हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 270 ⇒ घोड़े की नाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घोड़े की नाल।)

?अभी अभी # 270 ⇒ चांदी जैसे बाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Horse Shoe

मुझे नहीं पता, जंगल के राजा शेर का महल और सिंहासन कैसा होता है और उसकी पोशाक और जूते कैसे होते हैं, लेकिन पवन वेग से उड़ने वाले महाराणा प्रताप के महान चेतक की शक्ति, बहादुरी और स्वामिभक्ति से दुनिया परिचित थी। महारानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी महाराज और रामदेवरा के बाबा रामदेव की आप उनके घोड़े के बिना कल्पना ही नहीं कर सकते।

सदियों से घोड़ा इंसान का एक वफादार साथी रहा है। अश्वारोही कहें, अथवा घुड़सवार, वीर बहादुरों और जांबाज़ की जान होते हैं उनके घोड़े, जिनकी टाप उनके आगमन की सूचना देती है। हमारे सभी आधुनिक इंजन से चलने वाले वाहनों की तुलना अश्व शक्ति अथवा हॉर्स पॉवर से ही की जाती है।

सदियों से इंसान का सच्चा साथी और उपयोगी वाहन रहा है एक घोड़ा।।

इसके चार पांव किसी तेज गति से चलने वाले वाहन के पहियों से कम नहीं। जिस तरह एक फौजी के, चलते वक्त उसके जूतों की आवाज आती है, ठीक उसी प्रकार जब एक घोड़ा दौड़ता है, तो उसके टापों की आवाज आसानी से सुनी जा सकती है। यह घोड़े के पांव में लगी लोहे की नाल का कमाल है, जिसे अंग्रेजी में horse shoe कहते हैं। क्या होता है यह हॉर्स शू अथवा घोड़े की नाल ;

A horseshoe is a piece of metal shaped like a U which is fixed to a horse’s hoof.

इसे और अच्छी तरह से यूं भी समझा जा सकता है ;

पशु के पैरों के तलवे में लोहे का एक यू आकार का सोल लगाया जाता है, जिससे घोड़े को चलने और दौड़ने में दिक्कत नहीं होती है। अंग्रेजी के यू के आकर के इस सोल में जहां-जहां कील ठोकी जाती है, वहां-वहां छेद होते हैं। लोहे के इस सोल को नाल कहते हैं। आमतौर पर घोड़े की एक नाल हफ़्ता-10 दिन तक चलती है और इस दौरान घोड़ा सौ से 200 किलोमीटर तक चल लेता है।।

घोड़ा एक समझदार, लेकिन बेजुबां जानवर है। केवल युद्ध में ही नहीं इंसान उसको सवारी के रूप में भी उपयोग करता है। महाभारत के युद्ध में द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण जिस अर्जुन के रथ के सारथी बने थे, उसमें भी ये ही अश्व मौजूद थे।

कभी तांगा, टमटम और बग्घी हमारे प्रिय यातायात के साधन हुआ करते थे।

सेना में भी कैवेलरी रेजिमेंट होती है ;

The 61st Cavalry Regiment is a horse-mounted cavalry regiment of the Indian Army. It is notable for being one of the largest, and also one of the last, operational non mechanised horse-mounted cavalry units in the world.

एक घोड़े की नाल उसके लिए आवश्यक ही नहीं, वरदान भी है। वैसे तो जानवरों के खुर ही उनके जूते होते हैं, लेकिन उनका दर्द एक इंसान महसूस नहीं कर सकता। हम तो अगर नंगे पांव चलें तो पांव में छाले पड़ जाएं। सुना नहीं आपने फिल्म पाकीजा का वह राजकुमार का डायलॉग ;

आपके पांव बड़े नाजुक हैं, इन्हें जमीन पर मत रखिए, मैले हो जाएंगे।।

जब आदमी ही मशीन बनता चला जा रहा है तो फिर असली हॉर्स पॉवर की भी कद्र कौन करेगा। बेचारे घोड़े की सभी शक्ति आजकल मशीनों के इंजन में बदलती जा रही है।

लेकिन याद रहे, हजारों मशीनें एक चेतक पैदा नहीं कर सकती। शुक्र है, जब तक महालक्ष्मी की हॉर्स रेस है, हमारी सेना की ६१वीं अश्वारोही बटालियन मौजूद है, यह प्राणी किसी ना किसी बहाने से, हमारे बीच मौजूद रहेगा।

घोड़ी चढ़ना कोई घुड़सवारी नहीं। असली घुड़सवारी करें, फिर घोड़े की टाप का आनंद लें।

घोड़ा कहां आपसे अपना दर्द बयां करने वाला है। वह भले ही घास से यारी ना करे, लेकिन नाल उसके पांव का सुरक्षा कवच है।

नाल ठोंकने के लिए, पहले घोड़े के पांव बांधने पड़ते हैं, और बाकायदा पांवों में कीलें ठोंकी जाती है, क्योंकि घोड़े का जन्म, सिर्फ चलने के लिए हुआ है। स्वस्थ घोड़ा कभी नहीं बैठता। अगर एक बार बैठा, तो फिर कभी खड़ा नहीं होता।।

घोड़े की नाल के साथ कई टोटके जुड़े हैं और कुछ अंध विश्वास भी। कुछ लोग घर के मुख्य द्वार पर घोड़े की नाल लगाते हैं।

हम ऐसे टोटकों को तूल नहीं देते। वैसे जो घोड़े की नाल है, उसे भाग्यशाली तो होना ही चाहिए, वह एक घोड़े की हमसफर जो है ..horse ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 269 ⇒ स्वांतः सुखाय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वांतः सुखाय।)

?अभी अभी # 269 ⇒ स्वांतः सुखाय… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे ढाई अक्षर प्रेम के आते हैं, और एक दो शब्द संस्कृत के भी आते हैं। पंडित बनने के लिए बस इतना ही काफी है। कुछ शब्द पूरे वाक्य का भी काम कर जाते हैं,  जब कि होते वे केवल दो शब्द ही हैं। जय हो। नमो नमो और वन्दे मातरम्।

संस्कृत के दो शब्द जो मुझे संस्कृत का प्रकांड पंडित बनाते हैं,  वे हैं स्वांतः सुखाय और वसुधैव कुटुंबकम् ! वैसे इन शब्दों का हिंदी संस्करण भी उपलब्ध है,  लेकिन वह प्रचलन के बाहर है। जो अपने कपड़े स्वयं धोकर सुखाए,  वह स्वावलंबी कहलाता है और जो जगत को कृष्णमय देखता है,  उसके लिए वासुदेव कुटुंबकम् है।।

कौन सुख के लिए नहीं जीता ! सुख की खोज ही मनुष्य का गंतव्य है। वह कर्म कैसे भी करे,  वह जीता भी स्वर्गिक सुख के लिए है और मरने के बाद भी स्वर्ग की ही इच्छा रखता है। केवल सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है,   दुख तो अपना साथी है।

पंडित भीमसेन जोशी तो कह गए हैं,   जो भजे हरि को सदा,   वो ही परम पद पाएगा ! हां अगर वे यह कहते,  जो भजे हरि को सदा,  वो ही प्रधानमंत्री का पद पाएगा,  तो सभी राजनीतिज्ञ छलकपट,  राग द्वेष और उठापटक छोड़ हरि का भजन करने लग जाते। वे यह अच्छी तरह से जानते हैं,   प्रधानमंत्री का पद,  परम पद से बहुत बड़ा है।।

जो अपने सुख की चिंता नहीं करते,   वे सभी कार्य सर्व जन हिताय करते हैं ! उनका जीना,   मरना,  उठना बैठना,   सब देश की अमानत होता है। वे अपने सुख की कभी परवाह नहीं करते। अपना पूरा जीवन चुनावी दौरों,  विदशी दौरों,  और सूखा और बाढ़ग्रस्त इलाकों के दौरों में गुजार देते हैं। न उनका कोई परिवार होता है,  न सगा संबंधी।

अपने लिए,   जीये तो क्या जीये,  तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए। होते हैं कुछ सहित्यानुरागी,  जिनका सृजन समाज को अर्पित होता है। वे अपने सुख के लिए नहीं लिखते,  उनके लेखन में आम आदमी का दर्द झलकता है।

यही दर्द इन्हें विदेशों में हो रही साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है।जहां केवल आम आदमी की चर्चा होती है। वे किसी पुरस्कार के लिए नहीं लिखते। लेकिन अगर उन्हें पुरस्कृत किया जाए,  तो वे पुरस्कार का तिरस्कार भी नहीं करते।।

पसंद अपनी अपनी,  खयाल अपना अपना ! आप अपने सुख के लिए ज़िन्दगी जीयें,  अथवा समाज के लिए,  सृजन आपका स्वयं के सुख के लिए हो या जन कल्याण के,  आप अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। बस इतना जान लें,   स्वांतः सुखाय में कोई प्रसिद्धि नहीं है,  कोई पुरस्कार नहीं है,  तालियां और हार सम्मान नहीं है …!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 268 ⇒ || सेवक || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| सेवक ||।)

?अभी अभी # 268 ⇒ || सेवक || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिना सेवा और समर्पण के कोई सेवक नहीं बन सकता। जिसमें दास का भाव होता है, वह भी सेवक ही कहलाता है। अंग्रेजी में serve क्रिया से ही सर्वेंट बना है। उनका सर्वेंट ही हमारा हिन्दी का नौकर बन गया और सर्विस, नौकरी हो गई। कुछ शासकीय सेवक बन गए, और कुछ सिविल सर्वेंट। इसी तरह नौकरशाही का जन्म हुआ, जिसमें बाबू, साहब, क्लर्क और चपरासी जैसे ओहदे अस्तित्व में आए।

सेवा का विस्तार होता चला गया, शासन, प्रशासन और शासक प्रशासक बन बैठा।

जो कभी ईश्वरदास और भगवानदास था, समय ने उसे परिस्थिति का दास बना दिया। नौकरशाही की तरह ही शायद कभी दास प्रथा का भी जन्म हुआ हो। ताश के पत्तों के साहब, बीवी और गुलाम तो प्रतीक मात्र हैं। मालिक, हम तो हैं आपके गुलाम।।

जो कर्म को सेवा समझते हैं, वे भी सेवक ही कहलाते हैं। जो देश की सेवा करता है, वह देशसेवक कहलाता है और जो समाज की सेवा करता है, वह समाज सेवक। कहीं सेवक को परिश्रमिक मिलता है, तो वह कहीं का कर्मचारी कहलाने लगता है। दूध, अखबार, किराना, बिजली, पानी, तो छोड़िए, हमारे सर की छत भी किसी की सेवा का ही नतीजा है।

ईश्वर की कृपा और मनुष्य मात्र के आपसी सहयोग से ही यह संसार चल रहा है।

कहीं किसी नौकर को साहब की नौकरी के साथ उनकी चाकरी भी करनी पड़ रही है तो कुछ ऐसे भी सेवक हैं जो केवल प्रभु की चाकरी करते हैं, और अपनी सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए भी अपनी स्वेच्छा से समाज की सेवा करते हैं, ऐसे लोग स्वयंसेवक कहलाते हैं, क्योंकि ये अपनी सेवाओं के बदले में कोई मूल्य नहीं लेते। उन्हें सेवा के बदले में मेवे की इच्छा भी नहीं रहती। वे ही देश, समाज और प्रभु के असली सेवक होते हैं।।

गुरुद्वारे में ग्रंथी भी होते हैं और सेवक भी। निष्काम सेवक के लिए कोई काम बड़ा छोटा नहीं होता। अपने जूतों के साथ वे अपना अहंकार और अस्मिता भी बाहर छोड़कर आते हैं, और जो सेवा उन्हें सौंपी जाती है, उसका निष्ठा से निष्पादन करते हैं, ऐसी सेवा कार सेवा कहलाती है।

हाल ही में २२ जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर में संपन्न प्राण प्रतिष्ठा भी किसी कारसेवा का ही परिणाम है। ६ दिसंबर १९९२ वही ऐतिहासिक दिन था, जब कारसेवकों के बलिदान ने कार सेवा को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। सब कुछ ईश्वर की प्रेरणा से ही होता है।

अगर हमारे मन माफिक होता है, तो हम खुश होते हैं, और जब हमारी मर्जी के अनुसार उसका परिणाम नहीं निकलता तो हम दुखी होते हैं।।

एक सच्चा सेवक कभी अपना धैर्य नहीं खोता। उसका कार्य कभी खत्म ही नहीं होता। गीता के अनुसार फल की चिंता न पालते हुए निष्काम कर्म ही उसकी नियति है।

सेवक वही जो कभी भ्रमित ना हो। राजनीतिक स्वार्थ और महत्वाकांक्षा अच्छे अच्छे सेवकों को पथभ्रष्ट कर देती है। तब ही बाबा रामदेव जैसे योगी पूरे देश में स्वाभिमान यात्रा की अलख जगाते हैं और सत्ता पलट डालते हैं। कोई सेवक इसका श्रेय ले लेता है तो कई सेवक गुमनामी के साये में पड़े रहते हैं।

लेकिन एक सच्चे सेवक के लिए यश, कीर्ति और लोकेषणा कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि वह तो केवल ईश्वर का दास है, एक सच्चा सेवक है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 267 ⇒ भारत रत्न… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भारत रत्न।)

?अभी अभी # 267 ⇒ भारत रत्न… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भारत रत्नों की खान है।

हम यहां उन दरबारी नवरत्नों की बात नहीं कर रहे, जिनका जिक्र अक्सर गूगल सम्राट करते हैं। हम उन रत्नों की बात कर रहे हैं, जो करोड़ों भारतीयों के हृदय सम्राट हैं। रत्नों की अपनी गरिमा होती है, चमक दमक होती है, वे जिसका नमक खाते हैं, उनका ही गुणगान नहीं करते। यह माटी उनकी ऋणी होती है, पूरा देश उनका गुणगान करता है।

होंगे मियां तानसेन, संगीत सम्राट l लेकिन उनके गुरु भी तो हरि के ही दास थे।

जो असली रत्न होते हैं, वे महलों में शोभायमान नहीं होते, उनकी प्रतिभा के आगे तो अच्छे अच्छे सम्राट भी नतमस्तक होते हैं। सूर सूर, तुलसी शशि और मीराबाई जैसे असंख्य रत्नों से भरा पड़ा है, हमारा भारत रत्नों का भंडार।।

भारत रत्न भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल शामिल है। इस सम्मान की स्थापना २ जनवरी १९५४ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद द्वारा की गई थी। पहला भारत रत्न 1954 में सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सर सीवी रमन और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को प्रदान किया गया।

जब भारत कुमार मनोज कुमार यह गीत गाते हैं, कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले मोती, तो यह कहीं से कहीं तक अतिशयोक्ति नहीं। कुछ माटी के लालों का जिक्र तो उसने भी बड़े जोशो खरोश के साथ किया है, लेकिन यह एक ऐसी सतत प्रक्रिया है जिसके कारण ही इस पुण्य भूमि पर देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं।।

वैसे तो माटी माटी में भेद नहीं होता, रत्न रत्न होता है। हमारे देश में तो बच्चे बच्चे की जबान पर आज भी रतन टाटा का नाम है।

क्या आप जानते हैं, जब अंग्रेजों ने कोलकाता की हुबली नदी पर हावड़ा ब्रिज बनाया था, तो उसमें लगा पूरा स्टील भी टाटा का ही था।

वैसे तो रत्नों की पहचान इतनी आसान नहीं होती, फिर भी इंसान अपने गुण से आसानी से पहचाना जा सकता है। अगर देश के प्रमुख भारत रत्नों का जिक्र करें, तो पहले भारत रत्न बिहार से हमारे प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्रप्रसाद ही थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि इस वर्ष भी भारत रत्न और कोई नहीं, बिहार के गौरव कर्पूरी ठाकुर ही हैं।।

मरणोपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर से पहले बिहार के पांच भारत रत्न हैं ;

१.विधान चंद्र राय

२. डा राजेंद्र प्रसाद

३. जय प्रकाश नारायण

४. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

५. कर्पूरी ठाकुर

पांच महिला भारत रत्नों में

इंदिरा गांधी, अरुणा आसफ अली, मदर टेरेसा, सुब्बा लक्ष्मी और लता मंगेशकर शामिल हैं। सर्व श्री सीवी रमन, सचिन तेंदुलकर, नेल्सन मंडेला, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, अटलबिहारी बाजपेई और अमर्त्य सेन के बिना यह सूची अधूरी है।

यों तो भारत रत्न अनगिनत हैं, फिर भी इनकी संख्या शतक पार तो कर ही चुकी है। ईश्वर भले ही सबके साथ न्याय ना करे, देश उन सभी रत्नों का भी ऋणी है, जिन पर किसी पारखी की भले ही नजर ना पड़ी हो।

हर भारतीय अपने आपमें एक रत्न है, क्योंकि वह भारत माता का लाल है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 68 – देश-परदेश – सामूहिक भोजन वितरण ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 68 ☆ देश-परदेश – सामूहिक भोजन वितरण ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हम सब समय समय पर सामूहिक भोजन का लुत्फ लेते आ रहे हैं। पंगत प्राणली से गिद्ध प्रणाली तक कई सैंकड़ो बार इसका रसवादन कर अपने स्वास्थ्य के पाये को खोखला कर चुके हैं।  

आज भी जब कभी मौका मिलता है, तो चूकते नहीं हैं, विगत दिनों मुफ्त का माल़ तोड़ने के अवसर मिले, तो और अधिक मज़े आए।  

गणतंत्र दिवस पर वरिष्ठ नागरिक केंद्र पर फुरसतियों के देश प्रेम गीत और कविता पाठ सुन कर हमारे मन भी देश के प्रति जज़्बा उड़ान भरने लगा। नाश्ते की प्लेट में बूंदी का लड्डू, गर्म कचोरी और प्लेट में बचे हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए आलू के तले हुए चिप्स सब के स्थान पर उपलब्ध करवाए गए थे।

वहां उपस्थित करीब चालीस व्यक्तियों की औसत आयु पचहत्तर से भी अधिक थी। क्या इस प्रकार का भोजन उनके स्वास्थ्य की लिए उचित है?

इसके स्थान पर भुने चने, गजक या केला इत्यादि भी दिया जाना बेहतर होता, क्योंकि वहां उपस्थित सभी वयोवृद्ध श्रेणी से थे।

कुछ लोगों ने कचौरी नहीं खाई तो कुछ ने शक्कर रोग के कारण लड्डू प्लेट में त्याग दिया। इससे अच्छा होता खाली प्लेट भी रख दी जाती और सब को बता दिया जाता कि, जिससे किसी को कुछ सेवन नहीं करना है, तो उसको खाली प्लेट में रख देवें। अतिरिक्त आइटम हमारे जैसे पेटू लोगों को भी दिया जा सकता था।  

विगत दिन एक अन्य “स्वास्थ्य कार्यशाला” में भी बंद डिब्बों में करीब छः सौ लोगों को भोजन दिया गया। आयोजन कर्ता लोगों के लिए अत्यंत कठिन कार्य होता है, यदि “गिद्ध प्रणाली” के अंतर्गत भोजन परोसा जाये तो हमारे जैसे मुफ्त की मलाई खाने वाले नकली पनीर की सब्ज़ी का डोंगा ही उठा लेते हैं । गर्म पूरी/ रोटी के लिए अपने ही लोगों को कुचल कर पूरियों से प्लेट में रखे हुए हलवे के पहाड़ तक तो ढांक देते हैं।  

यदि सदियों पुरानी पंगत व्यवस्था के अंतर्गत आयोजन किया जाए तो बैठने के स्थान की उपलब्धता आड़े आती हैं। वैसे जहां बैठने का स्थान उपलब्ध है, तो जरूरत से अधिक भोजन कर चुके मेहमान को उठाने के लिए अलग से दो मज़दूर लगाने पड़ते हैं। कुछ आयोजन कर्ता चेन-पुली यंत्र से भी पंगत में बैठे मेहमान को उठवाने की व्यवस्था करवाते हैं।  

बाज़ार से डिब्बा बंद भोजन प्रणाली में बहुत सारे आइटम सभी को दे दिए जाते हैं, नापसंद और जरूरत से अधिक खाद्य पदार्थ कचरे में चले जाते हैं।  

मिठाई प्रेमी तो एक टुकड़े मिठाई के लिए अतिरिक्त डिब्बा लेकर अपनी जुबां की मांग पूर्ति तो कर देते हैं, लेकिन जानते हुए भी डिब्बे का अन्य खाद्य व्यर्थ कचरा पात्र में डाल कर अपने आप को सफाई का ब्रांड एंबेसडर मान लेते हैं।

अब विराम देता हूं, फोन की घंटी बज रही, अवश्य ही भोजन के आमंत्रण के लिए होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 225 – देह से हूँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 225 ☆ देह से हूँ ?

समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?

इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का  प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।

मंथन और विवेचन यहीं से आरंभ होते हैं।  स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है।  विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।

मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु (संन्यासी के अर्थ में) होना अपवाद है, असाधु रहना परंपरा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।

एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।

समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।

जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो  स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।

इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।

प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर  स्वयं को  देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 265 ⇒ जाति और राजनीति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जाति और राजनीति।)

?अभी अभी # 265 ⇒ जाति और राजनीति… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो जाति कहीं आती जाती नहीं, लेकिन यह जहां भी होती है, इसके आसपास राजनीति को आसानी से देखा जा सकता है। जो राज करने की नीति को प्रभावित करे, उसे जाति कहते हैं।

अगर जाति का मूल वर्ण में है, तो राजनीति का मूल जाति में।

जात न पूछो साधु की, हरि को भजे सो हरि का होय।

यही हाल राजनीति का भी है। राजनीति में भी किसी की जाति नहीं पूछी जाती। राजनीति में एक वर्ग कार्यकर्ता का होता है, जिसकी उपयोगिता ही उसकी जाति होती है। जब भी सामाजिक एकता और वर्ग चेतना का जिक्र होगा, राजनीति में उसके योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता।।

लोकतंत्र में मूल रूप से एक आम आदमी को दो ही वर्गों में बांटा जा सकता है, अमीर और गरीब। कोई कितना अमीर है और कौन कितना गरीब, यह उसकी आमदनी पर निर्भर करता है। ईश्वर ने भी शायद दो ही जात बनाई होगी, अमीर जात और गरीब जात। लेकिन आखिर वर्ण व्यवस्था भी तो कोई चीज है। बताओ तुम कौन जात।

राजा अपनी प्रजा में भेदभाव नहीं कर सकता। ईश्वर भी पहले गरीब और दुखी की ही सुनता है। जो जितना वंचित और शोषित है, वह उतना ही अधिक सुविधा का पात्र है। जब अगलों, पिछड़ों से बात नहीं बनती, तो उन्हें भी विशेष वर्ग में बांटा जाता है। जरा देश की जनसंख्या और वंचित और शोषित का अनुपात देखिए।।

अगर पिछड़ों में भी सिर्फ ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्ग की चर्चा करें, तो भारत की जनसंख्या में इनका अनुपात 40 % से कम नहीं। इनके उत्थान के लिए सरकारें सदा प्रयासरत रही हैं। वास्तव में इनका ऊपर उठना ही देश का ऊपर उठना है।

जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर, जब तक यह वर्ग समाज के अन्य वर्ग से कंधे से कंधा मिलाकर आगे नहीं बढ़ेगा, हमारा विकास अधूरा ही रहेगा। अमीर गरीब और गांव और शहर के बीच बढ़ती खाई को आखिर कभी ना कभी तो कम से कमतर करते हुए पाटना पड़ेगा।।

अब तो अयोध्या में प्रभु श्री राम भी बिराज गए। तुलसी के राम तो वही धनुष बाण वाले वनवासी राम हैं, और उनकी अयोध्या में तो राम जी की पादुका ही सिंहासन पर विराजमान है और सेवक भ्राता भरत महाराज अपनी कुटिया से ही रामकाज और राजकाज को समर्पित है। जाति की राजनीति तो प्रजा ने देख की, अब त्याग और समर्पण की राजनीति भी राम जी की कृपा से देखने को मिलेगी। केवट, निषाद सहित सभी वनवासी बड़े हर्षित हैं। आखिर शबरी के प्रभु श्री राम जो अयोध्या पधारे हैं ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 264 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश।)

?अभी अभी # 264 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय विनोद, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।

लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।

तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।

तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।

गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।

हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।

कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।

होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।

सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं। चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।

और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #216 ☆ यह भी गुज़र जाएगा… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 216 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए;  सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है।  इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने  और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 263 ⇒ चांदी जैसे बाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चांदी जैसे बाल।)

?अभी अभी # 263 ⇒ चांदी जैसे बाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहले पंकज उधास की इस ग़ज़ल पर गौर कीजिए ;

चांदी जैसा रूप है तेरा

सोने जैसे बाल।

एक तू ही धनवान है गौरी

बाकी सब कंगाल।।

यह कोई शायर है या बनिया, जो केवल अपनी प्रेयसी में सिर्फ सोना चांदी ही ढूंढता फिर रहा है। अरे भाई चांदी जैसा रूप तो फिर भी ठीक है, लेकिन सोने जैसे बाल, यह कौन सी उपमा है। रेशमी जुल्फ तो फिर भी ठीक है। वैसे आम पुरुषोचित पसंद तो काले लंबे लहराते बाल ही होती है। ऐसी चांदी सोने वाली धनवान टकसाल किसी पेशेवर जौहरी की ही हो सकती है, हम आप जैसे सादगी पसंद पारखी निगाहों की नहीं।

रूप की छोड़िए, लेकिन बाल तो काले और सफेद ही होते हैं। वैसे तो सफेद बाल में भी कोई बुराई नहीं, लेकिन न जाने क्यों, लोगों को काले बालों में जवानी नजर आती है। केश श्रृंगार पर केवल महिलाओं का ही नहीं, पुरुषों का भी बराबरी का अधिकार है। क्या कोई बताएगा, पहले ब्यूटी पार्लर आए अथवा पहले केश कर्तनालय।।

मैं बालों में सिर्फ तेल लगाता हूं, नवरत्न तेल को छोड़कर कोई सा भी, क्योंकि वह बहुत ठंडा और महंगा होता है। शैंपू, मेंहदी और हेयर डाई से मैं कोसों दूर हूं। अतः मेरे सर में जितने भी बाल हैं, वे गोरे अधिक और काले कम हैं। एक समय था, जब मैं सर में सफेद बाल ढूंढा करता था, आजकल मुझे काले बालों की तलाश है।

आज भी जब मैं चांदी जैसे सफेद घने बालों वाले सीनियर सिटीजन्स को देखता हूं, तो मुझे उनके व्यक्तित्व में वह आभा नजर आती है, जो जवानी में नदारद थी। सफेद बाल नियति है, इससे आप कब तक बच सकते हैं। लेकिन हां, अगर आपके सर पर ही चांद है, वहां फिर चांदनी को कौन पूछेगा।।

यानी कहीं चांदी तो कहीं चांद ! चांद की भी सभी कलाएं आप पुरुष के सर पर देख सकते हैं। कहीं यह मस्तक से शुरू होती है तो कहीं ठीक सहस्रार से।

सहस्रार को बोलचाल की भाषा में टक्कल भी कहते हैं। इसी टक्कल से टकला शब्द भी बना है। अफसोस, टकले और गंजे के अलावा इन चांद से मुखड़ों वालों के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं। फिर भी लोग इन्हें भाग्यशाली मानते हैं। चिंतक, विचारक, संत महात्मा और साहित्यकारों की तो छोड़िए, आजकल गंजा रहना भी युवाओं का फैशन हो गया है। जब फसल ही कम हो, तो उससे तो सफाचट मैदान ही क्या बुरा है।

सेमि लिटरेट की तरह मैं आधा गंजा और आधा सफेद बालों वाला हूं, यानी आज भी मेरे सर में सफेद और काले बालों की खेती

होती है। कुछ जमीन यकीनन बंजर है, लेकिन वह दूर से नजर नहीं आती। वैसे मुझे बालों से कोई विशेष प्रेम नहीं है, फिर भी मेरी यही मंशा है कि मेरे सभी बाल चांदी जैसे हो जाएं। खिचड़ी बाल अथवा उड़ते बाल को आखिर कोई तो मंजिल मिले।।

जितने बाल हैं, उन्हें ही संवारना है, रोज सुबह आईने में बाल बनाते वक्त निहारना है। जब तक बाल हैं, केश कर्तनालय भी जाना है। सोचता हूं, कोई ऐसा हेयर डाई तलाश लूं, जो जल्द सभी बाल सफेद कर दे, इसके पहले कि सर में कैंची चलाने लायक बाल भी ना बचे।

कुछ पुरानी प्रसिद्ध अभिनेत्रियों को आज देखता हूं, तो बड़ी तसल्ली होती है। इश्क और उम्र, छुपाए नहीं छुपती, फिर इन उड़ते और सफेद बालों की इतनी चिंता क्यूं। सुना है, अधिक चिंता से बाल ही नहीं उड़ते, उम्र से पहले ही बुढ़ापा भी आ धमकता है। पचहत्तर प्लस के बाद वैसे भी माइनस कुछ नहीं बचता। या तो चांदी जैसे बाल, या पूरा चांद, सब कुछ कुबूल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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