(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख – शरद जोशी की प्रासंगिकता शाश्वत है।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 249 ☆
आलेख – शरद जोशी की प्रासंगिकता शाश्वत है
हिंदी व्यंग्य को वर्तमान नवरूप की त्रिधारा में वास्तविक पहचान देने में परसाई, शरद जी और त्यागी जी की लेखनी का योगदान उल्लेखनीय है। इन महत्वपूर्ण लेखकों ने स्वयं अपनी मौलिकता से व्यंग्य लेखन की विधा को एक नया आयाम दिया। अपने समय की सामाजिक, धार्मिक कुरीतियों और राजनीति पर शरद जी ने अपनी ही स्टाइल में निरंतर कटाक्ष किया। उनके व्यंग्य आज की परिस्थितियों में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। वे शाश्वत बने हुए हैं, क्योंकि तत्कालीन विसंगतियां रूप अदल बदल कर समाज में यथावत बनी हुई हैं।
शरद जी के व्यंग्यों में उन समस्याओं पर इतना गहरा कटाक्ष होता था, की वह पाठक को भीतर तक झकझोर देता था और लंबे समय तक उस पर सोचते रहने को मजबूर कर देता था।
शरद जोशी की लोकप्रियता का सबसे अहम कारण उनके व्यंग्यों में मौजूद विरोध का स्वर और उनका आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा होना था।
शरद जी के विरोध के स्वर को लोकप्रियता मिली, क्योंकि वह सीधे लोगों के सरोकारों तक पहुंचते थे। लोगों को लगा जो बात वह नहीं कह पाते वह इन व्यंग्यों में कही गई है। राजनीति, भ्रष्टाचार पर अपने स्तंभ प्रतिदिन में वे चोट करते थे। सामाजिक कुरीतियों पर उनके प्रहार बदलाव लाने के कारक बने, उन्होंने लोगों को किसी भी घटना को देखने का एक नया नजरिया दिया।
जोशी जी ने शालीन भाषा में भी अपनी बात को बेहतर ढंग और बहुत ही बारीकी से रखा, जिस कारण वह और उनके व्यंग्य पाठकों में खासे लोकप्रिय होते चले गए।
शरद जी ने किसी एक क्षेत्र को नहीं छुआ। उन्होंने सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक यहां तक कि धार्मिक सभी विषयों पर व्यंग्य किया। जितनी विविधता उनके विषयों में दिखाई देती है उतनी ही उसके प्रस्तुतीकरण में भी झलकती है। उनकी भाषा−शैली और प्रस्तुतीकरण का ढंग विषय के मुताबिक होता था जो सीधा पाठक के दिल में उतरता था। जोशी के व्यंग्यों की सबसे खास बात थी उनकी तात्कालिकता, वे किसी घटना पर तुरंत व्यंग्य लिखते थे जिससे पाठक उससे आसानी से जुड़ जाता था। उस समय हुए एक घोटाले पर उन्होंने ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’ नामक व्यंग्य लिखा। अपने शीर्षक से ही यह पूरी बात कह देता है। इसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। वे अपने व्यंग्यों में किसी को नहीं बख्शते थे, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या निचले स्तर का कोई व्यक्ति हो। नवभारत टाइम्स में उनका कॉलम ‘प्रतिदिन’ बहुत लोकप्रिय था, यहां तक की लोग उसके लिए अखबार को पीछे से पढ़ना शुरू करते थे। शरद जी अपने पाठक के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहे। अखबारों में छपने वाले लेख की साहित्यिक उम्र अधिक नहीं मानी जाती पर उनके कॉलम भी साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गए और आज किताबों के रूप में हमारे सामने हैं। शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुआ। उन्होंने इंदौर के होल्कर कॉलेज से बीए किया और यहीं पर समाचार पत्रों तथा रेडियो में लेखन के जरिए अपने कॅरियर की शुरुआत की। उन्होंने ‘जीप पर सवार इल्लियां’, ‘परिक्रमा’, ‘किसी बहाने’, ‘तिलस्म, ‘यथा संभव’, ‘रहा किनारे बैठ’ सहित कई किताबें लिखीं। इसके अलावा जोशी जी ने कई टीवी सीरियलों और फिल्मों में संवाद भी लिखे। पांच सितंबर 1991 को उनका देहावसान हुआ पर वे अपने साहित्य के माध्यम से अमर हैं।
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