हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सेल्फमेड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सेल्फमेड ? ?

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसीको स्कूल जाना है, किसीको कॉलेज, किसीको नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जाग्रत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?

(प्रातः 6:52 बजे,28.8.19)

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© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 508 ⇒ तब और अब  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तब और अब ।)

?अभी अभी # 508 ⇒ तब और अब  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आपने अख़बारों में विज्ञापन देखें होंगे – तब और अब ! एक तस्वीर में एक गंजे सज्जन खड़े हैं, और दूसरी में एक बाल वाले। यह हमारे तेल का कमाल है। कल जहां रेगिस्तान था, आज वहां फसल लहलहा रही है। फेयर एंड लवली के विज्ञापन में भी एक मुहांसे वाली और दूसरी ओर इटालियन टाइल्स जैसी चिकनी चुपड़ी सूरत। प्रकृति के सिद्धांत के विपरीत बूढ़े से जवान होइए। तब और अब में अंतर देखिए।

बुजुर्गों के किस्से कहानियों में तब का गुणगान होता था, और अब की आलोचना ! उनके लिए वह गर्व करने वाला अंग्रेजों का जमाना था। चीजें इतनी सस्ती थी कि क्या बताएं ! उनके परिवार में कोई न कोई रायबहादुर, जमींदार अथवा दीवान अवश्य निकल आता था। राजा साहब द्वारा दी गई तलवार दीवार पर लटकी रहती थी। शिकार के किस्से न हुए, तो किस्से ही क्या हुए। ।

मुझे भी यह अख्तियार है कि मैं तब और अब के किस्से सुनाऊं ! रात होती तो आप सो जाते। दिन में तो केवल चाय ही बोरियत दूर कर सकती है। तो पेश हैं मेरे तब और अब के बोरियत भरे किस्से।

मुझे तब और अब में ज़्यादा कुछ बदला नज़र नहीं आता ! तब भी मैं, मैं ही था, और आज भी मैं, मैं ही हूं। यह मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। लोग कल कुछ और थे, और आज कुछ और हैं।

जो समय के साथ बदला नहीं, वो इंसान नहीं। तो बताइए, मैं कौन हूं। ।

तब भी मेरे पास वे चीजें नहीं थीं, जो लोगों के पास थीं, और आज भी ऐसी कई चीजें, जो लोगों के पास है, मेरे पास नहीं है। तब हमारे पास फ्रिज नहीं था, लोगों के पास था। जिनके पास था, उनके फ्रिज के ऊपर एक डब्बा रखा रहता था, जिसे वोल्टेज स्टेबलाइजर कहते थे।

मैं उसकी कांपती सुई की ओर देखा करता। जब वोल्टेज कम ज़्यादा होता है तो स्टेबलाइजर उसे कंट्रोल कर लेता है। यही हाल तब के टीवी का था। बड़ी महंगी चीजें थीं, इसलिए स्टेबलाइजर भी जरूरी था।

मेरे घर जब तक फ्रिज और टीवी आया, वोल्टेज स्टेबलाइजर इन बिल्ट हो चुके थे। मेरे यहां तब भी स्टेबलाइजर नहीं था, आज भी नहीं है। लाइट तब भी जाता था, आज भी जाता है। लोग इन्वर्टर और जेनरेटर रखने लगा गए हैं। मेरे पास तब भी इन्वर्टर नहीं था, आज भी नहीं है। ।

एक समय लूना जितनी कॉमन थी, आज कार उतनी कॉमन हो गई है। लोग लूना से कार पर आ गए। मेरे पास तब लूना ज़रूर थी, लेकिन अब मेरे पास न लूना है, न कार है। बस, कभी सिटी बस है, तो कभी ग्यारह नंबर की बस। अब तो मेरे पास मेट्रो भी आ रही है।

तब और अब में जो सबसे महत्वपूर्ण है और जिसके लिए मुझे गर्व है, अभिमान है, फख्र है, घमंडवा है, वह यह, कि मेरी मुट्ठी तब भी बंद थी, और आज भी बंद है। कहते हैं, बंधी मुठ्ठी लाख की होती है। और इसका श्रेय मैं अपने पिताजी को देता हूं। मैंने उन्हें अपने जीवन में कभी किसी के आगे हाथ पसारते नहीं देखा। अगर उनका हाथ खुला, तो किसी को देने के लिए ही, मांगने के लिए नहीं। ।

जो न नवीन हो, न पुरातन हो, तब भी वैसा ही हो, और अब भी वैसा ही हो, वह सनातन होता है। संसार चलता रहता है, इसलिए यह समय के साथ बदलता रहता है। मूल्य बदलते हैं, परिभाषाएं बदलती हैं, लोगों की फितरत बदलती है। जो आज जड़ दिखाई देता है, वह कभी चेतन था, जो आज चेतन है, वह कभी जड़ था।

सृष्टि के कुछ नियम है, कुछ मर्यादाएं हैं। सूरज पूरब से निकलता है, पश्चिम में अस्त होता है। ऋतुएं तीन हैं, सुर सात हैं। दो और दो चार होते हैं। जब दो और दो पांच होने लग जाएंगे, पूरब पश्चिम मिलने लग जाएंगे, रात रानी दिन में खिलने लगेगी, नियम टूट जाएंगे, मर्यादाएं भंग हो जाएंगी। तब और अब में फर्क मिट जाएगा। सनातन पर संकट छा जाएगा। ।

एक वो भी दीवाली थी, एक ये भी दीवाली है। तब दस रुपए के पटाखों के लिए थैला ले जाना पड़ता था, अब ठेले भर पटाखे, सिर्फ paytm से आ जाते हैं। तब दीयों से रोशनी होती थी, अब बिजली की झालर से मॉल और भवन सजाए जाते हैं।

मिठाई तब भी बनती थी, आज भी बनती है। घर की सफाई तब भी होती थी, आज भी होती है। खुशियां कम ज़्यादा हो जाएं, कमरतोड़ महंगाई क्यों न हो जाए, खुशियों को गले लगाना मनुष्य का स्वभाव तब भी था, आज भी है। सुख दुख सनातन हैं। हम तब भी खुश थे, आज भी खुश हैं।

सूरज का रोज सुबह उगना, फूलों का सुबह खिलना, झरनों का निरंतर बहना, पक्षियों का चहचहाना क्या खुशियों का सबब नहीं ? हम क्यों सुबह के अभिवादन में सुप्रभात अथवा गुड मॉर्निंग ही कहते हैं, bad morning अथवा एक मनहूस सुबह नहीं कहते। हम जानते हैं, खुशियां ही जीवन की सकारात्मकता है। तब भी थी आज भी है। खुशियां बांटने से बढ़ती है। दीपावली की शुभकामनाएं। खुशियों से आपका जीवन जगमगाए। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 262 – को जागर्ति? ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 262 ☆ को जागर्ति? ?

इसी सप्ताह शरद पूर्णिमा सम्पन्न हुई। इसे कौमुदी पूर्णिमा अथवा कोजागरी के नाम से भी जाना जाता है।

अश्विन मास की पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा कहलाती है। शरद पूर्णिमा अर्थात द्वापर में रासरचैया द्वारा राधारानी एवं गोपिकाओं सहित महारास की रात्रि, जिसे देखकर आनंद विभोर चांद ने धरती पर अमृतवर्षा की थी।

चंद्रमा की कला की तरह घटता-बढ़ता-बदलता रहता है मनुष्य का मन भी। यही कारण है कि कहा गया, ‘चंद्रमा मनसो जात:।’

यह समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी के प्रकट होने की रात्रि भी है। समुद्र को मथना कोई साधारण कार्य नहीं था। मदरांचल पर्वत की मथानी और नागराज वासुकि की रस्सी या नेती, कल्पनातीत है। सार यह कि लक्ष्मी के अर्जन के लिए कठोर परिश्रम के अलावा कोई विकल्प नहीं।

लोकमान्यता है कि कोजागरी की रात्रि लक्ष्मी जी धरती का विचरण करती हैं और पूछती हैं, ‘को जागर्ति?’.. कौन जग रहा है?..जगना याने ध्येयनिष्ठ और विवेकजनित कर्म।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का उवाच है,

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

                                                (2.69)

सब प्राणियोंके लिए जो रात्रि के समान है, उसमें स्थितप्रज्ञ संयमी जागता है और जिन विषयोंमें सब प्राणी जाग्रत होते हैं, वह मुनिके लिए रात्रि के समान है ।

सब प्राणियों के लिए रात क्या है? मद में चूर होकर अपने उद्गम को बिसराना,अपनी यात्रा के उद्देश्य को भूलना ही रात है। इस अंधेरी भूल-भुलैया में बिरले ही सजग होते हैं, जाग्रत होते हैं। वे निरंतर स्मरण रखते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, हर क्षण परमात्म तत्व को समर्पित करना ही लक्ष्य है। इन्हें ही स्थितप्रज्ञ कहा गया है।

साधारण प्राणियों का जागना क्या है? उनका जागना भोग और लोभ में लिप्त रहना है।  मुनियों के लिए दैहिकता कर्तव्य है। वह पर कर्तव्यपरायण तो होता है पर अति से अर्थात भोग और लोभ से दूर रहता है। साधारण प्राणियों का दिन, मुनियों की रात है।

अब प्रश्न उठता है कि सर्वसाधारण मनुष्य क्या सब त्यागकर मुनि हो जाए? इसके लिए मुनि शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। मुनि अर्थात मनन करनेवाला, मननशील। मननशील कोई भी हो सकता है। साधु-संत से लेकर साधारण गृहस्थ तक।

मनन से ही विवेक उत्पन्न होता है। दिवस एवं रात्रि की अवस्था में भेद देख पाने का नाम है विवेक। विवेक से जीवन में चेतना का प्रादुर्भाव होता है। फिर चेतना तो साक्षात ईश्वर है। ..और यह किसी संजय का नहीं स्वयं योगेश्वर का उवाच है।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

(10.22)

श्रीमद्भगवद्गीता में ही भगवान कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

जिसने भीतर की चेतना को जगा लिया, वह शाश्वत जागृति के पथ पर चल पड़ा। ‘को जागर्ति’ के सर्वेक्षण में ऐसे साधक सदैव दिव्य स्थितप्रज्ञों की सूची में रखे गए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

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💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नींद क्यों रात भर नहीं आती? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ नींद क्यों रात भर नहीं आती? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

यह एक उम्र का बहुत बड़ा सवाल बन जाता है कि नींद क्यों रात भर नहीं आती ? और अगर पूरी नींद ले भी ली और फिर भी उठने के बाद आप फ्रेश महसूस नहीं करते तो यह भी एक समस्या से कम नहीं है! आठ घंटे की भरपूर नींद के बाद भी थके थके से क्यों? इसे ताज़गी न देने वाली नींद कहा जाता है। यदि अक्सर आप ऐसा ही महसूस करते हैं तो यह खतरे की घंटी से कम नहीं! आपको अलर्ट होने की जरूरत है।

न्यूरोलोजिस्ट डाॅ सोनजा कहती हैं कि हर सुबह थका हुआ जागना निराशाजनक है आपके लिए! यह आपकी पूरी दिनचर्या को बिगाड़ सकता है। नींद की गुणवत्ता में सुधार  लाने और सुबह तरोताज़ा होने पर विचार कीजिये, कोई उपाय कीजिये! यदि आप लगातार नींद कम आने से जूझ रहे हैं तो अपनी आदतों की ओर ध्यान दीजिये और एक ही समय पर सोना, दिन के समय भरपूर काम और खानपान की ओर ध्यान दीजिये! लक्ष्य रखे़ं और उन्हें पूरा करने पर ध्यान केंद्रित रखिये! प्रतिदिन सुबह कम से कम बीस मिनट की सैर अपनी सुबह में शामिल कर लीजिए! अपनी दिनचर्या पहले से निर्धारित कर लीजिए तो और बेहतर रहेगा! देर रात  जागना या रात का खाना देरी से खाना भी नींद में बाधा बन सकता है। नींद की ज्यादा दवाइयां लेने से बचिये तो बेहतर रहेगा आपके लिए! पानी बीच बीच में पीते रहिये! निष्क्रिय न रहिये, कुछ न कुछ काम ढूंढते रहिये तो अच्छा रहेगा!

बाकी कहते हैं कि धीमा धीमा संगीत और बहुत डिम सी रोशनी में भी नींद आपको अपनी आगोश में लेते देर नहीं लगाती। अच्छा साहित्य भी साथ दे सकता है नींद लाने में। मनपसंद संगीत सुनिये और फिर मस्त मस्त नींद ही नहीं ख्बाब लीजिए! सपनों में वे भी आयेंगे, जिनको आप दिनभर याद करते रहे हैं! बस, यह शिकायत न कीजिये:

नींद क्यों रात भर आती नहीं?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #254 ☆ नीयत और नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 253 ☆

☆ नीयत और नियति 

“जिसकी नीयत अच्छी नहीं होती, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होता” जेम्स एलन का उक्त वाक्य अत्यंत कारग़र है, जो नीयत व नियति का संबंध प्रेषित करता है। इंसान की नीयत के अनुसार नियति अपना कार्य करती है और उससे परिणाम प्रभावित होता है। जिस भावना से आप कार्य करते हैं, वैसा ही कर्म फल आपको प्राप्त होता है। ‘कर भला, हो भला’, ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ व ‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ अर्थात् ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही पल पाएगा इंसान’ पर प्रकाश डाला गया है। आप जो भी करते हैं, वही आपके पास लौट कर आता है – यह सृष्टि का अकाट्य सत्य है तथा इससे श्रेष्ठ कर्म करने का संदेश प्रेषित है। यह आकर्षण का सिद्धांत अर्थात् ‘लॉ आफ अट्रैक्शन’ है। जिसकी नीयत में खोट होता है, उससे किसी महत्वपूर्ण कार्य की अपेक्षा करना व्यर्थ है, क्योंकि वह कभी भी, किसी का अच्छा व हित करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। लाओटर्स का यह कथन “ज्ञानी संचय नहीं करता। वह ज्यों-ज्यों देता है, त्यों-त्यों पाता है” अत्यंत सार्थक है। जितना आप सृष्टि अर्थात् यूनिवर्स में देते हैं, उससे कई गुना आपके पास लौट कर आता है। सो! ज्ञानी के भांति संचय मत कीजिए तथा प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना कीजिए कि प्रभु आपको दाता बनाए तथा आप निरंतर निष्काम कर्म करते रहें।

“जिस परिमाण में हम में ज्ञान, प्रेम तथा कर्म का मिलन होता है, उसी परिमाण में हमारे अंदर पूर्णता आती है।” टैगोर का यह कथन श्लाघनीय है। संपूर्णता पाने के लिए ज्ञान, प्रेम व कर्म का सामंजस्य आवश्यक है। प्रसाद जी “ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/  इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडम्बना है जीवन की” में वे ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। यदि बिना पूर्व जानकारी के किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, तो हृदय की इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है? एकदूसरे की भावनाओं के विपरीत आचरण करना ही जीवन की विडम्बना है। टैगोर भी ज्ञान, प्रेम व कर्म के व्याकरण के संबंध में प्रकाश डालते हैं तथा इसे आत्मिक शांति पाने का साधन बताते हैं। डॉ• विद्यासागर “सच्चा सम्मान पद या धन से नहीं, मानवता व करुणा से आता है” के माध्यम से वे बुद्ध की करुणा व मानवतावादी भावना प्रकाश डालते हैं। मानव मात्र के प्रति करुणा, दया व सहानुभूति का भाव वह दैवीय गुण है, जो स्व-पर, राग-द्वेष व अपने-पराये के संकीर्ण भाव से ऊपर उठ जाता है, जो स्नेह, अपनत्व व सौहार्द का प्रतीक है; जिसमें सामीप्य व सायुज्य भाव निहित है। सत्कर्म मानव की नियति को बदलने की क्षमता रखते हैं।

मानव स्वयं अपना भाग्य विधाता है, क्योंकि हम निरंतर परिश्रम, लगन, दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास द्वारा अपनी तक़दीर अर्थात् भाग्य-रेखाओं को बदलने का सामर्थ्य रखते हैं। इंसान नियति को बदल सकता है, बशर्ते उसकी नीयत अच्छी व सोच सकारात्मक हो। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जो हम देखते हैं, सोचते-विचारते हैं, वैसा ही हमें संसार दिखाई पड़ता है। इसलिए मानव को नकारात्मकता को त्यागने का संदेश प्रेषित किया गया है। यदि हम ऐसी सोच वाले लोगों के मध्य रहेंगे, तो सदैव तनाव में रहेंगे और एक दिन अवसाद-ग्रस्त हो जाएंगे। यदि हम  कूड़े के ढेर के पास से गुजरेंगे, तो दुर्गंध आपकी मन:स्थिति को दूषित कर देगी और इसके विपरीत बगिया के मलय वायु के झोंके आपका हृदय को हर्षोल्लास से आप्लावित कर देंगे।

‘बुरी संगति से मानव अकेला भला’ के माधयम से मानव को सदैव अच्छे लोगों, मित्रों व पुस्तकों की संगति में रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि यह सब मानव को सुसंस्कृत करते हैं; हृदय की दूषित भावनाओं का निष्कासन कर सद्भावों, व सत्कर्मों करने को प्रेरित करते हैं। इसलिए मानव को बुरा देखने, सुनने व करने से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि मन बहुत चंचल है तथा दुष्कर्मों की ओर शीघ्रता से प्रभावित होता है। बुराइयाँ मनमोहक रूप धारण कर मानव को आकर्षित व पथ-विचलित करती हैं।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात ब्रह्म सत्य है। हमारे लिए प्रभु पर विश्वास कर, उस राह पर चलना दुष्कर है, क्योंकि उसमें अनगिनत काँटे व अवरोध हैं; जिन्हें पार करना अत्यंत कठिन है। परंतु जगत् मिथ्या है और माया के प्रभाव से यह सत्य भासता है। इंसान आजीवन माया महाठगिनी के जाल से मुक्त नहीं हो पाता और सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं के जाल में उलझा उनकी पूर्ति में मग्न रहता है। अंत में वह इस दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है और यह उसकी नियति बन जाती है, जो उसे उम्र-भर छलती रहती है। मानव इसके जंजाल व प्रभाव से लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो पाता।

सो! नीयत अच्छी रखिए। अच्छा सोचिए, अच्छे कर्म कीजिए। नियति सदैव आपकी संगिनी बन साथ चलेगी; आपको निविड़ तम से बाहर निकाल सत्यावलोकन कराएगी तथा मंज़िल तक पहुँचाएगी। आप पंक में कमलवत् रह पाने में समर्थ हो सकेंगे। आगामी आपदाएं व बाधाएं आपकी राह को नहीं रोक पाएंगी और आप निष्कंटक मार्ग से गुज़रते हुए अपनी मंज़िल अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य ख़ुशी पा जाएगा’  स्वरचित गीत की पंक्तियाँ मानव में एकांत में तन्हाई संग जीने का संदेश देती हैं, जो जीवन का शाश्वत् सत्य है। आपकी सोच, भावनाएं व मनोदशा सृष्टि में यथावत् प्रतिफलित होती है और नियति तदानुरूप कार्य करती है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 504 ⇒ अपने अपने दायरे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपने अपने दायरे।)

?अभी अभी # 504 ⇒ अपने अपने दायरे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

“A man is born free, but everywhere in chains”…

मनुष्य पैदा तो स्वतंत्र होता है, लेकिन हर जगह संबंधों के बंधनों से जकड़ा रहता है।

 – दार्शनिक रूसो

वैसे तो संबंध शब्द से ही बंध का बोध भी होता है। हर व्यक्ति अपने आप में एक इकाई है और उसके अपने अपने दायरे हैं।

यही दायरा उसका अपना संसार है। बच्चा पैदा होता है और कुछ ही समय में बच्चों की दुनिया में चला जाता है। यह उसकी अपनी दुनिया है, आप बड़े हैं, आपकी दुनिया अलग है। आप अब बच्चे नहीं बन सकते।

बस इसी तरह बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हम अपने-अपने दायरे यानी अपने-अपने संसार में जीते रहते हैं। आप अपने दायरे का कितना भी विस्तार करें उसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। कहने को पूरी दुनिया आपकी है, आपका ही देश प्रदेश है, लेकिन दुनिया के इसी देश प्रदेश में आपका गांव शहर है जिसमें आपका भी एक अपना घर है। आपका अपना परिवार है, आपके सगे संबंधी, नाते रिश्तेदार और यार दोस्त भी हैं। दुनिया चल रही है और आप भी इसी दुनिया में अपना अलग संसार चला रहे हैं। बस यही आपका दायरा है।।

एक दूसरे से जुड़ना अपने दायरे को विस्तृत करना है। कुछ रिश्ते आपको जकड़ लेते हैं और कुछ रिश्तो को आप नहीं छोड़ पाते। कहने को प्रेम का रिश्ता सबसे बड़ा होता है, शायद इसीलिए कहा गया है सबसे ऊंची प्रेम सगाई। क्या प्रेम में सिर्फ सगाई ही होती है, शादी नहीं होती। और अगर किसी ने प्यार में धोखा खाया तो कितनी जल्दी वह कह उठता है ;

ये दुनिया, ये महफिल

मेरे काम की नहीं,

मेरे काम की नहीं …

इधर प्रेम सगाई टूटी, और उधर पूरी दुनिया ही तितर बितर हो गई ;

साथी न कोई मंज़िल

दिया है न कोई महफ़िल चला मुझे लेके ऐ दिल, अकेला कहाँ …

हम सब जीवन में एक बार उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जब हमारे दायरे सिमटने लगते हैं हमारी दुनिया छोटी होने लगती है हम एकाएक, अकेले पड़ने लगते हैं। इस अकेलेपन का एहसास आपको अपनी दुनिया के दायरे में रहते हुए भी हो सकता है।

ऐसा क्यों होता है कि अक्सर एक उम्र के बाद हर इंसान अपने दायरे में ही सिमटकर रह जाता है।

सिर्फ अपने बच्चे और अपना परिवार। एकाएक बच्चे विदेश क्या चले गए, मानो दुनिया ही चली गई। हम दो हमारे दो से अब केवल हम दो ही रह गए और उधर हमारे दो, दो से चार हो गए, और हम कहते रह गए ;

दुनिया बदल गई

मेरी दुनिया बदल गई।

टुकड़े हुए जिगर के

छुरी दिल पे चल गई।।

अगर आपके दायरे में संगीत है, कला है, किताबें हैं, साहित्य है, सतगुरु का सत्संग है, स्वाध्याय है, तो आपकी दुनिया कभी अकेली नहीं हो सकती। आपने अपना दायरा अब इतना विस्तृत कर लिया है, जहां सुख चैन है, संतोष है और सिर्फ प्रेम नहीं दिव्य प्रेम है। इस अवस्था में कोई गिला, शिकवा, शिकायत नहीं, तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 217 ☆ रंग रंगीला रमते रमते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विस्तार है गगन में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 217 ☆ रंग रंगीला रमते रमते

प्रकृति में जितना डूबते जायेंगे उतना की कर्म का महत्व स्पष्ट होता जायेगा। सभी को एक समान अवसर मिलता है अपनी जिंदगी में रंग भरने का, रंगों का चुनाव आप पर निर्भर है कोई काला रंग भर कर उदासी की चादर ओढ़ सबके कार्यों में कमीं निकालता है तो कोई सफेद से शीतलता व सौम्यता का संदेश देता है तो वहीं कोई हरे से हरियाली और खुशहाली की जीवन गाथा को गा उठता है।

इसी तरह नीले, पीले, केसरिया, लाल, गुलाबी, सतरंगी, धानी सभी उत्साहित हो जीवन की परम्पराओं का स्वागत करना सिखाते हैं।

भारतीय संस्कृति में तो रंगों को दिनों और देवों से जोड़कर सबका एक सा महत्व प्रतिपादित किया है।

हल्दी का पीला जहाँ शुभता का प्रतीक है वहीं सिंदूर, मेहंदी व आलता की लाली सुहाग का प्रतीक।

जीवन की आपाधापी में जब भी वक्त मिले कुछ पल जरूर स्वयं के लिए निकालना चाहिए, त्योहारों का उद्देश्य ही यही होता है कि आप खुद को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक रूप से मजबूत करने की दिशा में सोचें, आप के चेहरे की मुस्कुराहट न केवल आपको प्रसन्न चित्त करती है वरन जितने लोग संपर्क में आते हैं वे भी तरोताजा महसूस करते हैं क्योंकि सौंदर्य की खुशबू से सारा जगत महकता ही है तो आइए संकल्प लें उत्सवों को भारतीय संस्कारों के साथ मनायें व सुखद परिवार की कल्पना को साकार करते हुए नारी शक्ति का न सिर्फ सम्मान करें बल्कि कन्या पूजन को विधि विधान से पूरा कर माता की कृपा के हकदार बनें।

माँ की आराधना का एक रूप डांडिया के साथ भी है जिसे भक्त पूरी श्रद्धा से नवरातों में खेलते हैं, ढोल की थाप संग डांडिया का स्वर, पायलों की छनक, चूड़ियों की खनक, माथे की बिंदिया की चमक, करधन का आकर्षण, धानी चुनर का सिर पर होना ही मानो सारी सज्जा को बयां कर देता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 503⇒ मंदिर और अस्पताल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मंदिर और अस्पताल।)

?अभी अभी # 503 ⇒ मंदिर और अस्पताल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वो खेत में मिलेगा खलिहान में मिलेगा, भगवान तो ऐ बंदे अस्पताल में भी मिलेगा ;

अगर हमारे देश में गिनती की जाए, तो मंदिरों की संख्या अस्पतालों से कुछ ज्यादा ही मिलेगी। सुख में कौन अस्पताल जाता है भाई, जब बीमार होता है, तभी इंसान अस्पताल का रुख करता है, जब कि सुख, दुख, हंसी खुशी और गम, सभी अवसरों पर भगवान को याद किया जाता है, कभी खुशी में प्रसाद चढ़ाया जाता है, तो कभी मुसीबत में मन्नत भी मांगी जाती है।

मंदिर अगर आस्था का विषय है तो अस्पताल सेवा और इंसानियत का। आस्था के आगे तर्क हमेशा घुटने टेक देता है। कहने वाले कहते रहे हमें मंदिर नहीं अस्पताल चाहिए, इंसान की आस्था इतनी बलवती होती है कि आपको हर छोटे बड़े अस्पताल में एक मंदिर भी मिलेगा। अस्पताल में भले ही डॉक्टर भगवान हो, लेकिन असली डॉक्टर तो भगवान ही होता है।

जब डॉक्टर के सभी प्रयास विफल हो जाते हैं तब वह भी यही कहता है, अब तो केवल प्रार्थना कीजिए, सभी ईश्वर पर छोड़ दीजिए। हम डॉक्टर हैं, भगवान नहीं।।

हमारे देश में मंदिर कहां नहीं। कभी विद्यालयों को भी मंदिर कहा जाता था। हमारा अक्षर ज्ञान ही आदर्श बाल मंदिर से हुआ था। अगर हमारे अंदर ऐश्वर्या प्रेम है तो हमारा दिल भी एक मंदिर ही हुआ न। कबीर तो कह भी गए हैं ;

मो को कहां ढूंढे रे बंदे,

मैं तो तेरे पास में।

ना मंदिर में, ना मस्जिद में

मैं तो हूं विश्वास में।।

जब तक हमको डॉक्टर में विश्वास है, डॉक्टर हमारे लिए भगवान है और अस्पताल हमारे लिए मंदिर, और अगर हमारी आस्था ही नहीं, तो फिर तो मंदिर में भी भगवान नहीं।

फिर भी मंदिर और अस्पताल में जमीन आसमान का अंतर है। ‌

भगवान के घर देर है अंधेर नहीं लेकिन कहीं-कहीं के अस्पताल में उपचार नहीं, सिर्फ अंधेर गर्दी ही है। हमारे मंदिर का भगवान तो कुछ भी नहीं मांगता।

हम भले ही करते रहें तेरा तुझको अर्पण, लेकिन आप जो भी उसे अर्पित करते हैं वह उसे वापस आपको लौटा देता है तेरा तुझको अर्पण।

भगवान सिर्फ देता ही देता है कुछ लेता नहीं। लेकिन अस्पताल में ऐसा नहीं है।

यहां तो सरकारी डॉक्टर भी तनख्वाह लेता है, और प्राइवेट प्रैक्टिस भी करता है। और अस्पताल प्राइवेट है तो वहां का खर्चा किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं। कोरोना काल में डॉक्टर और भगवान दोनों किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। मंदिरों के पट बंद हो गए थे, हर घर एक अस्पताल हो गया था और अस्पताल मुर्दाघर। जहां आस्था होती है, वहां तो केवल प्रार्थना में ही चमत्कार होता है। लक्ष्मण के लिए हनुमान जी संजीवनी बूटी लाए थे, और हमारे लिए मोदी जी को – वैक्सीन। अब तो सबमें इतना बूस्टर डोज है कि लोग उस त्रासदी को ही भूल गए हैं।।

मंदिर और अस्पताल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जब डॉक्टर हमारी जान बचाता है तो वह हमारे लिए भगवान हो जाता है। ईश्वर हम सब में विराजमान है, एक बीमार में भी और एक डॉक्टर में भी। निस्वार्थ सेवा ही ईश्वर की सेवा है।

मंदिर मंदिर मूरत तेरी

फिर भी ना दीखे सूरत तेरी।

जहां प्रेम है, निःस्वार्थ सेवा है, बस वहीं मंदिर है, वहीं भगवान है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 308 ☆ आलेख – “मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 308 ☆

?  आलेख – मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है। यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों, इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है। जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है। नालेज अपडेट, सेमिनार आयोजन, शोध जर्नल्स का प्रकाशन, इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है। यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है।

इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है।

लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।

जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की। अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है। सात दिनों, सुबह शाम की दो पारियों में लगभग 50 से ज्यादा पेपर्स, सरल कार्य नही है।

मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है। मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है।

इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है। आज पेपर लीक्स, चुनावों में धांधलियां आम शिकायतें हैं, इन साफ्टवेयर से इस पर रोक लगाई जा सकती है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

FIE Civil

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 502 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी सूरत तेरी आँखें।)

?अभी अभी # 502 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अज़ीब अंधेरगर्दी है ! हमें अपनी आँखों से ही अपनी सूरत दिखाई नहीं देती। हमें या तो दूसरों की आँखों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर किसी आईने का !

‌आईने के सामने घण्टों सजने-संवरने के बाद जब सजनी अपने साजन से पूछती है, मैं कैसी लग रही हूँ ? तो, किसी किताब में गड़ी आँखों को बिना उठाए, वह जवाब दे देते हैं, ठीक है ! और वह पाँव पटकती हुई किचन में चली जाती है। थोड़ी ही देर में चाय का प्याला लेकर वापस आती है। मिस्टर साजन चाय की पहली चुस्की लेते हुए जवाब देते हैं, हाँ, अब ठीक लग रही हो।।

‌जिन आँखों से आप पूरी दुनिया देख चुके हो, उन आँखों से अपनी ही सूरत नहीं देख पाना तो उस कस्तूरी मृग जैसा ही हुआ, जो उस कस्तूरी की गंध की तलाश में है, जो उसकी देह में ही व्याप्त है। अगर आईना नहीं होता, तो कौन यक़ीन करता कि, मैं सुंदर हूँ।

इंसान से कई गुना सुंदर पशु-पक्षी इस प्रकृति पर मौजूद है, जिनके बदन पर कोई अलंकारिक वस्त्र-आभूषण मौजूद नहीं, लेकिन इसका उन्हें कोई भान-गुमान नहीं। उनके पास प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुंदरता को निहारने का कोई आईना ही नहीं ! जब किसी सुंदर पक्षी के सामने आईना रख दिया जाता है, तो वह उसे कोई अन्य पक्षी समझ आईने पर चोंच मारता है। उसे अपनी ‌सुंदरता का कोई बोध ही नहीं। जब कि उसने कई बार अपनी परछाई पानी में अवश्य देखी होगी।।

‌अगर आईना नहीं होता, तो क्या सुंदरता नहीं होती ! आईना सुंदर नहीं ! आईने का अपना कोई अक्स नहीं। क्या आपने ऐसा कोई आइना देखा है, जिसमें कुछ भी नज़र नहीं आता ? जब भी आप ऐसा आईना देखने जाएँगे, अपने आप को उसमें पहले से ही मौजूद पाएँगे।

‌केवल शायर ही नहीं, ऐसे कई इंसान हैं जो किसी की आँखों में खो जाते हैं, उन आँखों पर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। तेरी आँखों के सिवा, दुनिया में रखा क्या है। तीर आँखों के, जिगर से पार कर दो यार तुम। क्या करें ! तेरे नैना हैं जादू भरे।

‌यही हाल किसी मासूम सी सूरत का है ! हर सूरत कितनी मशहूर है। तेरी सूरत से नहीं मिलती, किसी की सूरत ! हम जहां में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं। सूरत तो सूरत, तस्वीर तक को सीने से लगाकर रखने वाले कई आशिक मौजूद हैं, इस दुनिया में।।

‌अगर इस खूबसूरत से चेहरे पर आँखें ही न होती तो क्या होता ! आँखें ही रौशनी हैं, आँखें ही नूर हैं। आँखों में परख है, इसीलिए तो हीरा कोहिनूर है। सूरत और आँखों को आप एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते।

‌ऐसा नहीं ! चेहरे बदसूरत भी होते हैं, आँखें कातिल ही नहीं डरावनी भी होती हैं। क्यों कोई हमें फूटी आँखों नहीं सुहाता, क्यों हम किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहते ? अरे ! कोई कारण होगा।

‌हमारी इन दो खूबसूरत आँखों के पीछे भी आँखें हैं, जो हमें इन आँखों से दिखाई नहीं देती, वे मन की आँखें हैं। ‌वे मन की आँखें सूरत को नहीं सीरत को पहचानती हैं। ‌मन की आँखों ही की तरह हर सूरत में एक सीरत छुपी रहती है। वही अच्छाई है, आप चाहें तो उसे ईश्वरीय गुण कहें या ख़ुदा का नूर।।

‌संसार ऐसी कई विभूतियों से भरा पड़ा है, जो जन्म से ही दृष्टि-विहीन थे। भक्त सूरदास से लगाकर रवींद्र जैन तक कई जाने-अनजाने नेत्रहीनों का सहारा रही हैं, ये मन की आँखें ! इस दिव्य-दृष्टि के स्वामी को कोई अक्ल का अंधा ही अंधा कहेगा।

‌यारों, सूरत हमारी पे मत जाओ ! मन की आँखों से हमें परखो। हम दिल के इतने बुरे भी नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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