राजहंस।)

?अभी अभी # 337 ⇒ लहरों के राजहंस? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जलाशय और हमारे मन में बहुत समानता है। जल मे भी तरंग उठती है, और हमारे मन में भी। तरंग कुछ नहीं एक तरह की मौज है, जो कभी भी लहर का रूप धारण कर लेती है। जयशंकर प्रसाद ने इसी तरंग में अपनी कृति “लहर” की रचना कर दी। हमारे मन में विचारों का प्रवाह भी लहरों के समान ही आता जाता रहता है।

समुद्र की लहर तो दिखाई भी दे जाती है, लेकिन कुछ लहरें ऐसी भी होती हैं, जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कब इस उदास मन में किस खबर से हर्ष की लहर दौड़ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।।

इस गर्मी में तो केवल दो ही लहर नजर आएगी, एक गर्म लहर जिसे हम लू कहते हैं, और दूसरी चुनावी लहर। लू लगना ठीक नहीं लेकिन अगर किसी की अच्छी तरह लू उतारना पड़े, तो वह नेक काम भी कर ही देना चाहिए। शीत लहर में लहर तो क्या, पानी भी बर्फ हो जाता है। ऐसे में केवल तरावट और गर्माहट की लहर ही काम आती है।

इस देश ने कांग्रेस की लहर भी देखी है, जनता लहर भी देखी है, और अब मोदी लहर भी देख रही है। लहर का क्या है, कब समंदर की कोई मासूम लहर सुनामी बन जाए। जो हमसे टकराएगा, उसका सूपड़ा साफ हो जाएगा।।

कुछ होते हैं लहरबाज, उन्हें लहरों पर खेलने में मजा आता है। लहरबाज़ी या लहरसवारी या तरंगक्रीडा (अंग्रेज़ी: surfing, सरफ़िंग) समुद्र की लहरों पर किया जाने वाला एक खेल है जिसमें लहरबाज़ (सरफ़र) एक फट्टे पर संतुलन बनाकर खड़े रहते हुए तट की तरफ़ आती किसी लहर पर सवारी करते हैं। लहरबाज़ों के फट्टों को ‘लहरतख़्ता’ या ‘सर्फ़बोर्ड’ (surfboard) कहा जाता है। लहरबाज़ी का आविष्कार हवाई द्वीपों के मूल आदिवासियों ने किया था और वहाँ से यह विश्वभर में फैल गया।

एक पक्षी होता है राजहंस जिसकी टांगें बहुत लंबी और पतली होती है, अपनी तीखी चोंच से वह शिकार करता है। हंसावर नहीं, खिले सरसी में पंकज”- पानी में खड़े राजहंस गुलाबी खिले हुए कमल के समान प्रतीत होते हैं। राजहंस (फ्लैमिंगो) एक शोभायमान पक्षी है।।

कोई राजहंस ही लहरों पर राज कर सकता है। छोटी बड़ी मछलियों की परवाह किए बगैर, साम, दाम, दंड, भेद ही उसका नीर, क्षीर, विवेक होता है।

केवल शीर्षक के लिए ही स्व. मोहन राकेश का आभार प्रकट किया जा सकता है। सच तो यह है कि राजनीति में सभी कौए हंस की ही चाल चलते हैं। आम आदमी बेचारा किनारे बैठा बैठा बड़ी उम्मीद से राह देख रहा है, कभी तो लहर आएगी, कभी तो लहर आएगी।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना छिन्न पात्र ले कंपित कर में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में

वैचारिक क्रांति के बहाने, मीठे सुर ताल में, कड़वे बोल, लयबद्ध तरीके से, लोकभाषा की आड़ में बोलने पर तकनीकी लाभ भले हो पर आत्म सम्मान नहीं मिलेगा। लोग देखेंगे, सुनेंगे पर मन ही मन ऐसी ओछी हरकत पर कोसेंगे। जिस डाल पर बैठें हों, उसे काटना कहाँ की समझदारी है।

जब बात अच्छी शिक्षा हो तो ऐसे लोगों के आसपास रहने वालों से भी दूर हो जाना चाहिए।ये पहले घर पर ही माचिस लगाते हैं उसके बाद दाना पानी, चूल्हा चौका सब बंद करवा कर रोजी रोटी पर हाथ साफ करते हैं। इनके शुभचिंतक बेरोजगारी का दामन थामें, पिछलग्गू बनकर इन्हें गाड़ी में बिठाकर इधर से उधर पहुँचाते हैं। भीड़तंत्र का मतलब ये नहीं है कि आप लोकतंत्र को चुनौती दे पाएंगे, आज भी सच्चाई, धर्म की शक्ति, आस्थावान लोग, न्यायप्रियता के साथ भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जोड़तोड़ के बल पर असत्य की राह पकड़कर, कमजोर के सहारे हार को ही वरण किया जा सकता है। जब तक श्रेष्ठ मार्गदर्शक न हो तब तक मंजिल नहीं मिलेगी। कभी कुछ कभी कुछ करते हुए बस टाइमपास हो सकता है। जैसी संगत वैसी रंगत,सब असहाय साथ होने से कोई सहाय नहीं होगा। एक दूसरे को डुबा -डुबा कर चलते रहिए, जो तैरना जानते हैं वे किनारे पकड़ कर मनपसंद तट पर जा पहुँचेगे बाकी तो हो हल्ला करते हुए दोषारोपण करेंगे और करवाने के लिए बिना दिमाग़ के कमजोर लोगों को इकट्ठा करके करवाएंगे।

आप की आस्था किसके साथ है ये तो आने वाला वक्त तय करेगा। अभी समय है, सत्य के साथ जुड़िए क्योंकि हर युग में जीत केवल धर्म की होती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 274 ☆ आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 274 ☆

? आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ?

उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य था. जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे.

13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.

बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.  

भरी सभा चलाई गई  इस गोली के पीछे अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर के बाजू में जलियांवाला बाग के बंद मैदान में किया गया गोलीकांड था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी.  ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और उसने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था. मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. इस गोलीकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी.

जलियांवाला बाग  एक बंद मैदान है  जहाँ से बाहर जाने का एक ही संकरा मार्ग  है, उस पर जनरल डायर की पोलिस जमी हुई थी. घिरे हुये लोगो का वह दिल दहला देने वाला हत्याकाण्ड उधमसिंह ने बेबस एक कोने में दुबके हुये स्वयं देखा था.   तभी उन्होंने ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. उधमसिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे.  भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं  हैं.  दोनों पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं मुझे जनरल डायर की जगह  ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा, क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह  अपना नाम  मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे . उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 336 ⇒ पंखों में हवा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंखों में हवा।)

?अभी अभी # 336 ⇒ पंखों में हवा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरे घर में पंखे हैं, वे मुझे हवा देते हैं। पक्षियों के पंख होते हैं, जिनके कारण वे हवा में उड़ते हैं। मेरे घर के पंखों और पंछियों के पंखों में हवा कौन भरता है, मैने कभी गौर नहीं किया। लेकिन जब अचानक रात के दो बजे के बाद मेरे घर के पंखों ने हवा देना कम कर दिया तो मुझे यही लगा, शायद पंखों की हवा की गारंटी खत्म हो गई है।

होता है, जब रसोई गैस की गैस खत्म हो जाती है, तो सिलेंडर खाली हो जाता है। वैसे भी भरे हुए की ही गारंटी होती है, खाली की क्या गारंटी।।

मेरे घर में एसी कूलर की सुविधा नहीं, बस कमरों में सीलिंग फैन लगे हैं। जब तक बिजली रहती है, घर में रोशनी भी रहती है, और टीवी, पंखा भी चलता रहता है। जहां बार बार बिजली जाती है, वहां लोग इन्वर्टर और जनरेटर की व्यवस्था कर लेते हैं। मैं तो पूरी तरह बिजली आपूर्ति पर ही आश्रित हूं।

लगता है, बिजली का दबाव कम है, लो वोल्टेज है, लाइट भी जल तो रही है, लेकिन रोशनी में दम नहीं है। पंखे इतने तेज चल रहे हैं, कि आप गिन लो, पंखों में कितनी ब्लेड है। ऐसा लगता है किसी ने उनकी हवा निकाल ली है।।

अब तक साइकिल, स्कूटर और कार के पहियों की हवा तो निकलते देखी थी, अब तो पंखों में भी हवा कम होने लग गई है। लगता है, पंखों में भी हवा भरवानी पड़ेगी। इतनी हवा से तो बदन का पसीना भी नहीं सूखता। जितना पसीना आता है, उतना गला सूखता है, और शरीर उतना ही पानी मांगता है और उतनी ही हवा भी।

उधर चुनाव की गर्मी और इधर पानी का अभाव शुरू। रात से ही हमारी मल्टी में पानी का टैंकर आना शुरू हो गया है। एकमात्र पंखा ही तो सहारा है, रात को चैन की नींद सोने का। एकाएक वही हुआ, जिसका अंदेशा था, लाइट पूरी चली गई। और अभी अभी अधूरा ही रह गया आज का।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 335 ⇒ समय और घड़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय और घड़ी।)

?अभी अभी # 335 ⇒ समय और घड़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दिन में हमें इतना भी समय नहीं होता, कि हम बार बार घड़ी देखें। हां, लेकिन रात में, नींद खुलते ही अपने आपसे प्रश्न किया जाता है, कितनी बजी? घड़ी की ओर निगाह की, और फिर चैन से सो गए। समय हमें चिंतित भी कर सकता है, और निश्चिंत भी। जो घोड़े बेचकर सोते हैं, उनका घड़ी कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

वैसे आज की घड़ियां बड़ी शांत होती है, बस टिक टिक किया करती है। उन्हें अपने आप से काम और आपको अपने काम से काम। आप जब चाहें, देख सकते हैं, कितनी बजी। आखिर घड़ी में ऐसा क्या है, जो बजता है।।

घड़ी का काम ही समय बताना है, लेकिन जिनका काम ही समय बिताना है, उनका घड़ी से क्या काम ! तीन कांटे, घड़ी ने आपस में बांटे, घंटा, मिनिट और सेकंड। हमने एक दिन रात को चौबीस घंटों में बांटा, बराबर बारह बारह घंटों में। एक समय था, जब एक दीवार घड़ी, हर घंटे में बजती रहती थी। जितनी बजी, उतने घंटे।

अंग्रेज तो समय के इतने पाबंद थे, कि उन्होंने जगह जगह घंटा घर बना रखे थे। घंटा घर में चार घड़ी, चारों में जंजीर पड़ी।

शासकीय कार्यालयों में, स्कूल कॉलेज में, और औद्योगिक संस्थानों में समय की पाबंदी होती थी। कहीं घंटी बजती थी, तो कहीं घंटा। एक समय था, जब रात में, कहीं दूर से, हमें हर घंटे में, घंटे की आवाज सुनाई देती थी, जितनी बजी, उतने घंटे। लेटे लेटे, बंद आंखों से ही पता चल जाता था, कितनी बजी।।

हमारा शहर तो कभी कपड़ा मिलों का शहर था। उधर मिल का सायरन बजा और इधर श्रमिक साइकिल पर अपना खाने का डिब्बा बांधे, मिल की ओर रवाना। पूरे शहर को जगाए रखते थे, ये मिल के सायरन। समय की पहचान बन गए थे ये सायरन, चलो सुबह के सात बज गए। हर पाली के वक्त सायरन बजा करते थे।

स्कूल की छुट्टी की घंटी पर हमारा बड़ा ध्यान रहता था। लेकिन जब सुबह अम्मा गहरी नींद से जगाती थी, चलो सात बज गए, तो बड़ा बुरा लगता था। आपको बुरा लगे अथवा भला, घड़ी को क्या, उसे तो बस बजना है।।

वह जमाने गए, जब घड़ी को भी चाबी भरनी पड़ती थी। आज समय हमारे जीवन में चाबी भर रहा है। घड़ी रुक सकती है, समय नहीं। घड़ी सिर्फ समय बताती है, आपका समय कैसा चल रहा है, यह नहीं।

कभी सुहाने पल, तो कभी मुसीबत की घड़ी।

अगर समय अच्छा तो आपके पौ बारह, और अगर समय खराब तो समझिए बारह बजी। प्रातः वेला अमृत वेला होती है, शुभ शुभ ही बोलना चाहिए। आपका आज का दिन शुभ हो। चलिए घड़ी में सुबह के पांच बज गए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 98 –  इंटरव्यू : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 2

☆ कथा-कहानी # 98 –  इंटरव्यू : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी.

चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ.

फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”.साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 334 ⇒ चलो सजना, जहां तक घटा चले… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चलो सजना, जहां तक घटा चले।)

?अभी अभी # 334 ⇒ चलो सजना, जहां तक घटा चले? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आप किसी के, सजन, साजन, प्रेमी अथवा साथी हैं, तो घटा, सावन, बहार और मौसम से सावधान रहें, क्योंकि क्या भरोसा कब, आपकी सजनी से आपको बुलावा आ जाए।

कोई समय, मुहूर्त, अथवा दिन रात नहीं, बस उठो और, “चलो सजना, जहां तक घटा चले “। अब यह आग्रह है अथवा आदेश, पैदल चलना है अथवा गाड़ी से। एक और स्पष्ट हिदायत है, लगाकर गले।

प्रेम में सब चलता है। गौर कीजिए ! ओ साथी चल, मुझे लेकर साथ चल तू, यूं ही दिन रात चल तू। अजीब परेशानी है अगर मौसम सुहाना है, उधर उसको आपकी बांहों में आना है। यानी पहले गला, फिर बांह।।

आपको दफ्तर जाना है, अथवा कोई जरूरी काम करना है, उससे उसे क्या। सुनो सजना … इस तरीके से बोलेगी कि पूरी दुनिया सुन ले। सुनो सजना, पपीहे ने कहा सबसे पुकार के। अब ये पपीहा कोई दूध वाला अथवा सब्जी वाला है क्या, जो सुबह सुबह आवाज लगा रहा है। मानो कोई मॉर्निंग अलार्म हो। संभल जाओ, चमन वालों, कि आए दिन बहार के। डरा तो ऐसा रहा है, मानो आपातकाल लग रहा हो।

वाह रे पपीहे और वाह रे बहार।

यही हाल सावन की घटा और बरखा बहार का है। सावन तो जब भी आता है, झूम कर ही आता है।

जब भी काली घटा छा ती है तो प्रेम ऋतु ही आती है, और हां, साथ में तेरी याद जरूर आती है। ओ सजना, बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई।

यानी अब अपना पेट बस फुहार और प्यार से ही भरना है। थोड़ा मुफ्त राशन भी ले आती, तो घर का चूल्हा तो जलता।।

यहां तो ऐसी हालत हो रही है कि पूछो ही मत ;

नैनों में बदरा छाए,

बिजली सी चमके हाए

ऐसे में बलम मोहे, गरवा लगा ले ….

अब आप साजन नहीं बलम हो गए हैं, बीमारी बढ़ती जा रही है। बदरा, बिजली और चमक अब शरीर में उतर आई है,

और वेद तो आप सांवरिया ही हो। आ गले लग जा।।

जिनको आटे दाल का भाव नहीं पता, उनके लिए होगा लाखों का सावन, और साजन की नौकरी दो टंकियां की, लेकिन उधर, प्यार, बहार, सावन और बरखा से दूर एक सरस्वतीचंद्र भी है, जिसका यह मानना है कि ;

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए

ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।

प्यार से जरूरी कई काम हैं

प्यार सब कुछ नहीं

आदमी के लिए।।

हमें तो इन सबकी काट शैलेंद्र में ही नजर आती है। सजनवा बैरी हो गए हमार और ;

सजन रे झूठ मत बोलो

खुदा के पास जाना है।

ना हाथी है, ना घोड़ा है

वहां पैदल ही जाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 273 ☆ आलेख – लंदन से 9 – डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 273 ☆

? आलेख – डे लाइट सेविंगमतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ?

यूके में प्रति वर्ष मार्च महीने के आखिरी रविवार को 1 बजे घड़ियाँ 1 घंटा आगे बढा दी जाती हैं, इस तरह जीवन का एक घंटा बिना जिए ही आगे बढ़ जाता है।

यह वापस प्रति वर्ष अक्टूबर के आखिरी रविवार को 2 बजे 1 घंटा पीछे कर दी जाती हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि अप्रैल से यहां समर सीजन शुरू हो जाता है जब सूर्योदय जल्दी होने लगता है।

वह अवधि जब घड़ियाँ 1 घंटा आगे होती हैं उसे ब्रिटिश ग्रीष्मकालीन समय (BST) कहा जाता है। शाम को अधिक और सुबह में कम दिन का प्रकाश होता है (जिसे डेलाइट सेविंग टाइम भी कहा जाता है)। इस वर्ष 31 मार्च को आखिरी रविवार था, इसलिए जब मैं सुबह लंदन में सोकर उठा तो इंटरनेट से जुड़े होने के कारण मोबाइल में तो समय अपडेट हो चुका था, पर टेबल पर रखी घड़ी एक घंटे पीछे का टाइम ही बतला रही थी। रात 1 बजे समय को एक घंटा फारवर्ड कर दिया गया था। अब अक्तूबर के आखिरी रविवार अर्थात इस वर्ष 27 अक्तूबर को घड़ी वापस एक घंटा पीछे की जाएंगी। मतलब भारत के समय से जो साढ़े चार घंटे का अंतर यूके के समय का है, वह पुनः साढ़े पांच घंटो का कर दिया जायेगा।

दुनियां के कई देशों में इस तरह की प्रक्रिया अपनाई जाती है।

भारत में डेलाइट सेविंग टाइम का उपयोग नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भूमध्य रेखा के पास स्थित देशों में मौसमों के बीच दिन के घंटों में अधिक अंतर का अनुभव नहीं होता।

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 78 – देश-परदेश – जंगल में अमंगल ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 78 ☆ देश-परदेश – जंगल में अमंगल ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मानव जाति सैकड़ों वर्षों से जंगलों का दोहन करती आ रही है। अब समय बदल चुका है, जंगल में निर्वाह करने वाले अनेक जीव जंतु मानव  जीवन में ही प्रवेश कर उसे समाप्त कर चुके हैं।

प्रकृति अपना बदला ले कर रहती है। मानव जाति ने जंगल की संपदा को समेटा है, अब मानव जाति को जंगल के पशु और पक्षी समाप्त कर देंगे।

जंगल में इस बात को लेकर आपात काल लागू कर दिया गया कि कुछ जीव जंगल से पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। जैसे की कौआ, गिरगिट, कुत्ता, लोमड़ी, और चमगादड़। इनकी खोज खबर के लिए जंगल से एक विशेष टीम शहरों में गई और जंगल के राजा को अपनी  अंतरिम रिपोर्ट तय समयानुसार जमा करा दी है।

टीम के निष्कर्ष में पाया गया जंगल के सभी कौए दुनिया की विभिन्न टीवी चैनल पर एंकर का कार्य कर रहे हैं। गिरगिट तो जन मानस के नेता के रूप में मज़े ले रहे है।

कुत्ते नर और मादा दोनों आजकल दुनिया के गिरगिटों के मीडिया प्रभारी बन कर कौओं की चैनल पर रात दिन भौं भौं कर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।

विश्व के सभी चमगादड़ मानव जाति में प्रवेश कर किसी काले से रंग के छोटे से डिब्बी नुमा यंत्र को सोते जागते पकड़े रहते हैं। ये यंत्र खाते, पीते इनके हाथ में रह कर मानव जाति के दिमाग को दीमक के समान खोखला करने में लगा रहता है।

लोमड़ी के बारे में बस इतना ही कहा, ये प्रजाति व्हाट्स ऐप के मैसेज का लेनदेन (कॉपी/पेस्ट) बहुत ही होशियारी और चालाकी से कर अपना नाम अर्जित करने में कार्यरत है।

आपके मन में भी किसी जंगल के जीव के बारे में इस प्रकार की जानकारी हो तो, साझा कर ग्रुप के सदस्यों का ज्ञानवर्धन कर सकते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 333 ⇒ कॉमेडी ट्रेजेडी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कॉमेडी ट्रेजेडी।)

?अभी अभी # 333 ⇒ कॉमेडी ट्रेजेडी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे जीवन में जो सुख दुख है, साहित्य की भाषा में उसे कॉमेडी ट्रेजेडी ही कहा गया है। हमारा भारतीय दर्शन सुख और आनंद पर आधारित है, उसमें दुख के लिए कोई स्थान नहीं है, इसीलिए हमारी अधिकांश संस्कृत रचनाएं सुखांत ही हैं। ग्रीक ट्रेजेडी के अलावा शेक्सपियर ने सुखांत और दुखांत दोनों नाटकों की रचना की। अनुवाद की मजबूरी देखिए कॉमेडी को अगर हास्य कहा गया है तो ट्रेजेडी को त्रासदी।

हमने सुख और दुख, हास्य और विसंगति को मिलाकर व्यंग्य का सृजन कर दिया। हास्य और करुण दोनों को हमारे आचार्यों ने रस माना है, लेकिन व्यंग्य का नवरस में कोई स्थान नहीं है। आप व्यंग्य को ना तो पूरा हास्य ही कह सकते हैं और ना ही सिर्फ विनोद। लेकिन फिर भी हास्य और विनोद के बिना व्यंग्य अधूरा है।।

व्यंग्य को तो आप कॉमेडी भी नहीं कह सकते, और ट्रेजेडी तो यह है ही नहीं। ले देकर एक शब्द satire है, जो व्यंग्य का करीबी लगता है। साहित्य की विधा होते हुए भी व्यंग्य अपनी अलग पहचान बनाए रखता है। व्यंग्य को हास्य की चाशनी पसंद नहीं, बस, थोड़ा मीठा हो जाए। नशे के साथ चखने की तरह अगर रचना में कुछ पंच हों तो व्यंग्य थोड़ा नमकीन भी हो जाता है।

हास्य कवियों की तरह यहां ठहाके नहीं लगते, पाठक बस या तो मंद मंद मुस्कुराता है, अथवा कभी कभी उसकी हंसी भी छूट जाती है। एक हास्य कविता की तुलना में रवींद्रनाथ त्यागी के व्यंग्य पाठ में श्रोता को अधिक आनंद आता है। जिन पाठकों ने P.G. Wodehouse अथवा मराठी लेखक, पु.ल. देशपांडे को पढ़ा है, वे अच्छी तरह जानते हैं, मृदु हास्य की फुलझड़ी किसे कहते हैं।।

हास्य और विनोद व्यंग्य के आभूषण हैं, उनके बिना व्यंग्य केवल कड़वा नीम है। व्यंग्य करेले के समान कड़वा होते हुए भी, जब मसालों के साथ बनाया जाता है, तो बड़ा स्वादिष्ट लगता है। हमारे देश की राजनीति जितनी मीठी है उतनी ही कसैली भी। रिश्वत, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, दलबदल, कुर्सी रेस और कसमों वादों का वायदा बाजार थोक में विसंगति पैदा कर देता है। एक अच्छा व्यंग्यकार जब चाहे, इसकी जुगाली कर सकता है।

थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियां। घर गृहस्थी का झंझट, नौकरी धंधे की परेशानी, तनाव और दुख बीमारी के वातावरण में हम हंसना और ठहाके लगाना ही भूल गए हैं।

अब हमें बच्चों की तरह गुदगुदी नहीं चलती। जीवन में कुछ तो ऐसा हो, जिससे हमारे चेहरे पर हंसी लौट आए, कोई ऐसी व्यंग्य रचना जो हमें कभी गुदगुदाए तो कभी हंसकर ठहाके लगाने पर बाध्य करे। कभी सुभाष चन्दर की अक्कड़ बक्कड़ हो जाए तो कभी समीक्षा तेलंग का व्यंग्य का एपिसेंटर। काश कोई हमारे घर लिफाफे में कविता ही डाल जाए। हंसी खुशी ही तो हमारे जीवन की कॉमेडी है, ग्रीक ट्रेजेडी अलविदा, मैकबेथ, ओथेलो, हेमलेट अलविदा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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